पय पान कराने पर भी कौन विष का त्याग नहीं करता - pay paan karaane par bhee kaun vish ka tyaag nahin karata

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MP Board Class 12th Hindi Swati Solutions पद्य Chapter 4 नीति-काव्य

नीति-काव्य अभ्यास

नीति-काव्य अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
कबीर ने किसकी संगति करने के लिए कहा है? (2009, 14)
उत्तर:
कबीर ने साधु पुरुष की संगति करने को कहा है। सत्पुरुषों की संगति करने से सन्मार्ग पर चलने लगते हैं जिससे लोक-परलोक सुधरते हैं।

प्रश्न 2.
नाव में पानी भर जाने पर सयानों का क्या कर्त्तव्य है? (2015)
उत्तर:
नाव में पानी भर जाने पर सयानों का काम यह है कि उस पानी को बाहर निकालें और अपनी नाव को डूबने से बचाएँ।

प्रश्न 3.
कबीर के अनुसार शरीर रूपी घड़े की विशेषता बताइए। (2016)
उत्तर:
कबीर के अनुसार मानव शरीर मिट्टी के कच्चे घड़े के समान है.जो पानी पडने से टूट जाएगा और हाथ में कुछ भी नहीं बचेगा।’

प्रश्न 4.
बुरे आदमी द्वारा बुराई त्याग देने का खरे व्यक्तियों पर क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तर:
बुरे व्यक्ति द्वारा बुराई त्याग देने पर भी खरे व्यक्तियों को उस पर उत्पात करने की शंका बनी रहती है।

प्रश्न 5.
बड़प्पन प्राप्त करने के लिए केवल नाम ही काफी नहीं है। यह बात बिहारी ने किस उदाहरण के द्वारा कही है?
उत्तर:
बिहारी धतूरे का उदाहरण देते हुए कहते हैं कि बड़प्पन प्राप्त करने के लिए केवल नाम ही काफी नहीं है अपितु गुण भी आवश्यक हैं। वे कहते हैं कि धतूरे को ‘कनक’ (सोना) भी कहा जाता है, किन्तु उससे गहना नहीं गढ़ा जा सकता है।

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नीति-काव्य लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
मिट्टी कुम्हार को क्या सीख देती है?
उत्तर:
मिट्टी कुम्हार को यह सीख देती है कि आज तू मुझे पैरों के नीचे रौंद कर प्रसन्न हो रहा है। कल वह समय आयेगा जब मैं तुझे अपने नीचे रौंदूंगी। कहने का तात्पर्य है कि मृत्यु के बाद मनुष्य का मिट्टी का चोला मिट्टी में ही मिल जाता है।

प्रश्न 2.
कबीर ने शब्द की क्या महिमा बताई है? (2009, 12, 17)
उत्तर:
कबीर ने कहा है कि संसार में शब्द की बड़ी महिमा है। शब्द को सावधानी के साथ मुँह से बाहर निकालना चाहिए। यद्यपि शब्द के हाथ-पैर नहीं होते, लेकिन एक तरफ तो मधुर शब्द औषधि का काम करता है और दूसरी ओर असावधानी से बोला गया कठोर शब्द श्रोता के शरीर में घाव कर देता है।

प्रश्न 3.
एक ही वस्तु किसी को सुन्दर और किसी को कुरूप क्यों नजर आती है? (2009, 11, 13)
उत्तर:
बिहारी के अनुसार कोई चीज सुन्दर या असुन्दर नहीं है। हमारे मन की जितनी चाहत जिस वस्तु या इन्सान की तरफ होगी वह उतना ही सुन्दर दिखाई देगा। मन की भावना ही किसी चीज को सुन्दर या असुन्दर बनाकर दिखा देती है। कहते हैं-‘जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि’।

प्रश्न 4.
संपत्ति रूपी जल के निरन्तर बढ़ने से मनुष्य पर क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तर:
सम्पत्ति रूपी जल के निरन्तर बढ़ने से वही खतरा रहता है,जो एक नाव में जल के बढ़ जाने से रहता है। नाव में यदि पानी भरने लगे तो वह पानी उसे डबा देता है। अतः नाव में बैठने वाले लोगों का कर्तव्य है कि उस पानी को बाहर निकालें। ठीक इसी प्रकार घर में बढ़ती हुई सम्पत्ति को दान आदि परोपकारी कार्यों में खर्च करना चाहिए ताकि हम नष्ट होने के संकट से बचे रहें।

प्रश्न 5.
क्षणिक आदर प्राप्त कर आत्म प्रशंसारत व्यक्तियों का अंत क्या होता है?
उत्तर:
क्षणिक आदर प्राप्त कर आत्म प्रशंसारत व्यक्ति थोड़े समय के लिए तो प्रसन्न हो जाते हैं परन्तु कुछ समय के बाद उनकी प्रसन्नता गायब हो जाती है, क्योंकि समाज में उनका आदर समाप्त हो जाता है। श्राद्ध पक्ष में कौए को सादर बुला-बुलाकर भोजन कराया जाता है, लेकिन श्राद्ध पक्ष के बाद उसे कोई नहीं पूछता। यही हालत आत्म प्रशंसारत व्यक्ति की होती है, क्योंकि उसकी पूछ भी थोड़े समय के लिए ही होती है।

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नीति-काव्य दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
कबीर कुसंग के दुष्प्रभाव को किन-किन उदाहरणों से स्पष्ट करते हैं? लिखिए।
उत्तर:
कुसंग का दुष्प्रभाव मनुष्य पर अवश्य पड़ता है और उसे सुमार्ग से हटाकर कुमार्ग पर ले जाता है। कुसंग में एक अजीब आकर्षण होता है जो मनुष्य को अपनी ओर खींच लेता है। लोभ, मोह, कुसंग का साथ देते हैं और काम न करके धन-मान प्राप्त करने की महत्वाकांक्षा नए लोगों को अपने जाल में फंसाती है। कबीरदास जी ने बताया है कि कुसंग उस पत्थर के समान है जो उस पर बैठने वाले को पानी में डुबो देता है,क्योंकि पत्थर स्वयं भी तैरने के गुण से रहित है। इसी प्रकार, कुसंग मनुष्य को संसार रूपी सागर में डुबो देता है। एक सुस्पष्ट और उत्कृष्ट उदाहरण कविवर कबीर स्वाति नक्षत्र की बूंद का देते हैं जो सुसंग यानी सीप से मिलकर मोती बन जाती है,केले पर गिरकर कपूर बन जाती है और वही निर्मल बूंद कुसंग यानो साँप के मुँह में गिरती है तो विष बन जाती है। किसी का संग करने से पूर्व पानी की वह बूंद निर्मल और पवित्र थी, लेकिन जैसा साथ उसको मिला तदानुसार वह परिवर्तित हो गई। इसीलिए साधु-सज्जन कहते हैं कि संसार में संग का प्रभाव ही मनुष्य की उन्नति और अवनति का कारण होता है। अतः मनुष्य को सावधानीपूर्वक कुसंग से बचना चाहिए।

प्रश्न 2.
देहधारी होने के कौन-कौन से गुण हैं?
उत्तर:
एक समय देव, दानव और मानव अपने पिता ब्रह्मा के पास गए और उनसे प्रार्थना की कि वे उपदेश दें। ब्रह्माजी ने उन तीनों से एक ही अक्षर ‘द’ कहा। फिर उन्होंने तीनों से ‘द’ का अभिप्राय पूछा। देव ने कहा ‘द’ का तात्पर्य है ‘दमन करना’ यानी अपनी इन्द्रियों का दमन करना। बलवान असुर बोला कि ‘द’ का तात्पर्य है ‘दया करना’ फिर अपनी बारी आने पर मनुष्य ने कहा- ‘द’ का अभिप्राय है ‘दान करना’,सुनकर पिता बोले- ‘साधु ! साधु !’ इससे स्पष्ट है कि देहधारी मनुष्य को दान और परोपकार करना चाहिए। यदि धन नहीं है तो शरीर और मन से दुःखी लोगों की सहायता करें। दधीच मुनि ने अपना शरीर देकर उसकी हड्डियाँ इन्द्र को दान की थीं।

संसार में मानव का शरीर ही ऐसा साधन है जिससे हम दीन-दुखियों को दान दे सकते हैं और अन्य प्रकार से उसका उपकार कर सकते हैं। गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है-“देह धरे कर यह फलु भाई। भजिय राम सब काम बिहाई।” उनका तात्पर्य अपना कर्त्तव्य छोड़ कर भजन करने से नहीं है। उनका कहना है कि फालतू काम छोड़कर निरन्तर ईश्वर का भजन करिए तभी देह धारण करना सार्थक है। यही देह ऐसी है जिससे हम ईश्वर स्मरण करते हुए परोपकारी जीवन व्यतीत कर सकते हैं। ईश्वर, धर्म और मानव के लिए किया गया कोई भी शुभ कार्य दान की श्रेणी में ही आएगा। भूखे को अन्न देना, वस्त्रहीन को वस्त्र देना, बीमार को दवाइयाँ देना, संकट में किसी की रक्षा करना आदि यह सभी उत्तम दान हैं।

प्रश्न 3.
‘नदिया जल कोयला भई’ से कबीर का क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
वैसे नदी में न तो आग लगती है न ही वह जलकर कोयला ही बनती है। यहाँ कबीर ने गूढ़ रहस्यवाद को लिया है कि शरीर से जब प्राण निकल जाते हैं तो उसे निस्सार समझ कर जला दिया जाता है। आत्मा अजर और अमर है, लेकिन उसका आधार शरीर है। बिना शरीर के आत्मा संसार में न तो रह सकती है, न ही कुछ काम कर सकती है। जिस प्रकार नदी में जल से ही उसका जीवन है उसी प्रकार आत्मा से ही शरीर में जीवन है, कार्य शक्ति है। आत्मा के शरीर से निकल जाने पर शरीर को जला दिया जाता है।

प्रश्न 4.
नर और नल नीर की तुलना कर बिहारी क्या कहना चाहते हैं?
उत्तर:
नर और नल नीर की तुलना के माध्यम से कविवर बिहारी लाल यह कहना चाहते हैं कि जिस प्रकार पानी का जल जितना नीचा होकर चलेगा उतना ही ऊँचा पानी फेक सकता है, उसी प्रकार जितना नम्र होकर मनुष्य चलेगा उतना ही ऊँचा स्थान वह प्राप्त करेगा। संसार में जो महान् होता है वही नम्रता का व्यवहार करता है। कठोर बोलने वाले को लोग नीच ही कहते हैं। नम्रता मनुष्य का वह आभूषण है जो उसकी महानता में चार चाँद लगा देता है। अतः मनुष्य को अपनी बोली में मधुरता और आचरण में नम्रता लानी चाहिए। ये दोनों गुण उसे उन्नति के शिखर तक ले जाते हैं। वृक्ष पर लगे हुए पके फल भी नीचे की ओर झुक जाते हैं ताकि लोग उन्हें तोड़ लें। नम्रता एक श्रेष्ठ गुण है जो महानता की पराकाष्ठा तक जाता है।

प्रश्न 5.
‘सभी समानता में ही शोभा पाते हैं।’ बिहारी ने किन उदाहरणों से इस कथन की पुष्टि की है?
उत्तर:
सभी वस्तुएँ समानता में या उचित स्थान पर ही शोभा पाती हैं। गलत स्थान पर रख देने से उस वस्तु की सुन्दरता नष्ट हो जाती है। समान आयु,समान स्तर,समान वैभव,समान बल और समान सौन्दर्य वाले व्यक्ति ही साथ-साथ बैठे हुए शोभा पाते हैं। बिहारी ने कहा है कि अंजन नेत्रों में शोभा पाता है और पान की लाली होठों पर ही शोभा पाती है। इस उदाहरण के द्वारा बिहारी ने यह बताया है कि समान स्तर और समान गुणों वाली वस्तुएँ ही साथ-साथ होने पर शोभा पाती हैं। असमान व्यक्तित्व वाले लोग समाज में एक स्थान पर बैठे हुए शोभा नहीं पाते। एक बलवान व्यक्ति के पास निर्बल व्यक्ति बिठा दें या सुन्दर व्यक्ति के पास असुन्दर व्यक्ति बिठा दें तो देखने वालों को अच्छा नहीं लगेगा। असमान वस्तुओं को हमारे नेत्र पहचान लेते हैं और उन्हें उतना सम्मान नहीं देते जितना समान वस्तुओं को मिलने पर देते हैं।

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प्रश्न 6.
निम्नलिखित पद्यांशों की संदर्भ सहित व्याख्या कीजिए
(i) तिल समान तो………….अठारह हाथ।
(ii) को कहि सकै बड़ेन………. फूल।
(iii) मरतु प्यास पिंजरा…………की बेर।
(iv) अति अगाधु अति………..जाकी प्यास बुझाइ।
उत्तर:
(i) संदर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
यहाँ कबीरदास जी रहस्यवाद की ओर आकर्षित हुए हैं और आत्मा को परमात्मा से जोड़ना चाहते हैं।

व्याख्या :
कबीरदास जी उल्टी बात कहते हुए बताते हैं कि हृदय में जीवन रूपी नदी सूख गई है। ज्ञान रूपी समुद्र में विषय,मोह-माया की आग लग गई है और मछली रूपी आत्मा,शरीर से निकल गई है। हे कबीर ! अब तो उठ और जाग।

संसार में माया रूपी गाय बड़ी सूक्ष्म है ओर उसकी उत्पत्ति (बछड़ा) बहुत विशाल है। माया रूपी गाय से मटकी भर-भर कर दूध दुह लिया यानि अपनी सभी इच्छाओं की पूर्ति कर ली। उसकी कामना रूपी पूँछ अठारह हाथ (बहुत लम्बी) की है। माया बड़ी सूक्ष्म है, लेकिन उसका संसार विशाल है, जो असत्य होते हुए भी सत्य का भान कराता है और हमारी अनेक सांसारिक इच्छाओं की पूर्ति करता है। फिर भी हमारी तृष्णा (इच्छा) शेष रह जाती है।

(ii) संदर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
यहाँ कवि ने यह स्पष्ट किया है कि बड़े लोगों की बड़ी भूल देखकर भी कोई कुछ नहीं कहता।

व्याख्या :
कविवर बिहारीलाल कहते हैं बड़ों से उनकी बड़ी भूल को देखकर भी कोई कुछ नहीं कहता। ईश्वर ने इतने सुन्दर गुलाब के फूलों की डाल पर काँटे लगा दिए हैं। अर्थात् काँटे और गुलाब का क्या संग है।

(iii) संदर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
यहाँ समय के फेर के बारे में बताया है।

व्याख्या :
कविवर बिहारी कहते हैं कि संसार में समय का ही महत्व अधिक है। कवि उदाहरण देते हुए कहते हैं कि असमय के चलते तोता पिंजड़े में प्यासा मरता रहता है और दूसरी ओर कौए का सुसमय चल रहा है कि कनागतों के समय उसे आदर देकर बुलाते हैं और खाना खिलाते हैं। यह अच्छे और बुरे समय की बात है।

(iv) संदर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
प्रस्तुत पंक्तियों में कवि अनेक प्रतीकों के माध्यम से इस तथ्य को स्पष्ट करता है जहाँ जिसकी आवश्यकता पूर्ण हो जाती है उसके लिए वही व्यक्ति महान है।

व्याख्या :
कवि कहता है कि नदी, कुआँ, सरोवर या बावड़ी चाहे गहरी हो या उथली जो भी जिसकी प्यास बुझा देता है तो उस तृषित के लिए तो वही सागर के समान है। कहने का तात्पर्य है कि संसार में जो कोई किसी की आवश्यकता की पूर्ति कर देता है उसके लिए वही महान् व्यक्तित्व है।

नीति-काव्य काव्य सौन्दर्य

प्रश्न 1.
निम्नलिखित शब्दों के विलोम रूप लिखिए
कुसंग, अज्ञ, अभ्यस्त,उदात्त।
उत्तर:

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प्रश्न 2.
निम्नलिखित तद्भव शब्दों को तत्सम में बदलिए
पाथर, औगुन, सनमानु, मच्छी, काग।
उत्तर:

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प्रश्न 3.
निम्नलिखित छंदों की मात्राएँ गिनकर छंद की पहचान कीजिए
(1) समै समै सुन्दर सबै, रूप कुरूप न कोय।
मन की रुचि जेती जिते, तिन तेती रुचि होय।।
उत्तर:
दोहा चार चरण का मात्रिक छन्द है। इसके प्रत्येक पंक्ति में 24 मात्राएँ होती हैं। पहले एवं तीसरे चरणों में 13-13 मात्राएँ होती हैं और दूसरे एवं चौथे चरणों में 11-11 मात्राएँ होती हैं दूसरे एवं चौथे चरण के अन्त में लघु होता है।

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(2) को कहि सकै बड़ेन सौं, लखें बड़ी यै भूल।
दीने दई गुलाब की, उनि डारनि वे फूल ।।
उत्तर:

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कविवर बिहारीलाल कहते हैं बड़ों से उनकी बड़ी भूल को देखकर भी कोई कुछ नहीं कहता। ईश्वर ने इतने सुन्दर गुलाब के फूलों की डाल पर काँटे लगा दिए हैं। अर्थात् काँटे और गुलाब का क्या संग है।

प्रश्न 4.
बिहारी के दोहों में से माधुर्य गुणयुक्त दोहे छाँटकर लिखिए।
उत्तर:
समै समै सुन्दर सबै, रूप कुरूप न कोय।
मन की रुचि जेती जिते,तिन तेती रुचि होय॥
सोहतु संगु समान सौं, यहै कहै सबु लोगु।
पान-पीक ओठनु बनै, काजर नैननु जोगु ॥

प्रश्न 5.
निम्नलिखित पंक्तियों में प्रयुक्त अलंकार छाँटकर लिखिए
अति अगाधु अति औधरौ, नदी, कूप, सरु बाइ।
सो ताको, सागरु जहाँ जाकी, प्यासु बुझाइ।
उत्तर:
प्रस्तुत दोहे में प्रथम पंक्ति में अनुप्रास अलंकार है और नदी,कूप,सरु,बावड़ी की उपमा सागर से दी गई है अतः यहाँ उपमा अलंकार है।

प्रश्न 6.
‘कबीर की साखियों में उलटबाँसियों का प्रयोग हुआ है’ इस कथन की पुष्टि हेतु उदाहरण दीजिए।
उत्तर:
उदाहरण देखिए-
नदिया जल कोयला भई, समुन्दर लागी आग।
मच्छी बिरछा चढ़ि गई, उठ कबीरा जाग॥
तिल समान तो गाय है,बछड़ा नौ-नौ हाथ।
मटकी भरि-भरि दुहि लिया,पूँछ अठारह हाथ॥

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प्रश्न 7.
यमक तथा श्लेष अलंकारों के उदाहरण लिखिए।
उत्तर:
(i) यमक
कनक कनक ते सौ गुनी मादकता अधिकाइ।
बा खाए बोराइ जग, बा पाये बौराइ ॥

(ii) श्लेष
चिरजीवौ जोरी जुरै क्यों न सनेह गम्भीर।
को घटि ये वृष भानुजा ने हलधर के वीर ॥

प्रश्न 8.
व्याज स्तुति तथा व्याज निन्दा अलंकार में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
व्याज स्तुति-जब कथन में देखने और सुनने पर निन्दा-सी जान पड़े, किन्तु वास्तव में प्रशंसा हो,वहाँ व्याजस्तुति अलंकार होता है। जैसे-
गंगा क्यों टेड़ी चलती हो, दुष्टों को शिव कर देती हो।

व्याज निन्दा-जहाँ कथन में स्तुति का आभास हो,किन्तु वास्तव में निन्दा हो, वहाँ व्याज निन्दा अलंकार होता है। जैसे-
राम साधु, तुम साधु सुजाना। राम मातु भलि मैं पहिचाना।

अमृतवाणी भाव सारांश

‘अमृतवाणी’ नामक कविता के रचयिता ‘कबीरदास हैं। इसमें कवि ने संगति, उपदेश, विचार,वाणी और विपर्यय का वर्णन बड़े ही सहज और अनूठे ढंग से किया है।

कबीर के काव्य में अनेक स्थलों पर नीतिपरक कथन सहजता से मिल जाते हैं। नीति कथनों का सीधा सम्बन्ध जीवनानुभवों से है। कबीर के पास गहरे जीवन अनुभक थे। इसी कारण उनके नीति कथन मार्मिक बन पड़े हैं। कबीर ने अपने दोहों में सत्संगति, शिक्षा और उपदेश के महत्व को प्रतिपादित किया है। विभिन्न उपमाओं के माध्यम से सत्संग और कुसंग के भेद को कबीर ने गहराई से प्रदर्शित किया है। ‘विचार’ के अन्तर्गत उन्होंने परिस्थितियों के परिवर्तन की ओर संकेत किया है। शक्तिशाली को कभी भी अपनी शक्ति का अभिमान नहीं करना चाहिए। ‘वाणी’ के अन्तर्गत कबीर ने वाणी संयम को जीवन की उपलब्धि माना है। उनकी ‘उलटवासियाँ’ भी जीवन के रहस्यमय अनुभवों को व्यक्त करती हैं।

अमृतवाणी संदर्भ-प्रसंग सहित व्याख्या

(1) संगति
कबिरा संगति साधु की, जो करि जाने कोय।
सकल बिरछ चन्दन भये, बाँस न चन्दन होय॥
कबीर कुसंग न कीजिए, पाथर जल न तिराय।
कदली सीप भुजंग मुख, एक बूंद तिर भाय ।। (2013)

शब्दार्थ :
संगति = साथ; साधु = सज्जन; करि = करे; कोय = कोई व्यक्ति; सकल = सभी; बिरछ = वृक्ष; कुसंग = बुरे लोगों का साथ; पाथर = पत्थर; तिराय = तैरता है; कदली = केला; भुजंग = सर्प।

संदर्भ :
प्रस्तुत साखी कविवर कबीरदास की ‘अमृतवाणी’ नामक साखियों से उद्धृत की गई हैं।

प्रसंग :
इन साखियों में कबीर ने सत्संग की महिमा और कुसंग की बुराई का वर्णन उदाहरण देकर किया है।

व्याख्या :
सन्त कबीर कहते हैं जो व्यक्ति सत्संगति के महत्व को समझता है वही उसका लाभ उठा पाता है। जैसे वन में चन्दन की सुगन्ध प्राप्त कर आस-पास के वृक्ष सुगन्धित होकर चन्दन की सदृश्यता को प्राप्त कर लेते हैं, लेकिन बाँस अपने स्वभाव के कारण उसकी सुगन्ध ग्रहण नहीं कर पाता और सूखा बाँस ही रहता है। इसी प्रकार,साधु के गुणों को वे ही लोग ग्रहण करेंगे जो उसके पास रहते हों और प्रेम करते हों और जो साधु से द्वेष करते हैं, वे साधु के गुणों को ग्रहण करने के अधिकारी भी नहीं बन पाते। कबीर अपनी दूसरी साखी में कहते हैं कि मनुष्य को संसार में कुसंग से बचना चाहिए।

कुसंग उस पत्थर के समान है जो स्वयं तो पानी (संसार) में डूबता ही है और बैठने वाले को भी डुबो देता है अर्थात् नष्ट कर देता है। संसार में जैसा संग करोगे वैसा ही फल मिलेगा। सुन्दर प्रतीकों को माध्यम से कितनी मधुर व सरल भाषा में कबीर समझाते हैं कि स्वाति नक्षत्र की बूंद तो एक है लेकिन वह केले के ऊपर गिरती है तो कपूर बन जाती है,सीपी के मुँह में गिरती है तो मोती बन जाती है और वही बूंद यदि सर्प के मुंह में गिरती है तो विष बन जाती है। अर्थात् सम्पर्क के गुण के साथ समाहित होकर तीन प्रकार का फल प्राप्त करती है।

काव्य सौन्दर्य :

  1. सत्संग के लाभ और कुसंग की हानि बड़े सरल,सुन्दर ढंग से दृष्टान्त के माध्यम से समझाई हैं।
  2. भाषा-सधुक्कड़ी परन्तु सरल।
  3. रस-शान्त।
  4. छन्द-दोहा।
  5. अलंकार-अनुप्रास, दृष्टान्त।

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(2) उपदेश
देह धरे का गुन यही, देह देह कछु देह।
बहुरि न देही पाइये, अबकी देह सुदेह।।
जो जल बाढ़े नाव में, घर में बाढ़े दाम।
दोऊ हाथ उलीचिये, यही सयानो काम॥

शब्दार्थ :
देह = शरीर; देह = देना; बहुरि = आगे फिर; सुदेह = अच्छा शरीर (मानव चोला)।

संदर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
यहाँ कबीरदास जी शरीर के जन्म लेने का श्रेय दान करना बताते हैं। दूसरी साखी में कबीर ने बताया है कि घर में सम्पत्ति के बढ़ जाने पर खूब दान करना चाहिए।

व्याख्या :
कबीरदास जी परमार्थ की बात कहते हैं कि हे मनुष्य ! तुझे मानव का श्रेष्ठ शरीर प्राप्त हुआ है इसलिए इसको धारण करने का फल यही है कि इस देह से जितना दान कर सके उतना दान कर ले। इस शरीर के शान्त (मृत्यु) हो जाने पर फिर यह शरीर मिलेगा यह निश्चित नहीं। यही शरीर (मानव शरीर) सर्वश्रेष्ठ हैं जिसमें कर्म करने की शक्ति और विचार करने के लिए बुद्धि है। अतः इस सुदेह से (उत्तम शरीर) से ही दान कर ले पता नहीं फिर तुझे दान करने का अवसर प्राप्त हो या न हो।

कबीर कहते हैं कि घर में यदि धन अधिक बढ़ जाय तो मनुष्य को उसे दान करना चाहिए या सत्कर्म में लगाना चाहिए। उदाहरण देते हए कबीर मनुष्य को सचेत करते हैं कि जिस प्रकार नाव में पानी भर जाने पर उसे दोनों हाथों से बाहर निकाल देना चाहिए ताकि नाव डूबने से बची रहे,उसी प्रकार,घर में बढ़ा हुआ धन सत्कर्म व दान में खर्च नहीं किया तो वह अपने साथ-साथ धन के स्वामी को भी ले डूबता है अर्थात् नष्ट कर देता है।

काव्य सौन्दर्य :

  1. इस साखी में दान की श्रेष्ठता को उजागर किया है।
  2. भाषा सधुक्कड़ी होते हुए भी मधुर और उपदेशपरक है।
  3. अनुप्रास,पुनरुक्तिप्रकाश, दृष्टान्त अलंकार।

(3) विचार
माटी कहे कुम्हार से, क्या तू रौदै मोहि।
एक दिन ऐसा होयगा, मैं रौंदोंगी तोहि।।
यह तन काँचा कुंभ है, लिये फिरै थे साथ।
टपका लागा फुटि गया, कछू न आया हाथ।। (2011, 12)

शब्दार्थ :
माटी = मिट्टी; कुम्हार = जो मिट्टी के बर्तन बनाता है; रौदे = पैरों के नीचे कुचलना; तन = शरीर; काँचा = कच्चा; कुंभ = घड़ा; टपका – पानी की बूंदें; फुटि = टूट गया; कछू = कुछ भी।

संदर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
प्रस्तुत पंक्तियों में कबीरदास जी ने संसार और शरीर की नश्वरता पर अपने विचार प्रस्तुत किए हैं। मनुष्य का शरीर क्षणभंगुर है।

व्याख्या :
कबीरदास जी कुम्हार को संकेत करते हुए अपना विचार प्रस्तुत करते हैं कि मिट्टी कुम्हार से कहती है कि हे कुम्हार ! तू इस समय मुझे अपने पैरों के नीचे डाल कर रौंद रहा है,लेकिन एक दिन ऐसा आएगा जब मैं तुझे रौंदूंगी। शरीर की मृत्यु हो जाने पर यह शरीर पाँच तत्वों में मिल जाता है। कहने में यही आता है कि मिट्टी का शरीर मिट्टी में मिल गया।

कबीरदास जी कहते हैं कि यह शरीर कच्चे घड़े के समान है जिसे हम साथ-साथ लिए चलते हैं। वर्षा के जल के पड़ने से यह गीला होकर टूट जायेगा और हमारे हाथ कुछ भी नहीं रहेगा। शरीर के अर्थ में मृत्यु रूपी वर्षा इसको तोड़ देगी फिर इस निस्सार शरीर का संकेतमात्र भी हमारे पास नहीं बचेगा। अतः मनुष्य को इस नाशवान शरीर का अभिमान न करते हुए हरि स्मरण करके और दान करके इसे सार्थक बनाना चाहिए।

काव्य सौन्दर्य :

  1. जन साधारण की भाषा लेकिन सरल और मधुर।
  2. उपमा एवं अनुप्रास अलंकार की छटा।
  3. शान्त रस।

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(4) वाणी
शब्द सम्हारे बोलिए, शब्द के हाथ न पाँव।
एक शब्द औषधि करे, एक शब्द करे घाव॥
जिभ्या जिन बस में करी-तिन बस कियो जहान।
नहिं तो औगुन उपजै, कहि सब सन्त सुजान।।

शब्दार्थ :
शब्द = बोली; सम्हारे = सावधानी से; औषधि = दवा का काम करता है; घाव = घायल कर देता है; जिभ्या = जीभ; बस = नियन्त्रण में; तिन = उनने; जहान = संसार; औगुन = बुराई; सुजान = सज्जन।

संदर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
यहाँ कवि वाणी के महत्व को प्रतिपादित करते हैं।

व्याख्या :
कबीरदास जी कहते हैं कि अपने मुख से शब्द सावधानी से निकालना चाहिए। इसके हाथ पैर तो होते नहीं हैं पर वह हम लोगों से ही अपने अनुरूप कार्य सिद्ध करा लेता है। एक शब्द तो मधुरता लिए हुए होता है जो औषधि का कार्य करता है और दूसरा शब्द कठोरता लिए होता है जो सुनने वाले के शरीर में घाव कर देता है।

कबीरदास जी पुनः स्पष्ट करते हैं कि जिन लोगों ने अपनी जिह्वा को वश में कर लिया है उन्होंने संसार को ही वश में कर लिया है। यदि जिह्वा किसी के वश में नहीं है तो वह अनेक बुराइयों को जन्म देती है। ऐसा सभी साधुजन कहते हैं। कहने का तात्पर्य है कि मीठी बोली से संसार अपना बन जाता है और कर्कश वाणी से शत्रुता, द्वेष और घृणा के भाव जाग्रत होते हैं।

काव्य सौन्दर्य :

  1. भाषा सधुक्कड़ी है परन्तु सधी हुई और नीतिपरक है।
  2. अनुप्रास अलंकार।
  3. छन्द-दोहा।
  4. शान्त रस।

(5) विपर्यय (उलटबाँसियाँ)
नदिया जल कोयला भई, समुन्दर लागी आग।
मच्छी बिरछा चढ़ि गई, उठ कबीरा जाग।
तिल समान तो गाय है, बछड़ा नौ-नौ हाथ।
मटकी भरि भरि दुहि लिया, पूँछ अठारह हाथ॥

शब्दार्थ :
नदिया = नदी; जल = जलकर; समुन्दर = समुद्र; मच्छी = मछली; बिरछा = वृक्ष; मटकी = मटका; दुहि = दूध दुहना।

संदर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
यहाँ कबीरदास जी रहस्यवाद की ओर आकर्षित हुए हैं और आत्मा को परमात्मा से जोड़ना चाहते हैं।

व्याख्या :
कबीरदास जी उल्टी बात कहते हुए बताते हैं कि हृदय में जीवन रूपी नदी सूख गई है। ज्ञान रूपी समुद्र में विषय,मोह-माया की आग लग गई है और मछली रूपी आत्मा,शरीर से निकल गई है। हे कबीर ! अब तो उठ और जाग।

संसार में माया रूपी गाय बड़ी सूक्ष्म है ओर उसकी उत्पत्ति (बछड़ा) बहुत विशाल है। माया रूपी गाय से मटकी भर-भर कर दूध दुह लिया यानि अपनी सभी इच्छाओं की पूर्ति कर ली। उसकी कामना रूपी पूँछ अठारह हाथ (बहुत लम्बी) की है। माया बड़ी सूक्ष्म है, लेकिन उसका संसार विशाल है, जो असत्य होते हुए भी सत्य का भान कराता है और हमारी अनेक सांसारिक इच्छाओं की पूर्ति करता है। फिर भी हमारी तृष्णा (इच्छा) शेष रह जाती है।

काव्य सौन्दर्य :

  1. भाषा सधुक्कड़ी है।
  2. उलटबाँसियाँ सुन्दर कथ्य हैं।
  3. पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार।
  4. प्रतीकों का सुन्दर प्रयोग है।

पय पान कराने पर भी कौन विष का त्याग नहीं करता - pay paan karaane par bhee kaun vish ka tyaag nahin karata

दोहे भाव सारांश

संकलित ‘दोहे’ कविवर ‘बिहारी लाल’ ने लिखे हैं। इनमें नीतिपरक बातें बड़े ही सरल और मार्मिक शब्दों में बताई गई हैं।

बिहारी सतसई’ के नीतिपरक दोहों ने जीवन व्यवहार के अनेक पक्ष रखे हैं। संकलित दोहों में सुन्दरता की सापेक्षता को ही स्वीकार किया है। समय के फेर से सज्जन भी विपत्ति में पड़ जाते हैं और दुर्जनों को सम्मान मिलने लगता है, अपने गुणों से ही व्यक्ति महान् बनता है। मनुष्य की विनम्रता ही उसे बड़ा बनाती है। समान संग होने पर ही शोभा बढ़ती है। बड़ों की भूल-भूल नहीं मानी जाती। धन बढ़ने पर संयम रखना चाहिए। यदि दुर्जन अपनी दुर्जनता छोड़ देता है तो उसे अनिष्ट की आशंका बढ़ जाती है। अवसर मिलने पर थोड़े समय तक ही सम्मान मिल सकता है। जिस जल से व्यक्ति की प्यास बुझती है, उसके लिए वही महत्वपूर्ण होता है। इन्हीं नीति के सिद्धान्तों को बिहारी ने अनेक रूपकों और उत्प्रेक्षाओं के माध्यम से व्यक्त किया है।