परिभाषा: वर्तनी शब्द का अर्थ है- अनुसरण करना, अर्थात पीछे-पीछे चलना। भाषा के उच्चरित रूप या बोलने में जो कहा जाता है अथवा उच्चरित किया जाता है, उसी के अनुरूप या अनुसार लिखा भी जाता है; इसे ही वर्तनी कहते हैं। भाषा का लिखित रूप वर्तनी की सहायता लेता है। अतः भाषा के उच्चरित रूप को उसी रूप में लिपिबद्ध करना ‘वर्तनी’ कहलाता है। Show वर्तनी का महत्व
वर्तनी की एकरूपतावर्तनी की एकरूपता से भाषा का मानक रूप स्थायी बनता है तथा इसमें भ्रांतियों के अवसर नहीं रहते हैं। वर्तनी की सहायता से भाषा लिखित रूप प्राप्त करती है। यदि वर्तनी अशुद्ध हो तो स्वाभाविक है, कि भाषा भी अशुद्ध होगी तथा इससे भाषा की मानकता प्रभावित होगी। वर्तनी में अनुद्धि के विशेष कारण होते हैं। जैसे- हिंदी वर्तनी के कुछ आवश्यक नियम(1.) कारक तथा उनके चिह्न (विभक्ति चिह्न)
(2.) निपात-शब्द या अव्यय
(3.) संयुक्त और सहायक क्रिया संयुक्त क्रिया और सहायक क्रिया को एक साथ नहीं, अपतिु पृथक् लिखना चाहिए। जैसे- (क) मोहन जा सकता था। (ख) वे आ सकते थे। पूर्वकालिक क्रियाएँ एक शब्द के रूप में मिलाकर लिखते हैं। यथा- खा पीकर, रो रोकर, पढ़कर, सोकर कभी-कभी इनके बीच में योजक का प्रयोग अधिक स्पष्टता के लिए किया जाता है। जैसे- पढ़-लिखकर, रो-रोकर, खा-पीकर (4.) योजक चिह्न का प्रयोग से, सा, जैसा आदि शब्द यदि उपमा या गुणों की समानता प्रकट करने के लिए आते हैं, तो उनमें योजक चिह्न का प्रयोग करना चाहिए। जैसे- (क) हरिश्चंद्र-सा सत्यवादी। प्रायः तत्पुरूष समासों में हाइफन या योजक चिह्न की आवश्यकता नहीं होती है। जैसे- नगरवासी, बलिवेदी, गंगाजल आदि। यदि भ्रम उत्पन्न होने की संभावना हो, तो हाइफन लगाते हैं जैसे- भू-तत्व। (5.) संस्कृत से जो तत्सम शब्द हिंदी में आए हैं, उन्हें उसी रूप में लिखा जाना चाहिए। जिन शब्दों को हिंदी में हलंत रहित कर दिया गया है, उनमें संस्कृत के आधार पर पुनः हलंत लगाना आवश्यक नहीं है। यथा
संस्कृत के कुछ तत्सम शब्द, जो उसी रूप में हिंदी में अपनाए गए हैं, उन्हें उसी प्रकार लिखना चाहिए। ब्रह्म, उऋण, गृहीत, अत्यधिक, चिह्न, अनधिकार, प्रदर्शनी आदि। (6.) अशुद्ध उच्चारण के कारण वर्तनी की अशुद्धियाँ (1.) इ-ई से संबंधित
(2.) उ-ऊ से संबंधित – रूप (रूप), गुरू (गुरू) (3.) स के स्थान पर श – प्रसाद (प्रशाद), शासक (शाशक) (4.) श के स्थान पर स – शायद (सायद), शब्द (सब्द) इनमें कोष्ठक में लिखे रूप अशुद्ध हैं। (5.) ण के स्थान पर न- प्रनाम, गुन (यहां ध्यान रखना चाहिए कि ‘ण‘ का प्रयोग संस्कृत के तत्सम शब्दों में होता है और ‘न‘ का प्रयोग हिंदी में तद्भव शब्दों में किया जाता है।) (6.) व के स्थान पर ब- ब्यापार, बीणा, बर्षा। (7.) ढ और ढ़ का प्रयोग- ढ़ का प्रयोग प्रायः शब्द के आरंभ में नहीं होता है। जैसे- पढ़ना, गढ़ना। (8.) ई-यी-ई के उच्चारण के कारण कुछ शब्दों के अंत में ‘यी’ के स्थान पर ‘ई’ का प्रयोग होता है; जबकि होना ‘यी’ ही चाहिए। जैसे- स्थायी, वाजपेयी, उत्तरदायी आदि। (9.) इ और ई- वाक्य के अंत में यदि ‘ई’ के बाद कुछ जोड़ा जाए और यदि शब्द बहुवचन बने, तो ई को इ बना देते हैं। जैसे- लड़की लड़कियाँ विद्यार्थी विद्यार्थियों (10.) उ और ऊ- इसी प्रकार वाक्य के अंत में यदि ‘ऊ’ के बाद कुछ जोड़ा जाए तो ‘ऊ’ का ‘उ’ हो जाता है। जैसे- साधू-साधुओं, डाकू-डाकुओं (7.) अनुनासिक और अनुस्वार अब अनुनासिक का प्रयोग अधिकांशतः उन शब्दों में किया जाता है, जिनमें शिरोरेखा के ऊपर कोई और मात्रा नहीं लगाई जाती है। जैसे- हँसना, ऊँगली, आँख, गँवार, साँस, ऊँट आदि। यदि शिरोरेखा के ऊपर अन्य मात्रा लगाई गई हो, तो अनुस्वार के स्थान पर अनुनासिक का प्रयोग किया जाता है। जैसे- मैँ को मैं, ईँधन को ईंधन, सेँकना को सेंकना (8.) श, स और ष के प्रयोग में अशुद्धियाँ ‘श’ की ध्वनि तालव्य है, ‘ष’ की ध्वनि मूर्धन्य है और ‘स’ की ध्वनि दंत्य है। अतः इनके शुद्ध उच्चारण से वर्तनी की अशुद्धि दूर की जा सकती है। निम्न नियमों को ध्यान में रखकर इनके सही प्रयोग को जान लेना चाहिए- (1.) यदि क, ख, प, फ तथा ट और ठ वर्णों से पहले विसर्ग हो, तो वह ‘ष‘ में बदल जाता है। जैसे- निः + पाप = निष्पाप, निः + फल = निष्फल (2.) यदि ‘क’ वर्ग तथा ‘अ’ और ‘आ’ को छोड़कर कोई अन्य स्वर अथवा य, र, ल, व, ह में से कोई वर्ण हो तो ‘स’, ‘ष’ में बदल जाता है। जैसे – वि + सम = विषम, अभि + सेक = अभिषेक। (3.) संस्कृत के तत्सम शब्दों का ‘श’ तद्भव में ‘स’ बन जाता है। जैसे- शूली-सूली (4.) ‘च’ और ‘छ’ वर्ण से पहले प्रायः ‘श’ का ही प्रयोग होता है। जैसे – निश्च्छल, निश्चय। (5.) इसी प्रकार ऋ के बाद तथा ‘ट’ वर्ग से पहले ‘ष’ ही आता है। जैसे- ऋषि, कृषि, कष्ट, दुष्ट, अन्वेषण, षडानन आदि। (6.) शब्द और पदों में यदि ‘श’, ‘ष’ और ‘स’ साथ हों, तो उनका क्रम वर्णमाला के ही अनुसार होता है। जैसे- शासक, प्रशंसा, शोषण। (7.) ‘ष’ का प्रयोग प्रायः संस्कृत के पदों और मूल धातुओं में मिलता है। यथा- संतोष, भाषा, शिष्ट, षटकोण। (8.) समस्त पदों में यदि दो से अधिक शब्द साथ हों, तो योजक चिह्न का प्रयोग करना चाहिए। जैसे- राज-भक्ति, जन्म-दिन, गृह-विज्ञान और मन-वचन-कर्म, रवि-शशि-नक्षत्र। (9.) द्वित्व अक्षरों की अशुद्धियाँ सभी वर्णों के दूसरे और चैथे अक्षर द्वित्व रूप में नहीं लिखे जाते हैं। जैसे-
सामान्य अशुद्धियाँ | Ashudh or Shudh Vartani(1.) अनुस्वार संबंधी
(2.) अनुनासिक संबंधी अशुद्धियाँ
(3.) अक्षर संबंधी अशुद्धियाँ (I.) ई और यी की अशुद्धियाँ
(II.) मात्रा और अक्षर संबंधी अशुद्धियाँ
(III.) श्, ष्, स् लगाने की अशुद्धियाँ
(IV.) संधि संबंधी अशुद्धियाँ
वर्तनी से आप क्या समझते हैं?वर्तनी को अक्षरी या अँग्रेजी में 'स्पेलिंग' भी कहा जाता है। जिस भाषा की वर्तनी में अपनी भाषा के साथ अन्य भाषाओ के अक्षरों को सटीक ध्वनियों के साथ ग्रहण करने की जितनी अधिक शक्ति होगी, उस भाषा की वर्तनी उतनी ही समर्थ होगी। अतः हम कह सकते हैं कि वर्तनी का सीधा सम्बन्ध भाषागत ध्वनियोँ के उच्चारण से है।
वर्तनी शुद्धि क्या है?निम्न शब्दों में किसी वर्ण के साथ अनावश्यक स्वर प्रयुक्त हो जाने से वर्तनी अशुद्ध हो जाती है अतः उसे हटा कर वर्तनी शुद्ध की जा सकती है।
वर्तनी वाले शब्द कौन कौन से होते हैं?लिखने की रीति को वर्तनी या अक्षरी कहते हैं। यह हिज्जे (Spelling) भी कहलाती है। दूसरे शब्दों में- जिस शब्दों में जितने वर्ण या अक्षर जिस अनुक्रम में प्रयुक्त होते हैं, उन्हें उसी क्रम में लिखना ही वर्तनी है। विद्यार्थी से प्रायः दो तरह की भूलें होती हैं- एक शब्द-संबंधी, दूसरी वाक्य-संबंधी।
वर्तनी कैसे लिखते हैं?वर्तनी का सीधा संबंध उच्चारण से होता है।. इसको हल् चिह्न कहा जाए, न कि हलंत। ... . संयुक्ताक्षर बनाने के नियम के अनुसार ड्, छ्, ट्, ठ्, ड्, ढ्, ह् में हल् चिह्न का ही प्रयोग होगा। ... . तत्सम शब्दों का प्रयोग वांछनीय हो, तब हलंत रुपों का ही प्रयोग किया जाए; विशेष रूप से तब जब उनसे समस्त पद या व्युत्पन्न शब्द बनते हों।. |