पर्यावरण संतुलन रखने के लिए कौन सी क्रिया करती है? - paryaavaran santulan rakhane ke lie kaun see kriya karatee hai?

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पर्यावरण संतुलन के लिए जरूरी है पौधरोपण

कृष्णगंज में किया पौधरोपण, लिया संरक्षण का संकल्प

महोत्सव के तहत जिले के विभिन्न जगहों पर भी हुआ पौधरोपण, पर्यावरण संरक्षण की ली शपथ

भास्करन्यूज.| मंडार

समीपवर्तीवरमाण गांव के आशापुरा मंदिर परिसर में गुरुवार को मुख्यमंत्री जल स्वावलंबन अभियान के तहत जिला स्तरीय वन महोत्सव का आयोजन किया गया। कार्यक्रम के दौरान अतिथियों ग्रामीणों ने पर्यावरण संरक्षण की शपथ ली तथा पर्यावरण के संतुलन के लिए पौधरोपण को जरुरी बताया। इस मौके कार्यक्रम के मुख्य अतिथि रेवदर विधायक जगसीराम कोली ने कहा कि वर्तमान में पर्यावरण संतुलन को बनाए रखने के लिए पौधरोपण जरुरी है।

उन्होंने कहा कि स्वच्छ वातारण के लिए अधिक से अधिक पौधरोपण करना चाहिए। पौधरोपण ही स्वच्छ वातावरण का आधार है। उन्होंने कहा कि कोई भी कार्य बिना किसी भागीदारी के सफल नहीं हो सकता है, हम सभी को जनहित के कार्य में कंधे से कंधा मिलाकर सहयोग करना होगा। उन्होंने पौधरोपण में आमजन से आगे बढ़कर सहयोग करने को कहा। उन्होंने कहा कि पौधे लगाने उनकी देखभाल तथा समुचित संरक्षण की व्यवस्था पर विशेष ध्यान दिया जाए। उन्होंने अधिकारियों, ग्रामीणों एवं कर्मचारियों को एक-एक पौधा लगाने उसकी देखभाल करने को कहा। कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए कलेक्टर लक्ष्मी नारायण मीणा ने कहा कि केवल पौधे लगाकर ही जिम्मेदारी पूरी नहीं हो जाती है। पौधे लगाने के बाद इलकी देखभाल सुरक्षा कर उन्हें बढ़ा करें। उन्होंने कहा कि हर व्यक्ति कर जीवन में एक पौधा अवश्य लगा कर पर्यावरण को शुद्ध बनाने का संकल्प लेना चाहिए। उन्होंने कहा कि पौधों की देखरेख करना अत्यधिक कठिन है, बच्चों का लालन-पालन करना आसान है। उन्होंने अधिकाधिक पौधरोपण करने का आह्वान किया।

इस मौके सिरोही प्रधान प्रज्ञा कंवर ने कहा कि आबादी विस्तार से कई समस्याएं भी बढ़ रही है। जंगल कटते जा रहें है और इससे कम वर्षा हो रही है, पानी का स्तर भी नीचे जा रहा है। इसलिए इन सभी समस्याओं के समाधान के लिए सभी को अधिक से अधिक पौधरोपण करना होगा, ताकि जंगल बच सके और वर्षा हो। इस मौके लुंबाराम चौधरी ने कहा कि पेड़ ही धरती का श्रृंगार है, पेड़ों की कमी के कारण पर्यावरण में प्रदूषण बढ़ा है। उन्होंने लोगो को ज्यादा से ज्यादा पौधे लगाने की बात कही।

1001 पौधे लगाने का लक्ष्य

वनमहोत्सव के तहत अतिथियों ने मंदिर परिसर में पौधरोपण किया। एसडीएम रामचंद्र गरवा ने बताया कि महोत्सव के तहत 1001 पौधे लगाने का लक्ष्य रखा गया है। इस दौरान कार्यक्रम में मौजूद अधिकारियो ने भी पौधे लगाए। सरपंच वगताराम चौधरी ने बताया कि वन विभाग की ओर से एक हजार पौधे उपलब्ध कराने के साथ वन विभाग के कर्मचारियों की ओर से पोधे को लगाने का काम दिनभर जारी रहा।

कार्यक्रम में एसडीएम रामचंद्र गरवा, मंडल वन अधिकारी शशि शंकर पाठक, वरमान सरपंच वगताराम चौधरी, मंडल अध्यक्ष कालुराम चौधरी, अमरा राम चौधरी, नगाराम, हेमलता पुरोहित, पूनम पटेल, सुमन कुमारी, ममता मीणा, हीर सिंह वन विभाग पादर के कालुराम चौधरी, कैलाश जोशी समेत ग्रामीण अधिकारी मौजूद थे।

बनास. समीपवर्ती कोदरला में वन महोत्सव के तहत ग्राम पंचायत आदर्श तथा वन विभाग की ओर से पौधरोपण किया गया। सरपंच देवाराम मीणा, सचिव कंचन मीणा, वन विभाग के वनपाल, वन रक्षक समेत स्कूल के छात्र शिक्षकों के सहयोग से मुख्यमंत्री जल स्वावलंबन के तहत बनी नाड़ी के पास पौधारोपण किया गया।

इस मौके सरपंच देवाराम मीणा ने कहा कि इन पौधों के संभाल की जिम्मेदारी स्कूल के छात्रों को दी गई। इस मौके लक्ष्मी गुर्जर तथा वन विभाग के अधिकारी ग्रामीण मौजूद थे।

सिरोही. जिला मुख्यालय पर एसपी संदीप सिंह चौहान के नेतृत्व में वन महोत्सव के तहत पुलिस कंट्रोल रूम, डीएसपी कार्यालय परिसर पुलिस लाइन में पौधरोपण किया गया। इस मौके एएसपी डॉ. प्रेरणा शेखावत, डीएसपी तेजसिंह राठौड़, एससी एसटी सेल डीएसपी देवाराम, एएसआई बीएल शर्मा समेत पुलिसकर्मी मौजूद थे।

कलेक्टर ने अधिकारियों एवं ग्रामीणों को इस अभियान से जुड़ते हुए अधिक से अधिक पेड़ लगाने के साथ उनकी हार हाल में सुरक्षा करने एवं पर्यावरण के प्रति जागरूक होने तथा खेतों घरों में पेड़ लगाने की शपथ दिलाई।

प्रकृति मानव की सहचारी है। प्रकृति स्वभावतः संतुलित पर्यावरण के द्वारा मानव को स्वस्थ जीवन प्रदान करती है। हमारे ऋषि-मुनि प्रकृति की सुरक्षा और विकास के लिए प्रतिबद्ध थे। यज्ञ द्वारा वायु प्रदूषण को समाप्त करके पर्यावरण को शुद्ध किए जाने की वैज्ञानिक विधि से विज्ञ थे। उन्हें यह भी ज्ञात था कि प्रकृति, स्वाभाविक रूप से जो कुछ अतिरिक्त या अपच है, उसे बाहर करके अपने आप को संतुलित कर लेती है। ज्वालामुखी द्वारा यह धरती हमें जो कुछ भी प्रदान करती है, उसी के उपभोग के हम अधिकारी होते हैं। सृष्टि के जीवों में मानव एक मात्र प्राणी है, जिसे यह योग्यता प्राप्त है कि वह आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक और तकनीकी क्रिया के द्वारा पर्यावरण के भौतिक परिवेश में परिवर्तन करके सांस्कृतिक परिवेश की रचना करता रहा है। मानव इतिहास के प्रारम्भ से ही अपने चारों ओर के पर्यावरण में रुचि रखता आया है। आदिम समाज में प्रत्येक व्यक्ति को अपने अस्तित्व हेतु अपने पर्यावरण का समुचित ज्ञान आवश्यक होता था।

मनुष्य में अग्नि तथा अन्य यंत्रों का प्रयोग पर्यावरण को परिवर्तित करने के लिए सीखा। जांच और भूल विधि द्वारा मानव अपने पर्यावरणीय ज्ञान में वृद्धि करता रहा है। धीरे-धीरे पर्यावरण में संबंधित ज्ञान का भंडार इतना विस्तृत एवं वृहद् हो गया कि इसे विज्ञान का रूप दिया जा सकने की स्थिति आ गई और पर्यावरण अध्ययन के व्यवस्थित रूप “पर्यावरण विज्ञान” का जन्म हुआ।

विगत सौ वर्षों में मानव नें आर्थिक, भौतिक तथा सामाजिक जीवन की प्रत्येक दिशा में प्रगति के लंबे-लंबे कदम उठाए हैं। उसका इन क्षेत्रों में प्रगति का मात्र एक उद्देश्य था – इससे उसका स्वयं का हित हो। उसने इस प्रगति के पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभावों की ओर तनिक भी ध्यान नहीं दिया। जीवों नें चारों ओर की वस्तुएं जो उनकी जीवन क्रियाओं को प्रभावित करती हैं, वातावरण का निर्माण करती हैं।

यथार्थ में जीव और पर्यावरण अन्योन्याश्रित हैं। एक की दूसरे से पृथक सत्ता की कल्पना करना असंभव है। सभी जीवों का अस्तित्व चारों ओर के पर्यावरण पर निर्भर करता है। पर्यावरण जीवों को आधार ही प्रदान नहीं करता, वरन् उनकी विभिन्न क्रियाओं के संचालन के लिए एक माध्यम का भी कार्य करता है।

जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में प्रगति का मूल्य स्वयं मानव ने पर्यावरण की वृहद् समस्याएं उत्पन्न करके चुकाया है, जो जल प्रदूषण, धुएं द्वारा प्रदूषण, घटते वन्य जीवन, पर्यावरण के पेस्टनाशियों द्वारा विषकरण, विकिरण के जैवीय दुष्प्रभावों, अस्थिर पारिस्थितिक तंत्रों, प्राकृतिक संपदा का दुरुपयोग, जनसंख्या में आसामन्य वृद्धि, शहरीकरण, लोगों के छोटे-छोटे क्षेत्रों में बढ़ती भीड़ के रूप में दिखाई देती है। यह सब व्यक्तिगत तथा सामाजिक पर्यावरण को न समझ पाने तथा मानव एवं पर्यावरण की परस्पर क्रिया-प्रतिक्रिया को न समझ पाने के फलस्वरूप ही हुआ है।

मानव और पर्यावरण की अन्योन्य क्रिया का अध्ययन करने के लिए इन्हें दो वर्गों में बांट सकते हैं –1. मानव और पर्यावरण-अन्योन्य क्रिया का कालिक पक्ष, 2. मानव और पर्यावरण-अन्योन्य क्रिया का स्थानिक पक्ष।

1. मानव और पर्यावरण अंतर्क्रिया का कालिक पक्ष

मानव और जीवमंडल के अंतर्संबंधों का कालिक पक्ष विविधतापूर्ण है। मनुष्य के अभ्युदय से लेकर आज तक की घटनाएं इंगित करती हैं कि इस सृष्टि के रचयिता ने संघर्ष टालने के उद्देश्य से सर्वाधिक जैविक गुण मानव में आरोपीत कर उसे सर्वश्रेष्ठ जीव बनाने का मार्ग प्रशस्त किया है। यही कारण है कि मानव पर्यावरण का घटक और कारक बन गया। उसने अपनी पौरुष, ज्ञान-विज्ञान, तकनीकी, उद्यम और कल्पना शक्ति के बल पर भौतिक परिवेश के साथ सांस्कृतिक परिवेश का निर्माण किया है।

यह सांस्कृतिक भू-दृश्य की रचना क्रमिक विज्ञान को इंगित करता है। आखेट युग की तुलना में पशु-पालन का सांस्कृतिक स्वरूप भिन्न था। इसी प्रकार कृषि-युग की तुलना में प्रद्योगिकी युग ने एक नए मोड़ पर खड़ा कर दिया है। झोपड़ी घर और अटट्लिकाएं आवसीय उन्नति की प्रतीक हैं।

आज जो समाज झोपड़ी से आगे नहीं बढ़ पाया है, उसे पिछड़ा, जो घर बनाकर कृषि व पशु-पालन करता है वह अर्ध विकसित तथा जो वस्तु निर्माण कर अटट्लिकाओं में रहता है, वह विकसित समाज कहलाता है। इन तीनों मानव-समाजों का संबंध प्रकृति के साथ सामान नहीं है।

पिछड़ा समाज प्रकृतिवादी है। उसकी आवश्यकताएं उतनी हीं है, जितनी उसके परिवेश से पूरी हो सके, लेकिन अर्ध विकसित समाज प्रकृति को रिझाकर कुछ अधिक प्राप्त कर लेता है। इनकी तुलना में विकसित मानव प्रकृति से छिना-झपटी कर अपनी असीमित आवश्यकताओं की पूर्ति करता है। वह इतना संवेदनशील हो गया है कि प्रकृति उसके लिए उपभोग की वस्तु बन गई है। इसी अवधारणा में चलते आज मानव के सामने अपना ही अस्तित्व बचाने का प्रश्न आ खड़ा हुआ है जो आगे चलकर कर गंभीर समस्या का रूप धारण करता जाएगा।

2. मानव और जीवमंडल अंतर्क्रिया का स्थानिक पक्ष

मानव सामाजिक प्राणी है। समाज अपने सदस्यों की ज़िम्मेदारी से आबध्द होने के कारण सामूहिक कर्तव्य और दायित्व का निर्वाह करता है। इसके लिए वह अनुकूल क्षेत्रों का चयन करता है और संपूर्ण समाज की आवश्यकता की पूर्ति के लिए पर्यावरण पर प्रभाव डालता है। चूंकि मनुष्य अपने ज्ञान, विज्ञान और तकनीकी उपकरणों से सुसज्जित होता है, अतः वह प्रकृति के साधनों का मनोनुकूल उपयोग करता है तथा प्रकृति और समाज की यह अंतर्प्रक्रिया सामाजिक पारिस्थिकी कहलाती है। सामाजिक पारिस्थितिकी संपूर्ण भौतिक और सामाजिक नियमों और व्यवस्थाओं का समुच्चय है। यह विश्वव्यापी सिद्धांत है।

इन समस्त बातों से पता चलता है कि मानव समाज की अंतर्प्रक्रिया में जनसंख्या विकास का स्तर, सांस्कृतिक विरासत, रीती-रिवाज, धार्मिक, मनोवैज्ञानिक विचार, ज्ञान विज्ञान और तकनीक उपलब्धियां आधारभूत कारक हैं, जिनके अनुसार मानव समाज क्षेत्रीय आधार पर सांस्कृतिक-स्तर का निर्माण करता है। अतः मानव समाज अपनी उपलब्धियों के सहारे भौतिक परिवेश में अंतर्प्रक्रिया कर सांस्कृतिक परिवेश या सांस्कृतिक भू-दृश्य की रचना करता है। यही उसकी पहचान का आधार है।

फलतः वह अपने द्वारा परिसीमित क्षेत्र को बहुउपयोगी, अतिसुंदर, स्वस्थ और श्रेष्ठतम् बनाने का प्रयास करता है। इसके लिए वह अपनी तकनीकी उपलब्धि से संसाधनों का अधिकाधिक उपयोग कर लाभदायक उत्पादन करता है ताकि समाज स्वस्थ और सुखी रह सके। जो समाज अपने क्षेत्र के संसाधनों के उपयोग में पिछड़ जाता है, वह अपनी आवश्यकता की पूर्ति के लिए अन्य समाज पर निर्भर रहता है या भुखमरी, अज्ञानता, अस्वस्थता और परतंत्रता में उलझ जाता है। इस प्रकार मानव समाज क्षेत्रीय स्तर पर विकसित, विकासशील और अविकसित स्तरों में बंट जाने से सांस्कृतिक परिमंडलों की विशिष्टताएं मानव पर्यावरण अंतर्संबंधों पर आधारित होती हैं।

विश्व आज अनेक सांस्कृतिक परिमंडलों में विभिक्त है, जैसे- आंग्ल-अमेरिकी परिमंडल, अफ्रीकी परिमंडल अरब परिमंडल, पश्चिमी यूरोपीय परिमंडल, पूर्वी एशियाई परिमंडल, आस्ट्रेलियाई परिमंडल, दक्षिण-पूर्वी एशियाई परिमंडल। इन सभी सांस्कृतिक परिमंडलों में मानव समाज के स्वरूप में आधारभूत अंतर देखने को मिलता है। इसी अंतर के कारण मानव समाज विकसित, विकासशील और अविकसित वर्गों में बंट गया है। विकसित समाज को आर्थिक समाज कहा जा सकता है।

ऐसे समाज में आर्थिक मानव और तकनीकी मानव प्राधान्य है, जो प्रकृति को भोग्या के रूप में उपयोग करते हैं। अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए किसी सीमा को स्वीकार नहीं करते। परिणामतः ऐसे समाज में बिगड़ते संबंध पर्यावरण के ह्रास का कारण बनते जा रहे हैं। इसके लिए भैतिक सुख-सुविधा का संचयन जीवन का परम् लक्ष्य है, भले इसके कारण पर्यावरण नष्ट हो जाए, विकसित समाज ने सबसे अधिक संसाधानों का दोहन किया है और प्रकृति के रूप को विकृत किया है।

आज औद्योगिक देशों में अम्ल वर्षा, नई-नई बीमारियां, पुरानी बीमारियों की गहनता, ऊर्जा संकट, जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण, मृदा प्रदूषण, स्थल प्रदूषण सांस्कृतिक प्रदूषण और संसाधन भंडारों का तेजी से घटाव सामान्य चर्चा के विषय बन गए हैं। मौसम का बिगड़ता स्वरूप, विविध प्राकृतिक प्रकोप और जीवन के आधार तत्वों की गुणवत्ता में ह्रास के सामने घुटना टेकने ही एकमात्र उसका उपाय रह गया है।

प्रकृति मानव की सहचारी है। प्रकृति स्वभावतः संतुलित पर्यावरण के द्वारा मानव को स्वस्थ जीवन प्रदान करती है। हमारे ऋषि-मुनि प्रकृति की सुरक्षा और विकास के लिए प्रतिबद्ध थे। यज्ञ द्वारा वायु प्रदूषण को समाप्त करके पर्यावरण को शुद्ध किए जाने की वैज्ञानिक विधि से विज्ञ थे। उन्हें यह भी ज्ञात था कि प्रकृति, स्वाभाविक रूप से जो कुछ अतिरिक्त या अपच है, उसे बाहर करके अपने आप को संतुलित कर लेती है। ज्वालामुखी द्वारा यह धरती हमें जो कुछ भी प्रदान करती है, उसी के उपभोग के हम अधिकारी होते हैं। ऋषि मुनियों के इस परिज्ञान से पृथक आज मानव स्वार्थ की अंधी दौड़ में प्रकृति को विनष्ट करने में तुला है। उसका दोहन करके वह सारी उपलब्धियां तत्काल प्राप्त कर लेना चाहता है।

प्रकृति की इस छेड़छाड़ से पर्यावरण बिगड़ता है, तद्नुरूप नाना-प्रकार के विकार प्रकट होते हैं। मनुष्य को इस भौतिकवादी दृष्टि और अतिरिक्त वृत्ति को छोड़ना होगा। दुर्भाग्य है कि आज न वन बचे हैं, न वन्यजीवन सुरक्षित बचा है। ग्रामों में चरागाह, भूखंड की अनुपलब्धि से गौपालन का एक महत्वपूर्ण उद्योग अब संकट की स्थिति में आ गया है। उद्योग-उद्योगों के उत्सर्जित रासायनिक पदार्थ धूल, धूआं एक ओर जहां पृथ्वी कि उर्वरता को समाप्त कर रहे हैं, वहीं उपयोगी जल को भी विषाक्त कर रहे हैं। धूल और धुएं से जो प्रदूषण विकसित हो रहे हैं वे नानाविध संक्रामक रोगों को जन्म देकर मनुष्य के जीवन को नारकीय बना रहे हैं। इन सबके प्रति जागरूकता आज के समय की मांग है।

(मिनि हॉस्टल के बगल में)
पुराना सरकंडा,
बिलासपुर-495001 (छ.ग.)

पर्यावरण को स्वच्छ रखने के लिए क्या करना चाहिए?

हम कैसे कर सकते हैं योगदान?.
सूती कपड़े का या कागज से बना झोला इस्तेमाल करना.
रोजाना फर्श साफ करने के बाद पोंछे का पानी (फिनाइल रहित) गमलों व पौधों में डालें।.
दाल, सब्जी, चावल धोने के बाद इकट्ठा पानी गमलों व क्यारियों में डालें। ... .
कचरे को जलाने की बजाय रिसाइकिल किया जाए।.
खुले में कचरा फैलाने वालों पर उचित कार्रवाई हो।.

पर्यावरण का संतुलन कैसे बनाए रखा जाता है?

सभी के साथ पेड़ लगाना, और उनकी देखभाल करना।.
इधर-उधर न थूकें।.
खुले सड़क किनारे पेशाब न करें, शौचालय का उपयोग करें।.
खुद को और अपने आसपास को साफ रखने की कोशिश करें।.
सड़क पर कचरा न फेंके, डस्ट बिन का इस्तेमाल करें।.
स्वस्थ भोजन खाएं।.
खाली पेट पानी पीएं।.
सार्वजनिक रूप से धूम्रपान छोड़ें।.
जरूरतमंदों की मदद करें।.

पर्यावरण के संतुलन का मुख्य कारक क्या है?

पर्यावरण के असंतुलन के दो प्रमुख कारण हैं। एक है बढ़ती जनसंख्या और दूसरा बढ़ती मानवीय आवश्यकताएं तथा उपभोक्तावृत्ति। इन दोनों का असर प्राकृतिक संसाधनों पर पड़ता है और उनकी वहनीय क्षमता लगातार कम हो रही है। पेड़ों के कटने, भूमि के खनन, जल के दुरूपयोग और वायु मंडल के प्रदूषण ने पर्यावरण को गभीर खतरा पैदा किया है।

पर्यावरण संतुलन को स्थापित करने के लिए कौन कौन से प्रयास आवश्यक है?

अगर मानव को करना है अपना जीवन सुरक्षित, तो पहले करना होगा पर्यावरण को संरक्षित। अधिक से अधिक करो वृक्षारोपण, तो शुद्ध होगा ये वातावरण।