देवी और देवता में क्या अंतर है? - devee aur devata mein kya antar hai?

देवी और देवता में क्या अंतर है? - devee aur devata mein kya antar hai?

भगवान और देवता तथा देवता और मनुष्य में अंतर होता है. हम मनुष्य पृथ्वीलोक में निवास करते हैं और और देवी-देवता हमसे ऊपर के लोक स्वर्गलोक में. मनुष्य हों या देवता, सभी माया के अधीन हैं. अतः काम, क्रोध, मोह, लोभ और अहंकार, ईर्ष्या, मद, भय जैसे दोष दोनों ही लोकों के प्राणियों में हैं.

बस, जिन्होंने वेदों का पालन करके, अधिक पुण्य और ज्ञान प्राप्त कर लिया है, साथ ही मृत्यु के समय मन में केवल भोग-विलास की ही इच्छा रखी है, उन्हें उनके कर्मों और इच्छा के अनुसार स्वर्गलोक में स्थान मिला है, जहां केवल सुख ही सुख और ज्ञान ही ज्ञान है.

स्वर्गलोक में देवताओं के राजा को इंद्र कहा जाता है. इंद्र एक पदवी का नाम है. इस पदवी पर बैठने वाले को इंद्र कहकर ही सम्बोधित किया जाता है. (अलग-अलग जानकारियों के अनुसार) इंद्र का पद प्राप्त करने के लिए वैदिक विधि से 100 अश्वमेध यज्ञ भी करने होते हैं.

वरदान भी देते हैं देव

स्वर्ग के देवता श्रेष्ठ बुद्धि वाले प्राणी हैं. वे भी जन्म-मृत्यु के बंधन से बंधे हुए हैं, लेकिन उनका जीवन हम मनुष्यों की तुलना में बहुत लंबा होता है. वे सदा जवान ही दिखाई देते हैं. उनके कर्म नहीं लिखे जाते. स्वर्गलोक और दिव्य शरीर के प्रभाव से उनके पास कुछ शक्तियां भी होती हैं (पृथ्वीलोक से अन्य लोकों में पहुंचने पर आत्मा को उसी लोक के अनुसार एक दिव्य शरीर प्राप्त हो जाता है, ताकि वह आत्मा उस लोक में मिलने वाले सुख-दुख या भोगों का अनुभव कर सके).

यज्ञों में विशेष मंत्रों द्वारा देवताओं का आह्वान किया जाता है. देवता भी वरदान देते हैं, कुछ शक्तियां दे सकते हैं, लेकिन भगवान के दर्शन कराने का वरदान या भगवान का दिव्य प्रेम नहीं दे सकते, क्योंकि इसके लिए तो उन्हें भी बहुत तप और पुण्यकर्म करने पड़ते हैं. इसी के साथ, पृथ्वीलोक के किसी भी प्राणी के कर्मफल को बदलने की शक्ति इंद्र आदि देवताओं में नहीं है. यह शक्ति और अधिकार केवल भगवान को है.

मानवीय और दैवीय शक्तियों का टकराव

मानवीय शक्तियों ने कई बार देवताओं की शक्तियों से टकराने का प्रयास किया है, कई बार उनकी शक्तियों को चुनौती दी है, जैसे कि विश्वामित्र. विश्वामित्र ने घोर तपस्या करके, अनेक दिव्य शक्तियां अर्जित कर कई बार देवताओं का अहंकार तोड़ा है, तो वहीं मेघनाद जैसे राक्षसों ने पृथ्वी पर रहकर भी घोर तप करके स्वर्गलोक पर अधिकार कर इंद्रजीत का पद प्राप्त किया था. राक्षसों के राजा बलि को भी एक कल्प में इंद्र का पद (स्वर्गलोक का अधिकार) प्राप्त है.

भगवान श्रीकृष्ण ने देवताओं का अहंकार तोड़ने के लिए पृथ्वीलोक पर उनकी पूजा बंद करवाके प्रकृति की पूजा का चलन बनाया.

मनुष्य द्वारा देवताओं की सहायता

इसी के साथ, कई मनुष्यों ने कई बार देवताओं की भी सहायता की है, जैसे कि राजा दशरथ ने देवासुर संग्राम में देवताओं की सहायता कर उन्हें राक्षसों पर विजय दिलाई थी. इसी युद्ध में कैकेयी राजा दशरथ की सारथी बनी थीं. एक देवासुर संग्राम में राजा मुचुकुन्द ने भी देवताओं की सहायता की थी. वहीं, महर्षि दधीचि ने देवताओं की सहायता के लिए (अपने प्राण त्यागकर) अपनी हड्डियां दान में दे दी थीं.

देवताओं की सहायता करने और रक्षा करने से धर्म को बल मिलता है. पृथ्वीलोक पर यज्ञ-हवन-मंत्रोचारण आदि से पृथ्वी पर सकारात्मक ऊर्जा और देवताओं की शक्ति बढ़ती है. इसीलिए (हर युग में) असुर प्रकृति के लोग हमेशा से ही ऋषि-मुनियों के आश्रमों में चलने वाले यज्ञ-हवन और भगवान की पूजा-उपासना आदि में बाधा डालते हुए आए हैं. जब पृथ्वीलोक पर ऐसे वैदिक कार्य बंद हो जाते हैं, तब देवताओं की शक्तियां भी घटने लगती हैं और अधर्म को बल मिलता है.

देवताओं के लिए भी कठिन है भगवान के दर्शन

और इसीलिए जब-जब पृथ्वी पर धर्म की इस तरह हानि होती है, तब सब देवी-देवता मिलकर भगवान के पास सहायता मांगने के लिए जाते हैं. लेकिन भगवान के दर्शन करना देवताओं के लिए भी उसी तरह कठिन है, जैसे हम मनुष्यों के लिए.

जैसे- जब रावण के अत्याचारों से त्रस्त सभी देवी-देवताओं को भगवान विष्णु जीकी शरण में जाने के लिए कहा जाता है, तब वे सभी देव कहते हैं कि-

बैठे सुर सब करहिं बिचारा।
कहँ पाइअ प्रभु करिअ पुकारा॥
पुर बैकुंठ जान कह कोई।
कोउ कह पयनिधि बस प्रभु सोई॥

भावार्थ- “सब देवता बैठकर विचार करने लगे कि प्रभु को कहाँ पायें (अर्थात भगवान कहाँ रहते हैं और कहाँ मिलेंगे) ताकि उनके सामने पुकार (फरियाद) कर सकें. कोई देव बैकुंठपुरी जाने को कहता था और कोई कहता था कि प्रभु क्षीरसागर में निवास करते हैं.” (रामचरितमानस – बालकाण्ड)

लेकिन चूंकि देवताओं को वेदों का ज्ञान प्राप्त होता है, जिससे वे अपनी बात को भगवान तक पहुंचाने का मार्ग भी जान लेते हैं.

गीता १०.२ और ईशावास्य उपनिषद के अनुसार, “भगवान को इंद्र आदि देवता भी नहीं पा सके और न जान सकते हैं.”

भागवत ६.३.२९ के अनुसार, “धर्म क्या है, यह तो देवता भी नहीं जानते.”

केनोपनिषद ४.१ के अनुसार, “इंद्र! यह सारा संसार भगवान की शक्ति पर कार्य करता है. तुम्हारे पास भी भगवान की ही दी हुई शक्तियां हैं, अतः अपनी शक्तियों पर अहंकार न करो.”

तैत्तिरीय उपनिषद २.८ के अनुसार, “भगवान के डर से सभी देवता अपना-अपना कार्य करते हैं.”

देवताओं में भी होते हैं ये दोष

स्वर्गलोक का राज्य इतना वैभवशाली है कि उसकी कल्पना करना भी हम मनुष्यों के लिए बहुत कठिन है. इंद्र से उसका मद संभाला नहीं जाता. इसी मद में वे अहंकारी और लोभी भी हो जाते हैं. और लोभी व्यक्ति को हर किसी की मेहनत और तपस्या देखकर डर ही लगता है और इसी डर में वह व्यक्ति कई गलतियां कर बैठता है.

और इसीलिए मोक्ष (वैकुंठ में जगह) प्राप्त करना देवताओं के लिए बहुत कठिन है. और इसीलिए देवता भी पृथ्वी पर जन्म लेने के लिए अपनी बारी का इंतजार करते हैं. जैसा कि भगवद्गीता में लिखा है कि, “स्वर्ग में रहकर भी देवता यह प्रार्थना कर रहे हैं कि हम भी कभी भारत में जन्म लें और श्रीहरि का सानिध्य (मोक्ष) प्राप्त करें.”

वहीं, रामचरितमानस के उत्तरकाण्ड 42 में लिखा है-

बड़े भाग मानुष तनु पावा।
सुर दुर्लभ सब ग्रंथन्हि गावा॥

अर्थात-बड़े भाग्य से ही हमें यह मानव शरीर प्राप्त होता है, जो देवताओं के लिए भी दुर्लभ है. यह मानव शरीर अत्यंत महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह एक साधन की तरह है, जिसकी सहायता से हम लौकिक-पारलौकिक उन्नति कर सकते हैं.”

मोक्ष केवल मनुष्य के लिए संभव है. मोक्ष के लिए देवताओं को फिर से मनुष्य जन्म लेना पड़ता है. इसीलिए देवताओं की भी यह अभिलाषा रहती है कि मानव शरीर मिल जाए, तो हम भी समुचित साधनों के द्वारा बैकुंठ में अपनी जगह बनाने में सक्षम हो जाएं. देवयोनि तो भोग योनि है और अपने सत्कर्मों का सुख फल भोगकर देवों को फिर से स्वर्ग के इतर लोकों में जाकर अन्यान्य योनियों में भटकना पड़ता है.

देवता भी पहले मनुष्य थे, लेकिन जिन्हें अपने पुण्यकर्मों के बदले फल और नश्वर भोग-विलास की चाहत थी, उन्हें पुण्यकर्म करने के बाद देवताओं का पद मिला. जैसे हम और आप अच्छे कार्य करते हैं, पुण्यकर्म करते हैं, और चाहते हैं कि इन सबके बदले हम केवल विलासिता का जीवन पाऐं, तो हम भी इस पृथ्वीलोक से विदा होने के बाद स्वर्गलोक में अपनी जगह बना सकते हैं, लेकिन तब हम मोक्ष के अधिकारी नहीं होते.

केवल मनुष्य शरीर के द्वारा ही कर्म करके हम कुछ भी प्राप्त कर सकते हैं. यह मानव जीवन सब कुछ दे सकने का सामर्थ्य रखता है. मानव जीवन प्राप्त कर अपने स्वार्थ के लिए अपराध करना, दूसरों को कष्ट देना, भगवान की भक्ति को नजरअंदाज करना, अपने कर्तव्यों का सही चुनाव और पालन न करना… आदि अमृत के बदले विष ग्रहण करने जैसी मूर्खता है.

अप्सराएं – TV सीरियलों को देखकर या धर्म-ग्रंथों के श्लोकों का गलत अर्थ निकालकर अप्सराओं के विषय में कोई गलत धारणा न बनाएं. स्वर्गलोक की अप्सराओं का अर्थ ‘वेश्याओं’ या ‘मनोरंजन के साधन’ से नहीं होता है. अप्सराएं देवकन्याएं होती हैं, जो नृत्य-संगीत जैसी कलाओं में पारंगत होती हैं. स्वर्गलोक में इनका और इनकी कलाओं का पूरा सम्मान होता है. ये देवताओं की पत्नियां भी होती हैं, या अपनी इच्छा से पृथ्वीलोक पर किसी से भी विवाह कर उसके साथ रह सकती हैं, लेकिन मनुष्य का जन्म लिए बिना, अप्सराओं के ही रूप में ये अधिक समय तक पृथ्वी पर नहीं रह सकतीं.

Read Also –

इस ब्रह्मांड में कितने लोक हैं? बैकुंठ लोक कैसा है?

अलग-अलग लोकों की दूरी

द्वैत, अद्वैत, विशिष्‍टाद्वैत और द्वैताद्वैत क्या हैं और इनमें क्या अंतर हैं?

सनातन धर्म से जुड़े सवाल-जवाब


  • Tags : Difference between god and goddess, Difference between God and gods, insaan aur devta, bhagwan aur devta mein antar, devta kaise bante hain, ek devta aur ek manushya, मनुष्य और देवता में अंतर, भगवान और देवता में अंतर, क्या सच में देवी-देवता होते हैं, स्वर्ग में देव, इंद्र कितने होते हैं, इंद्र की पूजा क्यों नहीं होती, इंद्र का वज्र कैसे बना, स्वर्ग का रास्ता, स्वर्ग लोक दिखाइए, स्वर्ग में क्या होता है, देवताओं के रहने का स्थान

भगवान और देवी देवता में क्या अंतर है?

देवता और देव एक प्रकार से एक दूसरे के समानार्थक हो गए हैं, फिर भी व्यवहार में कुछ अंतर है। 'एक देवता' कहा जा सकता है परंतु एक देव बोलने का चलन नहीं है। देवलोक, देवगण आदि बोला जा सकता है। देव, देवता, देवी के विरोधी असुर, दैत्य, दानव जैसे नामों से पुकारे जाते हैं।

क्या सच में देवी देवता होते हैं?

कोटि शब्द को ही बोलचाल की भाषा में करोड़ में बदल दिया गया। इसीलिए मान्यता प्रचलित हो गई कि कुल 33 करोड़ देवी-देवता हैं। 33 कोटि देवी-देवताओं में आठ वसु, ग्यारह रुद्र, बारह आदित्य, इंद्र और प्रजापति शामिल हैं। कुछ शास्त्रों में इंद्र और प्रजापति के स्थान पर दो अश्विनी कुमारों को 33 कोटि देवताओं में शामिल किया गया है।

देवता शब्द का अर्थ क्या होता है?

देवता संज्ञा पुं॰ [सं॰] स्वर्ग में रहनेवाला अमर प्राणी । विशेष—वेदों में देवता से कई प्रकार के भाव लिए गए हैं । साधारणत:वेदमंत्रों के जितने विषय हैं वे देवता कहलाते हैं ।

हिंदू धर्म में सबसे बड़ा देवता कौन है?

वेद परम्परा के प्रमुख देवता.
गणेश (प्रथम पूज्य).
लक्ष्मी.
विष्णु.
सरस्वती.
दुर्गा.
इन्द्र.