जीवन में मनुष्य का लक्ष्य क्या है? - jeevan mein manushy ka lakshy kya hai?

उन्होंने ऋषभ देव के योग, वैराग्य व जीवन के त्याग पर कथा सुनाते हुए कहा कि ये वे गुण हैं जो भक्त को भगवान के निकट ले जाते हैं। प्रहलाद की कथा सुनाते हुए उन्होंने कहा कि भगवान की पूजा मन से होनी चाहिए। पूजा में आडंबर का कोई स्थान नहीं है। माता किसी भी बच्चे की प्रथम गुरु होती है। बच्चे को प्राथमिक शिक्षा उसी से मिलती है। हिरणाकश्यप राक्षस था, लेकिन प्रहलाद की मां धर्मज्ञ थीं। मां व गुरुओं से बालक प्रहलाद को सही दिशा मिली और उसने भगवान भक्ति की शक्ति के सहारे भगवान विष्णु को प्राप्त कर लिया। इस अवसर पर नरसिंह अवतार कथा पर भी व्याख्यान हुआ। आयोजन में गणेश प्रसाद सोनी, सावित्री सोनी, डॉ. पीडी सोनी, रमेश कुमार सोनी, राजेश, दिनेश, अविनाश, विजय, महेंद्र कुमार सोनी सहित अन्य सेवादार जुटे हुए हैं।

बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ का लिया संकल्प
कथा के समय व्यासपीठाचार्य ने प्रकृति के संरक्षण के लिए अधिक से अधिक पौधे लगाने और बेटियों के संरक्षण व उनकी शिक्षा के लिए आगे आने की बात कही। इस अवसर पर श्रद्धालुओं ने इसके लिए संकल्प भी लिया।

जीवन में हमें अपना लक्ष्य किस आधार पर तय करना चाहिए? सद्‌गुरु लक्ष्य का महत्व बता रहे हैं कि कैसे लक्ष्य जीवन को जीवंत बनाता है, और कैसे इससे आध्यात्मिक संभावनाएं उभरती हैं।

जीवन में किसी लक्ष्य का होना क्‍या आवश्‍यक है?

प्रश्न: सद्‌गुरु, आप एक गुरु हैं और किसी भी व्यक्ति के भीतर झाँक सकते हैं और मुझे पूरा यकीन है कि आप मुझे भी भीतर से जान सकते हैं। अभी मैं अपने शरीर से जूझ रहा हूँ, मुझे बहुत सारी परेशानियों से जूझना पड़ रहा है पर आपने कहा कि लक्ष्य बहुत मायने रखता है। आप मेरे लिए क्या कर सकते हैं?

सद्‌गुरु: आप यहां किसी लक्ष्य के साथ नहीं आए। आप अपने कष्ट के कारण आए हैं। दर्द से बाहर आने की इच्छा, कोई लक्ष्य की बात नहीं है। अगर आप इसका आनंद ले सकते तो आप मेरे पास न आते। अभी आपको उठना और बैठना भी बहादुरी का काम बना हुआ है। तो पहले आपको एक सार्थक लक्ष्य पैदा करना होगा।

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आप क्या चाहते हैं इससे कोई अंतर नहीं पड़ता। बस यह इतना उत्साही हो कि आपके जीवन को जीवंत बना सके। 

इस जीवन को अपनी बुद्धि से देखिए, उन बातों के नजरिए से मत देखिए जिन्हें आप नहीं जानते, या जिन्हें मैंने कभी कहा या किसी और ने कहा, या किसी ने लिखा हो। अपने बोध और समझदारी से यह देखिए कि आप सबसे ऊँची चीज क्या चाहते हैं और अपना सब कुछ उसे पाने के लिए लगा दीजिए। वह जो भी हो, उसे थामे रखिए। तब मैं आपके लिए दूसरे तरह के काम करूँगा।

लक्ष्य जीवन को जीवंत बनाता है

एक लक्ष्य का मतलब है कि जीवन अब ठहरा हुआ नहीं है - यह कुछ चाहता है। लक्ष्य का मतलब है, कहीं जाने की चाह। यह किसी एक जगह पर ठहर नहीं सकता। आप क्या चाहते हैं इससे कोई अंतर नहीं पड़ता। बस यह इतना उत्साही हो कि आपके जीवन को जीवंत बना सके। तब आपके साथ कुछ किया जा सकता है। अगर आप ठहरे हुए पानी की तरह हैं तो सबसे पहले आपको इसे बहता पानी बनाना होगा।

अस्तित्व में जो कुछ भी भौतिक है, वह चक्रीय है। ग्रह सूर्य के आसपास चक्कर लगा रहा है। ब्रह्माण्ड खुद घूम रहा है। हर किसी का आने और जाने का समय नियत है। यह सब चक्रीय है। भौतिकता का स्वभाव ही चक्रीय है। यह सब कुछ गोल-गोल घूमता है। अगर आप भी गोल-गोल घूम रहे हैं तो आप कहीं नहीं जा रहे।

जीवन में ऐसा क्या है – जिसे आप लक्ष्य मानते हैं

अगर आपको एहसास हो जाए कि आप केवल गोल चक्कर काट रहे हैं तो आपका सबसे पहला लक्ष्य यही होगा कि आप उससे बाहर निकलें। केवल तीन दिन लगा कर यह पता करें कि आपके जीवन में ऐसा क्या है जिसे पाने का आप दिल से लक्ष्य रखते हैं - फिर चाहे जो भी हो, उसके लिए अपना सब कुछ लगाकर जी-जान से जुट जाएँ। मान लेते हैं कि आप बस एक पहाड़ पर जाना चाहते हैं। तब आप अपना पूरा जीवन इसके पीछे लगा दीजिए। तब आपके लिए कुछ किया जा सकता है। लक्ष्य से भरा जीवन निश्चित तौर पर उत्साहपूर्ण होता है। एक बार यह उत्साहपूर्ण हो गया तो आप इतनी तरह से आगे जा सकते हैं कि आपने कभी सोचा भी नहीं होगा। अगर आप इसकी भौतिकता में ही उलझ गए तो यह गोलाकार दायरों में ही बंध कर रह जाएगा। और कोई तरीका ही नहीं है। ऐसा नहीं कि मेरे कहने से यह गोलाकार है। भौतिकता का स्वभाव ही यही है। हर अणु अपने-आप में चक्रीय हो कर घूम रहा है।

अणु से ले कर ब्रहमाण्ड तक सब कुछ चक्रीय है। जिसे आप भौतिकता कहते हैं, वह सिर्फ चक्रीय ही हो सकता है। उसी मामले में, ब्रह्मचर्य आदि दूसरे पहलू सामने आते हैं - ताकि आप खुद को भौतिकता से दूर ले जा सकें और आप जीते जी हमेशा एक तमाशा न बने रहें।

स्वामी विवेकानंद कहते हैं कि जीवन में एक ही लक्ष्य बनाओ और दिन-रात उसी लक्ष्य के बारे में सोचो। स्वप्न में भी तुम्हें वही लक्ष्य दिखाई देना चाहिए। फिर जुट जाओ, उस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए। धुन सवार हो जानी चाहिए आपको। सफलता अवश्य आपके कदम चूमेगी। असल में जब आप कोई कर्म करते हैं तो जरूरी नहीं कि आपको सफलता मिल ही जाए, लेकिन आपको असफलताओं से घबराना नहीं चाहिए। अगर बार-बार भी असफलता हाथ आती है तो भी आपको निराश नहीं होना है। इस बारे में विवेकानंद कहते हैं, एक हजार बार प्रयास करने के बाद यदि आप हार कर गिर पड़े हैं तो एक बार फिर से उठें और प्रयास करें। हमें लक्ष्य की प्राप्ति तक स्वयं पर विश्वास और आस्था रखनी चाहिए और अपनी सोच को हमेशा सकारात्मक रखना चाहिए।

( धैर्य , क्षमा , संयम , चोरी न करना , शौच ( स्वच्छता ), इन्द्रियों को वश मे रखना , बुद्धि , विद्या , सत्य और क्रोध न करना ; ये दस धर्म के लक्षण हैं । )

याज्ञवल्क्य ने धर्म के नौ (9) लक्षण गिनाए हैं:

अहिंसा सत्‍यमस्‍तेयं शौचमिन्‍द्रियनिग्रह: ।

दानं दमो दया शान्‍ति: सर्वेषां धर्मसाधनम्‌ ।।

(अहिंसा, सत्य, चोरी न करना (अस्तेय), शौच (स्वच्छता), इन्द्रिय-निग्रह (इन्द्रियों को वश में रखना) , दान, संयम (दम) , दया एवं शान्ति )

श्रीमद्भागवत के सप्तम स्कन्ध में सनातन धर्म के तीस लक्षण बतलाये हैं और वे बड़े ही महत्त्व के हैं :

सत्यं दया तप: शौचं तितिक्षेक्षा शमो दम:।

अहिंसा ब्रह्मचर्यं च त्याग: स्वाध्याय आर्जवम्।।

संतोष: समदृक् सेवा ग्राम्येहोपरम: शनै:।

नृणां विपर्ययेहेक्षा मौनमात्मविमर्शनम्।।

अन्नाद्यादे संविभागो भूतेभ्यश्च यथार्हत:।

तेषात्मदेवताबुद्धि: सुतरां नृषु पाण्डव।।

श्रवणं कीर्तनं चास्य स्मरणं महतां गते:।

सेवेज्यावनतिर्दास्यं सख्यमात्मसमर्पणम्।।

नृणामयं परो धर्म: सर्वेषां समुदाहृत:।

त्रिशल्लक्षणवान् राजन् सर्वात्मा येन तुष्यति।।

महाभारत के महान् यशस्वी पात्र विदुर ने धर्म के आठ अंग बताए हैं -

इज्या (यज्ञ-याग, पूजा आदि), अध्ययन, दान, तप, सत्य, दया, क्षमा और अलोभ।

उनका कहना है कि इनमें से प्रथम चार इज्या आदि अंगों का आचरण मात्र दिखावे के लिए भी हो सकता है, किन्तु अन्तिम चार सत्य आदि अंगों का आचरण करने वाला महान् बन जाता है।

तुलसीदास द्वारा वर्णित धर्मरथ

सुनहु सखा, कह कृपानिधाना, जेहिं जय होई सो स्यन्दन आना।

सौरज धीरज तेहि रथ चाका, सत्य सील दृढ़ ध्वजा पताका।

बल बिबेक दम पर-हित घोरे, छमा कृपा समता रजु जोरे।

ईस भजनु सारथी सुजाना, बिरति चर्म संतोष कृपाना।

दान परसु बुधि सक्ति प्रचण्डा, बर बिग्यान कठिन कोदंडा।

अमल अचल मन त्रोन सामना, सम जम नियम सिलीमुख नाना।

कवच अभेद बिप्र-गुरुपूजा, एहि सम बिजय उपाय न दूजा।

सखा धर्ममय अस रथ जाकें, जीतन कहँ न कतहूँ रिपु ताकें।

महा अजय संसार रिपु, जीति सकइ सो बीर ।

जाकें अस रथ होई दृढ़, सुनहु सखा मति-धीर ।। (लंकाकांड)

ब्रह्मचर्येण सत्येन तपसा च प्रवर्तते।

दानेन नियमेनापि क्षमा शौचेन वल्लभ।।

अहिंसया सुशांत्या च अस्तेयेनापि वर्तते।

एतैर्दशभिरगैस्तु धर्ममेव सुसूचयेत।।

(अर्थात ब्रह्मचर्य, सत्य, तप, दान, संयम, क्षमा, शौच, अहिंसा, शांति और अस्तेय इन दस अंगों से युक्त होने पर ही धर्म की वृद्धि होती है।)

जिस नैतिक नियम को आजकल 'गोल्डेन रूल' या 'एथिक आफ रेसिप्रोसिटी' कहते हैं उसे भारत में प्राचीन काल से मान्यता है। सनातन धर्म में इसे 'धर्मसर्वस्वम्" (धर्म का सब कुछ) कहा गया है:

श्रूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चाप्यवधार्यताम्।

आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्।। (पद्मपुराण, शृष्टि 19/357-358)

(अर्थ: धर्म का सर्वस्व क्या है , सुनो ! और सुनकर इसका अनुगमन करो । जो आचरण स्वयं के प्रतिकूल हो , वैसा आचरण दूसरों के साथ नहीं करना चाहिये । )

उपरिउक्त ब्याख्या के अनुसार हरेक आदमी के गुणों के साथ सामंजस्य के साथ धर्म का पालन, आचरण करना उचित है, और ये धर्मं का आचरण बचपन से युवाबस्था तक पुरुषार्थ करनी चाहिए तब जाके वे धर्म आचरण में व्यवहार में ढल जाएगा। इसके बाद आता है अर्थ। सामान्य दृष्टि से विचार करें तो अर्थ इसलिए अनिवार्य है कि उसके बिना कुछ भी नहीं होता। ईश्वरवादी कहते हैं कि ईश्वर की इच्छा के बिना पत्ता भी नहीं हिलता। उसी तरह व्यवहार जगत में अर्थ के बिना एक पत्ता भी नहीं हिलता। इसी सिलसिले में किसी सायर ने खूब लिखा है , "ये जड़ तू खुदा  तो नहीं है मगर खुदा कम भी नहीं ...."अर्थ की अनिवार्यता है, किन्तु इस अनिवार्यता के साथ-साथ दूसरा कोण भी है। उस कोण से देखे । इसीलिए सबसे पहले धर्म का आचरण करने के लिए बताया गया है। ताकि मनुष्य धर्मं का आचरण करते हुए अर्थ कमाय। इसका मतलब सिर्फ इतना ही है हमें कितना अर्थ कमाना है और कैसे कमाना है। और उसके बाद उस कमाया हुआ अर्थ को क्या उपयोग में लाये। शास्त्रों में ये भी वर्णन है अर्थ कितना कमाना चाहिए , जितना मरीज को दावा की जरुरत हो उतना ही सेवन करनी चाहिए, उसी तरह अर्थ भी जितना अर्थ होने से जीवन की जरुरत का निर्वाह हो जाय उतना ही कमाना चाहिए। मगर मनुष्य की जरुरत और चाहत में भेद नहीं कर पाता, जिसके कारण वे कभी कभी अर्थ कमाना उसका लक्ष्य यानि उद्देश्य मान लेता है। जिसके कारण सारी गरबर सुरु हो जाता है। मनुष्य आपनी चाहत को ही अपनी जरुरत समझ बैठता है। हमें याद रहे पुरुषार्थ हम सिर्फ धर्म और मोक्ष के लिए ही कर सकते है। मगर अर्थ और काम हमारा प्रारब्ध के अनुसार ही मिलेगा। यहाँ पर एक बात समझ ने की है है। अर्थ और काम के लिए हमें पुरुषार्थ तो करना ही पड़ेगा मगर उसका जो फल वो प्रारब्ध के अनुसार ही मिलेगा, और हम अगर बचपन से धर्म का ही आचरण करते आ रहै है तो प्रारब्ध भी ठीक बनेगा। अनुकूल और  प्रतिकूल परिस्थिति का प्राप्त होना 'प्रारब्ध' के अधीन है, और प्राप्त परिस्थितिका सदुपयोग करना पुरुषार्थ के अधीन है, और प्रारब्ध धर्माचरण के अधीन है ये मानी जाती। इसीलिए कर्त्तव्य पालन, ध्यान, सत्संग, स्वाध्याय भजन आदि करने में मनुष्य स्वतंत्र है पर अर्थ कामने में आदमी स्वतंत्र नहीं है। इसीलिये भगवान श्री कृष्ण भगवद गीता में कहा है;

कर्मण्ये वाधिकारस्ते कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ॥४७॥

हे मनुष्य तेरा कर्म करनेमें ( पुरुषार्थ में) ही अधिकार है, उसके फलोंमें (प्रारब्धमें) कभी नहीं । इसलिए तू कर्मफलमें हेतु रखनेवाला मत हो, तथा तेरी अकर्ममें (कर्म न करनेमें) भी आसक्ति न हो । ४७

दूसरा तरफ अगर हम सोचे की, अगर हम धर्म के पथ पर चलते है, धर्म के अनुसार पुरुषार्थ करते है तो इसके कारण जो प्रारब्ध तैयार होगा वो भी शुभ ही होगा। अगर पूर्ब जन्मो में किये हुए कर्मो के कारण कोई प्रारब्ध सामने आता है तो भी उसे तो हमें भोगना ही पड़ेगा, इससे तो भगवान सयं ही नहीं बच पाए तो हम किस खेत की मुली। वैसे भागवत पुराण में वर्णन है प्रायश्चित करके उस दोष पूर्ण क्रिया का पुनरावृत्ति अगर ना करे तो भी हम पाप से मुक्त हो सकते है। तो इसीलिए धर्म के अनुसार अर्थ का उपार्जन करना ही उचित है। उस अर्थ से ही धर्म के मार्ग पर चलते हुए आपनी काम और कामना का पूर्ति करना ही उचित है। हम सही माईने में देखे तो हमें यह मालुम ही नहीं धर्म क्या है, वो कैसे वस्तु है, धर्म का आचरण कैसे करना चाहिए। हमें धर्म का संगा क्या है मालुम ही नहीं जिसके कारण हम गलती करते रहते है। जब गलत करने का आदत बन जाता है फिर उसको सुधारने में तकलीफ होता है। आज देखा जाय हम ने धर्म का परिभासा ही बदल डाला है, धर्म को हम अपने हिसाब से अपनी दृष्टी के अनुसार मानते है। एक परिवार में अगर ४ सदस्य है तो देखा जाएगा हरेक आदमी का परिभासा धर्म के लिए अलग है। जैसे मिर्ची में तीखापन नहीं होगा तो हम उस मिर्ची को इस्तेमाल  नहीं करेंगे, निम्बू में खट्टा पण नहीं होगा तो भी उस निम्बू को हम इस्तेमाल नहीं करते है। इसीतरह मनुष्य अगर धर्म को मतलब मनुष्यता को इस्तेमाल नहीं करता तो भगवान भी हमें मनुष्य कुल से बहार निकाल देंगे। राम चरित मानस में भगवान श्री राम इसके बारे में लक्ष्मण जी को बताते है किस उपाय से भगवद प्राप्ति होती है।

धर्म तें बिरति जोग तें ग्याना। ग्यान मोच्छप्रद बेद बखाना॥
जातें बेगि द्रवउँ मैं भाई। सो मम भगति भगत सुखदाई॥
भगति कि साधन कहउँ बखानी। सुगम पंथ मोहि पावहिं प्रानी॥
प्रथमहिं बिप्र चरन अति प्रीती। निज निज कर्म निरत श्रुति रीती॥
एहि कर फल पुनि बिषय बिरागा। तब मम धर्म उपज अनुरागा॥
श्रवनादिक नव भक्ति दृढ़ाहीं। मम लीला रति अति मन माहीं॥
संत चरन पंकज अति प्रेमा। मन क्रम बचन भजन दृढ़ नेमा॥
गुरु पितु मातु बंधु पति देवा। सब मोहि कहँ जानै दृढ़ सेवा॥
मम गुन गावत पुलक सरीरा। गदगद गिरा नयन बह नीरा॥
काम आदि मद दंभ न जाकें। तात निरंतर बस मैं ताकें॥
बचन कर्म मन मोरि गति भजनु करहिं निःकाम।
तिन्ह के हृदय कमल महुँ करउँ सदा बिश्राम॥

धर्म (के आचरण) से वैराग्य और योग से ज्ञान होता है तथा ज्ञान मोक्ष का देने वाला है- ऐसा वेदों ने वर्णन किया है। और हे भाई! जिससे मैं शीघ्र ही प्रसन्न होता हूँ, वह मेरी भक्ति है जो भक्तों को सुख देने वाली है॥ अब मैं भक्ति के साधन विस्तार से कहता हूँ- यह सुगम मार्ग है, जिससे जीव मुझको सहज ही पा जाते हैं। पहले तो ब्राह्मणों के चरणों में अत्यंत प्रीति हो और वेद की रीति के अनुसार अपने-अपने (वर्णाश्रम के) कर्मों में लगा रहे॥ इसका फल, फिर विषयों से वैराग्य होगा। तब (वैराग्य होने पर) मेरे धर्म (भागवत धर्म) में प्रेम उत्पन्न होगा। तब श्रवण आदि नौ प्रकार की भक्तियाँ दृढ़ होंगी और मन में मेरी लीलाओं के प्रति अत्यंत प्रेम होगा॥ जिसका संतों के चरणकमलों में अत्यंत प्रेम हो, मन, वचन और कर्म से भजन का दृढ़ नियम हो और जो मुझको ही गुरु, पिता, माता, भाई, पति और देवता सब कुछ जाने और सेवा में दृढ़ हो,॥ मेरा गुण गाते समय जिसका शरीर पुलकित हो जाए, वाणी गदगद हो जाए और नेत्रों से (प्रेमाश्रुओं का) जल बहने लगे और काम, मद और दम्भ आदि जिसमें न हों, हे भाई! मैं सदा उसके वश में रहता हूँ॥ जिनको कर्म, वचन और मन से मेरी ही गति है और जो निष्काम भाव से मेरा भजन करते हैं, उनके हृदय कमल में मैं सदा विश्राम किया करता हूँ॥
यह भगवान श्री राम का वाक्य है। अब देखते है भगवान श्री कृष्ण भागवत गीता में क्या बताया है।

नान्यं गुणेभ्यः कर्तारं यदा द्रष्टानुपश्यति ।
गुणेभ्यश्च परं वेत्ति मद्भावं सोऽधिगच्छति ॥
गुणानेतानतीत्य त्रीन्देही देहसमुद्भवान्‌ ।
जन्ममृत्युजरादुःखैर्विमुक्तोऽमृतमश्नुते ॥
उदासीनवदासीनो गुणैर्यो न विचाल्यते ।
गुणा वर्तन्त इत्येव योऽवतिष्ठति नेङ्‍गते ॥
समदुःखसुखः स्वस्थः समलोष्टाश्मकाञ्चनः ।
तुल्यप्रियाप्रियो धीरस्तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः ॥
मानापमानयोस्तुल्यस्तुल्यो मित्रारिपक्षयोः ।
सर्वारम्भपरित्यागी गुणातीतः सा उच्यते ॥
मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते ।
स गुणान्समतीत्येतान्ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥
ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य च ।
शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च ॥

 जिस समय दृष्टा तीनों गुणों के अतिरिक्त अन्य किसी को कर्ता नहीं देखता और तीनों गुणों से अत्यन्त परे सच्चिदानन्दघनस्वरूप मुझ परमात्मा को तत्त्व से जानता है, उस समय वह मेरे स्वरूप को प्राप्त होता है॥   यह पुरुष शरीर की (बुद्धि, अहंकार और मन तथा पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच भूत, पाँच इन्द्रियों के विषय- इस प्रकार इन तेईस तत्त्वों का पिण्ड रूप यह स्थूल शरीर प्रकृति से उत्पन्न होने वाले गुणों का ही कार्य है, इसलिए इन तीनों गुणों को इसी की उत्पत्ति का कारण कहा है) उत्पत्ति के कारणरूप इन तीनों गुणों को उल्लंघन करके जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था और सब प्रकार के दुःखों से मुक्त हुआ परमानन्द को प्राप्त होता है॥ जो साक्षी के सदृश स्थित हुआ गुणों द्वारा विचलित नहीं किया जा सकता और गुण ही गुणों में बरतते (त्रिगुणमयी माया से उत्पन्न हुए अन्तःकरण सहित इन्द्रियों का अपने-अपने विषयों में विचरना ही 'गुणों का गुणों में बरतना' है) हैं- ऐसा समझता हुआ जो सच्चिदानन्दघन परमात्मा में एकीभाव से स्थित रहता है एवं उस स्थिति से कभी विचलित नहीं होता॥ जो निरन्तर आत्म भाव में स्थित, दुःख-सुख को समान समझने वाला, मिट्टी, पत्थर और स्वर्ण में समान भाव वाला, ज्ञानी, प्रिय तथा अप्रिय को एक-सा मानने वाला और अपनी निन्दा-स्तुति में भी समान भाव वाला है॥ जो मान और अपमान में सम है, मित्र और वैरी के पक्ष में भी सम है एवं सम्पूर्ण आरम्भों में कर्तापन के अभिमान से रहित है, वह पुरुष गुणातीत कहा जाता है॥ और जो पुरुष अव्यभिचारी भक्ति योग (केवल एक सर्वशक्तिमान परमेश्वर वासुदेव भगवान को ही अपना स्वामी मानता हुआ, स्वार्थ और अभिमान को त्याग कर श्रद्धा और भाव सहित परम प्रेम से निरन्तर चिन्तन करने को 'अव्यभिचारी भक्तियोग' कहते हैं) द्वारा मुझको निरन्तर भजता है, वह भी इन तीनों गुणों को भलीभाँति लाँघकर सच्चिदानन्दघन ब्रह्म को प्राप्त होने के लिए योग्य बन जाता है॥ क्योंकि उस अविनाशी परब्रह्म का और अमृत का तथा नित्य धर्म का और अखण्ड एकरस आनन्द का आश्रय मैं हूँ॥

तो हमने देखा भगवद प्राप्ति के उपाय सयम भगवान के श्री मुख कमल से। मेरा अनुभव और शास्त्रों के  मुताबिक हम जो भी दुनियादारी निभाये वो सिर्फ और सिर्फ एक साधन मात्र है सीडी है लक्ष्य नहीं। मनुष्यता बोध को अपनाते हुये लोक सेवा, माता पिता का सेवा गुरु और गुरुजनों का सेवा, आर्त, दुखी जनों का सेवा, मतलब धर्मं का आचरण करते हुए अर्थ उपार्जन करना। उस अर्थ से धर्मानुसार अपने कामना का पूर्ति करनी चाहिए। हाँ एक बात जरुर याद होनी चाहिये जो भगवान श्री कृष्ण ने कहा है :

ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते ।
संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ॥
क्रोधाद्‍भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः ।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ॥
रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन्‌ ।
आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति ॥

विषयों का चिन्तन करने वाले पुरुष की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है, आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है और कामना में विघ्न पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है॥  क्रोध से अत्यन्त मूढ़ भाव उत्पन्न हो जाता है, मूढ़ भाव से स्मृति में भ्रम हो जाता है, स्मृति में भ्रम हो जाने से बुद्धि अर्थात ज्ञानशक्ति का नाश हो जाता है और बुद्धि का नाश हो जाने से यह पुरुष अपनी स्थिति से गिर जाता है॥  परंन्तु अपने अधीन किए हुए अन्तःकरण वाला साधक अपने वश में की हुई, राग-द्वेष रहित इन्द्रियों द्वारा विषयों में विचरण करता हुआ अन्तःकरण की प्रसन्नता को प्राप्त होता है॥ इसीलिए विषयो का चिंता भी धर्मानुसार ही करना चाहिये, मतलब संपत्ति में आसक्ति न रहे। किसी ने सही कहा है " खाली हाथ आये थे, खाली हाथ जायेंगे, जो आज तुम्हारा है, काल किसी और का था, परसों किसी और का होगा। हम इसीको अपना समझकर गढ़ुड में जीते है और ये ही हामारा दुखो का कारण है। " इस दुनिया में जो भी हमने  कामाया है, स्थावर या अस्थाबर ये सभी अपने काबिलियत न समझे, ये मालिक का  ही देन समझे क्युकी वो मालिक को जैसे  देने में कोई देर नहीं लगता और वापस लेने भी कोई देर नहीं लगता। इसका प्रमाण हमने पिछले दिनों में कई बार देख चुके है।
इसीलिए सबसे पहेला हमें धर्म के बारे में जानना होगा, समझना होगा उसके बाद सद्गुरु से शिक्षा प्राप्त करने के बाद धर्म को अपना के आचरण में लाना पड़ेगा। इसीलिए छात्रावस्था में ७ साल के उम्र से २४ साल तक माता पिता से ज्ञान प्राप्त करने के बाद गुरु के  पास जाके शिक्षा ग्रहण करना जरुरी है। गुरु गृह में गुरु की बताये हुये मार्ग  पर चलते चलते १७ साल में धर्म हमारा जीवन में उतर आता है। इसमें गुरु सिर्फ अध्यात्मिक विकाश ही नहीं करते वल्कि सांसारिक और भौतिक विकाश भी करवाते है। ऐसा ही जीवन चर्या भगवान श्री राम और भगवान श्री कृष्ण के जीवन में भी देखा गया है।  जब धर्म हमारा व्यवहार में उतर जाएगा उसके बाद सब आसान हो जाएगा। वे हमें कर्त्तव्य क्या है दायित्व क्या है शिखते है। इन वचनों के स्रोत के बारे में जिज्ञासा होने पर मैंने उननिषदों के पन्ने पलटना आरंभ किए तो पाया कि ये तैत्तिरीय उपनिषद् में समाहित हैं ।

वेदमनूच्याचार्योऽन्तेवासिनमनुशास्ति । सत्यं वद । धर्मं चर । स्वाध्यायान्मा प्रमदः । आचार्याय प्रियं धनमाहृत्य प्रजानन्तुं मा व्यवच्छेसीः । सत्यान्न प्रमदितव्यम् । धर्मान्न प्रमदितव्यम् । कुशलान्न प्रमदितव्यम् । भूत्यै न प्रमदितव्यम् । स्वाध्यायप्रवचनाभ्यां न प्रमदितव्यम् ।।
देवपितृकार्याभ्यां न प्रमदितव्यम् । मातृदेवो भव । पितृदेवो भव । आचार्यदेवो भव । अतिथिदेवो भव । यान्यनवद्यानि कर्माणि । तानि सेवितव्यानि । नो इतराणि । यान्यस्माकं सुचरितानि । तानि त्वयोपास्यानि ।।  (तैत्तिरीय उपनिषद्, शिक्षावल्ली, अनुवाक ११, मंत्र  १ एबं २)

वेद के शिक्षण के पश्चात् आचार्य आश्रमस्थ शिष्यों को अनुशासन सिखाता है । सत्य बोलो । धर्मसम्मत कर्म करो । स्वाध्याय के प्रति प्रमाद मत करो । आचार्य को जो अभीष्ट हो वह धन (भिक्षा से) लाओ और संतान-परंपरा का छेदन न करो (यानी गृहस्थ बनकर संतानोत्पत्ति कर पितृऋण से मुक्त होओ) । सत्य के प्रति प्रमाद (भूल) न होवे, अर्थात् सत्य से मुख न मोड़ो । धर्म से विमुख नहीं होना चाहिए । अपनी कुशल बनी रहे ऐसे कार्यों की अवहेलना न की जाए । ऐश्वर्य प्रदान करने वाले मंगल कर्मों से विरत नहीं होना चाहिए । स्वाध्याय तथा प्रवचन कार्य की अवहेलना न होवे ।  देवकार्य तथा पितृकार्य से प्रमाद नहीं किया जाना चाहिए । (कदाचित् इस कथन का आशय देवों की उपासना और माता-पिता आदि के प्रति श्रद्धा तथा कर्तव्य से है ।) माता को देव तुल्य मानने वाला बनो (मातृदेव = माता है देवता तुल्य जिसके लिए) । पिता को देव तुल्य मानने वाला बनो । आचार्य को देव तुल्य मानने वाला बनो । अतिथि को देव तुल्य मानने वाला बनो । अर्थात् इन सभी के प्रति देवता के समान श्रद्धा, सम्मान और सेवाभाव का आचरण करे । जो अनिन्द्य कर्म हैं उन्हीं का सेवन किया जाना चाहिए, अन्य का नहीं । हमारे जो-जो कर्म अच्छे आचरण के द्योतक हों केवल उन्हीं की उपासना की जानी चाहिए; उन्हीं को संपन्न किया जाना चाहिए । (अवद्य = जिसका कथन न किया जा सके, जो गर्हित हो, प्रशंसा योग्य न हो ।)संकेत है कि गुरुजनों का आचरण सदैव अनुकरणीय हो ऐसा नहीं है । अपने विवेक के द्वारा व्यक्ति क्या करणीय है और क्या नहीं इसका निर्णय करे और तदनुसार व्यवहार करे ।
हामारे हिन्दू ग्रंथों में नित्य पांच देवता का पूजा करने विधान है, और गुरु पूजन का विधान बताया है। राम चरित मानस में भी इस बात का जीकर है। आईये देखते है क्या कहते है। कहते है नित्य गणपति, दुर्गा, सूर्य, विष्णु और महादेव शंकर भगवान का पूजा और बाद में गुरु पूजा का विधान है। इस पूजा का क्या विशेषता है ?  जब हम गणपति का पूजा करते है तो हमें प्रसन्नता, विवेक, सुबुद्धि और सुमति प्राप्त होता है, उसके बाद दुर्गा माता जिनसे हमें शक्ति, श्रद्धा और भक्ति प्राप्त होता है, सूर्य भगवान से उर्जा और प्रकाश मतलब ज्ञान का प्रकाश हमेशा  हामारे ह्रदय में हो। विष्णु भगवान विशालता प्रदान करते है, मतलब जो प्रसन्नता भक्ति  ज्ञान का प्रकाश हमने उपलब्धि किया है उसको सिर्फ परिवार में ही सिमित न रखे उस फिर बांटे। भगवान महादेव जो करुनामय है प्रेम के प्रगाड़ मूर्ति है और विश्वास के प्रतीक है उसको भी दुनिया में बांटे। गुरु पूजन से आयुष्य बृद्धि होता है बुद्धि सुबुद्धि होता है। सद्गुरु समस्त दोषों को सोक लेता है, तथा  ग्रह दोषों को हर लेता है। सद्गुरु से बढ़िया बैध कोई नहीं है। वे हमें सब भव रोगों से मुक्ति दिलाता है। भव रोग से मुक्ति होने से आत्म ज्ञान होता है आत्म साक्षात्कार होता है। वो ही चरम शांति और आनंद का दाता है। असल में सद्गुरु ही सब कुछ दिलाते है, बस्तुतः सद्गुरु है तो जीवन है। बिना सद्गुरु के भगवद प्राप्ति असम्भव है।  तो मतलब क्या हुआ जरा नज़र लगा के सोचिये एक मनुष्य को एक अच्छी जीवन जीने के लिये सबसे पहले प्रसन्नता, सुबुद्धि, सुमति, विवेक चाहिए, उसके साथ ज्ञान और उर्जा चाहिए, उसके साथ श्रद्धा भक्ति और विश्वास मिलके विशाल रूप धारण करे तो अवतारी मनुष्य बन सकते है।
इसीमे भगवद प्राप्ति हो पायेगा, मतलब मनुष्य जीवन का लक्ष्य और उद्द्येश्य।  जिसको संतो ने परम सुख शांति और और परम आनन्द बताया है। और इसीको मोक्ष भी कहत है।

गुरु चरणों में कोटि कोटि प्रणाम करके उन्हीके दिए हुए प्रेरणा को हमने लीपिबद्ध करने की कोशिश किया है। गलती को माफ़ कीजिये।

जीवन का सबसे बड़ा लक्ष्य क्या है?

इच्छाओं, आकांक्षाओ और आसक्ति से मुक्त होकर आत्मज्ञान प्राप्त करना, स्वयं को जानना, अपने कर्तव्यों को पहचानना , द्वंद्वों से मुक्त और आत्मस्थित होकर निष्काम कर्म करते हुए आनंदपूर्वक जीवन जीना ही मानव जीवन का सबसे बड़ा लक्ष्य है।

मानव जीवन का लक्ष्य क्या है?

मानव जन्म का मूल उद्देश्य ईश्वर निराकार प्रभु की प्राप्ति करना ही है। जिसके द्वारा ही मानव के भ्रम, कर्मकांड की बेड़ियों से निजात पाकर निराकार परमात्मा का दर्शन किया जा सकता है।

मनुष्य जीवन का अंतिम उद्देश्य क्या है?

मृत्यु लोक में आवागमन से मुक्ति पाने के लिए मनुष्य के जीवन का अंतिम लक्ष्य मोक्ष प्राप्ति होना चाहिए।

मनुष्य जीवन का वास्तविक कष्ट क्या है?

मनुष्य जीवन का वास्तविक कष्ट, परमात्मा से कटा होना है. अपने सांसारिक दुखों को दूर करने के लिए संसार एक रिश्ता और सफलताओं में लीन रहता है. गौतम बुद्ध ने मानव जीवन को सुखी बनाने के लिए करुणा अपनाने के लिए कहा. मानव जीवन का सच्चा लक्ष्य है – आनंद की प्राप्ति.