भारत की सांस्कृतिक एकता के अंतर्गत कौन से प्रमुख तत्व हैं - bhaarat kee saanskrtik ekata ke antargat kaun se pramukh tatv hain

संस्कृति एक पारिभाषिक शब्द है इसकी शब्दगत व्युत्पत्ति है सम्+कृ+क्तित्र संस्कृति। अर्थात् कृ धातु से क्तिन प्रत्यय और सम् उपसर्ग लगाने से ‘संस्कृति‘ शब्द बनता है, जिसका अर्थ होता है- परिमार्जन अथवा परिष्कार।


भारतवर्ष प्राचीन देश है। अपनी भौगोलिक स्थिति और सांस्कृतिक इकाई के रूप में भारतीय संस्कृति का समस्त मानवीय उपलब्धियों के अध्ययन में प्रमुख स्थान है। इसकी संस्कृति में राष्ट्रीय जीवन का उत्थान-पतन तो स्वभावतः: है ही इसकी विविधता के स्वरूप में समन्वयवादी चतेना भी व्याप्त है। प्राचीनता के आधार से भारतीय संस्कृति विश्व की प्राचीन सभ्यताओं में से एक है। भारतीय संस्कृति मिस्र, यूनान, रोम, सुमेर आदि से प्राचीन ही है। 


हमारी संस्कृति में आज भी वैदिक परम्परा जो हजारों वर्ष पूर्व थी, उसके गुण विद्यमान हैं। इस सनातन अस्तित्व की दृष्टि से भारतीय संस्कृति अनोखी है। इसी विषय पर इकबाल की प्रसिद्ध पंक्तियाँ हैं - यूनान, मिस्र और रोमा, सब मिट गए जहाँ से। कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी।। 


भारतवर्ष भौगोलिक विभिन्नताओं का देश है। एक आरे उत्तर मे हिमालय द्वारा बनी सीमा जो अन्य एषिया देशों से उसे अलग करती है। तो दूसरी आरे दक्षिण में समुद्र भारत के स्वरूप का निर्धारण करता है, जो देश को सांस्कृतिक प्रसार का व्याप्क दृष्टिकोण तथा अवसर प्रदान करता है। भारत की धरती एसेी है जिसमें बाह्य जातियाँ और प्रभाव एक बार आने के बाद यहीं घुल-मिल जाते हैं। 


भारतवर्ष प्राकृतिक रूप से भी समृद्ध देश है। इसकी प्राकृतिक समृद्धि में भारतीयता के अटूट विकास के अवसर आदि से चले आ rhe हैं। भारतीय संस्कृति में वैदिक काल से लेकर आधुनिक वाड़्मय तक इस बात की सर्वत्र ध्वनि सुनाई देती है। नदियों द्वारा बनाया गया उपजाऊ क्षेत्र संस्कृति के विकास का प्रमुख कारण रहा है।

भारतीय संस्कृति

भारतीय संस्कृति विश्व की प्राचीनतम संस्कृतियों में से है। प्रत्येक देश की अलग पहचान उसकी संस्कृति के कारण होती है। चूंकि प्रत्येक देश के नागरिकों का व्यवहार उनकी संस्कृति द्वारा निर्धारित मूल्यों के अनुरूप होता है, जो कि सम्पूर्ण राष्ट्र के व्यक्तित्व का प्रदर्शन करते है। संसार में भारतीय संस्कृति को सबसे उच्च स्तर का होना स्वीकार किया गया है, जिसका मूलाधार यहाँ की संस्कृति के शाश्वत एवं चिरस्थायी मूल्य है। भारतीय संस्कृति मनुष्य और समाज के मध्य संबंध का एक सुव्यवस्थित आदर्श है, जिसमें परिवर्तनों को स्वीकार करने की अदम्य क्षमता है।


प्राचीन भारतीय संस्कृति का निर्माण राजनैतिक, आर्थिक आधार की बजाए धार्मिक आधार पर हुआ है। इसी कारण जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में धर्म की प्रावधान रही है, जिसमें वृहत्तर आध्यात्म ज्ञान की ओर संकेत है। यही कारण है कि भारतीय संस्कृति कर्तव्यनिष्ठा के भाव से सदैव ओत-प्रोत रही है। इसका अभिप्राय है कि फल की अपेक्षा कर्तव्यभाव से कार्य करना, जिसमें त्याग, तपस्या और बलिदान का महत्व है। हमारी प्राचीन वर्ण-व्यवस्था और आश्रम व्यवस्था का आधार कर्तव्य ही रहा है। 


भारतीय इतिहास का सूक्ष्म अवलोकन करने से निष्कर्ष प्रस्तुत होता कि भारत का इतिहास आक्रमण और विजय-पतन तथा उत्थान व सुषप्ति जागरण का अद्वितीय इतिहास है। भारत का इतिहास विश्व-परिदृश्य प्रस्तुत करता है, क्योंकि सोने की चिडि़या के नाम से प्रसिद्ध भारत अनेक धन-लोलप विदेशी आक्रमणकारियों से जुड़ा रहा है। सामान्यतः इन आक्रमणकारियों की तीन मांगों में विभाजित किया जा सकता है - 


प्रथम भाग में - उन आक्रमणकारियों का समावेश होता है, जिन्होंने यहाँ के मूल निवासियों को हराकर यही राज्य किया और धीरे-धीरे अपनी संस्कृति व स्वतंत्रता खोकर यहाँ की संस्कृति में ही घुल मिल गए। 


द्वितीय प्रकार के - आक्रमणकारी वे थे, जिन्होंने विश्व विजय की अभिलाषा के वशीभूत होकर भारत पर आक्रमण किया और उद्देश्य पूर्ति हो जाने पर यहाँ से स्वदेश वापस चले गए। 


तृतीय प्रकार के आक्रमणकारी वे थे जिन्होंने यहाँ पर राज्य करते हुए भारत की संस्कृति तथा उस पर आधारित मूल्यों, शिक्षा व्यवस्था तथा सामाजिक स्वरूप में आमूल-चूल परिवर्तन किया एवं अपनी स्वतंत्रता बनाए रखी ये आक्रमणकारियों की संस्कृति का भी भारत की संस्कृति पर प्रभाव पड़ा तथा एक नवीन मूल्य लेकर संस्कृति सृजित हुई। यह न तो आक्रमणकारियों की संस्कृति की हू-ब-हू नकल ही थी और न ही भारतीय संस्कृति, बल्कि दोनों संस्कृतियों का एक समन्वित रूप प्रस्तुत हुआ। इससे आध्यात्मवादी दर्शन के स्थान पर भौतिकवाद या यर्थाथवाद का प्रादुर्भाव हुआ। विज्ञान के कारण ईश्वर के अस्तित्व पर संदेह किया जाने लगा।


भारतीय संस्कृति सदैव से ही संचयशील और सहिष्णु बनी रही है। इसके मूल में भारतीय समाज की आध्यात्मिकता दृष्टिगोचर होती है, जिससे भारतीय सांस्कृति विश्व की श्रेष्ठतम संस्कृति बनी हुई है। प्राचीन भारतीय संस्कृति का प्रतिदर्श आधुनिक भारतीय समाज में भी मिलता है। यद्यपि विज्ञान के आविष्कारों तथा पश्चिम के अंधानुकरण से यह संस्कृति भी अपना स्वरूप परिवर्तित कर रही है। तथापि हमारे प्रचलित संवैधानिक मूल्य-समानता, सामाजिक न्याय, भ्रातत्वभाव, धर्मनिरपेक्षता इस संस्कृति की विशाल हृदयता की ही परिणति हैं, जिसमें विश्व मानवता का गहरा भाव जुड़ा हुआ है।

भारतीय संस्कृति की विशेषताएं 

भारतीय संस्कृति उत्तम संस्कृति मानी जाती है भारतीय संस्कृति की विशेषताएं हैं-

1. आध्यात्मिकता 

आध्यात्मिकता भारतीय संस्कृति की सबसे प्रमुख विशेषता है। वैदिक काल से ही भारतीय संस्कृति में आत्मिक उत्कर्ष सिद्धान्त चला आ रहा है। वैदिक ऋशिया े ने जीवन में उच्च नैतिक आदर्श से ऊपर उठकर मन की शक्ति और आत्मा के महत्व की स्थापना की है। वे कारे ज्ञान के समर्थक नहीं थे, उन्होंने धर्म और दर्शन की स्थापना करके मनुष्य के जीवन आरै सृष्टि को मोक्ष साधना और वैचारिक सहिष्णुता के रूप ने भारतीय संस्कृति की प्रमुख धाराएँ प्रदान की हैं। वेद, पुराण, उपनिषद और अन्य धर्म शास्त्रों में आत्मिक ज्ञान और जीवन के क्रमिक विकास के सिद्धान्तों के प्रतिपादन से ही भारतीय सभ्यता की मौलिक स्थापना हुई है। 


महावीर-बुद्धकालीन वैराग्य भावना और आत्मिक उत्कर्ष साधना के आन्दोलनों का फल जैन और बौद्ध धर्म के रूप मे मिलता है। अषाके, विक्रमादित्य और हर्श जैसे सम्राटों ने धर्म-संदेशों के प्रचार को अपना कर्तव्य समझा। मध्यकाल में शंकराचार्य ने आध्यात्मकपरक दार्शनिक पक्ष की पुनःस्थापना का महान कार्य किया। रामानन्द, कबीर, तुलसी, शंकर देव आदि कवि संतों ने आगे चलकर इसको जन-जन के लिए सुलभ किया। वर्तमान समय मे भी भारतीय विचारकों का दृष्टिकोण अध्यात्म भावना से प्रेरित दिखाई देता है। 


रामकृष्ण परमहंस, विवेकानन्द, अरविन्द, रमण महर्षि, रवीन्द्रनाथ ठाकुर गांधी इसी सत्य के प्रतिनिधि है जो भारतीय संस्कृति का प्रमुख लक्षण है।’ स्पष्टतः भारतीय विद्वतजनो ने वेद-शास्त्रों द्वारा ज्ञान अर्जित करके आध्यात्मिकता का ज्ञान विश्व को प्रदान किया है, जो भारतीय संस्कृति को विश्व की निराली संस्कृति बनाती है।

2. प्राचीनता एवं अविच्छिन्नता

भारतीय सभ्यता विश्व की प्राचीन सभ्यताओं में से है। डॉ. राधाकमल मुखर्जी ने लिखा है - ‘भारतीय सभ्यता संसार की अन्य सभ्यताओं से अधिक प्राचीन और प्राणवान है। यह तथ्य अधिक महत्त्वपूर्ण है इसलिए कि बहुत से देशों ने विदेशी जातियों की चढ़ाइयो और विजयों को सहा है। इससे भी देषों में प्राकृतिक दशाओं, रीति-रिवाजो और भाषाओं का इतना वैविध्य है। भारतीय सभ्यता की अविच्छिन्नता के  कारण है। एक कारण है कल्पना आरै यथार्थ का स्वरूप आदर्श तथा दूसरा कारण पाँच हजार से भी अधिक वर्शों के संघर्ष और क्रमिक विकास एवं समन्वय के बल पर विकसित सामाजिक व्यवस्था। 


इस विशाल भ-ूभाग पर विदेशी ताकतो ने इसको संघटित और विघटित किया किन्तु इस देश के निवासियों ने एक संस्कृति के स्थान पर दूसरी संस्कृति को प्रतिष्ठित नहीं किया है।’ इससे अभिप्राय यह है कि भारतीय सभ्यता ने बाहरी ताकतो को आत्मसात नहीं किया। इस देश ने अपनी सांस्कृतिक जड़ों को खोखला नहीं होने दिया है। वर्तमान समय में चाहे हमें विदेशी संस्कृति अपना रहे हो परन्तु बाहरी तौर पर ही अपना रहे है पूर्णतया नहीं।

डॉŒ विजयेन्द्र स्नातक लिखते हैं - ‘सर्यू की आलाके प्रदायिनी किरणों से पौधे को चाह े जितनी जीवनी शक्ति मिले किन्तु जमीन और जड़ों के बिना कोई पौधा जीवित नहीं रह सकता है।’ इससे तात्पर्य यह है कि भारतीयता संस्कृति यहाँ के जन-जन की भावनाओं में सदियों से जमा है जो बाहरी दिखावे या आकर्शण से बदलती नहीं।

3. साम्प्रदायिकता एकता और सहिष्णुता

‘‘भारतीय संस्कृति में धर्म की स्वीकृति है, किन्तु धर्म किसी संकीणर्ता या अंधविश्वास का पर्याय नहीं है।’’ वर्तमान समय ही नहीं बल्कि प्राचीनकाल से ही भारतीय संस्कृति का आधार धार्मिक एकता व सहिश्णुता रहा है। राम, कृष्ण, शिव तथा बुद्ध, महावीर इत्यादि की मान्यताओं के अलावा भारत में देवी-देवताओं की संख्या अनगिनत है। फिर भी इनकी विचारधाराओं में एकता का मलू है, क्योंकि विभिन्न रूप स्वीकार करने पर भी एक-ईश्वर में भारतीय मानस का विश्वास सुदृढ़ है। 


ऋग्वदे की प्रसिद्ध ऋचा - ‘एक सद्धिप्रा बहुधा वदन्ति’ के अनुसार एक शक्ति के स्वरूप अनेक है। सगुण रूप मे इष्टदेव के नामभदे होने पर भी निराकार ब्रह्म की सत्ता सब हिन्दू मतो में मान्य है। अहिंसा, दया, तप आदि सभी गृहस्थ और वैराग्य धर्मों का सिद्धान्त है। चाह े वे बौद्ध, जैन या वैश्णव किसी भी मत के मानने वाले हा।े 


भारतीय संस्कृति मे सहनशीलता का भी बड़ा विशिष्ट गुण है। इसी का परिणाम है कि देश में अनेक जातियाँ और धर्मों के लागे आपस में मिलजुल कर रहते हैं फिर भी भारतीय संस्कृति विलीन नहीं हुई है। आदान-प्रदान की प्रक्रिया द्वारा भारतीय संस्कृति अपने स्वरूप को संजोये हुए ‘अनेकता में एकता’ की स्थापना प्रकट करती है। भारत की धर्म प्राणता से न तो इस्लाम को ठेस पहुँची और न इसाईयत को काईे हानि हुई। धर्म और अध्यात्म द्वारा भारतीय संस्कृति जन-जीवन को आश्वस्त बनाने में सफल हैं। 


भारतीय संस्कृति के इस गुण को बताते हुए पृथ्वी कुमार अग्रवाल लिखते हैं - ‘आपसी भेद का कारण भारतीय संस्कृति में धर्म कभी नहीं बन सका। एक-दो उदाहरण हो तो उसके मूल में अन्य तथ्य प्रमुख है। संस्कृति की एक विशेषता को न केवल विचारक दार्षनिकों ने स्थापित किया, बल्कि राजनायिकों और सम्राटो ने भी समझा। 


स्वयं अशोक का कथन है कि उसने धार्मिक मले-जोल को बढ़ावा देने का सफल प्रयत्न किया है। इस सहिश्णुतापूर्ण समन्वय भावना को मुगल बादशाह अकबर ने भी स्वीकार किया और तदनुसार इस्लाम जैसा विपरीत मत भी भारतीयता का अंग बन गया।’ विश्व इतिहास में हम धर्म के नाम पर अनेक अत्याचारों का होना पाते हैं। यूनान में सुकरात, फिलिस्तीन में ईसा मसीह को बलि हानेा पड़ा। परन्तु भारतीय संस्कृति में हिंसा धर्मान्धता के वशीभूत नही हुई। सहिष्णुता भारतीय संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता है।

4. वर्णाश्रम व्यवस्था

वर्णाश्रम व्यवस्था भारतीय समाज की निजी विशेषता है। यह व्यवस्था भारतीय संस्कृति मे एकता बनाए रखने वाला मौलिक गुण है जो वैदिक काल से ही चली आ रही है। इस व्यवस्था ने भारत के विभिन्न मानव-समहूों और जातियों को एक सूत्र में पिरोये रखने का सफल प्रयत्न किया है। जीविका की प्राप्ति आरै उचित अवसर का जो समाज में सहज क्रम दिखता है अर्थात् पिता के पेशों को पुत्रों द्वारा आगे ले चलना, उसकी सामाजिक व्यवस्था भारतीय संस्कृति की अद्भुत विशेषता है। राष्ट्र कवि रामधारी सिंह दिनकर भी विलक्षण संस्कृति की विलक्षणता के बारे में अपनी पुस्तक ‘संस्कृति के चार अध्याय’ में लिखते हैं कि वैदिक धर्म चार वर्णों में विश्वास करता है। 


ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। समाज का यह वर्गीकरण जातिगत विभेद न होकर उसकी एकता के लिए था। बुद्धिजीवियों की श्रेणी ब्राह्मण थी, शक्ति के आधार पर क्षत्रिय, कृषि आरै आर्थिक धंधों के लिए वैश्य अन्य तीनों का सहायक और सेवक वर्ग शूद्र हुआ। आगे चलकर इन वर्णों के अन्तगर्त अनेक उपजाति और उपवर्गों का जन्म हुआ, किन्तु सबका समन्वित रूप चार वर्णों में सदैव संजोया जाता रहा। 


इस व्यवस्था से समाज में जो गड़बड़ी उत्पन्न हुई है वह अन्य बातों से हुई है, वर्ण व्यवस्था से नहीं। इस व्यवस्था ने तो समाज कल्याण में योगदान दिया है जिसके प्रमाण इतिहास में कई हजार वर्षों तक मिलते हैं। पृथ्वी कुमार अग्रवाल लिखते हैं कि वर्णाश्रम, व्यवस्था का दार्शनिक पक्ष ‘कर्मवाद’ से प्रेरित है जो प्राचीन भारतीय संस्कृति का बहुचचिर्त सिद्धान्त है। इस दृष्टिकोण की पराकाष्ठा नि:स्पदृ कर्तव्य पालन के रूप मे गीता में मिलती है जो नितान्त भारतीय विचार है। 

भारत की सांस्कृतिक एकता के अंतर्गत कौन से प्रमुख तत्व है?

भारत की संस्कृति बहुआयामी है जिसमें भारत का महान इतिहास, विलक्षण भूगोल और सिन्धु घाटी की सभ्यता के दौरान बनी और आगे चलकर वैदिक युग में विकसित हुई, बौद्ध धर्म एवं स्वर्ण युग की शुरुआत और उसके अस्तगमन के साथ फली-फूली अपनी खुद की प्राचीन विरासत शामिल हैं।

सांस्कृतिक तत्व कौन कौन से हैं?

एचएम जानसन ने संस्कृति के प्रमुख तत्वों को इस प्रकार रखा है। आदिम काल से लेकर आज तक जितने भी प्रकार के समाज हुए हैं, उन सभी में किसी ने किसी प्रकार का ज्ञान अवश्य पाया जाता रहा है। ज्ञान के अभाव में मानव समाज की कल्पना नहीं की जा सकती है।.
मौखिक माध्यम.
लिखित माध्यम.
प्रतीक एवं संकेत माध्यम.

भारत की सांस्कृतिक एकता से आप क्या समझते हैं?

प्रो. हरबर्ट रिसले के अनुसार भारत का भौतिक और सामाजिक रूप, भाषा, रीति रिवाज, धर्म की भिन्नता होने पर भी कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक एकता के सूत्र में बंधा है । यह एकता है सांस्कृतिक एकता, जिसने भारत की विविधता को अपने में समोकर अभिन्न रूप प्रदान किया है ।

भारतीय संस्कृति की प्रमुख विशेषताएं कौन कौन सी हैं?

अध्यात्म एवं भौतिकता में समन्वय- भारतीय संस्कृति का प्रधान गुण भौतिक और आध्यात्मिक तत्त्वों को साथ-साथ लेकर चलना है। वस्तुतः प्राचीन काल में मनुष्य के 4 पुरुषार्थ- धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष तथा 4 आश्रम- ब्रम्हचर्य, ग्रहस्ठ, वानप्रस्थ एवं सन्यास इसी भौतिक एवं अध्यात्मिक पक्ष को प्रमाणित करते हैं