ब्रिटिश आर्थिक नीतियों का भारतीय समाज पर क्या प्रभाव पड़ा? - british aarthik neetiyon ka bhaarateey samaaj par kya prabhaav pada?

भारत में ब्रिटिश सत्ता की स्थापना के उपरांत अपनाई गई आर्थिक नीतियों ने भारतीय अर्थव्यवस्था को खोखला बना दिया। इन नीतियों में भू-राजस्व नीति, धन का निर्गमन सिद्धांत, कृषि का वाणिज्यिकरण, विऔद्योगीकरण, अप्रगतिशील आयात-निर्यात नीति आदि।

ब्रिटिश भारत में आर्थिक क्रियाकलाप पहले से ज़्यादा हुए। शुरुआती समय में कृषि ही प्रमुख व्यवसाय था। करों के माध्यम से अंग्रेज़ों ने इस क्षेत्र को बर्बाद कर दिया। जब किसान करों के दबाव में टूट चुके थे, तब ब्रिटिशों ने भारत में उन फसलों की शुरुआत की जिनकी अंग्रेज़ों को ज़रूरत थी या अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में अधिक मूल्य मिलता हो। नील, रबर, चाय, कॉफी आदि के उत्पादन के लिये किसानों को बाध्य करके उनका शोषण किया जाता रहा। इससे भारत की खाद्य सुरक्षा प्रभावित हुई। करों की अधिक दर के कारण भारत से बहुत-सा धन विदेश चला जा रहा था। इसे धन का निर्गमन (Drain of Wealth) कहा गया।

भारत में कुटीर उद्योग को जानबूझकर अंग्रेज़ों ने खत्म किया और इसके बदले विदेशी उद्योगों के लिये भारत में बाज़ार पैदा किया। एक तरह से भारत कच्चे माल का आपूर्तिकर्त्ता बन गया, जिसका दाम अंग्रेज़ तय करते थे। साथ ही, उसी माल से बने उत्पादों की कीमत भी अंग्रेज़ ही तय करते थे। एक तरह से यह दोहरा शोषण था। उद्योगों के मामले में, भारत में सिर्फ उन्हीं उद्योगों को लगाया गया जिनका हित अंग्रेज़ों के लिये हो। रेलवे की शुरुआत अंग्रेज़ों ने ज़रूर की, किंतु सिर्फ अपने व्यापारिक हितों को ध्यान में रखकर ही रेलवे लाइनें बिछाईं।

डी.एच. बुकानन ने कहा है- "अलग-थलग रहने वाले आत्मनिर्भर गाँवों के कवच को इस्पात की रेल ने बेध दिया तथा उनकी प्राण-शक्ति को छीन लिया। अंग्रेज़ों की शिक्षा नीति भी यही थी कि उन्हें कंपनी के लिये भरोसेमंद कर्मचारी मिल सकें। किसी प्रकार की तकनीकी एवं मेडिकल शिक्षा के अच्छे अवसर नहीं के बराबर थे। ऐसे में जब भारत स्वतंत्र हुआ तो उसके सामने दोनों ओर से संकट था। एक तो उद्योगों एवं आधारभूत संरचनाओं का अभाव एवं दूसरी तरफ कुशल मानव संसाधन की कमी। आज़ादी के 60 साल बाद भी औद्योगिक रूप से भारत आत्मनिर्भर नहीं बन पाया है, जिसका एक कारण ब्रिटिश भारत की आर्थिक नीतियाँ भी हैं।

ब्रिटिश शासन का भारतीय अर्थव्यवस्था पर प्रभाव

अंग्रेजों से पूर्व भारतीय अर्थव्यवस्था की प्रकृति ग्रामीण थी तथा देश की 90 प्रतिशत से अधिक जनसंख्या गांवों में रहती थी। यहां कृषि एवं दस्तकारी के कार्यों की प्रमुखता थी तथा गांव आत्मनिर्भर थे। व्यवसाय वंशानुगत था। यहां का प्रमुख व्यवसाय कृषि था, लेकिन उद्योग के क्षेत्र में भी यह उन्नत था। भारत के रेशमीसूती वस्त्र विश्व में उत्तम क्वालिटी के माने जाते थे। यहां संगमरमर का कार्य, लकड़ी पर नक्काशी का कार्य, सोने चांदी के आभूषण व पत्थर पर तराशी का कार्य बहुत ही उत्तम किस्म का होता था। अतः इनका निर्यात किया जाता थ। निर्यात की वस्तुओं में नील, मसालेअफीम भी शामिल थी।

ब्रिटिश उपनिवेशवाद के चरण

रजनीपाम दत्त (आर. पी. दत्त) ने भारत में साम्राज्यवादी काल को तीन भागों में बांटा है -

1. वाणिज्यिक चरण: 1757 से 1813 ई. तक

2. स्वतंत्र व्यापारिक पूंजीवाद चरण: 1813 से 1857 ई. तक

3. वित्तीय पूंजीवाद का चरण: 1858 से 1947 ई. तक

1. वाणिज्यिक चरण/वणिकवाद

इस काल में ब्रिटिश कंपनी का मूल उद्देश्य अधिकारिक धन प्राप्त करना था।

कुछ अन्य उद्देश्य राजनैतिक शक्ति में वृद्धि एवं व्यापार पर एकाधिकार था।

उद्देश्य प्राप्ति के लिए कंपनी द्वारा अपनाऐ जाने वाले तरीके -

1. व्यापार पर एकाधिकार एवं प्रतिद्वन्द्वी समाप्त करना।

2. वस्तुएं कम मुल्य पर खरीदी एवं अधिकाधिक मूल्य पर बेची जाएं।

3. देश पर राजनैतिक नियंत्रण स्थापित करना।

के. एम. पन्निकर ने 1765 से 1772 ई. के काल को डाकू राज्य कहा है।

गृह व्यय

गृह व्यय वह व्यय था जो भारत राज्य सचिव तथा उससे सम्बद्ध व्यय था। गृह व्यय में शामिल तत्व -

  1. ईस्ट इण्डिया कंपनी के भागीदारों का लाभांश
  2. विदेश में लिए गए सार्वजनिक ऋण
  3. सैनिक तथ असैनिक व्यय
  4. इंग्लैण्ड में भण्डार वस्तुओं की खरीद

2.औद्योगिक पूंजीवाद/स्वतंत्र व्यापार चरण

1813 ई. में भारत के व्यापार पर से कंपनी का एकाधिकार समाप्त हो गया लेकिन चीन के साथ व्यापार एवं चाय के व्यापार पर एकाधिकार बना रहा यह 1833 में समाप्त हुआ।

इस काल में कंपनी का मुख्य लक्ष्य भारत को ब्रिटेन के एक अधीनस्थ बाजार के रूप में विकसित करना था।

भारत को ऐसे उपनिवेश के रूप में परिवर्तित करना जहां से ब्रिटेन को कच्चा माल प्राप्त होता रहे।

उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए कंपनी ने भारत में कृषि के वाणिज्यीकरण को बढ़ावा, शिल्प उद्योगों का विनाश, भू-राजस्वप्रणालियां लागू करना इत्यादि तरीके अपनाएं।

3. वित्तीय पूंजीवाद का चरण

इस काल में ब्रिटिश सरकार का मुख्य लक्ष्य ब्रिटिश व्यापारियों द्वारा जमा पूंजी के लिए भारत को निवेश स्थल के रूप में तैयार करना

भू-राजस्व व्यवस्था

1772 ई. में केन्द्रीय खजाना मुर्शिदाबाद से कलकत्ता लाया गया।

1772 ई. में पंचसाला बन्दोबस्त शुरू हुआ।

1777 ई. में सालाना बन्दोबस्त शुरू हुआ।

1786 ई. रिवेन्यु बोर्ड की स्थापना की गयी।

1. स्थायी बन्दोबस्त

अन्य नाम: इस्तमरारी, मालगुजारी, बिसवेदारी, जागीरदारी

प्रणेता: जाॅन शोर

लागू: 1793 ई. में लार्ड कार्नवालिस ने। सर्वप्रथम - बंगाल में लागू

शामिल क्षेत्र: ब्रिटिश भारत के कुल क्षेत्रफल का 19 प्रतिशत भू-भाग।

विस्तार: बंगाल, बिहार, उड़ीसा, बनारस, उत्तरी कर्नाटक

प्रावधान:

भू राजस्व सदैव के लिए निर्धारित किया।

जमींदारों को भूमि का स्वामी मान लिया गया।

भू-स्वामित्व परंपरागत हो गया।

लगान का 10/11 भाग सरकार का एवं 1/11 भाग जमींदारों का निश्चित हुआ।

सूर्यास्त कानून (1794 ई.) इस कानून के अनुसार, जमींदारों को लगान की राशि जमा करने के लिए एक दिन निश्चित किया जाता था एवं उस दिन सूर्यास्त से पहले लगान जमा करवाना होता था अन्यथा उनकी जागीर नीलाम कर दी जाती थी।

2. रैय्यतवाडी पद्धति

जन्मदाता: थाॅमस मुनरो तथा कैप्टन रीड

लागू: 1792 ई. में यह व्यवस्था सर्वप्रथम बारामहल जिले(तमिलनाडु) में कैप्टन रीड ने लागू की। 1802 में मद्रास, 1825 ई. में बम्बई में लागू की गयी।

विस्तार: बारामहल, मद्रास, बम्बई, पूर्वी बंगाल, असम एवं कुर्ग। ब्रिटिश भारत के 51 प्रतिशत भू भाग पर लागू।

ब्रिटिश भारत के सर्वाधिक भू-भाग पर लागू की गयी व्यवस्था।

विशेषताएं -

प्रत्येक पंजीकृत भूमिदार को भूमि का स्वामी माना गया।

रैय्यत/किसान/भूमिदार को अपनी भूमि को बेचने तथा गिरवी रखने का अधिकार दिया गया।

भूमि कर का निर्धारण भूमि के सर्वेक्षण करने के बाद किया जाता था।

सरकार द्वारा रैय्यतों को पट्टे प्रदान किया जाता था।

लगान की अदायगी न होने पर भूमि जब्त कर ली जाती थी।

भूमि कर की समीक्षा 30 वर्ष की जाती थी।

इस पद्धति में भू-राजस्व लगभग 50 प्रतिशत था।

3. महालवाड़ी व्यवस्था

महाल: महाल/महल, गांव या जागीरों को कहा जाता था।

जन्मदाता: हाल्ट मैकेन्जी ने 1819 ई. में विकसित की।

इस व्यवस्था में भूमि कर का बन्दोबस्त पूरे महाल/गांव/जागीर के प्रधान या जागीरदारों के साथ किया गया।

यह व्यवस्था ब्रिटिश भारत के लगभग 30 प्रतिशत भू-भाग पर की गयी।

इस व्यवस्था में भूमि पूरे गांव की मानी जाती थी परन्तु भूमि का स्वामित्व किसान के पास होता था।(जब तक लगान समय पर चुकाता था)

कृषक अपनी भूमि बेच सकता था। लगान निश्चित समय पर न चुकाने की स्थिति में महल प्रमुख द्वारा उसे भूमि से बेदखल भी किया जा सकता था।

इस राजस्व व्यवस्था में लगान निर्धारित करने के लिए मानचित्रों का प्रयोग किया गया।

इस व्यवस्था के अंतर्गत उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और पंजाब प्रांत शामिल थे।

इस व्यवस्था द्वारा कृषक एवं अंग्रेजों के मध्य सीधा सम्पर्क समाप्त हो गया।

पंजाब की ग्राम प्रथा: पंजाब में संशोधित महालवाडी प्रथा लागू की गयी जो ग्राम प्रथा के नाम से जानी गयी।

धन का निष्कासन

भारत के धन का अविरल प्रवाह इंग्लैण्ड की ओर था परन्तु भारत को कोई लाभ नहीं था। यह अप्रतिफलित निर्गमन था।

निष्कासन के तत्व

1. गृह व्यय

  1. ईस्ट इण्डिया कंपनी के भागीदारों का लाभांश
  2. विदेश में लिए गए सार्वजनिक ऋण
  3. सैन्य व असैन्य व्यय
  4. इग्लैण्ड में भण्डार वस्तुओं की खरीद

2. विदेशी पूंजी पर दिया जाने वाला ब्याज

3. विदेशी बैंक, इंश्योरेंस, नौवहन कंपनियां

धन निकास से संबंधित अन्य तथ्य

धन के निष्कासन की प्रक्रिया प्लासी के युद्ध के पश्चात् शुरू हुई।

धन निष्कासन सिद्धांत का वर्णन सर्वप्रथम दादा भाई नौरोजी ने अपनी पुस्तक ‘पावर्टी एण्ड अनब्रिटिश रूल इन इण्डिया’ में किया।

दादा भाई नौराजी ने 1867 ई. में लंदन में हुई ईस्ट इण्डिया एशोसिएशन की बैठक में अपने लेख ‘इंग्लैण्ड डेट टू इण्डिया’ में यह विचार प्रस्तुत किया कि ‘ब्रिटेन भारत में अपने शासन की कीमत के रूप में भारत की सम्पदा का दोहन’ कर रहा है।

दादा भाई नौरोजी ने धन की बहिर्गमन को ‘अनिष्टों का अनिष्ट’ कहा।

रमेश चन्द्र दत्त ने भी अपनी पुस्तक ‘इकाॅनिमिक हिस्ट्री आॅफ इण्डिया’ में धन के बहिर्गमन का उल्लेख किया।

कार्ल माक्र्स’ ने भारत में ब्रिटिश आर्थिक नीति की चर्चा करते हुए ब्रिटिश आर्थिक नीति को घिनौनी कहा था।

कार्ल माक्र्स ने इसे Bleeding Process कहा।

दादा भाई नौरोजी ने धन के निष्कासन को देश के सभी रोगों, दुखों और दरिद्रता का वास्तविक एवं मूल कारण घोषित किया।

1896 ई. में कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में नौरोजी के सिद्धांत को स्वीकार कर लिया गया।

धन निकासी का विरोध करने वाले समाचार पत्रों में ‘अमृत बाजार पत्रिका’ प्रमुख थी।

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ब्रिटिश आर्थिक नीतियों का भारतीय समाज पर क्या प्रभाव पड़ा लिखिए?

भारतीय धन के इंग्लैण्ड को निकास से देश में पूंजी का निर्माण एवं संग्रहण नहीं हो सका, जबकि इसी धन से इंग्लैण्ड में औद्योगिक विकास के साधन तथा गति बहुत बढ़ गयी। ब्रिटिश अर्थव्यवस्था को, इस धन से जो लाभांश प्राप्त होता था, उसे पुनः पूंजी के रूप में भारत में लगा दिया जाता था और इस प्रकार भारत का शोषण निरंतर बढ़ता जाता था।

ब्रिटिश शासन का भारत पर क्या आर्थिक प्रभाव पड़ा?

ब्रिटिश शासन के प्रभाव के फलस्वरूप पूंजीवाद और पूंजीपति वाणिज्य का उत्कर्ष हुआ। वाणिज्यिक लेनदेन में उत्पादन और पूंजीपति रुझान के पूंजीवादी मोड ने यूरोपीय देशों में भी हस्तशिल्प उद्योगों को नष्ट कर दिया। ब्रिटिश सरकार ने भारतीय कुटीर उद्योगों को भी बर्बाद कर दिया, जो व्यापार के प्रमुख स्रोतों में से एक था।

ब्रिटिश सामंतवादी व्यवस्था का भारतीय समाज पर क्या प्रभाव पड़ा?

अतः ब्रिटिश शासन की नीतियों से भारतीय कृषि पर अत्यंत नकारात्मक प्रभाव पड़ा तथा कृषकों की दरिद्रता अत्यंत बढ़ गयी। वर्ष 1815 के अंत तक बंगाल की कुल भूमि का लगभग 50 प्रतिशत दूसरे हाथों में स्थानांतरित किया जा चुका था। इन नये हाथों में भूमि के जाने से जमीदारों के एक नये वर्ग का उदय हुआ तथा नये भू-संबंधों का विकास हुआ।

ब्रिटिश शासन से भारतीयों को कौन से मुख्य लाभ हुआ?

देश शिक्षा, टेक्नोलॉजी, विज्ञान, बिजनेस लगभग सभी क्षेत्रों में लगातार आगे बढ़ रहा है। हालांकि, देश की इस कामयाबी में उन चीजों का भी अहम योगदान है जो ब्रिटिश शासन के दौरान डेवलप की गई थीं। ये वे व्यवस्थाएं हैं जिसकी शुरुआत अंग्रेजों ने गुलाम भारत में कर दी थी, लेकिन उसे आगे बढ़ाने का काम आजाद भारत ने किया।