विजय कुमार सिंघल स्वस्थ रहना सबसे बड़ा सुख है। कहावत भी है- 'पहला सुख निरोगी काया'। कोई आदमी तभी अपने जीवन का पूरा आनन्द उठा सकता है, जब वह शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ रहे। स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क निवास करता है। इसलिए मानसिक स्वास्थ्य के लिए भी शारीरिक स्वास्थ्य अनिवार्य है। ऋषियों ने कहा है 'शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्' अर्थात् यह शरीर ही धर्म का श्रेष्ठ साधन है। यदि हम धर्म में विश्वास रखते हैं और स्वयं को धार्मिक कहते हैं, तो अपने शरीर को स्वस्थ रखना हमारा पहला कर्तव्य है। यदि शरीर स्वस्थ नहीं है, तो जीवन भारस्वरूप हो जाता है। Show यजुर्वेद में निरन्तर कर्मरत रहते हुए सौ वर्ष तक जीने का आदेश दिया गया है- 'कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेत्छतं समाः' अर्थात् 'हे मनुष्य! इस संसार में कर्म करते हुए सौ वर्ष तक जीने की इच्छा कर।' वेदों में ईश्वर से प्रार्थना की गई है- 'पश्येम् शरदः शतम्, जीवेम् शरदः शतम्, श्रुणुयाम् शरदः शतम्, प्रब्रवाम् शरदः शतम्, अदीनः स्याम् शरदः शतम्, भूयश्च शरदः शतात्'> अर्थात् 'हम सौ वर्ष तक देखें, जिएं, सुनें, बोलें और आत्मनिर्भर रहें। (ईश्वर की कृपा से) हम सौ वर्ष से अधिक भी वैसे ही रहें।' एक विदेशी विद्वान् डॉ. बेनेडिक्ट जस्ट ने कहा है- 'उत्तम स्वास्थ्य वह अनमोल रत्न है, जिसका मूल्य तब ज्ञात होता है, जब वह खो जाता है।' प्रश्न उठता है कि स्वास्थ्य क्या है अर्थात् किस व्यक्ति को हम स्वस्थ कह सकते हैं? साधारण रूप से यह माना जाता है कि किसी प्रकार का शारीरिक और मानसिक रोग न होना ही स्वास्थ्य है। यह एक नकारात्मक परिभाषा है और सत्य के निकट भी है, परन्तु पूरी तरह सत्य नहीं। वास्तव में स्वास्थ्य का सीधा सम्बंध क्रियाशीलता से है। जो व्यक्ति शरीर और मन से पूरी तरह क्रियाशील है, उसे ही पूर्ण स्वस्थ कहा जा सकता है। कोई रोग हो जाने पर क्रियाशीलता में कमी आती है, इसलिए स्वास्थ्य भी प्रभावित होता है। प्रचलित चिकित्सा पद्धतियों में स्वास्थ्य की कोई सर्वमान्य परिभाषा नहीं दी गई है। ऐलोपैथी और होम्योपैथी के चिकित्सक किसी भी प्रकार के रोग के अभाव को ही स्वास्थ्य मानते हैं। वे रोग को या उसके अभाव को तो माप सकते हैं, परन्तु स्वास्थ्य को मापने का उनके पास कोई पैमाना नहीं है। रोग के अभाव को मापने के लिए उन्होंने कुछ पैमाने बना रखे हैं, जैसे हृदय की धड़कन, रक्तचाप, लम्बाई या उम्र के अनुसार वजन, खून में हीमोग्लोबिन की मात्रा आदि। इनमें से एक भी बात अनुभव द्वारा निर्धारित सीमाओं से कम या अधिक होने पर वे व्यक्ति को रोगी घोषित कर देते हैं और अपने हिसाब से उसकी चिकित्सा भी शुरू कर देते हैं। सप्तम सुख स्वदेश में वासा। अष्टम सुख हों पंडित पासा॥ नौवां सुख हों मित्र घनेरे। आयुर्वेद के प्रसिद्ध ग्रंथ सुश्रुत संहिता में ऋषि ने लिखा है- समदोषाः समाग्निश्च समधातुमलक्रियः। प्रसन्नात्मेन्द्रियमनः स्वस्थ इत्यभिधीयते॥ अर्थात् जिसके तीनों दोष (वात, पित्त एवं कफ) समान हों, जठराग्नि सम (न अधिक तीव्र,न अति मन्द) हो, शरीर को धारण करने वाली सात धातुएं (रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा और वीर्य) उचित अनुपात में हों, मल-मूत्र की क्रियाएं भली प्रकार होती हों और दसों इन्द्रियां (आंख, कान, नाक, त्वचा, रसना, हाथ, पैर, जिह्वा, गुदा और उपस्थ), मन और सबकी स्वामी आत्मा भी प्रसन्न हो, तो ऐसे व्यक्ति को स्वस्थ कहा जाता है। सामान्य तौर पर देखा जाए तो किसी राष्ट्र की उन्नति उसके नागरिकों के स्वास्थ्य पर ही निर्भर करती है। यदि नागरिक स्वस्थ हैं तो निश्चित रूप से वह देश भी उन्नति के शिखर पर पहुँच सकता है। बहुत से व्यक्ति स्वास्थ्य के अर्थ को पूर्ण रूप से नहीं समझते। कुछ व्यक्ति बीमारियों से दूर रहने को ही स्वास्थ्य समझते हैं। कुछ शरीर के सुन्दर होने को ही स्वास्थ्य समझते हैं। कुछ व्यक्तियों के विचार से स्वास्थ्य केवल कार्य करने की क्षमता है, किन्तु यह स्वास्थ्य की संकुचित अवधारणा है। सामान्यतः अस्वस्थता तथा कष्टों का कारण स्वास्थ्य के प्रति ऐसा संकुचित दृष्टिकोण ही है। अतः एक व्यापक एवं सही दृष्टिकोण की जरूरत है जो वास्तविक स्वास्थ्य की ओर ले जा सके। क्योंकि स्वास्थ्य के अन्तर्गत शारीरिक शक्ति, क्षमता तथा सहनशीलता का पर्याप्त भंडार और मानसिक संतुलन भी आता है, जिससे दैनिक जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति हो सके। इसके अर्थ को हम निम्न परिभाषाओं से स्पष्ट कर सकते हैं- 1. ट्रैवर के अनुसार, “स्वास्थ्य व्यक्ति की वह स्थिति है, जिससे शरीर और मन सक्रिय हो कर सभी कार्य करते हैं। “ 2. वेबस्टर शब्दकोष के अनुसार, “यह किसी व्यक्ति की व्यक्तिगत, भावात्मक एवं शारीरिक स्त्रोतों को उच्चतम जीवनयापन के लिए सक्रिय रखने की व्यवस्था है। “ 3. विलियम ने स्वास्थ्य को बड़े ही साधारण शब्दों में परिभाषित किया है – “यह जिन्दगी को सर्वोत्तम ढंग से जीने एवं सेवा करने का गुण है।” अतः उपरोक्त परिभाषाओं के आधार पर कहा जा सकता है कि स्वास्थ्य केवल शारीरिक स्वास्थ्य ही नहीं, बल्कि इसमें सामाजिक, मानसिक, भावात्मक स्वास्थ्य भी शामिल है। स्वास्थ्य का महत्त्वमनुष्य के जीवन में स्वास्थ्य का महत्त्वपूर्ण स्थान है। स्वास्थ्य व्यक्ति की अमूल्य निधि है। यह केवल व्यक्ति विशेष को प्रभावित नहीं करता, बल्कि जिस समाज में वह रहता है उस सम्पूर्ण समाज को प्रभावित करता है। स्वस्थ मनुष्य ही सामाजिक उत्तरदायित्वों का निर्वाह कुशलतापूर्वक कर सकता है। इसलिए समाज में यह कहावत स्वास्थ्य के महत्त्व को दर्शाती है। “यदि धन खो गया कुछ नहीं खोया, यदि चरित्र खो गया तो कुछ खो गया, परन्तु यदि स्वास्थ्य खो गया तो सब कुछ खो गया।” स्वास्थ्य मनुष्य समाज का आधार स्तम्भ है। यदि हमारा स्वास्थ्य ठीक नहीं तो पुस्तकों से प्राप्त ज्ञान भी कोई उपकार नहीं कर सकता। समस्त कार्य क्षेत्र कोई भी हो, विचार कुछ भी हों, जीवन चर्चा कैसी भी हो, अस्वस्थ शरीर सदा ही आपकी उन्नति व विकास की राह का रोड़ा बनेगा। इसके विपरीत यदि स्वास्थ्य ठीक है तो व्यक्ति कठिन से कठिन व विपरीत परिस्थितियों में भी जीवन पथ पर उत्साहपूर्वक आगे बढ़ता रहता है। यदि शरीर रोगों से ग्रस्त हो और बीमारियों से पीड़ित तो मनुष्य स्वतंत्रतापूर्वक जीवन का उपभोग नहीं कर सकता। अरमान तड़फते रहते हैं, वंश चलता नहीं, इच्छाओं को दबाने से मनुष्य चिड़चिड़ा हो जाता है और शारीरिक दोषों के साथ-साथ मानसिक रोग भी लग जाते हैं तथा खाना-पीना, घूमना-फिरना सभी हराम हो जाता है। इसलिए जीवन यदि पुष्प है तो स्वास्थ्य उसमें शहद के समान है। स्वास्थ्य का महत्त्व बताते हुए बेकन कहते हैं, “स्वस्थ शरीर आत्मा का अतिथि भवन है और रुग्ण तथा दुर्बल शरीर आत्मा का कारागृह है।” स्वास्थ्य मनुष्य के लिए इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि मनुष्य को जीवन में कई कर्तव्य निभाने होते हैं, उसको जीवन निर्वाह के लिए आजीविका कमानी पड़ती है, उसे अपने माता-पिता और बच्चों को सहारा देना होता है व अन्य पारिवारिक व सामाजिक जिम्मेदारियाँ निभानी होती हैं। ऐबिस कार्ल कहते हैं, “केवल जीना ही बहुत नहीं है बल्कि हमें आनन्दमय जीवन की भी आवश्यकता है और जीवन की खुशी के लिए अच्छा स्वास्थ्य चाहिए। इन सबसे अधिक हमें ऐसे स्वास्थ्य की आवश्यकता है जो हमारे शरीर, मन व आत्मा को स्वस्थ्य रखे।” स्वास्थ्य का महत्त्व न केवल मानव के लिए है, बल्कि समाज के लिए भी उतना ही महत्तवपूर्ण है क्योंकि स्वस्थ्य व्यक्तियों का समाज ही उन्नति करता हैं बाहरी ताकतों की चुनौतियों का सामना करता है तथा सफलतापूर्वक अपने अधिकारों व कर्तव्यों का पालन कर मनुष्य सभ्यता को स्वस्थ व जीवत रख पाता है। सामाजिक स्वस्थ्य (Community Health) के महत्त्व का वर्णन करते हुए जे. एम. जस्सावाला कहते हैं, “यदि शिक्षा और विज्ञान मनुष्य सभ्यता का दिमाग व केंद्रीय स्नायुतन्त्र है तो स्वास्थ्य इसका दिल है।” स्वास्थ्य वास्तव में जीवन का अमूल्य रत्न है। इसको हर एक व्यक्ति प्राप्त कर सकता है। यदि प्रत्येक व्यक्ति स्वास्थ्य के प्रति अपने दृष्टिकोण को सकारात्मक रखते हुए अपने शरीर का ठीक ध्यान रखे तो 90 प्रतिशत बीमारियाँ रोकी जा सकती हैं। मनुष्य का स्वास्थ्य बैंक की पूंजी के समान समझा जाता है। यह हमारे शरीरिक बैंक का हिसाब है। यदि हम शरीर का ध्यान नहीं रखेंगे तो कोई बीमारी, दुःख विकार शरीर में आ जाता है। तथा व्यक्ति शारीरिक बैंक से उनको दूर करने के लिए कर्च लेता है। किन्तु यदि स्वास्थ्य रूपी बैंक की पूंजी ही नहीं ह तो मनुष्य कठिनाई में पड़ जाता है। अतः जो व्यक्ति शारीरिक, मानसिक और सामाजिक दृष्टि से स्वस्थ है वही व्यक्ति शारीरिक रूप से हष्ट-पुष्ट होने के कारण जीवनशक्ति से पूर्ण, भावात्मक रूप से सहनशील व चिंतारहित होता है और सामाजिक दृष्टि से सहयोगी, परोपकारी, निःस्वार्थी तथा दूसरों का सम्मान करने वाला होता है। वह अपने जीवन को तो सुखमय एवं आनंद से पूर्ण बनाता ही है, साथ ही सुखी जीवन व्यतीत करते हुए वह समाज और राष्ट्र अमूल्य योगदान दे सकता है।’ Important Links
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