निबंध लेखन का तरीका Class 12 - nibandh lekhan ka tareeka chlass 12

Students get through the MP Board Class 12th Hindi Important Questions General Hindi निबंध लेखन which are most likely to be asked in the exam.

MP Board Class 12th General Hindi निबंध लेखन Important Questions

1. आतंकवाद (म. प्र. 2009, 10, 13)

रूपरेखा:

  1. प्रस्तावना
  2. आतंकवाद से तात्पर्य
  3. आतंकवाद से छुटकारा
  4. उपसंहार।

1. प्रस्तावना:
मनुष्य के मन में जब किसी प्रकार भय और स्वार्थ भावना उसे निष्क्रिय बना देती है, अपने मनमाने स्वार्थ और इच्छा की पूर्ति हेतु वह हिंसा का सहारा लेकर देश और समाज में आतंक पैदा कर देता है। अपने संकुचित, दूषित और निम्न स्वार्थ सिद्धि के लिए वह कोई भी घृणित कदम उठाने से नहीं चूकता यही स्थिति आतंकवाद को जन्म देती है।

(2) आतंकवाद से तात्पर्य:
आतंकवाद से तात्पर्य यह है कि अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए चारों तरफ भय एवं आतंक फैलाना और इसकी प्राप्ति के लिए हिंसा, तोड़फोड़, बल और अस्त्र-शस्त्र में विश्वास रखने वाली विचारधारा। निर्दयता की ऐसी पराकाष्ठा जहाँ मानवता के लिए कोई स्थान नहीं होता। संसार में फैली हिंसा की प्रवृत्तियाँ और आतंकवाद-आज तो सारा संसार ही आतंकवाद के घेरे में है, सभी देशों में राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए आतंकवाद अपनाया जा रहा है।

विश्व के समृद्धि देशों में इसकी जड़ें गहरी हैं। अमेरिका के राष्ट्रपति जॉन. एफ. कैनेडी और हमारे देश की प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी तथा राजीव गांधी की हत्या आतंकवाद का परिणाम है। अमेरिका वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमला, भारतीय संसद पर पाकिस्तानी आतंकवादी का हमला तथा निर्दोष कश्मीरवासियों की हत्या भी आतंकवादी की घिनौनी चाल है।

(3) आतंकवाद से छुटकारा:
आतंकवाद से छुटकारा प्राप्ति हेतु दो कदम हैं पहला यह कि आतंकवादी सरगना क्या चाहते हैं और उनका मकसद क्या है, क्या बातचीत के जरिये तथा जिसके कारण उन्होंने अस्त्र-शस्त्र उठाये हैं, क्या अपनी बात को मनवाने के लिये यही विकल्प है।

साथ ही यदि कुछ आर्थिक, राजनैतिक एवं सांस्कृतिक हद तक कुछ माँगें हैं तो उन्हें समझा जा सकता है इसके लिये हिंसा का प्रयोग आवश्यक नहीं। दूसरा कदम यह है कि जब पहला तरीका काम न आये तो फिर काँटे को काँटे से ही निकाला जा सकता है। इसके लिए ईंट का जवाब पत्थर से देना होगा साथ ही ऐसा सबक सिखाना होगा कि कहीं भी इस प्रकार का दुःसाहसपूर्ण कदम न उठा सके। इस प्रकार साँप का फन कुचलना होगा।

(4) उपसंहार:
आज विश्व के अधिकांश देश आतंकवाद को समाप्त करने के लिये जागरूक हो उठे। परन्तु अब भी कुछ देश आतंकवाद को बढ़ावा, संरक्षण और प्रशिक्षण दे रहे हैं ऐसे देशों की सभी को मिलकर भर्त्सना करनी चाहिये तथा सभी देशों को ऐसे देश के खिलाफ कार्यवाही कर उस देश की आर्थिक, राजनैतिक स्थिति को ध्वस्त करना चाहिये जिससे वह भविष्य में इस प्रकार की कार्यवाही हेतु में आतंकवाद को संरक्षण प्रदान न कर सके।

आतंकवाद को समाप्त करना मानवता की रक्षा के लिए बहुत ही आवश्यक है ताकि सभी मानव भय और तनाव रहित सुरक्षित जीवन जी सके। आतंक से नहीं वरन् शान्ति, प्रेम और भाईचारे की भावना से ही सुख और आनंदकी प्राप्ति कर सकते हैं।

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2. विज्ञान एवं कम्प्यूटर (म. प्र. 2009, 10, 13)

रूपरेखा:

  1. प्रस्तावना
  2. कम्प्यूटर का महत्व
  3. कम्प्यूटर के उपयोग
  4. कम्प्यूटर और मस्तिष्क
  5. उपसंहार।

प्रस्तावना:
विज्ञान क्षेत्र में कम्प्यूटर अपने प्रभाव की वृद्धि कर रहा है। आज इसकी उपयोगिता भी बढ़ रही है। आज देश के अनेक क्षेत्रों में जैसे-बैंक, उद्योग तथा अन्य प्रतिष्ठानों में इसका उपयोग होने लगा है।

कम्प्यूटर का महत्व:
वस्तुत: कम्प्यूटर मानव मस्तिष्क का रूपात्मक योग है। यह एक ऐसा गुणात्मक घनत्व है, जो शीघ्र गति से कम-से-कम समय में ये त्रुटिहीन गणना करता है। मनुष्य सदा से गणितीय हल करने में अपने मस्तिष्क का प्रयोग करता रहा है।

इस कार्य के लिए सबसे पहले प्रयोग किया जाने वाला यन्त्र अबेकस (Abacus) प्रथम साधन था। आज वैज्ञानिक युग में अनेक प्रकार के गणना यन्त्र बना लिए हैं। पर इन सबमें अधिक तीव्र, शुद्ध, उपयोगी गणना करने वाला यन्त्र कम्प्यूटर है। चार्ल्स बैबेज पहले व्यक्ति थे जिन्होंने 19 वीं शताब्दी के प्रारम्भ में कम्प्यूटर बनाया था। यह कम्प्यूटर लम्बी गणना करके उसके परिणामों को स्पष्ट कर देता था। कम्प्यूटर स्वयं गणना करके उसके परिणामों को स्पष्ट कर देता था।

जटिल समस्याओं को मिनटों में हल कर देता था। कम्प्यूटर की गणना के लिए विशेष भाषा को तैयार किया जाता है। निर्देशों और सूचनाओं को कम्प्यूटर का प्रोग्राम कहा जाता है।

कम्प्यूटर का उपयोग:
21 वीं सदी को कम्प्यूटर का युग कहा जायेगा। इसकी उपयोगिता भी बढ़ रही है। हजारों मील दूर की सूचनाएँ इससे ज्ञात हो जाती हैं। हर क्षेत्र में इसकी उपयोगिता बढ़ रही है।

1. बैंकिंग क्षेत्र में:
खातों का हिसाब-किताब करने के लिए इसकी उपयोगिता बढ़ गयी है। कई राष्ट्रीयकृत बैंकों ने नयी चुंबकीय संख्याओं वाली नई चेक बुक जारी की है। यूरोप में कई देशों में घर में निजी कम्प्यूटर को अन्य कम्प्यूटर के साथ जोड़कर लेन-देन का कार्य होता है।

2. सूचना वसमाचार प्रेषण के क्षेत्र में:
कम्प्यूटर नेटवर्क द्वारा देश के बड़े नगरों को एक दूसरे के साथ जोड़ने का कार्य किया जाता है।

3. प्रकाशन के क्षेत्र में:
पुस्तकों और समाचार के प्रकाशन में कम्प्यूटर का महत्वपूर्ण स्थान है। अब तो समाचार पत्रों के सम्पादकीय विभाग में एक ओर कम्प्यूटर से मैटर भरा जाता है। साथ-ही-साथ इलेक्ट्रॉनिक प्रिन्टर शीघ्र ही मुद्रित सामग्री तैयार कर देंगे।

4. डिजाइनिंग के क्षेत्र में:
कम्प्यूटर के माध्यम से भवनों, मोटर, कारों, वायुयानों आदि के डिजाइन तैयार करने में कम्यूटर ग्राफिक्स का प्रयोग किया जा रहा है। वास्तुशिल्पी अपना डिजाइन कम्प्यूटर के स्क्रीन पर तैयार करते हैं।

5. कला के क्षेत्र में:
अब कम्प्यूटर कलाकार तथा चित्रकार के सहायक बन गये हैं। कलाकार कम्प्यूटर के सामने बैठकर अपने नियोजित प्रोग्राम के अनुसार स्क्रीन पर चित्र निर्मित करता है। वास्तविक रंगों का भाव प्रिन्ट छप जाता है।

6. वैज्ञानिक खोज के क्षेत्र में:
विज्ञान के क्षेत्र में कम्प्यूटर ने एटम बम से सम्बन्धित नई क्रान्ति ला दी है। अन्तरिक्ष के व्यापक चित्र अब कम्प्यूटर द्वारा उतारे जाते हैं। चित्रों का विश्लेषण भी कम्प्यूटर द्वारा ही किया जाता है।
आधुनिक वेधशालाओं के लिए कम्प्यूटर की आवश्यकता है। विज्ञान का कोई भी क्षेत्र इससे अलग नहीं है।

7. युद्ध के क्षेत्र में:
अमेरिका में पहला इलेक्ट्रॉनिक कम्प्यूटर एटम बम से सम्बन्धित गणनाएँ करने के लिए था। जर्मन के गुप्त संदेश जानने के लिए अंग्रेजों ने कोलोसम नामक कम्प्यूटर का प्रयोग किया है।

जीवन का हर क्षेत्र कम्प्यूटर की परिधि में आ गया है। वायुयान या रेलयात्रा के आरक्षण की व्यवस्था कम्प्यूटर द्वारा की जाती है। रेल्वे तथा बस का टाइम भी आपको कम्प्यूटर ही बतलायेगा। इसके अतिरिक्त चिकित्सा के क्षेत्र में, परीक्षाफल निर्माण में, मौसम सम्बन्धी जानकारी में, चुनाव कार्य में कम्प्यूटर का महत्वपूर्ण योगदान है।

दैनिक जीवन में कम्प्यूटर की क्षमताएँ एवं सम्भावनाएँ बढ़ गई हैं। छात्रों के लिए प्रिंटिंग के बाद कम्प्यूटर ही सबसे बड़ा आविष्कार है। इससे छात्रों और अध्यापकों का समय बचता है। भारत के भूतपूर्व प्रधानमन्त्री स्व राजीव गाँधी का कम्प्यूटर के प्रति अत्यधिक रुझान था। भारत ने कम्प्यूटर टेक्नॉलाजी प्राप्त करने के लिए अमेरिका की ओर दोस्ताना कदम बढ़ाए हैं। अब सरकार ने कम्प्यूटर पर कर घटाया है ताकि भारत में भी विदेशी टेक्नालॉजी वाली कम्पनियाँ स्थापित हो सकें। भारत इस प्रकार के अनेक विषयों पर विदेशों से हाथ मिला रहा है।

कम्प्यूटर और मानव मस्तिष्क-कम्प्यूटर एक मानव यन्त्र है। इसमें न मानवीय संवेदनायें हैं न रुचियाँ। पर यह मानव द्वारा निर्देशित ऐसा यन्त्र जो स्वयं निर्णय लेने में असमर्थ है। वास्तव में यह मानव मस्तिष्क की रचना है जो कम समय में समस्याओं को हल कर सकता है।

उपसंहार:
कम्प्यूटर टेक्नालॉजी भारत के आर्थिक जगत में क्रांति ला सकती है। यह प्रयोग समाजवादी आदर्शों के अनुसार किया जाये। अभी तक भारतीय पूँजीवादी तबका प्रत्येक तकनीक का प्रयोग केवल अपने लिए करता है। अत: आज साधारण जन भी इसे जानना चाहता है। यद्यपि आज का विश्व कम्प्यूटर युग में साँस ले रहा है। अत: कम्प्यूटर पर आज का विश्व निर्भर है। वह दिन दूर नहीं जबकि कम्प्यूटर सबके हाथ में होगा।

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3. स्वदेश प्रेम (म. प्र. 2012, 18)
जो भरा नहीं है भावों से, बहती जिसमें रसधार नहीं।
वह हृदय नहीं एक पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं॥

जिस देश में हमारा जन्म हुआ है, जिस धरती पर हम पलकर बड़े हुए हैं उसके प्रति हमारे हृदय में प्रेमभावना नहीं है तो वह हृदय नहीं है, पत्थर के समान है। इतना ही नहीं गुप्त जी ने देश-प्रेम से हीन व्यक्ति को पशु की संज्ञा दी है –

जिनमें न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है।
वह नर नहीं नर पशु निरा और मृतक समान है।

मनुष्य के हृदय में स्वदेश के प्रति प्रेम होना स्वाभाविक ही है। मनुष्य ही क्यों, पशु-पक्षियों तथा पेड़-पौधों में भी यह पावन प्रवृत्ति देखी जा सकती है। पक्षी पूरे दिन कोसों दूर तक घूमकर सायंकाल अपने नीड़ों में लौटते हैं।

पेड़-पौधे भी अपनी प्रिय जन्म-भूमि में जितने फलते-फूलते हैं वैसे किसी अन्य स्थल पर नहीं, उदाहरण के लिए कश्मीर में उत्पन्न होने वाला सेब, विश्व में अन्यत्र कहीं वैसा उत्पन्न नहीं हो सकता। श्री रामनरेश त्रिपाठी ने देश के प्रति अनुराग को अपनी ‘देश-प्रेम’ नामक कविता में इस प्रकार अभिव्यक्त किया है –

हिमवासी जो हिम में तम में, जीता है नित काँप-काँप कर।
रखता है अनुराग अलौकिक, वह भी अपनी मातृभूमि पर।

संसार के प्रत्येक देश में समय-समय पर देश प्रेमी जन्म लेते हैं। भारत का इतिहास तो देश-प्रेम की कथाओं से भरा पड़ा है। भारतवासियों के हृदय में देश-प्रेम की भावना को कूट-कूट कर भरने वाले शिवाजी, राणा प्रताप, लक्ष्मीबाई, भगतसिंह, सुभाष चन्द्र बोस, रामप्रसाद बिस्मिल आदि देश प्रेमियों का नाम भारतीय इतिहास में सदैव स्वर्णाक्षरों में चमकता रहेगा।

इन महान् आत्माओं की त्याग भावना के परिणामस्वरूप ही देश की स्थिति में परिवर्तन हो सका है। जिस देश के वासी स्वदेश की उन्नति में ही अपनी उन्नति देखते हैं, ऐसे देश की ही उन्नति सम्भव हो सकती है। वर्तमान समय में विदेशों में दृष्टिगोचर होने वाली उन्नति देश-प्रेम के परिणामस्वरूप ही दिखाई देती है, इसके विपरीत भारतवर्ष की अवनति का मूल कारण भारतवासियों में देश-प्रेम का अभाव है।

हमारे देश के लिए यह लज्जा की बात है कि कोई व्यक्ति या कोई नेता देश-हित के लिए स्वहित की बलि नहीं दे सकता। माता और मातृ-भूमि तो स्वर्ग से भी बढ़कर होती हैं, उनके उद्धार के लिए मनुष्य को अपने आपको समर्पित कर देना चाहिए। कहा भी गया है – ‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’।

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4. समय का महत्व (म. प्र. 2012, 14)

अंग्रेजी में एक प्रसिद्ध कहावत है:
टाइम इज मनी अर्थात् समय ही धन है, परन्तु वास्तव में देखा जाये तो समय धन की अपेक्षा अधिक कीमती है। नष्ट हुआ धन तो पुन: अर्जित किया जा सकता है, किन्तु बीता हुआ समय वापस नहीं आता।

समय तो ईश्वर की अतुलनीय देन है, जिसे न बढ़ाया जा सकता है और न कम किया जा सकता है। मानव के जीवन का प्रत्येक क्षण अनमोल है। यदि एक क्षण का भी दुरुपयोग होता है तो मानव सभ्यता का विकास-चक्र शिथिल हो जाता है। एक पल की शिथिलता जीवन भर के पश्चाताप का कारण बन जाती है।

मानव जाति में अन्तरिक्ष के रहस्यों को खोज निकालने की होड़ लगी है। इनमें से वही सफलता प्राप्त करने का अधिकारी होगा, जो समय का उचित उपयोग करेगा।

जीवन के प्रत्येक पल का उपयोग करने वाला ही सफलता के उच्चतम शिखर पर पहुँच सकता है। विधाता की ओर से हर प्राणी के जीवन के क्षण निश्चित हैं। जीवन में कार्यों का बोझ इतना होता है कि उसे थोडे समय में ढो पाना कठिन हो जाता है। समय केवल उसका साथ देता है, जो उसके मूल्य को पहचान कर उसका उचित उपयोग करता है।

कहा गया है:
‘का वर्षा जब कृषि सुखाने, समय चूकी पुनि का पछताने।’ अर्थात् खेती सूख जाने पर वर्षा होने का कोई लाभ नहीं होता। इस उक्ति का अर्थ अत्यन्त व्यापक है। किसी भी कार्य को सम्पन्न करने का एक निश्चित समय होता है। उस समय के निकल जाने के बाद यदि कार्य हो भी जाये तो उसकी उपयोगिता समाप्त हो जाती है। उपयुक्त समय पर उपयुक्त कार्य करना चाहिए। रोगी के मर जाने पर उसे औषधि प्रदान करने से कोई लाभ नहीं होता।

फिर तो वही बात होती है –
‘अब पछताय होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत।’

आग लगने पर कुआँ खोदने वाला व्यक्ति कभी भी अपना घर नहीं बचा पाता। उसका सर्वनाश निश्चित होता है। जो विद्यार्थी परीक्षा के दिनों में भी अध्ययन नहीं करता, वह परीक्षा परिणाम घोषित होने पर आँसू ही बहाता है।

जो समय नष्ट करता है, उसे समय नष्ट कर देता है। सिसरो ने समय को ‘सत्य का पथ-प्रदर्शक’ माना है। समय एक सम्पत्ति है। समय पर किया गया थोड़ा-सा कार्य मनुष्य को अनेक कठिनाइयों से बचा लेता है। मेसन का विचार है कि “स्वर्ण का प्रत्येक अंश जिस प्रकार मूल्यवान होता है, उसी प्रकार समय का सदुपयोग करना चाहिए। जो समय को बचाता है, उसे सम्मान देता है, समय भी उसकी रक्षा करता है।”

वस्तुत:
व्यक्ति को उचित समय पर ही सभी कार्य कर लेने चाहिए। समय बीत जाने पर तो व्यक्ति पश्चाताप ही करता रह जाता है। कहा भी गया है –

क्षणशः
कणशश्चैव, विद्यामर्थं च साधयेत्।

क्षणत्यागे कुतो विद्या, कण त्यागे कुतोधनम्।

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5. जीवन में खेलों का महत्व (म. प्र. 1996, 03, 07, 09, 10, 11, 12, महत्वपूर्ण)

रूपरेखा:

  1. प्रस्तावना
  2. खेलों के प्रकार
  3. खेलों का महत्व
  4. भारत में खेलों की दशा
  5. उपसंहार।

प्रस्तावना:
मनुष्य हमेशा से खेल-प्रिय रहा है। खेल सबको प्रिय है। बच्चे, जवान, बूढ़े सभी अपनी रुचि के अनुसार खेल खेलते हैं। यह बात दूसरी है कि पढ़ाई के समय बच्चों को खेलते देखकर माता-पिता उन्हें डाँट देते हैं या रोक देते हैं, किन्तु इसका मतलब यह नहीं है कि खेल बुरी चीज है या खेल उन्हें प्रिय नहीं।

खेलों के प्रकार:
खेल कई प्रकार के होते हैं। मुख्य रूप से खेल दो प्रकार के होते हैं-घर के भीतर खेले जाने वाले खेल तथा मैदानी खेल। प्रथम प्रकार के खेलों को अंग्रेजी में इनडोर गेम्स (Indoor games) कहते हैं और दूसरे प्रकार के खेलों को आउटडोर गेम्स (Outdoor games) कहते हैं।

इनडोर गेम्स के अन्तर्गत टेबल टेनिस, बैडमिंटन, कैरम बोर्ड, शतरंज, टेनिस, वॉलीबाल, मुक्केबाजी, जिमनास्टिक आदि खेल गिने जाते हैं तथा मैदानी खेल के अन्तर्गत फुटबाल, हॉकी, क्रिकेट, बेसबाल, बास्केटबाल, कबड्डी तथा विभिन्न दौड़ें आदि खेलों की गिनती होती है।

खेलों का महत्व:
खेल जीवन का अनिवार्य अंग है। यह स्वास्थ्य के लिये लाभकारी है। इससे हमारा स्वस्थ एवं सस्ता मनोरंजन होता है। खेल हमें भाई-चारा सिखाता है, अनुशासनप्रिय बनाता है तथा नेतृत्व की क्षमता प्रदान करता है। यह शरीर को सुन्दर, स्वस्थ व तरोताजा बनाता है तथा स्वस्थ शरीर में ही अच्छी बुद्धि निवास करती है। स्वास्थ्य उत्तम रहने पर काम करने में भी मन लगता है। कहा भी गया है –

‘शरीरमाद्यम् खलु धर्मसाधनम्’

अर्थात् सभी प्रकार के कार्यों को सिद्ध करने के लिए शरीर सबसे पहला साधन है। खेलों के द्वारा लोगों से मैत्री बढ़ती है और दर-दर के देशों को देखने का अवसर मिलता है। नामी खिलाडी बनने पर धन भी ख है। नौकरी भी आसानी से मिल जाती है। खेल राष्ट्रीय सम्मान और अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठा का साधन है। भारत में खेलों की दशा-भारत में खेलों की दशा अत्यन्त दयनीय है।

खेल के साधन अत्यन्त सीमित हैं। बहुत-से विद्यालयों और महाविद्यालयों में खेलों के सारे साधन तो कौन कहे, खेल के मैदान भी नहीं हैं। बच्चे गली-कूचों में खेलते रहते हैं। यही कारण है कि इतनी बड़ी जनसंख्या वाला देश होकर भी भारत अन्तर्राष्ट्रीय खेल प्रतियोगिताओं में पिछड़ जाता है। यहाँ के बच्चों को गिल्ली-डण्डे तथा कबड्डी जैसे खेल ही सुलभ हो पाते हैं। हॉकी का सिरमौर भारत, आज इस खेल में भी भाई-भतीजावाद एवं गुटबाजी के कारण पिछड़ता जा रहा है।

उपसंहार:
खुशी की बात यह है कि देर-सबेर हमारी सरकार की आँखें खुल चुर्कः हैं। वह खेल के राष्ट्रीय महत्व को समझने लगी है। ‘एशियाड 82’ खेल का आयोजन इस बात का प्रमाण है कि हमारी सरकार खेल और खिलाड़ियों पर विशेष ध्यान देने लगी है। भारत सरकार के अन्तर्गत एक खेल मन्त्रालय स्थापित किया गया है। देश के चोटी के खिलाड़ियों को सम्मानित करने के साथ ही आर्थिक सुरक्षा भी प्रदान की जा रही है।

बस आवश्यकता इस बात की शेष रह गयी है कि यह मंत्रालय राजनीतिक दाँव-पेंच से दूर रहे तथा गाँव-गाँव में खेलों के साधन प्रदान करे। छिपे प्रतिभावान खिलाड़ियों को खोज निकाले तथा उन्हें हर तरह से प्रश्रय प्रदान करे, तो निश्चित ही एक दिन भारत का मस्तक खेल जगत में भी ऊँचा होकर रहेगा।

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6. बेरोजगारी की समस्या (म. प्र. 2014, 15, 17)

“बेरोजगारी का हो नाश, तभी हो देश का विकास।”

रूपरेखा:

  1. प्रस्तावना
  2. बेरोजगारी के प्रमुख कारण
  3. बेरोजगारी के प्रकार
  4. बेरोजगारी के परिणाम
  5. समाधान हेतु सुझाव।

प्रस्तावना:
आज देश के कर्णधार मनीषी तथा समाज सुधारक न जाने कितनी समस्याओं की चर्चा करते हैं, परन्तु सारी समस्याओं की जननी बेरोजगारी है। इसी से भ्रष्टाचार, अनुशासनहीनता, चोरी, डकैती तथा अनैतिकता का विस्तार होता है। बेकारों का जीवन अभिशाप की लपटों से घिरा है। यह समस्या अन्य समस्याओं को भी जन्म दे रही है। चारित्रिक पतन, सामाजिक अपराध, मानसिक शिथिलता, शारीरिक क्षीणता आदि दोष बेकारी के ही परिणाम हैं।

बेरोजगारी के कारणं:
बेरोजगारी के विभिन्न कारणों में से प्रमुख इस प्रकार हैं –

1. जनसंख्या वृद्धि:
निरन्तर जनसंख्या वृद्धि के कारण बेरोजगारी बढ़ते जा रही है।

2. लघु एवं कुटीर उद्योग-धन्धों का अभाव:
ब्रिटिश सरकार की नीति के कारण देश के लघु एवं कुटीर उद्योगों में समुचित प्रगति नहीं हुई है। काफी उद्योग धन्धे बन्द हो गये हैं।

3. औद्योगीकरण का अभाव:
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् देश में बड़े उद्योगों का विकास हुआ परन्तु लघु उद्योगों की उपेक्षा रही।

4. दोषपूर्ण शिक्षा प्रणाली:
लिपिक बनाने वाली भारतीय शिक्षा प्रणाली में शारीरिक श्रम का कोई महत्व नहीं है। शिक्षित वर्ग के प्रति मन में शारीरिक श्रम के प्रति घृणा उत्पन्न होने से बेकारी में वृद्धि होती है।

5. पूँजी का अभाव:
देश में पूँजी का अभाव है इसलिए उत्पादन में वृद्धि न होने से भी बेकारी बढ़ रही है।

6. कुशल एवं प्रशिक्षित श्रमिकों का अभाव:
शिक्षा विद्यालयों एवं कारखानों की कमी के कारण देश में कुशल एवं प्रशिक्षित श्रमिकों का अभाव है।

बेरोजगारी के प्रकार:

  1. ग्रामीण बेरोजगारी
  2. शिक्षित वर्ग।

1. इस श्रेणी में अशिक्षित एवं निर्धन कृषक और ग्रामीण मजदूर आते हैं। जो प्रायः वर्ष में 5 माह से लेकर 9 माह तक बेकार रहते हैं।
2. शिक्षा प्राप्त करके बड़ी-बड़ी उपाधियों को लेकर अनेक सरस्वती के वरद पुत्र और पुत्रियों बेकार दृष्टिगोचर होते हैं इसे देश का दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है।

बेरोजगारी के परिणाम:
भारत में ग्रामीण तथा नगरीय स्तर पर बढ़ती हुई बेरोजगारी की समस्या से देश में शान्ति-व्यवस्था आदि को भयंकर खतरा उत्पन्न हो गया है उसे रोकने के लिए यदि समायोजित कदम नहीं उठाया गया तो भारी उथल-पुथल का भय है।

समस्या के समाधान हेतु सुझाव:

1. जनसंख्या पर नियंत्रण:
जनसंख्या की वृद्धि को रोकने के लिए पंचवर्षीय योजनाओं में परिवार, कल्याण को अधिक-से-अधिक प्रभावशाली बनाया जाये।

2. लघु एवं कुटीर उद्योग का विकास:
उद्योगों के केन्द्रीयकरण को प्रोत्साहन देकर गाँवों में लघु और कुटीर उद्योग धन्धों का विकास करना चाहिए। कम पूँजी से लगने वाले ये उद्योग ग्रामों तथा नगरों में रोजगार देंगे। इन उद्योगों का बड़े उद्योगों में तालमेल करना आवश्यक है।

3. बचत एवं विनियोग की दर में वृद्धि:
बचत को बढ़ावा देकर बेरोजगारी को नियंत्रित किया जा सकता है। बेकारी समाप्त हो जाये तो चारों ओर प्रसन्नता की लहर दौड़ जायेगी।

“रोजगार सबको मिले, कोई न हो बेकार।
घर-घर दीपक जल उठे, महक उठे संसार।।”

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7. दहेज प्रथा और नारी (म. प्र. 2017)

पंचतंत्र में लिखा है –

पुत्रीति जाता महतीह, चिन्ताकस्मैप्रदैयोति महान वितकैः।
दत्वा सुखं प्राप्त यस्यति वानवेति, कन्यापितृत्वं खलुनाम कष्टम।

अर्थात् पुत्री उत्पन्न हुई यह बड़ी चिंता है। किसको दी जाएगी और देने के बाद भी सुख पायेगी या नहीं यह बड़ा वितर्क रहता है। कन्या का पितृत्व निश्चय ही कष्टपूर्ण होता है।

प्रस्तावना:
हमारा भारत एक धर्म प्रधान देश है। यहाँ भौतिकता के साथ आध्यात्मिकता के स्वर भी गुंजित है। यहाँ की सभ्यता एवं संस्कृति आदर्श है। विदेशी हमारी सभ्यता एवं संस्कृति के प्रति सदैव आकर्षित होते रहे हैं। भारत का मानचित्र सदैव गौरवशाली रहा है। लेकिन दुर्भाग्यवश इस मानचित्र पर दहेज के रूप में आज एक काला धब्बा दृष्टिगोचर हो रहा है। उसने संपूर्ण देश के मानचित्र को अशोभनीय एवं कुरूप बना दिया है।

दहेज का आशय:
दहेज का सामान्य अर्थ उस सम्पत्ति से है जो एक पुत्री का पिता उसकी शादी में वर पक्ष को देता है। प्राचीन काल में इसे स्वेच्छा से दिया जाता था। रामचरित मानस में कवि गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा –

‘कहि न जाइ कछु दाइज भूरी, रहा कनक मनि मंडप पूरी।
कंबल वसन विचित्र पटोरे। भाँति-भाँति बहुमोल न थोरे।
दाइज अमित न सकिह कहि दीन्ह विदेह बहोरि
जो अवलोकन लोकपति लोक संपदा थोरि।

लेकिन आज स्वेच्छा से दिये गये धन ने अनिवार्यता का रूप ग्रहण कर लिया है। आज के जमाने में वर पक्ष अनेक वस्तुओं की माँग करता है। आज दहेज रूपी दानव के कारण कितनी कन्याओं की माँग सूनी हो गयी तथा हँसती-खिलखिलाती जिन्दगी नरक के समान हो गयी। उनके स्वप्न चकनाचूर हो गये। उनकी इच्छाओं को कोमल कलियों के सदृश मसल दिया गया।

दहेज प्रथा का प्रचलन एवं कारण:
प्राचीनकाल से ही दहेज का प्रचलन चला आ रहा है लेकिन उस समय यह केवल कुलीन, सामन्तों एवं राजा महाराजाओं तक ही सीमित था। पुत्री की शादी में सामन्त लोग हीरे जवाहरात, घोड़े, हाथी तथा दास-दासियों दहेज के रूप में दिया करते थे। सुभद्रा, द्रौपदी एवं उत्तरा की शादी में भी दहेज का उल्लेख है, लेकिन आज दहेज प्रथा ने लालच का रूप ले लिया है।

दहेज प्रथा एक अभिशाप:
समाज के लिए दहेज प्रथा कोढ़ की तरह अभिशाप सिद्ध हो रही है। निर्धन माँ-बाप की पुत्रियाँ आज कुँवारी तथा निराश हैं। दहेज देने में असमर्थ अपने माता-पिता को देखकर आत्महत्या करके मौत का आलिंगन कर रही हैं। आज कितनी ही रूपवती एवं शिक्षित कन्याओं का दहेज न देने के कारण मजबूर होना पड़ता है।

दहेज प्रथा के निराकरण के उपाय:
राष्ट्र के कर्णधार एवं सुधारक इसके निराकरण के लिए प्रयासरत हैं। केन्द्रीय सरकार इसे कानून के माध्मम से अपराध घोषित कर चुकी है, लेकिन इस समस्या से अभी छुटकारा नहीं मिल पाया है। इसके लिए अंतर्जातीय विवाह सम्पन्न करने होंगे। दहेज लोलुप लोगों का सामाजिक बहिष्कार करना होगा। सामूहिक विवाह करने होंगे। समाज में ऐसी चेतना एवं जागृति लानी होगी कि कोई व्यक्ति दहेज लोलुप मनुष्य के यहाँ शादी में न जाए।

उपसंहार:
दहेज प्रथा हमारे देश के माथे पर कलंक है। देश के शरीर में यह कुष्ठ रोग बनकर उसे विकृत बना रहा है। यह असाध्य बीमारी है। इससे मुक्ति पाना नितांत आवश्यक है दहेज उन्मूलन के अभाव में देश की सुख एवं शांति के सपने सँजोना बालू में तेल निकालने के समान है। आज आवश्यकता है कि समाज के नवयुवक दहेज लेने एवं देने का घोर विरोध करें। राष्ट्रीय सरकार को भी इस ओर कठोर एवं सक्रिय कदम उठाने की आवश्यकता है। यदि पूरी लगन, सत्यता, आस्था तथा विश्वास के साथ दहेज उन्मूलन का प्रयास किया जाएगा तो इससे मुक्ति मिलना सभव है।

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8. समाचार-पत्र (म. प्र. 1991, 98 P, 2004 P, 07, संभावित)

रूपरेखा:

  1. प्रस्तावना
  2. समाचार-पत्रों का इतिहास
  3. समाचार पत्रों का महत्व
  4. अच्छे समाचार-पत्रों के गुण
  5. उपसंहार।

प्रस्तावना:
सुबह बिस्तर छोड़ते ही आज का नागरिक एक कप चाय और समाचार-पत्र की माँग करता है। वह चाय की चुस्की लेकर शारीरिक स्फूर्ति का अनुभव करता है तथा समाचार-पत्रों पर आँखें दौड़ाकर देश काल की घटनाओं, विचारों से वाकिफ होकर मानसिक रूप से अपने आपको तरोताजा अनुभव करता है। इस तरह समाचार-पत्र आज की दुनिया में एक निहायत जरूरी चीज बन गया है।

समाचार-पत्रों का इतिहास:
समाचार-पत्र में अंग्रेजी न्यूज (NEWS) के N.E.W.S. (N for North, E for East, W for West, S for South) ये चार अक्षर जुड़े हैं जो क्रमशः उत्तर, पूर्व, पश्चिम तथा दक्षिण के प्रतीक हैं, अर्थात् समाचार-पत्र वह है जिसमें समस्त दिशाओं के समाचार होते हैं।

समाचार-पत्र का जन्म इटली के वेनिस नगर में 13वीं शताब्दी में हुआ। इससे पूर्व लोगों में समाचार-पत्र की परिकल्पना भी नहीं थी। 17 वीं सदी में धीरे-धीरे अपनी उपयोगिता के कारण समाचार-पत्र इंग्लैण्ड पहुँचा। फिर धीरे-धीरे सारे संसार में फैला। भारत में सर्वप्रथम कलकत्ता में इसका जन्म और विकास हुआ। 19 जनवरी, सन् 1780 को ‘बंगाल गजट’ या ‘कैलकटा जनरल एडवरटाइजर’ के प्रकाशन के साथ ही भारतीय पत्रकारिता का जन्म हुआ।

समाचार-पत्रों का महत्व:
समाचार-पत्रों के महत्व का बखान जितना किया जाय उतना कम होगा। आधुनिक युग की प्रभावपूर्ण उपलब्धियों में से समाचार-पत्र एक है। सामाजिक चेतना एवं समाज के उन्नयन में समाचार-पत्रों की भूमिका उल्लेखनीय है। सांस्कृतिक चेतना जगाने और छात्रों का सामान्य ज्ञान बढ़ाने में भी समाचार-पत्र उल्लेखनीय भूमिका अदा करते हैं।

राजनीतिज्ञों के लिए, राजनीतिक प्रौढ़ता बढ़ाने के लिए, लोगों में साहित्यिक चेतना जगाने की दृष्टि से भी समाचार-पत्र महत्वपूर्ण हैं। व्यापारियों के लिए तो यह आवश्यक चीज बन गया है। यह युग विज्ञापन का युग है, प्रचार का युग है और समाचार-पत्र प्रचार का सरल एवं सस्ता माध्यम है।

वैयक्तिक दृष्टि से भी विज्ञापनों का कम महत्व नहीं है। नौकरी का विज्ञापन, वर-वधु विज्ञापन, शुभकामनाएँ, आभार प्रदर्शन, निमन्त्रण आदि का काम समाचार-पत्र करता है। समाचार-पत्र तो प्रजातन्त्र की रीढ़ कहे जाते हैं। जनमत बनाने का काम ये ही करते हैं। वैचारिक स्वतन्त्रता को प्रश्रय समाचार-पत्र ही देते हैं। इस तरह समाचार-पत्र आज के संसार में अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान बना चुके हैं।

अच्छे समाचार-पत्रों के गुण:
अच्छे समाचार-पत्र निष्पक्ष रहते हैं तथा स्वस्थ पत्रकारिता पर आधारित होते हैं। ये जनता और सरकार को सही दिशा और सलाह देते हैं। वे किसी के हाथ बिके नहीं होते। वे समाज हित और राष्ट्र हित को ध्यान में रखकर ही समाचार छापते हैं। वे पीत पत्रकारिता से बचते हैं। वे किसी की चरित्र हत्या नहीं करते।

उपसंहार:
विचार कर देखा जाए तो समाचार-पत्र मात्र घटनाओं का लेखा-जोखा नहीं है। वे राजनीतिक, सामाजिक, साहित्यिक आदि विविध प्रकार के समाचारों की समीक्षा भी है। वे लोकमत को बनाते-बिगाड़ते हैं तथा लोक जीवन को प्रभावित करते हैं। अतएव समाचार-पत्र के सम्पादकों को सदैव लोकहित एवं देशहित को ध्यान में रखकर समाचारों का सम्पादन करना चाहिए, विश्वसनीय समाचार देना चाहिए तथा उत्तेजक समाचारों व अफवाहों से बचना चाहिए।
अच्छी पत्रकारिता समाचार-पत्र की जान है।

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9. “जल ही जीवन है” (म. प्र. 2011, 15, 18)

“जल ही जीवन है” यह कथन उचित है कि मनुष्य के जीवन में जल का महत्व अत्यधिक है। जल के महत्व को समझाते हुए कवि रहीम ने कहा है –

“रहीमन पानी राखिए बिनु पानी सब सुन” जल के बिना यह संसार सूना है। हमें दैनिक जीवन की आवश्यकता की पूर्ति हेतु जल की आवश्यकता होती है यह जल वर्षा से प्राप्त होता है। एक कवि का कथन है –

“अगर न नभ में बादल होते जग की चहल – पहल मर जाती है।”

जल न होता न होता जीवन जागती नरक आग। पानी के बिना मनुष्य पशु-पक्षी सजीव उत्पन्न न होती। धरती में दरारें पड़ जाती सारी पृथ्वी वीरान हो जाती यह रंगीन संसार बेरंग हो जाता है।

वर्षा का जल कृषि प्रधान भारत देश का भाग्य विधाता है, जल के अभाव में अकाल का सामना करना पड़ता हैं अगर बादल न होते तो बरसात का जल न होता तो सरिताएँ कहाँ से बहती? सरिताओं के न बहने से सभ्यता संस्कृति कैसे जन्म लेती।

जल के अभाव में प्रकृति की सुंदरता देखने को न मिलती। कमलों से भरे तालाबों, कल-कल करते झरने, सरपट दौड़ती हुई सरिताएँ, उमड़ता हुआ सागर, सभी का चेतन सौंदर्य प्रायः नष्ट हो जाता है। वर्षा जल के बिना हँसती हुई कलियाँ खिलते, हुए फूल, वृक्ष और हरे-हरे खेत कहाँ दिखाई देते।

सचमुच जल इस सृष्टि का सौभाग्य है। जीवन गंगा की गंगोत्री है। हमारे जीवन में जो कुछ सुंदर है, वह उसी का आशीर्वाद है। प्रकृति की करुणा का अनुपम उपहार है। यदि जीवनदायी जल न होता तो यह सुनहरा संसार एक ऐसा नाटक बन जाता, जिसका प्रत्येक भाव दुखमय होता है।

10. विज्ञान के बढ़ते चरण
अथवा,
विज्ञान वरदान या अभिशाप
अथवा,
विज्ञान के नये आविष्कार (म. प्र. 1991, 92, 93, 98, 2001 R, P, 02 R, 03, 07, 12, 17, महत्वपूर्ण)

रूपरेखा:

  1. प्रस्तावना
  2. विभिन्न क्षेत्रों में विज्ञान का महत्व
  3. विज्ञान के अभिशाप
  4. उपसंहार।

प्रस्तावना:
मानव ने अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए नये-नये आविष्कार किये हैं। इस शताब्दी में विज्ञान ने भारी प्रगति की है और संसार का नक्शा ही बदल दिया है। विज्ञान ने हमारी बड़ी से बड़ी और छोटी से छोटी दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति की है।

उसने मानव जीवन में अधिक आनन्द बढ़ाया है, अंधे को आँखें, बहरे को कान, पंगु को पैर दिये हैं और मनुष्य को पक्षियों के समान आकाश में उड़ने की सुविधा दी है। मनुष्य जल पर भी चल सकता है। वैज्ञानिक उपकरणों के सहारे आज हम सैकड़ों मील दूर बैठे हुए अपने किसी मित्र से बातचीत कर सकते हैं।

मनोरंजन के क्षेत्र में:
मनोरंजन की आधुनिक वस्तुएँ विज्ञान की ही देन हैं। सिनेमा, टेलीविजन, टेपरिकार्डर, रेडियो आदि के माध्यम से हम मनोरंजनार्थ प्रस्तुत की जाने वाली सामग्री देख सुन सकते हैं। हमारी शिक्षा,संस्कृति,आचार-विचार पर भी इसका प्रभाव पड़ा है।

चिकित्सा के क्षेत्र में:
स्वास्थ्य और चिकित्सा के क्षेत्र में भी विज्ञान ने मानव को बड़ा लाभ पहुँचाया है। खतरनाक रोगों पर काबू पा लिया है। कई प्रकार के टीकों का आविष्कार हो चुका है। एक्स-रे द्वारा तो शरीर का भीतरी भाग तक अच्छी तरह से देखा जा सकता है।

शल्य चिकित्सा का भी अच्छा विकास हुआ है। अब तो विज्ञान मौत को भी जीतने का प्रयास कर रहा है। कृषि के क्षेत्र में कृषि और उद्योग-धन्धों के विकास में भी विज्ञान ने हमारी बड़ी मदद की है। उसने नलकूप, ट्रैक्टर, वैज्ञानिक खाद आदि ऐसे अनेक उपकरण निर्मित किये हैं जिनके कारण उत्पादन अनेक गुना बढ़ गया है। ट्रैक्टर, सिंचाई के पम्प, बीज बोने से लेकर काटने और साफ करने तक के यंत्र, रासायनिक उर्वरक, कीटनाशक औषधियाँ आदि विज्ञान के कारण सम्भव हो सकी हैं।

आवागमन के क्षेत्र में:
आज संसार की दूरी कम हो गयी है। वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना साकार हुई है। आवागमन के द्रुतगामी साधनों के कारण आज मनुष्य दिल्ली में भोजन करता है, मुम्बई जाकर पानी पीता है और कोलकत्ता जाकर शयन करता है। इंग्लैंड, अमेरिका, रूस आदि देशों की यात्रा अब स्वप्न नहीं रह गयी है। यात्रा द्रुत, सुगम, सुखद और सुरक्षित हो गयी है।

अन्य क्षेत्रों में:
विज्ञान ने मानव जीवन के हर क्षेत्र को प्रभावित किया है। गैस का चूल्हा, विद्युत् चूल्हा, रेफ्रीजरेटर, बिजली का पंखा आदि कई वस्तुएँ हमारे दैनिक जीवन के लिए अत्यन्त उपयोगी हैं। नई-नई मशीनों का चलन हो गया है।

अन्तरिक्ष में विज्ञान:
वैज्ञानिकों ने आर्यभट्ट, भास्कर, रोहिणी, इनसेट के उपग्रह अन्तरिक्ष में स्थापित कर अपनी श्रेष्ठता प्रतिपादित कर दी है। मानव चन्द्र और मंगल की यात्रा कर आया अब दूरस्थ ग्रहों की बारी है।

अभिशाप:
विज्ञान ने मनुष्य को जहाँ अनेक प्रकार से लाभान्वित किया है, वहीं कई प्रकार से अहित भी किया है। अनेक लाभकारी आविष्कारों के साथ उसने भयंकर से भयंकर शस्त्रों का निर्माण किया है।

ये अस्त्र-शस्त्र इतने घातक होते हैं कि देखते ही देखते लाखों व्यक्ति को मौत के घाट उतार सकते हैं। हिरोशिमा और नागासाकी में अणुबम का दुष्परिणाम हम देख ही चुके हैं। अब तो अणु बम से भी अधिक भयंकर, अधिक विनाशकारी शस्त्रास्त्र बन चुके हैं, जिनका कि अभी हाल ही में हुए युद्ध में ईराक तथा बहुराष्ट्रीय सेनाओं ने डटकर प्रयोग किया था।

इस प्रकार इन अस्त्रों के कारण मानवता के लिए एक जबरदस्त खतरा पैदा हो गया है।

विज्ञान ने बड़ी-बड़ी मशीनों और कारखानों के द्वारा उत्पादन अवश्य बढ़ाया है, लेकिन बेरोजगारी, स्पर्धा, शोषण, अस्वास्थ्य आदि की समस्याएँ भी पैदा की हैं। उद्योगों का बड़े पैमाने पर केन्द्रीयकरण हो गया है, समाज पूँजीपति और श्रमिक वर्ग में बँट गया है।

इन्हीं कारखानों ने बड़े-बड़े देशों में स्पर्धा की भावना पैदा की जिसके परिणामस्वरूप युद्ध होते रहते हैं। उत्पादन वृद्धि के साथ बेकारी भी बढ़ रही है। भोपाल में दिसम्बर 1984 में यूनियन कार्बाइड कारखाने में गैस रिसने के कारण 2500 से अधिक लोगों को जान से हाथ धोना पड़ा। विज्ञान के कारण समाज में भौतिकवाद और विलासिता की भावना भी बढ़ी है। आज का मनुष्य भौतिक सुख-सुविधाओं के पीछे पागल है।

जितनी सुविधाएँ बढ़ रही हैं मनुष्य उतना ही विलासी बनता जा रहा है। विलासिता के कारण शक्ति का क्षय होता जा रहा है। आज मनुष्य शारीरिक दृष्टि से पहले की अपेक्षा बहुत कमजोर हो गया है। विभिन्न प्रकार के बढ़ते हुए प्रदूषण ने भी मानव जीवन को बहुत प्रभावित किया है।

उपसंहार:
विज्ञान की उपलब्धियाँ एक ओर आनन्दकारी हैं, तो दूसरी ओर विध्वंसकारी भी। आवश्यकता इस बात की है कि हम अपनी प्रवृत्तियों का परिमार्जन करें और विज्ञान द्वारा प्रदत्त वस्तुओं का उपयोग मानवता की रक्षा, खुशहाली और कल्याण के लिए करें। विज्ञान विनाश का नहीं सृजन का साधन बनाया जाना चाहिए। विज्ञान दोषी नहीं है, दोषी है मनुष्य जो इसका दुरुपयोग करता है।

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11. अनुशासन-छात्र जीवन में बुनियाद (म. प्र. 2005, 12, 17, 18)

प्रजातंत्र का आधार है सुशासन।
जीवन को सुन्दर बनाता है अनुशासन।।

जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अनुशासन आवश्यक है। अनुशासन जीवन में व्यवस्था लाता है। जीवन को व्यवस्थित बनाने के लिए परम्परागत नियमों एवं नीतियों का अनुसरण आवश्यक है।
आत्मानुशासन, अनुशासन का ही एक रूप है। यह चरित्र का निर्माण करता है।

विद्यार्थी जीवन और अनुशासन:
विद्यार्थी जीवन भावी जीवन की आधारशिला है। इस काल में बालक जो कुछ सीखता है और ग्रहण करता है, उससे भावी जीवन का निर्माण होता है। यह काल एक तरह से बीज बोने का काल है। अतः विद्यार्थी जीवन में अनुशासन की उपयोगिता निर्विवाद है। विद्याध्ययन करते हुए विद्यार्थी में जो संस्कार डाल दिये जाते हैं, जीवनपर्यन्त रहते हैं। अनुशासनहीन विद्यार्थी जीवन के किसी भी क्षेत्र में सफल नहीं हो सकता।

प्राचीन काल का विद्यार्थी जीवन:
प्राचीन काल में विद्यार्थी गुरुकुल में रहते हुए त्याग, सेवा, विनय, सहानुभूति आदि गुणों को ग्रहण कर गृहस्थ जीवन में प्रवेश करता था। गुरुकुल में ही उसके जीवन की सुदृढ़ आधारशिला रख दी जाती थी। संयम, नियम, कर्मठता आदि गुणों की थाती उसे प्राप्त होती थी।

आज का विद्यार्थी जीवन:
आज पाँच या छ: वर्ष की अवस्था में बालक विद्यार्थी जीवन में प्रवेश करता है। प्राथमिक, माध्यमिक और उच्चतर माध्यमिक विद्यालयों में शिक्षा प्राप्त कर वह महाविद्यालय में प्रवेश करता है। उच्चतर माध्यमिक स्तर तक तो वह अनुशासित दिखायी देता है, किन्तु महाविद्यालयीन हवा लगते ही वह अनुशासनहीनता की ओर अग्रसर दिखाई देता है यह अनुशासनहीनता उसे कहाँ ले जायेगी कुछ कहा नहीं जा सकता।

अनुशासनहीनता की समस्या:
अनुशासनहीनता कॉलेज के विद्यार्थियों में ही हो ऐसी बात नहीं है। यह जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में व्याप्त है। अनुशासनहीनता की समस्या शासन के सामने प्रश्नवाचक चिह्न बनी हुई है। विद्यार्थी ही राष्ट्र के भावी कर्णधार हैं, भविष्य की आशाएँ हैं, राष्ट्र की नैया को खेने वाले नाविक हैं और वे ही दिशाहीन होते जा रहे हैं।

आधुनिकता और अनुशासन:
आधुनिकता की आँधी का प्रभाव सीधा आज के विद्यार्थी पर प्रत्यक्ष दिखाई देता है। संस्कार, मान मर्यादा और मानव मूल्यों से विद्यार्थी दूर हो गया है, जहाँ हमने एक ओर प्रगति के अम्बार खोज लिये हैं, वहीं दूसरी ओर मानवतावादी दृष्टिकोण शनैः शनैः गिरता जा रहा है और मॉडलिंग एवं आधुनिकता का जादू अनुशासन को दीमक की तरह अन्दर-ही-अन्दर खोखला बनाता जा रहा है।

सर्वप्रथम कारण है माता-पिता का अनुत्तरदायी दृष्टिकोण। बच्चों को स्वतंत्र छोड़ देने से वे दिशाहीन हो जाते हैं। दूसरा कारण है शिक्षा का जीवनोपयोगी न होना। विद्यार्थी का आज शिक्षा पर कोई विश्वास नहीं रह गया। विद्यार्थी और शिक्षक के बीच अलगाव सा आ गया है। शिक्षक छात्रों के प्रति अपने दायित्व का निर्वाह नहीं कर रहे हैं और न ही विद्यार्थी उनके प्रति आदर या श्रद्धा व्यक्त करते हैं। विद्यार्थी गुरुओं के प्रति असम्मान, परीक्षा प्रणाली के प्रति असंतोष, राजनैतिक हथकंडों की गिरफ्त जैसी अनियमितताओं का शिकार बना हुआ है।

विद्यार्थी जीवन कच्ची मिट्टी का ऐसा पिंड है जिसे चाहे जैसा रूप दिया जा सकता है। चरित्र-निर्माण का यही श्रेष्ठ अवसर है। इस अवस्था में विद्यार्थी आत्मनिर्भरता, उदारता, स्नेह, सौहार्द्र, श्रद्धा, आस्था, नम्रता आदि गुणों का विकास कर सकता है।

समस्याओं का समाधान:
अनुशासनहीनता की कथित समस्या का समाधान एक ही प्रकार से हो सकता है कि उन्हें जीवन की जिम्मेदारियों का अनुभव कराया जाये। अनुशासनहीनता से होने वाली हानियों एवं राष्ट्रीय क्षति से उन्हें परिचित कराया जाये और स्वार्थ की राजनीति से उन्हें दूर रखा जाये। अनुशासन अध्ययन एवं आदर्श नागरिकता के गुणों का इनमें विकास किया जाये। उनकी समस्याओं के निराकरण एवं समुचित विकास की ओर पूरा ध्यान दिया जाये तो कोई कारण नहीं कि विद्यार्थियों में असंतोष भड़के।

आज का विद्यार्थी देश की वर्तमान स्थिति एवं समस्याओं से अप्रभावित नहीं रह सकता। घासलेट के लिये घंटों लाइन में खड़े रहने के बाद उससे स्वस्थ मानसिकता की आशा नहीं की जा सकती। अत: आवश्यक है कि छात्रों के सर्वांगीण विकास एवं समस्याओं को सदैव दृष्टि पथ में रखा जाये।

उपसंहार:
अनुशासन की समस्या आज विद्यार्थियों तक सीमित नहीं है। सारे देश को अनुशासन की आवश्यकता है। भ्रष्टाचार और महँगाई की समस्याएँ जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में व्याप्त अनुशासनहीनता के कारण हैं। विद्यार्थियों को बदलती हुई परिस्थितियों से परिचित कराते हुए उनमें चरित्र-निर्माण के लिए उदारता, त्याग, सेवा, विनय आदि गुणों से विभूषित किया जाये तो अनुशासनहीनता की समस्या का स्वयमेव समाधान हो जायेगा।

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12. प्रदूषण की समस्या और निदान (म. प्र. 1990, 91, 99, 02 R, 03, 06, 13, 17, 18)

गंगा मैली हो गयी। गलियाँ गंधा रही हैं, आकाश विषैली धूलों और धुओं से भर उठा है। वायुमण्डल विषाक्त हो उठा है। प्रदूषण की समस्या इतनी जटिल हो गयी है कि लोगों का जीना दूभर हो गया है।

यह प्रदूषण क्या है? जिसने लोगों का जीना हराम कर दिया है। प्रदूषण जल, वायु तथा भूमि के भौतिक, रासायनिक और जैविक गुणों में होने वाला कोई भी अवांछनीय परिवर्तन है, जो विकृति को जन्म देता है। प्रदूषण वे सभी पदार्थ या तत्व हैं, जो प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से वायुमंडल,जलमंडल तथा पृथ्वीमंडल को दूषित बनाकर, प्राणिमात्र के जीवन एवं संसाधनों पर बुरा प्रभाव डालते हैं।

प्रदूषण की समस्या दिन:
प्रतिदिन भयप्रद बनती जा रही है। शुद्ध जल और शुद्ध हवा का अभाव हो गया है जिससे प्रतिवर्ष हजारों लोग मौत के मुँह में समाते जा रहे हैं। भोपाल गैसकाण्ड, नागासाकी, हिरोशिमा पर द्वितीय विश्व-युद्ध में गिराये गये बमों के द्वारा जो विनाश-लीला हुई, उसकी याद दिलाता है। कैंसर जैसे असाध्य रोगों का बढ़ता प्रकोप प्रदूषण की समस्या का ही दुष्परिणाम है।

इस समस्या के कारणों पर विचार करने पर ज्ञात होता है कि अणु-परमाणु विस्फोटों से फैलने वाली धूलों से वायुमंडल और पृथ्वीमंडल सभी विषाक्त हो रहे हैं जिससे रक्त कैंसर होता है। आज संपूर्ण विश्व तेजी से औद्योगीकरण की ओर बढ़ रहा है।

परिणामस्वरूप पग-पग पर, गाँव-गाँव, नगर-नगर में कल-कारखाने स्थापित होते जा रहे हैं। इन कारखानों से निकलने वाले सड़े-गले पदार्थ, रासायनिक पदार्थ एवं गैसें सभी मिलकर प्रदूषण की समस्या को भयानक बनाते जा रहे हैं। नदी, सरोवर, वायुमंडल सभी दूषित होते जा रहे हैं। वृक्षों, वनों को काटकर बड़े-बड़े नगर बसाये जा रहे हैं, भवन और बाँध बनाये जा रहे हैं। ये सब प्रदूषण के प्रमुख कारण हैं।

कारण है तो समस्या का समाधान भी है। सर्वप्रथम भारत सहित विकासशील राष्ट्रों को यह विचार करना होगा कि उसे कैसा विकास चाहिए। पाश्चात्य देशों का अन्धानुकरण छोड़कर इन देशों को अपने प्राकृतिक पर्यावरण तथा आवश्यकता के अनुकूल कल-कारखानों को लगाना चाहिये। कारखाने स्थापित करने से पूर्व उनसे निकलने वाली हानिकर धूल-गैसों को उचित दिशा व स्थानों की ओर स्थानान्तरित करने के लिए उपाय कर लिये जाने चाहिये।

परमाणु परीक्षणों पर रोक लगायी जाये। वनों की निर्ममतापूर्वक कटायी न की जाये। जितने वृक्ष काटे जायें, उनसे अधिक लगाये जायें। नगरों की बढ़ती जनसंख्या को रोका जाये। समय रहते यदि प्रदूषण की समस्या का निराकरण नहीं किया गया तो भारत ही नहीं सम्पूर्ण विश्व का विनाश निश्चित है। भोपाल गैसकाण्ड एक बड़ी चेतावनी है।

सभी लोगों और देशों को चाहिए कि वह मनुष्यता को सर्वनाश से बचाने के लिए पर्यावरण को स्वच्छ बनायें तथा ऐसा कार्य न करें जिससे प्रदूषण की समस्या बढ़े और पावन गंगा भी मैली हो जाये।

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13. परोपकार
अथवा,
‘परहित सरिस धर्म नहीं भाई’ (म. प्र. 2005 सेट A1, 07 सेट A, B, C, 09 सेट C, 12, 17)

झारखण्ड राज्य के एक प्रमुख शहर का नाम राँची है। वहाँ एक बेल्जियन पादरी रहते थे। उनका नाम कामिल बुल्के था। हिन्दी के एक विद्वान लेखक ने जब उनसे धर्म की परिभाषा पूछी, तो उन्होंने एक कागज पर दोहा लिखकर दे दिया।
यह दोहा इस प्रकार था –

“परहित सरिस धर्म नहीं भाई।
पर पीड़ा सम नहीं अधमाई।”

यह गोस्वामी तुलसी दास द्वारा लिखा दोहा है। इसका अर्थ है-सबसे बड़ा धर्म दूसरे की भलाई करना है और सबसे बड़ा अधर्म दूसरे को हानि पहुँचाना है।

गोस्वामी तुलसीदासजी ने इतने सरल शब्दों में धर्म जैसे कठिन शब्द की परिभाषा दे दी है। इसे सामान्य से-सामान्य व्यक्ति भी सरलता से समझ सकता है कि परोपकार ही मनुष्य का सबसे बड़ा धर्म है।

भारतीय विद्वानों के अनुसार:
“जिससे मनुष्य समाज की धारणा अर्थात अस्तित्व बना रहे वही धर्म है।”
उन्होंने धर्म के दस लक्षण बताये –

धृतिः क्षमा: दमोस्तेयंशोच: इन्द्रियनिग्रह।
धीविद्या सत्यम् क्रोधो दशकं धर्म लक्षणम्॥

इस्लाम और ईसाई धर्म भी परोपकार को सबसे बड़ा धर्म मानते हैं, क्योंकि परोपकार के अन्तर्गत धर्म के सभी तत्व आ जाते हैं। परोपकार वही व्यक्ति कर सकता है।

जिसमें दया, उदारता, दान, संयम आदि सभी नैतिक गुणों का विकास हो गया हो। परोपकारी होना, कोई सरल काम नहीं है। इसके लिए मनुष्य को सबसे पहले राग, द्वेष, ईर्ष्या आदि बुरी प्रवृत्तियों से अपने को मुक्त करना होगा। परोपकारी की भावना उसी में जाग्रत होगी, जिसका मन निर्मल होता है और जो स्वार्थ की अपेक्षा त्याग को अधिक महत्व देता है।

परोपकार की पहली शर्त स्वार्थ का त्याग है। सामान्यतः हर मनुष्य अपने लाभ को पहले देखता है। कहा भी गया है ‘स्वार्थ लाभ करहिं सब प्रीति। हमारे रिश्ते-नाते भी स्वार्थ पर ही आधारित होते हैं।

किसी भी काम को शुरू करने के पहले हर मनुष्य यही सोचता है कि इससे मुझे क्या फायदा होगा? परोपकारी व्यक्ति वही है, जो अपना हित छोड़कर दूसरे का उपकार करे। लेकिन दूसरे का उपकार करना क्या सरल है?

परोपकार के लिए बहुत बड़े नैतिक साहस की आवश्यकता होती है, क्योंकि परोपकार वही कर सकता है, जो आत्म-बलिदान देने को तैयार हो। महर्षि दधीचि के पास देवता अपनी समस्या लेकर गये।

उन्हें वृत्रासुर को मारने के लिए वज्र बनाने हेतु उनकी हड्डियों की आवश्यकता थी। दधीचि ने अपने प्राण विसर्जित कर अपनी हड्डियाँ दान दे दी। कितना बड़ा त्याग था। इस प्रकार ‘दूसरा उदाहरण राजा शिवि का है, जिन्होंने कबूतर की रक्षा के लिए बाज को अपना मांस काट-काटकर खिला दिया।

परोपकार के लिए व्यक्ति में सहिष्णुता अर्थात् सहनशीलता का होना भी आवश्यक है। भगवान शंकर के पास हलाहल (जहर) को सहन करने की शक्ति थी, इसलिए वे हलाहल का पान कर नीलकण्ठ कहलाये।

जो व्यक्ति थोड़ी-सी तकलीफ या दुःख बर्दाश्त नहीं कर सकता वह भला परोपकार क्या करेगा। परोपकार के लिए कभी-कभी मनुष्य को अपने स्वाभिमान का भी त्याग करना पड़ता है। पं. मदन मोहन मालवीय जी ने घर-घर जाकर दान माँगा और हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना की। कविवर रहीम का कहना है –

“तरुवर फल नहीं खात है, सरवर पियहिं न पान।
कह रहीम परकाज हित, सम्पत्ति संचयी सुजान।।”

हम चाहें तो प्रतिदिन कोई-न-कोई परोपकार का कार्य कर सकते हैं। किसी अन्धे को रास्ता पार कराना, किसी बीमार को अस्पताल पहुँचाना, किसी गरीब साथी की पुस्तकों द्वारा मदद कर देना, राह चलते किसी प्यासे पथिक को पानी पिला देना आदि सैकड़ों छोटे-छोटे कार्य ऐसे हैं, जिन्हें बिना किसी खर्च के किया जा सकता है।

यदि हम दूसरे की भलाई का कोई काम करेंगे तो इससे हमें समाज में यश तो मिलेगा ही साथ ही मानसिक शान्ति और आत्मिक सुख भी प्राप्त होगा। इसलिए तुलसीदास जी का यह कथन सत्य है – ‘परहित सरिस धर्म नहीं भाई।’

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14. स्वस्थ भारत, स्वच्छ भारत
अथवा,
स्वच्छ भारत अभियान (म. प्र. 2016, 17, 18)

रूपरेखा:

  1. प्रस्तावना
  2. व्यापक दृष्टिकोण
  3. उपसंहार।

प्रस्तावना:
“निर्मल मन जन सो मोहि पावा।
मोहि कपट छल छिद्र न भावा।” – तुलसीदास

स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मानसिकता पनपती हैं। देश एवं समाज के विकास के लिए स्वच्छता अत्यन्त आवश्यक है। समाज की सड़ी-गली मान्यताओं, रुढ़ियों को समाप्त करना अत्यन्त आवश्यक है।

देश का विकास तभी सम्भव है जब हम व्यापकता के धरातल पर सोचें एवं कार्य करें। यह तभी संभव है जब स्वस्थ मानसिकता के हों एवं स्वस्थता को बनाये रखें।
स्वस्थता को बनाये रखने में सहायक कारक अग्रलिखित हैं –

  1. शिक्षा
  2. उच्चकोटि का साहित्य
  3. व्यापक दृष्टिकोण
  4. आत्मनिर्भरता
  5. श्रेष्ठ मानसिकता
  6. कुशल नेतृत्व।

समाज एवं देश को स्वच्छ एवं स्वस्थ बनाये रखने में शिक्षा का अभूतपूर्व योगदान है। इसके द्वारा हम स्वच्छता एवं अस्वच्छता का पता लगाते हैं। दैनिक व्यवहार से हम अच्छी चीजें सीखते हैं। उच्चकोटि का साहित्य हमें सही मार्गदर्शन देता है, मानसिकता में मलिनता को दूर करता है। शारीरिक पुष्टता तथा योग आदि के द्वारा शरीर को स्वस्थ रखता है। स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क का वास होता है।

व्यापक दृष्टिकोण:
स्वच्छ एवं स्वस्थ भारत बनाने के लिए कूपमंडूकता को त्यागना पड़ेगा। गाँव की पगडंडियों, खेतों तथा आंचलिक परिवेश, शहरी परिवेश दोनों को शामिल करना पड़ेगा। सर्वत्र ‘समानता’ का सिद्धांत अपनाना होगा चाहे वह गाँव का कस्बा हो या नगर राज्य हो या केन्द्र, सब जगह सफाई अभियान चलायें।
गंदगी को दूर करें।

आत्मनिर्भरता भी स्वच्छता एवं स्वस्थता को बढ़ावा देती है, अकर्मण्यता एवं आलस्य को दूर करती है।

भारत को सुदृढ़ बनाये रखने के लिए श्रेष्ठ मानसिकता का होना आवश्यक है। कुशल मानसिकता कभी संकुचित एवं संकीर्ण विचारों को जन्म नहीं देती।

कुशल नेतृत्व ही देश का विकास कर सकता है, देश के माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी ने यह अभियान चला कर देश को नयी दिशा दी।

उपसंहार:
भारत के विकास का एक गौरवशाली इतिहास रहा है। यहाँ सभी धर्मों, सभी सम्प्रदायों ने मिल-जुलकर कार्य किया तथा वैचारिक मलिनता का त्याग कर स्वस्थ मानसिकता को अपनाया तथा स्वच्छता एवं स्वस्थता को अपनाया। देश के विकास को अपने अभियान में शामिल किया।

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15. भारतीय समाज में नारी का स्थान
अथवा
नारी तेरी शक्ति अपार (म. प्र. 2005 सेट A2, 06 सेट C1, 07 सेट A1, B1, C1, C2, 08 सेट A, B, 09 सेट A, 12, 14)

रूपरेखा:

  1. प्रस्तावना
  2. नारी के गुण
  3. नारियों पर पश्चिमी सभ्यता का प्रभाव
  4. नारी का वर्तमान स्वरूप
  5. उपसंहार।

प्रस्तावना:
जिस प्रकार तार के बिना वीणा और धुरी के बिना रथ का पहिया बेकार होता है, उसी तरह नारी के बिना मनुष्य का सामाजिक जीवन। इस सच्चाई को भारतीय ऋषियों ने बहुत पहले जान लिया था। वैदिक काल में मनु ने यह घोषणा करके कि जहाँ नारियों की पूजा होती है, वहाँ देवता निवास करते हैं, नारी की महत्ता प्रतिपादित की है।

वैदिक काल:
वैदिक काल में प्रत्येक धार्मिक अनुष्ठान में नारी को उपस्थिति आवश्यक थी। कन्याओं को पुत्रों के बराबर अधिकार प्राप्त थे, उनकी शिक्षा-दीक्षा का समुचित प्रबन्ध था। मैत्रेयी, गार्गी जैसी स्त्रियों की गणना ऋषियों के साथ होती थी।

प्राचीनकाल की नारी:
कोई भी क्षेत्र नारी के लिए वर्जित नहीं था। वे रणभूमि में जौहर दिखाया करती थीं तथापि उनका मुख्य कार्य क्षेत्र घर था। दुर्भाग्य से नारी की स्थिति में धीरे-धीरे परिवर्तन होने लगा।

पतन का युग:
मुस्लिम काल में नारी के सम्मान को विशेष धक्का लगा। वह भोग-विलास की सामग्री बन गई और उसे पर्दे में रखा जाने लगा। उससे शिक्षा व स्वतन्त्रता के अधिकार छीन लिए गए।

वीरांगनाएँ:
मुस्लिम युग में पद्मिनी, दुर्गावती, अहिल्याबाई सरीखी नारियों ने अपने बलिदान एवं योग्यता से भारतीय नारी का गौरव बढ़ाया। सन् 1857 के स्वतन्त्रता संग्राम में झाँसी की रानी को कौन भूल सकता है।

नारी के विशेष गुण:
भारतीय इतिहास की सारी उथल-पुथल के बाद भी भारतीय नारी के कुछ ऐसे गुण उसके चरित्र से जुड़े रहे, जिनके कारण वह विश्व की नारियों से पूरी तरह अलग रही। नम्रता, लज्जा और मर्यादा ये विशेष गुण हैं, जो भारतीय नारी को गौरवान्वित करते हैं।

पश्चिमी सभ्यता का प्रभाव:
वर्तमान समय में पश्चिमी सभ्यता के रंग में रंगती हुई भारतीय नारी तितली बन रही है। अपने परिवार के प्रति कर्तव्यों से दूर होती जा रही है। इसके परिणामस्वरूप परिवारों का टन होने लगा है।

जीवन का सुख समाप्त होने लगा है। नारी जागरण के नाम पर भारतीय नारी को उत्तरदायित्व से दूर ले जाया जा रहा है। संतान व परिवार के प्रति वह अपने कर्तव्यों का निर्वाह पूर्णतः नहीं कर पा रही है। यह किसी प्रकार शुभ नहीं है।

वर्तमान स्वरूप:
नारी आर्थिक दृष्टि से स्वतन्त्र हो, शिक्षित हो, पुरुष की दासता से मुक्त हो यह अच्छी बात है, किन्तु स्वतन्त्रता की अति न पुरुष के लिए शुभ है न नारी के लिए। दोनों को एक-दूसरे का सम्मान करते हुए परिवार और समाज में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभानी है।

उपसंहार:
आज विश्व युद्धों से भयभीत है। सर्वत्र अशान्ति है। ऐसे विषम समय में नारी में उन गणों के विकास की जरूरत है, जो उसे परम्पराओं से प्राप्त है। वह सभी का सुख चाहती है। वह संघर्ष नहीं, त्याग और ममता की देवी है। वह शक्ति भी है, जो दानवों का विनाश करती है। वह नव-निर्माण की शक्ति है, जो मनुष्य को देवत्व की ओर ले जाती है।

भारतीय नारी ने अपनी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह प्रत्येक युग में किया है। वह अपने विशिष्ट गुणों के कारण आधुनिक युग में भी पुरुषों से कन्धे से कन्धा मिलाए हर क्षेत्र में कार्य कर रही है। यह अवश्य हुआ है कि वह बाह्य क्षेत्रों में जितनी प्रगति कर रही है, उतनी कुशलतापूर्वक अपने पारिवारिक दायित्वों में पिछड़ रही है। भारतीय नारी को प्रगति के अनेक सोपानों पर चढ़ने के लिए अभी भी अथक प्रयत्न करना है।

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16. प्राकृतिक आपदा-समस्या निवारण (म. प्र. 2014)

रूपरेखा:

  1. प्रस्तावना
  2. प्राकृतिक आपदा का प्रभाव
  3. प्राकृतिक आपदा का कारण
  4. उपसंहार।

प्रस्तावना:
मानव समाज को प्रभावित करने प्राकृतिक आपदाओं ने बढ़ावा दिया। प्राकृतिक विपत्ति है जिसमें निश्चित क्षेत्र में आजीविका तथा सम्पत्ति की हानि होती है। जिसकी मानवीय वेदना तथा कष्टों में होती है।

1. आपदा समाज की सामान्य कार्य:
प्रणाली को बाधित करती है इससे बहुत बड़ी संख्या में लोग प्रभावित होते हैं।

2. आपदा के कारण जीवन तथा संपत्ति की बड़े पैमाने पर हानि होती है।

3. आपदा:
समुदाय को प्रभावित करती है जिसमें क्षति-पूर्ति के लिए बाहरी सहायता की आवश्यकता होती है।

4. आपदा भोगवादी अर्थव्यवस्था और बढ़ती हुई आबादी का प्रकृति के साथ अनावश्यक हस्तक्षेप का परिणाम है।

5. सभी आपदाओं के अपने विशिष्ट प्रभाव होते हैं।

अतः वे समस्त घटनायें जो प्रकृति में विस्तृत रूप से घटित होती हैं और मानव समुदाय को असुरक्षित एवं संकट में डालते हुए मानवीय दुर्बलताओं को दर्शाती है। आपदायें हैं जैसे – भूकंप, बाढ़, चक्रवात, सूखा, भूस्खलन, आग, आतंकवाद, नाभिकीय संकट, रासायनिक संकट आदि।

प्राकृतिक आपदा का प्रभाव:
प्राकृतिक आपदा का मानव जीवन पर बुरा प्रभाव पड़ता है जन-धन की विशेष हानि होती है।

प्राकृतिक आपदा के कारण:

(1) प्रकृति का विदोहन:
मनुष्य ने जहाँ-तहाँ प्रकृति विदोहन निरन्तर करता जा रहा है अपने स्वार्थ के लिए एवं आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए वनों को काटना, नये-नये आवास बनाना आदि।

(2) जनसंख्या वृद्धि:
जनसंख्या वृद्धि के कारण भी प्राकृतिक आपदायें बढ़ी हैं।

उपाय:
प्राकृतिक आपदाओं को रोकने के लिए प्रकृति का विदोहन कम हो, जनसंख्या नियंत्रित हो, जिससे प्राकृतिक आपदा को रोका जा सकता है।

उपसंहार:
मानव समाज को प्राकृतिक आपदाओं से बचाने के लिए ठोस कदम उठाना होगा, जिससे जन-धन की हानि को रोका जा सकता है। कहा भी गया है –

“जब-जब प्रकृति को मानव ने नुकसान पहुँचाया है।
तब-तब मानव को काली घटा जैसे रूप समाया है।”

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17. बेटी बचाओ अभियान (म. प्र. 2015)

रूपरेखा:

  1. प्रस्तावना
  2. बेटी बचाओ अभियान का प्रभाव
  3. चिकित्सालय की दिशा में ठोस कदम
  4. शिक्षा को बढ़ावा
  5. उपसंहार।

प्रस्तावना:
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है समाज का संचालन स्त्री-पुरुष के पारस्परिक सहयोग पर ही अवलंबित है। सृष्टि में अमूल्य निधि है – ‘नारी’ जो स्वयं संसार का संचालन एवं सृजन करती है वह जहाँ एक ओर बेटे को जन्म देती वहीं बेटी को भी। आज समाज में संकुचित मान्यताएँ जो बेटी के साथ सौतेला व्यवहार करती है, साथ ही समाज के विकास में रूकावट पैदा करती है। जन्म से उसे भिन्न-भिन्न कुठाराघात का सामना करना पड़ता है परिवेश के अनुसार मनुष्य की विचारधाराएँ बदलनी चाहिए तथा बेटी को संरक्षण मिलना चाहिए।

बेटी बचाओ अभियान का प्रभाव:
भारत में सरकार एवं समाज दोनों जागरूक हो रहे हैं। क्योंकि निरंतर घटती हुई बेटियों की संख्या सरकार एवं समाज के लिए चिन्ता का गंभीर विषय है। दोनों स्त्री-पुरुष का समानुपात ही समस्या के समाधान का कारण बन सकता है। किन्तु आज भी समाज में पितृसत्तात्मक परिवार जो पुत्र को बढ़ावा दे रहे हैं तथा बेटियों को चूल्हे एवं चहार दिवारी तक सीमित रखना चाहते हैं, ऐसी स्थिति में सरकार बेटियों के सुरक्षा के लिए कठोर नियम एवं कानून बनाये, जिससे उनका शोषण एवं मानसिक प्रताडना से सुरक्षा की जा सके। आज देश में हर प्रान्त में उनकी सुरक्षा की जिम्मेदारी स्कूल, संस्थाओं, परिवार, आर्थिक व्यवस्थाओं की है बेटियों पर किसी प्रकार का अत्याचार न हो, उसे रोका जाये। जिससे समाज में अच्छा प्रभाव पड़े।

चिकित्सालय की दिशा में ठोस कदम:
सरकार का सबसे बड़ा दायित्व यह है कि हर चिकित्सालय में आदेश पारित करें कि कोई भी अभिभावक गर्भवती महिलाओं का भ्रूण परीक्षण की जाँच न कराये। अन्यथा जो भी डॉ. या औषधालय में इसकी जाँच करता है, उसकी मान्यता समाप्त कर दी जायेगी एवं कठोर कारावास की सजा सुनाई जायेगी।
जिससे इस कुकृत्य को सख्ती से रोका जा सके। यदि माता-पिता भी दोषी पाये जायें, तो उन्हें भी कारावास हो तभी इस समस्या का समाधान हो सकेगा। समाज एवं देश का विकास बहुआयामी होगा।

शिक्षा को बढ़ावा:
शिक्षा के द्वारा बेटी बचाओ अभियान को सकारात्मक कदम कहा जा सकता है। शिक्षा के द्वारा पिछड़ी हुई मानसिकता बेटियों के प्रति भ्रान्तियों को बदला जा सकता है। आज ऐसा कोई क्षेत्र नहीं है जहाँ बेटियों ने पदार्पण न किया हो, चाहे वह शिक्षा औद्योगिक, कृषि, यातायात, चिकित्सा, मनोवैज्ञानिक आदि
क्षेत्र नये कदम बढ़ाते हैं वह आज पुरुष से किसी भी मामले में पीछे नहीं।

उपसंहार:
सृष्टि ने मनुष्य को अमूल्य निधि दी है वह है बेटी, आज उसे पूर्ण सुरक्षा मिले बढ़ने के लिए पर्याप्त अवसर मिले, उसके साथ अच्छा व्यवहार हो, किसी प्रकार की मानसिक प्रताड़ना बेटियों को न हो, फिर देखोगे समाज का विकास सफलता की ऊँची से ऊँची मंजिल में पहुँचेगा।
तथा समाज में लिंग भेद को रोका जाये। कहा भी गया है –

“लड़के से लड़की भली, जो कुलवन्ती होय।
दो कुल को तारने वाली, जाने बिरला कोय॥”

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18. इन्टरनेट-आज के जीवन की आवश्यकता (म. प्र. 2010, 12, 15, 16)

“इन्टरनेट का बढ़ता प्रयोग,
नई खुशियों का पैगाम लाये।

सुख, समृद्धि, वैभव, उन्नति के शिखरों तक
अपने देश को बुलंदियों तक पहुँचाये॥”

रूपरेखा:

  1. प्रस्तावना
  2. इन्टरनेट का आविष्कार
  3. इन्टरनेट का प्रयोग
  4. इन्टरनेट के क्षेत्र में विकास
  5. उपसंहार।

प्रस्तावना:
कम्प्यूटर एक यांत्रिक मस्तिष्क का रूपात्मक योग है। इन्टरनेट भी कम्प्यूटर का एक अंग जो इससे पृथक् नहीं। यह ऐसा गुणात्मक घनत्व है जो शीघ्र गति से कम-से-कम समय में त्रुटिहीन गणना करता है। मनुष्य सदा से गणितीय हल करने में अपने मस्तिष्क का प्रयोग करता रहा है। विगत कई कालों में हमारे राष्ट्र भारतवर्ष में इन्टरनेट के माध्यम से कई क्षेत्रों को जोड़ने का सिलसिला शुरू हुआ जिसके द्वारा वहाँ उस क्षेत्र विशेष की तरक्की एवं कमियों का पता लगाया जा रहा है।

अनेक संस्थानों एवं उद्योग-धंधों में कम्प्यूटर का प्रयोग इसकी सफलता का मापदण्ड है। इन्टरनेट की सफलता को देखकर इसके सन्दर्भ में जानकारी प्राप्त करने की जिज्ञासा मन-मस्तिष्क में पनपने लगती है। आज इसकी उपयोगिता दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। आज देश के अनेक क्षेत्रों में जैसे-बैंक, उद्योग, शिक्षा, चिकित्सा व दूरसंचार के साधनों आदि में भी इसका प्रयोग कुशलता से किया जा रहा है।

कम्प्यूटर के प्रथम आविष्कारक:
चार्ल्स बेवेज, प्रथम ऐसे मानव थे जिन्होंने 19 वीं सदी के आरम्भ में प्रथम कम्प्यूटर निर्मित किया है। इन्टरनेट भी कम्प्यूटर से भिन्न नहीं बल्कि एक महत्वपूर्ण आन्तरिक हिस्सा है जो पूरे यंत्र को क्रियान्वित करता है। इसके माध्यम से विस्तृत गणनाएँ तथा उनके परिणामों की जानकारी (सूचना) मिलती है। इन्टरनेट का प्रयोग-आज जीवन के अनेक क्षेत्रों में इसका प्रयोग देखा जा सकता है –

1. बैंकिंग के क्षेत्र में:
भारतीय बैंकों में हिसाब-किताब रखने तथा खातों के संचालन के लिए कम्प्यूटर का प्रयोग किया जा रहा है।

2. शिक्षा के क्षेत्र में:
शिक्षा के क्षेत्र में कम्प्यूटर के माध्यम से तीव्रगति से परीक्षा परिणाम की जानकारी हो जाती है तथा परिणाम में आई कमियों का भी पता लगाया जा सकता है।

3. मनोरंजन के क्षेत्र में:
इन्टरनेट के माध्यम से अपने मन पसन्द संगीत का आनंद ले सकते हैं। साथ ही जीवन में आये तनाव को दूर कर सकते हैं।

4. कला के क्षेत्र में:
आज कम्प्यूटर कलाकार एवं चित्रकार की भूमिका को भी सफलतापूर्वक निर्वाह कर रहे हैं। कम्प्यूटर के समक्ष बैठकर कलाकार अपने नियत कार्यक्रम के अनुसार स्क्रीन चित्र बनाता है। यह चित्र प्रिन्ट के माध्यम की कुंजी दबाते ही प्रिंटर के माध्यम से कागज पर वास्तविक रंगों के साथ छाप दिया जाता है।

5. पुस्तकों के क्षेत्र में:
पुस्तक एवं समाचार पत्रों के प्रकाशन में इन्टरनेट के माध्यम से इसकी बढ़ती भूमिका को इंकार नहीं किया जा सकता है। एक देश के लेखक एवं कवि के विचार इन्टरनेट के माध्यम से जाने जाते हैं तथा अपनी त्रुटियों को सुधारने का मौका मिल जाता है।

6. डिजाइनिंग के क्षेत्र में:
कम्प्यूटर के द्वारा हवाई जहाजों, मोटर पार्ट्स एवं गाड़ियों के रखरखाव की जानकारी मिलती है।

7. वैज्ञानिक क्षेत्र में:
अंतरिक्ष क्षेत्र भी इस दिशा से अछूता नहीं जहाँ इसके कदम न पहुँचे हों। इसके माध्यम से अंतरिक्ष में वृहद् मात्रा में चित्र उतारकर कम्प्यूटर के द्वारा इन चित्रों का विश्लेषण एवं सूक्ष्म अध्ययन किया जा रहा है।

8. संगीत के क्षेत्र में:
इन्टरनेट की सहायता से एक नये प्रकार की संगीत तकनीक का विकास किया जा रहा है।

9. कृषि के क्षेत्र में:
इन्टरनेट द्वारा किए गये परिवर्तनों के आधार पर दूरस्थ ग्रामीण क्षेत्रों के किसान घर बैठे खेती संबंधी जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।

10. चिकित्सा के क्षेत्र में:
अभियांत्रिकी की सक्रियता के फलस्वरूप ग्रामीण सुविधा उपलब्ध कराई जा रही है तथा दूरस्थ चिकित्सा प्रणाली प्रारंभ की जा रही है।

11. सूचना और संचार के क्षेत्र में:
टेलीफोन मोबाईल के साथ नेटवर्क क्षेत्र बहुत व्यापक हो गया है। इसके द्वारा दूरस्थ ग्रामीण क्षेत्रों में सब प्रकार की सूचनाएँ और जानकारियाँ पहुँचाई जा सकती हैं।

कम्प्यूटर के क्षेत्र में विकास:

  1. सूचना प्रौद्योगिकी विभाग द्वारा पूर्वोत्तर राज्यों में ब्लॉक स्तर पर सम्पर्क उपलब्ध कराने तथा सामाजिक एवं आर्थिक विकास में तेजी लाने के लिए सामुदायिक सूचना केन्द्रों की स्थापना की गयी है।
  2. ‘सक्षम योजना’ द्वारा केरल के चमरावत्तम गाँव को शत-प्रतिशत कम्प्यूटर साक्षर गाँव बना दिया गया है।
  3. चेन्नई के एम. एस. स्वामीनाथन फाउण्डेशन ने पाण्डिचेरी के तटवर्ती गाँवों में ‘इन्फोशॉप’ की स्थापना की है।

उपसंहार:
भारत में इन्टरनेट का प्रयोग कई क्षेत्रों में हो रहा है। इसके माध्यम से विकास की गति में आशातीत प्रगति हुई है। साथ ही इसके अतिरिक्त इसमें कुछ सावधानियाँ अपेक्षित हैं। अन्यथा इससे कुछ हानियाँ भी हो सकती हैं।

आज मानव पूर्णरूपेण इसके आश्रित हो जाएँ तो वह स्वतंत्र ढंग से कार्य नहीं कर पाता साथ ही इससे हमें तथा समाज, देश को नुकसान भी उठाना पड़ सकता है। आज हमारे अंदर इच्छा शक्ति तथा कार्यों के प्रति अदम्य उत्साह तथा प्रत्येक कार्य ईमानदारी से, दृढ़ संकल्प शक्ति से करें तब हम इन कमियों पर विजय प्राप्त कर सकते हैं। कहा भी गया है –

“सुख सुविधाएँ जो हमें दी है विज्ञान ने
हमें इनका गुलाम न होकर उन्हें सेवक बनाना है,
तभी हम सफल, सक्षम और बलशाली बनेंगे,
हमें विज्ञान संग स्वयं का अस्तित्व जगाना है।”

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19. राष्ट्र निर्माण में युवकों का योगदान (म. प्र. 2018)

रूपरेखा:

  1. भूमिका
  2. आधुनिक भारत में नव-निर्माण की विभिन्न दशाएँ और उनमें युवकों का योगदान
  3. उनका विवेकपूर्ण सहयोग
  4. सहयोग से लाभ
  5. उपसंहार।

सैकड़ों वर्षों की परतन्त्रता के बाद हमारा देश स्वतन्त्र हुआ। पराधीनता की स्थिति में भारतवासियों को ‘स्वेच्छापूर्वक अपनी उन्नति करने का अवसर प्राप्त नहीं था। विदेशी सरकार के दबाव के कारण भारतीय अपनी योजना के अनुसार कार्य नहीं कर पाते थे। देश में प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप में सरकार का दबाव अवश्य बना रहता था। उस समय युवकों का योग केवल उत्कृष्ट अधिकारी बनकर शासन को दृढ़ बनाये रखना था।

आज की बदलती हुई परिस्थितियों में किसी भी देश का भविष्य उस देश के युवकों के ऊपर निर्भर है। युवा वर्ग ही एक ऐसा वर्ग है जो हर क्षेत्र में पहुँच सकता है। भारत का नव-निर्माण युवकों के उचित और पूर्ण सहयोग के बिना सफलतापूर्वक पूर्ण नहीं हो सकता। इस देश के नव-निर्माण में युवकों का योगदान आवश्यक है।

मानव अपनी आवश्यक सुविधाएँ प्राप्त करने के लिए उसी की खोज में लगा रहता है। वर्तमान समय वैज्ञानिक तथा पूँजीवादी युग के नाम से जाना जाता है। भारत में वैज्ञानिक तथा आर्थिक उन्नति अत्यन्त आवश्यक है। भारत में प्राकृतिक साधन तो प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं, पर वैज्ञानिक दोनों ही क्षेत्रों में पिछड़े हुए हैं। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद देश में नव-निर्माण का कार्य आरम्भ हो गया है।

पर इसकी अन्तिम सफलता युवा वर्ग पर निर्भर करती है, युवकों को पूरी लगन व श्रद्धा के साथ देश के नव-निर्माण का कार्य करना होगा, तभी देश उन्नति की ओर अग्रसर होगा। वर्तमान समय में कारखानों का निर्माण हो रहा है। विद्युत् शक्ति का उत्पादन हो रहा है। कृषि, व्यवसाय, यातायात तथा वैज्ञानिक अनुसन्धान स्थापित करने के लिए अनेक योजनाएँ बनायी जा रही हैं, पर इन सबके बाद इसकी अन्तिम सफलता युवकों पर ही निर्भर है।

सामाजिक तथा धार्मिक क्षेत्र में भी परिवर्तन के लिए प्रयास किये जा रहे हैं। समाज में कुछ दुर्गुण हैं। उन्हें दूर करना अत्यन्त आवश्यक है, जिससे समाज के ढाँचे को बिगड़ने से बचाया जा सके। कोई भी सुधार अन्धानुकरण के आधार पर नहीं होना चाहिए। सुधारों के भावी परिणामों को दृष्टि में रखकर बढ़ना आवश्यक है। भारतीय धर्म तथा संस्कृति की मूल विशेषताओं को ध्यान में रखकर उपयोगी सुधार होना चाहिए। इन सभी का अन्तिम परिणाम तो युवा वर्ग को पूर्णतया भोगना पड़ेगा। अत: उन्हें बुद्धि से कार्य करना चाहिए। युवा वर्ग ही सामाजिक तथा धार्मिक क्षेत्र में क्रान्ति ला सकते हैं।

संसार की राजनैतिक मान्यताएँ बदल रही हैं। प्रजातान्त्रिक भावना का विकास हो रहा है। व्यक्तिवादी दृष्टिकोण बदलता जा रहा है। एक पक्ष साम्यवादी विचारधारा का है, जिसमें व्यक्ति नहीं राष्ट्र सर्वोपरि है।

सारा विश्व इन्हीं विचारधाराओं से प्रभावित है। आज सबसे बड़ी समस्या यह है कि आज का युवा और कल का नागरिक अपने देश की परिस्थितियों के अनुकूल राजनैतिक विचारों को अपनाये। उसका दृष्टिकोण समन्वयवादी होना चाहिए, जिसमें किसी विचारधारा का बहिष्कार केवल इसलिए न हो कि वह पुरानी है अथवा किसी विचारधारा को केवल इसलिए न स्वीकार किया जाय कि वह नई है।

संसार की राजनीति इतनी तीव्रता से गतिशील है कि यह निर्णय करना कठिन हो जाता है कि कौन-सी बात सही है, इस उलझन की स्थिति से निकलने के लिए विवेकपूर्ण निर्णय की आवश्यकता है। आज युवाओं पर बड़ा उत्तरदायित्व है कि वह अपने विवेक से सही व गलत का निर्णय करे और देश के सर्वांगीण विकास के लिए प्रयत्नशील हो। भारत एक ऐसा देश है जहाँ जनसंख्या का बड़ा भाग गाँव में रहता है। गाँव के विकास के बिना भारत के विकास की कल्पना भी नहीं की जा सकती। आज के नवयुवक पर सबसे बड़ा उत्तरदायित्व गाँवों के विकास का है।

इसके लिए उन्हें शहर के विलासितापूर्ण जीवन को छोड़कर ग्रामीण अंचल में जाना होगा, उनको आधुनिक विचारधारा एवं सहकारिता की भावना का प्रचार करना होगा। हमारे गाँवों को अन्धविश्वास और अवैज्ञानिक दृष्टिकोण से मुक्त करना होगा। उन्हें प्रगतिशील बनाना होगा।

आज के युवाओं की पीढ़ी के हाथों में कल के देश की बागडोर आने वाली है, उन्हीं में से राजनीतिक नेता होंगे, अधिकारी होंगे, उद्योगपति होंगे और किसान, मजदूर भी होंगे।

देश उनसे यह अपेक्षा करता है कि जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में वे नये उत्साह और नई विचारधारा के साथ प्रवेश करेंगे। देश को नई दिशा प्रदान करेंगे। सरकार ने देश के नवनिर्माण के लिए अनेक योजनाएँ बनाई हैं, उन कागजी योजनाओं का मूल्य नहीं यदि उनको पूरा जन-सहयोग न मिले। गाँवों की पिछड़ी जनता से अधिक आशाएँ नहीं की जा सकती। इन योजनाओं की सफलता के लिए देश की निगाहें युवाओं पर टिक जाती हैं। युवा वर्ग यदि विद्यार्जन के साथ-ही-साथ देश की प्रगति की दिशा में नहीं सोचता तो यह उसका अनुत्तरदायित्वपूर्ण कार्य ही कहा जायेगा।

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20. भ्रष्टाचार-देश की प्रगति में बाधक (म. प्र. 2016)

रूपरेखा:

  1. प्रस्तावना
  2. भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने वाले कारक
  3. भ्रष्टाचार को रोकने के उपाय
  4. उपसंहार।

प्रस्तावना:
सुर नर मुनि सबकी यह रीति।
स्वारथ लागि करहिं सब प्रीति। – गोस्वामी तुलसीदास

वर्तमान परिप्रेक्ष्य में यह गोस्वामी तुलसीदास की यह चौपाई सौ प्रतिशत खरी उतरती है। आज प्रत्येक क्षेत्र में कहीं-न-कहीं भ्रष्टाचार बढ़ रहा है। उपभोक्ता जागरुक न हो तो इस भ्रष्टाचार का शिकार होता रहेगा। शासन ने इस भ्रष्टाचार को रोकने का अथक प्रयास किया है। किन्तु यह रोकना ऊँट के मुँह में जीरा की तरह है जो विकास के स्तर को रेखांकित करता है। आज दुनिया के देशों में विकास के स्तर को देखा जाये तो भारत विकसित देशों की श्रेणी में पूर्णता को प्राप्त नहीं करता है।

भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने वाले कारक:

  1. अशिक्षित व्यक्ति भ्रष्टाचार को बढ़ावा देता है। वह दूसरों के हित का ध्यान नहीं रखता।
  2. लालची भावना-आदमी अपने को ऊपर उठाने के चक्कर में इतना स्वार्थग्रस्त हो जाता है। वह दूसरे के कल्याण का ध्यान नहीं रखता।
  3. संकुचित दृष्टिकोण-भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने में हम इतने स्वार्थ में न गिरें कि हमें ध्यान ही नहीं हो किसी का अहित हो गया और वह जिंदगी की दौड़ में पिछड़ गया।

भ्रष्टाचार को रोकने के –

उपाय:

  1. परिपक्व कानून
  2. सैद्धांतिक एवं व्यावहारिक शिक्षा का समावेश
  3. परोपकार की भावना
  4. नैतिकता एवं स्वार्थपरता से ऊपर
  5. शिक्षा का व्यवसायीता न हो
  6. धार्मिकता एवं आध्यात्मिकता का व्यावहारिक जीवन में समावेश
  7. जन भागीदारी।

उपसंहार:
भ्रष्टाचार देश के विकास में दीमक की तरह है जो देश एवं समाज को खोखला करता है। साथ ही हम स्वार्थपरता में गिरकर अहित कर जाते हैं, जो मानवता के विपरीत है। इसलिए क्यों न हम ऐसे कार्य करें जो राष्ट्र एवं आर्थिक विकास में सहायक हों और भ्रष्टाचार का देश से सफाया हो।हमारा संकल्प हो कि हम भारत को भ्रष्टाचार से मुक्त रखें।

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21. पॉलिथीन के दुष्प्रभाव (म. प्र. 2015, 17)

रूपरेखा:

  1. प्रस्तावना
  2. पॉलिथीन के प्रयोग के कारण
  3. पॉलिथीन से हानियाँ
  4. उपसंहार।

प्रस्तावना:
विज्ञान ने विभिन्न सुविधाएँ प्रदान की हैं जो मनुष्य के आरामदायक, अनिवार्य एवं विलासिता संबंधी भी है। जहाँ यह सुविधाएँ मनुष्य के विकास के लिए आवश्यक समझी गयीं, वहीं उसके प्रयोग भी हानिकारक हुए। विज्ञान ने पॉलिथीन का निर्माण मनुष्य की सुविधाओं को बढ़ाने के लिए किया। वहीं उसके उपयोग प्रकृतिजन्य एवं मानवकृत विपदाओं को त्रासित करने में हुए। जहाँ गौ’ माता एवं अन्य जानवर उसे खाद्य पदार्थ समझकर खाने का प्रयास करते हैं। इसके कारण उसे जान से हाथ धोना पड़ता है।

पॉलिथीन के प्रयोग के कारण:

1. बढ़ती प्रतिस्पर्धा:
आज आधुनिकता के दौर में हम और हमारा समाज यह भूल गया है, कौन-सी चीज कितनी उपयोगी है तथा इसका नुकसान कितना है। चन्द पलों के लाभ हेतु उसने जिस हथियार को चुना वह पॉलिथीन है। जिससे भूमि की उर्वरा शक्ति क्षीण हो रही है, इसके साथ ही कुछ जानवरों की आँतों में फँस जाने से मृत्यु हो रही है।

2. पॉलिथीन के प्रयोग का दूसरा कारण एवं आसान तरीका यह है, इसके द्वारा सामग्री को आसानी से अपने घर में ले जाया जा सकता है चाहे वह पुस्तकें, खेल का सामान या अन्य सामान ही क्यों न हो।

पॉलिथीन से हानियाँ:
पॉलिथीन से हानियाँ बढ़ती ही जा रही हैं, वैज्ञानिक अनुसंधानों से पता चला है, कि जिस जगह भूमि में पॉलिथीन जलाई जाती है, उस जगह पर अपशिष्ट पदार्थ कभी नष्ट नहीं होते तथा वह भूमि करोड़ों वर्ष तक अपनी उर्वरा शक्ति को खो देती है। वहाँ अन्न का एक दाना भी नहीं पैदा होता है। जानवरों ने पॉलिथीन खाकर जो जान दी है। क्या उसे दुबारा जिंदा किया जा सकता है? नहीं। तो फिर निश्चित रूप से इस पर प्रतिबंध लगाना चाहिए। इसके स्थान पर दूसरा वैकल्पिक प्रयोग कागज के बैगों का निर्माण करना चाहिए।

उपसंहार:
सरकार को पॉलिथीन पर कठोर प्रतिबन्ध लगाना चाहिए, जिससे पर्यावरण को भी संरक्षित किया जा सके। साथ ही बढ़ रहे असंतुलित वातावरण को नियंत्रित किया जा सके और हर मनुष्य को अपनी समझदारी का प्रयोग कर, वैकल्पिक प्रयोग ढूँढ़ना चाहिए।

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22. स्वावलंबन (म. प्र. 2018)

रूपरेखा:

  1. प्रस्तावना
  2. स्वावलंबन की आवश्यकता
  3. स्वावलंबन प्रगति का आधार
  4. स्वावलंबन का फल
  5. उपसंहार।

प्रस्तावना:
स्वावलंबन जीवन विकास का मूलाधार है। व्यक्ति छोटे से लेकर बड़ी सफलता के लिए लगातार श्रम साधना करता है। तब आगे बढ़ता है तथा आत्मनिर्भर बनता है। संसार का कोई ऐसा कार्य नहीं है जो स्वावलंबी व्यक्ति नहीं कर सकता। वह परिश्रम करते प्रगति के मार्ग पर बढ़ता है इसके विपरीत आलसी, निष्क्रिय व्यक्ति का जीवन नष्ट हो जाता है। महात्मा गाँधी ने कहा था-“यदि सब लोग अपने ही परिश्रम की कमाई खायें तो दुनिया में अन्न की कमी न रहे।
तब न किसी को जनसंख्या वृद्धि की शिकायत रहे, न कोई बीमारी आये और न मनुष्य को कोई कष्ट या क्लेश ही सताये।” स्वावलंबन की आवश्यकता-स्वावलंबन मनुष्य को आत्मनिर्भर बनने की प्रेरणा देता है।

आज भारत में गरीबी और बेकारीग्रस्त है। आश्चर्य का विषय है कि यहाँ के निवासी परिश्रम करने को अपमान समझते हैं। श्रम से गरीबी और बेकारी दोनों ही समाप्त हो जाते हैं। कवयित्री तारा पाण्डे ने भारत की जनता का आह्वान किया “संघर्षों से क्लान्त न होना, यही आज जन-जन की वाणी। भारत का उत्थान करो तुम, शिव सुंदर बन कल्याणी। अमर तुम्हारी गौरव गाथा नयन नीर शुचि छलक उठे। मुख पर श्रम कण झलक उठे।” स्वावलंबन प्रगति का आधार-प्रगति का मूल आधार स्वावलंबन है।

इतिहास साक्षी है कि हमने परिश्रम से क्या-क्या कर दिखाया। हमारे देश के निवासी कर्मठ एवं श्रमशील हैं। उन्हें अपार प्राकृतिक संपदा प्राप्त है। भाग्य के भरोसे रहकर हाथ में हाथ रखकर बैठने से कुछ नहीं प्राप्त होता। कर्म से ही सब लक्ष्य संपन्न होते हैं। दिनकर ने ठीक ही कहा है –

“श्रम होता सबसे अमूल्य धन सब धन खूब कमाते हैं।
सब अशंक रहते हैं अभाव से, सब इच्छित सुख पाते।
राजा-प्रजा नहीं कुछ होता, होते मात्र मनुज ही
भाग्य लेख होता न मनुज को, होता कर्मठ भुज ही।”

स्वावलंबन का फल:
स्वावलंबन का फल अच्छा ही मिलता है। श्रम एवं कर्म जीवन के लिए अपरिहार्य है। गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं-हे अर्जुन! तू कर्म कर, फल की इच्छा मत कर। व्यक्ति को अपने कर्म का फल तो मिलेगा ही। यदि वह पहले से ही कर्म में फल की इच्छा करने लगे तो उसके कर्म में शिथिलता आ जायेगी।

उपसंहार:
स्वावलंबी मानव के लिए विश्व का कोई भी पदार्थ अप्राप्य नहीं है। श्रम मानव के संस्कारों तथा विचारों को दिव्यता प्रदान करता है। शांति तथा यथार्थ सुख को पल्लवित तथा पुष्पित करता है। श्रम आत्मनिर्भरता की नींव है।

निबंध लेखन का तरीका Class 12 - nibandh lekhan ka tareeka chlass 12

23. राष्ट्रीय एकता (म. प्र. 2017)

रूपरेखा:

  1. प्रस्तावना
  2. राष्ट्रीय एकता
  3. राष्ट्रीय एकता में कठिनाइयाँ
  4. राष्ट्रीय एकता के लिए आवश्यक बातें
  5. उपसंहार।

प्रस्तावना:
भारत भूमि में विभिन्न जातियों, सम्प्रदायों, धर्मों के लोग निवास करते हैं। सभी में वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना पायी जाती है। यहाँ पर अनेकता में एकता के दर्शन होते हैं। यही राष्ट्रीय एकता देश की अस्मिता की परिचायक है। इससे ही देश की शोभा तथा प्रतिष्ठा विश्व क्षितिज पर दृष्टव्य है। यहाँ सब एक साथ रहते हैं।

“भारत माता का मंदिर ये, ममता का संवाद यहाँ है।
हिन्दू-मुस्लिम, सिक्ख, इसाई, पावें सभी प्रसाद यहाँ हैं।”

राष्ट्रीय एकता:
राष्ट्रीय एकता का तात्पर्य आर्थिक, सामाजिक, भावनात्मक तथा आर्थिक क्षेत्र में एकता से है। समाज में रहने वाले नागरिकों के मध्य भोजन, उपासना तथा रहन-सहन के तरीकों में भेद पाया जाता है। लेकिन उनके मध्य भावात्मक तथा राजनैतिक एकता का अंकुर मन-मानस में अंकुरित रहता है। भारत में बाहरी विविधता देखी जा सकती है। परन्तु सब मन से एकता के सूत्र में बँधे हैं।

कवि नीरज के शब्दों में –

“बाग है यह हर तरह की
वायु का इसमें गमन है!”

राष्ट्रीय एकता में कठिनाइयाँ:
आज हमारी राष्ट्रीय एकता के समक्ष अनेक चुनौतियाँ हैं। साम्प्रदायिकता, अलगाववाद, आतंकवाद, क्षेत्रीयता, भाषावाद, कट्टर धार्मिकता, जातिवाद आदि देश की समरसता को निरंतर झकझोर रहे हैं।

साम्प्रदायिकता की भावना के फलस्वरूप ही भारत के दो टुकड़े हुए हैं। रक्त की सरिताएँ प्रवाहित हुईं। साम्प्रदायिकता मेल, मोहब्बत तथा आपसी सद्भावना का अंत कर देती हैं।

धुरंधर कुटनीतिज्ञ वोट की राजनीति को अपनाकर लोगों की भावनाओं को भड़काकर अपना उल्लू सीधा करने में संलग्न हैं। उन्हें देश तथा समाज के हित का तनिक भी ध्यान नहीं है। आपसी ईर्ष्या, द्वेष, ऊँच-नीच की भावना, जातीयता, धार्मिक उन्माद, भाषागत भेद, राष्ट्रीय एकता के लिए प्रश्न चिन्ह बनकर खड़े हुए हैं। क्षेत्रीयता की भावना भी वातावरण को कलुषित कर रही है। आज देश पर विनाश के बाहरी तथा आंतरिक बादल मँडरा रहे हैं। हमारे पड़ोसी तथा अन्य कई राष्ट्र भारत को फलता-फूलता देखना पसंद नहीं करते।

राष्ट्रीय एकता के लिए आवश्यक बातें:
राष्ट्रीय एकता को बनाये रखने में विद्यार्थी बहुत सहायक सिद्ध हो सकते हैं। छात्रों को अपनी सभ्यता तथा संस्कृति के प्रति लगाव होना चाहिए। छात्रों को विभिन्न लोगों के सुख-दुख में सहभागी बनकर ऐसे कार्यक्रमों में उत्साहपूर्वक भाग लेना चाहिए जो राष्ट्रीय एकता को दृढ़ बनायें।

राजनेताओं को नैतिक मूल्यों की ओर विशेष ध्यान देना चाहिए। समाज के प्रत्येक व्यक्ति चाहे वह कृषक हो या मजदूर, सैनिक हो अथवा व्यापारी। सबको कर्तव्यों के प्रति सजग रहना है। राष्ट्रीय एकता को सुदृढ़ बनाने के लिए भारतवासी में यह भाव होना चाहिए।

निबंध लिखने का सही तरीका क्या है?

जानिए निबंध क्या है, कैसे लिखा जाता है.
निबंध लेखन के पूर्व विषय पर विचार कर- ... .
भाषा सरल और स्पष्ट होनी चाहिए।.
विचारों को क्रमबद्ध रूप से स्पष्ट करना चाहिए।.
विचारों की पुनरावृत्ति से बचना चाहिए।.
लिखने के बाद उसे पढ़िए, उसमें आवश्यक सुधार कीजिए।.
भाषा संबंधी त्रुटियां दूर कीजिए।.

निबंध लिखने की शुरुआत कैसे करें?

विषय से संबंधित: जब कोई निबंध लिखना हो तो रफ लिख लेना चाहिए कि, पहले क्या बताना है, फिर प्वाइंट बना लो, इसके बाद उन्हें पैराग्राफ में लिखो। उपसंहार: इसमें निबंध का निष्कर्ष होता है, अर्थात इस विषय से तुम क्या सोचते हो, यह लिख डालो।

निबंध की रूपरेखा कैसे लिखते हैं?

रूपरेखा संक्षिप्त और सरल हो। यह आवश्यक नहीं है कि यह पूर्णतः सुसंस्कृत लेखन हो; इसे बस मुद्दा समझाने योग्य होना है। जब आप अपने विषय पर अधिक शोध करते हैं और अपने लेखन को मुद्दे पर केन्द्रित कर संकुचित करते जाते हैं तब अप्रासंगिक सूचनाओं को हटाने में संकोच न करें। रूपरेखाओं को याद दिलाने के साधन के रूप में प्रयोग करें।

निबंध में प्रस्तावना में क्या लिखा जाता है?

किसी निबंध की प्रस्तावना में निबंध के विषय का सार संक्षेप लिखा जाता है। निबंध के मूल भाग में जिस विषय पर चर्चा-विवेचना करनी होती है, उस निबंध के मुख्य तत्व तथा विषय का परिचय निबंध की प्रस्तावना में उल्लेखित किया जाता है ताकि पाठक निबंध के विषय-वस्तु को समझने के लिए स्वयं को तैयार कर सके।