हिंदी की प्रथम दलित कहानी कौन सी है? - hindee kee pratham dalit kahaanee kaun see hai?

हिंदी की प्रथम दलित कहानी कौन सी है? - hindee kee pratham dalit kahaanee kaun see hai?
दलित आत्मकथाओं की सूची

दलित आत्मकथाएं

हिंदी की पहली दलित आत्मकथा मोहन दास नैमिशराय की अपने-अपने पिंजरे (1995) को माना जाता है। हिंदी में दलित आत्मकथा लेखन के रूप में कई महत्वपूर्ण रचनाएँ सामने आई, जो काफी चर्चित रहीं। उनकी सूची नीचे दी गई है-

दलित आत्मकथाओं की सूची

हिंदी की dalit aatmkathaon ki list की निम्नलिखित है-

लेखकआत्मकथा
मोहन दास नैमिशराय अपने-अपने पिंजरे (भाग-1, 1995)
अपने-अपने पिंजरे (भाग-2, 2000)
डी. आर. जाटव मेरा सफर मंजिल (2000)
ओमप्रकाश वाल्‍मीकि जूठन (भाग-1, 1997)
जूठन (भाग-2, 2013)
कौशल्या बैसंती दोहरा अभिशाप (1999)
माता प्रसाद झोपड़ी से राजभवन (2002)
सूरजपाल सिंह चौहान तिरस्कृत (भाग-1, 2002)
तिरस्कृत (भाग-2, 2006)
रमाशंकर आर्य घुटन (2005)
रूपनारायण सोनकर नागफनी (2007)
श्‍योराज सिंह ‘बेचैन’ बेवक्त गुजर गया माली (2006)
मेरा बचपन मेरे कंधों पर (2009)
धर्मवीर मेरी पत्नी और भेड़िया (2009)
खसम खुशी क्यों होय? (2013)
तुलसी राम मुर्दहिया (भाग 1, 2010)
मणिकर्णिका (भाग 2, 2013)
सुशीला टाकभोरे शिकंजे का दर्द (2011)
कौशल पंवार बवंडरों के बीच (2021)
दलित आत्मकथाएं

इन आत्मकथाओं के अतरिक्त दलित आत्मकथा में 2 मराठी आत्मकथाओं का काफी प्रभाव रहा, जिन्हें हिंदी में काफी पढ़ा-लिखा गया-

1. दया पवार- अछूत,

2. शरण कुमार लिम्बाले- अक्करमाशी

दलित कहानी की वैचारिकी

ओमप्रकाश मीना (शोधार्थी)

भारतीय भाषा केंद्र, ज.ने.वि.,नई दिल्ली -110067

हिंदी कहानी का आरम्भ उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम चरण से माना जाता है। इसका आरम्भ लोककथा शैली से होता है क्योंकि भारत में लोककथा शैली की एक प्राचीन परम्परा रही है। प्रेमचन्द और प्रसाद युग में आकर कहानी सुगठित रूप में सामने आती है। तब से लेकर हिंदी कहानी नई कहानी, अकहानी, सचेतन कहानी, सहज कहानी, समांतर कहानी, जनवादी कहानी, सक्रिय कहानी के दौर से गुजरती है लेकिन इस दौर की कहानियों की विडम्बना यह है कि इनमें दलित समाज लगभग गायब रहा है। प्रेमचन्द की ‘सद्गति’, ‘दूध का दाम’, ‘ठाकुर का कुआँ’ जैसी कहानियों में दलित चेतना एवं संघर्ष के संकेत देखने को मिलते हैं। सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ के यहाँ भी सुगबुगाहट के संकेत मात्र ही देखने को मिलते हैं, लेकिन उनके यहाँ भी दलित चेतना की प्रखर अभिव्यक्ति नहीं दिखाई पड़ती है। इस दौर की गैर-दलित कहानियाँ गाँधीवादी और मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित रहीं है, जो कि दलित समाज की संवेदना को समझने में कारगर साबित नहीं होती हैं। सही मायने में साहित्य में दलित समाज की उपस्थिति हाशिए पर रही है। इसलिए साहित्य में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के लिए दलित साहित्यकार सामने आए। इसके साथ ही हिंदी में दलित साहित्य परम्परावादी साहित्य से अपनी अलग पहचान बनाता है। हिंदी में दलित साहित्य नब्बे के दशक में एक साहित्यिक आंदोलन के रूप में सामने आता है, जिनमें दलित साहित्यकारों ने अपनी अग्रणी भूमिका निभाई। इस तरह पारम्परिक साहित्य से अलग होकर अपने समाज की अस्मिता को लेकर दलित वर्ग के लेखकों ने सशक्त भूमिका निभाई।

1990 के बाद दलित कहानी लेखन में गतिशीलता आती है और फुटकर कहानियों के अलावा दलित कहानीकारों के अनेक कहानी संग्रह प्रकाशित हुए हैं। दलित कहानी की विकास यात्रा में सशक्त भूमिका निभाने वालों में– ‘ओमप्रकाश वाल्मीकि, डॉ. प्रेमशंकर, रजत रानी ‘मीनू’, मोहनदास नैमिशराय, डॉ.कुसुम वियोगी, डॉ.सुशीला टाकभौरे, सुमन प्रभा रजनी, वंदिता कमलेश्वर, डॉ.जयप्रकाश कर्दम, डॉ.श्यौराज सिंह ‘बेचैन’, प्रेम कपाड़िया, विपिन बिहारी, सत्यप्रकाश, डॉ.दयानन्द बटोही, बी.एल.नैयर, डॉ.कुसुम मेघवाल, सी.बी.भारती, कर्मशील भारती, तेजपाल सिंह ‘तेज’, उमराव सिंह ‘जाटव’, रत्नकुमार सांभरिया, डॉ.शत्रुघ्न कुमार, डॉ.कालीचरण सनेही, डॉ.हेमलता महीश्वर, रूपनारायण सोनकर, अनीता भारती, डॉ.अजमेर सिंह काजल, डॉ.सूरज बड्त्या, राजेंद्र बडगुजर, डॉ.कौशल पंवार और सुजाता पारमिता आदि हैं। इन कहानीकारों ने दलित कहानी के माध्यम से दलित समाज की संवेदनाओं को बारीकी से उकेरा हैं। इनकी कहानियां शोषणकारी व्यवस्था के खात्मे के लिए दलितों में हीनताबोध को तोड़ती हुई दलितों को संघर्ष के लिए अभिप्रेरित करती हैं, साथ ही महात्मा ज्योतिबा फुले एवं बाबा साहब के प्रगतिशील विचारों से रूबरू कराती हुई दलितों का मार्गदर्शन करती हैं। दलित कहानी की वैचारिकी के संदर्भ में डॉ.राम चंद्र लिखते हैं- “हिंसा और घृणा आधारित हिन्दू व्यवस्था की जगह समता एवं करुणा की आकांक्षा दलित वैचारिकी का आधार स्तम्भ है जो बुद्ध से डॉ.अम्बेडकर तक के लम्बे इतिहास की देन है। अम्बेडकरवादी विचारधारा की मौजूदगी दलित कहानी की मूल संवेदना है,जिससे दलित चेतना की निर्मिति हुई है। अस्मिताबोध दलित कहानियों का मूल कथ्य हैं।”1 दलित कहानियों में आक्रोश, प्रतिक्रिया एवं संघर्ष के स्वर विद्यमान है, शोषणकारी व्यवस्था का खात्मा कर समता, बंधुता एवं भाईचारे की स्थापना करना दलित कहानी का उद्देश्य है। सही मायने में दलित कहानी एक साहित्यिक आंदोलन के रूप में सशक्त रूप से सामने आती है, जिसे वैचारिक ऊर्जा बुद्ध के दर्शन, महात्मा फुले एवं बाबा साहब डॉ.अम्बेडकर के जीवन संघर्ष एवं विचारों से मिलती है।

संवैधानिक सुरक्षा एवं अधिकारों की प्राप्ति के बाद बाबा साहब के विचारों से प्रेरित समाज के निचले तबके के लोग शिक्षित होकर जातिगत पेशों से मुक्त होने लगे हैं। शिक्षा से दलितों, महिलाओं और तमाम निचले तबकों में चेतना आई है। वे अपने अधिकारों के लिए संघर्ष हेतु प्रेरित हुए हैं और अपने अस्तित्व एवं अस्मिता के लिए उठ खड़े हुए हैं। बाबा साहब का मूल मंत्र- ‘शिक्षित बनो’, ‘संगठित हो’ और ‘संघर्ष करो’ एवं ‘अप्पो दीपो भव’ अर्थात् ‘अपना दीपक स्वयं बनो’! इन मूल मंत्रों ने सदियों से शोषित दलितों में हीनताबोध को तोड़कर उनमें संघर्ष एवं चेतना के बीज बोये। इस संदर्भ में बाबा साहब लिखते हैं- “प्रत्येक व्यक्ति को शिक्षित किया जाना चाहिए। हर एक व्यक्ति में अपनी रक्षा की क्षमता होनी चाहिए। अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए, प्रत्येक व्यक्ति के लिए यह बहुत जरुरी भी है।”2 यानी शिक्षा ही एक ऐसा अस्त्र है, जिससे सामाजिक भेदभाव और शोषणकारी व्यवस्था को खत्म किया जा सकता है। शिक्षित होने से दलित समाज सदियों से चली आ रही शोषणकारी व्यवस्था को समझ सकता है और अपने संवैधानिक एवं मानवीय अधिकारों के प्रति जागरूक हो सकेगा। शिक्षा ही उनके अन्दर बैठे हीनताबोध व धर्मशास्त्रों के आतंक को तोड़ पायेगी। इसी संदर्भ में शिक्षा की महत्ता के बारे में महात्मा ज्योतिबा फुले लिखते हैं- “विद्या के न होने से बुद्धि नहीं, बुद्धि के न होने से नैतिकता न रही, नैतिकता के न होने से गतिमानता, गतिमानता के न होने से धन-दौलत न मिली, धन-दौलत न होने से शूद्रों का पतन हुआ। इतना अनर्थ एक अविद्या से हुआ।”3 इससे स्पष्ट होता है कि शिक्षित न होने के कारण दलितों का सामाजिक-आर्थिक-धार्मिक शोषण किया जाता रहा है, अज्ञानतावश वे जाति-वर्ण व्यवस्था को नियति मान बैठे और अपने अधिकारों से अनभिज्ञ रहे।

संवैधानिक अधिकारों की प्राप्ति के बाद फुले एवं बाबा साहब के विचारों से प्रेरित दलित समाज शिक्षित होने लगा है और अपने अधिकारों को जानने लगा है। दलित कहानियों के मद्देनजर देखा जाए तो दलित कहानी शिक्षा के प्रति महात्मा फुले एवं बाबा साहब के दिए गए विचारों से पाठकों को अभिभूत कराती है। डॉ.सुशीला टाकभौरे की कहानी ‘सिलिया’ में सिलिया इस भेदभाव आधारित समाज में बराबरी एवं इज्जत का दर्ज़ा पाने के लिए संघर्ष करती है और शिक्षित होकर समाज में बदलाव लाने के लिए प्रतिबध्द होती है- “सिलिया सोचने लगी थी कि कैसे मात किया जा सकता है इस हालात को? कैसे हम अपनी इज्जत और बराबरी का दर्ज़ा पा सकते हैं? ….हीनता और दीनता के भाव न जाने कब के जा चुके थे? वह मन ही मन सोच रही थी झाड़ू नही कलम। हाँ कलम ही उसके समाज का भाग्य बदलेगी।”4 इस तरह सिलिया कलम के माध्यम से दलित समाज की प्रगति एवं विकास के लिए प्रतिबध्द होती है। शिक्षा के माध्यम से वह शोषणकारी समाज में बदलाव लाना चाहती है। वह दृढ़ संकल्प लेती है- “मैं बहुत आगे तक पढूंगी, पढ़ती रहूंगी, उन सभी परम्पराओं के मूल कारणों का पता लगाऊँगी, जिन्होंने हमें समाज में अछूत बना दिया है । मैं विद्या, बुद्धि और विवेक से अपने आपको ऊँचा साबित करके रहूंगी, किसी के सामने झुकूंगी नहीं, न ही कभी अपमान सहन करुँगी।”5 बाबा साहब ने सामाजिक आदोंलनों के माध्यम से सोये हुए दलित समाज में शिक्षा की अलख जगाई, क्योंकि उनका विश्वास था कि सामाजिक बुराईयों और अन्याय के खात्मे के लिए शिक्षा ही प्रभावकारी अस्त्र है।

बाबा साहब लड़का-लड़की की शिक्षा के समान अवसर के लिए अभिभावकों को प्रेरित करते हैं। बाबा साहब का मानना था कि ‘स्त्री शिक्षा के बगैर दलित समाज ब्राह्मणवाद के विरुद्ध जीती हुई लड़ाई हार जायेगा। सही मायने में सामाजिक विकास की यात्रा में स्त्री की सहभागिता के लिये स्त्री शिक्षा बहुत आवश्यक है। इसी संदर्भ में सन् 1913 में न्यूयार्क में पढ़ते हुए डॉ.अम्बेडकर ने अपने पिता के एक मित्र को जवाब देते हुए पत्र में लिखा था- “यह गलत है कि माँ-बाप बच्चों को जन्म देते हैं कर्म नहीं देते। माँ-बाप बच्चों के जीवन को उचित मोड़ दे सकते हैं, यह बात अपने मन पर अंकित कर यदि हम लोग अपने लड़कों की शिक्षा के साथ ही लड़कियों की शिक्षा के लिए भी प्रयास करें तो हमारे समाज की उन्नति तीव्र होगी। इसलिए आपको नजदीक रिश्तेदारों में यह विचार तेजी से फैलाना चाहिए।”6 इस तरह बाबा साहब समाज की उन्नति के लिए पुरुष के साथ-साथ स्त्री शिक्षा को भी अत्यंत आवश्यक मानते हैं। बाबा साहब की स्त्री शिक्षा के प्रति इस वैचारिकी को रजत रानी ‘मीनू’ ‘सुनीता’ कहानी में दर्शाती हैं। कहानी में सुनीता के माँ-बाप लड़की को पराया धन समझकर पढ़ाने के पक्ष में नहीं होते है, लेकिन सुनीता हार नहीं मानती और अपनी माँ को समझाती है- “माँ चमार और भंगी को इसलिए पुश्तों से शिक्षा से दूर रखा गया ताकि ये लोग अपना सफाई का,चमड़े का पुश्तैनी धंधा न छोड़ें। अगर पढ़ेगे तो ये बोलने लगेंगे। यह अपने हक़ की बात करने लगेंगे और उन्हें पाने लायक बन जायेंगे।”7 एक दिन सुनीता उच्च शिक्षा प्राप्त कर राजनीति में दलित समाज का प्रतिनिधित्व करती है और अपने माँ-बाप एवं समाज का नाम गौरवान्वित करती है। तब उसके पिता को अपनी इस पुरुषवादी मानसिकता पर शर्मिंदगी महसूस होती है कि लड़की को पढ़ाकर क्या करेगे, यह तो पराया धन है। इस तरह कहानी वर्णव्यवस्था के साथ-साथ पितृसत्ता को चुनौती देती है और बदलाव के लिए सोचने को विवश करती है। बाबा साहब के विचारों के चलते आज स्त्री सभी क्षेत्रों अपनी योग्यता के बल पर सहभागिता निभा रही हैं।

बाबा साहब के विचारों से प्रभावित होकर स्त्री हर क्षेत्र के विकास में अपनी उपस्थिति दर्ज करा रही है। दलित समाज की स्त्री शिक्षा के प्रति तो जागरूक हुई है, लेकिन उसे कदम-कदम पर इस पुरुषसत्ता एवं वर्णव्यवस्था से जूझना पड़ रहा है। दलित छात्रा ही नहीं दलित छात्रों को भी उच्च शिक्षण संस्थानों में जातिगत भेदभाव का शिकार होना पड़ रहा हैं, क्योंकि शिक्षण संस्थानों में मनुवादी मानसिकता से ग्रसित सवर्ण लोग उच्चे पदों पर आसीन है, वे नहीं चाहते कि दलित समाज पढ़-लिखकर उन्नति करें, क्योंकि इससे उनके वर्चस्व के खात्मे का भय है। शिक्षण संस्थानों में आज भी दलित छात्र-छात्राओं का मानसिक-शारीरिक शोषण होता है। इसी संदर्भ में ओमप्रकाश वाल्मीकि की ‘घुसपैठिये’ कहानी शिक्षण संस्थाओं में दलित छात्रों के साथ जातिगत भेदभाव के आधार पर हो रहे जुल्म एवं अत्याचारों का पर्दाफाश करती है। कहानी में दलित छात्र सुभाष सोनकर को सवर्ण छात्र प्रणव मिश्रा मारपीट करके अधमरा कर देता है। प्रणव मिश्रा के अंजाम पर कोई कार्यवाही नहीं होती है। डीन महोदय को दलित छात्रों का आना घुसपैठ लगता है। वह आरक्षण के विरोध में जहर उगलता है और दलित छात्रों को आरक्षण मिलना सवर्ण छात्रों के साथ नाइंसाफी मानता है, इसीलिए दलित छात्रों पर सवर्ण छात्रों की ज्यादतियों को उचित मानता है। इसके चलते दलित छात्र-छात्राएँ अपनी पढाई बीच में छोड़ देते हैं या आत्महत्या का विकल्प चुनते हैं। जो दलित छात्र विरोध करते हैं उन दलित छात्रों की हत्या तक कर दी जाती है। इस संदर्भ में लेखक लिखते हैं:- “सोनकर को पहली ही परीक्षा में फेल कर दिया गया था। क्योंकि उसने प्रणव मिश्रा के खिलाफ़ पुलिस में नामजद रपट लिखाने का दुस्साहस किया था, डीन और अन्य प्रोफेसरों तक शिकायत पहुँचाने की हिमाकत की थी, यह भूलकर कि वह इस चक्रव्यूह में अकेला फंस गया है, जहाँ से बाहर आने के लिए उसे कौरवों की कई अक्षैहिण सेना और महारथियों से टकराना पड़ेगा। परीक्षाफल का व्यूह भेदकर सोनकर बाहर नहीं आ पाया था। कई महारथियों ने निहत्थे सोनकर की हत्या कर दी थी।”8 इसी तरह जयप्रकाश कर्दम की ‘सूरज’ कहानी में दलित छात्र सूरज की हत्या को आत्महत्या कहकर प्रचारित किया जाता है। सूरज कॉलेज में अम्बेडकर जयंती मनाने के जरिये दलित छात्रों में संगठित चेतना एवं संघर्ष का बीज बोता है। इसकी प्रतिक्रिया में कुछ सवर्ण छात्र सूरज की हत्या कर देते हैं, क्योंकि इससे इनके जातिगत वर्चस्व एवं श्रेष्ठता को चुनौती मिलती है। इस तरह दलित कहानी शिक्षण संस्थानों में व्याप्त जातिगत भेदभाव के क्रूर एवं असंवेदनशील चेहरे को सामने लाती है और शिक्षण संस्थाओं पर प्रश्नचिन्ह खड़ा करती है।

आज दलित वर्ग के छात्र-छात्राएँ अपने अधिकारों के प्रति सचेत हैं, उन्हें किसी द्रोणाचार्य का एकलव्य बनना मंजूर नहीं हैं। कावेरी ‘द्रोणाचार्य एक नहीं’ कहानी में शिक्षण संस्थानों में हो रहे भेदभाव को दर्शाते हुए दलितों में संघर्ष एवं चेतना के स्वर को अभिव्यक्त करती हैं। कहानी में दलित छात्र सुवास स्कूल हैडमास्टर द्वारा पिटाई करने और हरामी कहने पर प्रतिक्रियास्वरूप कहता है- “सर हरामी होगा झूठ बोलने वाला। मैं भीरु एकलव्य नहीं कि आप जैसे द्रोणाचार्य के सामने सब कुछ हार जाऊँ। आपके स्कूल में सिर्फ ऊँचे कहाने वाले ही पढ़ेगे। मुझे नहीं चाहिए ऐसी पढाई।”9 इस तरह दलित छात्र आज एकलव्य बनने को तैयार नहीं है, वह अपने अधिकारों के प्रति सचेत हो गया है। इसी संदर्भ में ओमप्रकाश वाल्मीकि की ‘कहाँ जाये सतीश?’ कहानी में भी दलित छात्र के संघर्ष को रेखांकित किया गया है। इस कहानी में सतीश बाबा साहब के विचारों से प्रेरित है और मेहनत-मजदूरी करके किताबें खरीदकर पढ़ाई करता है, ताकि वह शिक्षित होकर अपना गांव का विकास कर सके। उनकी ‘पच्चीस चौका डेढ़ सौ’ कहानी में भी अशिक्षित एवं अज्ञानी दलितों के शोषण को दर्शाया गया है, साथ ही शिक्षा से आई उनकी चेतना को भी रेखांकित किया गया है। इस कहानी में सुदीप पढ़-लिखकर नौकरी करता है और अपनी पहली तनख्वाह पिताजी को गिनाकर चौधरी के शोषण का पर्दाफाश करता है, तो उसके पिता में चौधरी के प्रति आक्रोश का भाव पैदा होता है। इस तरह बाबा साहब के विचारों से प्रेरित शिक्षित दलित वर्ग सवर्णों के शोषण तंत्र को समझने लगा है और अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करने लगा है।

उच्च शिक्षण संस्थानों, अकादमिक संस्थानों एवं विश्वविद्यालयों में दलित छात्र-छात्राओं के साथ वर्णव्यवस्था के पुजारी मनुवादी प्रोफ़ेसर उनकी मेहनत और सपनों के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं। ये लोग दलित छात्रों को अयोग्य घोषित कर उनकी आरक्षित सीटें खाली रखतें हैं। इसी संदर्भ में डॉ.दयानन्द बटोही ‘सुरंग’ कहानी में दर्शाते हैं। कहानी में एक दलित छात्र को रिसर्च करने नहीं दिया जाता है, साक्षात्कार में डॉ.विष्णु सर हिलाते हुए कहता है- “कोई हो, सरकार भले कानून बना दी हो, घोड़े की रस्सी तो हमारे हाथों में हैं। आपका रिसर्च में नही होगा।”10 इस तरह विश्वविद्यालयों में दलित शोधार्थियों के साथ रिसर्च करने में मनुवादी लोग अड़चने पैदा करते हैं, लेकिन दलित वर्ग अपने अधिकारों के प्रति सचेत है और शोषण एवं भेदभाव के खिलाफ़ प्रतिक्रिया व्यक्त करने लगा है। कहानी में दलित शोधार्थी इस भेदभाव के खिलाफ़ प्रतिक्रिया व्यक्त करता है- “डॉ.साहब आप भूल जाये कि मैं हरिजन हूँ, गुलाम हूँ। पराधीनता की जंजीर टूटनी है। आज तक आप जैसे तानाशाह ने अँधेरे में हम लोगों को रखा है। अब मैं पूछता हूँ-आप क्यों रिसर्च नहीं करने देगें? ….डॉ.साहब यह भूल जाइये कि आपसे दया की भीख मांग रहा हूँ। मैं पूछता हूँ आप लोग हरिजन कल्याण का ढ़िंढ़ोरा क्यों पिटते हैं, आरक्षण कहाँ दे रहे हैं।”11 इस तरह कहानी उच्च शिक्षण संस्थानों में मनुवादी मानसिकता से ग्रसित ऊँचे पदों पर पदासीन सवर्णों के शोषण का प्रतिकार करती है और शिक्षित दलित समाज में बदलाव की बेचैनी को दर्शाती है। अम्बेडकरवादी विचारों से प्रेरित दलित शिक्षार्थी एकलव्य बनने की भूल नहीं करते हैं, बल्कि अपने शैक्षिक हक़ के लिए संघर्ष करते हैं एवं शोषण का प्रतिकार करते हैं|

बाबा साहब ने दलितों में शिक्षा के प्रति चेतना जाग्रत की है। इसी के चलते शिक्षा से दलितों में हीनताबोध की भावना ख़त्म होने लगी और उनमें स्वाभिमान, संघर्ष एवं चेतना का स्वर मुखरित हुआ हैं। इसके चलते दलित समाज शोषणकारी एवं अपमानजनक पुश्तैनी धंधों को त्यागकर नए रोजगार पाने की ओर उन्मुख हुआ है। इसी संदर्भ में सूरजपाल चौहान की ‘परिवर्तन की बात’ दलितों में व्याप्त चेतना को दर्शाती है। कहानी में दलित किसना मरे जानवर उठाने वाला पुश्तैनी धंधा का त्यागकर दूसरा धंधा अपनाने की पहल करता है। इस संदर्भ में वह थानेदार से कहता है- “क्या आप यही चाहते हैं कि हम जीवन भर गाँव के मरे जानवर ही उठाते रहें। अब समय बदल रहा है, लोग अपना पुश्तैनी धंधा छोड़कर दूसरे कार्य करने लगे हैं। हम दूसरा अन्य कोई भी काम कर अपना पेट भर लेंगे, लेकिन मरा जानवर हम नहीं उठायेंगे।”12 उनकी ‘साजिश’ कहानी भी इसी ओर संकेत करती है, कहानी में जब बैंक मैनेजर नत्थू को बेबकूफ बनाकर टेम्पों के लिये ऋण ना देकर सूअर फॉर्म के लिए ॠण दे देता है। नत्थू की पत्नी शांता बैंक मैनेजर की साजिश का पर्दाफ़ाश करती है और नत्थू के साथ दलित युवकों को लेकर बैंक के बाहर इकट्ठा होकर बैंक मैनेजर के खिलाफ आवाज उठाती है। अंत में बैंक मैनेजर को नत्थू के लिये ट्रांसपोर्ट का लोन सैक्शन करना पड़ता है। यह कहानी शिक्षित दलित समाज में संगठित चेतना को दर्शाती है। यह बदलाव की ऊर्जा बाबा साहब एवं फुले के विचारों एवं संघर्ष से मिल रही हैं। उनके विचारों एवं संघर्ष से प्रेरित होकर दलित समाज पारम्परिक शोषणकारी व्यवस्था के बदलाव लिए एकजुट होकर संघर्षरत हो गया है। दलितों ने शोषण के तमाम तरीकों को समझ लिया हैं, जिसे वे संगठित होकर बेनकाब कर रहे हैं। हालांकि इस बदलाव के लिए उन्हें काफी कठिनाईयाँ एवं संघर्ष झेलने पड़ते हैं, विशेषकर गाँवों में बदलाव कड़ी चुनौती है, लेकिन इस चुनौती को दलितों की संगठित चेतना ने स्वीकार कर लिया है।

स्त्री वर्षों से पुरुषसत्तात्मक व्यवस्था की शिकार रही है, उसकी इच्छाएं-आकांक्षायें, सुख-दुःख सब पुरुष पर निर्भर रही हैं। स्त्री को भोग्य-विलासिता की वस्तु समझा जाता रहा है। हिन्दू धर्म में तो अजीब विडम्बना देखने को मिलती है-एक तरफ़ स्त्री को माँ दुर्गा, काली, सरस्वती, लक्ष्मी आदि देवियों के रूप में पूजा जाता रहा है, दूसरी तरफ स्त्री पुरुषसत्तात्मक व्यवस्था की शिकार हो रही है, उन्हें भोग्य की वस्तु समझा जाता रहा है। नब्बे के दशक में स्त्री विमर्श स्त्री की समस्याओं को लेकर सामने आया। मैत्रेयी पुष्पा, मन्नू भंडारी, प्रभा खेतान, डॉ.सुमन राजे, नासिरा शर्मा, ममता कालिया आदि स्त्री साहित्यकारों ने स्त्री साहित्य में सशक्त भूमिका निभाई। शोषणकारी पुरुषसत्तात्मक व्यवस्था के खिलाफ विद्रोह का स्वर उभरकर सामने आया। लेकिन दलित स्त्री का स्वर इनके यहाँ भी दबा ही रहा। इसी के चलते दलित स्त्री लेखन सामने आया है, क्योंकि यहाँ समस्या सहानुभूति-स्वानुभूति को लेकर है। स्त्री लेखिका स्त्री की व्यथा को समझ सकती है, लेकिन सवर्ण स्त्री लेखिका एक दलित स्त्री की व्यथा को ठीक से अभिव्यक्त नहीं कर पा रही है। दलित साहित्य ने गैर एवं दलित स्त्रियों की व्यथा एवं वेदना का चित्रण बारीकी से किया है। दलित और गैर-दलित जीवन में मौजूद पितृसत्ता पर सवाल करना दलित कहानी का महत्त्वपूर्ण मुद्दा रहा है। दलित स्त्री लेखन में दलित समाज के अंतर्विरोधों पर प्रकाश डाला गया है | दलित साहित्य में स्त्री और पुरुष लेखन का वैचारिक आधार फुले-अम्बेडकरवाद ही है। बाबा साहब डॉ.अम्बेडकर ने नारी के चहुमुंखी विकास के लिए स्वतंत्र भारत के पहले विधि मंत्री के रूप में ‘हिन्दू कोड़ बिल’ का प्रारूप बनाया। परन्तु पुरुषवादी मानसिकता के चलते संसद में यह बिल पास न हो सका और इससे आहत होकर उन्होंने मंत्रीपद से त्यागपत्र दे दिया। हालांकि बाद में ‘हिन्दू कोड़ बिल’ चार भागों में बांटकर कानून में शामिल कर लिया गया है, जिनमें बाबा साहब के ‘हिन्दू कोड़ बिल’ सिद्धांत शामिल है। इस तरह बाबा साहब ने महिलाओं की दशा सुधारने में अथक प्रयास किये हैं।

बाबा साहब समाज की उन्नति के लिए महिलाओं की उन्नति को आवश्यक मानते हैं- “मैं समाज की उन्नति का अनुमान इस बात से लगता हूँ कि उस समाज में महिलाओं की कितनी प्रगति हुई है। नारी की उन्नति के बिना समाज एवं राष्ट्र की उन्नति असम्भव है।”13 इस तरह वे समाज की उन्नति एवं निर्माण में नर-नारी की समान सहभागिता पर जोर देते हैं। उन्होंने महिलाओं की उन्नति के लिए स्त्री शिक्षा को आवश्यक माना, साथ ही दलित समाज की प्रगति का पैमाना दलित स्त्री की प्रगति से माना। इस संदर्भ में उनका मानना था कि ‘यदि लड़कों के साथ-साथ लड़कियों की शिक्षा की ओर भी ध्यान देने लग जाए तो हम अतिशीघ्र प्रगति कर सकते हैं।’ शिक्षा के कारण आज स्त्री हर क्षेत्र में प्रवेश कर चुकी है, कोई भी क्षेत्र अछूता नहीं रहा है।

दलित स्त्री दोहरे शोषण की मार झेल रही है। बाबा साहब के विचारों से प्रेरित होकर गैर-दलित एवं दलित स्त्रियाँ शिक्षित होकर उन्नति कर रही हैं और दुनिया के हर क्षेत्र में अपनी भागीदारी निभा रही हैं। वे अपने अधिकारों के प्रति सचेत हो गयी हैं, लेकिन अभी तक स्त्री के प्रति पुरुषवादी समाज की सोच नहीं बदली है। वह स्त्री को भोग्य-विलासिता की वस्तु के रूप में देखता आ रहा है और इसी सोच की शिकार अधिकतर दलित वर्ग की स्त्री होती रही हैं। हर रोज दलित स्त्रियों का शारीरिक—मानसिक शोषण होता रहा है। यहाँ तक की वह दलित समाज में भी पितृसत्ता के शोषण की शिकार होती हैं।

आज स्त्री किसी भी रिश्ते के छत के नीचे पूर्णरूपेण सुरक्षित नहीं है क्योंकि खून के रिश्तों में भी यौन शोषण की बू आने लगी है। इसलिए बाबा साहब ने कहा था कि ‘समाज की उन्नति स्त्री की उन्नति के बिना संभव नहीं है। जिस दिन स्त्री बैखोफ होकर स्वतंत्र, उन्मुक्त जीवन जीने लगेगी, उस दिन से सही मायने में समाज उन्नति करने लगेगा’। पुरुषसत्तात्मक समाज में आज भी स्त्री सुरक्षित नहीं है, इसलिए दलित एवं गैर-दलित स्त्री को अपने अधिकारों एवं सुरक्षा का बीड़ा स्वयं उठाना होगा। बाबा साहब के मूल मंत्र- ‘अप्पो दीपो भव’। अर्थात् ‘अपना दीपक स्वयं बनो’ से प्रेरित होकर अपना निर्णय खुद लेना होगा। इसके लिए स्त्री को उच्च शिक्षा प्राप्त करनी होगी, ताकि आत्मनिर्भर बनकर स्वाभिमान एवं गौरव की जिन्दगी जी सके। दलित स्त्री एवं पुरुष कथाकारों की कहानियों में श्रम से जुड़ी यौन समस्या, पुरुषसत्तात्मक एवं वर्ण-व्यवस्था के विरुद्ध आक्रोश, समाज में बराबरी के लिए संघर्ष, शिक्षा के प्रति जाग्रति बड़ी जीवंतता के साथ प्रकट हुई है। इस संदर्भ में ओमप्रकाश वाल्मीकि की ‘फेमनिस्ट’ कहानी प्रमुख है, जिसमें श्वेता अपने पुरुषवादी पति व समाज का प्रतिकार करती है। वह पुरुषोत्तम राम एवं भीष्म पितामह पर सवाल खड़ा करती है- “और जानती हूँ तुम्हारे मर्यादा पुरुषोत्तम राम को जो वास्तव में घोर मर्दवादी थे। उस राम को जानती हूँ जो सीता जैसी पतिव्रता नारी को भी शंका की निगाह से देखा था। और अंततः अग्नि परीक्षा तक ली थी। उस राम को,जो सूर्पनखा के नाक-कान काटकर कुरूप बनाया था।…“नहीं, सिर्फ राम ही नहीं, तुम्हारे दूसरे महापुरुष भीष्म पितामह को भी मैं दंभी, दुराचारी और मर्दवादी ही मानती हूँ। …हाँ भीष्म पितामह भी मर्दवादी ही थे, दुराचारी थे। वरना क्या जरुरत थी अपने रिश्तेदारों के लिए अम्बा, अम्बिका और अंबालिका को अपने बाजू की ताकत से अगवाकर उन्हें सौपने की। आज की सही भाषा में उन्होंने ‘किडनैप’ ही तो किया था।”14 यह कहानी शोषणकारी परम्परा के आदर्श एवं प्रतीकों के नकारती है। इसमें पुरुषसत्तात्मक व्यवस्था के प्रति नकार की अभिव्यक्ति देखने को मिलती है, साथ ही स्त्री के अस्तित्व एवं अस्मिता की लड़ाई भी। बाबा साहब के विचारों से प्रेरित श्वेता स्त्री की दासता एवं शोषण के लिए बनाए गए प्रतिमानों, आदर्शों, नैतिक बंधनों, धार्मिक एवं सामाजिक मूल्यों को तोड़ती है और अपने अस्तित्त्व एवं अस्मिता के लिए पुरुषवादी पति से लड़ाई लड़ती है।

बाबा साहब के विचारों से प्रेरित होकर दलित स्त्री में सामाजिक सहभागिता की आकांक्षाएं जाग्रत हुई हैं। वह हर क्षेत्र में बराबरी के लिए संघर्ष कर रही हैं। इसी संदर्भ में जयप्रकाश कर्दम की ‘मूवमेंट’ कहानी में सुनीता हर क्षेत्र में बराबरी की बात करती है। वह अपने पति के मूवमेंट पर सवाल खड़ा करती है- “तुम बराबरी की बात करते हो न, बराबरी का मतलब है हर क्षेत्र में हर स्तर पर बराबरी। हर किसी की अवसर की स्वतंत्रता और समानता। मेरी सारी जिन्दगी तो परिवार की जिम्मेदारियाँ निभाते हुए घर की चारदीवारी की भेंट चढ़ रही है। मेरे लिए कौनसा अवसर है इस पर नहीं सोचोगे तुम कभी। यही तो सबसे बड़ी दिक्कत है। मैं पूछती हूँ क्या यही प्रगतिशीलता है तुम्हारी कि बाहर जाकर अन्याय और असमानता के खिलाफ भाषण झाड़ों और खुद घर में असमानता का व्यवहार करो? यही मूवमेंट है तुम्हारा?’’15 यह कहानी दलित समाज के उस अन्तर्विरोध को उजागर करती है, जहाँ दलित कार्यकर्त्ता, दलित साहित्यकार बातें तो स्त्री मुक्ति की करते हैं। अपने भाषणों एवं लेखन में स्त्री-पुरुष समानता की बात करते हैं लेकिन अपने परिवार में उनकी पुरुषवादी मानसिकता हावी रहती है। इस तरह कहानी समाज की उन्नति के लिए स्त्री-पुरुष सहभागिता पर जोर देती है।

दलित स्त्री का शारीरिक शोषण जमींदारों, मिल कारखानों के मालिकों द्वारा होता रहा है। लेकिन बाबा साहब के विचारों से प्रेरित दलित स्त्री शोषण का प्रतिकार करने लगी है। जयप्रकाश कर्दम की ‘सांग’ कहानी में चंपा का बीमार पति भुल्लन मुखिया के खेत पर काम कर पाने की स्थिति में नहीं है| थोडा मन बहलाने के लिये वह सांग का खेल देखने चला जाता है| इस पर मुखिया नाराज हो जाता है और बेरहमी से भुल्लन को पीट-पीटकर मार देता है। पति के मरने के कुछ वर्ष बाद गाँव में फिर से सांग खेला जाता है| शीला के जिद करने और अपने पति की हत्या एवं शोषण के खिलाफ़ प्रतिक्रिया व्यक्त करने चंपा सांग देखने जाती है। इस पर मुखिया चंपा को गाली-गलौच देता हुआ उसे मारने के लिए हाथ उठाता है तो चंपा अपने हाथ में पकड़े गंडासे से मुखिया के सिर के दो टुकड़े कर देती है। यह कहानी हिंसा को प्रेरित नहीं करती है, बल्कि इस वर्णवादी एवं पुरुषवादी व्यवस्था का प्रतिकार करती हैं। दलित स्त्री की हत्या और बलात्कार जैसी घटनाएँ आज भी हर-रोज बेलगाम घटित हो रही है। इसी तरह गौरीशंकर नागदंश की ‘जंगल की आग’ कहानी में विधायक फुलतोड़ती देवी बसमतिया का बलात्कार कर रहे मंत्री जगनलाल की हत्या कर देती है। उसे जेल हो जाती है, वह एक वाक्य बार-बार दुहराती है- “मैंने जंगल में आग लगा दी, मैंने जंगल में…।”16 यानी फुलतोड़ती देवी ने स्त्री वर्ग में शोषणकारी व्यवस्था के खिलाफ़ प्रतिरोध, आक्रोश एवं संघर्ष की आग लगा दी है। उसके स्वर में आक्रोश एवं प्रतिक्रिया के जज्बात विद्यमान है।

इसी क्रम में हुबलाल राम अकेला की कहानी ‘किसके हो तुम’ समाज में दहेज़ समस्या को रेखांकित करती है। कहानी में सरिता यमराज से कहती है- “महामहिम हमारे देश में कुछ लड़कियों की शादी उनकी मर्ज़ी के मुताबिक नहीं होती हैं।…हमारे देश में नौकरी पाने के लिए नौजवान लाखों रुपये रिश्वत में देते हैं बदले में आठ-दस घंटे प्रतिदिन काम कर चार-पांच अंकों में तनख्वाह पाते हैं। परन्तु एक दुल्हन लाखों रूपये दहेज़ लेकर आने के बावजूद ससुराल की ऐसी अवैतनिक लौंडी बना दी जाती है। जिसका शारीरिक और मानसिक शोषण जीवनपर्यंत होता रहता है।”17 यह कहानी देश की भ्रष्टाचारी व पुरुषसत्ता पर सवाल खड़ा करती है। इस तरह दलित कहानी शोषणकारी व्यवस्था का पर्दाफाश करती हुई उसके प्रति आक्रोश एवं चेतना के स्वर को रेखांकित करती है।

दलित कहानी बाबा साहब के अंतर्जातीय विवाह संबंधी विचारधारा को सामने लाती है। बाबा साहब डॉ.अम्बेडकर जातिप्रथा के खात्मे के लिए अंतर्जातीय विवाह पर जोर देते हुए कहते हैं- “मुझे भरोसा है कि अंतर्जातीय विवाह ही इसका वास्तविक उपचार है। रक्त के एकीकरण से ही आपसी भाईचारे की भावना पैदा की जा सकती है और जब तक यह बंधुत्व की भावना नहीं होगी, संबंधी होने, जुड़े होने की भावना सर्वोपरि नहीं होगी, जाति द्वारा पैदा की गयी अलगाव की भावना, भिन्न होने की भावना समाप्त नहीं होगी। …जातिप्रथा समाप्त करने के लिए वास्तविक उपचार अंतर्जातीय विवाह है। जातिप्रथा के निर्मूलन के रूप में कोई अन्य व्यवस्था कारगर नहीं हो पायेगी।”18 बाबा साहब का मानना था कि कानूनी तौर पर समानता तो मिल चुकी है, लेकिन समाज में जातिगत भेदभाव बना हुआ है, इसलिए वे सामाजिक स्तर पर समानता लाने के लिए रोटी-बेटी के संबंध बनाने पर जोर देते हैं। इसी संदर्भ में राज वाल्मीकि की ‘इस समय में’ कहानी इसी विचारधारा पर आधारित है। कहानी में मिली अपनी पिताजी से कहती है- “पापा आज हम सब एक साथ मिलकर शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं। पढ़-लिखकर जागरूक बनेंगे, अच्छा कैरियर बनायेगें, इंटर कास्ट मैरिज करेंगे तो धीरे-धीरे जाति का फैक्टर डिमोलिश हो जायेगा। पति कहेगा, मैं बच्चों के साथ अपना टाइटल लगाऊंगा और पत्नी कहेगी मैं अपना टाइटल लगाऊँगी। अंत में निर्णय लिया जायेगा कि किसी का टाइटल न लगाया जाए। इस तरह जाति का विनाश हो जायेगा।”19 कहानी बाबा साहब की वैचारिकता को दर्शाती है, साथ ही लोगों को अंतर्जातीय विवाह के लिए प्रेरित करती है। इस कहानी में शिक्षित नई पीढ़ी का अंतर्जातीय विवाह के प्रति रुझान को दर्शाया गया है। इसी संदर्भ में ओमप्रकाश वाल्मीकि की ‘मैं ब्राह्मण नहीं हूँ’ कहानी सुनीता के माध्यम से बाबा साहब के विचारों को प्रतिष्ठापित करती है। कहानी में जब गुलजारी लाल शर्मा मोहनलाल मिरासी के बेटे अमित के साथ अपनी बेटी सुनीता की शादी तय करता है, लेकिन जब गुलजारी लाल को मोहनलाल की मिरासी जाति होने का पता चलता है तो वह अपनी बेटी की अमित के साथ शादी करने से मना कर देता है। लेकिन सुनीता इसका प्रतिकार करती है- “पापा …आप बने रहिये श्रेष्ठ …ब्राह्मण …मिरासी से ऊँचे। लेकिन मैंने कभी भी अपने आपको ब्राह्मण नहीं माना …यह सच्चाई है। न मैंने ‘शर्मा’ होने की आड़ में कभी ब्राह्मण बनने की कोशिश की। मेरे लिए ब्राह्मण होना ही इंसान की श्रेष्ठता का प्रतीक नहीं है। यह एक भ्रम है जिसमें सभी ऊँच-नीच का खेल खेल रहे हैं। आप जितना मातम मनाएं …मैं शादी अमित से ही करुँगी। उसके पुरखों का मिरासी होना मेरे लिए कोई मायने नहीं रखता …।”20 कहानी शिक्षित दलित-गैर दलित युवकों-युवतियों में अंतर्जातीय विवाह के प्रति बढ़ते रुझान की ओर संकेत करती है। जाति को लेकर शिक्षित गैर-दलित वर्ग की भी सोच बदलने लगी है। इसी तरह राज वाल्मीकि की ‘खुशबू अचानक’ कहानी अंतर्जातीय विवाह के प्रति नई पीढ़ी के दृढ़ संकल्प को रेखांकित करती है। कहानी का पात्र रोहित दलित और मोहिनी राजपूत समाज से है, दोनों एक-दूसरे को प्रेम करते हैं और तमाम बाधाओं का अनुमान होते हुए भी शादी करने का दृढ़ संकल्प करते हैं। रोहित मोहनी को खाप पंचायत एवं उसके कट्टर परम्परावादी राजपूत पिता की अडचनों के बारे में ध्यान दिलाता है, लेकिन मोहिनी बिना डरे व्यवस्था के ख़िलाफ़ लड़ने के लिए पहल करती है। कहानी अंतर्जातीय विवाह की पहल के लिए युवाओं को प्रेरित करती है और जाति व धर्म के बंधन को तोड़कर स्वतंत्र जीवन जीने के लिए प्रेरणा देती है।

लेकिन अंतर्जातीय विवाह को सामाजिक रूप से स्वीकृति नहीं मिली है। सवर्णों की नज़र में अंतर्जातीय विवाह का मतलब दलितों के साथ वैवाहिक संबंध बनाने से नहीं, बल्कि सवर्णों के बीच के वैवाहिक संबंध से है। जयप्रकाश कर्दम की ‘नो बार’ कहानी इसी ओर संकेत करती है। कहानी में अनीता के पिता को राजेश के दलित होने का अहसास होता है तो वह अपनी बेटी से उसकी जाति के बारे में पूछता है। इस पर अनिता जाति के औचित्य को दरकिनार करती है, लेकिन अनीता का पिता अपनी बात कहता है- “वह सब तो ठीक है कि हम जाति-पांति को नहीं मानते और हमने मैट्रोमोनियल में ‘नो बार’ छपवाया था। लेकिन फिर भी कुछ चीजे तो देखनी होती है। आखिर ‘नो बार’ का यह मतलब तो नहीं कि किसी चमार-चूहड़े के साथ …।”21 कहानी सैध्दांतिक एवं व्यावहारिक जीवन में अंतर का पर्दाफाश करती है। सवर्णवादी समाज के लिए अंतर्जातीय विवाह का संबंध ब्राह्मण-वैश्य-क्षत्रिय समाज से है, न कि दलितों के साथ। सवर्ण समाज अंतर्जातीय विवाह दलित समाज के साथ करना ही नहीं चाहता है। इसी तरह सूरजपाल चौहान की ‘हैरी कब आएगा?’ कहानी इसी यथार्थ को उजागर करती है। कहानी का पात्र हैरी मोनिका पर मुग्ध होकर उससे शादी करने का फैसला करता है। यहाँ तक इस संबंध में वह अपने माँ-बाप से भी बात कर लेता है। लेकिन जैसे ही हैरी को मोनिका के दलित जाति से होने का पता चलता है तो वह मोनिका से शादी करने का निर्णय बदल लेता है और मोनिका से मुंह मोड़ लेता है। यहाँ तो जातिप्रथा के चलते परस्पर प्यार और स्नेह का अर्थ ही बदल जाता हैं।

आज प्रेम विवाह के चलते अंतर्जातीय विवाह में बढ़ोतरी तो हुई है, लेकिन सामाजिक तौर पर अनुमति नहीं मिल पा रही है। इसमें समाज काफी अड़चने पैदा करता है, क्योंकि हमारा समाज पूर्वाग्रह से ग्रसित है और रुढिगत परम्पराओं में बंधा हुआ है, जिसके चलते प्रेम विवाह को ख़ारिज करता है। उनकी नज़र में प्रेम विवाह समाज के लिए अभिशाप जैसा कार्य है। यहाँ तक की समाज के परम्परावादी लोग अमानवीयता की हद पार करते हुए अंतर्जातीय विवाह करने वाले प्रेमी युगल को मौत के घाट उतार देते हैं। इस संदर्भ में भागीरथ मेघवाल की ‘सूरज की चिता’ कहानी अंतर्जातीय विवाह के प्रति सवर्णवादी समाज की अमानवीय मानसिकता को दर्शाती है। कहानी की नायिका चंदा गाँव के जमींदार ठाकुर की बेटी है, जो अपने गाँव के दलित युवक के साथ शहर भागकर पति-पत्नी के रूप में रहने लगती है। लेकिन चंदा के भाई द्वारा दोनों को धोखे से गाँव बुलाया जाता है और सरेआम सूरज को जिन्दा जला दिया जाता है।

अंतर्जातीय विवाह में जाति एक दीवार के रूप में खड़ी है। जाति-व्यवस्था को बनाए रखने में धर्म एवं शास्त्रों की अहम भूमिका रही हैं, क्योंकि हिन्दू समाज जाति को धर्म से जोड़कर देखता है। इस संदर्भ में बाबा साहब लिखते हैं- “अंतर्जातीय भोज एवं विवाह उन आस्थाओं और सिध्दांतों के प्रतिकूल हैं जिन्हें हिन्दू पवित्र मानते हैं। जातिप्रथा ईंट की दीवार या कांटेदार तारों की पंक्ति जैसी भौतिक वस्तु नहीं है जो हिन्दुओं को आपस में रोक रही हो, इसलिए उसे गिराना ही होगा।”22 इसलिए बाबा साहब अंतर्जातीय विवाह के लिए समाज को शास्त्रों एवं धर्म के आतंक से मुक्त कराने की बात करते हैं- “अंतर्जातीय विवाह और भोज कृत्रिम तरीके से जबरदस्ती घुट्टी पिलाने की तरह है। प्रत्येक स्त्री व पुरुष को शास्त्रों की गुलामी से मुक्त करना होगा। लोगों के मस्तिष्क को शास्त्रों पर आधारित घातक धारणाओं से स्वतंत्र करना होगा। तब ये सभी स्त्री-पुरुष आपके बताये बिना ही अंतर्जातीय भोज व विवाह करेंगे।”23 यही वजह है कि समाज धर्म एवं शास्त्रों के आतंक से मुक्त नहीं है और वह जाति-व्यवस्था में जकडा हुआ है, क्योंकि समाज में धर्म की पवित्रता के नष्ट होने से अनिष्ट की आशंका डर समाया हुआ है। इसलिए सबसे पहले इस डर को निकालना होगा, वरना जातिप्रथा के खात्मे के लिए अंतर्जातीय भोज एवं विवाह का अभियान सफल नहीं हो पायेगा। यही कारण है कि सैध्दांतिक जीवन में समानता की बात करने वाला सवर्ण समाज व्यावहारिक जीवन में जातिप्रथा से मुक्त नहीं हो पाया है। इसके लिए समाज को धर्म एवं शास्त्रों की घातक धारणाओं से निजात दिलानी होगी। अंतर्जातीय विवाह को लेकर लिखी गई दलित कहानी बाबा साहब डॉ.अम्बेडकर के विचारों को सही ढंग से व्याख्यित करती है, साथ ही अंतर्जातीय विवाह के संबंध में समाज की सोच को बारीकी से सामने रखती है।

दलित कहानी दलित आंदोलन की प्रमुख चुनौतियों से टकराती है। दलित आंदोलन में बड़ी चुनौतियां दलित समाज में आपसी अंतर्विरोध, उपजातियों में विभाजन, रूढ़ियों एवं आडम्बरों और शिक्षित दलित वर्ग में व्याप्त ब्राह्मणवादी मानसिकता, जातीय हीनताबोध एवं समाज के प्रति उनकी उदासीनता आदि हैं। ये समस्याएँ दलित आन्दोलन को कमजोर बना रही हैं। दलित आन्दोलन को आगे बढ़ाने के लिए इन चुनौतियों से निपटना अत्यंत आवश्यक है। दलित समाज भी उपजातियों में बंटा हुआ है। उनमें आपसी अंतर्विरोध बार-बार उभरकर सामने आता है । बाबा साहब ने ‘संगठित रहने’ पर जोर दिया था ताकी एकजुट होकर इस शोषणकारी वर्ण-व्यवस्था का खात्मा किया जा सके। दलित कहानी उनके बीच आपसी अन्तर्विरोधों से अवगत कराती हुई बाबा साहब के विचारों के मद्देनजर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त करती है। जयप्रकाश कर्दम की ‘गोष्ठी’ कहानी बुद्धिजीवी दलित लेखकों के आपसी अन्तर्विरोध का पर्दाफाश करती है। कहानी भंगी और चमार जाति के लेखकों में जातीय-भेदभाव को दर्शाती है- “डॉ.समिपी ने बेझिझक कहा, “वह भंगी लगता है। देखो न अपने प्रत्येक लेख में वह ओमप्रकाश वाल्मीकि का उल्लेख जरुर करता है और वाल्मीकि को ही समस्त दलित लेखकों में सबसे ऊपर रखता है।”24 कहानी में दलित लेखक डॉ.समीपी का यह वाक्य उसकी संकीर्ण सोच को दर्शाता है। कुमार आदित्य डॉ.समीपी की इस संकीर्ण सोच पर अफ़सोस व्यक्त करता है- “कुमार आदित्य, डॉ.सुमन समीपी को, बौद्ध और अम्बेडकरवादी आन्दोलन से जुड़ा होने के कारण समन्वयवादी व्यक्ति समझते थे। डॉ.समीपी के मुख से इस तरह की संकीर्णतापूर्ण बातें सुनकर उनको धक्का सा लगा और वह सोचने को विवश हुए कि यह कैसा अम्बेडकरवाद है? बाबा साहब अम्बेडकर ने जीवन-भर जाति का विरोध किया और जाति-विहीन समाज के निर्माण के लिए संघर्षरत रहे। फिर कैसे उनका कोई अनुयायी जाति-संकीर्णता की बात कर सकता है?”25 इस तरह के दलितों में व्याप्त उपजातिगत भेदभाव जाति एवं वर्ण व्यवस्था के खिलाफ आंदोलन के लिए चिंता का विषय बना हुआ है। समानता, समता, बंधुत्व की बातें करने वाले दलित बौद्धिक वर्ग व्यवहार में उपजातिगत भेदभाव से ग्रसित हैं। दलित आंदोलन का उद्देश्य भेदभाव रहित, समानता पर आधारित समाज की स्थापना करना है। इसके लिए दलितों को उपजातिगत भेदभाव त्यागकर संगठित संघर्ष करना होगा। इस संदर्भ में कुमार आदित्य के माध्यम से जयप्रकाश कर्दम कहानी में दर्शाते हैं- “सबसे पहले हम भंगी और चमार, सभी पढ़े-लिखे और समझदार लोगों को यह समझाने का प्रयास करेंगे कि हमारी आर्थिक दुर्दशा और सामाजिक पिछड़ेपन का कारण हमारी जाति हैं। हमें जाति व्यवस्था का विरोध करना चाहिए। हमारी उन्नति और विकास जाति-व्यवस्था के नाश पर टिका हुआ है। हमें जातिवाद से ऊपर उठना चाहिए और इसके लिए हमें चाहिए कि हम अपने अन्दर से जाति-भेद की दूरी को मिटायें।…हम लोगों को बताए कि वे आपस में रोटी-बेटी के संबंध बनायें। रक्त संबंध बनाने से अपने आप नजदीकियां आ जाएगी।”26 कहानी डॉ. अम्बेडकर के रोटी-बेटी के संबंध की वैचारिकी के माध्यम से दलितों को जाति-वर्ण व्यवस्था के नाश के लिए संगठित संघर्ष के लिए आह्वान करती है। आवश्यक कि सबसे पहले दलित समाज में व्याप्त उपजातिगत भेदभाव को ख़त्म करें। शिक्षित वर्ग को प्रेम विवाह के माध्यम से उपजातिगत भेदभाव को खत्म करने की ओर कदम उठाने चाहिए।

इसी क्रम में ओमप्रकाश वाल्मीकि ‘शवयात्रा’ कहानी दलितों में भंगी और चमार जाति के आपसी अंतर्विरोधों को सामने लाती हैं। कहानी में सुरजा बल्हार शहर से पैसा कमाकर लाता है और वह पक्का मकान बनाना चाहता है। लेकिन चमारों द्वारा उसका पक्का मकान नहीं बनने दिया जाता है। चमारों की निष्ठुरता का दूसरा उदाहरण सुरजा की दस वर्षीय पोती, कल्लन की बेटी सलोनी की डॉक्टर द्वारा न देखने के कारण मृत्यु हो जाती है और बीमार पोती के इलाज में अपेक्षित मदद नहीं मिलती है। यहाँ तक उस बच्ची के दाह-संस्कार के लिए चमार अपने श्मशान घाट के प्रयोग की अनुमति नहीं देते हैं। चमारों का भंगी समाज के प्रति संवेदनशून्य होना दलित समाज की सामूहिक दुर्बलता की ओर संकेत करता है। दलितों में व्याप्त उपजातियां दलितों में सामूहिकता की भावना को पनपने नहीं दे रही हैं। यह कहानी दलितों में व्याप्त कोरे अम्बेडकरवाद का भी फर्दाफाश करती है। यह कहानी दलितों को गंभीरता से विचार करने पर विवश करती है, अन्यथा उनकी शक्ति विघटित रहेगी और वे मुक्ति की चाह को मूर्त रूप नहीं दे सकेंगे। इस संदर्भ में डॉ.पूरणसिंह की ‘अंतर्कलह’ कहानी भी दलित समाज में व्याप्त भेदभाव को उजागर करती है। इसमें जाटव और वाल्मीकि समाज में आपसी मतभेद को दर्शाया गया है। दलितों में आपसी अन्तर्विरोध ब्राह्मणवाद, जातिवाद के खिलाफ उनकी लड़ाई को कमजोर बना रहा है।

लेकिन ये सोचनीय है कि दलितों में भी यह उप-जातिगत भेदभाव आख़िर पनपा कैसे? इसे समझना होगा कि दलितों में भी उपजातियां क्यों और कैसे पनपी? इसकी तह में जाने पर हम जानेगें कि समाज में वर्ण-जाति सवर्णों ने बनाये, उन्होंने ही दलितों को भी उपजातियों में बाँट दिया, ताकी दलित इस जाति-वर्णव्यवस्था के खिलाफ़ संगठित न हो पाए। इस संदर्भ में महात्मा ज्योतिबा फुले ‘गुलामगिरी’ में लिखते हैं- “जब से ब्राह्मणों ने शूद्रादि-अतिशूद्रों में जातिभेद की भावना को पैदा किया, बढ़ावा दिया, तब से उन सभी के मन-मस्तिष्क आपस में उलझ गए और घृणा से अलग-अलग हो गए। ब्राह्मण-पुरोहित अपने षडयंत्र में कामयाब हुए। उनको अपना मनचाहे व्यवहार करने की पूरी स्वतंत्रता मिल गयी। इस बारे में एक कहावत प्रसिद्ध है कि ‘दोनों का झगड़ा और तीसरे का लाभ’। मतलब यह कि ब्राह्मण-पंडा-पुरोहित ने शूद्रादि-अतिशूद्रों के आपस में नफरत के बीज जहर की तरह बो दिए और खुद उन सभी की मेहनत पर ऐशों-आराम कर रहे हैं।”27 इस संदर्भ में डॉ.सुरेश मारुतिराव मुले की ‘गुरु देवो भव’ कहानी सवर्णों की साजिशों का पर्दाफाश करती है। कहानी में ब्राह्मण शिक्षक दलित शिक्षकों में फूट डालने के फ़िराक में लगे रहते हैं। गणित का प्राध्यापक एक दलित शिक्षक पर कॉलेज की प्राध्यापिका के सामने टिप्पणी करता है, तो वह उसकी ब्राह्मणवादी मानसिकता पर प्रहार करती है- “वह अगर अब्राहम लिंकन है तो तुम क्या हिटलर हो? हम जो एकता से रहते हैं सो सुहाता नहीं? तुम लोग युगों-युगों से दलितों में फूट डालते आए हो और आज आधुनिक युग में भी ऐसा काम करते हुए तुम्हें शर्म नहीं आती? जब शिक्षित दलितों का ही तुम लोग आज तक शोषण कर रहे हो। तो क्या हमारे अशिक्षित और कमजोर मासूम दलितों को जीने दोगे? होशियार? आइन्दा ऐसी बाते होगी तो मुंह की खानी पड़ेगी।”28 कहानी सवर्णों की दलितों में फूट डालने की साजिश को बेनकाब करती है और उनकी असलियत का पर्दाफाश करती है। साथ ही दलितों को संगठित संघर्ष के लिये प्रेरित भी करती है|

दलितों में आपसी अंतर्विरोध एवं भेदभाव के अतिरिक्त कतिपय शिक्षित दलित युवकों में पनप रहे ब्राह्मणवाद एवं जाति को लेकर हीनताबोध और समाज के प्रति उदासीनता दलित आन्दोलन की नींव को कमजोर कर रही है। शिक्षित दलित युवक अच्छे ओहदों पर पहुंचकर अपनी ही समाज को हेय की दृष्टि से देखते हैं। वे समाज में अपना स्टेटस बनाए रखने के लिए अपनी जाति को छिपाते हैं, इसके चलते वे अपनी बिरादरी से नाता तोड़कर अपनी जाति छिपाकर ब्राह्मणवादी जीवन जी रहे हैं। वे भूल जाते हैं कि जिस जातिप्रथा एवं ब्राह्मणवाद के विरुद्ध बाबा साहब ने लड़ाई लड़ी और उनके संघर्षों के चलते आज उन्हें सम्माननीय जीवन जीने के अधिकार मिले हैं, उसी ब्राह्मणवाद और भेदभाव को ये दलित युवक बढ़ावा दे रहे हैं। दलित कहानी इस यथार्थ को सामने लाती है कि आज का शिक्षित दलित वर्ग इस ब्राह्मणवाद के कुचक्र में फंस रहा है। इस संदर्भ में डॉ.उमेश कुमार सिंह की ‘माफ़ी’ कहानी दलितों में व्याप्त ब्राह्मणवाद को दर्शाती है। ‘माफ़ी’ कहानी में दलित पात्र कप्तान रघुनाथ परवार अपने आपको अपनी बिरादरी से अलग समझता है। अपने ऊँचे पद एवं संपन्नता के चलते वह अपनी जाति-बिरादरी के प्रति उत्तरदायित्व से विमुख हो गया, यहाँ तक कि अपने ही समाज के प्रति हेय दृष्टिकोण अपनाते हुये उनका अपमानित तक करता है। जब गाँव का पीड़ित वृद्ध सखाराम परवार जब उसके यहाँ बंगले पर जाता है, तो उसे अपमानित करके बंगले से निकलवा देता है। वह गाँव का नाम सुनते ही गुस्से में आकर उस पर बरस पड़ता है- “शर्म नहीं आती है तुम्हें, बिना बात शिकायत लेकर चले आते हो। नहा धोकर नहीं आ सकते हैं। कम से कम नए कपड़े पहनकर आते। साले भंगी चमारों की तरह चले आते हैं। अपने बाप का घर समझ रखा है।”29 जिस समाज ने रघुनाथ को अच्छे पद पर पहुँचने के काबिल बनाया, आज उसी समाज के प्रति उनका नजरिया ब्राह्मणवादी हो गया है। इस तरह कहानी नौकरीपेशा दलितों में व्याप्त ब्राह्मणवादी मानसिकता को दर्शाती है।

इसी क्रम में सत्यप्रकाश ‘दलित ब्राह्मण’ कहानी में दलितों में व्याप्त ब्राह्मणवादी मानसिकता को दर्शाते हुये चिंता जाहिर करते हैं। कहानी में दलित विजय रंजन कुरील भारत सरकार का उच्चाधिकारी है, लेकिन दलितों के प्रति हेय दृष्टि रखता है तथा समाज के प्रति उत्तरदायित्व से विमुख रहता है। इससे चिंतित शिवदत साहब उसे समझाते है- “देखिये बंधु, आज मैं या आप जिस पद पर है हमें वहां पहुँचाने में समाज ने भी त्याग किया। उसका भी योगदान है इसमें। अहम भूमिका निभाई है समाज ने उसमें। हमें अपने सामाजिक दायित्वों को कदापि न भूलना चाहिए। उसके हितों की रक्षा के प्रति कटिबद्ध होना चाहिए।”30 कहानी में माहेश्वरी साहब भी उनके कोरे अम्बेडकरवाद पर सवाल खड़ा करता है। अगर शिक्षित दलित समुदाय दलित समाज का उचित प्रतिनिधित्त्व नहीं करता है तो वह भी दलितों की नज़र में शोषक ही कहलायेगा। ऐसे में ब्राह्मणवादी समाज और उनमें कोई फ़र्क नहीं रह जाता है। यह कहानी ब्राह्मणवादी शिक्षित दलित वर्ग को कठघरे में खड़ा करती है। बाबा साहब अम्बेडकर ने लम्बे संघर्ष के दौरान दलित समाज को अधिकार दिलवाए, बावजूद ये लोग उनके त्याग एवं संघर्ष को भूल जाते हैं। ये अपने ही समाज के प्रति ब्राह्मणवादी रवैया अपनाते हैं। कहानी में कतिपय दलितों में पनप रही ब्राह्मणवादी मानसिकता का यथार्थ चित्रण किया गया है। इसी तरह ओमप्रकाश वाल्मीकि की ‘अंधड़’ कहानी शिक्षित दलित वर्ग की मानसिकता को उजागर करती है, साथ ही उसमें बदलाव की और भी संकेत करती है। कहानी के नायक मिस्टर लाल वैज्ञानिक पद पर आसीन है। कई वर्षों बाद वह अपनी छोटी बच्ची पिंकी को लेकर अपने माँ-पिताजी के घर आता है, तो उसकी बच्ची पिंकी उन्हें असभ्य और गंदा कहती है। इस पर मिस्टर एस.लाल पश्चाताप करता हैं कि उसने एक झूठी जिन्दगी को सच मानकर अपने माता-पिता के योगदान को ही भूला दिया। कहानी कतिपय शिक्षित वर्ग की इस संकीर्ण मानसिकता का चित्रण कराती है, साथ मानसिक बदलाव की ओर संकेत करती है। इस तरह दलित कहानी बाबा सहाब डॉ.अम्बेडकर के लम्बे संघर्ष और त्याग के बारें में शिक्षित दलित युवकों को अवगत कराती है। दलित कहानी शिक्षित दलित समुदाय को आत्मशोध के लिए विवश करती है और संकीर्ण ब्राह्मणवादी मानसिकता के प्रति सचेत करती है, साथ ही दलित समाज की उन्नति के लिए उत्तरदायित्व की भावना के लिए प्रेरित करती है।

दलित कहानी की वैचारिक प्रतिबद्धता घृणा, हिंसा और प्रतिशोध के स्थान पर समता, करुणा, भातृत्व और प्रतिरोध पर आधारित है। ओमप्रकाश वाल्मीकि की कहानी ‘मुंबई कांड’ में यह वैचारिक प्रतिबद्धता साकार होती है। कहानी का दलित पात्र मुंबई कांड के प्रतिक्रियास्वरूप महात्मा गाँधी की मूर्ति पर जूते की माला पहनाने के लिए उठ खड़ा होता है, लेकिन ऐसा करने से पूर्व उसके कदम रुक जाते है और वह सोचता है- “अरे! मैं यह क्या कर रहा हूँ। मुंबई में किसी ने मेरे विश्वास पर चोट की और मैं यहाँ की आस्था पर चोट करने जा रहा हूँ। कुछ गांधीजी को ‘बापू’ कहते हैं और कुछ अम्बेडकर को ‘बाबा’; वहाँ ‘बाबा’ कहने वाले मारे गए, यहाँ बापू वाले मारे जा सकते हैं। ‘बाबा’ कहने वालों पर भी गाज गिर सकती है। जो भी मरे तो निर्दोष ही मारे जायेगे …नहीं …यह रास्ता न बुद्ध का है और न ही अम्बेडकर का।”31 कहानी प्रतिशोध और प्रतिरोध की बारीकियों को स्पष्ट करती है। बाबा साहब ने वर्णव्यवस्था के खात्मे के लिए मनुस्मृति दहन किया, चावदार तालाब का पानी पिया और कालाराम मंदिर में प्रवेश करने जैसे क्रांतिकारी कदम उठा़ये और दलितों में संगठित चेतना जाग्रत की। उन्होंने प्रतिक्रियास्वरूप कभी भी हिंसक कदम उठा़ने के लिए प्रेरित नहीं किया। यह कहानी बाबा साहब के इन विचारों को बारीकी से समझाती है। इसी तरह रूपनारायण सोनकर की ‘होली का बल्ला तरे तरे’ कहानी बाबा साहब की वैचारिकी को दर्शाती है। कहानी में सवर्ण समाज होली के अवसर पर दलित स्त्रियों को गाली देता है, जिसकी प्रतिक्रिया में दलित समाज भी सवर्ण स्त्रियों को गाली देता है। दोनों तरफ़ से ही औरतें ही जलील होती हैं, इस पर ब्लॉक प्रमुख बलवंत यादव फटकार लगाता है-“न कोई उच्च है और न कोई नीच है। विश्व के किसी भी देश में त्यौहारों में किसी भी औरत को गाली देने की प्रथा नहीं है।”32 इससे प्रभावित दलित समाज सोचने को विवश होता हैं और किसी भी औरत को इस तरह लज्जित न करने का संकल्प लेता है- “संगीलाल, सैद्धालाल व अन्य युवक इस प्रकार की गंभीर सामाजिक बुराईयों को दूर करने के लिए कोई ऐसा रास्ता खोज रहे थे जहाँ किसी भी औरत को इस तरह सरेआम लज्जित न होना पड़े।”33 प्रतिशोध की भावना से समस्या का समाधान सतही ही होगा और इससे समाज में द्वेष एवं घृणा का भाव फैलने लगेगा। कहानी में पुरुषवादी मानसिकता को भी दर्शाया गया है। भारतीय समाज खासकर हिन्दुओं में औरतों के नाम पर गाली-गलौच किया जाता रहा है, चाहे औरत किसी भी समाज की हो। औरतें सदियों से पुरुषवादी मानसिकता की शिकार रही है। उनका सदियों से शोषण होता रहा है। किसी भी सामाजिक व्यवस्था में परिवर्तन हिंसा तथा प्रतिशोध से नहीं किया जा सकता, इससे समस्या को जड़ से खत्म नहीं कर सकते। हमारे सामने देश विभाजन के समय हिन्दू–मुस्लिम दंगों का इतिहास गवाह है कि इस प्रतिशोध की आग में ना जाने कितनी बेगुनाह हिन्दू–मुस्लिम औरतों की अस्मिता तार-तार हुई और कितने ही मासूम बच्चे और औरतें अपनों से दूर बिछुड़ गये। इस प्रतिशोध की आग में त्रासदी के अलावा कुछ प्राप्त नहीं हुआ। इसलिए बाबा साहब व्यक्ति की बजाय व्यवस्था के विरुध्द प्रतिरोध करने पर जोर देते हैं। उनका मानना हैं कि ‘असली दुश्मन ये भेदभाव आधारित धर्म-शास्त्र है और समाज इनके बंधन में बंधा हुआ है’।

प्रतिशोध की भावना से लिखी गयी दलित कहानी को दलित साहित्य के दायरे अंतर्गत नहीं रखा जा सकता है। इसी संदर्भ में रत्नकुमार सांभरिया की ‘शर्त’ कहानी है, जिसमें दलित पानाराम की बेटी के साथ गावं के मुखिया जसवीर का बेटा बलात्कार करता है। मुखिया जसवीर पानाराम से इस घटना पर दुःख व्यक्त करता है और पानाराम की कुछ भी शर्त मानने के लिए तैयार होता है। तो पनाराम मुखिया के सामने शर्त रखता है- “मुखिया साब, इज्जत का सवाल है यह। आपकी इज्जत सो मेरी इज्जत। आपकी लड़की मेरे लड़के के साथ रात रहेगी।”34 कहानी में पानाराम बेहूदी शर्त रखता है कि लड़की की बेआबरू का बदला मुखिया की लड़की को बेआबरू करना। पानाराम और जसबीर दोनों की बेटी बेकसूर हैं, लेकिन इस प्रतिशोध की आग में वह मुखिया जसबीर की बेटी को बेआबरू करवाने की शर्त रखता है। इस तरह की कहानी को दलित कहानी के दायरे के अंतर्गत नहीं रखा जा सकता। इस तरह का साहित्य दलित आंदोलन एवं बाबा साहब के आदर्श समाज के लिए मददगार साबित नहीं हो सकता है। दलित कहानी डॉ.अम्बेडकर व महात्मा फुले की वैचारिकी को लेकर आगे बढ़ती है और उनकी वैचारिकी में घृणा व प्रतिशोध का भाव कहीं नहीं आता है।

भारतीय मार्क्सवादी दलितों की समस्या को आर्थिक दृष्टि के मद्देनज़र देखते हैं। वे अन्य सुधारों की तुलना में आर्थिक सुधारों को प्राथमिकता देते हैं, जबकि दलितों की मूल समस्या जाति की समस्या है। इस विषय पर बाबा साहब लिखते हैं- “जाति एक ऐसा राक्षस है जो आपका रास्ता काटेगा। जब तक आप इस राक्षस को नहीं मारते तब तक आप न तो कोई राजनीतिक सुधार कर सकते हैं और न ही आर्थिक सुधार कर सकते है।”35 यानी जाति-व्यवस्था एवं वर्णव्यवस्था का खात्मा किये बगैर सुधार लाना संभव नहीं है। मार्क्सवादी मानते हैं कि जाति-वर्णव्यवस्था की समस्या श्रम के विभाजन से जुड़ी हुयी है| लेकिन जातिव्यवस्था के चलते श्रम विभाजन ही नहीं, श्रमिकों का भी विभाजन होता है। लाल झंडे वाले मार्क्सवादी संगठन व्यवस्था में परिवर्तन की बात करते हैं, बगैर इस वर्णव्यवस्था का खात्मा किये। इस विषय पर बाबा साहब लिखते हैं- “आर्थिक क्रांति के लिए श्रमिकों में उत्साह भरने के लिए कार्ल मार्क्स ने उनसे कहा,‘आपके पास बेड़ियों के अलावा खोने के लिए कुछ नहीं है।’ लेकिन जातिप्रथा के विरुद्ध हिन्दुओं को जगाने के लिए कार्ल मार्क्स का यह नारा बिलकुल बेकार है। क्योंकि हिन्दुओं के बीच सामाजिक एवं आर्थिक अधिकार बड़ी सुन्दरता से बंटे हुए है। कुछ जातियों के पास कम और कुछ के पास अधिक है।”37 सही मायने में हिन्दुत्ववादी भारतीय समाज में मार्क्सवादी विचारधारा जातिगत-भेदभाव को खत्म करने में कामयाब नहीं दिखायी पड़ती है| दूसरी सबसे बड़ी समस्या यह है कि भारतीय मार्क्सवादी अपने पूर्वाग्रह से ग्रसित है| यानी मार्क्सवाद के नाम पर छलावा भी कर रहे है| अपने आप को प्रगितशील मानने वाले भीतर से ब्राह्मणवादी मानसिकता में जकड़े हुये है| इसी सन्दर्भ में ओमप्रकाश वाल्मीकि ‘प्रमोशन’ कहानी में मार्क्सवादियों के दोहरे चरित्र का पर्दाफ़ाश करते हैं। कहानी में दलित पात्र सुरेश की स्वीपर पद से कामगार के पद पर पदोन्नति होती है, इससे खुश सुरेश अपनी पत्नी से कहता है ‘अब हम भंगी नहीं रहे, मजदूर हो गये है और मजदूर-मजदूर भाई-भाई होते हैं।’ मजदूर बनने के बाद वह ‘लाल झंडा यूनियन’ का सदस्य बन जाता है, लेकिन मजदूर-यूनियन के सदस्य सुरेश के साथ जातिगत भेदभाव करते हैं। यानी ये मार्क्सवादी संगठन मजदूरों, किसानों के हित की बात तो करते हैं, लेकिन ये व्यवहार में हिंदुत्व के रक्षक बने बैठे हैं। जब सुरेश की ड्यूटी केमिकल प्लांट में मजदूरों को दूध वितरण करने में लगती है तो उसके साथी मजदूर इसका विरोध करते हैं। उसका साथी मजदूर अब्दुल कादिर कहता है- “साहब आपको पता नहीं …सुरेश स्वीपर है …उसके हाथ की कोई चीज कैसे खा पी सकता है।”38 इस तरह सुरेश मजदूर बनकर भी स्वीपर ही रहता है। मार्क्स के सिद्धांत पर ‘मजदूर-मजदूर भाई- भाई’ के नारे देने वाले मार्क्सवादी संगठन एवं पार्टियाँ दलित मजदूरों का वही स्थान रखते हैं, जो बाह्मणवादी समाज में निश्चित है। यह कहानी भारतीय मार्क्सवाद के असली चेहरे का पर्दाफाश करती है, जो विचारधारा के स्तर पर समाजवाद की बात करता है, लेकिन व्यवहार में वर्ण-व्यवस्था के पोषक बने हुए हैं। जब तक मार्क्सवादी जाति एवं वर्णव्यवस्था को प्रमुख मुद्दे के रूप में नहीं उठायेंगे, तब तक वे दलितों के हितेषी नहीं बन सकते हैं।

इसी क्रम में डॉ.जयप्रकाश कर्दम की ‘कामरेड का घर’ कहानी भारत में मार्क्सवादियों के दोहरे चरित्र का पर्दाफाश करती है। कहानी में कॉमरेड अभय तिवारी मार्क्सवाद का चोला ओढ़े हिंदुत्व को संरक्षण देता है, तो उसका साथी असलम उसके इस दोगलेपन का प्रतिकार करता है- “मेरे यहाँ रुकने का अब कोई औचित्य नहीं है। मैं तो यह मानकर चल रहा था कि आप लोग सच में प्रगतिशील है और परिवर्तन के अपने संकल्प के प्रति ईमानदार है। इसलिए मैं आप लोगों के साथ जुड़ा था। लेकिन आप लोग तो अन्दर से हिन्दू धार्मिकवाद में पूरी तरह से जकड़े हुए है और उसकी रक्षा कर रहे हैं। ऐसे आपसे कोई उम्मीद करना बेमानी है। आपके सिद्धांत और व्यवहार के दोगलेपन ने मुझे निराश किया है। मैं इस दोगलेपन के साथ नहीं रह सकता।”36 कहानी मार्क्सवादियों के छद्म वेश की पोल खोलती है और उनके अन्दर व्याप्त ब्राह्मणवादी मानसिकता को बेनकाब करती है। भारतीय मार्क्सवादी व्यवहारिक जीवन में पहले हिन्दू है और बाद में मार्क्सवादी। वे अपने व्यवहारिक जीवन में जाति-व्यवस्था, वर्णव्यवस्था को अपनाते हैं और सिध्दांतों में मार्क्सवाद की बात करते हैं। इस तरह ये मार्क्सवाद और ब्राह्मणवाद दोनों को एक साथ लेकर चलते हैं।

दलितों का शोषण धर्म एवं शास्त्रों की आड़ में होता रहा है। शोषणकारी धर्म एवं शास्त्रों की पवित्रता एवं श्रेष्ठता के चलते सदियों से दलितों का शोषण होता रहा है। डॉ.भीमराव अम्बेडकर ने इस वर्णव्यवस्था के खात्मे के लिए शास्त्रों, वेदों, उपनिषदों व ईश्वर का नकार किया। बाबा साहब धर्म एवं शास्त्रों की पवित्रता एवं श्रेष्ठता के भ्रम को तोड़ते हैं और दलितों को आह्वान करते हुए लिखते हैं- “आपको तर्क न मानने वाले और नैतिकता को नकारने वाले वेदों व शास्त्रों को बारूद से उड़ा देना होगा। श्रुति एवं स्मृति के धर्म को खत्म करना होगा। इसके अलावा और कुछ करना लाभदायक नहीं होगा। इस मामले में मेरा यही मत है।”39 बाबा साहब जाति व्यवस्था का असली शत्रु शास्त्रों को मानते हैं। इस संदर्भ में वे लिखते हैं- “हिन्दू इसलिए जातिप्रथा का पालन नहीं करते क्योंकि वे अमानुषिक हैं या असंतुलित मस्तिष्क के हैं। वे जातिप्रथा को मानते हैं, क्योंकि वे धर्म को गंभीरता से लेते हैं। जातिप्रथा का पालन करने वाले लोग गलत नहीं है । मेरी राय में जाति की धारणा से धर्म को जोड़ना गलत है। यदि यह ठीक है तो जिस असली शत्रु से हमें जूझना है वे शास्त्र हैं जो जाति का धर्म सिखाते हैं, न कि वो लोग जो जातिप्रथा का पालन करते हैं।…शास्त्रों की पवित्रता में लोगों के विश्वास को ख़त्म करना वास्तविक उपचार है। …शास्त्रों की सत्ता को चुनौती न देकर, लोगों को उनकी पवित्रता व स्वीकृति में विश्वास देने की अनुमति देकर, उनकी आलोचना करना उनको कर्मों के लिए अमानुषिक व विवेकहीन कहकर कोसना, सामाजिक सुधार का बड़ा बेतुका तरीका है।”40 दलित कहानी इस वर्णव्यवस्था के खात्मे के लिए शोषणकारी हिंदू धर्मशास्त्रों का नकार करती है। ओमप्रकाश वाल्मीकि की ‘सपना’ कहानी बाबा साहब की इसी वैचारिकी को दर्शाती है। कहानी में दलित पात्र गौतम मंदिर के निर्माण में दिन-रात मेहनत करता है और जब मंदिर में पूजा अनुष्ठान होता है, तो उसे मंदिर के बाहर बैठने को कहा जाता है। गौतम जब इसका विरोध करता, तो नटराजन शास्त्रों की पवित्रता एवं सामाजिक नियमों के हवाला देते हुये कहता है कि गौतम दलित है, इसलिए इसे पूजा-अनुष्ठानों में नहीं बैठाया जा सकता है। कहानी शास्त्रों की पवित्रता एवं सामाजिक नियमों के आड़ में हो रहे भेदभाव का पर्दाफाश करती है। कहानी का सवर्ण पात्र ऋषिराज शास्त्रों एवं नियमों की पवित्रता एवं श्रेष्ठता को तोड़ता है। गौतम भी इन अनुष्ठानों का बहिष्कार करता है- “चलो ,भाई हम लोग घर चलते है। ऐसे अनुष्ठानों में बैठकर क्या होगा, जहाँ आदमी को आदमी की तरह न समझा जाए।”41 कहानी में ऋषि नामक पात्र गौतम को परिस्थिति से लड़ने के लिए प्रेरित करता है। ‘सपना’ कहानी वर्णव्यवस्था के विरुद्ध सीधी कार्यवाही के लिए प्रेरित करती है, साथ ही धर्मशास्त्रों-धार्मिक अनुष्ठानों की पवित्रता एवं श्रेष्ठता का निषेध करती है।

ऐसा नहीं है कि बाबा साहब समाज के लिए धर्म की आवश्यकता को नकारते हैं, बल्कि वो समाज के लिए लोकतांत्रिक धर्म की आवश्यकता पर जोर देते हैं- “आप अपने धर्म को अनिवार्य रूप से सैद्धांतिक आधार दें- एक ऐसा आधार जो स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व का पर्याय हो- तात्पर्य यह है कि जो आपके धर्म को लोकतांत्रिक आधार दें।”42 इस तरह वे स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व पर आधारित धर्म की वकालत करते हैं। डॉ.जयप्रकाश कर्दम ‘मंदिर’ कहानी में रंगलाल धर्म के नाम पर कर रहे अनैतिक और गैर-कानूनी कार्य कर रहे लोगों पर प्रतिक्रिया व्यक्त करता है- “मेरे बारे में आप कोई भी धारणा बना सकते हैं। आप लोग इसके लिए स्वतंत्र हैं, मैं इस पर कोई टिप्पणी नहीं करूँगा। किन्तु, यदि अनैतिक और गैर-क़ानूनी काम करना धर्म है तो अच्छा है मुझे अधार्मिक ही मानिये। धर्म यदि यह सब सिखाता है तो मैं कभी धार्मिक नहीं होना चाहूँगा। और यदि अन्याय और अनैतिकता का साथ न देना असामाजिकता है तो मैं स्वयं को असामाजिक माना जाना पसंद करूँगा।”43 इस तरह कहानी धर्म के नाम पर अनैतिकता और अन्याय का विरोध करती है। इसी संदर्भ में सत्यप्रकाश की ‘बिरादरी भोज’ कहानी में निरर्थक परम्पराओं एवं रीति-रिवाजों का प्रतिकार किया गया है। कहानी में दलित पात्र निरर्थक मृत्युभोज परम्परा का बहिष्कार करता है और पिता के मृत्युभोज पर मिले कर्ज़ से खेतों की सिचाई के लिए इंजन खरीद लाता है। इसी तरह ओमप्रकाश वाल्मीकि की ‘सलाम’ कहानी वर्षों से चली आ रही अपमानजनक सलाम प्रथा को तोड़ती है। इसी तरह डॉ.कुसुम वियोगी की ‘मुंडन’ कहानी भी धार्मिक कर्मकांडों का खंडन करती है, कहानी का पात्र दिनेश अपनी बच्ची के बाल गंगा घाट पर बैठे पाखंडी पंडों द्वारा न उतरवाकर नाई के द्वारा उतरवाता है। इस प्रकार दलित कहानी शोषण के तमाम धार्मिक-ग्रंथों, धार्मिक-अनुष्ठानों, परम्पराओं एवं रीति-रिवाजों को तोड़ती है और दलितों को परिवतर्न के लिये प्रेरित करती है।

धर्म और सम्प्रदाय के नाम पर स्वार्थी लोग समाज में दंगे-फसाद फैलाते रहे हैं। इस सन्दर्भ में बाबा साहब डॉ.भीमराव अम्बेडकर लिखते हैं- “जाति ने हालांकि एक काम किया है। इसने हिन्दू समाज को पूरी तरह से असंगठित और अनैतिक अवस्था में ला दिया है। …यह तो जातियों का समूह मात्र है। प्रत्येक जाति अपने अस्तित्व के प्रति सचेत है। इनका अस्तित्व जाति-व्यवस्था के जारी रहने का कुल परिणाम है। जातियां एक संघ भी नहीं बनाती। कोई जाति दूसरी जातियों से जुड़ने की भी भावना नहीं रखती, सिर्फ़ हिन्दू-मुस्लिम दंगे के समय ये आपस में जुडती है।”44 रूपनारायण सोनकर की ‘सद्गति’ कहानी धर्म के नाम पर स्वार्थी लोगों द्वारा फैलाये जा रहे धार्मिक-उन्मांद और भेदभाव पर कुठाराघात करती है। कहानी का पात्र मियां शब्बीर अंततः ग्लानि महसूस करता हुआ कहता है- “मैंने गुनाह किये हैं। मैं मानवता को भूल गया था। स्वार्थ, अँधा धर्म और मजहब ने मुझे बिलकुल अंधा कर दिया था। हम दोनों समुदाय के लोग भाई-भाई हैं। मैंने अपने भाइयों को मारकर बहुत बड़ा अपराध किया है। मुझे सजा मिलनी चाहिए।”45 इसी संदर्भ में डॉ.पूरण सिंह की ‘यूज एंड थ्रो’ कहानी धर्म के नाम पर दंगा फ़ैलाने वाले स्वार्थी लोगों से सचेत करती है। कहानी में दलितों एवं गरीबों को धर्म के पुजारी धर्म के नाम पर इस्तेमाल करते हैं। जैसा कि बाबा साहब ने कहा कि ‘विभिन्न जातियों में बंटे लोग हिन्दू-मुस्लिम दंगों के समय एक हो जाते हैं’। कहानी इसी तरफ इशारा करती है कि दलित श्यामलाल पर सवर्णों ने अमानवीय व्यवहार किया। फिर भी धर्म के नाम पर वह उनके जाल में फंस जाता है और उनका साथ देता है। श्यामलाल की पत्नी उन्हें इस चालाकी के प्रति सचेत करती है कि इन मुसलमानों ने तुम्हें कभी अपमानित नहीं किया फिर तुम इन धूर्त ब्राह्मणों की बातों में आकर उनकी जान के दुश्मन क्यों बने हो। लेकिन श्यामलाल चुपके से रात को इस स्वार्थी धर्म के ठेकेदारों के साथ चला जाता है और दंगे के बलि चढ़ जाता है। जब शांडिल्य साहब श्यामा को हिन्दू-मुस्लिम लड़ाई में फंसाना चाहता है, उसकी माँ उसे रोकती है और कहती है- “ये धर्म सम्प्रदाय! और झूठ तथा ढोंग के सहारे लोगों को धोखा देने वाले लोग, तुम्हें कभी चैन से नहीं सोने देंगे।”46 इस तरह कहानी धर्म एवं सम्प्रदाय के नाम पर दंगा फ़ैलाने वाले स्वार्थी लोगों का पर्दाफाश करती हुई सचेत करती हैं। ये स्वार्थी लोग धर्म के नाम पर दंगा करवाकर राजनीतिक दांवपेंच खेलते हैं और इनके चलते बेगुनाह लोग दंगों बलि चढ़ जाते हैं।

दलितों की स्थिति सुधारने के लिए डॉ.अम्बेडकर राजनीतिक ताकत को महत्वपूर्ण मानते हैं। उनका मानना था कि ‘राजनीतिक अधिकारों के जरिये दुर्बल वर्ग सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक अधिकार प्राप्त करेंगे’। इस संदर्भ में उन्होंने प्रथम गोलमेज सम्मलेन में कहा था कि -“हमें बार-बार याद दिलाया जाता है कि दलित वर्गों की समस्या सामाजिक समस्या है और उसका समाधान राजनीति में नहीं है। हम इस विचार का जोरदार विरोध करते हैं। हम यह महसूस करते हैं कि जब तक दलित वर्गों के हाथों में राजनीतिक सत्ता नहीं आती, उनकी समस्या का समाधान नहीं हो सकता।”47 बाबा साहब ने इसी आवश्यकता को महसूस किया, इसलिए उन्होंने 1936 में ‘स्वतंत्र मजदूर पक्ष’, 1942 में ‘रिपब्लिकन पार्टी’ की स्थापना की। उनका मानना था कि राजनैतिक शक्ति ही दलितों के सर्वांगीण विकास की चाबी है। इसी वैचारिकी को डॉ.जयप्रकाश कर्दम ‘रास्ते’ कहानी में दलित छात्रों की पार्टी ‘स्टूडेंट्स फेडरेशन’ के माध्यम से दर्शाते हैं। दलित छात्र संगठन की आवश्यकता के संदर्भ में लेखक पार्टी अध्यक्ष ब्रहमसिंह के माध्यम से अपना दृष्टिकोण रखते हैं। इस संदर्भ में ब्रहमसिंह कहता है- “यहाँ पर एन.एस.यू.आई. और ए.बी.वी.पी का दबदबा है। छात्र संघ के चुनावों में इन्हीं दोनों संगठनों में कभी कोई एक संगठन विजयी होता है और कभी दूसरा। हम इनमें से ही किसी एक संगठन के साथ मिलकर चुनाव लड़ सकते हैं। लेकिन हमारी समस्या यह है कि इन दोनों में से कोई भी संगठन दलित समर्थक या दलित हितों के प्रति पॉजिटिव नहीं है। किसी भी संगठन के साथ चुनावी तालमेल के लिए आवश्यक है कि उनकी नीतियों का भी हमारी नीतियों के साथ तालमेल हो। जिन संगठनों की नीतियाँ ही दलित विरोधी हों, उनके साथ हमारा तालमेल कैसे हो सकता है।”48 शिक्षण संस्थानों में दलित छात्र-छात्राओं के साथ जातिगत भेदभाव होते रहते हैं। उनकी आवाज प्रशासन भी नहीं सुनता है, क्योंकि वहां भी ब्राह्मणवादी लोग बैठे हुए हैं। छात्र-सगठनों पर अधिकांशत सवर्णों का बोलबाला है। इसलिए शिक्षण संस्थानों में दलित छात्र-संगठनों का होना आवश्यक है, ताकी संगठित होकर जातिगत भेदभाव के खिलाफ आवाज उठा सकें। छात्र राजनीति ही नहीं भारतीय राजनीति में दलितों के प्रतिनिधित्व के लिए दलित पार्टी एवं संगठनों की आवश्यकता है। भाजपा, कांग्रेस एवं समाजवादी-मार्क्सवादी आदि पार्टियों ने दलित समाज की समस्याओं को मुख्य मुद्दा कभी नहीं बनाया। दलितों एवं बहुसंख्यक वर्ग की पार्टी बसपा दलितों समाज की समस्या को मुख्य मुद्दे के रूप में सामने लाती है।

आज सत्ता के लिए पार्टी नेता किसी भी स्तर तक गिर जाते हैं। राजनीति में सत्ता के लिये अपराधीकरण बढता जा रहा है। वोट बैंक की राजनीति के चलते भ्रष्ट नेता देश में जातिगत भेदभाव एवं सांप्रदायिकता को बढ़ावा दे रहे हैं। भारत में सरकार का अलोकतांत्रिक रूप दिनोंदिन उभरकर सामने आ रहा हैं। सरकार अपने स्वार्थ के चलते लोगों की भावनाओं के साथ खिलवाड़ कर रही है। बाबा साहब ने लोकतांत्रिक सरकार के संदर्भ में लिखा हैं- “यह भाईचारा ही है जो लोकतंत्र का एक मात्र दूसरा नाम हो सकता है। लोकतंत्र केवल सरकार का एक रूप भर नहीं है। यह बुनियादी रूप से संगठित रूप में रहने तथा संयुक्त रूप में बातचीत के अनुभव का एक तरीका भी है। निश्चित रूप से यह अपने साथ के लोगों के प्रति सम्मान तथा प्रतिष्ठा का रवैया है।”49 दलित कहानी डॉ.अम्बेडकर के इन्हीं लोकतांत्रिक मूल्यों को प्रतिष्ठापित करती है, साथ ही राजनीति में लोकतंत्रिक मूल्यों के पतन का पर्दाफाश भी करती हैं। रत्नकुमार सांभरिया की ‘बाढ़ में वोट’ कहानी राजनीति विसंगति को उजागर करती है। कहानी में बाढ़ की स्थिति से पीड़ित लोगों की समस्याओं से बेफिक्र नेता आका के चरित्र का पर्दाफाश किया गया है। वह वोट बैंक की राजनीति के लिए बाढ़ का दौरा करता है और चुनावी जोड़-तोड़ बैठाता है- “देशी मुर्गे के भुने गोश्त के साथ सिप-सिप पी जा रही विदेशी शराब का नशा ज्यों-ज्यों चढ़ता गया था, आका में क्रोध बढ़ता गया था, “वह तो उसकी बस्ती पैसे में आ गई, उस रात, वरना…। बीस वोटों की जीत, जीत हुई। नाक बची, कटते।”50 कहानी गिरते हुये राजनीतिक मूल्यों के पतन का पर्दाफाश करती है, साथ ही लोगों में पनप रही राजनीतिक चेतना से भी अवगत कराती है। कहानी में बलवीर के नौ साल का लड़का प्रतिक्रिया व्यक्त करता है- “बलवीर का नौ साल का लड़का शूरवीर चौथी कक्षा में पढ़ता था। उसने रेत का लड्डू बनाकर आका के माथे पर मारा था, तानकर।”51 यानी नई पीढ़ी इन राजनीतिक दांवपेचों को समझ चुकी हैं। इस तरह दलित कहानी राजनेताओं के दोहरे चरित्र का पर्दाफाश करती है, साथ ही उनके दांवपेचों व षडयंत्रों को बेनकाब करती है।

दलित कहानी आदिवासी समाज की संवेदनाओं को भी अपनी कथावस्तु का विषय बनाती है। आज भूमंडलीकरण और उदारीकरण के दौर में इनका शोषण और ज्यादा बढ़ गया है। ओमप्रकाश वाल्मीकि की ‘जंगल की रानी’ कहानी में ठेकेदारों एवं प्रशासनिक अधिकारियों (दिकुओं) द्वारा हो रहे आदिवासी स्त्री के शोषण को दर्शाया गया है। अपने जल, जंगल, जमीन से विस्थापित कर दिए जाने से आदिवासी स्त्रियां कारखानों एवं मीलों में मजदूरी करती हैं, जहाँ उनका दिकुओं द्वारा शारीरिक शोषण होता है। इसी शोषण का शिकार कहानी में आदिवासी स्त्री कमली होती है। हालाँकि कमली अपने अस्तित्व एवं अस्मिता के लिए संघर्ष करती है और प्रतिरोध करते हुए शहीद हो जाती है। इस तरह आदिवासी स्त्री दिकुओं के शोषण का शिकार बन हो रही है। यहाँ तक कि प्रशासनिक अधिकारी एवं पुलिस प्रशासन भी रक्षक बनने की बजाय भक्षक बने बैठे हैं, वे भी आदिवासी औरतों के शोषण में लिप्त होते हैं। कहानी व्यवस्था के क्रूरतम चेहरे को उजागर करती है। आदिवासी स्त्री का शोषण दिकुओं द्वारा ही नहीं होता है, बल्कि वे अपने समाज में व्याप्त अंधविश्वास एवं सामाजिक विसंगतियों के चलते भी शोषित होती है। हालाँकि आदिवासी स्त्री मर्यादाओं व आदर्शो के बंधन में उस तरह नहीं बंधी है, जैसा की हिन्दू समाज में स्त्री मर्यादाओं व आदर्शो के बंधन में बंधी होती है। फिर भी गोनेंग प्रथा (दहेज प्रथा), डायन प्रथा जैसी कुप्रथाओं के चलते बेबस एवं दयनीय जिन्दगी जी रही हैं। डॉ.सी.बी.भारती की ‘भूख’ कहानी जनजाति समुदाय में स्त्री के शोषण को दर्शाती है कि किसनी को उसका बाप पैसों के लालच में गैर-आदिवासी के हाथों बेच देता है। इस तरह यह कहानी आदिवासी समाज में व्याप्त स्त्री शोषण को उजागर करती है। विदित है कि भारत में दहेज़ की समस्या विकराल रूप धारण कर चुकी हैं, जिसकी तपिश में औरत की अस्मिता एवं अस्तित्व दाँव पर लगा हुआ है।

आदिवासी समाज का विकास के नाम पर बाहरी लोगों (दिकुओं) द्वारा शोषण किया जाता रहा है। उन्हें उनके जल, जंगल एवं जमीन से बेदखल करके उनकी सभ्यता एवं संस्कृति को नष्ट किया जा रहा है। आज आदिवासी समाज शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार एवं मूलभूत आवश्यकताओं से वंचित है। इसका जिम्मेदार हिन्दू समाज रहा है, जिसने कभी उसे ऊपर उठने ही नहीं दिया। इस संदर्भ में डॉ.अम्बेडकर लिखते हैं- “संभवतः वे ये मानने को तैयार न हो कि आदिवासी आदिम (जंगली) रह गये क्योंकि उनको सभ्य बनाने, चिकित्सा सहायता देने, उनमें सुधार करने और सभ्य नागरिक बनाने के लिए प्रयास नहीं किये गए।…आदिवासियों को सभ्य बनाने का अर्थ है उन्हें अपनाना, उनके बीच रहना, भाईचारे की भावना पैदा करना, संक्षेप में कहा जाए तो उन्हें प्यार करना। किसी हिन्दू के लिए यह सब कैसे संभव होगा। उसका सम्पूर्ण जीवन अपनी जाति को बचाने में खप जाता है।”52 इसी वैचारिकी को ओमप्रकाश वाल्मीकि ‘शाल का पेड़’ कहानी में रेखांकित करते हुए लिखते हैं- “आदिवासियों के विकास उनकी शिक्षा को लेकर भी कभी सोचते हो? ..उनकी आर्थिक स्थिति कैसी है? ठेकेदारों द्वारा उनका कैसे शोषण होता है? वहां की प्राकृतिक संपदा का दोहन करने वाले लोग कौन है? जिन्हें वे आदिवासी ‘दिकू’ कहकर बुलाते हैं, जिन्होंने इनकी जमीनों पर कब्ज़ा कर लिया है। वे कोई बाहरी लोग नहीं हैं। इसी देश धर्म के लोग हैं।”53 यानी दिकुओं द्वारा देश के विकास के नाम पर आदिवासी समाज का शोषण किया जा रहा है। कभी इन्होंने आदिवासी समाज को शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी सुविधाएँ मुहैया नहीं करायी, बल्कि उनकी जमीन हड़पकर उन्हें विस्थापित कर दिया। इन विस्थापित आदिवासियों का ना राशन कार्ड में नाम है और ना ही मददाता सूची में नाम है, यानी वे भारतीय नागरिकता से ही वंचित हैं। मेरा मानना है कि इन सवर्णों से ज्यादा असभ्य कोई नहीं है, जिस प्रकृति की रक्षा के लिए आदिवासी समाज लड़ रहा है, उसे ये लोग नष्ट करने पर तुले हैं। राष्ट्रीय विकास के नाम पर जंगल काटे जा रहे हैं। कहानी इसी समस्या को उठाती हैं। कहानी में मनुवादी पात्र तिवारी अपने अधिकारी को शाल का पेड़ कटवाने की सलाह देता है, जिसका आदिवासी अगरिया तार्किक विरोध करता है- “सर! यह बहुत खतरनाक सुझाव है। जिसे विध्वसंक या विनाशकारी कहना ज्यादा सही होगा। भला कोई इतने विशाल और खुबसूरत पेड़ को काट देने की सलाह कैसे दे सकता है। समथिंग रांग विथ तिवारी। और हाँ, मि. तिवारी आप जानते हैं ये पेड़ प्रतिदिन कितनी प्राणवायु हमें देता हैं? प्रकृति का तोहफा है यह पेड़ … और तुम इसे काट देने की बात कह रहे हो।”54 कहानी में आदिवासी समाज के जल, जंगल, जमीन की समस्या को उठाया गया है और आदिवासियों की विस्थापन की समस्या, ठेकेदारों द्वारा शोषण को कथावस्तु का विषय बनाया है, साथ ही आदिवासी संघर्ष एवं प्रतिरोध की भावना को भी विकसित किया है। ओमप्रकाश वाल्मीकि की कहानी डॉ.अम्बेडकर के विचारों से प्रभावित है, साथ ही आदिवासी आंदोलन की वैचारिकी से भी प्रभावित है।

निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि दलित कहानी समन्वयवादी एवं सृजनात्मक दृष्टिकोण को अपनाती है। भेदभाव आधारित शोषणकारी मनुवादी समाज में व्याप्त उन तमाम शोषणकारी हथकंडों से प्रताड़ित दलित जीवन की व्यथा एवं संवेदना को उकेरती है। साथ ही संघर्ष, चेतना एवं स्वाभिमान की भावना से परिपूरित होकर तमाम शोषण के हथकंडों को बेनकाब करती है। दलित कहानी में दया, बेबसी एवं लाचारी का भाव न होकर संघर्ष, स्वाभिमान, एवं संगठित चेतना का भाव विद्यमान है। दलित समाज में शिक्षा से आई चेतना ने सदियों से व्याप्त हीनताबोध को तोड़ते हुए आत्मसम्मान एवं स्वाभिमान का भाव जागृत किया है। दलित कहानी जातिवाद, वर्णव्यवस्था एवं पितृसत्तात्मक व्यवस्था के पोषक हिन्दू धर्म के शास्त्रों, धार्मिक कर्मकांडों, रीति-रिवाजों एवं परम्पराओं का निषेध करती है। हिंसा और घृणा पर आधारित व्यवस्था की जगह समता, करुणा एवं मैत्री की भावना को कथावस्तु में व्यंजित करती है। इस तरह दलित कहानियां बाबा साहब के आदर्श समाज की परिकल्पना को साकार रूप देने में अहम भूमिका निभाती हैं। स्त्री-पुरुष की समाज में समान सहभागिता की आवश्यकता पर जोर देते हुए दलित समाज की उन्नति एवं विकास का मार्ग प्रशस्त करती है। गैर-दलित वर्ग की सहभागिता के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाती है। साथ ही आदिवासी समाज एवं अल्पसंख्यक वर्ग के शोषण की दास्ताँ को बयां करती हुई उनके संघर्ष एवं चेतना के स्वर को अभिव्यंजित करती है। समग्र रूप से दलित कहानी फुले एवं अम्बेडकरवादी दृष्टिकोण को अपनाती है।

संदर्भ स्त्रोत:-

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संपर्क

ओमप्रकाश मीना (शोधार्थी)

भारतीय भाषा केंद्र , जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय

नई दिल्ली-110067

मोबाइल- +91 9968545904

ई मेल –

हिंदी की पहली दलित कहानी कौन सी है?

सन् 1975 ई. में 'मुक्ति स्मारिका' पत्रिका में सतीश द्वारा रचित 'वचनबद्ध' को हिन्दी की प्रथम दलित कहानी स्वीकार किया जाता है।

दलित कविता की शुरुआत हिंदी में कब से हुई?

सरस्वती में प्रकाशित ( 1914 में ) हीरा डोम की कविता, 'अछूत की शिकायत' को दलित हिन्दी साहित्य की प्रथम रचना के रूप में स्वीकृति मिली ।

दलित रचनाकार कौन है?

जूठन (आत्मकथा)- ओम प्रकाश वाल्मीकि दलित साहित्य में 'जूठन' ने अपना एक विशिष्ट स्थान बनाया है. इस पुस्तक ने दलित, गैर-दलित पाठकों, आलोचकों के बीच जो लोकप्रियता अर्जित की है, वह उल्लेखनीय है. स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भी दलितों को शिक्षा प्राप्त करने के लिए जो एक लंबा संघर्ष करना पड़ा, 'जूठन' इसे गंभीरता से उठाती है.