सूरदास जी किसकी भक्ति करते थे? - sooradaas jee kisakee bhakti karate the?

भक्ति धारा के महान कवि सूरदास की जन्म तिथि और जन्मस्थान को लेकर साहित्यकारों में काफी मतभेद है. फिर भी ग्रंथों से प्राप्त साक्ष्यों के आधार पर माना जाता है कि महाकवि सूरदास का जन्म साल 1535 में वैशाख शुक्ल पंचमी को रुनकता नामक गांव में हुआ था. यह गांव मथुरा-आगरा मार्ग के किनारे स्थित है. उनके पिता का नाम रामदास था. वह भी एक गीतकार थे. कहा जाता है कि सूरदास जन्मांध थे, पर इसका भी कोई प्रमाणिक साक्ष्य नहीं मिलता.

भगवद भक्ति में लीन रहने वाले सूरदास ने अपने को पूरी तरह से कृष्ण भक्ति में समर्पित कर दिया था. मान्यता है कि कृष्णभक्ति के चलते उन्होंने महज 6 साल की उम्र में अपने पिता की आज्ञा लेकर घर छोड़ दिया था. इसके बाद से ही वे युमना तट के गौउघाट पर रहने लगे. कहते हैं जब वह भगवान कृष्ण की लीला भूमि वृन्दावन धाम की यात्रा पर निकले तो उनकी मुलाकात बल्लभाचार्य से हुई.

महाकवि सूरदास ने बल्लभाचार्य से ही भक्ति की दीक्षा प्राप्त की. सूरदास और उनके गुरु वल्लभाचार्य के बारे में रोचक तथ्य यह भी है कि गुरु - शिष्य की आयु में महज 10 दिन का अंतर था. कुछ विद्वान गुरु बल्लभाचार्य का जन्म 1534 में वैशाख् कृष्ण एकादशी को को मानते हैं, इसीलिए कई सूरदास का जन्म भी 1534 की वैशाख शुक्ल पंचमी को मानते हैं.

कहते हैं, गुरु बल्लभाचार्य, अपने शिष्य सूरदास को अपने साथ गोवर्धन पर्वत मंदिर पर ले जाते थे, जहां वे श्रीनाथ जी की सेवा करते थे, और हर दिन नए पद बनाकर इकतारे के माध्यम से उसका गायन करते थे. बल्लभाचार्य ने ही सूरदास को 'भागवत लीला' का गुणगान करने की सलाह दी. इससे पहले वह केवल दैन्य भाव से विनय के पद रचा करते थे.

सूरदास की कृष्ण भक्ति के बारे में कई कथाएं प्रचलित हैं. एक कथा के मुताबिक, एक बार सूरदास कृष्ण की भक्ति में इतने डूब गए थे कि वे एक कुंए जा गिरे, जिसके बाद भगवान कृष्ण ने खुद उनकी जान बचाई और उनके अंतःकरण में दर्शन भी दिए. कहा तो यहां तक जाता है कि जब कृष्ण ने सूरदास की जान बचाई तो उनकी नेत्र ज्योति लौटा दी थी. इस तरह सूरदास ने इस संसार में सबसे पहले अपने आराध्य, प्रिय कृष्ण को ही देखा था.

कहते हैं कृष्ण ने सूरदास की भक्ति से प्रसन्न होकर जब उनसे वरदान मांगने को कहा, तो सूरदास ने कहा कि मुझे सब कुछ मिल चुका है, आप फिर से मुझे अंधा कर दें. वह कृष्ण के अलावा अन्य किसी को देखना नहीं चाहते थे.

महाकवि सूरदास के भक्तिमय गीत हर किसी को मोहित करते हैं. उनकी पद-रचना और गान-विद्या की ख्याति दूर-दूर तक फैली हुई थी. साहित्यिक हलकों में इस बात का जिक्र किया जाता है कि अकबर के नौ रत्नों में से एक संगीतकार तानसेन ने सम्राट अकबर और महाकवि सूरदास की मथुरा में मुलाकात भी करवाई थी.

सूरदास की रचनाओं में कृष्ण के प्रति अटूट प्रेम और भक्ति का वर्णन मिलता है. इन रचनाओं में वात्सल्य रस, शांत रस, और श्रंगार रस शामिल है. सूरदास ने अपनी कल्पना के माध्यम से कृष्ण के अदभुत बाल्य स्वरूप, उनके सुंदर रुप, उनकी दिव्यता वर्णन किया है. इसके अलावा सूरदास ने उनकी लीलाओं का भी वर्णन किया है.

सूरदास की रचनाओं में इतनी सजीवता है, जैसे लगता है उन्होंने समूची कृष्ण लीला अपनी आंखों से देखी हो. महाकवि सूरदास द्वारा लिखित 5 ग्रंथों में सूर सागर, सूर सारावली और साहित्य लहरी, नल-दमयन्ती और ब्याहलो शामिल हैं. सूरसागर उनका सबसे मशहूर ग्रंथ है. इस ग्रंथ में सूरदास ने श्री कृष्ण की लीलाओं का बखूबी वर्णन किया है. इस ग्रंथ में सवा लाख पदों का संग्रह होने की बात कही जाती हैं, लेकिन अब केवल सात से आठ हजार पद ही बचे हैं. सूरसागर की 1656 से लेकर 19वीं शताब्दी के बीच तक सिर्फ 100 प्रतियां ही मिल पाई हैं. सूरसागर के 12 अध्यायों में से 11 संक्षिप्त रूप में और 10वां स्कन्ध काफी विस्तार से मिलता है.

सूरसारावली भी सूरदास का एक प्रमुख ग्रंथ है. इसमें कुल 1107 छंद हैं. कहते हैं कि सूरदास जी ने इस ग्रंथ की रचना 67 साल की उम्र में की थी. यह पूरा ग्रंथ एक 'वृहद् होली' गीत के रूप में रचा गया था. इस ग्रंथ में भी कृष्ण के प्रति उनका अलौकिक प्रेम दिखता है. साहित्यलहरी भी सूरदास का अन्य प्रसिद्ध काव्य ग्रंथ है.

साहित्यलहरी 118 पदों की एक लघुरचना है. इस ग्रंथ की खास बात यह है कि इसके आखिरी पद में सूरदास ने अपने वंशवृक्ष के बारे में बताया है, जिसके अनुसार सूरदास का नाम 'सूरजदास' है और वह चंदबरदाई के वंशज हैं. सूरदास जी का यह ग्रंथ श्रृंगार रस की कोटि में आता है. नल-दमयन्ती सूरदास की कृष्ण भक्ति से अलग एक महाभारतकालीन नल और दमयन्ती की कहानी है, तो ब्याहलो सूरदास भी एक अन्य मशहूर ग्रन्थ हैं. कहा जाता है कि सूरदास 100 वर्ष से अधिक उम्र तक जीवित रहे.

सूरदास हिन्दी के भक्तिकाल के महान कवि थे। हिन्दी साहित्य में भगवान श्रीकृष्ण के अनन्य उपासक और ब्रजभाषा के श्रेष्ठ कवि महात्मा सूरदास हिंदी साहित्य के सूर्य माने जाते हैं। सूरदास जन्म से अंधे थे या नहीं, इस संबंध में विद्वानों में मतभेद है। [1]

महाकवि श्री सूरदास का जन्म 1478 ई में रुनकता क्षेत्र में हुआ। यह गाँव मथुरा-आगरा मार्ग के किनारे स्थित है। कुछ विद्वानों का मत है कि सूरदास का जन्म दिल्ली के पास सीही [2] नामक स्थान पर एक निर्धन सारस्वत ब्राह्मण परिवार में हुआ था। वह बहुत विद्वान थे, उनकी लोग आज भी चर्चा करते हैं। वे मथुरा के बीच गऊघाट पर आकर रहने लगे थे। सूरदास के पिता, रामदास बैरागी[3] प्रसिद्ध गायक थे। सूरदास के जन्मांध होने के विषय में अनेक भ्रान्तिया है, प्रारंभ में सूरदास आगरा के समीप गऊघाट पर रहते थे। वहीं उनकी भेंट श्री वल्लभाचार्य से हुई और वे उनके शिष्य बन गए। वल्लभाचार्य ने उनको पुष्टिमार्ग में दीक्षित कर के कृष्णलीला के पद गाने का आदेश दिया। सूरदास की मृत्यु गोवर्धन के निकट पारसौली ग्राम में 1583 ईस्वी में हुई [4]

सूरदास की जन्मतिथि एवं जन्मस्थान के विषय में मतभेद[संपादित करें]

सूरदास की जन्मतिथि एवं जन्मस्थान के विषय में विद्वानों में मतभेद है। "साहित्य लहरी' सूर की लिखी रचना मानी जाती है। इसमें साहित्य लहरी के रचना-काल के सम्बन्ध में निम्न पद मिलता है -

मुनि पुनि के रस लेख।दसन गौरीनन्द को लिखि सुवल संवत् पेख॥

इसका अर्थ संवत् 1607 ईस्वी में माना गया है, अतएव "साहित्य लहरी' का रचना काल संवत् 1607 वि० है। इस ग्रन्थ से यह भी प्रमाण मिलता है कि सूर के गुरु श्री वल्लभाचार्य थे।

सूरदास का जन्म सं० 1540 ईस्वी के लगभग ठहरता है, क्योंकि वल्लभ सम्प्रदाय में ऐसी मान्यता है कि बल्लभाचार्य सूरदास से दस दिन बड़े थे और बल्लभाचार्य का जन्म उक्त संवत् की वैशाख् कृष्ण एकादशी को हुआ था। इसलिए सूरदास की जन्म-तिथि वैशाख शुक्ला पंचमी, संवत् 1535 वि० समीचीन जान पड़ती है। अनेक प्रमाणों के आधार पर उनका मृत्यु संवत् 1620 से 1648 ईस्वी के मध्य स्वीकार किया जाता है। रामचन्द्र शुक्ल जी के मतानुसार सूरदास का जन्म संवत् 1540 वि० के सन्निकट और मृत्यु संवत् 1620 ईस्वी के आसपास माना जाता है।

श्री गुरु बल्लभ तत्त्व सुनायो लीला भेद बतायो।

सूरदास की आयु "सूरसारावली' के अनुसार उस समय 67 वर्ष थी। 'चौरासी वैष्णवन की वार्ता' के आधार पर उनका जन्म रुनकता अथवा रेणु का क्षेत्र (वर्तमान जिला आगरान्तर्गत) में हुआ था। मथुरा और आगरा के बीच गऊघाट पर ये निवास करते थे। बल्लभाचार्य से इनकी भेंट वहीं पर हुई थी। "भावप्रकाश' में सूर का जन्म स्थान सीही नामक ग्राम बताया गया है। वे सारस्वत ब्राह्मण थे और जन्म के अंधे थे। "आइने अकबरी' में (संवत् 1653 ईस्वी) तथा "मुतखबुत-तवारीख" के अनुसार सूरदास को अकबर के दरबारी संगीतज्ञों में माना है।

अष्टछाप के कवि का नाम है[संपादित करें]

सूरदास श्रीनाथ की "संस्कृतवार्ता मणिपाला", श्री हरिराय कृत "भाव-प्रकाश", श्री गोकुलनाथ की "निजवार्ता" आदि ग्रंथों के आधार पर, जन्म के अन्धे माने गए हैं। लेकिन राधा-कृष्ण के रूप सौन्दर्य का सजीव चित्रण, नाना रंगों का वर्णन, सूक्ष्म पर्यवेक्षणशीलता आदि गुणों के कारण अधिकतर वर्तमान विद्वान सूर को जन्मान्ध स्वीकार नहीं करते।

श्यामसुन्दर दास ने इस सम्बन्ध में लिखा है - "सूर वास्तव में जन्मांध नहीं थे, क्योंकि शृंगार तथा रंग-रुपादि का जो वर्णन उन्होंने किया है वैसा कोई जन्मान्ध नहीं कर सकता।" डॉक्टर हजारीप्रसाद द्विवेदी ने लिखा है - "सूरसागर के कुछ पदों से यह ध्वनि अवश्य निकलती है कि सूरदास अपने को जन्म का अंधा और कर्म का अभागा कहते हैं, पर सब समय इसके अक्षरार्थ को ही प्रधान नहीं मानना चाहिए।"

सूरदास जी द्वारा लिखित पाँच ग्रन्थ बताए जाते हैं:

  • (1) सूरसागर - जो सूरदास की प्रसिद्ध रचना है। जिसमें सवा लाख पद संग्रहित थे। किंतु अब सात-आठ हजार पद ही मिलते हैं।
  • (2) सूरसारावली
  • (3) साहित्य-लहरी - जिसमें उनके कूट पद संकलित हैं।
  • (4) नल-दमयन्ती
  • (5) ब्याहलो

नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित हस्तलिखित पुस्तकों की विवरण तालिका में सूरदास के 16 ग्रंथों का उल्लेख है। इनमें सूरसागर, सूरसरावली, साहित्य लहरी, नल-दमयन्ती, ब्याहलो के अतिरिक्त दशमस्कंध टीका, नागलीला, भागवत्, गोवर्धन लीला, सूरपचीसी, सूरसागर सार, प्राणप्यारी, आदि ग्रंथ सम्मिलित हैं। इनमें प्रारम्भ के तीन ग्रंथ ही महत्त्वपूर्ण समझे जाते हैं, साहित्य लहरी की प्राप्त प्रति में बहुत प्रक्षिप्तांश जुड़े हुए हैं।

साहित्य लहरी, सूरसागर, सूर की सारावली।श्रीकृष्ण जी की बाल-छवि पर लेखनी अनुपम चली।।
  • सूरसागर का मुख्य वर्ण्य विषय श्री कृष्ण की लीलाओं का गान रहा है।
  • सूरसारावली में कवि ने जिन कृष्ण विषयक कथात्मक और सेवा परक पदों का गान किया उन्ही के सार रूप में उन्होंने सारावली की रचना की है।
  • सहित्यलहरी मैं सूर के दृष्टिकूट पद संकलित हैं।

सूरदास की काव्यगत विशेषताएँ[संपादित करें]

  • 1. सूरदास के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण के अनुग्रह से मनुष्य को सद्गति मिल सकती है। अटल भक्ति कर्मभेद, जातिभेद, ज्ञान, योग से श्रेष्ठ है।
  • 2. सूर ने वात्सल्य, श्रृंगार और शांत रसों को मुख्य रूप से अपनाया है। सूर ने अपनी कल्पना और प्रतिभा के सहारे कृष्ण के बाल्य-रूप का अति सुंदर, सरस, सजीव और मनोवैज्ञानिक वर्णन किया है। बालकों की चपलता, स्पर्धा, अभिलाषा, आकांक्षा का वर्णन करने में विश्व व्यापी बाल-स्वरूप का चित्रण किया है। बाल-कृष्ण की एक-एक चेष्टा के चित्रण में कवि ने कमाल की होशियारी एवं सूक्ष्म निरीक्षण का परिचय दिया है़-
मैया कबहिं बढैगी चौटी?किती बार मोहिं दूध पियत भई, यह अजहूँ है छोटी।

सूर के कृष्ण प्रेम और माधुर्य प्रतिमूर्ति है। जिसकी अभिव्यक्ति बड़ी ही स्वाभाविक और सजीव रूप में हुई है।

  • 3. जो कोमलकांत पदावली, भावानुकूल शब्द-चयन, सार्थक अलंकार-योजना, धारावाही प्रवाह, संगीतात्मकता एवं सजीवता सूर की भाषा में है, उसे देखकर तो यही कहना पड़ता है कि सूर ने ही सर्व प्रथम ब्रजभाषा को साहित्यिक रूप दिया है।
  • 4. सूर ने भक्ति के साथ श्रृंगार को जोड़कर उसके संयोग-वियोग पक्षों का जैसा वर्णन किया है, वैसा अन्यत्र दुर्लभ है।
  • 5. सूर ने विनय के पद भी रचे हैं, जिसमें उनकी दास्य-भावना कहीं-कहीं तुलसीदास से आगे बढ़ जाती है-
हमारे प्रभु औगुन चित न धरौ।समदरसी है मान तुम्हारौ, सोई पार करौ।
  • 6. सूर ने स्थान-स्थान पर कूट पद भी लिखे हैं।
  • 7. प्रेम के स्वच्छ और मार्जित रूप का चित्रण भारतीय साहित्य में किसी और कवि ने नहीं किया है यह सूरदास की अपनी विशेषता है। वियोग के समय राधिका का जो चित्र सूरदास ने चित्रित किया है, वह इस प्रेम के योग्य है
  • 8. सूर ने यशोदा आदि के शील, गुण आदि का सुंदर चित्रण किया है।
  • 9. सूर का भ्रमरगीत वियोग-शृंगार का ही उत्कृष्ट ग्रंथ नहीं है, उसमें सगुण और निर्गुण का भी विवेचन हुआ है। इसमें विशेषकर उद्धव-गोपी संवादों में हास्य-व्यंग्य के अच्छे छींटें भी मिलते हैं।
  • 10. सूर काव्य में प्रकृति-सौंदर्य का सूक्ष्म और सजीव वर्णन मिलता है।
  • 11. सूर की कविता में पुराने आख्यानों और कथनों का उल्लेख बहुत स्थानों में मिलता है।
  • 12. सूर के गेय पदों में ह्रृदयस्थ भावों की बड़ी सुंदर व्यजना हुई है। उनके कृष्ण-लीला संबंधी पदों में सूर के भक्त और कवि ह्रृदय की सुंदर झाँकी मिलती है।
  • 13. सूर का काव्य भाव-पक्ष की दृष्टि से ही महान नहीं है, कला-पक्ष की दृष्टि से भी वह उतना ही महत्वपूर्ण है। सूर की भाषा सरल, स्वाभाविक तथा वाग्वैदिग्धपूर्ण है। अलंकार-योजना की दृष्टि से भी उनका कला-पक्ष सबल है। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने सूर की कवित्व-शक्ति के बारे में लिखा है-
सूरदास जब अपने प्रिय विषय का वर्णन शुरू करते हैं तो मानो अलंकार-शास्त्र हाथ जोड़कर उनके पीछे-पीछे दौड़ा करता है। उपमाओं की बाढ़ आ जाती है, रूपकों की वर्षा होने लगती है।

इस प्रकार हम देखते हैं कि सूरदास हिंदी साहित्य के महाकवि हैं, क्योंकि उन्होंने न केवल भाव और भाषा की दृष्टि से साहित्य को सुसज्जित किया, वरन् कृष्ण-काव्य की विशिष्ट परंपरा को भी जन्म दिया।

सूरदास जी ने किसकी भक्ति की?

सूरदास हिन्दी के भक्तिकाल के महान कवि थे। हिन्दी साहित्य में भगवान श्रीकृष्ण के अनन्य उपासक और ब्रजभाषा के श्रेष्ठ कवि महात्मा सूरदास हिंदी साहित्य के सूर्य माने जाते हैं।

सूरदास की कृष्ण भक्ति क्या है?

श्री राधाकृष्ण के अनन्य अनुरागी भक्त सूरदास जी बड़े ही प्रेमी और त्यागी भक्त थे। इनकी मानस पूजा सिद्ध थी। श्री कृष्ण लीलाओं का सुंदर और सरस वर्णन करने में ये अद्वितीय थे। गुरु की आज्ञा से इन्होंने श्रीमद्भागवत की कथा की पदों में रचना की।

सूरदास ने किसकी उपासना की है?

कवि होने से पहले सूरदास श्रीकृष्ण के अनन्य भक्त हैं। यही कारण है कि गोसाईं विट्ठलनाथ ने इन्हें अष्टछाप के भक्तों में सबसे ऊँचा स्थान दिया था। सूरदास की भक्ति पुष्टिमार्गीय भक्ति है, जो वल्लभाचार्य द्वारा प्रतिपादित शुद्धाद्वैत दर्शन पर आधारित है।

तुलसीदास और सूरदास की भक्ति में क्या अंतर है?

तुलसीदास की रचना, रामचरितमानस, उनकी भक्ति की अभिव्यक्ति और साहित्यिक कृति दोनों के रूप में महत्वपूर्ण है। यह अवधी में लिखा गया था। सूरदास कृष्ण के भक्त थे। सुरसागर, सुरसरावली और साहित्य लहरी में संकलित उनकी रचनाएँ उनकी भक्ति को व्यक्त करती हैं।