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दादाभाई नौरोजी: ब्रिटेन की संसद में चुनकर पहुंचने वाले पहले एशियाई
6 जुलाई 2020 इमेज स्रोत, Getty Images 1892 में ब्रिटेन के संसद में एक भारतीय चुनकर पहुंचा. ये कैसे हुआ? इस ऐतिहासिक घटना का आज के दौर में क्या महत्व है? दादाभाई नौरोजी (1825-1917) की पहचान सिर्फ़ इतनी ही नहीं है कि वह ब्रिटेन के हाउस ऑफ कॉमन्स में पहुंचने वाले एशिया के पहले शख्स थे. महात्मा गांधी से पहले वो भारत के सबसे प्रमुख नेता थे. दुनिया भर में नौरोजी जातिवाद और साम्राज्यवाद के विरोधी की तरह भी जाने जाते थे. दुनिया भर में पैदा हुए कई नए संकटों के बीच दादाभाई को याद करना फिर ज़रूरी हो गया है. उनका जीवन इस बात का गवाह है कि कैसे प्रगतिशील राजनीतिक शक्ति इतिहास के काले अध्यायों में भी एक रोशनी की किरण की तरह है. नौरोजी का जन्म बॉम्बे के एक ग़रीब परिवार में हुआ था. वह उस वक़्त फ़्री पब्लिक स्कूलिंग के नए प्रयोग का हिस्सा थे. उनका मानना था कि लोगों की सेवा ही उनके शिक्षा का नैतिक ऋण चुकाने का ज़रिया है. कम उम्र से ही उनका जुड़ाव प्रगतिशील विचारों से रहा. लड़कियों की पढ़ाई पर ज़ोर दिया1840 के दशक में उन्होंने लड़कियों के लिए स्कूल खोला जिसके कारण रूढ़िवादी पुरुषों के विरोध का सामना करना पड़ा. लेकिन उनमें अपनी बात को सही तरीक़े से रखने और हवा का रुख़ मोड़ने के अद्भुत क्षमता थी. पांच साल के अंदर ही बॉम्बे का लड़कियों का स्कूल छात्राओं से भरा नज़र आने लगा. नौरोजी के इरादे और मज़बूत हो गए और वह लैंगिक समानता की मांग करने लगे. नौरोजी का कहना था कि भारतीय एक दिन ये समझेंगे कि “महिलाओं को दुनिया में अपने अधिकारों का इस्तेमाल, सुविधाओं और कर्तव्यों का पालन करने का उतना ही अधिकार है जितना एक पुरुष को” धीरे-धीरे, भारत में महिला शिक्षा को लेकर नौरोजी ने लोगों की राय को बदलने में मदद की. इमेज स्रोत, Courtesy: Dinyar Patel इमेज कैप्शन, जब दादाभाई नौरोजी ऐन बेसेन्ट से मिले उनका उम्र क़रीब 90 साल थी. ब्रिटेन साम्राज्य की मान्यताओं को चुनौती1855 में पहली बार नौरोजी ब्रिटेन पहुंचे. वह वहां की समृद्धि देख स्तब्ध रह गए. वह समझने की कोशिश करने लगे कि उनका देश इतना ग़रीब और पिछड़ा क्यों है. यहां से नौरोजी के दो दशक लंबे आर्थिक विश्लेषण की शुरुआत हुई जिसमें उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य की उस मान्यता को चुनौती दी जो साम्राज्यवाद को उपनिवेशी देशों में समृद्धि का कारण मानता है. उन्होंने अपनी पढ़ाई से ये साबित किया कि सच दरअसल इस मान्यता के बिल्कुल विपरीत है. उनके मुताबिक ब्रिटिश शासन, भारत का “ख़ून बहा कर” मौत की तरफ़ ले जा रहा था और भयावह अकाल पैदा कर रहा था. इससे नाराज़ कई ब्रितानियों ने उन पर देशद्रोह और निष्ठाहीनता का आरोप लगाया. वह विश्वास नहीं कर पा रहे थे कि एक उपनिवेश में रहने वाला व्यक्ति सार्वजनिक रूप से इस तरह के दावे कर रहा था. हालांकि साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ विचार रखने वाले लोगों को नौरोजी के नए ठोस विचारों से फ़ायदा हुआ. साम्राज्यवाद के कारण उपनिवेशों से कैसे "धन बाहर गया" पर उनके विचार ने यूरोपीय समाजवादियों, विलियम जेनिंग्स ब्रायन जैसे अमेरिकी प्रगतिशील और संभवतः कार्ल मार्क्स को भी इस मुद्दे से अवगत कराया. इमेज स्रोत, COURTESY: DINYAR PATEL इमेज कैप्शन, ब्रिटेन के वीमेन फ्रांचाइज़ लीग में सदस्यता की दादाभाई नौरोजी की रसीद ब्रिटेन की संसद पहुंचने का रास्तानौरोजी की ब्रिटिश संसद में पहुंचने की महत्वाकांक्षा के पीछे भारत की ग़रीबी थी. ब्रिटिश उपनिवेश से आने के कारण वह संसद में चयन के लिए ख़ड़े हो सकते थे, जब तक वो ब्रिटेन में रहकर ऐसा करें. कुछ आयरिश राष्ट्रवादियों के मॉडल की तर्ज़ पर उनका मानना था कि भारत को वेस्टमिंस्टर में सत्ता के हॉल के भीतर से राजनीतिक परिवर्तन की मांग करनी चाहिए. भारत में इस तरह का कोई विकल्प नहीं था. इसलिए, 1886 में उन्होंने अपना पहला अभियान होलबोर्न से लॉन्च किया. वो बुरी तरह से पराजित हो गए. लेकिन नौरोजी ने हार नहीं मानी. अगले कुछ वर्षों में, उन्होंने भारतीय राष्ट्रवाद और ब्रिटेन में प्रगतिशील आंदोलनों के बीच गठबंधन किया. नौरोजी महिलाओं के मताधिकार के मुखर समर्थक भी बन गए. उन्होंने आयरलैंड के घरेलू शासन का समर्थन किया और आयरलैंड से संसद के लिए खड़े होने के क़रीब भी पहुंचे. उन्होंने ख़ुद को श्रम और समाजवाद के साथ जोड़ दिया, पूंजीवाद की आलोचना की और मज़दूरों के अधिकारों के लिए आह्वान किया. नौरोजी ब्रिटेन के एक बड़े वर्ग को समझाने कामयाब हो गए थे कि भारत को तत्काल सुधारों की आवश्यकता थी, वैसे ही जिस तरह महिलाओं को वोट के अधिकार की, या कामगारों को आठ घंटे काम करने के नियम की. उन्हें मज़दूरों, उनके नेताओं, कृषिविदों, नारीवादियों और पादरियों के समर्थन के पत्र मिले. लेकिन ब्रिटेन में सभी एक भावी भारतीय सांसद से ख़ुश नहीं थे. कई लोग उन्हें “कार्पेटबैगर” और “हॉटेनटॉट” कह कर बुलाते थे. यहां तक कि ब्रिटिश प्रधानमंत्री, लॉर्ड सैलिसबरी ने नौरोजी को एक “काला आदमी” बताया जो अंग्रेज़ों के वोट का हकदार नहीं था. लेकिन नौरोजी उतने लोगों तक अपनी बात पहुंचाने में कामयाब हो गए जितने वोटों की उन्हें ज़रूरत थी. 1892 में लंदन के सेंट्रल फिंसबरी से नौरोजी ने सिर्फ़ पांच वोटों से चुनाव जीता. (इसके बाद उन्हें दादाभाई नैरो मेजोरिटी भी कहा जाने लगा) सांसद दादाभाई ने बिना समय गंवाए संसद में अपनी बात रखी. उन्होंने कहा कि ब्रिटिश शासन एक “दुष्ट” ताक़त है जिसने अपने साथी भारतीयों को ग़ुलाम जैसी स्थिति में रखा है. वह नियम बदलने और भारतीयों के हाथ में सत्ता देने के लिए क़ानून लाना चाहता थे. लेकिन उनकी कोशिशें नाकाम रहीं. ज़्यादातर सांसदों ने उनके मांग पर ध्यान नहीं दिया, 1895 दोबारा चुनाव हुए और वह हार गए. इमेज कैप्शन, नौरोजी के समर्थन में ट्रेड यूनियन का एक पोस्टर बुरे वक़्त में नहीं छोड़ी उम्मीदये नौरोजी के जीवन का सबसे ख़राब समय था. 1890 के दशक के अंत और 1900 के शुरुआती दिनों में, ब्रिटिश शासन और क्रूर हो गया. अकाल और महामारी के कारण उपमहाद्वीप में लाखों लोग मारे गए, कई भारतीय राष्ट्रवादियों का मानना था कि उनके प्रयास अंतिम मोड़ पर पहुंच चुके थे. लेकिन नौरोजी उम्मीद नहीं छोड़ी. उन्होंने अपनी मांगो में वृद्धि करते हुए अधिक प्रगतिशील निर्वाचन क्षेत्रों, प्रारंभिक मज़दूरों, अमेरिकी साम्राज्यवाद-विरोधी, अफ्रीकी-अमेरिकियों और काले ब्रिटिश आंदोलनकारियों को साथ लिया. उन्होंने ऐलान किया कि भारत को स्वराज की ज़रूरत थी और यही देश से बाहर जाते धन को रोकने का ज़रिया था. ब्रिटिश प्रधानमंत्री हेनरी कैंपबेल-बैनरमैन से उन्होंने कहा कि यही उनके साम्राज्यवाद की ग़लतियों को सुधारने का तरीक़ा है. ये शब्द और विचार दुनिया भर में घूमने लगे. उन्हें यूरोप के समाजवादियों ने, अफ्रीकी-अमरीकी प्रेस ने, भारतीयों ने और गांधी की अगुवाई में दक्षिण अफ्रीका के लोगों ने हाथों हाथ लिया. स्वराज एक साहसिक मांग थी. मानव इतिहास के सबसे शक्तिशाली साम्राज्य से कमज़ोर अपना अधिकार कैसे ले सकते हैं? नौरोजी अपने आशावाद और कभी पीछे नहीं हटने वाली प्रवृति के साथ बने रहे. 81 साल की उम्र में अपने अंतिम भाषण में उन्होंने अपनी राजनीतिक असफलताओं को स्वीकार किया. उन्होंने कहा "निराशा किसी भी दिल को तोड़ने और मायूस करने के लिए काफ़ी है. यहां तक कि, मुझे डर है, विद्रोह करने से डर लगता है." हालांकि, विचारों में दृढ़ता, दृढ़ संकल्प और प्रगतिशील विचारों पर विश्वास ही सही विकल्प थे. उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सदस्यों से कहा, "जैस-जैसे कि हम आगे बढ़ते हैं, हम ऐसे रास्तों को अपना सकते हैं जो उस मोड़ पर उपयुक्त हों, लेकिन हमें अंत तक टिके रहना होगा." इमेज स्रोत, courtesy: dinyar patel इमेज कैप्शन, ब्रितानी संसद में चुने जाने के बाद दादाभाई नौरोजी पर बना कार्टून इस दौर में दादाभाई के विचारों का महत्वऐसे शब्द आज की राजनीतिक बहसों के बारे में क्या बताते हैं? आज एक सदी बाद, नौरोजी की भावनाएं बहुत सरल लग सकती हैं- लोक-लुभावनवाद, युगांतरकारी सत्तावाद और तीखे पक्षपात के युग में एक विचित्र रचनावाद. हमारा दौर बहुत अलग है. वर्तमान में ब्रिटिश संसद वो एशियाई सांसद भी हैं जिनका शाही इतिहास पर अस्पष्ट दृष्टिकोण है और ब्रेक्सिट को लेकर अड़ियल रवैया. भारत हिंदू राष्ट्रवाद की चपेट में है जो पूरी तरह से अपने संस्थापक सिद्धांतों के खिलाफ़ है- सिद्धांत जिन्हें नौरोजी ने आकार देने में मदद की. नौरोजी जिन्होंने अध्ययन के माध्यम से अपने राजनीतिक एजेंडे को आगे बढ़ाया, नक़ली समाचार और तथ्यहीन जानकारियों के इस दौर में उनकी क्या राय होती, ये अंदाज़ा लगाना मुमकिन नहीं है. फिर भी नौरोजी की दृढ़ता, प्रयास और प्रगति में विश्वास हमें आगे की राह तो दिखाते ही हैं. जब नौरोजी ने सार्वजनिक रूप से 1900 के दशक में स्वराज की मांग शुरू की, तो उन्होंने माना था कि इसे पाने में कम से कम 50 से 100 साल लगेंगे. ब्रिटेन अपने शाही चरम पर था और अधिकांश भारतीय स्वराज जैसे विचारों पर बात करने के लिए बहुत ग़रीब और पिछड़े. नौरोजी आज यह जानकर स्तब्ध रह जाते कि उनके पोते एक स्वतंत्र भारत में रहे हैं और ब्रिटिश साम्राज्य के पतन के गवाह हैं. इससे कई महत्वपूर्ण सबक मिलते है - साम्राज्य गिर जाते हैं, निरंकुश शासन ख़त्म हो जाते हैं, लोगों की राय अचानक बदल जाती है. नौरोजी हमें दीर्घकालिक दृष्टिकोण अपनाने की प्रेरणा देते हैं. वह हमें प्रगतिशील आदर्शों पर विश्वास बनाए रखने का आग्रह करते हैं और दृढ़ रहने के लिए कहते हैं. दृढ़ता और फौलादी संकल्प सबसे अप्रत्याशित परिणाम दे सकते हैं- एक सदी पहले ब्रिटिश संसद के लिए भारतीय का चुनाव जीतने से भी अधिक अप्रत्याशित. सवाल और जवाबआपका सवाल किस बारे में है?
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दादाभाई नौरोजी का उपनाम क्या है?उन्हें 'भारत का वयोवृद्ध पुरुष' (Grand Old Man of India) कहा जाता है।
दादा भाई नौरोजी का जन्म कब और कहां हुआ?4 सितंबर 1825, नवसारी, भारतदादा भाई नौरोजी / जन्म की तारीख और समयnull
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