सऊदी अरब में कौन सा धर्म रहता है? - saoodee arab mein kaun sa dharm rahata hai?

संभावना है कि 2050 तक आयरलैंड, बेल्जियम, इटली, ग्रीस, थाइलैंड, पाकिस्तान और सऊदी अरब में बाकी समुदायों की तुलना में हिंदू धर्म के लोगों की संख्या सबसे तेजी से बढ़ेगी। सोशल मीडिया साइट रेडिट के एक...

सऊदी अरब में कौन सा धर्म रहता है? - saoodee arab mein kaun sa dharm rahata hai?

लाइव हिन्दुस्तान टीमTue, 16 Jun 2015 04:33 PM

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संभावना है कि 2050 तक आयरलैंड, बेल्जियम, इटली, ग्रीस, थाइलैंड, पाकिस्तान और सऊदी अरब में बाकी समुदायों की तुलना में हिंदू धर्म के लोगों की संख्या सबसे तेजी से बढ़ेगी। सोशल मीडिया साइट रेडिट के एक यूजर कलिक्वाड ने हालिया विश्लेषण में यह दावा किया है।

रेडिट यूजर ने दो अप्रैल को जारी प्यू की रिपोर्ट 'द फ्यूचर ऑफ वर्ल्ड रीलिजन' का विश्लेषण किया। इसमें उन्होंने देखा कि भविष्य में किस देश में कौन सा धर्म सबसे तेजी से बढ़ेगा और फिर इसे नक्शे में तब्दील कर दिया गया।

सोशल मीडिया पर एक एनिमेटेड वीडियो का वीडियो तेजी से वायरल हो रहा है इस के जरिए यूजर्स दावा कर रहे हैं कि यह वीडियो सऊदी अरब में बनने वाले पहले हिंदू मंदिर का है. क्या ये वाकई सच है देखिए इस रिपोर्ट में...

दुनिया भर के लाखों मुसलमान हज के लिए हर साल सऊदी अरब पहुंचते है. पांच दिनों तक चलने वाली यह हज यात्रा शुरू हो चुकी है.

सऊदी अरब के मक्का शहर में काबा को इस्लाम में सबसे पवित्र स्थल माना जाता है. इस्लाम का यह प्राचीन धार्मिक अनुष्ठान दुनिया के मुसलमानों के लिए काफ़ी अहम है.

इस्लाम के कुल पाँच स्तंभों में से हज पांचवां स्तंभ है. सभी स्वस्थ और आर्थिक रूप से सक्षम मुसलमानों से अपेक्षा होती है कि वो जीवन में एक बार हज पर ज़रूर जाएं.

दरअसल, इस्लाम के सभी अनुयायी ख़ुद को मुसलमान कहते हैं लेकिन इस्लामिक क़ानून (फ़िक़ह) और इस्लामिक इतिहास की अपनी-अपनी समझ के आधार पर मुसलमान कई पंथों या फ़िरक़ों में बंटे हैं. इन्हीं फ़िरक़ों में से एक हैं अहमदिया.

अहमदिया मुसलमानों की जो मान्यता है, उस वजह से दूसरे मुसलमान अहमदिया को मुसलमान नहीं मानते और सऊदी अरब ने उनके हज करने पर रोक लगा रखी है.

अगर वे हज करने के लिए मक्का पहुँचते हैं तो उनके गिरफ़्तार होने और डिपोर्ट होने का ख़तरा रहता है. बीबीसी की टीम एक ऐसे ही शख्स से मिली जिसने पिछले साल चोरी-छिपे हज यात्रा की.

बीबीसी को दिए इंटरव्यू में उन्होंने बताया, "हर समय आपके दिमाग़ में ये तो रहता ही है कि हज पर जाने में ख़तरा है. लेकिन जब आप हज के लिए जा रहे हैं तो ये भी खुशी होती है कि अल्लाह के लिए वहाँ जा रहे हैं. आप को अल्लाह का भी साथ मिलता है कि वो तो जानते हैं कि मैं मुसलमान हूँ."

ब्रिटेन की मैनचेस्टर स्थित दारुल उलूम मस्जिद के इमाम मोहम्मद कहते हैं, "कुछ देशों और संगठनों ने हमें ग़ैर मुसलमान घोषित किया है. ये उनकी राय है. इस वजह से ये थोड़ा पेचीदा हो जाता है. अहमदिया के लिए हज करना थोड़ा मुश्किल होता है. इसलिए जब वो हज के लिए जाते हैं तो ज़्यादा चौकन्ना रहते हैं."

इमाम मोहम्मद कहते हैं, "आम तौर पर लोग नहीं पूछते हैं कि आप किस फ़िरक़े से ताल्लुक रखते हैं. हम वहाँ किसी को परेशान नहीं करते, हम वहाँ की परिस्थितियां बदलने के लिए वहाँ नहीं जाते और किसी को नुकसान पहुँचाने का इरादा नहीं रखते."

इमाम का मानना है कि इन सबके बावजूद अहमदिया मुसलमानों को डिपोर्ट (उनके देश वापस भेजना) किया जाता है. इमाम कहते हैं, "जिस क्षण वे किसी अहमदिया मुसलमान को डिपोर्ट करने का फ़ैसला करते हैं, आप पाएंगे कि अहमदिया मुसलमान किसी तरह का विरोध नहीं करेंगे, क्योंकि हम भी देश का सम्मान करते हैं या उस देश का सम्मान करते हैं, जहाँ हम रहते हैं."

मैनचेस्टर की इस मस्जिद में आने वाले कई लोग उन लोगों के बारे में जानते हैं जो हज यात्रा पर जा चुके हैं. मैनचेस्टर मस्जिद में आने वाली एक महिला कहती हैं, "मैं कभी हज पर नहीं गई, लेकिन मैं जाना पसंद करूँगी. मेरी दिल से ये इच्छा है, क्योंकि मैं अल्लाह को मानती हूँ. मैं उस पूरे आध्यात्मिक अनुभव को हासिल करना चाहती हूँ, जिसे दुनियाभर के लोग पाने की इच्छा रखते हैं."

इसी मस्जिद में आने वाले एक और शख्स कहते हैं, "कभी-कभी लोगों को खुलेआम कुछ करने से रोका जाता है, लेकिन भावनाएं बढ़ती जाती हैं और आप पाएंगे कि अहमदिया मुसलमानों में हज जाने की इच्छा बहुत अधिक होती है."

हनफ़ी इस्लामिक क़ानून का पालन करने वाले मुसलमानों का एक समुदाय अपने आप को अहमदिया कहता है. इस समुदाय की स्थापना भारतीय पंजाब के क़ादियान में मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद ने की थी.

इस पंथ के अनुयायियों का मानना है कि मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद ख़ुद नबी का ही एक अवतार थे.

उनके मुताबिक़ वे खुद कोई नई शरीयत नहीं लाए बल्कि पैग़म्बर मोहम्मद की शरीयत का ही पालन कर रहे हैं लेकिन वे नबी का दर्जा रखते हैं. मुसलमानों के लगभग सभी संप्रदाय इस बात पर सहमत हैं कि मोहम्मद साहब के बाद अल्लाह की तरफ़ से दुनिया में भेजे गए दूतों का सिलसिला ख़त्म हो गया है.

लेकिन अहमदियों का मानना है कि मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद ऐसे धर्म सुधारक थे जो नबी का दर्जा रखते हैं.

बस इसी बात पर मतभेद इतने गंभीर हैं कि मुसलमानों का एक बड़ा वर्ग अहमदियों को मुसलमान ही नहीं मानता. हालांकि भारत, पाकिस्तान और ब्रिटेन में अहमदियों की अच्छी ख़ासी संख्या है. पाकिस्तान में तो आधिकारिक तौर पर अहमदियों को इस्लाम से ख़ारिज कर दिया गया है.

सऊदी अरब में 22 फ़रवरी को सऊदी अरब का स्थापना दिवस मनाया गया. असल में, यह साल 1727 में मोहम्मद बिन सऊद द्वारा पहले सऊदी राज्य की स्थापना का उत्सव है.

इस मौक़े पर कई देशों के राष्ट्राध्यक्षों ने बधाई संदेश जारी किए. इस आलेख में हम पढ़ेंगे कि सऊदी अरब की स्थापना कैसे और किन परिस्थितियों में हुई.

सऊदी अरब को मज़हब के लिहाज से इस्लामिक दुनिया का सबसे महत्वपूर्ण देश माना जाता है.

इस देश के संस्थापक वैसे तो शाह अब्दुल अज़ीज़ बिन अब्दुल रहमान अल सऊद हैं जिनका जन्म 15 जनवरी, 1877 को हुआ था. लेकिन इस राज्य की स्थापना के लिए संघर्ष 18वीं शताब्दी में शुरू हुआ था, जब 1725 में अल सऊद के मुखिया अमीर सऊद बिन मोहम्मद बिन मकरन का देहांत हुआ.

उस समय नजद में छोटे-छोटे राज्य थे और हर राज्य का अलग शासक होता था. अमीर सऊद बिन मोहम्मद के चार बेटे थे. उन्होंने संकल्प लिया था कि वो नजद में एक सऊदी राज्य स्थापित करेंगे.

अमीर सऊद बिन मोहम्मद के सबसे बड़े बेटे का नाम मोहम्मद बिन सऊद था. वह दिरियाह के शासक बने और उन्होंने शेख़ मोहम्मद बिन अब्दुल वहाब की मदद से दिरियाह में अपना शासन स्थापित किया और धीरे-धीरे इसे मज़बूत करना शुरू कर दिया.

शेख़ मोहम्मद बिन अब्दुल वहाब नजद के एक प्रसिद्ध विद्वान थे और मुसलमानों की मान्यताओं में सुधार करने की कोशिश में लगे हुए थे.

ऐतिहासिक संदर्भों में यह दावा किया जाता है कि मोहम्मद बिन सऊद और शेख़ मोहम्मद अब्दुल वहाब के बीच साल 1745 में एक ऐतिहासिक मुलाक़ात हुई थी जिसमें उन दोनों ने तय किया था कि अगर मोहम्मद बिन सऊद कभी नजद और हिजाज में अपनी सत्ता स्थापित करने में सफल हुए तो वहां शेख़ मोहम्मद बिन अब्दुल वहाब की मान्यताओं को लागू करेंगे.

साल 1765 में शहज़ादा मोहम्मद और 1791 में शेख़ मोहम्मद बिन अब्दुल वहाब की मृत्यु हो गई. उस समय तक अरब द्वीप के ज़्यादातर इलाक़े पर अल सऊद का शासन स्थापित हो गया था.

शहज़ादा मोहम्मद के बाद, इमाम अब्दुल अज़ीज़ क्षेत्र के शासक बने, लेकिन साल 1803 में उनकी हत्या कर दी गई. इमाम अब्दुल अज़ीज़ के बाद उनके बेटे सऊद शासक बने, और साल 1814 में उनकी मृत्यु हो गई.

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19वीं सदी में मक्का शहर से आने वाला एक कारवां

रियाद कब और कैसे राजधानी बना?

सऊद के बेटे अब्दुल्लाह एक महान धार्मिक विद्वान भी थे. उनके शासनकाल के दौरान उनके क्षेत्र का एक बड़ा हिस्सा उनके हाथों से निकल गया और दिरियाह ऑटोमन साम्राज्य के नियंत्रण में आ गया.

इमाम अब्दुल्लाह को बंदी बना लिया गया और उन्हें इस्तांबुल ले जाकर सज़ा-ए-मौत दे दी गई.

लेकिन जल्द ही उनके भाई मशारी बिन सऊद अपना राज्य वापस लेने में सफल हो गए, लेकिन वह लंबे समय तक शासन नहीं कर सके और उनका राज्य दोबारा ऑटोमन साम्राज्य के नियंत्रण में चला गया.

इसके बाद, उनके भतीजे शहज़ादा तुर्की बिन अब्दुल्लाह रियाद पर क़ब्ज़ा करने में सफल हुए. यहां उन्होंने साल 1824 से 1835 तक शासन किया.

अगले कई दशकों तक अल सऊद की क़िस्मत का सितारा उगता और डूबता रहा और द्वीप नुमा सऊदी अरब पर नियंत्रण के लिए मिस्र, ऑटोमन साम्राज्य और अन्य अरब क़बीलों में टकराव होता रहा. अल सऊद के एक शासक इमाम अब्दुल रहमान थे जो 1889 में बेअत (उनके प्रति निष्ठा की शपथ) लेने में सफल रहे.

इमाम अब्दुल रहमान के बेटे शहज़ादा अब्दुल अज़ीज़ एक साहसी व्यक्ति थे और साल 1900 में उन्होंने अपने पिता के जीवित रहते हुए ही, उनके खोए हुए साम्राज्य को वापस लेने और उसके विस्तार की कोशिशें शुरू कर दीं.

साल 1902 में उन्होंने रियाद शहर पर क़ब्ज़ा कर लिया और इसे अल सऊद की राजधानी घोषित कर दिया. अपनी विजय का सिलसिला जारी रखते हुए उन्होंने अल-एहसाई, क़ुतैफ़ और नजद के कई क्षेत्रों पर क़ब्ज़ा कर लिया.

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13 अक्टूबर, 1924 को शाह अब्दुल अज़ीज़ ने मक्का पर भी क़ब्ज़ा कर लिया

मक्का और मदीना पर क़ब्ज़ा

ऑटोमन साम्राज्य के आख़िरी दौर में हिजाज (जिसमें मक्का और मदीना के क्षेत्र शामिल थे) पर शरीफ़ मक्का हुसैन का शासन था जिन्होंने 5 जून, 1916 को तुर्की के ख़िलाफ़ विद्रोह की घोषणा कर दी. हुसैन को न केवल अरब के विभिन्न क़बीलों का बल्कि ब्रिटेन का भी समर्थन प्राप्त था. 7 जून, 1916 को, शरीफ़ मक्का हुसैन ने हिजाज की स्वतंत्रता की घोषणा कर दी.

21 जून को मक्का पर उनका क़ब्ज़ा पूरा हुआ और 29 अक्टूबर को उन्होंने औपचारिक रूप से ख़ुद को पूरे अरब का शासक घोषित कर दिया. साथ ही, उन्होंने सभी अरबों से कहा कि वो तुर्कों के ख़िलाफ़ युद्ध की घोषणा करें. 15 दिसंबर, 1916 को ब्रिटिश सरकार ने हुसैन को हिजाज के बादशाह के रूप में मान्यता देने की घोषणा कर दी.

इसी बीच, अमीर अब्दुल अज़ीज़ बिन अब्दुल रहमान अल सऊद ने पूर्वी अरब के एक बड़े हिस्से पर क़ब्ज़ा कर लिया और 26 दिसंबर, 1915 को ब्रिटेन के साथ दोस्ती का एक समझौता भी कर लिया. 5 सितंबर, 1924 को उन्होंने हिजाज को भी जीत लिया.

लोगों ने अमीर अब्दुल अज़ीज़ का साथ दिया और शरीफ़ मक्का शाह हुसैन ने सरकार से इस्तीफ़ा दे कर अपने बेटे अली को हिजाज का बादशाह बना दिया. लेकिन अमीर अब्दुल अज़ीज़ के बढ़ते क़दमों के कारण उन्हें भी अपना तख़्त छोड़ना पड़ा.

13 अक्टूबर, 1924 को शाह अब्दुल अज़ीज़ ने मक्का पर भी क़ब्ज़ा कर लिया. इस दौरान शाह अब्दुल अज़ीज़ लगातार आगे बढ़ रहे थे.

5 दिसंबर, 1925 को उन्होंने मदीना की सत्ता भी हासिल कर ली. 19 नवंबर, 1925 को शरीफ़ मक्का अली ने पूरी तरह से सत्ता छोड़ने की घोषणा की और इस तरह जेद्दा पर भी अल सऊद का क़ब्ज़ा हो गया. 8 जनवरी, 1926 को हिजाज के बादशाह अब्दुल अज़ीज़ बिन अब्दुल रहमान अल सऊद ने एक विशेष समारोह में नजद और हिजाज का पूरा नियंत्रण संभालने की घोषणा कर दी.

इतना तेल निकला कि वे विशेषज्ञ भी दंग रह गए

20 मई, 1927 को, ब्रिटेन ने क़ब्ज़े वाले सभी क्षेत्रों पर जो उस समय हिजाज और नजद कहलाते थे, अब्दुल अज़ीज़ बिन सऊद के शासन को मान्यता दी. 23 सितंबर, 1932 को शाह अब्दुल अज़ीज़ बिन सऊद ने हिजाज और नजद के साम्राज्य का नाम बदलकर 'अल-मुमालिकत-अल-अरबिया-अल-सऊदिया' (सऊदी अरब) करने की घोषणा कर दी.

शाह अब्दुल अज़ीज़ बिन अब्दुल रहमान अल सऊद ने जल्द ही अपने राज्य को इस्लामी रंग में ढाल दिया. दूसरी ओर, उनकी ख़ुश-क़िस्मती से सऊदी अरब में तेल भंडार होने का पता चला. साल 1933 में शाह अब्दुल अज़ीज़ ने कैलिफ़ोर्निया पेट्रोलियम कंपनी के साथ तेल निकालने का समझौता किया.

पहले कुछ वर्ष कोशिशों में बीत गए, लेकिन साल 1938 में जब कैलिफ़ोर्निया पेट्रोलियम कंपनी के विशेषज्ञ नाकाम होकर वापस लौटने ही वाले थे कि अचानक एक कुएं से ख़ज़ाना उबल पड़ा और इतना तेल निकला कि वे विशेषज्ञ भी दंग रह गए.

अब इतिहास के एक नए युग की शुरुआत हुई. यह घटना न केवल सऊदी शासकों और कैलिफ़ोर्नियाई कंपनी के लिए बल्कि पूरे अरब द्वीप के लिए एक चमत्कार थी. तेल की खोज ने सऊदी अरब को ज़बर्दस्त आर्थिक स्थिरता दी और वहां में ख़ुशहाली आ गई.

9 नवंबर, 1953 को शाह अब्दुल अज़ीज़ बिन अब्दुल रहमान अल सऊद का निधन हो गया.

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शाह अब्दुल अज़ीज़

अपने शासनकाल के दौरान शाह अब्दुल अज़ीज़ ने सऊदी अरब को दुनिया की एक महान शक्ति में बदल दिया, लेकिन धार्मिक लिहाज़ से कुछ ऐसे क़दम भी उठाए जिससे इस्लामी दुनिया के एक बड़े हिस्से में अशांति फैल गई.

उन्होंने अपने राज्य को शेख़ मोहम्मद बिन अब्दुल वहाब की मान्यताओं के अनुसार बनाया और बिदअत (जो चीज़ें इस्लाम में बाद में जोड़ी गई) को ख़त्म कर दिया. उनके समय में ही मदीना में इस्लामी दुनिया के मुक़द्दस क़ब्रिस्तान जन्नत-उल-बक़ी को भी तोड़ दिया गया था.

बक़ी उस जगह को कहते हैं जहां जंगली पेड़ पौधे बहुतायत में पाए जाते हैं और चूंकि इस क़ब्रिस्तान की जगह में पहले कंटीली झाड़ियां और कांटे ऊसज यानी ग़रक़द के पेड़ बहुत ज़्यादा थे, इसलिए इस क़ब्रिस्तान का नाम भी बक़ी (ग़रक़द) पड़ गया.

इस क़ब्रिस्तान में इस्लाम के पैगंबर के समय से मुसलमानों को दफ़नाने का सिलसिला शुरू हो गया था. इस क़ब्रिस्तान में दफ़नाए जाने वाले पहले सहाबी (पैगंबर-ए-इस्लाम के साथी) हज़रत उस्मान बिन मज़ऊन थे. उनके बाद इस क़ब्रिस्तान में हज़ारों लोगों को दफ़नाया गया.

शाह अब्दुल अज़ीज़ बिन अब्दुल रहमान अल सऊद ने जन्नत-अल-बक़ी में मौजूद सभी गुंबदों को ध्वस्त करने का आदेश दिया. ये घटना 21 अप्रैल 1926 की है. जन्नत-अल-बक़ी के विध्वंस पर इस्लामिक दुनिया ने कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त की.

इस समय, पूरे क़ब्रिस्तान को एक मैदान में बदल दिया गया है, हालांकि, मदीना जाने वाले तीर्थयात्री अभी भी जन्नत-अल-बक़ी के दर्शन ज़रूर करते हैं.

क्या सऊदी अरब में हिंदू रहते हैं?

2001 तक, सऊदी अरब में अनुमानित 1,500,000 भारतीय नागरिक थे, उनमें से अधिकतर मुस्लिम, लेकिन कुछ हिंदू थे। अन्य गैर-मुस्लिम धर्मों की तरह, हिंदुओं को सऊदी अरब में सार्वजनिक रूप से पूजा करने की अनुमति नहीं है। सऊदी अरब अधिकारियों द्वारा हिंदू धार्मिक वस्तुओं के विनाश की कुछ शिकायतें भी हुई हैं

सऊदी अरब में हिंदुओं की आबादी कितनी है?

सऊदी अरब में लगभग 4,50,000 से लेकर 5,00,000 तक हिन्दू है।

इस्लाम से पहले सऊदी अरब में धर्म क्या था?

उस समय के बहुत सारे अरब अल्लाह के साथ-साथ उसकी तीन बेटियों की भी पूजा करते थे। ये देवियां थीं: अल-लात, मनात और अल-उज्ज़ा। इन तीनों देवियों का मंदिर मक्का के आस-पास ही स्थित था और तीनों की काबा के भीतर भी पूजा होती थी। सारे अरब के लोग इन तीनों देवियों की पूजा करते थे।

सऊदी अरब में मजदूर की सैलरी कितनी है?

सऊदी अरब में मजदूर की सैलरी कितनी है सऊदी अरब में मजदूरों की salary लगभग 600 SAR से 700 SAR होती है जो की भारतीय रूपए में 13000 से 15000 हजार रूपए होती है. यह salary मजदूरों के काम पर भी निर्भर करती है इसलिए यह वेतन बढती और घटती रहती है. इसमें आपका पढ़ा लिखा होना जरुरी नहीं होता.