Haryana State Board HBSE 10th Class Home Science Solutions Chapter 3 खेल Textbook Exercise Questions and Answers. अति लघु उत्तरीय प्रश्न – प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5.
प्रश्न 5. प्रश्न 6. प्रश्न 7. प्रश्न 8.
प्रश्न 9. प्रश्न 10. प्रश्न 11. प्रश्न 12. लघ उत्तरीय प्रश्न – प्रश्न 1. प्रश्न 2.
प्रश्न 3. प्रश्न 4.
प्रश्न 5.
प्रश्न 6.
प्रश्न 7.
प्रश्न 8. प्रश्न 9. प्रश्न 10. प्रश्न 11. प्रश्न 12. दीर्घ उत्तरीय प्रश्न – प्रश्न 1. 2. खेल एक स्वतन्त्र क्रिया है – खेल में बच्चे बिल्कुल स्वतन्त्र होते हैं। बच्चा अपनी इच्छानुसार खेलता है। इस पर किसी तरह की बाहरी दबाव नहीं होता। ऐसा देखा जाता है कि बच्चे अपनी इच्छा से दिनभर उछलते-कूदते रहते हैं फिर भी थकते नहीं हैं, किन्तु उसी खेल के लिए उन्हें यदि बाहरी दबाव दिया जाए तो उन्हें तुरन्त थकावट आ जाती है जैसे बच्चे जब इच्छा से पढ़ने वाला खेल खेलते हैं तो दो-तीन घण्टे तक भी उस खेल में लगे रहने पर भी उन्हें थकावट नहीं आती, परन्तु जब उन्हें स्कूल का होम-वर्क करने को कहा जाता है या वे करते हैं, तो शीघ्र ही वे थकावट से घिर जाते हैं। अत: खेल में स्वतन्त्रता रहती है। यदि खेल में स्वतन्त्रता न रहे तो वह खेल, खेल न होकर काम हो जाता है। 3. खेल एक आत्म – प्रेरित क्रिया है-खेल व्यक्ति की इच्छा पर निर्भर करता है। इसमें किसी उद्देश्य प्राप्ति की इच्छा नहीं होती है। वह बिलकुल निरुद्देश्य होता है; जैसे-बच्चा जब खेल के मैदान में गेंद खेलने जाता है, तो उस समय उसका कोई उद्देश्य नहीं होता, बच्चा केवल आत्म-प्रेरित होकर ही गेंद खेलता है। ऐसे खेल को ही खेल कहेंगे। किन्तु जब बच्चे में यह भावना आ जाए कि खेल के मैदान में अपने प्रतियोगी को हराना है तो वह खेल-खेल नहीं रह जाता। इसमें उद्देश्य आ गया और कोई भी उद्देश्यपूर्ण कार्य खेल नहीं होता बल्कि कार्य हो जाता है। अत: वे सभी क्रियाएं खेल हैं जिन्हें बच्चे स्वतन्त्रतापूर्वक आत्म-प्रेरित होकर आनन्द प्राप्ति के लिए करते हैं। 4. खेल एक मानसिक प्रसन्नतादायिनी क्रिया है-बच्चे प्रायः जब भी खेलते हैं तो वे बड़े प्रसन्न होते हैं। प्राय: देखा गया है कि कुशाग्र बुद्धि एवं मानसिक रूप से स्वस्थ बालक खूब खेल खेलते हैं। वे प्रत्येक कार्य को खेल समझकर ही करते हैं। 5. खेल द्वारा सद्गुणों का विकास होता है-बच्चों की रुचि, चरित्र, ज़िम्मेदारी तथा मिल-जुलकर काम करने की भावना का विकास खेल के मैदान में ही होता है। जो बच्चा खेल के प्रति उदासीन रहता है, उसका मानसिक तथा शारीरिक स्वास्थ्य सन्तोषजनक नहीं होता। प्रश्न 1. (A) प्रश्न 2. 2. खेल परम्परा से प्रभावित होते हैं – यह देखा जाता है कि बालक अधिकतर वही खेल खेलते हैं जो उनके परिवार में खेले जाते हैं । शतरंज, ताश, क्रिकेट, बास्केटबॉल आदि खेल-कूद के विषय में यही देखा जाता है। 3. खेलों का निश्चित प्रतिमान होता है-बालक की आयु, सामाजिक-आर्थिक स्थिति, देश व वातावरण को देखकर हम यह अनुमान लगा सकते हैं कि बालक कौन-कौन से खेल खेलता होगा। आयु के अनुसार तीन महीने का बालक वस्तुओं को छू-छू कर खेल का अनुभव करता है। एक साल का बालक खिलौने से खेलना प्रारम्भ करता है। सात-आठ साल तक अधिकतर बच्चे खिलौना पसन्द करते हैं। जब बालक स्कूल जाता है तो खेल-कूद में भाग लेना प्रारम्भ कर देता है। दस साल के बाद अधिकतर बालक दिवास्वप्न देखने शुरू कर देते हैं। अब वह अपना अधिक समय खेल-कूद में न बिताकर कहानियां पढ़ने, अकेले में दिवास्वप्न देखने में व्यतीत करते हैं। 4. खेल की क्रियाएं आयु के साथ घटती हैं-जैसे-जैसे आयु बढ़ती जाती है, बालक की खेलों के प्रति रुचि घटती जाती है। 5. आयु वृद्धि के साथ-साथ बालक खेल का समय घटाता जाता है क्योंकि खेल के अलावा वह अपना समय अन्य कामों में व्यतीत करता है। 6. बड़े होने पर बालक की रुचि किसी एक विशेष खेल में हो जाती है और उसी में वह अपना समय व्यतीत करता है। 7. आयु के साथ-साथ खेल के साथियों की संख्या भी कम होती जाती है। 8. पाँच-छ: साल की आयु के बाद बालक अपने ही लिंग के बच्चों के साथ खेलना पसन्द करता है। 9. जन्म से छ: सात वर्ष की आयु तक बालक के खेल अनौपचारिक होते हैं। बाद में वह केवल औपचारिक खेल खेलना पसन्द करते हैं। 10. बड़े हो जाने पर बालक सिर्फ वही खेल खेलना अधिक पसन्द करते हैं जिनमें शारीरिक शक्ति कम खर्च होती है। 11. बालक खेल में जोखिम उठाते हैं। पेड़ों पर चढ़ना, साइकिल चलाना, तैरना आदि ऐसे ही खेल हैं। जोखिम भरे खेलों में बालकों को आनन्द आता है। 12. खेलों में आवृत्ति का अंश रहता है। बालक किसी खेल को बार-बार खेलना चाहता है। प्रश्न 3. उपर्युक्त खेलों के अतिरिक्त कार्लस ने खेलों को क्रमशः पाँच भागों में बांटा है –
हरलॉक के अनुसार, खेल को निम्नलिखित प्रकारों में बाँटा जा सकता है –
1. स्वप्रेरित खेल – प्रारम्भ में बालक जो खेल खेलता है वे स्वप्रेरित होते हैं। कुछ महीनों का बालक अपने हाथ-पैरों को हिला-डुलाकर खेलता है। तीन महीनों के बाद उसके हाथों में इतनी शक्ति आ जाती है कि वह खिलौनों से खेल सके। 2. कल्पनात्मक खेल – बालक के कल्पनात्मक अभिनय का विशिष्ट समय 11-2 वर्ष की अवस्था है। प्रमुख कल्पनात्मक खेलों में घर बनाना, उसे सजाना, भोजन बनाना और परोसना, माता-पिता के रूप में छोटे-बड़े बालकों का पालन-पोषण करना, वस्तुएं खरीदना तथा बेचना, मोटर-गाड़ी, नाव आदि की सवारी करना, पुलिस का अफसर बनकर चोरों को पकड़ने का अभिनय करना, शत्रु को जान से मार डालने तथा मरने का अभिनय करना, सैनिक खेल आदि आते हैं। 3. रचनात्मक खेल – वास्तविकता कम तथा कल्पना के अधिक अंश वाले बालकों में रचनात्मक खेलों की प्रवृत्ति नहीं मिलती। रचनात्मक खेलों में गीली मिट्टी तथा बालू से मकान बनाना, मनकों से माला बनाना, कागज़ को कैंची से काटकर अनेक वस्तुएं बनाना, बालिकाओं में गुड़िया बनाना, गुड़ियों के रंग-बिरंगे कपड़े सीना, रंगदार कागज़ से रंग-बिरंगे फूल बनाना आदि खेल आते हैं। 4. क्रीड़ाएं – बालक 4-5 वर्ष की आयु में अपने पास-पड़ोस के बालक-बालिकाओं के साथ अनेकों क्रीड़ाएं करता है, जैसे-आँख-मिचौली, राम-रावण, चोर-सिपाही आदि। प्रश्न 3A. प्रश्न 3B. प्रश्न 4. 1. खेल का सामाजिक महत्त्व – खेल के माध्यम से बालकों में पारस्परिक सम्पर्क स्थापित होता है तथा इस मधुर सम्पर्क के परिणामस्वरूप जातिगत भेद-भाव, ऊँच-नीच के विचार एवं आपसी संघर्षों की सम्भावना कम होने लगती है। खेल में सदैव ही सहयोग की आवश्यकता होती है। खेल के समय विकसित हुई सहयोग की यह भावना जीवन के अन्य क्षेत्रों में भी विकसित हो जाती है। इसके अतिरिक्त खेल के ही माध्यम से विभिन्न सद्गुणों का विकास होता है तथा बालक सम्भवतः अनुशासन, नियम पालन, नेतृत्व तथा उत्तरदायित्व आदि के प्रति सजग हो जाते हैं। इन सब आदतों, सद्गुणों एवं भावनाओं का जहाँ एक ओर सामान्य जीवन में लाभ है, वहीं शिक्षा के क्षेत्र में भी इनसे पर्याप्त लाभ होता है। 2. खेल का मानसिक एवं बौद्धिक क्षेत्र में महत्त्व – प्रत्येक बालक के लिए उसका मानसिक एवं बौद्धिक विकास भी अत्यधिक आवश्यक होता है। खेल से इस विकास में विशेष योगदान प्राप्त होता है। खेल से विभिन्न मानसिक शक्तियों जैसे कि प्रत्यक्षीकरण, स्मरणशक्ति, कल्पना तथा संवेदना आदि का समुचित विकास होता है। खेल के ही माध्यम से कुछ ऐसी योग्यताओं एवं क्षमताओं का विकास होता है जो मानसिक सन्तुलन, नियन्त्रण तथा रचनात्मकता के विकास में सहायक होती हैं। खेल द्वारा ही बालकों की शब्दावली तथा भाषा का भी विकास होता है। 3. खेल द्वारा संवेगात्मक विकास – बालक के उचित संवेगात्मक विकास में भी खेल से समुचित योगदान मिलता है। खेल द्वारा बालक अपने संवेगों को स्थिरता प्रदान करके नियन्त्रित रूप में रख सकते हैं। खेलों में समुचित रुचि लेने से बालकों में पायी जाने वाली कायरता, चिड़चिड़ापन, लज्जाशीलता तथा वैमनस्य के भावों को समाप्त किया जा सकता है। कुछ बालक विभिन्न कारणों से यथार्थ जीवन से पलायन करके दिवास्वप्नों में खोये रहने लगते हैं। वह प्रवृत्ति भी खेलों में भाग लेने से समाप्त की जा सकती है। समुचित संवेगात्मक विकास के परिणामस्वरूप बालक शिक्षा में भी सही रूप से विकास कर सकते हैं। 4. शारीरिक विकास में खेलों का महत्त्व – यह एक निर्विवाद सत्य है कि प्रत्येक बालक का समुचित शारीरिक विकास होना अनिवार्य है। शारीरिक स्वास्थ्य का विशेष महत्त्व है। शारीरिक स्वास्थ्य के लिए नियमित रूप से खेलों में भाग लेना विशेष महत्त्व रखता है। खेलों से जहाँ स्वास्थ्य का विकास होता है, वहीं साथ ही साथ व्यक्ति में पर्यावरण के साथ अनकूलन की क्षमता बढ़ती है तथा रोगों से बचने की प्रतिरोधक शक्ति भी विकसित होती है। 5. व्यक्तित्व के विकास में खेलों का महत्त्व – व्यक्तित्व के समुचित विकास में भी खेलों का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। खेलों के माध्यम से व्यक्ति के व्यक्तित्व सम्बन्धी विभिन्न गुणों का विकास होता है तथा व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास होता है। 6. खेलों का शैक्षिक महत्त्व – विभिन्न दृष्टिकोणों से खेल के शैक्षिक महत्त्व को भी स्वीकार किया गया है। शिक्षा के क्षेत्र में अनुशासन की गम्भीर एवं महत्त्वपूर्ण समस्या है। अब यह माना जाने लगा है कि यदि बालक की पाश्विक मूल प्रवृत्तियों का शोधन हो जाये, तो वह सामान्य रूप से अनुशासित रह सकता है तथा खेल के माध्यम से इस उद्देश्य में सफलता प्राप्त की जा सकती है। ऐसा देखा गया है कि बच्चे खेल के मैदान में आज्ञा-पालन सरलता से कर लेते हैं। आज्ञा-पालन की यह आदत अन्य क्षेत्रों में भी प्रकट होने लगती है। शिक्षा के क्षेत्र में वास्तविक ज्ञान प्रयोग करके ही प्राप्त किया जा सकता है अर्थात् प्रयोगात्मक कार्य उत्तम समझा जाता है। शिक्षा के क्षेत्र में खेल के समावेश से यह उद्देश्य पूरा हो जाता है। शिक्षा के पाठ्यक्रम के निर्धारण में भी खेल के महत्त्व को स्वीकार किया गया है। खेल से बालकों में स्वतन्त्रता, स्वाभाविकता तथा स्फूर्ति का संचार होता है। प्रश्न 4. (A) प्रश्न 5. 1. जन्म से एक वर्ष तक के बच्चों के खिलौने – तीन से नौ महीने के बालक में प्रवृत्ति होती है कि वह प्रत्येक वस्तु को अपने मुँह में रखता है। अत: उनके लिए ऐसे खिलौने होने चाहिएं जो नरम हों, रबर, स्पंज, कपड़े आदि के बने हों। यह ध्यान रखना चाहिए कि खिलौना गन्दा न हो, उस पर धूल-मिट्टी न लगी हो। खिलौने की बनावट ऐसी हो कि यदि बच्चा उसे मुंह में रखे तो उसे कोई चोट न आए और सरलता से मुंह में रख सके। इस आयु में बच्चों को ध्वनि अच्छी लगती है। अतः उसे ध्वनि करने वाले खिलौने जैसे झुनझुना, सीटी लगे रबर के खिलौने भी दिये जा सकते हैं। 2. एक से दो साल के बच्चों के खिलौने – ऐसे बच्चों को रबर, लकड़ी, प्लास्टिक आदि के बने खिलौने जैसे जानवर, ट्रेन, मोटर, हवाई जहाज़ आदि खेलने के लिए देना चाहिए जिससे उनके वातावरण का ज्ञान बढ़े। एक-दूसरे में फंसने वाले खिलौने भी देने चाहिएं जिससे उनके स्नायुओं का विकास होता है तथा रचनात्मक कार्यों से मानसिक विकास भी होता है। दो साल के बच्चे में नकल करने की प्रवृत्ति पायी जाती है। ऐसे बच्चों को गुड़िया आदि खेलने के लिए दिए जा सकते हैं। 3. तीन-चार साल के बच्चों के खिलौने – इस अवस्था में बच्चों को मोटर, ट्रेन, हेलीकॉप्टर आदि चाबी से चलने वाले खिलौने देने चाहिएं। खेल-कूद का सामान भी देना चाहिए, जैसे-गेंद, बल्ला आदि। इसके अलावा बिल्डिग ब्लॉक, मीनार बनाने का सामान, सीढ़ी बनाने का सामान आदि। इसके द्वारा बालक का मानसिक, गत्यात्मक विकास होता है। अब बच्चा रंग और माडलिंग में विशेष रुचि लेने लगता है। वह फर्श, दीवार पर लकीरें खींचता है। बालक को माडलिंग के लिए मिट्टी व प्लास्टीसीन देना चाहिए। 4. पाँच साल का बालक चित्र बनाने लगता है। उसे रंग दिए जा सकते हैं। वह कैंची से कागज़ काट सकता है। 5. छ: साल का बालक छोटे – छोटे खिलौने जैसे बर्तन, गुड़िया, इंजन, सोफा सैट आदि पसन्द करता है। बालक अब छोटे-छोटे ड्रामा भी खेलता है। इसलिए उसे ड्रामा से सम्बन्धित सामग्री प्रदान करनी चाहिए। घरेलू खेलों में बालक को लूडो, साँप-सीढ़ी आदि खेलने को देना चाहिए। इस समय बच्चा ट्राइसिकल व बाइसिकिल भी चलाना सीख जाता है। चाबी वाले बड़े खिलौने भी बालकों को पसन्द आते हैं। प्रश्न 6. 2. खेल एक स्वाभाविक क्रिया है। 3. खेल गम्भीर होता है। 4. खेल जिज्ञासा से पूर्ण होता है। 5. खेल शान्त या चंचल होता है। प्रश्न 7. प्रश्न 8. 2. मानसिक विकास – खेल द्वारा बच्चा अपने आस-पास की वस्तुओं के बारे में सब कुछ जान लेता है जैसे रंग, आकार इत्यादि। वह विभिन्न चीज़ों को देखता है, छूता है, अनुभव करता है, चखता है और इस तरह से उन्हें जान लेता है। 3. सामाजिक विकास – बच्चे खेल द्वारा ओर सामाजिक बनते हैं अर्थात् वह सामाजिक व्यवहार सीखते हैं जैसे अपनी चीजें दूसरों के साथ बांटना, अपनी बारी का इन्तज़ार करना, दोस्तों के साथ ताल-मेल बिठाना आदि। इसके अलावा खेल द्वारा बच्चे नकल से वयस्कों (adults) की भूमिकाएं सीखते हैं। 4. भावनात्मक विकास – बच्चे खेल द्वारा अपनी भावनाओं पर नियन्त्रण करना सीखते हैं। उन्हें अपने रोने, हंसने, चिल्लाने पर काबू करना आ जाता है। उन्हें यह समझ आ जाती है कि अपने मन के भावों को किस तरह बाहर लाना है और उनकी दूसरों के सामने अभिव्यक्ति कैसे करनी है। 5. नैतिक विकास – खेल द्वारा बच्चे अनेक नैतिकता की बातें सीखते हैं जैसे सच्चाई, ईमानदारी, गुस्सा न करना, झूठ न बोलना आदि। प्रश्न 9.
उत्तर :
प्रश्न 10. प्रश्न 11. 1. बच्चे की उम्र – खिलौनों का चयन करते समय बच्चे की आयु का ध्यान अवश्य रखें; जैसे बहुत छोटे बच्चे के लिए झुनझुना खरीदें क्योंकि उसे आवाज़ अच्छी लगती है। एक साल के बच्चे के लिए ऐसा खिलौना खरीदें जिसे रस्सी से खींचा जा सकता है इत्यादि। प्रश्न 12.
जैसे लड़कियां गुड़िया के खेल द्वारा एक माँ, बहन तथा दोस्त की भूमिका निभाना सीखती हैं। इसी तरह लड़के खेलों द्वारा डॉक्टर पुलिस, फौजी, व्यापारी आदि बनना सीखते हैं। प्रश्न 13. 2. रंगदार (Colourful) – बच्चों के खिलौने भिन्न-भिन्न रंगों तथा आकर्षक होने चाहिए। प्राय: बच्चों को तेज़ रंग जैसे लाल, पीला, नीला, संगतरी आदि पसंद होते हैं। परन्तु यह ध्यान में रखें कि खिलौनों के रंग पक्के हों क्योंकि बच्चे को प्रत्येक वस्तु मुंह में डालने की आदत होती है। यदि रंग घुलनशील हो, तो बच्चे को हानि पहुँच सकती है। 3. अच्छी गुणवत्ता (Good Quality) – प्रायः खिलौने रबड़ तथा प्लास्टिक के बने होते हैं। खिलौने खरीदने के समय यह देखना आवश्यक है कि बढ़िया रबड़ या प्लास्टिक का प्रयोग किया गया हो जो जल्दी टूट न सके। घटिया गुणवत्ता के खिलौने शीघ्र टूट जाते हैं तथा बच्चे टूटे-फूटे टुकड़े उठा कर मुंह में डाल सकता है। जो बच्चे के लिए हानिकारक सिद्ध हो सकते हैं। 4. शिक्षात्मक (Educational) – खिलौने शिक्षात्मक होने चाहिए ताकि बच्चा उनके साथ खेलता हुआ कुछ ज्ञान भी प्राप्त कर सके क्योंकि बच्चा खेलों द्वारा अधिक सीखता है। भिन्न-भिन्न रंगों, आकारों तथा संख्या का ज्ञान बच्चे को आसानी से खिलौनों की सहायता के साथ दिया जा सकता है। 5. सफाई में आसानी (Easy to Learn) – खिलौने ऐसी सामग्री के बने हों जिन्हें सरलता के साथ साफ किया जा सके जैसे प्लास्टिक तथा सिंथैटिक खिलौने सरलता से साफ हो सकते हैं। 6. सुरक्षित सामग्री (Safe Material) – खिलौनों का सामान मज़बूत नर्म, रंगदार तथा भार में हल्का होना चाहिए। खिलौनों के भिन्न-भिन्न भाग ठीक ढंग से मज़बूती के साथ जुड़े हो। इनकी नुक्करें तेज़ न हों नहीं तो यह बच्चे को खेल के समय हानि पहुंचा सकती हैं। 7. लड़के तथा लड़कियों के खिलौने (Boys and Girls Toys) – खिलौने लड़के तथा लड़कियों के लिए भिन्न-भिन्न खरीदने चाहिएं। लड़कियां अधिकतर गुड़िया, घरेलू सामान तथा श्रृंगार के सामान से खेलना पसन्द करती हैं जबकि लड़के कारों, बसों, ट्रैक्टर, बैटबाल, फुटबाल आदि के साथ खेलना पसन्द करते हैं। खिलौनों का चुनाव बच्चे की आयु तथा लिंग को ध्यान में रख कर करना चाहिए। 8. खिलौनों की कीमत (Cost of Toys) – अधिक महंगे खिलौने नहीं खरीदने चाहिएं क्योंकि महंगे खिलौने टूट जाने पर माँ-बाप बच्चों को डांटते हैं पर बच्चा सदा ही अपने ढंग से खेलना चाहता है। इसलिए खिलौना इतना महंगा न हो कि खराब होने पर दु:ख हो। 9. संभालने का स्थान (Storage Space) – खिलौनों को संभालने के लिए व्यापक स्थान होना चाहिए ताकि उनको ठीक ढंग से रखा जा सके तथा खिलौने टूट-फूट से बच सकें। इसलिए हर नया खिलौना खरीदने से पहले उस को सम्भालने के स्थान को ध्यान में रखना आवश्यक है। 10. खिलौने बहुत अधिक न खरीदें (Not to Buy too Many Toys) – यदि घर में बहुत अधिक खिलौने हों, तो बच्चा किसी भी खिलौने का पूरा लाभ नहीं उठाता इसलिए बहुत अधिक खिलौने नहीं खरीदने चाहिएं। बच्चों के खेलने के लिए कौन-से भिन्न-भिन्न किस्म के खिलौने होते हैं –
(ख) देखें प्रश्न (क) का उत्तर। एक शब्द/रक वाक्य वाले प्रश्न – (क) एक शब्द में उत्तर दें – प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. प्रश्न 6. (ख) रिक्त स्थान भरो – 1. लूडो ………… खेल है। (ग) निम्न में गलत अथवा ठीक बताएं – 1. खेल की क्रियाएं आयु के साथ घटती हैं। बहु-विकल्पीय प्रश्न – प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. प्रश्न 6. प्रश्न 7. प्रश्न 8. प्रश्न 9. प्रश्न 10. प्रश्न 11. प्रश्न 12. प्रश्न 13. प्रश्न 14. प्रश्न 15. प्रश्न 16. प्रश्न 17. प्रश्न 18. प्रश्न 19. प्रश्न 20. प्रश्न 21. प्रश्न 22. प्रश्न 23. खेल HBSE 10th Class Home Science Notes ध्यानार्थ तथ्य। → बालकों का खेलना एक स्वाभाविक क्रिया है जो आत्म प्रेरित होती है और आनन्ददायक भी होती है।
→ खेल के स्थान के आधार पर खेल
दो प्रकार के होते हैं – → ऐसा देखा गया है कि जो बालक पढ़ाई-लिखाई के अतिरिक्त खूब खेलता है, वह सामान्यतः कुशाग्र बुद्धि का होता है। → खेल एक ऐसी क्रिया है जो बच्चे को अच्छी लगती है। बच्चा उसे अपनी खुशी से शुरू करता है। उसे करते हुए वह आनन्द अनुभव करता है और जब चाहे उसे समाप्त कर देता है। बच्चे का सारा दिन खेल से भरा होता है। → खेल के निम्नलिखित गुण हैं –
→ खेल बच्चे के शारीरिक, बौद्धिक, सामाजिक संवेगों के विकास एवम् नैतिक विकास के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है। → आयु के साथ खेल भी बदलते हैं। बहुत छोटे बच्चे (0-2 महीने तक) अपने आप से खेलना पसन्द करते हैं। वह अपने हाथ-पैर चलाते रहते हैं। → 2 महीने से 2 वर्ष के बच्चे खिलौनों को देखना व उनसे खेलना पसन्द करते हैं। अकेले बैठे हुए भी वह अपने खिलौनों से खेलते रहते हैं। दो साल के बच्चे समूह में खेलना पसन्द करते हैं हालांकि समूह का प्रत्येक बच्चा अपनी धुन में मस्त होता है। → दो साल से छः साल के बच्चों के खेलों में और बदलाव आ जाता है। वह साथ-साथ खेलना शुरू कर देते हैं। वह एक खिलौने से भी खेल सकते हैं। → बच्चे जैसे-जैसे बड़े होते हैं व अधिक सामाजिक बनते हैं। वह नए दोस्त बनाते हैं। उनके निर्धारित समूह होते हैं और वह नियम वाले खेल भी खेलते हैं। बड़े बच्चे अकेले भी खेल सकते हैं और समूह में भी। → खेलने के तरीके बदलने के साथ-साथ खिलौने भी बदल जाते हैं। अत: बच्चों को खिलौने खरीदते समय उनकी उम्र, खिलौने का टिकाऊपन, सुरक्षा, आकर्षणता, वृद्धि का स्तर आदि बातों का ध्यान अवश्य रखें। → यदि कीमती खिलौने खरीदने की बजाए आप बच्चों को घर के बने खिलौने देंगे जैसे कपड़े की बनी बिल्ली, माचिस की डिब्बी का झुनझुना आदि तो बच्चे इसे ज्यादा पसन्द करेंगे। ऐसे खिलौनों के साथ वह अपनी इच्छानुसार उठक-पटक कर सकते हैं। इस तरह वह नए विचार और खेल सोच पाते हैं। → यदि आप बच्चे को कीमती खिलौने देते हैं। तो आप सारा समय बच्चे को यही हिदायत देते हैं कि खिलौने टूट न जाएं। इस तरह बच्चा ठीक से खेल नहीं पाता और परिणामस्वरूप जल्द ही ऐसे खिलौने से खेलना छोड़ देता है। अतः घर पर उपलब्ध सामग्री से खिलौने बनाना ज्यादा श्रेयस्कर है। खेल बच्चों के लिए क्यों आवश्यक है?खेल से बच्चों का शारीरिक विकास, संज्ञानात्मक विकास, संवेगात्मक विकास, सामाजिक विकास एवम् नैतिक विकास को बढ़ावा मिलता है किन्तु अभिभावकों की खेल के प्रति नकारात्मक अभिवृत्ति एवम् क्रियाकलाप ने बुरी तरह प्रभावित किया हैं। अतः यह अनिवार्य है कि शिक्षक और माता-पिता खेल के महत्व को समझें।
बालक के जीवन में खेलों का क्या महत्व है?बच्चों के सर्वांगीण विकास में खेल महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इन खेलों द्वारा बालकों में त्वरित निर्णय क्षमता , वस्तुओं की जानकारी , समायोजन , समन्वय , सद्भाव , साहस , सहअस्तित्व जैसे गुणों का स्वभाव में स्वतः ही विकास हो जाता है एकल व समूह दोनों रूपों में खेले जाते हैं।
खेलों की जीवन में आवश्यकता क्यों है?स्वस्थ शरीर और दिमाग काे विकसित करने के लिए खेल महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। खेल कई प्रकार के होते हैं, जाे हमारे शारीरिक के साथ मानसिक विकास में मदद करते हैं। लगातार पढ़ाई के दौरान कई बार तनाव की स्थिति होती है। ऐसे में खेल इस तनाव को दूर करने का बेहतर माध्यम है।
खेल का उद्देश्य क्या है?खेल और खेलों का महत्व – खेल का मुख्य उद्देश्य, शारीरिक व्यायाम है। यह एक प्रसिद्ध उद्धरण है, “एक ध्वनि शरीर में एक ध्वनि दिमाग होता है”। जीवन में सफलता के लिए शरीर का स्वास्थ्य आवश्यक है। अस्वस्थ व्यक्ति हमेशा कमजोरी महसूस करता है, इस प्रकार आत्मविश्वास खो देता है और इसलिए बहुत सुस्त और सक्रिय हो जाता है।
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