आदिकाल का नामकरण और उसकी विशेषताएं - aadikaal ka naamakaran aur usakee visheshataen

अतः समय सीमा और नामकरण के इस समग्र विवेचन से यही निष्कर्ष निकलता है कि अधिकांश विद्वानों-साहित्य समाज द्वारा स्वीकृत नाम आदिकाल ही प्रमाणित एवं समर्थ नाम है। 


किसी साहित्यिक प्रवृत्ति तथा लोकचितवृत्ति को प्रतिबिंबित न करके भी यही नाम स्वीकृत किया जा सकता है। 

आदिकाल का नामकरण और काल सीमा

हिंदी साहित्य के इतिहास के विवादास्पद प्रसंगों में एक हिंदी साहित्य के आदिकाल का भी प्रसंग रहा है। हिंदी साहित्य के इतिहास के अनेक विद्वान लेखकों  ने  इस संबध में अपने -अपने  मत प्रस्तुत किए हैं। हिंदी साहित्य क े विधिवत इतिहास लेखन से पूर्व ‘भक्तमाल’ ‘चैरासी वैष्णवन की वार्ता’ ‘दो सौ वैष्णव की वार्ता’ आदि कतिपय कविवत संग्रह दो लिखे गए जिनमें काल-विभाजन और नामकरण की खोज की ओर कोई दृष्टि नहीं गई। कुछ विद्वान इसे वीरगाथात्मक रचनाओं की प्रधानता के कारण इसे वीेरगाथाकाल कहने के पक्ष में है, लेकिन सिद्धों आ ैर नाथों की रचनाएँ इस परिधि में नहीं आ सकती। अतः ‘वीरगाथाकाल’ न कहकर कुछ ने इसे आदिकाल कहा है, तो किसी ने बीजवपन काल।

1. वीरगाथाकाल

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने प्रारम्भिक युग के साहित्य को दो कोटियों-अपभ्रंश और देशभाषा में बाँटा है। उनके मत में सिद्धों और योगियों की रचनाओं का जीवन की स्वाभाविक सरणियों, अनुभूतियों और दशाओं से कोई संबंध नहीं, वे साम्प्रदायिक शिक्षा मात्र हैं। अतः शुद्ध साहित्य की कोटि में नहीं आती और जो साहित्य की कोटि में गिनी जा सकी हैं वे कुछ फुटकर रचनाएँ हैं, जिनसे कोई विशेष प्रवृत्ति स्पष्ट नहीं होती है। उनके मत में तत्कालीन साहित्यिक रचनाओं में से केवल ‘खुसरो की पहेलियाँ’, ‘विद्यापति की पदावली’ तथा ‘बीसलदेव रासो’ को छोड़कर सभी रचनाएँ वीरगाथात्मक हैं। 


इस युग में राज्याश्रित कवि अपने आश्रयदाता राजा की वीरता का यशोगान तथा उन्हें युद्धों के लिए उकसाने का काम करते थे। इसलिए उन रचनाओं को राजकीय पुस्तकालयों  में रखा जाता था। लेकिन बाद में साहित्य संबंधी जो खोज की गई उसके अनुसार शुक्ल ने जिन रचनाओं के आधार पर इस काल का नाम ‘वीरगाथाकाल’ रखा है, उनमें से अधिकतर बाद की रचनाएँ हैं और कुछ सूचना मात्र हैं। शुक्ल ने जिन बारह रचनाओं के आधार पर विवेच्य काल का नामकरण वीरगाथाकाल किया है, वे हैं-

  1. विजयपाल रासो-नल्हसिंह
  2.  हम्मीर रासो-शाडर््गधर 
  3. कीर्तिलता-विद्यापति 
  4. कीर्तिपताका-विद्यापति 
  5. खुमानरासो-दलपति विजय 
  6. बीसलदेवरासो-नरपति नाल्ह 
  7. पृथ्वीराजरासो-चन्दरबरदाई
  8. जयचन्द्रप्रकाश-भट्टकेदार 
  9. विद्यापति की पदावली 
  10. परमाल रासो-जगनिक  खुसरो
  11.  की पहेलियाँ और 
  12. जयमंथक जस चन्द्रिका-मधुकर। 
इन रचनाओं में से अधिकतर रचनाएं अप्रामाणिक एवं सूचना मात्र हैं। खुमानरासो को शुक्ल ने पुराना माना था जबकि मोतीलाल मेनारिया ने इसका रचना काल समत् 1730 विक्रम और समत् 1760 विक्रम के बीच का माना है। इसी प्रकार से ‘बीसलदेव रासो’ भी सन्देहास्पद है। शुक्ल ने भी इस ग्रंथ को कोई महत्व नहीं दिया।

‘पृथ्वीराज रासो’ भी अप्रामाणिक रचना है। जगनिक काव्य प्रचलित गीतों के रूप में है, अतः इसे भी सूचना मात्र ही समझना चाहिए। ‘हम्मीररासो’ तथा भट्ट के द्वारा कृत ‘जयचन्द्र प्रकाश’ आदि रचनाएं भी सूचना मात्र है। कहने  का तात्पर्य यह है कि जिन ग्रन्थों के आधार पर इनका नाम ‘वीरगाथाकाल’ रखा गया, वे या तो सूचना मात्र हैं या बाद मंे लिखे हुए हैं। दूसरे, शुक्ल ने धार्मिक-साहित्य को उपदेशप्रधान मानकर साहित्य की कोटि में नहीं रखा, किन्तु जिस धार्मिक साहित्य में प्रेरक शक्ति हो और जो रचनाएँ मानव-मन को आन्दोलित करने में समर्थ हो उनका साहित्यिक महत्त्व नकारा नहीं जा सकता। इस दृष्टि से अपभ्रंश की कई रचनाएँ, जो धर्म-भावना से प्रेरित होकर लिखी गई हैं, निस्सन्देह उत्तमकाव्य हैं। 


आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के मत में धार्मिक प्रेरणा या अध्यात्मिक उपदेश को काव्यत्व के लिए बाधक नहीं समझना चाहिए। धार्मिक होने से कोई रचना साहित्यिक कोटि से अलग नहीें की जा सकती। यदि ऐसा मानकर चला जाये तो तुलसी का ‘मानस’ और जायसी का ‘पद्मावत’ भी साहित्य की सीमा में प्रविष्ट नहीं हो सकेगे। ‘भविष्यत कहा’ (धनपाल) धार्मिक कथा है, लेकिन इस जैसा सुन्दर काव्य उस युग में अन्यत्र कहीं नहीं मिलता है। 


संक्षेप में कहा जायेगा कि सभी धार्मिक पुस्तकों को साहित्य के इतिहास में से नहीं हटाया जा सकता है।

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने तत्कालीन उपलब्ध सामग्री के आधार पर ही नामकरण किया था। नवीनतम खोजों मे जो ग्रन्थ उपलब्ध हुए हैं, उनकी प्रवृत्तियों को भी नामकरण निर्धारित करते समय ध्यान में रखना होगा। मोतीलाल मेनारिया का मत रहा है कि जिन रचनाओं के आधार पर ‘वीरगाथाकाल’ नाम रखा गया है वे किसी विशेष प्रवृत्ति को स्पष्ट नहीं करते, बल्कि चारण-भाट आदि वर्ग विशेष की मनोवृत्ति को ही स्पष्ट करते हैं। यदि इनकी रचनाओं के आधार पर किसी काल का नाम ‘वीरगाथाकाल’ रखा जाए तो राजस्थान में आज भी वीरगाथाकाल ही है, क्योंकि ये लोग आज भी उत्साह से काम कर रहे हैं।

2. अपभ्रंश काल

चन्द्रधर शर्मा गुलेरी और धीरेन्द्र वर्मा ने हिंदी साहित्य के आदिकाल को ‘अपभ्रंश काल’ की संज्ञा दी है। आदिकाल के साहित्य में अपभ्रंश भाषा की प्रधानता स्वीकारते हुए उन्होंने इस काल को ‘अपभ्रंश काल’ कहना अधिक समीचीन समझा है। भाषा के आधार पर साहित्य के इतिहास में काल-विभाजन उपयुक्त प्रतीत नहीं होता। साहित्य के किसी भी काल का नामकरण उस काल की साहित्यिक प्रवृत्तियों अथवा प्रतिपाद्य विषय के आधार पर उचित समझा जाता है। ‘अपभ्रंश काल’ यह नाम भ्रामक भी सिद्ध होता है क्योंकि इसमें श्रोता या पाठक का ध्यान हिंदी साहित्य की ओर न जाकर अपभ्रंश साहित्य की ओर आकृष्ट होता है। भाषा-शास्त्र की दृष्टि से भी अपभ्रंश और हिंदी दो अलग-अलग भाषाएं है। इसलिए पुरानी हिंदी को अपभ्रंश कहना भी उचित नहीं है।

3. सधिकाल और चारण काल

डाॅ. रामकुमार वर्मा ने हिंदी साहित्य के इस प्रारंभिक काल को ‘संधिकाल’ आ ैर ‘चारणकाल’ इन दो नामों से अभिहित किया है। उनकी सम्मति में हिंदी भाषा का विकास अपभ्रंश से हुआ है किन्तु अपभ्रंश से एक पृथक भाषा के रूप में विकसित होने से पूर्व हिंदी भाषा एक ऐसी स्थिति में भी रहीं होगी जिसमें वह अपभ्रंश के प्रभावों से सर्वथा मुक्त न हो सकी होगी। अपभ्रंश भाषा के अंत और हिंदी भाषा के आरम्भ की इस स्थिति को स्पष्ट करने के लिए डाॅ. वर्मा ने ‘संधिकाल’ की कल्पना की है। हिंदी साहित्य के जिस काल को आचार्य शुक्ल ने ‘वीरगाथाकाल’ कहा है, वहीं पर डाॅ. वर्मा उसे ‘चारण काल’ कहना उपयुक्त समझते हैं।

4. सिद्ध सामन्त काल

विषय वस्तु की दृष्टि से महापण्डित राहुल सांस्कृत्यायन ने इस युग के लिए ‘सिद्ध सामन्त युग’ नाम प्रेषित किया है। प्रस्तुत नामकरण बहुत दूर तक तत्कालीन साहित्यिक प्रवृत्ति को स्पष्ट करता है। इस काल के साहित्य में सिद्धों द्वारा लिखा गया धार्मिक साहित्य ही प्रधान है। सामन्तकाल में ‘सामन्त’ शब्द से उस समय की राजनैतिक स्थिति का पता चलता है और अधिकांश चारण-जाति के कवियों की राजस्तुतिपरक रचनाओं के प्रेरणा स्रोत का भी पता चलता है। लेकिन इस ‘सिद्ध सामन्त युग’ में सभी धार्मिक और साम्प्रदायिक तथा लौकिक रचनाएँ नहीं आती। 

आदिकाल की प्रमुख विशेषताएं क्या है?

आदिकाल में वीर एवं श्रृंगार रस के अलावा सभी रस का प्रयोग हुआ है। युद्ध का वर्णन होने से वीर रस की योजना इन में अनायास ही हो गई है। वीरों के मनोभाव एवं अदम्य उत्साह का जैसा हृदय ग्राही वर्णन रासो काव्य में किया गया है वैसा अन्यत्र दुर्लभ है।

आदिकाल का नामकरण कैसे हुआ?

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने साहित्यिक प्रवृत्तियों के आधार पर इसका नामकरण वीरगाथा काल तो किया था, फिर भी सर्वप्रथम उन्होंने ही इसका नाम आदिकाल लिखा था। आदिकाल नाम की स्वीकृति डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी ने भी दी है। उन्होंने लिखा है कि “यदि पाठक भ्रामक धारणा से सावधान रह सके तो यह नाम बुरा नहीं है।”

आदिकाल को और कितने नामों से जाना जाता है?

इस युग को यह नाम डॉ॰ हजारी प्रसाद द्विवेदी से मिला है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने 'वीरगाथा काल' तथा विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने इसे 'वीरकाल' नाम दिया है। इस काल के समय के आधार पर साहित्य का इतिहास लिखने वाले मिश्र बंधुओं ने इसका नाम आरंभिक काल किया और आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने बीजवपन काल।

आदिकाल के क्या क्या नाम है?

आदिकाल का नामकरण.
वीरगाथा काल: (आचार्य रामचंद्र शुक्ल).
चारणकाल: (डॉ॰ ग्रियर्सन, रामकुमार वर्मा).
वीरकाल: (विश्वनाथ प्रसाद मिश्र).
सिद्ध सामंत युग: (राहुल संकृत्यायन).
बीजवपन काल: (महावीर प्रसाद द्विवेदी).
आरम्भिक काल: (मिश्रबंधु).
आदिकाल: (हजारी प्रसाद द्विवेदी).