पोस्ट नेविगेशनएक Show कुछ लोगों के लिए धर्म के विकल्प के बारे में सोचना भी कुफ्र हो सकता है. कुछ कहेंगे—‘घोर कलयुग!’ धर्म न रहा तो धरा कैसे टिकेगी. ऐसा कहते समय वे विज्ञान के सारे सिद्धांतों को किनारे कर देंगे. दुनिया के सारे ‘आइंस्टाइन’ और ‘स्टीफन हॉकिंग’ उनके तर्कों के आगे पानी मांगते नजर आएंगे. उनके लिए यह असंभव स्थिति है. वे मानते हैं कि धरती धर्म पर टिकी है. सृष्टि का एकमात्र कर्ता, सर्जक, पालनहार परमात्मा है. वही प्राणिमात्र को जन्म देता तथा समय आने पर वापस बुला लेता है. जीवन परमात्मा की धरोहर है. मनुष्य चाहे भी तो धर्म के बाहर नहीं जा सकता. ऐसे अतिविश्वासियों के सामने आप लाख नास्तिक होने का दावा करें, वे नहीं मानेंगे. आपकी ‘नास्ति’ को ‘आस्ति’ में बदलने के लिए वे घिसे–पिटे अनगिनत तर्क देंगे. आप माने या न माने पर वे मानकर रहेंगे कि उन्होंने आपका ‘अज्ञान’ दूर करने की भरसक कोशिश की है. ऐसा क्यों होता है? क्या धर्म सचमुच विकल्पहीन है? क्या ईश्वर के बगैर दुनिया का काम नहीं चल सकता? क्या धर्म मनुष्य की अज्ञानता की सीमा है? अगर सभी लोग एक साथ धर्म को मानने से इन्कार कर दे, तब ईश्वर क्या करेगा? क्या वह कुपित होकर सृष्टि को मेटने की ठान लेगा? या अपने लिए चापलूसों की नई दुनिया रचने में लग जाएगा? आस्थावादी यहां कह सकता है कि आदमी की क्या बिसात जो ईश्वर या उसके विश्वास को मेट सके. ईश्वर की भक्ति तो भाग्यशालियों को प्राप्त होती है. ईश्वर जिन्हें चुनता है, वही लोग भक्ति में सिद्धि प्राप्त कर पाते हैं. भक्ति कितनी हो, भक्त को समर्पण हेतु कितना और कहां तक अवसर दिया जाए, यह अधिकार भी आराध्य का है. ऐसे ईश्वर के आगे आदमी का अस्तित्व अखिल ब्रह्मांड में राई जितना भी नहीं है. आप कहते रहें कि यह सामंती सोच है. राजा को, पुरोहित को सर्वेसर्वा माननेवाली दृष्टि ही ईश्वर को सर्वेसर्वा बनाती है, ताकि उसके बहाने सामंती शक्तियां अपनी मनोरथ–सिद्धि कर सकें. सत्ता से चिपके लोगों का स्वार्थ धर्म को बनाए रखने में है. इसके लिए वे हर संभव कोशिश करते हैं. अपने लक्ष्य में प्रायः कामयाब भी होते हैं. इन सब बातों पर चर्चा बाद में, पहले यह जान लें कि धर्म आखिर है क्या? उसकी शक्ति का स्रोत क्या है? उसकी शुरुआत कब हुई? और आज के जमाने में उसका औचित्य क्या है? क्या धर्म सचमुच विकल्पहीन है? यदि नहीं तो धर्म जो सहस्राब्दियों से जीवन और समाज को अनुशासित करता आया है, का विकल्प कौन हो सकता है? इसके लिए हमें धर्म की प्रचलित परिभाषाओं से हटकर बात करनी होगी. इसलिए कि उन परिभाषाओं में स्वयं इतना घालमेल है कि उनसे धर्म की निर्विवाद छवि बन ही नहीं पाती. अपने अनुयायियों के लिए धर्म न्याय का ‘मारग’ है. ऐसा मार्ग जिसे वे स्वयं तय नहीं करते. स्वयं तय करने का उन्हें अधिकार है भी नहीं. तय करता है ईश्वर; अथवा वह पुजारी जो स्वयं को ईश्वर का प्रतिनिधि बताकर भक्त और ईश्वर के बीच अपना स्थान सदैव सुरक्षित रखता है—ऐसा वे मानते हैं. ईश्वर यानी आध्यात्मिक शक्ति. जो लोग उसकी अधिसत्ता में विश्वास रखते हैं, उसके कथित आदेश को मानते हैं—वे ईश्वर के अनुयायी हैं. ईश्वर का प्रत्यय कब गढ़ा गया, कहना कठिन है. लेकिन उसपर ज्यादा जोर दो–ढाई हजार वर्ष पहले से दिया जाने लगा था. यह वह समय था जब बड़े राज्य बनने की शुरुआत हुई. अपने साम्राज्यवादी मनसूबे साधने के लिए राजाओं को ऐसे सैनिकों की जरूरत थी, जो उनके इशारे पर खून की नदियां बहा सकें. जो परलोक की चाहत में अपने और अपने बंधु–वांधवों तक को दाव पर लगा सकें. इस तरह धर्म और राजनीति का संबंध विधिवत राजनीतिक दर्शनों के विकास से पहले का है. यह भी कह सकते हैं कि राजनीतिक दर्शन के उदय से पहले धर्म ही राजनीति की जिम्मेदारी संभालता था. हालांकि उससे भी लंबा समय ऐसा रहा है जब लोग स्वयं अपनी व्यवस्था चलाते थे. उसके लिए उन्हें न तो बाहरी शक्ति की आवश्यकता थी, न राज्य की और न ही धर्म की.1 धर्म ने जीवन में दस्तक दी तो कबीले का मुखिया बाकी जिम्मेदारियों के साथ पुरोहिताई भी संभालने लगा. यह स्थिति हजारों वर्ष तक विद्यमान रही. धर्म को आधार बनाकर राज्यों के सांगठनीकरण की शुरुआत का इतिहास हमें 3300 वर्ष पहले तक ले जाता है. मिस्र के सम्राट अखनातून की गिनती धर्म चलाने वाले सबसे पहले राजाओं में की जाती है. मात्र 15 वर्ष की अवस्था में उसने पुराने देवताओं को हटाकर नए धर्म की शुरुआत की थी. वह बहुदेववाद का समय था. प्रत्येक सभ्यता में देवताओं की मानो कतार लगी होती थी. हर कबीले का अपना देवता था. अखनातून को यह अजीब–सा लगा. आखिर ईश्वर इतना कम महत्त्वाकांक्षी कैसे हो सकता है कि छोटे–छोटे कबीलों तक सिमटकर रह जाए. उसने सूर्य को एकमात्र देवता स्वीकार किया. और लोगों से कहा कि वे उसी को अपना देवता स्वीकार करें. कबीलावासियों से उनकी आस्था छीनने का काम इतना आसान न था. अखनातून का विरोध हुआ. उसने विरोधियों से निपटना शुरू किया. इससे राज में विद्रोह फैल गया. उसे कुचलने के लिए अखनातून ने पूरी ताकत झोंक दी. जीत विरोधियों हुई. अखनातून की खंजर घोंपकर हत्या कर दी गई. बहुदेववाद फिर जीत गया. सहस्राब्दियों पश्चात जब एकेश्वरवाद का जोर चला तो अखनातून को दुबारा प्रतिष्ठा मिली. उस समय उसको मसीहा मान लिया गया. जाहिर है धर्म ने हजारों वर्ष कबीलाई संस्कृति के हिस्से के रूप में गुजारे हैं, जब प्रत्येक कबीले का स्वतंत्र देवता था. आज की तरह सबका अलग–अलग ईश्वर. अंतर बस इतना है कि अब कबीलों का आकार बढ़कर देश और समाज में ढल चुका है. ईश्वर को लेकर जिद वैसी ही है, जैसी अखनातून के समय में या उससे भी पहले रही होगी. उस समय तक जीवन के कारण की एकदम आरंभिक खोज केवल प्राकृतिक उपादानों तक सीमित थी. फिर जब लगा कि जीव ही जीव को जन्म देता है तो जीवनोत्पत्ति में सहायक अंगों को महत्त्वपूर्ण माना जाने लगा. लगभग 8000 वर्ष पुरानी मंदिरनुमा इमारत के अवशेष सीरिया बार्डर के उत्तर में, उफेरात नदी के किनारे, तुर्की में प्राप्त हुई है, जिसे ‘गोबेक्लि टेप’ नाम दिया है. तुर्की भाषा में इस शब्द युग्म का अभिप्रायः है—नाभिदार पहाड़ी. इमारत के भग्नावशेष में प्रस्तर स्तंभों पर उत्क्रीड़ित पशु–आकृतियों के अलावा स्त्री और पुरुष की नग्न आदमकद मूर्तियां भी मिली हैं. उनमें पुरुष शिश्न को उत्तेजित अवस्था में दर्शाया गया है. सिंधु घाटी की सभ्यता से भी मातृदेवी की नग्न प्रतिमाएं प्राप्त हुई हैं. शिवलिंग की पूजा आज भी भारत सहित कई देशों में खूब लोकप्रिय है. कालांतर में यही प्रतीक धर्म के हिस्से के रूप में ढलते चले गए. इस अवधि में ऐसे हजारों दार्शनिक–विचारक–संत–महात्मा हुए जिन्होंने धर्म को पुरोहितों का पाखंड बताते हुए उसका जोरदार विरोध किया. एक के बाद एक तर्क देते हुए उन्होंने ईश्वर तथा उसपर आधारित धर्म की सत्ता को चुनौती दी, उसे नकारा भी. लेकिन वे उसे पूरी तरह मेटने में असमर्थ ही रहे. क्योंकि तब तक धर्म अपने आप को पूरी तरह फैला चुका था. उत्पादन तंत्र पर उसका कब्जा था. राज्य उसे संरक्षण प्रदान करता था. आस्थावादी खुद को बदलें या अपनी राह चलें—उनकी मर्जी. वे अपने विश्वास को बनाए रखना चाहते हैं तो रखें सही–सलामत. इतिहास बताता है कि मनुष्य की भांति ईश्वर भी नश्वर है. गत तीन हजार वर्षों में जब से ईश्वर ने मानव–जीवन में हस्तक्षेप करना आरंभ किया तभी से, सामान्य जीवों की भांति ईश्वर भी मरते–खपते या रूप बदलते आए हैं. आदमी आमतौर पर साठ–सत्तर वर्ष जीता है. ईश्वर की उम्र छह–सात सौ या हजार वर्ष तक खिंच पाती है. वेदों में जो देवता थे, पौराणिक काल तक उनमें से कुछ बिसरा दिए गए थे तो कुछ का रूप बदल चुका था. करीब डेढ़ सहस्राब्दी पहले के देवताओं में से अनेक इन दिनों गायब हैं. उनकी जगह नए देवताओं ने ले ली है. पुराने देवता या तो भुला दिए गए हैं; अथवा उन्हें अप्रासंगिक मान लिया गया है. अवतारवाद का मिथक लगातार मरते–खपते देवताओं के बीच की कड़ी, प्रकारांतर में उन्हें अमर घोषित करने की स्वार्थ–साधना है. वैसे भी मानव सभ्यता के आगे ईश्वर की उम्र बहुत छोटी है. पृथ्वी पर मनुष्य का आगमन करीब दो लाख वर्ष पहले हुआ. जबकि ईश्वर और धर्म का विचार मात्र चार–पांच हजार वर्ष पुराना है. वेदों तथा अन्य प्राचीन ग्रंथों में हालांकि देवताओं का नाम आता है. लेकिन वे देवता कहीं बाहर से नहीं आए थे. प्राचीन मनुष्य अपने प्राकृतिक जुड़ाव के चलते प्राकृतिक उपादानों को ही जीवन के कारण के रूप में देखता था. इसलिए जल, वायु, प्रकाश, धरती, आकाश, वन–वनस्पति आदि के प्रति सम्मान–भाव दर्शाने के लिए उसने अपने देवताओं का नामकरण उनके अनुसार किया था. निस्संदेह, उनके नेपथ्य में मनुष्य की स्मृति में पैठे उसके पूर्वजों की छवियां भी थीं. देवताओं की आपसी लड़ाई और उसमें जय–पराजय के उल्लेख भी शास्त्रों में और प्रायः सभी संस्कृतियों में हैं. करीब दो हजार वर्ष पहले, जब से राजनीति और धर्म का गठजोड़ शुरू हुआ, उन छवियों का देवताकरण कर दिया गया था. परिणाम यह हुआ कि जो घटनाएं इस देश की, चलते–फिरते मनुष्यों के बीच घटी थीं, वे किसी दूसरे लोक की मान ली गईं. पुरा–पाषाणकाल में आदि मानवों का ईश्वर कैसा रहा होगा, उसके बारे में अनुमान लगाने के लिए हमारे पास पर्याप्त पुरातात्विक साक्ष्य हैं. तत्कालीन सभ्यता के अवशेषों से ज्ञात होता है कि उनका ईश्वर कबीले के मुखिया जैसा था, अथवा वह पशु जिसपर पूरे कबीले का जीवन निर्भर था. इस कारण वह कबीले के सदस्यों को अपना सबकुछ प्रतीत होता था. सारे निर्णय ग्रामणी या कबीला प्रमुख पंचायत में बैठकर लेता था. जब तक पशु–आधारित सभ्यता रही, तब तक उपयोगी पशु–पक्षी भी दैवी शक्ति का प्रतीक माने जाते रहे. कालांतर में जब मनुष्य ने प्रकृति पर विजय प्राप्त की तो पशु–पक्षियों की कमजोरियां सामने आने लगीं. मनुष्य और पशुओं की स्पर्धा में श्रेष्ठतम मानव–मानवियों देवी–देवता का पद दिया जाने लगा. टोटम के रूप में समाज में पहले से ही पैठ बनाए पशु–पक्षियों को नवसृजित देवताओं के साथ जोड़ दिया गया. नंदी के साथ शिव, चूहे के साथ गणेश, लक्ष्मी के साथ कमल, इंद्र के साथ वाजश्रवा, कार्तिकेय के साथ मोर आदि. यही स्थिति आज भी है. वैदिक देवता इंद्र प्राचीन आर्यों का नायक है. जिसे दक्ष योद्धा माना गया है. आगे चलकर विष्णु, ब्रह्मा, शिव और तदनंतर राम, कृष्ण आदि की कल्पना की गई तो परंपरा के अनुसरण में नए देवताओं को भी अस्त्र–शस्त्र से सुसज्जित किया गया. यहां एक सवाल उठ सकता है—ईस्वी सन के बाद ईसाई धर्म और इस्लाम के जो पैगंबर आए, उनमें से एक के हाथ में भी हथियार नहीं है. भारत में भी सिख, आर्य समाज आदि कई ऐसे धर्म हैं, जिनके प्रवर्त्तक बिना किसी हथियार के अपने–अपने समाजों में पूज्य हैं. फिर हिंदू देवी–देवताओं को ही अस्त्र–शस्त्र के साथ क्यों दिखाया जाता है. पहला कारण तो यही है कि हिंदू देवी–देवताओं ने अपनी मूल छवियां वैदिक साहित्य से ग्रहण की हैं, जो असल में आर्यों के विजय–अभियान की स्मृतियां हैं. दूसरा कारण पराजय–ग्रंथि. छोटे–छोटे जाति–समूहों में बंटा भारतीय समाज विदेशी आक्रामकों के आगे कमजोर सिद्ध हुआ है. ऐसे में रक्षा का मामला देवताओं भरोसे छोड़ना ही था. इसके लिए उन्हें हथियार थमाना भी जरूरी लगा होगा. हम भारतीय गर्व कर सकते हैं कि हमने अपनी प्रस्तरकालीन और कांस्ययुगीन संस्कृति यहां तक कि देवताओं को भी अभी तक जीवित रखा है. जबकि इसी युग में जन्मी अन्य संस्कृतियां यूनान, रोम, ईजिप्ट आदि या तो तबाह कर दी गईं; अथवा हमलावर का धर्म स्वीकारने के बाद वहां के लोगों की पुराने देवताओं की याद प्राचीन ग्रंथों और गाथाओं तक सिमट चुकी है. उस समय हम प्रायः भूल जाते हैं कि इस अतीत–व्यामोह की कीमत हमें मौलिक ज्ञान की अपनी ही परंपरा से कटकर चुकानी पड़ी है. वेदों में अनार्यों और आर्यों के बीच संघर्ष का उल्लेख मिलता है. पुराणों तक आते–आते आर्य और अनार्य क्रमशः देवता और दानव में बदल चुके थे. इस तरह के संघर्ष प्रायः सभी प्राचीन संस्कृतियों में हैं. संस्कृति को सुर–असुर, देवता–दानव का युद्ध दिखाना केवल इतिहास का हिस्सा नहीं है, इसके पीछे संस्कृतियों का द्वंद्व भी सम्मिलित है. जिसमें आश्चर्यजनक समानता है—
यही नहीं, प्राचीन मिस्र और पर्शिया की संस्कृति तथा भारतीय संस्कृति के बीच भी काफी समानता है. लेकिन जाति प्रथा एक ऐसी विशेषता है जो उसे बाकी संस्कृतियों से अलग करती थी. इतिहास साक्षी है, धर्म का उदय भले ही आध्यात्मिक जिज्ञासा के कारण हुआ हो, परंतु धर्म का अनुसरण करने वालों का कोई स्वतंत्र आध्यात्मिक नजरिया नहीं होता. वे महज अनुसरणकर्ता होते हंै. बल्कि स्वतंत्र आध्यात्मिक बोध का अभाव ही उन्हें धर्म की शरण में ले जाता है. थे. परंपरा में भी जिन लोगों का स्वतंत्र आध्यात्मिक नजरिया था, वे मुनि या दार्शनिक के रूप में जाने जाते थे. राज्याश्रय में रहने वाले ऋषियों की अपेक्षा जंगलों में आश्रम बनाकर रहनेवाले इन श्रमण मुनियों का समाज में अधिक सम्मान था. यह धर्म पर अध्यात्म की, आस्था पर बौद्धिकता की जीत थी. राजा दशरथ दरबार में पधारे विश्वामित्र का प्रतिकार नहीं कर पाते. महाभारत में भी युधिष्ठिर सहित राज्याश्रय में रहने वाले पुरोहितों को दुर्वासा के आगे झुकते हुए दिखाया गया है. यह दिखाता है कि उस समय तक समाज में बौद्धकिता का मूल्य था. वैचारिक प्रतिद्वंद्वियों के बीच शास्त्रार्थ आम बात थी. अपवादों को छोड़ दिया जाए तो धार्मिक अनुयायी अपनी आस्था और विश्वास के प्रति कट्टर हुआ करते थे. बावजूद इसके राज्य पर उनका प्रभाव था. राजसत्ता को भी ऐसे ही लोगों की जरूरत थी. इसलिए वे सिद्धांत से अधिक व्यवहार पर जोर देते थे. ऐसे लोग ही राज्य के प्रति भरोसमंद रह सकते थे. इससे समाज में सिद्धांत और व्यवहार के बीच दूरी बनने का सिलसिला आरंभ हुआ. श्रम–विभाजन समाज की आवश्यकता थी. उसको समाज की विभिन्न जरूरतों के साथ–साथ लोगों की रुचि एवं योग्यता के अनुसार लागू किया गया. सिद्धांत और व्यवहार में पनप रही दूरी का दुष्परिणाम यह हुआ कि सत्ता और सत्ता–केंद्र से जुड़े लोग बाकी जनसमुदाय के मन में यह धारणा पैदा करने में सफल रहे कि योग्यता और प्रतिभा जन्मजात होती हैं. पुरोहितों ने खास तौर पर समाज में शासक और शासित, विशेष और साधारण का भेद पैदा करना आरंभ किया. उससे यह धारणा भी बनने लगी कि विचार करना विशिष्ट लोगों का कर्म है. जनसाधारण का कर्तव्य धर्म का पालन, यदि वहां कोई राह दिखाई न दे तो महान लोगों का अनुसरण करना है—
‘जब तर्क से कोई न्याय संगत बात दिखाई न दे. श्रुतियां अलग–अलग रास्ते बताती हों. ऋषि–मुनियों के अलग–अलग मत हों. धर्मतत्व अत्यंत गूढ़ हो, और उससे कोई मार्ग नजर न आए, ऐसे में जिस रास्ते सिद्ध पुरुष जाएं, वही उत्तम है.’ जाति आधारित व्यवस्था में इसका सामान्यीकरण बौद्धिक और शारीरिक कार्य के विभाजन के रूप में किया गया. लोगों के मानस मंे यह बात बिठा दी गई कि सोचना–विचार तथा व्यवस्था का नेतृत्व जैसे कार्य केवल ब्राह्मण कर सकते हैं. इस क्रम में शूद्रों का कार्य केवल शीर्षस्थ वर्गों की सेवा करना निर्धारित किया गया. इससे सामाजिक स्थायी विभाजन, विशेषकर इस धारणा को कि बौद्धिक श्रम, शारीरिक श्रम से श्रेष्ठ है—मजबूत आधार मिला. प्रकारांतर में उसने समाज में अनेक दरारें भी पैदा कीं. आगे चलकर समाज जैसे–जैसे परिपक्व हुआ, राजनीति शक्ति की धुरी बनने लगी. राजा पहले अपने राज्य की सुरक्षा के लिए कर लेता था. प्रजाहित उसके प्रत्येक निर्णय की धुरी रहता था. केंद्र शक्तिशाली हुआ तो राज्य और उसके आसपास के लोग सत्ता को अपना विशेषाधिकार मानने लगे. कल्याण की परिभाषाएं जिन्हें लोकहित से तय होना था, वे राज्य की मर्जी से तय की जाने लगीं. विकास मुट्ठी–भर अभिजात्यों तक सिमट गया. राजसत्ता का अभिप्राय सुख–वैभव का जीवन जीना, प्रजा से कर उगाहना–भर रह गया. यह एक प्रकार से राजधर्म की अवहेलना ही थी. उस व्यवस्था का अपमान था जो धर्म के नैतिक पक्ष को आगे बढ़ाने का नारा देते हुए, सर्वकल्याण के लक्ष्य के साथ सत्ता में आई थी. प्रजा का अब भी मानना था कि वह राजा को बना सकती है, वही उसे चुनती है. राजा भी प्रजा के विद्रोह से डरता था. ऐसे में प्रजा और राजा के बीच में कड़ी के रूप में उदय हुए पुरोहित वर्ग ने अपने जन्म के साथ ही राजा के दिल में यह बोध पैदा करना आरंभ कर दिया कि वह जनता से कर लेने को अधिकृत है. इसके लिए शास्त्रीय व्यवस्थाएं भी की गईं. मनुस्मृति में लिखा गया कि समस्त धन–संपदा तथा उसके अलावा पृथ्वी पर जितनी भी भोग्य वस्तुएं हैं, ब्राह्मण उन सभी का स्वामी है. राजा उस धन–संपदा का रक्षक है. इस तरह संपत्ति का अधिकार जनसाधारण के हाथों से खिसककर ब्राह्मणों के हाथों में चला गया. उस व्यवस्था के पीछे संभव है मनु का सोचना रहा हो कि ज्ञान के अर्जन–उपार्जन में लीन ब्राह्मण अपरिग्रही, निर्लोभी और संतोषी सिद्ध होंगे. वे समाज की संपदा का उपयोग व्यापक लोककल्याण के निमित्त करेंगे. लेकिन जाति–आधारित विभाजन ने सारे सोच का ही कबाड़ा कर दिया. उल्लेखनीय है कि श्रम–विभाजन का विचार मनु का मौलिक विचार नहीं था. न ही यह केवल भारत तक सीमित था. ‘रिपब्लिक’ में प्लेटो ने भी लोगों को उनकी रुचि, योग्यता के अनुसार स्वर्ण, रजत और लौह वर्गों में बांटा था. लेकिन इसके साथ–साथ उसने बालक की जन्म–संबंधी पहचान छिपाने की अनुशंसा भी की थी. उसने व्यवस्था की थी कि बालक का पालन–पोषण राज्य के आश्रय में, माता–पिता से दूर रखकर इस प्रकार किया जाना चाहिए कि उनकी पैत्रिक पहचान छिपी रहे. जातीय आधारित विभाजन का विचार मनु का अपना था. उससे आगे चलकर सामाजिक विभाजन को मजबूत आधार दिया, ऐसा कि शूद्र वर्ग पीढ़ी–दर–पीढ़ी शीर्षस्थ वर्गों का दास बनता चला गया. संपत्ति के उत्तराधिकार की भांति, ज्ञान के उत्तराधिकार को मान्यता देना उस समय के बुद्धिजीवी वर्ग की बहुत बड़ी भूल थी, जिसके पीछे उसके वर्गीय हित, सत्ता से चिपके रहने की लालसा और स्वार्थ छिपे थे. अजीब बात है कि एक ओर तो ब्राह्मण को समस्त मायावी प्रलोभनों से परे, ज्ञान साधना में रत दिखाया जाता था, वह घोषित अपरिग्रही था, दूसरी ओर उसे पृथ्वी की भोग्य वस्तुओं का स्वामित्व सौंपा गया था. यदि यह माना जाए कि ब्राह्मण को भोग्य वस्तुओं का स्वामी ब्रह्मा की ओर से बनाया गया था, तो ब्राह्मणों का यह दावा पूरी तरह अर्थहीन हो जाता है कि वे धरती के समस्त ज्ञान के एकमात्र प्रस्तोता, अन्वेषक और अधिकारी रहे हैं, यही उनका कार्य है. क्योंकि उन्हें तो ब्रह्मा की ओर से पृथ्वी की धन–संपदा जिसमें विलासिता की सभी वस्तुएं भी सम्मिलित हैं, की देखभाल की जिम्मेदारी भी सौंपी गई है. संरक्षक संरक्षित सामग्री का उपभोग न करे, यह असंभव है. जातिवादी विभाजन का कलंक केवल मनुष्यों तक सीमित नहीं था. देवता भी उससे लिसड़े हुए थे. जाति–आधारित विभाजन का दुष्प्रभाव यह भी रहा कि देश में योग्य सैनिकों की कमी से हमेशा जूझता रहा है. ऊपर से आपस की फूट. खुद रकम खर्च करके पड़ोसी राजा को ठिकाने लगवाना. उससे भी बस न चले तो विदेशियों की मदद लेना, उस समय आम बात थी. जब अपनों पर भरोसा न हो, राज्यकर्मी षड्यंत्र में लगे रहते हों, तो सत्ता को बचाने के लिए किसी चमत्कार का ही सहारा था. सच तो यह है कि भारतीय समाज का प्रभुवर्ग समाजार्थिक और राजनीतिक स्वतंत्रता के नाम पर खुद अभय लेकर शोषण के लिए बाकी प्रजा को आगे कर देता था. भारत पहुंचे हमलावर चाहे मंगोल रहे हों, चाहे तुर्क, डच या अंग्रेज, सभी का प्रथम उद्देश्य यहां कि अतुलनीय धन–संपदा को हड़पना था. जनविद्रोह की संभावना को टालने के लिए विदेशी शक्तियां इस देश के प्रभुवर्ग को आवश्यक सुविधाएं प्रदान कर, शताब्दियों तक राज करती रहीं. इससे जनता का मनोबल गिरना ही था. धर्म के नाम पर ये सामाजिक विकृतियां शुरू से ही प्रभावी थीं. या यूं कहें कि सामाजिक विकृतियों से धर्म का नाता उसके जन्म से है. ऐसा इसलिए हुआ कि धर्म को उसके आरंभ से ही शक्तिकेंद्र और शक्ति प्रत्याशा के रूप में पहचाना जाने लगा था. उसका उदय चाहे जिन कारणों से हुआ हो, लेकिन उसके विकास, राजसत्ता द्वारा धर्म की महत्ता की स्वीकारने के पीछे मनुष्य की आध्यात्मिक जिज्ञासा जैसा कोई मानवोपयोगी ध्येय न होकर, राजसत्ता की मनमानियों को शास्त्रीय आधार देने की सोची–समझी चाल थी. ऋषि–मुनियों का कोप असल में इसी धर्म–सत्ता का कोप था. जिसके बल पर वह अपने निरंकुश आचरण को वैध बता सकती थी. इसके उदाहरण पूरब और पश्चिम में अनगिनत हैं. प्राचीन यूनान में सोफिस्टों का धर्म, वैदिक धर्म की भांति दिखावे में विश्वास करता था. भारतीय पंडितों की भांति वे भी दिखावे की संस्कृति में विश्वास रखते थे. मानते थे कि शास्त्रार्थ में प्रतिद्विंद्वी को पराजित करना, अपनी वकृत्वकला से लोगों को बस में कर लेना ही बौद्धिकता का मूल उद्देश्य है. सोफिस्टों को चुनौती देने की पहल सुकरात की ओर से की गई थी. जबकि भारत में धर्म के नाम पर निरर्थक कर्मकांड और आडंबरों को चुनौती देने का कार्य कई दिशाओं से, महावीर स्वामी, गौतम बुद्ध, मक्खलि घोषाल, अजित केशकंबली आदि के माध्यम से संपन्न हुआ था. उसमें सर्वाधिक सफलता गौतम बुद्ध को मिली. उन्होंने कर्मकांड, जाति प्रथा, बलि आदि पर रोक लगाते हुए मानव कल्याण को समर्पित समानता आधारित बौद्ध दर्शन की नींव रही. उसके प्रभाव में भारत में ब्राह्मण धर्म शताब्दियों के लिए नेपथ्य में चला गया. जिसे भारत का स्वर्ण काल माना है, वह असल में वही दौर था. जब धर्म का प्रभाव नैतिक मार्ग दर्शन के अलावा न्यूनतम था. राजनीति कल्याण नीति का पर्याय मानी जाती थी. पश्चिम में धर्म को संगठित रूप मुख्यतः जीसस के बाद दिखाई पड़ता है. हालांकि जीसस के जीवनकाल में उस समय के सत्तानशीनों ने उनके विचारों का न केवल मजाक उड़ाया था, बल्कि उनकी अवहेलना और हत्या तक की गई थी. जीसस के विचारों में कोई विशेष दार्शनिक चिंतन नहीं था, मगर नैतिक मूल्य प्रबल थे. इसे हम अध्यात्म में नैतिकता का समायोजन कह सकते हैं. अपने उपदेशों में जीसस ने प्राणिमात्र के प्रति दया, करुणा, मैत्री और परोपकार पर जोर दिया था. दिखावे और कुलीनता की संस्कृति के बीच यही गुण उन्हें स्वीकार्य बनाते थे. जीसस ने धर्म और सामाजिकता के बीच की नैतिक दूरी को पाटने का काम किया था. भारतीय संत–कवियों की भांति जीसस ने भी आर्थिक पक्ष को गौण माना था. नैतिकता को आर्थिक उपलब्धियों पर वरीयता देते हुए उन्होंने कहा था—‘हाथी सुई की नोक से गुजर सकता है. लेकिन धनपति स्वर्ग के दरवाजे से नहीं.’—वे धनपतियों को संदेश देना चाहते थे कि वे अपना धन कल्याणकारी कार्यों में लगाएं. दीन–दुखी, अभावग्रस्त और जरूरतमंद लोगों की यथासंभव मदद करें. उनके उपदेशों का स्वर करुणामूलक था. जो समाज के उत्पीड़ित, दमित जन को इंसान के रूप में देखने की प्रेरणा देता था. इसलिए विपन्न, दास और अभावग्रस्त वर्ग के लोग, जिन्हें समाज में बहुत ज्यादा की कामना नहीं थी. जो विपन्नता और दासता को अपनी नियति मान चुके थे, जो अपने लिए केवल सहानुभूति की दरकार रखते थे, वे सब जीसस के आसपास जुटते गए. इस कारण उनके शिष्यों का दायरा लगातार बढ़ता गया. जीसस की लोकप्रियता की बात तो समझ में आती है. लेकिन क्या कारण थे कि उनके जीवन काल में उनकी जान के दुश्मन, उन्हें तरह–तरह से उत्पीड़ित करने और अंततः सूली पर चढ़ानेवाले तत्कालीन जमींदार और सामंतों ने आगे चलकर उन्हें पैगंबर के रूप में मान्यता दी? क्या यह उनका हृदय परिवर्तन था? क्या जीसस में सचमुच कोई दैवीय तत्व रहा होगा या कुछ ऐसे कारण भी थे जिनके कारण जीसस स्वर्ग के राज से अधिक इस लोक में सत्ता सुरक्षित करने में सहायक हो सकते थे? यदि दर्शन की दृष्टि से देखा जाए तो जीसस, सुकरात, प्लेटो, अरस्तु, पाइथागोरेस, डेमोक्रिटिस, पेरामीनिडिस, जीनो आदि में से किसी के भी बराबर नहीं ठहरते. ये सब उनसे चार–पांच शताब्दी पहले जन्मे थे. उन सभी को दरकिनार कर जीसस को पैगंबर माना गया गया. जबकि सत्य के लिए खुशी–खुशी जहर पीने वाले सुकरात को केवल एक सनकी दार्शनिक होने से संतोष करना पड़ा. फिर क्या कारण है कि इतिहास के एक कालखंड में जो लोग जीसस के उपदेशों से चिढ़कर उन्हें सूली पर चढ़ा देते हैं, वही लोग डेढ़ शतादी पश्चात बाइबिल की आलोचना करने पर जियोदार्नो ब्रूनो को आग में जिंदा झोंक देते हैं. ध्यान से देखें तो जीसस को सूली पर चढ़ाने वाली तथा ब्रूनो को जिंदा जलाने वाली शक्तियां एक जैसी थीं. दोनों में कोई अंतर न था, सिवाय समय और परिस्थितियों के. ऐसा क्यों हुआ? इसे समझने के लिए केवल एक शताब्दी ईसा पूर्व के इतिहास की पर्तों में झांकना पड़ेगा. उस दास संघर्ष को याद करना होगा, जिसका सूत्रधार स्पार्टकस था. जिसके नेतृत्व में रोम की महाबली सेनाओं को मुंह की खानी पड़ी थी. यदि उस समय पर्शिया जैसे राज्यों की सेनाएं रोम की मदद को न आतीं तथा दासों को कुचलने के लिए यूरोप की पूरी अभिजात शक्तियां एकजुट न होतीं तो रोम नामक वह कथित महाबली साम्राज्य, एक दास योद्धा के हाथों पराजित हो चुका होता और दुनिया को दास प्रथा के खात्मे के लिए अब्राह्मम लिंकन की प्रतीक्षा न करनी पड़ती. यह हमारे ज्ञात इतिहास का हिस्सा है कि रोम, पर्शिया, स्पार्टा सहित उस समय के सभी यूनानी राज्यों में दास प्रथा थी. कुलीन वर्ग दासों को आवश्यक मानते था. यहां तक कि सुकरात, प्लेटो, अरस्तु जैसे विचारकों ने भी दासप्रथा का समर्थन किया था. तब दासों को जानवरों से भी बदतर समझा जाता था. उनकी जिंदगी उनके स्वामी की होती थी. मालिक यदि मार–मार कर चमड़ी भी उधेड़ तो उस को किसी अदालत में मुकदमा करने का अधिकार न था. रोम का वैभव उतार पर था. अतीतमोह में जी रहे रोमनवासियों के लिए दासों का जानलेवा युद्ध मनोरंजक खेल में शुमार था. उसमें एक दास योद्धा को दूसरे योद्धा, जिसे ‘ग्लेडियेटर’ कहा जाता था, पर उस समय तक प्रहार करना होता था. जब तक दूसरा मर या पूरी तरह बेहोश न हो जाए. युद्ध में भाग लेने से इन्कार राज्यादेश की अवहेलना करना था. उसका एकमात्र दंड था, मृत्यु. उसके लिए उन्हें किसी राजाज्ञा की आवश्यकता न थी. स्वामी अधीन दासों को स्वयं दंडित कर सकता था. महान दास योद्धा स्पार्टकस रोम के थ्रेशिया शहर में जनमा था. दास योद्धाओं को संगठित कर उसने न केवल उनके स्वाभिमान की लड़ाई लड़ी, बल्कि अपने अद्भुत रणकौशल के बल पर वह रोम तथा उसकी सहायक सेनाओं को हार का मजा चखाने में भी कामयाब रहा था. आगे चलकर संगठित सेनाओं ने स्पार्टकस को हराकर फिर अपना वर्चस्व कायम कर लिया था. स्पार्टकस सहित उसके छह हजार दास योद्धाओं को एक साथ सूली पर चढ़ा दिया गया. उस घटना के बाद सत्ताधारी वर्ग के दिमाग में यह बात भली–भांति बैठ गई कि केवल ताकत के बल पर लोगों को दास बनाए रखना असंभव होगा. इसलिए अगले चरण के रूप में धार्मिक दासता की परिकल्पना की गई. अवसर ईसा मसीह के उपदेशों के प्रति जनसाधारण की आस्था के रूप में सहसा उनके हाथ आ लगा था. स्पार्टकस की सेनाओं की पराजय के साथ दासों की मुक्ति की उम्मीद टूट चुकी थी. वे पूरी तरह हताश हो चुके थे. उन्हें यह लगने लगा था कि इस जीवन में मुक्ति असंभव है. अतः स्पार्टकस के बलिदान के 70 वर्ष पश्चात जब जीसस ने उन्हें मोक्ष का सपना दिखाया तो वे उनके अनुयायी बनते गए. आगे चलकर जीसस को मसीहा के रूप में सम्मान मिला. स्वयं जीसस ने खुद को परमात्मा का पुत्र बताकर इस धारणा को पुष्ट बनाने में योगदान दिया. उन्होंने उन दासों को अपना मानकर गले लगाया, जो दुत्कार सहते आए थे. मामूली–सी बात पर जिनका स्वामी हंटर से खाल उधेड़ देता था. ऐसे ही पद–दलित इंसानों को जीसस गले लगा रहे थे. उनके लिए अमीर–गरीब, दास और स्वामी सभी बराबर थे. उनका पूरा संघर्ष गरीब और सताए हुए लोगों के लिए था. इसलिए उनकी ओर दासवर्ग का आकृष्ट होना स्वाभाविक ही था. अस्मिता की लड़ाई हार चुके दास वर्ग का, हताशा से जन्मा समर्पण था, मगर था स्वाभाविक. फलस्वरूप जीसस का आभामंडल बढ़ता गया. ईसा मसीह की शरण में दासों का आना उनकी अस्मिता की खोज से जुड़ा था. वहां आध्यात्म का मसला उतना बड़ा नहीं था. बाइबिल में वैसे दार्शनिक सवाल–जवाब भी नहीं हैं, जैसे भारतीय उपनिषदों में उठाए जाते रहे हैं. या ईसा से छह–सात सौ वर्ष पहले से यूनानी दार्शनिक जिनपर विचार करते आए थे. उसमें सामान्य नैतिकता, आचरण की शुद्धता तथा गरीब–पीड़ित जनों के प्रति करुणा–भाव है. आरंभ में अभिजात वर्ग की निगाह में जीसस महज एक भेड़ चराने वाले गड़हरिया थे. वे उनसे ईष्र्या करते थे, उन्हें लगता था कि जीसस दासों को सिर चढ़ा रहे हैं. दासों का सहयोगी मानकर आरंभ में उनपर भी खूब अत्याचार किए गए. स्पार्टकस की पराजय के बाद उसके छह हजार सहयोगियों को एक साथ सूली पर चढ़ा देना उनके लिए शौर्य की बात थी. जीसस के विरोधियों ने सोचा था कि असहाय और विपन्न लोग जीसस की सूली को भी पचा जाएंगे. वे शायद नहीं जानते थे कि आजादी की पहली दस्तक, आजादी की घोषणा नहीं, उसका एहसास लेकर आता है. गुलाम जिस क्षण जान ले कि वह गुलाम है, तत्क्षण उसकी आजादी का अभियान शुरू हो जाता है. अपने अनुयायियों को जीसस ने बताया था कि वे भी इंसान हैं. और इंसान होने के नाते वे दूसरों के बराबर हैं. यह बड़ा सपना था. फलस्वरूप असहाय, अकुलीन और विपन्न वर्ग जीसस की ओर खिंचता चला गया. एक दिन वह इतना बढ़ गया कि उसके आगे सल्तनत का आकार घटने लगा. बुद्धिजीवियों, दार्शनिकों ने जब यह देखा कि एक अहिंसक, समर्पित भीड़ जीसस के चारों और जमा है जिसे न भूख की चिंता है, न ही प्यास की. जो अपनी सांसारिक इच्छाओं को मार चुकी है….पर यह सोचकर संतुष्ट है कि आने वाला जीवन उसकी मनोकांक्षाओं को पूरा करने वाला होगा. इस जन्म के कष्ट आनेवाले जीवन में उपहार बन जाएंगे. और जीसस के बोल उन्हें बीन की धुन जैसी सम्मोहन से बांध लेते हैं, तब उन्होंने धर्म को ही अपनी सत्ता का रक्षा–कवच बनाने का निर्णय किया. सत्ता–शिखर पर विराजमान लोग धर्म की कमजोरियों और जनमानस पर उसके प्रभाव को समझते थे. जानते थे कि उसके नाम पर लोगों को आसानी से फुसलाया जा सकता है. उसके सपनों और आकांक्षाओं का इस तरह अनुकूलन किया जा सकता है कि उनका ध्यान वास्तविक जरूरतों से पूरी तरह से हट जाए. स्पार्टकस ने अपने गुलाम साथियों में हथियार उठाने का हौसला पैदा किया था. जीसस के अनुयायी निहत्थे थे. स्पार्टकस और उसके साथियों के लिए मुक्ति इसी जीवन का स्वप्न थी. ईसा के अनुयायी परमात्मा से मुक्ति की आस लगाए थे. अंततः हताशा में उमड़ी श्रद्धा मार्गदर्शक बनी. अंध–समर्पण को ही मुक्ति पथ मान लिया गया. धर्म के नाम से सम्मोहित, निहत्थे लोगों की वह भीड़ सत्तानशीनों के बहुत काम की थी. धर्म के नाम पर उस भीड़ से वे बेगार ले सकते थे. सिर्फ पेट–भर रोटी देकर, गुलामी करा सकते हैं. युद्ध में दुश्मन के प्रारंभिक प्रहारों को झेलने के लिए भीड़, जिसमें मुख्यतः दास थे, को युद्ध के मोर्चे पर ठेला जा सकता था. रोजी–रोटी के संघर्ष में करुणामय जीवन जीने वाले दासों के बहुत बड़े सपने भी नहीं थे. उनकी आंखों को बड़े सपने देखने का अभ्यास भी कहां था. सिवाय पारलौलिक सुख के बहाने, जिसके बारे में विश्वास के साथ कुछ भी कह पाना असंभव था. इसके बावजूद धर्म का प्रलोभन इतना बड़ा था कि आदमी अपना सबकुछ लुटा–गंवाकर अपनी बंधुआ–सी जिंदगी को सिर्फ इस प्रत्याशा में बिता देता था कि इस जन्म में बोए गए कष्ट के बीज अगले जन्म में अक्षय सुखामोद की फसल के रूप में प्राप्त होंगे. कुल मिलाकर वह धर्म के बहाने आदमी के दिमाग को कैद करने का जाना–पहचाना षड्यंत्र था. अपने इसी गुण के कारण धर्म राजनीति का सबसे कारगर हथियार बना. धर्मसत्ता और राजसत्ता का गठजोड़ लगातार मजबूत होता गया. इस वर्ग ने हमेशा अपने स्वार्थ को आगे रखा. इसलिए जो राजनीति कभी जीसस से चिढ़ती थी, बदली परिस्थितियों में वह जीसस को ‘अपना’ मानकर उसके आलोचकों पर कहर ढा रही थी. धर्म का गठन और उसकी संरचना पुरोहितों ने बड़ी चतुराईपूर्वक की थी. प्रकट में वह आमजन का हितैषी, उसका कल्याण करने वाला, समाज में मनुष्यता और स्नेह का संचार करने वाला माना जाता था. लेकिन दूसरी ओर धर्म ही था, जो सामाजिक ऊंच–नीच का समर्थन कर उसको वैध ठहराता था. वह मुट्ठी–भर लोगों को ‘विशेष’ बताकर बाकी को ‘सामान्य’ वर्ग में ढकेल देता था. हिंदू धर्म के सजे–धजे, स्वर्णाभूषण मंडित, खिले–खिले, दिव्य चेहरों वाले देवी–देवता खासजन का ही प्रतिनिधित्व करते हैं. जनसाधारण के भूख से पिचके, मेहनत से झुर्राये तथा निराशा से पथराए चेहरों को देखते हुए वे देवता के नाम पर मजाक लगते थे. वह भक्त और देवता के बीच स्पष्ट आर्थिक–सामाजिक विभाजन को दर्शाते थे. इस तरह धर्म ने आर्थिक स्तरीकरण को वैधता प्रदान की. राजा–सामंतों को जो दूसरों के श्रम पर जीते थे, उन्हें देवता या देव–प्रतिनिधि घोषित करने का काम पुरोहितों–पंडितों ने संभाला. नतीजा यह हुआ कि जनसाधारण ने समाजार्थिक विभाजन को अपनी नियति स्वीकार कर लिया. समाज का गरीब, उत्पीड़ित, असहाय, सुविधा–वंचित, मेहनतकश वर्ग आत्महीनता का शिकार होने लगा. हताशा इतनी बढ़ी कि उस वर्ग ने उत्पीड़न और विपन्नता को ही अपनी नियति मान लिया. इस जन्म में कोई उम्मीद न देख, समस्या के मूल कारणों की ओर से मुंह फेरकर वह काल्पनिक स्वर्ग की प्रत्याशा में जीने लगा. जीवन में धर्म के प्रभाव को दो भागों में बांटा जा सकता है. एक वह जो संबंधित व्यक्ति के विश्वास और जीवन प्रक्रिया को तय करता है. दूसरा वह जो व्यक्ति और समाज के संबंधों का नियंत्रण कर उसके और समाज के बीच व्यवहार का हिस्सा बनता है. व्यक्तिगत और सामूहिक रूप में धर्म आध्यात्मिक विश्वासों को व्यक्त करता है. बताता है कि व्यक्ति अथवा या समूह विशेष की आध्यात्मिक जिज्ञासाएं कहां आकर ठहरी हुई हैं. धर्म की नींव जीवन के कारण की खोज के रूप में रखी जाती है. बावजूद इसके सामान्य व्यवहार में वह कुछ कर्मकांडों और प्रदर्शन तक सीमित होकर रह जाता है. वह जीवन–यात्रा की सिद्धि उस रूप में देखने लगता है, जिसका उसके अपने या अपने समाज के वास्तविक कल्याण से कोई नाता नहीं होता. लेकिन यह करते हुए वह अपने दुख के कारणों से भी दूर निकल जाता है. स्वार्थी शक्तियां लगातार यह समझाने में लगी रहती हैं कि भौतिक सुख मानव जीवन के वास्तविक लक्ष्यों की सिद्धि में बाधक तथा उसे परम लक्ष्य से भटकाने वाले हैं. दूसरी ओर यही धार्मिक शक्तियां पूंजीपतियों और धन्ना सेठों का महिमा मंडन करती हैं, जो लूट और काली कमाई का एक हिस्सा दान और जकात के बदले धर्म के नाम पर उन्हें लुटाते रहते हैं. निहित स्वार्थवश ऐसे लोगों को धर्मात्मा, महासेठ, महादानी जैसी उपाधियां लुटाई जाती हैं. यह न केवल उनकी लूट को, बल्कि बेहिसाब मुनाफे की प्रवृत्ति और उनके एकाधिकारवाद को स्वीकार्य एवं न्यायसंगत बनाता है, बल्कि दमित वर्ग को शोषक व्यवस्था के साथ अनुकूलन करने के लिए विवश करता है. विषमताओं में जीने का अभ्यास होते ही बदलाव की इच्छा घट जाती है. आदमी भविष्य की ओर से उदासीन होकर, केवल वर्तमान में जीने लगता है. प्रकारांतर में धर्म अकर्मण्यता और परजीविता को बढ़ावा देता है, जिससे एक वर्ग दूसरे की मेहनत पर जीवनयापन करने लगता है. पराङमुखता किसी एक धर्म का लक्षण नहीं है. किसी न किसी रूप में यह सभी धर्मों की विशेषता है. यही समाजार्थिक विभाजन का असली कारण है. हिंदू धर्म की अतिरिक्त कमजोरी उसके समाज का जाति–आधारित विभाजन है. हालांकि इसके लिए साधारणजन भी सर्वथा निर्दोष नहीं है. आम जन की कमजोरी है कि वह ज्ञान के उत्तराधिकार और संपत्ति के उत्तराधिकार में कोई फर्क नहीं कर पाता. जाति–व्यवस्था से अनुकूलित व्यक्ति यह मान लेता है कि ब्राह्मण के बेटे में ब्राह्मण बनने का नैसर्गिक गुण है तथा राजमिस्त्री का बेटा केवल बेहतर राजमिस्त्री बन सकता है. इसलिए दोनों को एक–दूसरे के कार्यक्षेत्र में हस्तक्षेप से बचना चाहिए. ऐसे सोच से ही जातीय विभाजन को स्थायित्व प्राप्त होता है. हम जानते हैं कि ज्ञान का उत्तराधिकार संपत्ति के उत्तराधिकार जितना सरल और स्वाभाविक नहीं होता. ज्ञान के जाति–अनुसार उत्तराधिकार की परंपरा में मूल–भूत दोष यह है कि वह ज्ञान और भौतिक वस्तुओं के अंतरण में भेद नहीं कर पाती. मान लेती है कि केवल परिवार विशेष में जन्म ले लेने के कारण बाह्मण का बेटा अपने पिता की सभी खूबियों को प्राप्त करेगा और एक शूद्र की नियति केवल सेवाकर्म है. यह मनुष्य की नैसर्गिक विशेषताओं तथा उसकी मूलभूत स्वतंत्रता का निषेध करती है. व्यक्ति से चयन का अधिकार छीनकर यह उसे बौद्धिक अपंगता की ओर ले जाती है. परिणामस्वरूप व्यक्ति को अपनी रुचि के प्रतिकूल कार्यों में जुटना पड़ता है. ऐसे में वह अनमने भाव से सामाजिक दायित्वों का निर्वाह करता है. जिसका नकारात्मक प्रभाव उसकी उत्पादकता पर पड़ता है. सांस्कृतिक आधार पर समाज के स्तरीकरण का लाभ उठाकर शीर्षस्थ पदों पर गैर प्रतिभाशाली लोग आरूढ़ होने लगते हैं. धर्म–दर्शन के मामले में यही हुआ था. परिणामस्वरूप मौलिक ज्ञान के सृजन और प्रसार–प्रचार में गिरावट आने लगी. नए ज्ञान के शोध और प्रसार की अपेक्षा अनुसरण को महत्त्व देने से समाज में बौद्धिक जड़ता का माहौल बना. सामाजिक मेधा मौलिक और लोकोपयोगी सृजन के बजाय राजा और सभासदों के कीर्ति–गायन तथा दरबारी शोभा के बखान में खपने लगी. कालांतर में यह धारा इतनी क्षिप्र हुई कि शताब्दियां नए विचार के लिए तरसती रहीं. इसी से टीका संस्कृति का चलन बढ़ा. लेकिन यह सब अचानक नहीं हुआ था. इसके बीजतत्व वैदिक ज्ञान की उस परंपरा में निहित थे, जिसमें मौलिक सृजन से ज्यादा जोर कर्मकांडीकरण पर दिया जाता था. इस कारण इस देश में हजारों वर्ष पहले ही प्रदर्शन–प्रिय संस्कृति जन्म ले चुकी थी. लगभग 2200 से 3000 वर्ष पहले तक भारतीय मनीषियों की धाक विश्वपटल पर थी. बौद्ध और जैन धर्म के विस्तार ने भारतीय मेधा की श्रेष्ठता को दुनिया–भर में स्थापित किया था. लेकिन बाद में उसमें ठहराव आने लगा. वस्तुतः वेद–वेदांग की रचना से भारतीय मनीषी इतने आत्ममुग्ध हुए कि उपलब्ध ज्ञान की आलोचना–प्रत्यालोचना को विराम दे दिया गया. मान लिया कि जो ‘वेदों में नहीं, वह कहीं नहीं है.’ इस प्रवृत्ति ने ज्ञान के आदान–प्रदान की संभावनाओं को निरंतर कमजोर किया. इसका नुकसान धर्म–दर्शन को तो जो हुआ सो हुआ, उन ब्राह्मण–पुरोहितों को भी खूब हुआ जो स्वयं को धर्म–दर्शन का ठेकेदार मानते आए थे. चंद पृष्ठों की पोथी को बांचते हुए महापंडित होने का भ्रम पालना तथा अपने आगे किसी को कुछ न समझना, सिर्फ अपने संप्रदाय के ग्रंथों का पठन–पाठन करना, और दूसरी विचारधारा से दूर रहना—इसी मानसिकता का परिणाम था. चूंकि धर्म का प्रभाव बहुत व्यापक होता है, इसलिए कह सकते हैं कि धीरे–धीरे पूरा समाज बौद्धिक क्षरण की चपेट में चला गया. मौलिकता के अभाव में ज्ञान प्रदर्शन की चीज बनता गया. उसमें दोहराव–तिहराव की घटनाएं बढ़ीं. ज्ञानार्जन और ज्ञान–संप्रेषण जैसे कार्य कुछ लोगों की बपौती होने तथा उस क्षेत्र में उनके लिए कोई चुनौती न होने के कारण मौलिक सृजन का स्तर निरंतर नीचे गिरता गया. ऐसा नहीं है कि भारत में मौलिक ज्ञान और सामाजिक चेतना का सरासर अभाव रहा हो. समय–समय पर ब्राह्मणवाद विरोधी आंदोलन भी पनपे. स्वयं ब्राह्मणों ने ज्ञान को कर्मकांड में ढलते देख आवाज उठाई. लेकिन धर्म सत्ता और राजसत्ता की वेगवती धारा के प्रवाह में समर्थन न मिलने से, वह सब सीपियों की तरह किनारे सिमटता गया. बौद्धिक जड़ता यहां तक बढ़ी कि सबकुछ शास्त्रों में सिमटता गया. जो शास्त्र सम्मत नहीं, वह धर्म सम्मत भी नहीं है, ऐसा माना जाने लगा. शास्त्रों को पढ़ने, उनकी व्याख्या करने का अधिकार समाज के जिस वर्ग को था, वह उनकी मनमानी व्याख्याएं करता था. कर्मकांड और दिखावे की संस्कृति के विरोध में बारहवीं शताब्दी के आरंभ में दक्षिण भारत से भक्ति आंदोलन का उद्भव हुआ, जिसने एकेश्वरवाद को नए सिरे से स्थापित करने का काम किया. भक्ति मार्ग के आरंभिक प्रवर्त्तक सामान्यतः वे संत थे, जिन्हें वर्णभेद के चलते वेदों के अध्ययन, अध्यापन अथवा उनपर टीका–टिप्पणी करने का अधिकार नहीं था. जिनके लिए मंदिर की सीढ़ियां चढ़ना निषिद्ध था. समाज के शोषित, उत्पीड़ित जनों, जो जाति व्यवस्था में निचले स्तर पर थे, का उस आंदोलन को भरपूर समर्थन मिला. संत कवियों ने मूर्तिपूजा, कर्मकांड और जाति व्यवस्था को निशाना बनाया. जब तक वह आंदोलन अपनी शुरुआत में था, पुरोहितों की ओर से उसे दबाने के भरसक प्रयास किए गए. संत ज्ञानेश्वर, संत तुकाराम, कबीर, रैदास आदि को जो अद्वैतवादी विचारक संत थे, उस समय के दुष्ट ब्राह्मणों ने खूब परेशान किया था. लेकिन संत कवियों के नेतृत्व में जनसाधारण को, विशेषकर वर्ण–व्यवस्था में निचले स्तर पर मौजूद जातियों को एक विकल्प मिल चुका था. उनका संदेश पूर्णतः स्पष्ट था—
भक्ति आंदोलन का विकास एक तरह से धर्म में नैतिकता, जिसने उसे जीवन में प्रासंगिक बनाया था और जो कर्मकांड और निरर्थक वितंडा के दौर में कहीं खो चुकी थी—का पुनः प्रवेश था. इसलिए जनसाधारण ने उसे हाथोंहाथ लिया. व्यापक जनसमर्थन पाकर भक्ति आंदोलन का प्रभाव–क्षेत्र निरंतर बढ़ता ही गया. वह पुरोहित वर्ग के लिए बड़ी चुनौती थी. कालांतर में भक्ति मार्ग को जब समाज के शीर्षस्थ वर्गों का समर्थन मिलने लगा तो चालबाज पुरोहित वर्ग ने उसे भी अपने स्वार्थ के अनुसार ढालना आरंभ कर दिया. फलस्वरूप निराकार आराध्य को साकार में बदलने की कोशिशें तेज हो गईं. अपने दुर्व्यसनों तथा चालाकियों के कारण समाज में खासे बदनाम हो चुके वैदिक देवता, नए रूपाकार में प्रकट होने लगे. अवतारवाद को बढ़ावा मिला. इस दौर में द्वैत–अद्वैत, साकार–निराकार पर जमकर बहसें चलीं. अशिक्षित और गरीबी से ग्रस्त समाज में वरीयता साकार को मिली. कबीर, रैदास, संत तुकाराम आदि संत कवियों तक भक्ति मार्ग और ज्ञान मार्ग की धारा में कोई विरोध नहीं था. उन्होंने धर्म के साथ–साथ दर्शन की बातें भी आसान शब्दावली में कही थीं, ताकि जनसाधारण भी उन्हें आसानी से समझ सके. आगे चलकर साकार भक्ति के रूप में अवतारवाद को बढ़ावा मिला तो ज्ञान का मखौल उड़ाया जाने लगा. बौद्धिक दीनता को भक्ति की विशेषता मान लिया गया. सूरदास ने गोपियों के माध्यम से भक्ति की ज्ञानमार्गी शाखा का खूब कटाक्ष किए गए. जिस समाज के कवि–कलाकार–मार्गदर्शक ज्ञान का उपहास उसे निस्तेज होना ही था. भारत में यह काम भक्ति के नाम, धर्म और ईश्वर के नाम पर, पूरी ठसक के साथ किया गया, जिसे लंबे समय तक पंडितों का समर्थन मिलता रहा. नतीजा यह हुआ कि निराकार भक्ति आंदोलन के माध्यम से जिस सामाजिक क्रांति का आगाज कबीर, रैदास आदि संत कवियों ने किया था, वह धीरे–धीरे व्यक्ति पूजा में ढलने लगी. उससे सामंतवाद को बढ़ावा मिला. निराकार भक्ति का प्रचार–प्रसार निरा भक्ति आंदोलन नहीं था. वह प्राचीन मुनियों की ज्ञानाधारित परंपरा को वापस लाने की बौद्धिक छटपटाहट का नतीजा था. चूंकि भारत के संत कवि समाज के निमस्थ वर्ग से आए थे और उनकी अभिव्यक्ति की भाषा संस्कृत न होकर, जनसाधारण की सधुक्कड़ी भाषा थी, इसलिए तत्कालीन बुद्धिजीवियों ने उसकी पूरी तरह उपेक्षा की. लेकिन साधारण बोली–बानी में कही गई वे बातें जनसाधारण के दिल में उतरती गईं. भक्तिकालीन कवियों को साकार और निराकार भक्ति के आधार पर वर्गीकृत करने का चलन रहा है. यह अमूर्त्त विभाजन है. इसकी जगह उचित होगा कि तत्कालीन कविता का अध्ययन संत–काव्य और भक्ति–काव्य के रूप में किया जाए. तब ज्ञानेश्वर, रैदास, कबीर आदि संत कवियों की श्रेणी में आएंगे. जबकि सूर, तुलसी, मीरा आदि की गिनती भक्त कवियों की जाएगी. समाज के कथित निचले वर्गों से आए संत कवि भक्ति और ज्ञान दोनों को साधे हुए थे. उनके चिंतन का दायरा व्यापक था. साधारण बोली–बानी में उन्होंने भारत की अध्यात्म परंपरा को उस वर्ग की पहुंच में लाने की कोशिश की थी, जिसे जाति–आधारित विभाजन में उससे वंचित रखा गया था. जिस वर्ग से वे आए थे, वहां की बोली–बानी में वे भली–भांति पारंगत थे, इसलिए वे साधारण भाषा में लोककल्याण से जुड़ी असाधारण बातें बहुत आसानी से समझा सके थे. उनकी कविता में ऊंचाई और तत्वबोध दोनों ही थे. जिसकी तुलना हम प्राचीन यायावर मुनियों की कविता से कर सकते हैं. भक्त कवि समाज के ऊंचे वर्गों से आए थे. अपने वर्गीय संस्कारों के साथ उन्होंने कविता को उसी रूप में ढाला. फलस्वरूप अवतारवाद और व्यक्ति पूजा को बल मिला. भक्त कवियों के लिए समाजार्थिक विभाजन महज विधि का विधान था. उसे केवल ‘ईश्वरीय अनुकंपा’ द्वारा ही मिटाया जा सकता था. संत कवियों ने मूर्ति–पूजा और कर्मकांड का विरोध करते हुए चारित्रिक शुद्धता पर जोर दिया तथा असंतोष और लालच से दूर रहते हुए मिल–जुलकर रहने का आवाह्न किया. एक समानता आधारित समाज के सपने को रैदास ‘बेगमपुरा’(बिना गम का शहर) के रूपक की तरह पेश करते हैं—
यह एक लोकतांत्रिक कामना है. जिसपर किसी भी आदर्श समाज की नींव रखी जाती है. ‘बेगमपुरा’ केवल रैदास का स्वप्न हो, ऐसा नहीं है. कबीर का सपना भी कुछ ऐसे ही शहर का था. कबीर की कविता में व्यंजना की भरमार है, रैदास की कविता में गहराई. शायद इसलिए कबीर ने रैदास को अपने से बड़ा माना है. रैदास के बेगमपुरा से वे भी सहमत हैं—‘अवधू यह बेगम देश हमारा.’ वहां का सत्त ही धर्म है. यहां ‘सत्त’ संपूर्ण न्याय का प्रतीक है. कबीर ने ‘बेगमपुर’ को अमर पुर भी कहा है. उल्लेखनीय है कि अमरपुर या अमरावती देवताओं की नगरी भी है. मगर वहां केवल देवता यानी अभिजन ही आ–जा सकते हैं. कबीर की अमरपुरी में ऐसा कोई प्रतिबंध नहीं है. शर्त यह है कि व्यक्ति अहंकार को त्याग चुका हो. फिर चाहे वह बादशाह हो या फकीर. कबीर के अमरपुर में बसेरा कर सकता है—‘राजा–रंक–फकीर–बादसा सबसे कहौ पुकारा/जो तुम चाहो परम पद को, बसिहो देस हमारा.’ कबीर और रैदास दोनों ही बनारस के थे. संस्कृति की नगरी बनारस. धर्म के आधार पर विकसित संस्कृति आदमी–आदमी में फर्क करती है. वह ‘जप–माया–छापा–तिलक’ को सब कुछ मान लेती है. वर्णाश्रम व्यवस्था के सताए संत कवि बार–बार नकली संस्कृति का लबादा उतार फैंकने को कहते हैं. भक्त कवि तुलसी के साथ ऐसा नहीं था. वर्णाश्रम व्यवस्था के शीर्ष से आए तुलसी के लिए वह आदर्श व्यवस्था है. इसलिए वे धर्म और वर्णाश्रम का गुणगान करते हैं. तुलसी के लिए ‘रामराज्य’ इसलिए आदर्श है, क्योंकि वहां सभी वर्णाश्रम के अनुसार अनुशासित हैं—‘बरनाश्रम निजनिज धरम निरत वेद पथ लोग.’ लोकतंत्र और समाजवाद जैसी विचारधाराएं आधुनिक पश्चिमी समाज की देन मानी जाती हैं. एक तरह से वे हैं भी. समाजवाद में जिस आदर्श समाज की कल्पना की जाती है, वैसा आदर्श समाज का सपना सबसे पहले हेनरी मूर(1478—1535) ने अपने व्यंग्य उपन्यास ‘यूटोपिया’ में देखा था. उसी से पश्चिम में समाजवाद और लोकतंत्र जैसी आधुनिक विचारधाराओं को प्रेरणा मिली. रैदास का ‘बेगमपुरा’ यानी ‘बिना गम का शहर’ हेनरी मूर से भी लगभग एक शताब्दी पहले की ऐसी ही मनोहर कल्पना यानी ‘यूटोपिया’ था. ऐसे समाज का स्वप्न जहां सभी लोग सभी स्तर पर बराबर हों. मूर का ‘यूटोपिया’ एक कटाक्ष है. वहां समानता की अवधारणा पर व्यंग्य किया गया है. कालांतर में उस व्यंजना को ही आदर्श मान लिया गया. जबकि रैदास का ‘बेगमपुरा’ व्यवस्था से सताए लोगों का मानवीय सपना था. अच्छा होता कि रैदास के बेगमपुर की कल्पना को बाकी लेखकों–कवियों का साथ भी मिला होता. तब संभव है कि समाजवाद और लोकतंत्र जैसे आधुनिक विचार भारत की जमीन पर ही शताब्दियों पहले ही जन्म ले चुके होते. लेकिन जहां विचार करना, किसी खास वर्ग की बपौती माना जाता हो, वहां नए विचार को जमीन मिलना आसान नहीं होता. पीढ़ियों से सत्ता केंद्रों पर जड़ जमाए लोग उसे आसानी से टिकने ही नहीं देते. रैदास और कबीर के साथ भी ऐसा ही हुआ था. शताब्दियों बाद विवेकानंद, दयानंद सरस्वती आदि ने धार्मिक सुधार की भरपूर कोशिश की, लेकिन प्रतिक्रियावादी शक्तियां हर बार किए–कराए पर पानी फेरने का काम करती रहीं हैं. क्रमशः ….. © ओमप्रकाश कश्यप संदर्भानुक्रमणिका 1. सांस्कृतिक निबंध, भगवतशरण उपाध्याय, 158. 2. बेगमपुरा सहर का नाऊँ, दुखु अन्दोह नहिं तिहि ठाऊँ. ना तसवीस खिराजु न मालु, खउफ न खता न तरसु जवालु. अब मोहि खूब वतन गह पाई, ऊहां खैरि सदा मेरे भाई कायम दायम सदा पातिसाही, दोम न सेम एक सो आही. आबादानु सदा मसहूर, ऊहाँ गनी बसहिं मामूर तिउ तिउ सैल करहि जिउ भावै हरम महल न को अटकावै. कहि रैदास खलास चमारा, जो हम सहरी सु–मीतु हमारा. आलेख
सरकार समाज का सबसे अनुत्पादक और खर्चीला, मगर अनिवार्य कर्म है. मानवाधिकारों के प्रति जागरूकता इसके कार्यक्षेत्र को सीमित कर, कम खर्चीला बना सकती है. इसलिए कि ऐसे अनेक क्षेत्र हैं, जहां एक सभ्य व्यक्ति को, यदि वह सभ्यता का मतलब कर्तव्य–परायणता से लेता है, यदि वह अपने अधिकारों के प्रति जागरूक है तथा अपने कार्यों का निष्ठापूर्वक पालन करता है, तो उसको सरकार की आवश्यकता ही नहीं पड़ती. कहने की आवश्यकता नहीं कि समाज में अधिकांश व्यक्ति ऐसे ही होते हैं, जो बस अपने काम से काम रखते हैं. सरकार के होने या न होने से उन्हें कोई अंतर नहीं पड़ता. ऐसे लोग अपने जीवन को शांतिपूर्वक जीना चाहते हैं और वे जीने की भरसक कोशिश भी करते हैं. थोड़े–बहुत विक्षोभ को जो परिस्थितिगत प्रभावों के कारण उनके जीवन को प्रभावित करने आ धमकता है, नजरंदाज कर वे अपने जीवन में रमे रहना चाहते हैं. सरकार कैसी है, किस दल की है. उसकी मूल सैद्धांतिकी तथा विकास को लेकर नीतियां कौन–सी हैं, आदि बातों का उनपर कोई प्रभाव नहीं पड़ता. सही मायने में ऐसे लोग सरकार की जरूरत होते हैं. हर चौथे या पांचवे वर्ष मतदान के बहाने ऐसे लोगों की सहानुभूति अर्जित करने के लिए सरकार को उनके दरवाजे पर जाना ही पड़ता है. उनपर एक विद्वान की उक्ति सटीक बैठती है. उसने कहा था—‘दुनिया के सारे के सारे कानून व्यर्थ हैं. इसलिए कि एक भले आदमी को उनकी जरूरत नहीं पड़ती और जो बुरे हैं जिन्हें ऐसे कानूनों की जरूरत है, वे ऐसे कानूनों की परवाह नहीं करते. सरकार के साथ भी यही स्थिति है. ऐसे बहुत से लोग हैं जिनका काम उसके बिना भली–भांति चलता रहता है. किसी गांव के आदमी से पता कीजिए कि इस देश का प्रधानमंत्री कौन है? संभव है वह चुप्पी साध ले. उसे मालूम ही न हो. इसका उसे कोई मलाल भी नहीं होगा. हालांकि व्यक्तियों के संपर्क के मामले में वह किसी भी शहरी को पछाड़ सकता है. साफ है, आम आदमी सरकार के मुखिया का नाम भले न जाने, परंतु वह न केवल अपने गांव, बल्कि आसपास के अनेक गांवों के लोगों के नाम, मौसम, फसल, पशु–पक्षी, व्रत–त्योहार आदि के बारे में बता सकता है, जिसमें पढ़े–लिखे लोग पिछड़ सकते हैं. उनकी निगाह में उसके व्यावहारिक ज्ञान का, उस ज्ञान का उसके स्थानीय स्रोतों का परिचय दे, कोई महत्त्व नहीं होता. इसलिए वे उसे अज्ञानी कहकर मन को तसल्ली दे लेते हैं. कारण साफ है—हम सूचना को ज्ञान समझते हैं. और मनोरंजन के अवसरों को छोड़कर प्रायः उन्हीं सूचनाओं को महत्त्व देते हैं, जिनका बाजार या उत्पादकता से कोई संबंध हो, जो हमें किसी न किसी प्रकार लाभ पहुंचाने वाली हो. अगर कोई हमसे पूछे कि गेहूं की बुबाई कब की जाती है? ईख का बीज कैसा होता है? पशुओं की मुख्य बीमारियां क्या हैं, तो अधिकांश बगलें झांकने लगंेगी. पर किसी गांव वाले से पूछ लीजिए, खेती से कोई वास्ता न रखने वाला भी ऐसे सवालों को चलते–चलते बूझ देगा. पर हम उसके सवालों को महत्त्व नहीं देते. हम सूचनाओं को महत्त्व देते हैं. सरकार खुद सूचनाओं के दम पर चलती है. इसलिए सरकार सूचना को ज्ञान की अहमियत भी देती है. जबकि सूचना ज्ञान का उपकरण है. वह स्वयं ज्ञान नहीं है. ज्ञान अपने आप में जटिल संकल्पना है. जब हम किसी वस्तु के बारे में ज्ञान का दावा करते हैं तो हमारा आशय होता है कि हमें उस वस्तु के उस पक्ष की जानकारी है, जो केवल सूचनाओं तक सीमित नहीं है. सरकार के जितने भी नेता या अधिकारी हैं, सब सूचनाएं बटोरने में लगे रहते हैं. इनमें नेताओं को सूचना बनाने और अधिकारियों को सूचनाएं बटोरने वाली मशीन कह सकते हैं. दूसरे शब्दों में अधिकारीगण नेताओं और पूंजीपतियों द्वारा बोई गई सूचनाओं की फसल काटते रहते हैं. आप कहेंगे कि यह कैसी उलटबांसी है! आदमी ने सभ्यता के क्रम में ही सरकार बनाना सीखा है. आज का जीवन कितना व्यवस्थित है….दोषी को सजा दिलाने के लिए कानून है. अपराध रोकने के लिए पुलिस. सरकार न हो तो अस्पताल, यातायात, बिजली और पानी की आपूर्ति आदि सब धराशायी हो जाएं. हो सकता है कुछ अर्थों में उनका यह कहना सही हो. हमने देखा है ऐसे मामलों में सरकार की भूमिका बड़ी महत्त्वपूर्ण होती है. आज किसी एक प्रांत में अनाज की कमी पड़े तो सरकार तत्काल देश के दूसरे रास्तों से विदेश से जरूरतमंदों के लिए भोजन की व्यवस्था करती है. बीमारों की देखभाल के लिए अस्पताल हैं. यातायात को सुगम बनाने के लिए सड़कें और शिक्षा के लिए बेहतर सुविधाएं हैं. सरकार न हो तो इनकी कौन देखभाल करे. लेकिन ऊपर दिए गई सुविधाओं, शिक्षा, यातायात, स्वास्थ्य आदि में से कुछ भी ऐसी नहीं है जिसके लिए केवल सरकार पर निर्भर रहा जाए. बल्कि सरकार स्वयं इनके लिए निजी संस्थाओं पर रहने की वकालत करने लगी है. बड़े शहरों में शिक्षा, स्वास्थ्य, यातायात तो पहले ही निजी संस्थानों के हवाले था, अब सफाई, बिजली सप्लाई जैसे कार्य भी जो रोजगार सृजन के बड़े आधार थे, निजी संस्थानों को सौंपे जाने लगे हैं. जहां तक कानून और पुलिस प्रशासन की बात है, सरकार द्वारा दी जाने वाली ये व्यवस्थाएं इतनी लचर हैं कि कुछ पूछो मत. पुलिस की हालत इतनी गई बीती है कि लोग सिपाही को ‘वर्दी वाला गुंडा’ तक कह देते हैं. ऐसे माहौल में काम करते हुए पुलिस कर्मचारी अपना आत्मबल इतना गंवा चुका होता है कि इसका विरोध तक नहीं कर पाता. अस्पतालों का यही हाल है. यही हाल शिक्षा का भी है. सरकार नौकरी होने का रौब भले हो, परंतु आम धारणा यही है कि जिन सेवाओं से सरकार के होने का औचित्य सिद्ध होता है, उन्हें प्रदान करने में सरकार पूरी तरह नाकाम सिद्ध होती है. आदमी ही क्यों, सरकार का भी अपने सुरक्षातंत्र से भरोसा उठ गया लगता है. नहीं तो रेलवे–स्टेशन पर जाकर सरकार की उद्घोषणाएं सुन लीजिए. चौबीसों घंटे माइक पर यही सुनाई देगा—‘लावारिस वस्तुओं को न छुएं….अपने आसपास अच्छी तरह देखें. अनजान वस्तु बम हो सकती है.’ यानी सरकार सुरक्षा जैसा काम भी ढंग से नहीं कर पाती. फिर भी सरकार का होना हमें अपरिहार्य लगता है. सरकार के बगैर भी समाज चल सकता है, इस बारे में सोच भी नहीं पाते. कारण साफ है, हम अपना नागरिक धर्म भूल चूके हैं. सब कुछ सरकार भरोसे छोड़कर निश्चिंत हो जाना चाहते हैं. पड़ोसी भूखा रहे, हमारी नींद खराब नहीं होती. उसपर कोई संकट आन पड़े तो हम पुलिस को फोन कर अपने नागरिक कर्म की इतिश्री कर देते हैं. परंतु अब संबंध औपचारिक हो चुके हैं. पहले यह केवल शहरों तक सीमित था. अब कस्बों और गांवों में भी शहर की यह बीमारी प्रवेश कर चुकी है. आप कहेंगे कि इसमें सरकार क्या कर सकती है? मैं कहूंगा कि यदि नहीं कर सकती तो उसकी जरूरत ही क्या है? शिक्षा, बिजली, पानी, यातायात, स्वास्थ्य, सुरक्षा जिनके होने से कभी सरकार का होना सिद्ध होता था या जो कल्याण सरकार की प्रतिनिधि जनसेवाएं कही जाती थीं, उन सबसे तो सरकार एक–एक कर पल्ला झाड़ चुकी है. जो शेष हैं उन्हें भी जिम्मेदारी से पीछे हटती जा रही है. सारे काम निजी सेवाएं निजी कंपनियों के हवाले करती जा रही है. फिर सरकार के बने रहने का औचित्य? ऐसा कौन–सा कार्य शेष है जो सरकार के होने को सार्थक बनाए. सरकार के पक्ष में आपसे कुछ तर्क दिलवाकर मैं उसको अपरिहार्य नहीं बनाना चाहता. मैं चाहता हूं कि आप स्वयं मान लें कि आपको सरकार की जरूरत नहीं है. जिन कार्यों के लिए आप अभी तक सरकार पर निर्भर रहते आए थे, वे दरअसल सरकार के थे ही नहीं. अपना औचित्य सिद्ध करने के लिए सरकार ने आपसे हथिया लिए थे. जब तक आपको शासित होने की आदत नहीं थी. अपनी जिम्मेदारियों को दूसरों पर डाल देना आपका स्वभाव नहीं था, उस समय तक सरकार आपकी अपनी होने का एहसास दिलाती थी. आपकी सहानुभूति अर्जित करना चाहती थी. परंतु जैसे ही सरकार आपकी जरूरत बनी, जिस दिन से आपने यह मानना आरंभ किया कि फलां–फलां काम सरकार के हैं, उन्हें सरकार को ही करना चाहिए. नागरिक होने के नाते मैं भला क्या कर सकता हूं! उसी दिन से सरकार ने अपनी ताकत को पहचानना आरंभ कर दिया. यानी सरकार को जो ताकत मिलती है, उसका जो भारी–भरकम लाव–लश्कर तैयार होता है, वह नागरिकों की कमजोरी या अपने कर्तव्य के प्रति उदासीनता से मिलता है. अधिकारों के प्रति चेतना के अभाव से, जंनतंत्र की कमजोरी से भी मिलता है. एक जागरूक समाज सरकार के बिना भी रह सकता है. समाज यदि आपसी तालमेल बनाने में कामयाब सिद्ध होता है. यदि वह अपने अधिकारों के साथ–साथ कर्तव्यों के प्रति भी जागरूक है? तो उसको सरकार की जरूरत ही नहीं रह जाती. और सरकार का काम भी यही है कि वह लोगों के आत्मविश्वास को वापस लाए, उन्हें उनके अधिकारों से परचाए और कर्तव्यों के प्रति जागरूक करे. ताकि वे अपनी चुनौतियों से स्वयं निपट सकें. जो काम राजनीतिक संस्थाएं करती हैं, उनमें से अधिकांश को सामाजिक संस्थाओं से कराए, जो कम खर्चीली और ज्यादा जबावदेह होती हैं. यदि सरकार का काम यही सब है तो वह सामाजिकता को बनाए रखने के लिए जरूरी कदम क्यों नहीं उठाती. ऐसे सवालों पर सरकार अकसर यह कहकर पल्ला झाड़ लेती है कि यह करने से लोगों की जिंदगी में अनावश्यक हस्तक्षेप होगा. अगर सरकार परस्पर तालमेल बनाए रखना अपना कर्तव्य मानती है तो यह बुरी बात नहीं. पर सरकार का यह कार्य प्रायः अपनी जिम्मेदारी से पीछा छुड़ाने के लिए दिया करती है. अब यह जान लिया जाए कि सरकार किसकी जरूरत है? सामान्यतः यही माना जाता है कि सरकार समाज की जरूरत है. चूंकि समाज अपने नागरिकों के योग से मिलकर बनता है इसलिए सरकार को नागरिकों की जरूरत कहकर प्रचारित किया जाता है. कम से कम जो लोग सरकार में हैं, वे तो यही कहकर अपना औचित्य सिद्ध करते हैं. हालांकि उनका यह दावा यथार्थ से एकदम परे है. सरकार चाहे कितनी ही उदार क्यों न हो, वह कुछ न कुछ तो शासन करती ही है. यह शासन कहीं न कहीं नागरिक स्वतंत्रता की कीमत पर होता है. तो क्या यह मान लिया जाए कि नागरिकगण स्वयं अपनी स्वतंत्रता का बोझ नहीं संभाल पाते, इसलिए वे सरकार के गठन को बाध्य हो जाते हैं? यदि इसे सच मान लिया जाए तो इसका अगला निष्कर्ष यह होगा कि मनुष्य अपनी स्वतंत्रता का सबसे बड़ा दुश्मन स्वयं होता है. अपनी स्वतंत्रता वह बड़ी आसानी से समाज के प्रभुवर्ग के हाथों में सौंपकर निश्चिंत हो जाता है और अपना जीवन ‘कोऊ नृप होय हमें का हानि’ कहते हुए बिताता है. ऐसी अवश्था में मानवाधिकार और व्यक्ति–स्वातंत्र्य अर्थहीन होकर रह जाता है. एक सोये हुए समाज के लिए क्रांति के कोई मायने नहीं होते. बड़ी–बड़ी क्रांतियां उसके आस–पास से होकर गुजर जाती हैं और उसे पता तक नहीं चलता. भारतीय समाज के बारे में ऐसा हुआ है. पंद्रहवीं और सोलहवीं शताब्दी में जब पश्चिमी जगत वैज्ञानिक क्रांति से गुजर रहा था, तब हमारे भक्त–कवि प्रभु–भक्ति में आत्मलीन नजर आ रहे थे. दलित और पिछड़े वर्ग से आए भक्त कवियों के लिए जातीय उत्पीड़न के सवाल तो थे, मगर आर्थिक असमानता जैसा कोई मुद्दा उनके आगे नहीं था. वे संतोष धन को ही सबसे बड़ा धन मानकर उसका गुणगान करने में लगे हुए थे. ‘सूखी–सूखी खाय के ठंडा पानी पीव’ को ही सत्कर्म माने हुए थे. गरीबी उनकी ठसक थी. अगर कहीं से धन हासिल हो जाए उसे फेंक दिया करते थे. बस चले तो दानदाता को दुत्कार भी देते थे. दूसरी ओर शीर्षस्थ वर्ग ‘भूखे भजन न होय गोपाला’ कहकर कंगाली में भगवान को भी अंगूठा दिखाने को तत्पर रहता था. एक वर्ग दैन्य को अपना जीवन मान चुका था, दूसरे को उसका कोई अभ्यास नहीं था. धर्म एक के लिए अपने दैन्य से समझौते का नाम था, दूसरे के लिए अपनी सत्ता को बनाए रखने की रणनीति. उन्हें न तो मनुष्य के अधिकार याद थे, न ही संस्कृति–बोध था. उनका न तो बीता कल था, न ही आनेवाला कल. केवल गया–गुजरा वर्तमान था, जिसे वे जैसे–तैसे गुजार देना चाहते थे. था॓मस पेन ने कहा है व्यक्ति समाज या राज्य में अपनी स्वतंत्रता को गंवाने के लिए सम्मिलित नहीं होता. बल्कि इसलिए सम्मिलित होता है कि वह अपनी स्वतंत्रता के साथ–साथ उन सुखों का भी भोग कर सके, जिन्हें वह मानवीय सीमाओं के चलते स्वयं अर्जित करने में अक्षम है. बदले में वह जो स्वयं उत्पादन करता है, उसका एक हिस्सा दूसरों को देता है. समाज और व्यक्ति के संबंधों के गठन का मुख्याधार यही है. जबकि वह वर्ग समाज के बीच रहकर भी असुरक्षित और उत्पीडि़त था. उसका जीवन अपने लिए नहीं, दूसरों के सुखों में वृद्धि करने के लिए था. असमानताकारी व्यवस्था, सामंतवाद के लक्षणों को वह अपने जीवन में पूरी तरह आत्मसात् कर चुका था और उसी को अपना गौरव मानता था. इसी भावना के चलते पन्ना धाय हत्यारे के आगे राजा के बेटे की सुरक्षा करने के लिए अपने बेटे को आगे कर खुद को धन्य मान लेती है. प्रत्येक जीव में एक ही परमात्मा को मानने वाली, आत्मा–आत्मा को बराबर मानने वाली व्यवस्था पन्ना के कृत्य की आलोचना नहीं करती, बल्कि महिमामंडन करती है. जबकि सत्ताओं को बचाने के लिए जनसाधारण ऐसे ही बलि का बकरा बनते रहे. सामंतवाद की यह पराकाष्ठा कथित भगवान हाथों प्राप्त मौत के बाद मोक्ष मिलने के पाखंड में दिखाई पड़ती है. आततायी सत्ताओं के आतंक से मुक्ति, उनकी अनिवार्यता के एहसास से मुक्ति के लिए इन सांस्कृतिक अज्ञानताओं से बाहर आना जरूरी है. लोग कहेंगे कि सरकार न होगी तो कानून कौन बनाएगा? न्यायालयों का संचालन कौन करेगा? सेना और पुलिस बल किसके अधीन रहेंगे? अपराधी तत्व सिर उठाने लगेंगे. कानून का डर ही तो अपराधियों की नाक में नकेल डाले रखता है. ऐसा करते समय हम यह तथ्य बिलकुल भुला देते हैं कि अपराध का अनुपात आज पिछले जमाने की अपेक्षा कहीं अधिक है. हमारी जेलें अपराधियों से भरी पड़ी हैं. अदालतों के पास इतने मुकदमे हैं कि सुनवाई का समय निकाल ही नहीं पातीं. एक–एक मुकदमे की सुनवाई में वर्षों निकल जाते हैं. भारत सरकार के एक मंत्री की हत्या के एक मुकदमे का फैसला हाल ही में, चालीस वर्ष बाद आया है. इतने लबें अर्से तक टलने के बाद न्याय का कोई औचित्य रह ही नहीं जाता. यह काम लोकतंत्र के नाम पर, अभियुक्त पक्ष को बचाव का पूरा अवसर देने के नाम पर किया जाता है. अभियुक्त को सफाई का पूरा अवसर मिले, यह उसका अधिकार है. लेकिन इस बहाने न्याय केवल मजाक बनकर रह जाए, यह और भी बड़ी विडंबना होगी. ध्यान रहे यह स्थिति तब है जब पुलिस आधे से अधिक मुकदमे दायर ही नहीं करती. अगर पुलिस सारे के सारे केस दायर करने लगे तो आदमी को अपनी जिंदगी में, अदालतों की सुस्त रफ्तार के चलते, कभी न्याय मयस्सर न हो. यानी सरकार होने के एहसास, और इस बहाने अपराधियों थोड़ा भय होने के अलावा उसके रहने या न रहने से जनसाधारण को विशेष लाभ नहीं पहुंचा है. कुछ लोग कहेंगे कि अपनी सरकार होने से सबको बोलने की समान आजादी है. अभिव्यक्ति का आनंद. जिसे यह सुविधा प्राप्त नहीं, उससे पूछिए. यह मनुष्यता की गरिमा का प्रमाण है. सच में मनुष्य को मनुष्य होने जैसा एहसास कराता है. सवाल है कि अभिव्यक्ति की आजादी जैसे सवाल जन्मे ही क्यों? क्यों यह स्थिति आन पड़ी कि लोगों की अभिव्यक्ति पर भी बंदिशें थोपी जाने लगीं. यदि सभी मनुष्य बराबर हैं, प्रकृति ने सभी को समान विशेषताएं दी हैं तो वे कौन लोग थे, जिन्होंने लोगों की अभिव्यक्ति पर बंदिश लगाने की शुरुआत की. जाहिर है वे सत्ताओं पर अनाधिकृत कब्जा जमाने वाले लोग रहे होंगे. उन्होंने पहले एक वर्ग के पढ़ने–लिखने पर पाबंदी लगाई. जिन शास्त्रों के माध्यम से शासन चलाया जाता था, जिनको दैवी मानकर बात–बात पर दुहाई दी जाती थी, उन्हें पढ़ना इतना बड़ा अपराध हो गया कि कान में पिघला सीसा डालने तक की सजाएं दी जाने लगीं. वह वर्ग जानता था कि जो सत्ता वह चला रहा है, वह दूसरे वर्ग की मूक सहमति पर ही टिकी है. यदि उसकी कमजोरियां सामने आने लगें तो लोग जो संख्या में कहीं अधिक हैं, जिनकी सम्मिलित शक्ति किसी भी राज्य की शक्ति से कहीं अधिक है, बल्कि राज्य को उसकी शक्तियां ही उसके समर्थन से प्राप्त हैं, वे अपनी शक्ति का एहसास कर अल्पसंख्यक सत्ताधारियों को एक झटके में उखाड़ फेंकेंगे. इसलिए उसने लोगों से बोलने का अधिकार ही छीन लिया. वेदों को विमर्श से बाहर निकालकर आप्तग्रंथ बना दिया गया. ताकि उनकी समीक्षा, उनमें दर्ज सामग्री पर संवाद ही न हो सके. वेदों से हुई शुरुआत दूसरे ग्रंथों तक भी पहुंची. अब यदि लोगों को अपने अतीत का स्मरण न हो, तो उससे संवाद करने का सलीका कहां से लाएंगे. और उसपर संदेह न करें तो सांस्कृतिक विकास कैसे होगा. इसलिए पहले सांस्कृतिक दासता की शुरुआत हुई. जिसे बहुत जल्दी राजनीतिक और सामाजिक दासता का रूप दे दिया गया. मानवाधिकार मनुष्य को उस दासता से उबारने की कोशिश हैं, जो सांस्कृतिक गुलामी के कारण जन्मी है. अभिव्यक्ति की आजादी, जो मनुष्य का मौलिक अधिकार है, बंद गुंबद में रोशनदान की तरह है. जिसके माध्यम से गुंबद में रह रहे लोग इंसान होने के एहसास को बचाए रख सकते हैं. सरकार के होने से हम सब इतने अनुकूलित हैं कि अ–सरकार होने के डर से ही लगता है सबकुछ बिखर जाएगा. इसलिए जब भी चर्चा होती है, सब असरदार सरकार की मांग करने लगते हैं. ‘अ–सरकार’ समाज के बारे में सोचते हुए भी घबराते हैं. और सरकार है कि उसमें बैठे लोग केवल उतनी ही आजादी लोगों को देना चाहते हैं, जितनी से उनकी सत्ता बनी रहे. आखिर कुछ ऐसे लोग भी चाहिए जिनके माध्यम से अभिजातपन को दर्शाया जा सके. लोग इस बनावटी विभाजन को अकाट्य सच मान लेते हैं, इसलिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जैसे वरदान भी उसका भला नहीं कर पाते. यूं भी ऐसी आजादी का कोई अभिप्राय नहीं जिसका लोग लाभ न उठा सकें. क्योंकि जिन लोगों ने अभिव्यक्ति की आजादी का समर्थन किया, वे अभिव्यक्ति को कुंद करने का माध्यम भी ले आए. देखते ही देखते ज्ञान को सूचनाओं में बदल दिया गया. परीक्षाएं वस्तुनिष्ठ आधार पर ली जाने लगीं. स्मृति को कुंद करने के लिए मोबाइल आया. भाषा को कुंद करने के लिए एसएमएस, और सस्ते मनोरंजन को बढ़ावा देने के लिए वाटअप. विकास का अभिप्राय साफ–सुथरी सड़क और नागरिक सुविधाओं तक सिमट गया. घर के भीतर मनुष्य कैसा जीवन जीता है, उसकी रसोई में पक रहा भोजन पौष्टिक हैं भी या नहीं—इस ओर ध्यान देने की आवश्यकता ही नहीं रही. जब अभिव्यक्ति कला का बोध ही न हो तो अभिव्यक्ति ही आजादी का मतलब क्या! अभिव्यक्ति की अधकचरी कला प्रदूषित अभिव्यक्ति के मायने ही बदल देती है.ऐसे लोगों को मतदान के बहाने आसानी से फुसला जा सकता है. धर्म, जाति और क्षेत्रीयता के प्रलोभन उसको मूल मुद्दों से भटकाए रहते हैं. लोगों का अभिव्यक्ति का अधिकार सुरक्षित रहे, जरूरी है. पर उतना ही जरूरी है अभिव्यक्ति कला का परिमार्जन. जिसकी समझ इतिहास, संस्कृति और ज्ञान के अधुनातन रूपों को समझे बिना असंभव है. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को आधुनिक कानून की विशेषता माना जाता है. नव–सभ्यता का प्रतीक. यहां सरकार का आशय हर उस वर्ग से है जो शीर्ष पर विराजमान होकर दूसरों को निर्देश देता है. उसमें पक्ष और विपक्ष में मौजूद सभी नेता, अधिकारी आदि सम्मिलित हैं, जो उत्पादन में सीधे हिस्सा न लेकर समाज के दूसरे के श्रम–कौशल पर निर्भर रहते हैं. समाज मुख्यतः शासक और शासित में बंटा होता है. सत्ता हमेशा शासक–वर्ग के अधीन होती है, जो कभी पक्ष तो कभी विपक्ष में रहकर उसका लाभ उठाता है. अतएव अभिव्यक्ति की आजादी केवल सरकार के भरोसे संभव नहीं. सरकार अपने विरोध को विद्रोह की तरह लेती है. ऐसे बहुत से उदाहरण हैं जब अभिव्यक्ति के लिए सरकार का कोपभाजन बनना पड़ा है. कुछ महीने पहले अरुंधति राय और बाद में प्रशांत भूषण ने सरकार की कश्मीरी नीति की आलोचना कर दी थी. सरकार तो चुप्पी साधे रही, लेकिन तथाकथित राष्ट्रवादियों को उनका बयान बेहद नागवार गुजरा था. जैसे अरुंधति और प्रशांत भूषण इतने शक्तिशाली हों कि उनके कहने–भर से कश्मीर पाकिस्तान के हाथों में चला जाएगा. इस पर वे लोग विशेष तौर पर नाराज थे, जो राष्ट्र को जड़ अवधारणा मानते हैं. यहां मामला अरुंधति राय या प्रशांत भूषण के अलग–अलग बयानों के औचित्य का बिलकुल नहीं है. मामला अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के प्रति ऐसे समाज के दृष्टिकोण का है, जो लोकतांत्रिक होने का दावा करता है और नियमित अंतराल के बाद अपने प्रतिनिधि चुनकर सरकार बनाता है. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता लोकतंत्र प्राणवायु है. उसके न रहने से लोकतंत्र के निष्प्राण होने से कोई नहीं रोक सकता. लोकतांत्रिक समाजों से यह अपेक्षा तो की जाती ही है कि वे व्यक्ति के वाक् को नियंत्रण मुक्त रखें. मनुष्य यदि विवेकशील प्राणी है तो उसके विचारों का सम्मान होना चाहिए. किसी व्यक्ति की टिप्पणीमात्र से यदि किसी समाज की भावनाएं आहत होती हैं और वह उस व्यक्ति की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर ही सवाल खड़े करने लगता है तो मानना चाहिए कि उस समाज ने खुद को लोकतांत्रिक आदर्शों के अनुरूप ढालने में अभी देर है. ऐसे समाज में लोकतांत्रिक पद्धति पर चुनी गई सरकारें भी किसी न किसी दृष्टि से कमजोर होंगी ही. सरकार सभ्य समाज की अनिवार्य बुराई, एक खर्चीला आयोजन है. लेकिन सच यह भी है कि बिना सरकार के आधुनिक समाज का काम सधने वाला नहीं है. इसलिए कि नहीं कि सरकार समाज की अपरिहार्यता है. बल्कि इसलिए कि समाजों में जिस तरह नागरिकताबोध का तेजी से पतन हुआ है, जिस तरह से लोग एक–दूसरे की ओर संदेह से देखने लगे हैं, सार्वजनिक जीवन जिस तरह अविश्वास ने जगह घेर ली और विकास के नाम पर जो सैंकड़ों किस्म की संस्थाएं खड़ी की गई हैं, उन पर नियंत्रण और तालमेल बनाए रखने के लिए एक बड़ी संस्था की जरूरत है. सामंतवादी व्यवस्था में शीर्षस्थ वर्ग न केवल संसाधनों को कब्जाए रहता है, बल्कि लोगों के दिलों पर भी अधिकार कर लेता है. वे मन और विचारों से पंगु हो जाते हैं. दूसरों का हित तो दूर वे अपने हितानुकूल निर्णय कर पाने में भी असमर्थ होते हैं. ऐसे लोग केवल सिर झुकाकर आदेश मानने को बाध्य होते हैं. यानी लोगों की शासित होने की इच्छा ने सरकार को अपरिहार्य बनाया है. उन लोगों ने बनाया है जो छोटी–छोटी बातों के लिए सरकार का मुंह देखते रखते हैं. जो अपने दरवाजे के ठीक सामने बने गड्ढे को भरने से इसलिए मुंह मोड़ लेते हैं, क्योंकि वे मानते हैं कि वह जमीन नगर पालिका की है. जैसे नगरपालिका उनकी अपनी संस्था न होकर ऊपर से थोपी गई संस्था हो. ऐसे लोग जो मामूली कार्यों के लिए भी सरकार का मुंह ताकते रहते हैं, वही उसकी उपस्थिति को अनिवार्य बनाते हैं. वरना बाहरी दुश्मनों से सुरक्षा और विदेशनीति के अलावा ऐसा कोई कारण नहीं है, जो सरकार के औचित्य की अनिवार्यता सिद्ध करता हो. आपाधापी के बीच लोग अपना धर्म भूल जाते हैं, व्यक्ति–स्वातंत्र्य के वास्तविक अर्थ को भूल जाते हैं, यह भूल जाते हैं कि उनकी स्वतंत्रता या सुख पड़ोसी की स्वतंत्रता और सुख से अलग नहीं है, इसलिए वे सरकार नामक संस्था का औचित्य गढ़ते हैं. एक–दूसरे को संदेह की निगाह से देखने के स्वभाव ने ही सरकार की अनिवार्यता सिद्ध की है. विज्ञान और आधुनिक तकनीक ने व्यक्ति को जितना शक्तिशाली बनाया है, उससे लगता है कि उसके आगे कोई सीमा और मर्यादा है ही नहीं. मानवीकरण के नाम पर विकसित अनेक आधुनिक सुविधाएं अमानवीकरण की कोशिश करती नजर आती हैं. ऐसा नहीं है कि ऐसी तकनीक का कोई समाजार्थिक महत्त्व न हो. तकनीक ने मानवजीवन को सुविधामय बनाने के लिए अनेक विलक्षण काम किए हैं. उसके मनुष्यता पर अनेकानेक अहसान हैं. उसमें विपुल संभावनाएं हैं. इसलिए तकनीक के लोकहितकारी उपयोग पर जोर दिया जाना चाहिए. नई तकनीक की खोज भी आवश्यक है. लेकिन लेकिन तकनीक के विशुद्ध व्यावसायिक रूप ने मनुष्यता को नुकसान भी बहुत पहुंचाया है. इसलिए समय आ पहुंचा है कि हम अपने जीवन में तकनीक की सीमा निर्धारित करें. उसके उपयोग की दिशा पर नियंत्रण रखें. अपने वैज्ञानिकों और उत्पादकों को बताएं कि वे हमारे लिए नवीन तकनीक के किस प्रकल्प पर काम करें? उनके शोध की दिशा क्या हो? यदि वे ऐसा नहीं करते हैं तो एक जागरूक नागरिक और समाज के रूप में हम क्या कर सकते हैं, वह उन्हें समझाएं. यह कार्य सरकार को करना चाहिए. वह नहीं करती. या कर नहीं पाती. दरअसल सभ्यताकरण के नाम पर जो भारी–भरकम तामझाम सरकार का बन चुका है, उसे चलाने कके लिए पैसा चाहिए. हर पांचवे वर्ष नेताओं को चुनाव में उतरना पड़ता है, उसके लिए पैसा चाहिए. और पैसा कमाने का सरकार की निगाह में सबसे आसान तरीका कराधान का है. जिसका बड़ा हिस्सा उद्यमियों और पूंजीपतियों की ओर से आता है. सरकार को पैसा चाहिए. उद्योगपतियों को मुनाफा. ऐसे में पूंजीपति यह शर्त थोपने में कामयाब हो जाते हैं कि पैसा चाहिए तो हमें निर्बंध काम करने की अनुमति दी जाए. यही होता है. सरकार एडम स्मिथ के ‘लेजेज फेयर’ का अनुसरण करने लगती है. बदले में पूंजीपतियों की ओर से पैसा आता है. हालांकि यह बड़ा भ्रम है. अपनी स्थिति और पहुंच का लाभ उठाते हुए पूंजीपति केवल उसका श्रेय ले जाता है. सच तो यह है कि सरकार के साथ–साथ पूंजीपति का खजाना भी जनता की खून–पसीने की कमाई से भरता है. बहरहाल, सरकार को अपने समर्थन में देख पूंजीपति और पैसा कमाना चाहते हैं. उनकी सहूलियत के लिए सरकार कुछ ऐसी नई संस्थाओं का गठन करती है, जिससे उनकी राह आसान हो सके. परिणामस्वरूप पूंजीपतियों का मुनाफा बढ़ता है और वे फिर नई शर्तें थोपने, कुछ और आजादी की मांग करने लग जाते हैं. धीरे–धीरे जो संस्थाएं सरकार ने खड़ी की थीं, वे पूंजीपतियों का मुनाफा कमाने का माध्यम बन जाती है. जैसे कि शिक्षा मनुष्य का मौलिक अधिकार है. इसलिए वह सभी को बराबर, एक समान मिलनी चाहिए. लेकिन हालात ऐसे नहीं हैं. प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में ही एक ओर ऐसी पाठशालाएं हैं, जहां बिछाने के लिए टाट तक नहीं हैं. दूसरी ओर वातानुकूलित कमरों से बने, आलीशान कान्वेंट स्कूल हैं. यह विषमता सड़क, यातायात, मनोरंजन हर जगह देखी जा सकती है. यहां तक कि अदालतें भी पीछे नहीं हैं. पूंजीपतियों के समर्थन और पैसे बनी सरकार को उन्हें मनमर्जी करने की छूट देनी ही पड़ती है. अब पूंजीपति हैं तो किसी एक तकनीक से भला क्यों संतुष्ट होंगे. वे हर उस क्षेत्र पर छा जाना चाहते हैं, जहां से उन्हें मुनाफे की उम्मीद हो. उनका बस चले तो आदमी सांसों का व्यापार भी करने लगें. असल में तो वे ऐसा करते भी हैं. अत्याधुनिक पूंजी के दम पर बने अस्पतालों को देख लीजिए. वहां ऐसा ही होता है. जिसके पास खर्च करने को है. एक साथ कई डा॓क्टर उसकी सांसों की गिनते करने में जुटे रहते हैं. ऐसी जिंदगियां जो सांसों की कीमत का भुगतान करने में नाकाम हैं, वे अस्पताल के बाहर भीड़ भरे चौराहों पर दम तोड़ लेती हैं. बाजार में बढ़ रही सुविधाओं तथा उन्हें एक झटके में बटोर लेने की चाहत ने आदमी को संवेदनहीन बनाया है. मानव–कल्याण से जुड़ा प्रत्येक क्षेत्र जो कहीं न कहीं मानवाधिकार का मसला भी है, कई खानों में बंटा हुआ है. यदि गौर देखा जाए तो वे सब पूंजीपतियों के मुनाफा कमाने के रास्ते हैं. सरकार की मजबूरी है कि लोकतंत्र के कारण उसे जनता पर निर्भर रहना पड़ता है. विकास का दिखावा करना पड़ता है. इसलिए वह जब–तब लोककल्याण कार्यक्रमों का दिखावा करती रहती है. मगर हालात में वास्तविक परिवर्तन हो नहीं पाता. सरकार संवेदनहीनता को बनाए रखने का भी कोई प्रयास नहीं कर पाती. वह आदमी को निस्संवेद भीड़ में बदलने के लिए प्रयासरत होती है. इन कमजोरियों के बावजूद सरकार यदि जरूरी है तो सोचना होगा कि कौन–सी सरकारें ज्यादा हितकारी है. वे कौन–सी सरकार हैं, जिनके रहते मनुष्य अधिकतम स्वतंत्रता, सुख और सुरक्षा की प्राप्ति कर सकता है? सभ्यता के आरंभ से लेकर आज तक सरकार के अनेक रूप अपनाए जा चुके हैं. ऐसा दौर भी देखा गया है कि जब एक ही युग में विभिन्न देशों में सरकार के अलग–अलग रूप रहे हैं. कुछ देशों में मिश्रित सरकार के प्रयोग हुए. लेकिन वह नाकाम सिद्ध हुए. सरकार की यानी अच्छी सरकार के बारे में कहा गया है कि सरकार जो कम से कम शासन करे. इसका एक अर्थ यह भी है कि सर्वोत्तम सरकार न्यूनतम शासन करती है. वह शासन करने जैसी स्थिति बनने नहीं देती. अपने आचरण की नैतिकता का उदाहरण पेश कर वह अपने नागरिकों का नैतिक स्तर इतना ऊपर उठा देती है कि उन्हें किसी बाहरी शासन की आवश्यकता ही नहीं पड़ती. पर न्यूनतम शासन कह देना आसान है, उस स्थिति को प्राप्त करना बहुत ही कठिन. आखिर सत्ता और संपत्ति को नापसंद कौन करता है. समाज में होड़ मची हो तो आगे निकलकर दूसरों से विशिष्ट दिखने के लिए सत्ता और संपत्ति दोनों की प्रमुख भूमिका होती है. दरअसल हमारी यह मानसिकता दर्शाती है कि हम अच्छी सरकार चाहते ही नहीं हैं. हमारा खुद से मनुष्यता से विश्वास उठ चुका है. हम सुधार की उम्मीद छोड़ चुके हैं. और अब हालात यह हैं कि हमारा आलस्य और लापरवाही हम पर भारी पड़ने लगी है. इसलिए चुनावों के बाद हमारे यहां चेहरे बदलते हैं. कभी–कभी पुराने चेहरे ही मुखौटा लगाकर हाजिर हो जाते हैं. वास्तविक सत्ता परिवर्तन कभी हो नहीं पाता. फिर भी यदि इस सत्य को हम समझने लगे हैं, यदि हम जानने लगे हैं कि लोकतंत्र को भीड़तंत्र या कुलीनतंत्र में बदलत़े हुए देखने के लिए हम भी उतने ही जिम्मेदार हैं, तो भूल–सुधार जैसी कोशिश की जा सकती है. की जानी चाहिए. यदि हम इस सत्य को जानने लगे हैं कि अच्छी सरकार वह है जो कम से कम शासन करती है, तो इसका सीधा–सा अभिप्राय है कि अच्छी सरकार वह है जो अपने नागरिकों को स्वयं शासित बनाने, आत्मानुशासन में ढालने का संकल्प धारण कर चुप नहीं बैठ जाती. बल्कि निरंतर प्रयासरत रहती है. वह जानती है कि यदि नागरिक आत्मानुशासित होंगे तो उन्हें किसी प्रकार के बाह्यानुशासन की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी. लेकिन यह अनुशासन पीटी के अध्यापक द्वारा अनुशासन शब्द बोलना और भागीदारों का एक खास मुद्रा में आ जाना नहीं है. अनुशासन शब्द व्यापक है. वह मर्यादित भोग और संतुलित वितरण में सहयोग तक जाता है. यह आत्मसम्मान के साथ दूसरे के मान को सुरक्षित बनाए रखने का मामला भी है. यह जियो और जीने दो की भावना है. यह कोई नई समस्या नहीं है. मनुष्य इस समस्या से शताब्दियों से जूझता आया है. सफलता भी मिली है. परंतु तभी तक जब तक इंसान खुद जागरूक रहा है, जब तक उसने अपना नियंता स्वयं को माना है. जैसे ही वह लापरवाह हुआ, मानसिक और शारीरिक आलस्य ने उसे घेरा है—सत्ताओं पर स्वार्थी वर्गों के सवार होते देर नहीं लगी है. जब सरकार का वर्तमान स्वरूप नहीं था, सोचा गया था कि धर्म की सहायता से लोगों को पारलौकिक सत्ता का डर दिखाकर अनुशासन में रखा जाए. अतिरिक्त धन–संपदा मनुष्य के मन में लालच बढ़ाती है, इसलिए अपरिग्रह, अस्तेय, संतोष आदि को प्रत्येक धर्म ने अपना ध्येय माना. धर्म के साथ दूसरे नैतिक मूल्य भी जोड़े गए. फलस्वरूप धर्म शताब्दियों तक मनुष्य का नैतिक और सामाजिक मार्गदर्शक बना रहा. आदमी थोड़ा निश्चिंत हुआ तो धर्म के नाम पर धड़े बनने लगे. मंदिरों में सोने की मूर्तियां आकर सजने लगीं. और जिस व्यक्ति को मानव समाज ने अपना राजा बनाया था, वह स्वयं को ईश्वरीय प्रतिनिधि बताकर अपने लिए विशिष्ट अधिकारों की मांग करने लगा. ऐसे में व्यवस्था का लंबे समय तक टिके रहना और निर्णायक प्रेरणा शक्ति बने रहना असंभव था. लेकिन मनुष्य के चेतने में देर हो चुकी थी. समाज तब तक आर्थिक–सामाजिक आधार पर बंट चुका था. शासक और शासित संस्कृति का अंतर साफ नजर आने लगा था. चूंकि शासक वर्ग दूसरों से अधिक साधन–संपन्न था, तथा बाकी लोग आर्थिक–राजनीतिक रूप से उसपर निर्भर थे, इसलिए उनसे प्रेरित होना, उनके आदेश को मानना उनकी विवशता थी. यानी धर्म जो स्वयं नैतिकता का प्रवत्र्तन करने निकला था, जिसने स्वयं को आचार संहिता गढ़ी थी, वह भ्रष्ट, स्वार्थी धर्माचारियों के कारण विचलन का शिकार होने लगा. धर्म की बढ़ती ताकत देख कालांतर में राजसत्ता को स्वयं उसके करीब आना पड़ा. राजनीतिक–धार्मिक सत्ता के गठजोड़ ने आम आदमी की स्वाधीनता को धीरे–धीरे छीनना आरंभ किया. अब वह धर्म और राजनीति के नाम पर नाटक करने लगा. इससे निपटने के प्रयास भी हुए. दरअसल धर्मसत्ता के प्रवत्र्तकों की नीति संकट के समय कछुए की भांति अपने शरीर को समेट लेने और अवसर मिलते ही बिच्छु की तरह झपटकर डंक मार देने की रही है. कहा जा सकता है कि धर्म की प्रवृत्ति जहां आत्म को मजबूत, सक्षम और सहृदय बनाने की होनी चाहिए, बजाय इसके उसने लोक–परलोक, पाप–पुण्य, स्वर्ग–नर्क जैसी निराधार संकल्पनाओं द्वारा मनुष्य को निरंतर कमजोर बनाया है. सरकार जो कम से कम शासन कर सकती है, वही हो सकती है जो नागरिकों को विवेकवान बनने, उन्हें आपसी तालमेल और विश्वास द्वारा आगे बढ़ने का पूरा–पूरा अवसर देती हो. इसके लिए समाज में स्पर्धा का लोप आवश्यक है. यह तभी संभव है जब उत्पादन राज्य की जरूरत के आधार पर तय किया जाए और प्रत्येक व्यक्ति को आगे बढ़ने के समान अवसर प्राप्त हों. इसके लिए समानता आधारित व्यवस्था चाहिए. यह सही है कि प्रत्येक मनुष्य की कुछ चारित्रिक भिन्नताएं होती हैं. यह संभव नहीं है कि प्रत्येक मनुष्य को एक ही ढांचे में ढाला जाए. विविधवर्णी समाज के लिए भी यह उचित भी नहीं है. लेकिन मनुष्य को यह तोष होना चाहिए कि उसने जो काम किया है, उसका प्रतिफल उसको प्राप्त हो चुका है. साथ–साथ यह विश्वास भी जरूरी है कि आगे जो भी कामना करता है, उसको न्यायपूर्ण रास्ते पर चलकर पाया जा सकता है. इस कार्य में समाज उसका प्रतिद्विंद्वी न होकर सहयोगी है. दूसरे शब्दों में मनुष्य का अपनी समाज–व्यवस्था पर भरोसा होना अनिवार्य है. यदि ऐसा न हो वह उन रास्तों का अनुसरण करने की सोचेगा, जो समाज के वृहद हितों को नुकसान पहुंचाने वाले हों. अब जरा आधुनिक लोकतांत्रिक प्रणाली पर भी विचार करके देखा जाए. यह माना जाने लगा है कि लोकतांत्रिक समाजवाद शासन की सर्वोत्तम प्रणाली है. फुकोयामा जैसे चिंतक मानते है कि यह मानवीय मेधा का चरम है. इसके बाद इतिहास का अंत स्वाभाविक है. इसलिए वे विचारधारा के अंत की घोषणा भी करने लगे हैं. यह बुद्धिजीवी हताशा की घोषणा है. एक तरह से ये उस बाजारवादी मानसिकता को संतुष्ट करते हैं, जो निद्र्वंद्व उपभोग के लिए मनुष्य को विचार से एकदम काट देना चाहते हैं. करीब डेढ़ शताब्दी पहले नीत्शे ने भी ईश्वर के अंत की घोषणा की थी—‘ईश्वर मर चुका है, हमने उसकी हत्या की है.’—नीत्शे ने जिन दिनों यह कहा, वह विकृत पूंजीवाद का युग था. जिसके विरोध में दुनिया–भर में बौद्धिक आंदोलन खड़े हो रहे थे. नीत्शे ने शायद सोचा था कि उत्पादन व्यवस्था की क्रांति मनुष्य के चिंतन–स्तर में वास्तविक सुधार करेगी. फलस्वरूप वह धर्म, संप्रदाय जैसे प्रलोभनों तथा तज्जनित भीरूताओं के चंगुल से बाहर आने में सक्षम होगा. मगर हुआ बिलकुल उल्टा. जिस धर्म से पूंजीवाद को खतरा महसूस होता था, जिसे वह अपने अबाध विस्तार में सबसे बड़ा रोड़ा मानता था, पूंजीवाद के विरुद्ध विचारकों की लड़ाई में वही सबसे ज्यादा सहायक सिद्ध हुआ. लेकिन भारत में तथा अन्य देशों में लोकतंत्र के नाम पर जो क्षेत्रीयतावाद, जातिवाद, भाषा–संस्कृति, धर्म आदि का विभेदकारी खेल खेला जाता है, क्या वह उचित है? जो लोकतंत्र अपने विरोध को आत्मसात करने सामथ्र्य खो बैठा हो, जहां अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का संसद के गलियारों से बाहर जाते ही दम तोड़ देता हो, क्या वह देश सही अर्थ में लोकतंत्र कहा जा सकता है? जिस देश का मीडिया पूंजीपतियों के हितों का संरक्षक हो, उन्हीं की भाषा बोलता हो. उन्हीं के समर्थन में दिन–रात काम करता हो, वहां निष्पक्ष प्रेस से क्या कोई उम्मीद की जा सकती है? दरअसल लोकतंत्र एक चेतन समाज की अभिव्यक्ति है. यदि समाज में पर्याप्त लोकतांत्रिक चेतना हो, तो राजनीति हो या प्रेस, सचाई से विचलन आसान नहीं रह जाता. लोकतंत्र की कमजोरी यह है कि वह व्यक्ति को राजनीतिक अधिकार तो देता है, किंतु उन्हें समानता के स्तर पर लाने का कार्य नागरिकों के भरोसे छोड़ देता है. पर्याप्त नागरिक चेतना के अभाव में लोकतंत्र में नेता अपने नागरिकों को आकर्षित करने के लिए ऐसे मुद्दे उछालने तथा उनका राजनीतिक लाभ उठाने में सफल हो जाते हैं, जिनका उनके विकास से कोई लेना–देना नहीं होता. इसे वे लोकप्रिय राजनीति की मजबूरियां बताकर मीडिया भी कमोबेश मान्य ठहरा देता है. लोकतंत्र एक चेतन समाज का दर्शन है. यदि समाज में पर्याप्त लोकतांत्रिक चेतना न हो तो उसका कोई अर्थ ही नहीं रह जाता. लोकतंत्र की कमजोरी यह है कि वह व्यक्ति को समान अधिकार तो देता है, परंतु उसको समानता के स्तर पर लाने की जरूरत को बिसरा देता है. अथवा उसकी ओर ध्यान ही नहीं देता. या फिर उस काम को समय के भरोसे छोड़कर निश्चिंत हो जाता है. पर्याप्त नागरिक चेतना के अभाव में लोकतंत्र में नेता अपने नागरिकों को आकर्षित करने के लिए ऐसे मुद्दे उछालने आरंभ कर देते हैं, जिनका उनके जीवन और उसकी समस्याओं से कोई सीधा संबंध नहीं होता. लोकतंत्र में इस प्रकार के मुद्दे राजनीतिक लाभ के लिए, प्रायः धर्म और मीडिया के क्षेत्र में कार्यरत शक्तियों की सहायता से तैयार किए जाते हैं. इसका दुष्परिणाम यह होता है कि जनता अपने नेता के नैतिक आभामंडल तथा अन्य सद्गुणों के अभाव में जाति, धर्म, क्षेत्रीयता आदि को देखकर निर्णय लेने लगती है. चूंकि लोकलुभावन राजनीति के चालू तरीके खर्चीले भी होते हैं, इसलिए चुनावों में अधिक धन खर्च करने वाले व्यक्ति को उसका लाभ भी मिलता है. लोकतंत्र को लेकर यह डर आज का नहीं है. बल्कि उस समय से है जब इस व्यवस्था का जन्म ही हुआ था. करीब ढाई हजार वर्ष पहले सुकरात ने लोकतंत्र को बहुसंख्यक वर्ग की मनमानी का तंत्र कहकर उसकी आलोचना की थी. प्लेटो ने तो अपनी महान कृति ‘रिपब्लिक’ में अनेक पन्ने लोकतंत्र की आलोचना में काले किए थे. उसके अनुसार लोकतंत्र कालांतर में निरंकुश तंत्र में बदल जाता है. यह उसकी स्वाभाविक परिणति है. प्लेटो ने विकल्प के रूप में दार्शनिक सम्राट का सुझाव दिया था. दार्शनिक सम्राट के रूप में प्लेटो की कल्पना अपने आप में खोए रखने, शासन और दुनियादारी की ओर से बेफिक्र रहने वाले आत्मलीन मुनि जैसी नहीं थी. दार्शनिक सम्राट से उसका आशय सद्गुणों से संपन्न साहसी, वीर, निडर, शांतिप्रिय, बुद्धिमान, ईमानदार, न्यायपरक, सहिष्णु, निष्पक्ष, मनुष्यता के उदात्त गुणों से संपन्न तेजोमय शासक से था. ऐसा व्यक्ति जो न केवल शांतिकाल में राज्य को विकास के शिखर पर पहुंचा सके, बल्कि युद्धकाल में सीधे समर में उतर कर दुश्मन को नाकों चने चबवा सके. प्लेटो की ऐसी ही परिकल्पना थी. प्लेटो का दार्शनिक सम्राट ऐसा उदात्त व्यक्तित्व था, जो प्रत्येक क्षेत्र में सर्वोत्तम हो. मोह, माया, लालच और स्वार्थ से दूर, ऐसा व्यक्ति जो जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में श्रेष्ठतम हो. दार्शनिक सम्राट की गरिमा भी उसको एकाएक नहीं मिल जाती. उसके लिए प्लेटो ने पूरा विधान तैयार किया था, जिसमें उच्चतम शिक्षा, देश–सेवा से लेकर अनिवार्य सैन्य सेवा भी सम्मिलित हैं. कठिन परिश्रम, स्वाध्याय, उम्र के लंबे अनुभव के बाद ही व्यक्ति इन कसौटियों पर खरा उतर सकता है. आयु की मर्यादा विलक्षण प्रतिभाशाली पर लागू नहीं होती. भारत में प्राचीन यायावर मुनियों के रूप में हमें ऐसी ही प्रतिभाओं के बारे में सुनने को मिलता है. लेकिन भारतीय मुनियों और आश्रम व्यवस्था तथा प्लेटो के दार्शनिक की संकल्पना में मूल अंतर है. यह कि प्लेटो के आदर्श समाज में वंश परंपरा के लिए कोई स्थान नहीं है. बल्कि वहां व्यक्ति के निजी संबंध और भावनाओं को भी उपेक्षित रखा जाता है. प्लेटो सामूहिक जीवन की वकालत करता था. इसके लिए दार्शनिक समेत सभी नागरिकों को साझा छत के नीचे सोना, एक जैसा भोजन करना, एक समान जीवन–स्तर अपनाना अनिवार्य था. उसने सोने–चांदी के उपयोग को वज्र्य माना है. निजी संपत्ति को वह एक सीमा के बाद नकार देता है. साझा जीवन की प्लेटो की संकल्पना आगे चलकर पत्नियों में साझेदारी तक विस्तार ले जाती है. समानता के विचार के लिए कभी–कभी वह अति की सीमा को पार करता नजर आता है. विशेषकर उस समय वह जब वह काम संबंधों को मर्यादित करने की सोचता है. उसके आदर्श राज्य में मनुष्य के भावनात्मक संवेगों के लिए कोई स्थान नहीं था. उसने व्यवस्था की थी कि बच्चों का लालन–पालन इस प्रकार किया जाना चाहिए कि माता–पिता और उनकी संतान एक–दूसरे को पहचान न सकें. बच्चे समाज की जिम्मेदारी हैं और उसी का भविष्य. इसलिए बच्चों के लालन–पालन की जिम्मेदारी अभिभावक होने के नाते हमारी भी है. संतानोत्पत्ति राजकीय धर्म है. योग्य संतान जन्म ले सके, इसके लिए प्लेटो ने विशेष अवसर पर स्वस्थ्य एवं बुद्धिमान स्त्री–पुरुष के जोड़ों को परस्पर मिलने, संतानोत्पत्ति के लिए समागम करने की अनुशंसा की है. प्लेटो की सहजीवन के प्रति सिफारिशें इतनी अधिक हैं कि वर्तमान समय में वे हमें अवास्तविक लगने लगती हैं. इसी के साथ उसका आदर्श राज्य का सपना भी वायवी बन जाता है. प्लेटो को अपने देश एथेंस से प्यार था, मगर वह स्पार्टा की योद्धा संस्कृति से बेहद प्रभावित था. स्पार्टा के हाथों एथेंस की पराजय की स्मृतियां उनके दिलो–दिमाग पर थी. अत्यंत प्रतिभाशाली होने के साथ वह स्वयं बेहद सुंदर और शरीर सौष्ठव में दूसरों से आगे था. उसके व्यक्तित्व की यही खूबियां दार्शनिक सम्राट की परिकल्पना पर प्रभावी हैं. जीवन में शुभत्व की प्रतिष्ठा हेतु, प्लेटो की निष्ठा संदेह से परे है. इस बात को संभवतः प्लेटो भी समझता था. इसलिए अपनी आरंभिक कृतियों में दार्शनिक सम्राट का समर्थन करनेवाला प्लेटो अपने जीवन के उत्तरकाल में दार्शनिक मंडल को राज्य की बागडोर सौंपे जाने की सिफारिश करने लगता है. दार्शनिक मंडल से प्लेटो का अभिप्राय समाज के निर्वाचित व्यक्तियों को सौंपे जाने से था. प्लेटो की दार्शनिक की परिभाषा, व्यापक संदर्भ लिए हुए है. उसके अनुसार दार्शनिक वह है जो विलक्षण मेधावी, प्रतिभासंपन्न अपरिग्रही, उदार, सत्यनिष्ठ, उच्च शिक्षित, अध्येता, तर्क शास्त्री, तर्कशास्त्री, उदारचेता है. अपने–अपने क्षेत्रों मंे निपुण और परंगत हैं. लोकतंत्र में भी जनप्रतिनिधि से अपेक्षा पर सकती है कि वह उदार, परमविद्वान, सत्यनिष्ठ, वीर, साहसी और नेतृत्वकला में निपुण हो. व्यवहार शास्त्र में उसके प्रवीणता हासिल हो. लोकतंत्र में भी जनप्रतिनिधि से यह अपेक्षा की जाती है कि वह उपर्युक्त कसौटियों पर खरा उतरता हो. चूंकि एकल व्यक्ति कभी भी निरंकुश हो सकता है, इसलिए राज्य के भले के लिए आवश्यक है कि एकाधिक व्यक्तियों को शासनाधिकार सौंपे जाएं. तथा सम्मिलित राय से शासन चलाया जाए. उनका एक मुखिया जरूर हो, मगर वह दूसरों की राय का प्रतिनिधित्व करे. मनमानी करने से बचे. उसको मनमानी से रोकने के लिए जनता के पास पर्याप्त अधिकार हों. प्लेटो के दार्शनिक मंडल की परिणति एक आधुनिक संसदीय लोकतंत्र के रूप में देख सकते हैं. संसद के लिए निर्वाचित लोक प्रतिनिधियों से अपेक्षा की जाती है कि गुणी, बुद्धिमान, तथा ईमानदार हों. उन्हें अपने राष्ट्र एवं क्षेत्र की समस्याओं की समझ हो. वे कुशल वक्ता तथा विवेकवान हों. ताकि जनप्रतिनिधियों के बीच अपनी बात को सलीके और सिलसिलेवार ढंग से प्रस्तुत कर सकें. शब्दों के थोड़े ऐर–फेर के साथ यही गुण दार्शनिक के भी हैं. प्लेटो का मानना था कि दार्शनिक सम्राट लोकेच्छा को समझने वाला होगा. इसलिए वह अपनी राय जनमानस पर थोपने के बजाय लोगों की इच्छाओं को अधिक महत्त्व देगा. और जैसे जैसे लोग उसे अपनाएंगे, दार्शनिक की इच्छा व्यापक लोकेच्छा का प्रतिनिधित्व करती हुई नजर आएगी. इसलिए कि दार्शनिक के स्तर को प्राप्त करने के बाद वह लौकिक सुखों, मान–सम्मान की छिछली आकांक्षाओं, लोभ–मोह आदि से मुक्त हो चुका होगा. ऐसे व्यक्ति का प्रत्येक निर्णय लोकोन्मुखी होगा. भारतीय और यूरोप के समाजों में पद्रहवीं शताब्दी बौद्धिक चेतना के विस्तार की थी. धार्मिक पाखंड और रूढि़यों के प्रति जागरूकता की शुरुआत भी इसी दौर में हुई. भारत में कबीर, रैदास, संत ज्ञानेश्वर, आदि भक्त कवियों ने धार्मिक पाखंड का विरोध करते हुए मनुुष्य की आध्यात्मिक जिज्ञासाओं को उर्ध्वगामी बनाने पर जोर दिया. उन्होंने धर्म और शास्त्रीयता के नाम पर पनपे कर्मकांड की भत्र्सना की तथा धार्मिक कुरीतियों के लिए पंडों–मौलवियों को ललकारा. यूरोप में यह काम मार्टिन लूथर ने किया था. दरअसल पंद्रहवीं–सोलहवीं शताब्दी के जिस दौर की ये घटनाएं हैं, भारतीय संदर्भ में तब की सामाजिक चेतना धार्मिक और सांस्कृतिक वर्चस्ववाद से मुक्ति की लहर के रूप में पनपी थी. उन संतों, महात्माओं के धर्म के केंद्रीय सत्तावाले चरित्र से कोई शिकायत न थी. बल्कि दीनता के चरम पर जाकर भक्त कवि ईश्वर की अधिसत्ता को और भी पुख्ता रूप दे देते थे. यही दौर था जब पश्चिम में मशीनीकरण की प्रक्रिया के साथ–साथ वैचारिक क्रांति ने दस्तक दी. भारत उस समय मुगल साम्राज्य का हिस्सा था. उसकी अर्थव्यवस्था के साधन पुराने थे. इसलिए भारत भक्तिकाल की चेतना को वास्तविक परिवर्तन की दिशा देने में नाकाम सिद्ध हुआ था. जिससे भक्ति आंदोलन की समस्त क्रांतिकारिता गुरुडम, मूर्तिपूजा, कर्मकांड को बढ़ाने वाली सिद्ध हुई. इसके विपरीत पश्चिम में उत्पादन के नवविकसित साधन मध्यवर्ग के उदय के साथ परिवर्तनकारी सिद्ध हुए. उभरती मध्यवर्गीय चेतना ने वहां वयस्क मताधिकार, लोकतंत्र एवं समाजवाद जैसे नए विचारों और आंदोलनों को जन्म दिया. फलस्वरूप वहां नई सभ्यता एवं संस्कृति का विकास संभव हुआ. जिनपर परंपरागत मूल्यों, जो उससे पहले तक समाज का नेतृत्व करते आए थे, का प्रभाव निरंतर क्षीण होता गया. नई व्यवस्था समाज एवं राजनीति के प्रति नई आलोचना दृष्टि पैदा कर रही थी. खासकर तेजी से उभरते मध्यवर्ग में जो निस्संदेह औद्योगिक क्रांति का सुफल था, वर्गीय चेतना का उदय होता जा रहा था. दरअसल मध्यवर्ग अपने ही भीतर बुरी तरह विभाजित था. भौतिक सुखों के प्रति बढ़ती उसकी लालसाएं एक ओर तो पूंजीपति वर्ग का भरोसेमंद बने रहने को प्रेरित करती थीं, दूसरी ओर श्रमिकों के शोषण, उत्पीड़न में पूंजीपतियों का साथ देने के लिए मजबूर कर देती थीं. इसके पीछे उनके मन में छिपा क्षोभ था, जो सपनों के अनुरूप अपेक्षित आय न होने के कारण जन्मा था. प्रारंभ में गणतांत्रिक अधिकार देश के अभिजात वर्ग को प्राप्त थे. प्लेटों के समय में भी अभिजात उसी को माना जाता था, जो कुलीन हो तथा जिसे न्यूनतम निर्धारित भूमि का स्वामित्व प्राप्त हो. प्लेटो ने हालांकि गणतंत्र की आलोचना की थी, लेकिन मध्यवर्ग को यह विश्वास था कि गणतांत्रिक अधिकार मिलने से उसकी राजनीतिक ताकत में वृद्धि होगी. जो उसके विकास के रास्ते प्रशस्त करेगी. दूसरे शब्दों में वर्गीय शोषण का शिकार रहा मध्यवर्ग अपनी मुक्ति के लिए उसी रास्ते को अपनाना चाहता था, जो वर्ग–विभाजन के जिम्मेदार था. प्रकारांतर में वही उसके शोषण का कारण भी था. इसलिए आर्थिक समानता से पहले राजनीतिक समानाधिकारिता की मांग जोर पकड़ती गई. उसके लिए पहल चार्टिस्ट आंदोलनकारियों की ओर से की गई. जिनकी मुख्य मांग संसद में सदस्यता हेतु श्रमिक–प्रतिनिधियों के लिए न्यूनतम स्थान आरक्षित करने तथा वयस्क मताधिकार को लागू करने की थी. चार्टिस्ट आंदोलन को व्यापक लोकप्रियता मिली. इसका आकलन करने के लिए मात्र यह उदाहरण पर्याप्त होगा कि अपनी मांग के समर्थन में चार्टिस्ट आंदोलनकारियों द्वारा वर्षों लंबा हस्ताक्षर अभियान चलाया गया, जिसमें वे अपनी मांगों के समर्थन में 60 लाख हस्ताक्षर लेने में कामयाब हुए थे. हालांकि आंदोलनकारियों के इस दावे को आलोचकों ने नकार दिया था. लेकिन चार्टिस्ट आंदोलनकारियों की इस मांग में दम था. हस्ताक्षरों की गिनती के लिए 13 व्यक्ति लगाए गए थे. लगातार 17 घंटे गिनती करने के बाद वे केवल 19 लाख हस्ताक्षर ही गिन पाए थे. आज से लगभग 175 वर्ष पहले यह बहुत बड़ी बात थी. व्यापक जनसमर्थन पाकर चार्टिस्ट आंदोलन बढ़ता गया. इससे ब्रिटिश सरकार का घबरा जाना स्वाभाविक था. आंदोलन को कुचलने के लिए बल प्रयोग का सहारा लिया गया. जिसमें हजारों चार्टिस्टों को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया तथा सैकड़ों को स्वैच्छिक मृत्युदंड की सजा मिली. चार्टिस्ट आंदोलन हालांकि नाकाम सिद्ध हुआ, फिर भी चार्टिस्ट आंदोलनकारी को ब्रिटिश संसद में श्रमिक प्रतिनिधियों के लिए स्थान आरक्षित कराने, निर्वाचन प्रणाली में ढील दिए जाने में सफलता मिली थी. विज्ञान और औद्योगिकीकरण से बढ़ती सुविधाएं जहां लोगों के जीवन को अधिक सुख–सुविधामय बना रहे थे, वहीं उनके मन में शोषण से मुक्ति की चाह भी जगा रहे थे. मुक्ति की छटपटाहट पहले धार्मिक सुधारवादी आंदोलन के रूप में हुई थी. धर्म और राजनीति के गठजोड़ ने जहां धर्मसत्ता को मजबूत बनाया था. वहीं सामंती उत्पीड़न को भी बढ़ावा दिया था. अपनी स्थिति को स्पष्ट करने के लिए धार्मिक सत्ताएं लगातार शक्ति बटोर रही थीं. इसके लिए उन्हें सामंतों की शोषणकारी वृत्ति से भी परहेज न था. ये लोग धर्म और शास्त्रों की मनमानी व्याख्या करते थे. वे जनसामान्य को त्याग, संयम तथा भोग–विलास से दूर रहने की सीख देने वाले उन मठाधीशों का अपना जीवन विलासिता का प्रतीक था. धर्म के नाम पर संघवाद, पूजा के स्थान पर कर्मकांड समाज में परोसा जाता था. धर्म के नाम पर फैले आडंबर का सबसे पहला विरोध मार्टिन लूथर ने शुरू किया. बाद में जाॅन काॅल्विन ने यह कहते हुए कि सृष्टि में प्रत्येक वस्तु का अस्तित्व मनुष्य की खुशी के लिए है, पहली बार सुख को जीवन के लक्ष्य के रूप में स्वीकारा. उससे पहले सुख की वांछा को हेय मानकर उसकी उपेक्षा का चलन था. सांसारिक सुखों को दुख का कारण, मोह–माया में संलिप्तता की जड़ और मोक्ष की राह में बाधक कहकर नकारा जाता था. जबकि धर्म और राजनीति से प्राप्त ताकत का लाभ उठाकर दूसरा वर्ग विलासितापूर्ण जीवन जीता था. लूथर ने धर्म के आडंबरवाद को ललकारा और उसको लोकोन्मुखी चेहरे को उभारने का काम किया. का॓ल्विन ने उससे भी एक कदम आगे बढ़ते हुए सुख के साथ जुड़ी हीनताग्रंथि को चुनौती दी. उसने जोर देकर कहा कि दुनिया में कोई भी वस्तु ऐसी नहीं है, जिसका लक्ष्य आदमी को सुख पहुंचाना न हो. ये सभी कोशिशें, जनसाधारण को राजनीति और विकास की मुख्यधारा से जोड़ने के लिए थीं. जो सहòाब्दियों से उपेक्षा और वर्जनाओं का शिकार होता आया था. आम आदमी को वर्जनाओं और निषेधों से बाहर निकालने का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य वाल्तेयर ने किया. मानवीय अस्मिता को विमर्श के केंद्र में लाने का श्रेय उसी को प्राप्त है. वाल्तेयर ने तार्किक शिक्षा पर जोर दिया. असमानताओं के लिए धर्म और संस्कृति को दोषी ठहराया तथा हर उस चुनौती को करारा जवाब दिया, जो उन जड़ताओं का, यथास्थिति का समर्थन करती थी. इसके बावजूद समाज में दास प्रथा कायम रही. सामाजिक–आर्थिक असंतुलन बना रहा तो इसलिए कि उस समय तक प्रौद्योगिकीय क्रांति अपने आरंभिक दौर में थी. संसाधनों पर यथा–स्थितिवादी सामंतवाद वर्ग का कब्जा था. इसके लिए दुनिया को उन्नीसवीं शताब्दी तक प्रतीक्षा करनी पड़ी, जब प्रौद्योगिकीय क्रांति के लाभों के साथ–साथ उसके नुकसान भी दुनिया के सामने आने लगे थे. अस्मितावादी आंदोलनों का दूसरा दौर कहा जाए कि निर्णायक दौर सतरहवीं शताब्दी में औद्योगिकीकरण के उभार के दिनों में हुआ. दरअसल उत्पादन बढ़ने से बाजार की समस्याओं में वृद्धि हुई थी. नए बाजारों की खोज में पहले वाणिज्यिक कंपनियों ने बाहर निकलकर अपने आर्थिक उपनिवेश स्थापित किए. फिर उन उपनिवेशों को राजनीति के अधिकार क्षेत्र में लाकर वहां साम्राज्यवादी खेल खेला जाने लगा. मशीनीकरण ने मध्यवर्ग की संख्या में उल्लेखनीय वृद्धि की थी. कालांतर में यही वर्ग सामाजिक बदलाव के लिए नेतृत्वकारी शक्ति बना. हालांकि मध्यवर्गी चेतना प्रायः अपने स्वार्थी मनसूबों के इर्द–गिर्द घूमती थी. एक ही समय में इसका एक धड़ा, बल्कि कहना चाहिए कि मजबूत धड़ा, पूंजीवाद के समर्थन में जुटा था; और उसको मजबूती प्रदान करता था. पूंजी के अलावा दूसरी बड़ी ताकत उस वर्ग को मध्यवर्ग से ही मिलती थी. निहित स्वार्थ के लिए दोनों एक–दूसरे को बचाए रखना चाहते थे. जबकि मध्यवर्ग का दूसरा धड़ा पूंजीवाद से जूझने के लिए सर्वहारा समाज को एकजुट होने का आह्वान करता था. शोषित वर्ग के भीतर पैठे स्वाभाविक आक्रोश का लाभ उठाकर वह उसके माध्यम से पूंजीवाद को उखाड़ फेंकने के लिए प्रोत्साहित करता था. इस वर्ग का प्रेरणास्रोत वैज्ञानिक क्रांति और नई विचारधारा से प्रभावित बुद्धिजीवी वर्ग था. चूंकि मशीनीकरण के कारण मध्यवर्ग की संख्या तेजी से बढ़ती जा रही थी. और अकूत पूंजी और शक्ति संपन्न होते हुए भी शीर्षस्थ वर्ग अपने अनेकानेक कर्तव्यों के पालन के लिए इस वर्ग पर निर्भर था, इसलिए मध्यवर्गी विचारकों की मांग को स्वीकार किए जाने पर जोर दिया जाने लगा. इससे पहले इसी वर्ग के विचारकों ने सुखवाद, उपयोगितावाद, विज्ञानवाद जैसे दार्शनिक विचारों को जन्म दिया था. ये विचारधाराएं इतनी लोकप्रिय हुईं कि उन्नीसवीं शताब्दी को इन्हीं की शती कहा जा सकता है. इस तरह लोकतंत्र की मांग एक प्रकार से समय की की मांग थी. सुखवाद और उपयोगितावाद के बहाने भौतिकवाद का समर्थन करती ये विचारधाराएं प्राचीन विचारधाराओं से कई मायने में भिन्न थीं. सुखवाद सुख को मानवजीवन का लक्ष्य स्वीकारता था. इसका दूसरा संकेत था कि सुख पर सभी मनुष्यों का समानाधिकार है. प्राचीन धर्मकेंद्रित विचारधाराएं सांसारिक सुख को हेय मानकर काल्पनिक सुखों का भरोसा दिलाती थीं. उल्लेखनीय है कि धर्म–केंद्रित विचारधाराएं अपने आप में ही विरोधाभास का शिकार थीं. जिस भोग–विलास को वे पारलौकिक सुखों की खातिर हेय बताती थीं, स्वर्ग में उन्हीं का आधिक्य बताया जाता था. वही सुख देवों को अंतहीन मात्रा में उपलब्ध बताकर उन्हें श्रेष्ठ और वरेण्य माना जाता था. इस आधार पर समाज का पुरोहित वर्ग जनसाधारण को बरगलाता था. यह किसी एक देश या धर्म की बात नहीं थी, बल्कि सभी धर्मों का यही हाल था. इस प्रश्न का कि जब अभिजन समाज सांसारिक सुखों के अंतहीन भोग करने पर भी स्वर्ग के अधिकारी बन जाते हैं तो जनसाधारण के लिए वह हेय कैसे हो सकता है—वह जन्म–पुनर्जन्म, पाप–पुण्य और भाग्य की अंतहीन गल्प सुनाने बैठ जाता था. इसी आधार पर चर्च की आलोचना करते हुए का॓ल्विन ने कहा था कि दुनिया की कोई वस्तु ऐसी नहीं है, जो मनुष्य को सुख पहुंचाने के लिए न बनी हो. उससे सुख को हेय मानने वाली प्रवृत्ति कमजोर पड़ने लगी. भारत में चार्वाक और लोकायत दार्शनिक यही तर्क शताब्दियों से देते आए थे. गौतम बुद्ध के समय में भी आजीवक अजित केशकंबली नाम का संप्रदाय सुख को जीवन का मुख्य लक्ष्य मानता था. लेकिन भारतीय लोकमानस पर पुरोहितवाद इतनी तेजी से हावी रहा कि इस सत्य को स्वीकारने की उसकी कभी हिम्मत न पड़ी. आर्थिक रूप से दूसरों पर आश्रित होने के कारण भी जनसाधारण के लिए यह संभव नहीं था कि वह अपने जीवन को अपने ढंग से निर्धारित कर सके. जबकि पश्चिम में मार्टिन लूथर और काॅल्विन के विचारों का व्यापक प्रभाव पड़ा. अमेरिका में उनके विचारों के आधार पर बस्तियों का निर्माण किया जाने लगा. कालांतर में सुखवाद के आधार पर जिस परिपक्व विचारधारा की नींव रखी गई वह मानवता के करीब थी. सुखवादी विचारधारा के प्रखर चिंतक जा॓न स्टुअर्ट मिल ने सुख की कामना को मानव जीवन का लक्ष्य माना, लेकिन उसका सुख केवल भौतिकता की सीमा से बंधा नहीं था. उसने सुख का मानवीकरण किया था. मिल के अनुसार स्वतंत्रता भी सुख की अनिवार्यता है. क्योंकि वह मानवमन को तोष प्रदान करती है, तभी वह सुख के संसाधनों का आनंदमय भोग कर सकता है. दूसरे शब्दों में सुखवाद और उपयोगितावाद के माध्यम से ये विचारक मनुष्य की शताब्दियों पुरानी मानसिक–शारीरिक परतंत्रता से मुक्ति दिलाने के लिए प्रयासरत थे. जनसाधारण को शताब्दियों से कभी धर्म, कभी राष्ट्र तो कभी राज्य–भक्ति के नाम पर बांधा जाता रहा है. सुखवाद और उपयोगितावादी विचारधाराएं मनुष्य को उसके मनुष्यत्व से परचाने की कोशिश करती थीं. व्यक्ति–स्वातंत्र्य के उभार को आगे चलकर जेफरसन और पेन ने मजबूत आधार दिया. अमेरिकी स्वाधीनता की उद्घोषणा के साथ तो इस विचार को मानो वैश्विक स्वीकृति ही प्राप्त हो चुकी थी. मिल ने सुखवाद को नैतिकता की उच्चतम अवस्था माना था. सुख की उसकी परिकल्पना केवल भौतिक सुखों तक सीमित न थी. मिल के अनुसार कर्तव्यपालन, नैतिक आचरण, परदुखकातरता भी सुख के पर्याय हैं. क्योंकि इनमें समूचे समाज के सुख की कामना निहित है. उसने कहा था कि अकेले व्यक्ति का सुख, सुख न होकर स्वार्थ है. जिसे समाज की कीमत पर ही स्वीकार किया जा सकता है. यही बात माक्र्स और माओ ने भी कही. माक्र्स ने सुख की समानता को अवसरों की समानता का नाम दिया और साम्यवादी क्रांति का आह्वान यह कहकर किया कि शताब्दियों के शोषण के उपरांत अपना सबकुछ गंवा चुके सर्वहारा वर्ग के पास खोने के लिए कुछ नहीं है. जबकि जीतने के लिए पूरी दुनिया पड़ी है. उसने सर्वहारा क्रांति के माध्यम से मजदूरों का संगठित होकर सत्ता अपने हाथ में ले लेने को कहा. ‘साम्राज्यवाद कागजी बाघ है.’ और ‘जनता ही असली लोहे का दुर्ग.’ जैसी राजनीतिक ललकार देते हुए माओ ने जनता को संगठित विद्रोह के लिए पुकारा. उसने सभी राष्ट्रीय मुक्ति–युद्धों को समर्थन दिया. अन्य देशों के क्रान्तिकारी संघर्षों को अपनी सफल क्रांति द्वारा प्रेरित किया और बताया कि भड़क उठने पर ‘एक चिंगारी सारे जंगल में आग लगा सकती है.’ चीनी जनता से आगे बढ़कर सत्ता–संविधान को अपने अधिकार में ले लेने के आह्वान के बाद उसने कहा कि आगे बढ़ो और ‘मेहनत तथा किफायत से अपने देश का निर्माण करो.’ उसके कहने पर चीन के मजदूर, किसान और शिल्पकार एकजुट हुए और वहां सफल क्रांति संभव हो सकी. माओ का कहना था कि ‘राज्य–सत्ता का जन्म बन्दूक की नाल से होता है.’ माओ के लिए संस्कृति भी उत्पादन की अन्य प्रेरणाओं जैसी थी. सांस्कृतिक क्रांति का आवाह्न करते हुए माओ ने कहा था—‘क्रांति पर पकड़ कायम रखो और उत्पादन को आगे बढ़ाओ.’ वर्ग–संघर्ष, उत्पादन–संघर्ष और वैज्ञानिक प्रयोग—इन तीन आंदोलनों द्वारा उसने चीनी जनता में सृजनात्मक उत्साह का विस्फोट किया और सभी मोर्चों पर जबरदस्त उपलब्धियां हासिल कीं. फलस्वरूप वहां उत्पादन में रिकार्डतोड़ वृद्धि हुई, उत्पादन–संबंधों में आशातीत क्रांतिकारी परिवर्तन. क्रांति के बाद विशेषज्ञों और नौकरशाहों के व्यक्तिवादी प्रबंधन का स्थान क्रांतिधर्मा श्रमिक संगठनों के हाथों में पहुंच गया. समाजवादी उत्पादन के उपक्रमों के मा॓डलों— कृषिक्षेत्र में ‘ता चाई’ और उद्योग में ‘ता चिङ’ का जन्म हुआ. क्रांति के स्थायित्व एवं जनचेतना के फैलाव के लिए माक्र्स ने सर्वहारा वर्ग को द्वंद्ववाद की दार्शनिक शिक्षा से लैस किया गया, और यह मौलिक विचार दुनिया के सामने रखा कि मनुष्य के विचार, राजनीति और सामाजिक संस्थाएं उसके उत्पादन के संसाधनों से निर्धारित होते हैं. यह विचार अपने आपमें इतना शक्तिशाली था कि दुनिया–भर में उसके आधार पर लोग संगठित होने लगे और एक समय ऐसा आया जब आधी दुनिया की राजनीति मार्क्स के विचारों से निर्धारित होती थी. किसी विचारक की इससे बड़ी उपलब्धि भला और क्या हो सकती है. मिल ने व्यक्ति को समाज के लिए समर्पित होने की कामना की थी. उसने समाज में उम्मीद व्यक्त की थी कि वह व्यक्तिमात्र की अस्मिता एवं स्वतंत्रता का ध्यान रखेगा. स्त्री–मुक्ति का विचार हालांकि रूसो के समय में ही जोर पकड़ने लगा था. बाद में चाल्र्स फ्यूरियर तथा मिल ने भी उसको शिद्दत के साथ आगे बढ़ाया. लेकिन मिल की असली देन थी, व्यक्तिमात्र की स्वतंत्रता पर जोर देना. देखा जाए तो मिल का व्यक्ति–स्वातंत्र्य का विचार रूसो की ‘व्यक्ति–मुक्ति’ की भावना का ही विस्तार था. रूसो ने कहा था कि मनुष्य आजाद जन्मा है. लेकिन वह हर जगह बेडि़यों में है. ये बडि़यां धर्म, कानून, समाज आदि किसी की भी हो सकती हैं. व्यक्ति–स्वातंत्र्य का विचार हालांकि मानवतावादी अभिकल्पना थी, लेकिन हम आगे देखेंगे कि उसका उपयोग पूंजीवाद द्वारा नितांत स्वार्थी ढंग से, उपभोक्तावाद को विस्तार देने के लिए किया गया. दूसरी ओर व्यक्ति–स्वातंत्र्य के विचार के आधार पर ही अत्याधुनिक लोकतंत्र की नींव विकसित हुई. व्यक्ति–स्वातंत्र्य ने ही कालांतर में मानवाधिकार और वयस्क मताधिकार जैसे आंदोलनों को जन्म दिया. दूसरे विश्व के बाद आहत मानवता के जख्मों को सहलाने के लिए ब्रिटिश उपनिवेश से बाहर आने वाले देशों ने लोकतंत्र को अपनाया. लेकिन बाजारवाद और पूंजी के दबाव में कुछ ही अर्से में लोकतंत्र ऐसा रूप धारण कर चुका है, जिससे उसके औचित्य पर सवाल उठने लगे हैं. विचलन का कारण किसी से छिपा नहीं है. लोकतंत्र के अंतर्गत जो निर्वाचन पद्धति अपनाई जाती है, वह अत्यंत महंगी है. जीत के लिए अधिकतम मत प्राप्त करना जरूरी होता है. इसलिए मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए प्रत्याशी ऐसे आयोजन करते रहते हैं, जिनका विकास और राष्ट्र कल्याण से कोई वास्ता नहीं होता. जाति, धर्म, क्षेत्रीयता जैसे संवेगात्मक मुद्दे उठाकर मतदाता को फुसलाया जाता है. ये मतदान प्रक्रिया को प्रभावित करने वाले सर्वाधिक लोकप्रिय मुद्दे हैं, जिनका वास्तविक विकास और लोककल्याण से कोई वास्ता नहीं होता. अत्यधिक धनराशि लुटाकर राजनीति में वही लोग आते हैं, जिन्हें वहां से और अधिक मिलने की उम्मीद होती है. ऐसे लोगों के लिए राजनीति एक व्यापार होती है, देशसेवा एक बिकाऊ मसाला. जिससे वे अपने व्यापार को चमकाते हैं. ऐसे जनप्रतिनिधियों को पूंजीपति, स्वार्थी धर्माचार्यों के चंगुल में फंसना आसान होता है. इसलिए वे अपने विवेक और लोकहित को ध्यान में रखकर केवल अपनी स्वार्थ–सिद्धि में जुटे रहते हैं. यह सच है कि सरकार में सभी जनप्रतिनिधि एकसमान नहीं होते. कुछ ऐसे होते हैं, जो वास्तव पद की गरिमा को बढ़ाते हैं, जिनका राजनीति में आना एक सामाजिक–राजनीतिक लक्ष्य रखता है. किंतु ऐसे नेता संख्या–बल में बहुत कम होते हैं और लोकतंत्र जो संख्या–बल के आधार पर चलता है, वहां से अपनी कारगर भूमिका नहीं रच पाते. हताश होकर या तो लोकप्रिय राजनीति के रंग–ढंग अपना लेते हैं; अथवा राजनीति से ही किनारा कर लेते हैं. राजनीति को जनसाधारण अच्छा नहीं समझता. निष्पक्ष बुद्धिजीवियों के पास वर्तमान राजनीति के पक्ष में कहने के लिए बहुत कम होता हैं. और उनके द्वारा राजनीति और राजनीतिज्ञों की निरंतर आलोचना से समाज में उनकी हो छवि बनती है, वह समाज में सरकार की विश्वसनीयता को कम करती जाती है. जनता का सरकार में विश्वास न हो तो वह असहयोग की मुद्रा में आ जाती है. नागरिक धर्म भुलाकर लोग केवल अपनी स्वार्थ–सिद्धि में लग जाते हैं. इससे समाज में शांति–व्यवस्था बनाए रखने के लिए सरकार को अतिरिक्त बल–प्रयोग करना पड़ता है. परिणामस्वरूप जनता में उसकी छवि और बिगड़ती है. ऐसी अवस्था में अच्छे, प्रतिभाशाली और नीति–संपन्न व्यक्ति राजनीति में आना छोड़ देते हैं और निर्धारित अवधि के बाद होने वाली निर्वाचन प्रक्रिया सरकारी कर्मकांड बनकर रह जाती है. महंगी निर्वाचन प्रक्रिया में उतरनेवाले नेता एक लगाकर दस कमाने की नीयत रखते हैं. राजनीति से जुड़े लोग समाज में अच्छे नहीं समझे जाते. पर निहित स्वार्थ के लिए अच्छे–भले लोगों को भी उन्हीं की कृपादृष्टि के लिए तरसना पड़ता है. जनता के बीच भ्रम बनाए रखने के लिए वे प्रबुद्ध होते लोकतंत्र का बार–बार दावा करते हैं, लेकिन जिन नारों के साथ वे लोगों के बीच आते हैं उनका विकास और लोकहित से कोई वास्ता नहीं होता. उनके दांव–पेंच से अनभिज्ञ यदि कोई व्यक्ति चुनाव में उतरे तो उसके लिए जीत आसान नहीं होती. लोकतंत्र की आवश्यकता है कि सरकार जनता की वोटों से बनी सरकार जनता के लिए काम करे. जनता के लिए काम करे. लेकिन पूंजी, धर्मसत्ता तथा क्षेत्रीय विशेषताओं के आधार पर जो सरकार चुनी जाती है, वह ऊपर से भले ही लोकतांत्रिक दिखे, उसका स्वरूप अल्पसंख्यक सरकार का ही होता है. वह जनता के वोटों से चुनी हुई कुछ लोगों की सरकार होती है, जो अपने वर्गीय हितों और कुछ लोगों को लिए काम करती है. जनता के बीच भ्रम बनाए रखने के लिए वे लोकतंत्र की प्रबुद्धता का बार–बार हवाला देते हैं. उनका मुंह–लगा मीडिया और प्रचार–सारथी जनता के बीच बार–बार यही दोहराते हैं कि ‘लोकतंत्र जीत रहा है’. असलियत में ‘जनता की जीत’ और लोकतंत्र के नाम पर केवल अल्पतंत्र फलता–फूलता रहता है. जनता की उदासीनता से शिखर पर बैठे लोग मनमानी पर उतारू हो आते हैं. ये लोकतंत्र की सामान्य कमजोरियां हैं, जिन्हें ढाई हजार वर्ष पहले ही समझा जा चुका था. मनुष्य की अधिकतम आजादी और मानवाधिकारों की प्रतिष्ठा हेतु जरूरी है कि हम एक फैसला कर लें—आखिर हमें चाहिए क्या? पूंजी का राज या राज की पूंजी. आप कहेंगे इसमें क्या है? राज होगा तो पूंजी भी रहेगी ही. बिना पूंजी के क्या राज चल सकता है! सो पूंजी को राज में रहना चाहिए. फिर चाहे राज पूंजी का हो या राज की पूंजी. पूंजी होगी तो समाज में सुख–सुविधाएं बढ़ेंगी. उस गरीबी और बेकारी से मुक्ति मिलेगी, जिसमें हमारे पूर्वजों ने पूरी जिंदगी काट दी और जिसके कारण वे वक्त–बेवक्त राम–नाम रटकर दुनिया से कटे होने का दावा करते थे. कोई इशारा न समझ पाए तो आप बताएंगे कि वे लोग यानी आपके पूर्वज दुनिया से कटे होने का दावा इसलिए करते थे कि उनके आसपास भीषण गरीबी, अकाल और बेबसी के सिवाय कुछ था ही. आंखें खोलते ही उन्हें अपनी दुनिया की कंगाली सामने आ जाती थी. इसलिए पूंजी चाहिए और राज इसलिए कि सुरक्षा का एहसास बना रहे. जो हमारे लिए सुख–सुविधाओं का इंतजाम कर सके. जिसके सेनानी पहरेदार का काम करें. जो हमारी जरूरत की चीजों की आवाजाही बनाए रखे. राज इसलिए भी चाहिए ताकि हमारे आस–पास शांति हो. कोई हमारे सुख की ओर आंख उठाकर देखने न पाए. अगर आप सरकार से इतना कुछ चाहते हैं तो कुछ भी बुरा नहीं है. और इतना काम तो हर सरकार करती ही है. यदि कर न सके तो आश्वासन अवश्य दे देती है. परंतु कुछ काम ऐसे हैं जिनसे आपका सुख सचमुच जुड़ा होता है. किंतु उस ओर न तो सरकार की ओर से कोई हाथ उठता है, न आप ही उठा पाते हैं. यह ठीक है सरकार का काम नागरिक हितों की देखभाल करना है. उन्हें सुरक्षा और आवश्यक सुविधाएं प्रदान करना है. यह काम ऐसा तो नहीं कि हमें डर लगे. जिसे हम कभी कर भी न सकें. फिर हमें डर क्यों है कि कोई हमारे सुख की ओर टकटकी लगाए बैठा है. जरा नजर चूकी नहीं कि झपट्टा मारकर गिरा देगा. यह तो तभी हो सकता है कि हमारे पास जो है, वह दूसरों से ज्यादा हो. उस अवस्था में हमें राज भी चाहिए तो इसलिए कि वह हमारे धन की, जो दूसरों से अधिक है, जिसे हमने औरों का हक मारकर जुटाया हुआ है, की सुरक्षा कर सके. हम पेट–भर खाकर, डकार लेकर मजे की नींद लें और कोई हमारी नींद में खलल डालने न आए. हमारा पड़ोसी किस हाल में है इस हम कोई ध्यान न दें. वह यदि भूखा है, लाचार है, किसी का सताया हुआ है तो उसकी रक्षा करने के लिए भी हमें राज चाहिए. सरकार से हम यह उम्मीद रखें कि वह हमारा कोई अहित न होने दे. इसके लिए वह हमसे चाहे तो कुछ कर भी ले. यदि हम ऐसा ही राज चाहते हैं तो सही मायने में हम राज की पूंजी नहीं, पूंजी का राज चाहते हैं. जो सरकार आपके धन की रक्षा करेगी, आपको आपके भूखे, जरूरतमंद पड़ोसी की कुदृष्टि से बचाएगी. उस समय हम मान लेते हैं कि सरकार में जो हैं वे निरे भले–मानुष हैं. कि सरकार लोगों की सदेच्छा से चलती है. वह इतना ही सोचती है, जितना हम जानते हैं. यदि वे भले मानुष न हों तो? तब वह सीधे आपसे पूछेंगे कि हमें पहरेदारी ही बनना है तो दूसरे के धन की क्यों करेंगे. पहरेदारी करनी है तो अपने धन की करेंगे. जो धन अपना नहीं है उसको किसी न किसी तरह अपना बनाने की सोचेंगे. सच तो यह है कि सरकार का पूरा ताम–झाम इसी रणनीति के तहत चलता है. सरकार के पास ताकत है, पैसा है, पहुंच है. वह पहरेदारी कर सकती है. पहरेदारी करती है. परंतु उसमें मौजूद लोग तथा उन्हें अपनी पूंजी के बल पर संसद और विधायिकाओं तक पहुंचानेवाले पूंजीपति और सरमायेदार कहीं न कहीं यह इच्छा भी पाले रहते हैं जिस धन की रखवाली सरकार कर रही है, एक न एक दिन वह धन उन्हीं के खाते में आना है. यह सरकार चलाने का पूंजीवादी रवैया है. पूंजीवादी मुनाफे के लिए उद्योग चलाता है. नेता मुनाफे के लिए राजनीति में आता है. सीधा–सादा गणित. सीध–सादा विचार. इसलिए पूंजीवादी समाज में धन की केवल एक ही गति होती है. वह निचले स्तर से ऊपर की ओर जाता है. पैसा पैसे को खींचता है—यह मुहावरा यूं ही नहीं बना है. पूंजी की सरकार मुनाफे के लिए बनती, मुनाफा देखकर चलती है. उसके नेता मानते हैं कि धन उसका जो पहरेदारी करे. इसलिए धन वापस लौटता जाता है. वहीं जहां से वह चला था. आप सोचते हैं, समाज में कुछ लोगों के पास अकूत धन होगा और दूसरे कंगाल रहेंगे तो उसमें असंतोष की लहर उठेगी. लोग आक्रोश से बलबलाने लगेंगे. परंतु ऐसा कुछ नहीं होता. आपके देखते ही देखते पहरेदार खुद को धन का मालिक मानने लगता है. सरकार के मालिक में बदल जाने का यही दुष्परिणाम होता है. आप इसको कुफल कहें तो भी चलेगा. पर उनका यही अभीष्ट है, जिसमें हर कोई पूंजी के इशारे पर नाचता हुआ नजर आएगा. देखते ही देखते एक सरकार हमारी मालिक बन जाती है. इसलिए कि हम अपने लालच को मरने नहीं देते. हमने अपने स्वार्थ से समझौता किया; और ऐसे नेताओं को राष्ट्र की निगहबानी सौंपी, जो देश के बजाय अपने और हमारे स्वार्थ की रक्षा कर सकें. पर क्या सचमुच ऐसा हो सका. हममें इतना सामर्थ्य नहीं कि अपने फैसले खुद कर सकें. स्वार्थी पहरेदारों ने वह किया जो हर काइयां, स्वार्थी पहरेदार करता है. नेताओं ने हमारा वोट लिया. और फिर सत्ता में पहुंचकर ऐसे कानून बनाए जो संपत्ति के निचले वर्गों से ऊपर के वर्गों को वैध सिद्ध करते हों. हमारी संपत्ति धीरे–धीरे उनके अधिकार में जाने लगी. सरकार के पास कानून की बड़ी–बड़ी पुस्तकें होती हैं. उनमें बड़ी–बड़ी बारीकियां होती हैं. उनकी व्याख्या के लिए विशेषज्ञों की पूरी टीम होती है. उनका पैसा जाता जनता की जेब से है, लेकिन वे साथ सरकार का निभाते हैं. इसी में उनकी और सरकार की शान है. इसलिए सरकार जो कुछ करती है, वह कानून की मदद से करती है. उन कानूनों की मदद से करती है, जिन्हें वह लोकहित के नाम पर बनाती है. सरकार के लिए लोक एक अमूर्त्तन धारणा है. उसमें यदि कोई ‘मूर्त्त’ फंस जाता है तो गलती उस व्यक्ति की. लोक–समर्थन पाकर सरकार कराधान के लिए बारीक नियम बनाती है. इतने बारीक कि सुनकर बुद्धि चकरा जाए. सीधे आमदनी पर टैक्स तो समझ में आता है. पर आप जो चीज खरीदें उसपर टैक्स, उत्पादक जो माल बनाए उसपर टैक्स, माल को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने में जो भाड़ा लगे उसपर टैक्स. वस्तु को पैकेट बंद करने में जो लागत आती है, उसपर टैक्स. सामग्री और उपसामग्री पर भी टैक्स. फिर विज्ञापन जो आपको वस्तु के बारे में बताता है, उसपर भी टैक्स. दुकानदार का टैक्स, सर्विस टैक्स. आप गिनते जाइए. आपकी याददाश्त धोखा देने लगेगी, टैक्स की कतार कम नहीं पड़ेगी. और ये सब कहां से आता है. वही जो हम और आप रात–दिन परिश्रम से कमाते हैं. वही तरह–तरह से, अलग–अलग नामों से सरकार की जेब में जाने लगा. पर सरकार में जो बैठे हैं. उन्हें हमी ने ताकत सौंपी है. परंतु निखालिस ताकत से काम चलता नहीं. बली को तो सुख–सुविधा, मान–वैभव सभी कुछ चाहिए. सरकार से जुड़े लोगों को सुखी बनाने की जिम्मेदारी ली पूंजीपतियों ने. अपने कारखाने उन्होंने विलासिता की वस्तुओं को बनाने के लिए सौंप दिए. सरकार और सत्ता केंद्र पर विराजमान लोगों के पास संसाधनों की अफरात ही अफरात. विलासिता की वस्तुओं की बिक्री बढ़ी तो उसपर भी टैक्स लगा दिया. जनता को थोड़ा और दुहा जाने लगा. उत्पीडि़त अपनी सफलता उत्पीड़क की नकल करने में देखता है. वह उसी को अपनी सबसे बड़ी उपलब्धि मानता है. इसलिए हममें से जो थोड़ा–बहुत बचा लेते थे, वे भी अपनी बचत को विलासिता की वस्तुओं पर खर्च करते रहते हैं. उत्पीड़क के लिए यह सबसे मुफीद है. पूंजी गरीब के बटुए से बाहर आएगी, तभी तो ऊपर तक जाएगी. परंतु ऐसा करते–करते निचला वर्ग खोखला पड़ने लगता है. लेकिन महत्त्वाकांक्षाएं, चाहतें और सपने तो उस वर्ग के भी होते हैं. खाली जेब और बाजार के आकर्षण, मन में अंतद्र्वंद्वों को जन्म देते हैं. उससे समाज में असंतुलन बढ़ता है. आपसी अविश्वास में वृद्धि होती है. तनाव और अंतर्कलह पनपने लगते हैं. ये सब बढें तो असहिष्णुता और असंवेदनशीलता भी बढ़ने लगती है. इससे आपसी झगड़े, मुकदमेबाजी, कोर्ट–कचहरी को बढ़ावा मिलता है. इस बहाने हमारा धन फिर हमारे हाथों से खिसकने लगा. कुल मिलाकर सरकार जो हमने अपने निगहवानी और जरूरतों की देखभाल के लिए बनाई थी, उसमें ऐसे लोग शामिल होते जाते हैं, जो सिर्फ राजनीति करते हैं. सत्ता की राजनीति, मुनाफे की राजनीति, अवसर और पद–लाभ की राजनीति. इस तरह राजनीति जो सेवा–कर्म हो सकती थी, शीर्षस्थ लोगों के व्यवसाय में बदल जाती है. ऐसे लोग उसमें चले आते हैं जिनका एकमात्र ध्येय अपनी स्वार्थसिद्धि करना रहता है. वे जानते हैं कि छोटे–छोटे अनेक खानों में बंटी जनता उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकती. लेकिन डर फिर भी सिर पर सवार होता है. डर इस बात का कि जिस ‘शार्टकट’ के जरिये वे उस स्थान तक पहुंचे हैं, उन्हीं के समान महत्त्वाकांक्षी कोई व्यक्ति उस स्थान पर पहुंचकर कभी भी उन्हें अपदस्थ कर सकता है. जनता ऊपर के वर्ग पर होने वाले ऐसे तमाशे को रोज देखती है. इससे लोगों को रोजमर्रा की ‘गपशप’ का मसाला मिलता है. उसी के जरिये वह अपनी कुंठाओं का विसर्जन करती है. उस समय वह भूल जाती है कि लोकतंत्र में उसकी सत्ता सर्वोपरि है. उसे यह अधिकार है कि स्वार्थी नेताओं को धूल चटा सके. परंतु वह ऐसा नहीं कर पाती. इसलिए कि शीर्ष पर बैठे हुए लोग उसको इतने छोटे–छोटे खानों में बांट देते हैं कि वह कोई कारगर फैसला लेने की स्थिति में आ ही नहीं पाती. उसकी शक्तियां कारगर हो ही नहीं पातीं. 1947 में जब देश आजाद हुआ था कि उस समय हमारे पास एक ही नारा था—राष्ट्र के नवनिर्माण का. चूंकि राष्ट्र पहले था, इसलिए नेता और जनता सब उसी को समर्पित थे. लेकिन धीरे–धीरे राजा और प्रजा सब स्वार्थ–समर्पित होते चले गए. जनता इस सोच में अपने निगहबानों चुनने लगी कि वे सरकार बनाकर उसके सुख की रक्षा करेंगे. मगर निगहबानी की कसम खाकर सत्ताकेंद्र में पहुंचे नेता खुद को मालिक समझने लगे. लोग उनकी चालाकी को समझें, इसलिए धर्म, जाति, क्षेत्रीयता, वर्ण जैसे मुद्दे बहस और पहचान का प्रतीक बना दिए गए. आज हालात यह हैं कि राज है, पर राज कहीं नहीं हैं. नेता के लिए वोटर महज उत्पाद है. चुनाव लड़ना महज मत–प्रबंधन बनकर रह गया है. मतदाता ऐसे नेता को वोट देने जाते हैं, जिसपर उन्हें जरा भी विश्वास न हो. और जब चुनाव में खड़ा उम्मीदवार भ्रष्ट, और दागी हो, तो चर्चा का आधार भी धर्म, जाति, क्षेत्रीयता जैसे अनुत्पादक मुद्दे रह जाते हैं. नेता भी मतदाता की इस कमजोरी को जानता है. इसलिए वह चुनावों में ऐसे मुद्दे उछालते ही नहीं जिनका विकास से सीधा संबंध हो. ‘सब चलता है’ सोचकर मतदाता वोट देता है और मुखौटायुक्त नेता संसद पहुंच जाते हैं. इन चेहरों में यदा–कदा जो बदलाव आते भी हैं, तो इन्हीं गैर उत्पादक मुद्दों द्वारा. आजादी के बाद देश ने लोकतांत्रिक शासन प्रणाली को चुना था. इसलिए कि देश को सामंतवाद के चंगुल से बाहर लाना था. तब देश में करीब सात सौ रियासतें थें. जिनके वजीर, जमींदार, राजा, सामंत सब अपना स्वार्थ देखते थे. उनके लिए तरक्की का मतलब था, राज–परिवार में विलासिता की वस्तुओं का बढ़ते जाना. किसी साम्राज्यवादी मनसूबे का साकार हो जाना. प्रजा उन सामंतों, जागीरदारों के भोगविलास को हसरत–भरी निगाह से देखती, जिंदगी किसी तरह गुजर जाने तथा अगले जन्म में इस जन्म के अभावों की पूर्ति के लिए प्रार्थना करती थी. स्वर्ग उसके लिए बड़ा प्रलोभन था. दुख और अभावों, जीवन–संघर्ष की असफलताओं ने उसे भाग्यवादी बनाया था. इसलिए राजा कौन है, इस बारे में अधिक नहीं सोचती थी. वह नासमझ भी नहीं थी. न ही मूर्ख थी. अनुभव पगी थी. अनुभव ने ही उसे चुप रहना, संतोष करना सिखाया था. लेकिन गांधीजी ने जब उसका आवाह्न किया, तो पहली बार उसे अपने नेताओं पर भरोसा जमा. इसी के साथ वह हुंकार पड़ी थी, स्वतंत्रता के लिए. आजादी सिर्फ राजा–महाराजाओं, सामंतों के संघर्ष के फलस्वरूप आती तो देश में राजशाही ही पनपती. अठारह सौ सतावन में जितने भी रजबाड़े अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध में सम्मिलित हुए थे, सभी के अपने स्वार्थ थे. उनकी लड़ाई केवल अपनी सत्ता के लिए थी. एक तरह से अच्छा ही हुआ जो आजादी से पहले देश के राजे–रजबाडे़ अंग्रेज सरकार के पिछलग्गू बने हुए थे. जनता ने उनकी हकीकत को पहचाना और संगठित होकर अपने कंधे से गुलामी का जुआ उतार फेंका. देश उसका जो आजादी को अपने प्राण–प्रण से सींचे. जनता के प्राण–प्रण से बलिदान के फलस्वरूप स्वाधीनता ने दस्तक दी थी. इसलिए रजबाड़ों की हिम्मत ही न पड़ी थी, मनमानी करने दी. इसलिए जब भारत या पाकिस्तान में बंटने को कहा गया तो चुपचाप बंटते चले गए. जो इक्का–दुक्का रहे उन्हें भी अपनी प्रजा और परिस्थितियों के आगे घुटने टेकने पड़े. निहत्थे गांधी से सब डरते थे. जानते थे कि उस अधनंगे फकीर को तो कभी भी मार सकते हैं. पर वह अकेला कहां हैं! जनता–जनार्दन का हाथ उनकी पीठ पर था. यह ठीक है कि गांधी उन नेताओं में से थे जिन्होंने भारतीय जनता को राजनीति का पाठ पढ़ाया था. मगर यह भारतीय जनता ही थी जिसके कंधों पर सवार होकर स्वाधीनता आंदोलन अपनी सफलता को पहुंचा. जिस देश की जनता जाग जाए उसको दुनिया की कोई शक्ति गुलाम नहीं बना सकती. सो जनता के कंधों पर सवार होेकर ही गांधी महात्मा बने, राष्ट्रपिता कहलाए. लेकिन गांधीजी यदि देश के एकक्षत्र नेता होते तो क्या देश में लोकतंत्र का आगमन संभव होता? क्या लोकतंत्र को गांधीवादी राजनीति का समापन बिंदू कहा सकता है? एक शब्द में इसका उत्तर है—‘नहीं.’ निस्संदेह गांधी भारतीय जनमानस में सर्वाधिक लोकप्रिय नेता थे. किंतु गांधी की मनोरचना में लोकतंत्र कहीं नहीं था. वे अपने निर्णय जिद पूर्वक लागू कराते थे. दबाव बनाने के लिए सत्याग्रह सबसे कारगर हथियार था. दरअसल गांधी का आदर्शराज्य ‘रामराज्य’ की परिकल्पना से बुना था. उनका हिंदू मानस उस दायरे से बाहर सोच ही नहीं पाता था. बाद में लोकतंत्र के समर्थक बने तो इसलिए कि उस समय तक दलित और पिछड़ों में एक पढ़ा–लिखा बुद्धिजीवी वर्ग पनप चुका था. उसके नेता थे, ज्योतिबा फुले और डाॅ. भीमराव आंबेडकर. संविधान निर्माण के क्षेत्र में डा॓. अंबेडकर ने वही किया जो अमेरिका में था॓मस जेफरसन ने किया था. दोनों के जीवन में कुछ समानताएं भी हैं. दोनों बेहद पढ़ाकु थे. दोनों को गरीबी से संघर्ष करना पड़ा था. दोनों का ही जीवन अभावों में बीता था. कुछ अर्थों में अंबेडकर का काम जेफरसन से भी बड़ा था. अंबेडकर को डा॓. अंबेडकर बनने तक सामाजिक परिस्थितियों, जातिवाद और छुआछूत के विरुद्ध भी युद्ध करना पड़ा था. जेफरसन का देश और वहां के लोग इस मामले में उदार थे. इसलिए उन्होंने अमेरिकी गणतंत्र के प्रमुख सूत्रधार को राष्ट्रपति के पद से नवाजा. भारत में एक दलित को ऐसे अवसर कम से कम उस समय न थे. जेफरसन ने अमेरिका के लिए ‘स्वाधीनता का घोषणापत्र’ तैयार किया था, डाॅ. अंबेडकर ने भारतीय संविधान. बाद में संविधान का जो प्रारूप स्वीकृत हुआ उसके कई प्रावधानों से डा॓. अंबेडकर की असहमति थी. तथापि लोकतंत्र का सम्मान करते हुए वे संविधान के प्रचार–प्रसार में जुटे रहे. बहरहाल, लोकतांत्रिक शासन प्रणाली लागू करने के बाद असली काम लोगों को अपने पैरों पर खड़ा करने का था. उनमें ऐसा विवेक पैदा करना जरूरी था, ताकि वे लोकतंत्र का लाभ उठा सकें. पढ़े और अनपढ़ दोनों वोट से बंदूक का काम कैसे लें, यह समझाने की जरूरत थी. लंबे समय तक सामंतवादी समाज में रह रहे लोगों में नागरिकता–बोध पैदा करना था. सामान्य राय के पक्ष में निजी हितों को कुछ समय के लिए बलिदान करना क्यों जरूरी है—यह बात भी लोगों को समझानी थी. इसके लिए अंबेडकर सामाजिक क्रांति की आवश्यकता महसूस करते थे. उनके लिए सामाजिक आजादी का मसला राजनीतिक आजादी से बढ़कर था. अंबेडकर साहब की नहीं चली. राष्ट्र पिता कहलाए जाने के बावजूद गांधी की भी नहीं चली. गांधी की हत्या के बाद तो देश को उस दशा में सोचने का अवसर ही कहां मिला? आजादी की घोषणा के तुरंत बाद देश में दंगे होने लगे थे. उसके बाद पाकिस्तान तथा चीन का हमला. 1971 में फिर पाकिस्तान से युद्ध. ये कुछ कारण ऐसे रहे जिससे देश में मतदाता के विवेकीकरण का अभियान चल ही नहीं पाया. 1950 में देश में मानवाधिकारों को स्वीकृति देकर मनुष्य की मूलभूत स्वतंत्रता की घोषणा कर दी गई. मगर जाति, धर्म, वर्ग, क्षेत्रीयता में फंसे समाज में राजनीति का इतना स्खलन हुआ कि जनविवेकीकरण का अभियान सिरे ही नहीं चढ़ सका. विवेकीकरण की प्रक्रिया को अवरुद्ध करने के कुछ और भी कारण थे. उनमें एक था, हिंदू समाज की पराजित मनोग्रंथि. देशवासियों को पराजित दासता में जीवनयापन करते हुए पांच सौ से अधिक वर्ष पूरे हो चुके थे. आक्रामकों ने इस देश का आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक यानी सभी तरह से शोषण किया था. लेकिन धर्मप्राण जनता को धर्माधारित शोषण का सर्वाधिक क्षोभ था. इसलिए 1947 में जैसे ही विदेशी शासन से मुक्ति मिली, सबसे पहले जनता का ध्यान अपने धर्म और परंपराओं को सहेजने पर गया. आजादी के तुरंत बाद बंटवारे की घटना देश में सांप्रदायिक धु्रवीकरण की ही देन थी, जो स्वाधीनता संग्राम के दौरान ही पनपने लगा था. आजादी के तुरंत बाद बंटवारे की घटना, धर्माधारित राष्ट्रों का निर्माण, बाद में पाकिस्तान के हमलों ने देश में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की पृष्ठभूमि तैयार की थी. कालांतर में वोट की राजनीति ने उसको और हवा दी. उस समय यदि देश के नेता चाहते तो समन्वयात्मक राजनीति की शुरुआत कर सकते थे. पाकिस्तान से अधिक मुसलमान हिंदुस्तान में थे. तथा समाज में आपसी तालमेल बनाए रखना समय की आवश्यकता भी थी. ऐसे कुछ नेता अवश्य हुए जिन्होंने सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के बजाय समन्वयीकरण को अपनी राजनीति का लक्ष्य बनाया. किंतु वे अपने संप्रदाय से उभरकर ही नेता बने थे. उनके प्रशंसकों, समर्थकों में अधिक संख्या उनके अपने धर्मावलंबियों की थी. अतएव अपने संप्रदाय की एकाएक उपेक्षा उनके लिए संभव न थी. दूसरे समन्वयीकरण की राजनीति को अपने जीवन का लक्ष्य बनाने वाले वास्तविक नेता संख्या में बहुत कम थे. उनके पास संसाधनों का भी अभाव था. जो साधन–संपन्न थे, उनके वैसे सरोकार न थे. परिणाम यह हुआ कि आजादी के बाद सभी सरकारें तुष्टीकरण की नीति को अपनाने लगीं. इससे राष्ट्र निर्माण का लक्ष्य निरंतर दूर होता गया. 1971 में पाकिस्तान के साथ हुए युद्ध ने पुराने जख्मों को और भी हरा कर दिया. उस युद्ध में पाकिस्तान को मिली पराजय ने जहां पाकिस्तानी मुसलमानों की हीनताग्रंथि को मजबूत किया, बल्कि हिंदु–मुसलमानों के बीच नई दरार बनाने का काम किया. आर्थिक उदारीकरण के समय लगा था कि बाजार और प्रतिस्पर्धा के दबाव सांप्रदायिकता को भी चुनौती देंगे. विकास की चाहत लोगों को एक–दूसरे के साथ लाएगी. फलस्वरूप जाति, संप्रदाय, धर्म और क्षेत्रीयता जैसे अनुत्पादक मुद्दे राजनीति से एक–एक कर हटते चले जाएंगे. मगर वह केवल खामाख्याली थी. जो अपेक्षाएं की जा रही थीं, उनके लिए एक विवेकीकृत जनसमाज का गठन जरूरी था. लगा था कि विकास के साथ नई शिक्षा, ज्ञान, विज्ञान और प्रौद्योगिकी ऐसा वातावरण बनाएगी. लेकिन बाजार और पूंजी की अपनी ठसक होती है. वह सबसे पहले उपभोक्ता के दिलो–दिमाग पर कब्जा करती है. उसके सोचने और फैसले लेने की ताकत को चुनौती देती है. फिर उसको ऐसे मोड़ती है कि व्यक्ति वस्तुओं की खरीद अपनी जरूरत के बजाय प्रतिष्ठा को ध्यान में रखकर करने लगता है. धीरे–धीरे वह ऐसा उपभोक्ता बन जाता है, जिसे बाजार कठपुतली की भांति अपनी उंगलियों पर नचाता है. हाल की बात करें तो बाजार केंद्रित अर्थव्यवस्था ने मनुष्य के सारे सोच, सारी हरकतों को सुविधा–भोगी बना दिया है. बाजार हालांकि हाल की अवधारणा नहीं है. पांच हजार वर्ष पहले भी बाजार था. व्यापारियों के काफिले दूर–दूर तक यात्रा करते थे. बाधाओं का सीना चीरते हुए वे सैकड़ों, हजारों मील दूर निकल जाते थे. इसके साथ वे अपने देश की वस्तुओं के साथ–साथ संस्कृति भी ले जाते थे. लेकिन वे व्यापार जरूरत की वस्तुओं का करते थे. विलासिता की वस्तुएं उस समय भी बनती थीं. मगर लोगों की जरूरतों या इच्छाओं पर बाजार का नियंत्रण न था. न बाजार लोगों की पसंदों को नियंत्रित करने की धृष्टता करता था. इसलिए जरूरतें व्यक्ति की अपनी थीं. वे व्यापारी की मनमर्जी से तय नहीं होती थीं. आज पंूजीवादी व्यवस्था ने सारे मायने बदल दिए हैं. स्थिति यहीं तक सीमित होकर रह जाने वाली नहीं है. बाजार न केवल मनुष्य के लिए नई जरूरतें रच रहा है, बल्कि सांस्कृतिक तत्वों को भी बाजार की दृष्टि से परिभाषित कर रहा है. कहीं पर संस्कृति को महत्त्वहीन बनाने के लिए उसको पूंजीपति घरानों के हवाले कर रहा है. उल्लेखनीय है कि बाजार अपने आप में बुरा नहीं है. हजारों, लाखों लोगों की जरूरत को पूरा करने वाली, लाखों को रोजगार देने वाली संस्था समाज की जरूरत ही कही जाएगी. किंतु उसपर मुट्ठी–भर लोगों का नियंत्रण, उसका मुनाफाखोरों के हाथों में चला जाना बुरा है. बाजार का मनुष्य के निर्णय–सामथ्र्य पर छा जाना बुरा है. इससे मुक्ति संभव कैसे हो. कैसे बाजार को उसके मूल उद्देश्य तक वापस लाया जाए. यह कैसे हो कि बाजार भी रहे, पूंजी भी रहे और पूंजी अपना स्वभाव छोड़ दे. मनुष्य कठपुतली उपभोक्ता के बजाय विवेकवान ग्राहक की भांति व्यवहार करे. यहां पूंजी के स्वभाव को समझना पड़ेगा. उसका आशय है धन–संपदा का अपना मकसद भूलकर केवल लार्भाजन के काम में जुट जाना. समाज की संपदा जब धर्म भूलकर कुछ लोगों के मुनाफे के लिए काम करने लगती है, तो वह पूंजी बन जाती है. संपदा समाज की रहे, समाज के काम साधे. तभी वह सम्मानेय है. इसलिए पूंजी से अपना स्वभाव छोड़ने की अपेक्षा करना ही समाजवाद है. इसके लिए आवश्यक है कि पूंजी पर उन लोगों का अधिकार हो, जो उसका उपयोग करते हैं. उपयोग के तरीके और प्रविधियां कुछ भी हो सकती हैं, बस वे मानव की गरिमा बढ़ाने वाली हों. गिरानेवाली नहीं. उनसे समाज में उत्पादकता बढ़े, विलासिता नहीं. वस्तुओं का उत्पादन लोगों की जरूरतें पूरा करने के लिए हो, उद्योगों और बाजार पर एकाधिकार सिद्ध करने के लिए नहीं. पर क्या यह संभव है? यदि संभव है तो कैसे? कैसे यह संभव है कि व्यक्ति पूरे समाज के कल्याण के बारे में सोचे तथा उसकी उत्पादकता भी बाधित न हो. यह तभी संभव है जब प्रत्येक व्यक्ति अपने साथ अपने समूह और समाज के बारे में सोचे. जब समाज में सामाजिक लाभों को आर्थिक लाभों जितनी ही महत्ता दी जाए. बल्कि उत्पादकता का ध्येय सामाजिक लाभ की प्राप्ति हो. आर्थिक लाभ गौण हों. दरअसल समाजवाद और उसके समानधर्मा अर्थदर्शनों की सबसे बड़ी कमजोरी है कि वे धन के राष्ट्र अथवा श्रमिक संगठनों के अधीन जाने की व्यवस्था तो करते हैं, किंतु नागरिकों को अधिकतम उत्पादन में सहयोग देने की कोई स्पष्ट आचारसंहिता उनके पास नहीं है. साम्यवाद में यह मान लिया जाता है कि उद्योगों पर स्वामित्वबोध की अनुभूति श्रमिकों को अधिकतम उत्पादन के लिए प्रेरित करेगी. जबकि समाजवाद यह मानकर चलता है कि जो समाज अपने प्रतिनिधियों को चुनने में सामथ्र्यवान है, उसके नागरिक अवश्य ही इतने योग्य हैं कि वे अपनी अंतःप्रेरणा के अनुसार राष्ट्र–निर्माण में भी अपना अधिकतम योगदान देंगे. समाजवाद की यह अपेक्षा अनुचित नहीं है. व्यक्ति यदि समाज से कुछ अपेक्षाए रखता है तो उसके समाज के प्रति कुछ कर्तव्य भी हैं. आशय है कि समाजवाद और साम्यवाद दोनों व्यवस्थाएं नागरिकों को अधिकतम उत्पादन में सहयोग देने के लिए स्पष्ट आचारसंहिता के बजाय स्वतः प्रेरणाओं का सहारा लेते हैं. जबकि व्यवहार में यह देखा गया है कि समाजवाद और साम्यवाद दोनों में निजी संपत्ति की अधिकारिता का निषेध, नागरिकों को उत्पादन कर्म के प्रति लापरवाह बनाता है. वह नागरिकों के मन में आलस्य की भावना का विकास करता है. जिससे उत्पादकता में घटाव शुरू हो जाता है. परिणामस्वरूप विकासदर शिथिल पड़ने लगती है. विकासदर को बनाए रखने के लिए कुछ देश बलप्रयोग का सहारा लेते हैं. वहां लोगों से उनके लोकतांत्रिक अधिकार छीन लिए जाते हैं. श्रमिक कामगारों से मनमाना काम लिया जाता है. उनकी मजदूरी उनकी न्यूनतम आवश्यकता के अनुसार तय की जाती है. यह एकदलीय अथवा निरंकुश शासन में ही संभव है. जैसा इन दिनों चीन में हो रहा है. पर इससे आजादी का आधा लक्ष्य ही हासिल हो पाता है. समाज के मानवीकरण की कोशिशें अधूरी रह जाती हैं. वैसे समाजवाद और साम्यवाद की लोगों से यह अपेक्षा अनुचित नहीं है कि लोग स्वतःप्रेरणा के आधार पर उत्पादन में हिस्सा लें और अपना यथासंभव योगदान दें. परंतु दोनों के साथ विडंबना यह है कि उन्हें ऐसे समाजों में काम करना पड़ा है, जहां ही जनता की कई पीढि़यां विकृत सामंतवाद का उत्पीड़न झेलते–झेलते अपना धैर्य, स्वाभिमान और कदाचित स्वतंत्र निर्णय लेने की ताकत भी खो चुकी हैं. इसलिए समानता और बराबरी के समाजवादी सपने लंबे समय तक उसका विश्वास नहीं जीत पाते. दूसरे अपने ही समाज में व्याप्त असमानता के कारण उन्हें ऐसे लोगों से स्पर्धा करनी पड़ती है, जो कई मायने में उनसे बहुत आगे हैं. इसलिए समाजवादी और साम्यवादी सपने उन्हें मायाजाल लगते हैं. जैसे कोई बच्चा बाजार में रंग–बिरंगी वस्तुएं देख मचलने लगता है और उन्हें पाने के लिए कभी–कभी माता–पिता की गोद से उतर जाता है, वैसे ही वे भी छिटकने लगते हैं. आधुनिक समाज के लिए सबसे बड़ी चुनौती, व्यक्तिगत लाभ और सामाजिक लाभों के बीच तालमेल बनाए रखने की है. साम्यवाद, पूंजीवाद और समाजवाद जैसी व्यवस्थाएं इसी तालमेल के लिए अलग–अलग रास्ते सुझाती हैं. इनमें से प्रत्येक की अपनी विशेषताएं हैं. कमजोरी यह है कि वे व्यक्ति और समाज के संबंधों पर विशेष ध्यान नहीं देते. इसलिए एक को संभालो तो दूसरा साथ छोड़ने लगता है. व्यक्ति समाज के साथ भी रहना चाहता है और स्वतंत्र भी. किन परिस्थितियों में वह इनमें से किसे वरीयता देता है, यह पूरी तरह उसी पर निर्भर है. लोकतंत्र की सफलता के लिए आवश्यक है कि नागरिक हितों के सामान्यीकरण को अपनाएं. मगर हितों के सामान्यीकरण की आवश्यकता पहले भी थी, आज भी है. समाजवाद और साम्यवाद दोनों इस बात पर एकमत हैं कि राज की पूंजी हो न कि पूंजी का राज्य. आधुनिक समाज के सामने बड़ी समस्या है. वह समस्या है कि व्यक्ति और समूह के हितों में तालमेल बिठाना. बाजार को तो दोनों ही चाहिए. व्यक्ति भी समूह भी. बात हमने सरकार से आरंभ की थी और समाजवाद तक आ गई. विचारों की यह यात्रा अन्यथा नहीं थी. एक स्वाभाविक यात्रा है. क्योंकि दोनों का संबंध कहीं न कहीं व्यक्ति से है. उसके खोए हुए स्वाभिमान से है. सरकार इसलिए कर्तव्यच्युत होती हैं, क्योंकि उनपर जनता का वैसा नियंत्रण नहीं हो पाता, जैसा अपेक्षित होता है. समाजवाद और साम्यवाद जन–जन के विकास की बात करते हैं, मगर व्यक्ति और समाज के संबंधों में पर्याप्त समन्वय न कर पाने के कारण, वे बहुत जल्दी बिखराब या पतन का शिकार होने लगते हैं. व्यक्ति के भीतर स्वतःप्रेरणाएं न जगा पाने के कारण आर्थिक–सामाजिक समानता का लक्ष्य लेकर चले दोनों दर्शन अंतत असफल नजर आने लगते हैं. आखिर क्यों? मनुष्य की अंतःप्रेरणाओं को जगाने का सबसे बड़ा रास्ता तो यही है कि वह अपने अधिकारों को समझे. साथ में यह भी जाने कि म्नुष्य के रूप में उसके अधिकार केवल उसके अधिकार मात्र नहीं हैं, उनके पीछे उसके समाज के प्रति कर्तव्य भी निहित हैं. उसे यह बोध हो कि अपने मौलिक अधिकारों की रक्षा वह तभी कर सकता है, जब वह दूसरे के मौलिक अधिकारों का सम्मान करे. यहां मानवाधिकारों की भूमिका केंद्रीय हो जाती है. यदि समाजवाद मनुष्य को यह भरोसा दिलाए कि वह आर्थिक लाभ के विभाजन के समय कोई भेदभाव नहीं करेगा और मानवाधिकार यह भरोसा जगाएं कि मनुष्य के मूलभूत अधिकार प्रत्येक अवस्था में सुरक्षित हैं, तब मनुष्य को यह भी भरोसा होगा कि पूरा समाज उसके अधिकारों, सुख की सुरक्षा और संपूर्ति के लिए संकल्पबद्ध हैं. तब निश्चय ही वह समाज और उसकी संस्थाओं को बचाना चाहेगा. यदि मनुष्य स्वयं सामाजिक संस्थाओं का सम्मान करेगा, अपने कर्तव्यों के प्रति चैतन्य और आत्मानुशासित होगा तो अनेक खर्चीली संस्थाओं का औचित्य अपने आप जाता रहेगा. ©ओमप्रकाश कश्यप एक इस युग को इसके भीषण अपराधों अथवा इसके आश्चर्यजनक आविष्कारों के लिए स्मरण नहीं किया जाएगा; अपितु इसके लिए स्मरण किया जाएगा कि इतिहास आरंभ होने के बाद यह पहला युग है, जिसमें मनुष्य जाति ने यह विश्वास करने का साहस किया है कि सभ्यता के समस्त लाभों को समूची मानव जाति के लिए उपलब्ध करा पाना व्यावहारिक दृष्टि से संभव है.’1 ईस्वास्योपनिषद का एक मंत्र है—पूर्णमदः पूर्णमिदं, पूर्णात् पूर्णमुदच्यते.’ अर्थात ‘यह भी परिपूर्ण है, वह भी परिपूर्ण है. उस परिपूर्णता से यह परिपूर्ण उपजा है.’ भारतीय दर्शन में इसे आत्मा और परमात्मा दोनों की परिपूर्णता के संदर्भ में लिया जाता है. चाहें तो इसका उपयोग मनुष्य एवं समाज दोनों के संबंध की व्याख्या हेतु भी कर सकते हैं, जैसे—‘यह(मनुष्य) भी स्वतंत्र है, वह(समाज) भी स्वतंत्र है. एक की स्वतंत्रता दूसरे की स्वतंत्रता से उपजी अथवा रक्षित है. यह दिखाता है कि मनुष्य और समाज दोनों की स्वतंत्रता एक–दूसरे पर निर्भर हैं, परस्पर अन्योन्याश्रित. यदि मनुष्य समाज की निधि है तो मानवाधिकार उसका रक्षा–कवच. वे सभ्य समाज के आभूषण हैं. मानवाधिकार और कानून में अंतर है. किसी राज्य का नागरिक होने के नाते, मनुष्य उसके कानूनों से स्वतः आबद्ध हो जाता है. मानवाधिकार मनुष्य को मनुष्य होने के नाते उसके जन्म से, स्वतः प्राप्त हो जाते हैं. राज्य अपेक्षा करता है कि नागरिक उसके बनाए कानूनों का इसी तरह पालन करें. मनुष्य अपेक्षा करता है कि राज्य उनके कानून–सम्मत अधिकारों के साथ–साथ मूलभूत अधिकारों का भी संरक्षण करे. यदि राज्य ऐसा करने में अक्षम सिद्ध हो तो वह अपने होने का औचित्य खो देता है. परिणामस्वरूप भीतर ही भीतर अंतर्विरोध पनपने लगते हैं. इस तरह मानवाधिकार मनुष्य और समाज दोनों का रक्षा कवच हैं. वे समाजरूपी महासागर के हृदय में बसने वाली बहुमूल्य सीपी के समान हैं, जिनमें वह अपनी बूंद–रूपी सदस्य इकाइयों की अस्मिता को सहेजकर रखता है. एक संस्था के रूप में समाज की शक्तियां और अधिकार उसकी सदस्य इकाइयों की ओर से आते हैं. वही उसे शक्तिशाली बनाते हैं. मानवाधिकार उन शक्तियों से जुड़े अधिकारों के दुरुपयोग से व्यक्ति–मात्र की स्वतंत्रता की रक्षा करने का विधान हैं. उनके माध्यम से समाज सदस्य इकाइयों के प्रति सहृदय और उदार होने का दावा कर सकता है. दूसरे शब्दों में मानवाधिकार समाज की सदाशयता को दर्शाते हैं. दिखाते हैं कि अपनी सदस्य इकाइयों के प्रति वह कितना उदार, नम्य और जवाबदेह है. सभ्य समाजों में वे ऐसी शुभता का प्रतीक होते हैं, जिसपर कल्याण सरकार की नींव टिकी होती है. उनकी उपस्थिति में कोई भी सरकार अपना औचित्य सिद्ध करती है. अरस्तु के अनुसार ‘सामान्य नागरिक की भलाई, शासक की भलाई से अभिन्न नहीं होती.’ इसलिए मानवाधिकार शासक और शासित दोनों को, कर्तव्य एवं अधिकारों की तुला पर बराबरी पर ले आने का उपक्रम हैं. उनके आधार पर दोनों अपनी दायित्व–पूर्ति की दिशा में आगे बढ़ सकते हैं. मानवाधिकारों का महत्त्व इसलिए भी है कि वे व्यक्ति के उन मूलभूत अधिकारों की सुरक्षा करते हैं, जो उसे राज्य तथा अन्य दमनकारी शक्तियों की मनमानी से बचाकर, सम्मान–पूर्ण जीवन जीने के लिए अनिवार्य माने जाते हैं. मानवाधिकार को सामान्यतः आधुनिक सभ्यता से जोड़कर देखा जाता है. कदाचित यह उचित भी है. मानवाधिकारों को संस्थानिक महत्ता आधुनिक समाज की देन है, लेकिन बीज–रूप में यह उतना ही पुराना विचार है, जितनी मानव–सभ्यता की शुरुआत. अंतर बस इतना है कि मानवाधिकार पहले सामाजिक आचार–संहिता का हिस्सा थे. उनका स्तर कानूनी न होकर व्यावहारिक था. भारत जैसे देशों में जहां धर्म मनुष्य की पूरी जीवन–चर्या को अनुशासित करता है, मानवाधिकारों को भी धार्मिक आचार–संहिता के एक हिस्से के रूप में प्रचारित किया जाता रहा है. यह भी कह सकते हैं कि धर्म को जनसाधारण के बीच लोकप्रिय बनाने में मानवाधिकारों का बहुत बड़ा योगदान रहा है. मेरी राय में मानवाधिकारों को धर्म से जोड़कर देखना उचित नहीं है. यह बात अलग है कि प्रत्येक धर्म की कुछ ऐसी अनुशंसाएं अवश्य होती हैं, जो मनुष्य के मौलिक अधिकारों से साधारणतः मेल खाती हैं. उनकी नींव समानता के सिद्धांत के आधार पर रखी जाती है, जो स्वयं प्राकृतिक न्याय की भावना पर आधारित होती है. चूंकि प्रकृति किसी के साथ भेदभाव नहीं करती, सभी के साथ समान व्यवहार करती है, प्रकृति की संतान होने के कारण मनुष्य को भी उसके मूलभूत अधिकार मिलने ही चाहिए—व्यक्ति–स्वातंत्रय का समर्थन करता हुआ, यह भाव भारतीय और पश्चिमी धर्मग्रंथों में जगह–जगह आया है. शुक्ल यजुर्वेद की एक ऋचा में प्रतिपालक की ओर से उद्घोषणा है—‘मैं सभी प्राणियों को मित्र–भाव से देखता हूं.’2 समानता एवं मानवाधिकार मित्र–भाव से देखना सभी प्राणियों के प्रति सम–दृष्टि रखना है. राज्य की विश्वसनीयता के लिए यह अत्यावश्यक है. जहां बराबरी और मेल–मिलाप है, वहां सामाजिक जीवन में राज्य की भूमिका घट जाती है. अनावश्यक सांस्कृतिक प्रतीकों का उपयोग घट जाता है. समाज के स्वयं अनुशासित होने से जीवन में प्रतीकों का असर कम होने लगता है. उनका स्थान वास्तविक चीजें ले लेती हैं. समाज अतीत अथवा स्मृतियों के बजाय वर्तमान में जीने लगता है. उसके सपने यथार्थोन्मुखी हो जाते हैं. ऐसे समाज में नागरिक अपने अधिकारों और कर्तव्यों के प्रति सचेत रहते हैं, इस तरह कि बाहरी अनुशासन की उन्हें आवश्यकता ही नहीं पड़ती. ऐसा राज्य प्लेटो की आदर्श राज्य–संबंधी अवधारणा के निकट है, जिसके अनुसार ‘अच्छा मनुष्य और अच्छा जीवन अच्छे राज्य में ही पाया जा सकता है.’ वैसे भी आदर्श स्थिति यही है कि समाज में शासक और शासित का विभाजन ही न हो. यदि वह अपरिहार्य है तो शासक, शासित के प्रति मित्र–भाव बनाए रखे. सरकार है तो वह न्यूनतम शासन करे. सभी नागरिकों को बराबरी की तुला पर रखकर देखे. उनके मौलिक अधिकारों पर आंच न आने दे. राज्य यदि अपने श्रेष्ठत्व को खो देगा तो उसके नागरिकों के लिए भी अपने श्रेष्ठत्व की रक्षा करना मुश्किल हो जाएगा. अच्छा राज्य और अच्छे नागरिक भिन्न व्याप्तियां नहीं हैं. सेबाइन लिखता है—
समानता का आशय यह नहीं है कि कोई व्यक्ति मनमानी करे और उसको आधार बनाकर दूसरा व्यक्ति भी मनमानी करने पर उतर आए. न ही इसका आशय अकेले व्यक्ति की स्वतंत्रता से है. मानवाधिकारों की गरिमा सकारात्मक दृष्टिकोण के साथ है. व्यक्तिमात्र के प्रति निष्पक्ष, उदार सोच तथा उसे अपने विकास के लिए पक्षपात रहित अवसर उपलब्ध कराना भी मानवाधिकारों के उद्देश्य में शामिल है. तदनुसार किसी भी व्यक्ति को ऐसा अधिकार नहीं मिल सकता जिसके बल पर वह दूसरों को नुकसान पहुंचाकर अपना हित साध सके. स्वतंत्रता का वास्तविक आनंद सबके साथ, सामाजिक मर्यादा में, सहअस्तित्व की भावना के साथ भोगा जा सकता है. इस तरह समानता का वास्तविक अर्थ कुल समाज की स्वतंत्रता में अपनी स्वतंत्रता की खोज करना है. इसका आशय अवसरों की समानता से भी है. हालांकि ऐसे समाजों में जहां पहले से ही अत्यधिक समाजार्थिक विषमता हो, वहां समान अवसरों का सिद्धांत एक समरस, समानता–आधारित समाज की स्थापना के लक्ष्य में कारगर नहीं हो सकता. स्पर्धा में पहले से ही आगे निकल चुके व्यक्ति तथा उसके एकदम पिछले सिरे पर मौजूद व्यक्ति के लिए अवसरों और न्याय की समानता के कोई मायने ही नहीं हैं. क्योंकि जब तक पीछे चल रहा व्यक्ति अगड़े व्यक्ति की स्थिति में पहुंचेगा, तब तक वह तेज गति से आगे बढ़ता हुआ, उससे बहुत आगे निकल चुका होगा. इस तरह दोनों के बीच का अंतराल बढ़ता ही जाएगा. ऐसी स्थिति में सरकार से अपेक्षा की जाती है कि वह समानता के साथ–साथ न्याय की स्थापना के लिए भी कार्य करे. न्याय की स्थापना के अनेक तरीके हो सकते हैं. नैतिकता और निष्पक्षता की शर्त पर शासन उनमें से किसी का भी चयन कर सकता है. लेकिन सुशासन केवल सरकार का दायित्व नहीं है. वह व्यक्ति, समाज और राज्य तीनों के सम्मिलित श्रेष्ठत्व एवं दीर्घकालिक प्रक्रिया है. राज्य से अपेक्षा की जाती है कि वह न्याय के पक्ष में अनुकूल स्थितियों का सृजन करे. वहीं नागरिकों को चाहिए कि वे अपनी प्रबुद्धता का परिचय देते हुए, राज्य को न्याय की स्थापना में इतना सहयोग करें कि विकास और स्वतंत्रता के नाम पर खड़ी की गई संस्थाओं की संख्या निरंतर घटते–घटते, एक दिन उनका औचित्य ही जाता रहे. सभी नागरिकों को बराबर अवसर उपलब्ध कराना राज्य का कर्तव्य है, तथापि समानता का अभिप्राय यह भी नहीं है कि आगे निकल चुके व्यक्तियों से संसाधन छीनकर उन्हें पिछड़ चुके व्यक्तियों में बांट दिया जाए. यह न केवल अव्यावहारिक है, बल्कि आगे निकल चुके व्यक्तियों के संदर्भ में मूलभूत स्वतंत्रता के सिद्धांत का उल्लंघन भी है. अतः ऐसे समाजों में जहां सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक विषमताओं का लंबा इतिहास रहा हो, समानता के लक्ष्य को प्राप्त करना काफी कठिन कार्य माना जाता है. प्रमुख सत्ता–केंद्रों पर विराजमान वे लोग अपनी स्थिति का लाभ उठाते हुए परिस्थितियों को अपनी ओर मोड़ने में कामयाब हो जाते हैं. समाज, संस्कृति, राजनीति तथा आर्थिक क्षेत्र में उनकी इतनी गहरी और मजबूत पकड़ होती है कि उन्हें बदल पाना आसान नहीं होता. लंबे समय तक एक जैसी स्थितियों में रहने के बाद जनता हालात से अनुकूलन कर लेती है. उसके अंदर बदलाव की इच्छा लगभग मर चुकी होती है. प्रतीकों के अतीत एवं उनके मनोविज्ञान को समझने के बजाय वह उन्हीं को सबकुछ मान लेती है. ऐसी जनता को भीड़ में ढालना आसान होता है. अतएव स्थिति का पूरा फायदा क्षुद्र राजनेता, पुरोहित और बाजारवादी शक्तियां उठाती हैं. ऐसे समाजों में जनता को परंपरागत विकास के अवसरों से हटाकर नए परिवर्तन हेतु तैयार करना भी समस्या होती है. ऐसे में जनसाधारण के मूलभूत अधिकारों की रक्षा करते हुए विकास की निरंतरता को बनाए रखना कठिन हो जाता है. समानता मानवाधिकारों की पुण्य–भूमि है. उसकी मांग उतनी ही पुरानी है, जितनी राज्य–समाज का इतिहास. महाभारत के शांति पर्व में भीष्म अतीत के समानता पर आधारित, वर्गहीन समाज को याद करते हुए कहते हैं—‘एक समय था जब न राज्य होता था, न ही राजा. न दंड था, न ही दंड देने वाला. लोग स्वय–स्फूर्त्त भाव से एक दूसरे की मदद और रक्षा करते थे.’4 प्राचीन भारत में गणतांत्रिक चेतना और कल्याण में सभी की समान भागीदारी की चिंता बौद्ध दर्शन में भी देखने को मिलती है. गौतम बुद्ध स्वयं गणतांत्रिक प्रणाली के समर्थकों में से थे. बौद्ध विहारों में आंतरिक गणतंत्र कायम था. उन दिनों शासनतंत्र विभिन्न जाति और वर्गों में विभाजित था. उस कृत्रिम विभाजन को धर्मसत्ता का समर्थन प्राप्त था. गौतम बुद्ध ने समाज के चातुवण्र्य विभाजन को चुनौती दी. यज्ञ–वेदियों पर दी जाने वाली पशुबलियों का जमकर विरोध किया. राज्य की विधिवत स्थापना के बाद, आर्थिक–सामाजिक–राजनीतिक समानता का विचार पहली बार संभवतः बौद्धकाल में ही लोगांे के सामने आया. गौतम बुद्ध ने बौद्धसंघ का गठन कर उसके दरवाजे सभी वर्गों के लिए खोल दिए. एक कहानी है कि मगध सम्राट अजातशत्रु की इच्छा वैशाली को जीतने की हुई. आक्रमण करने से पहले उसने अपने अमात्य वर्षकार को गौतम बुद्ध का आशीर्वाद लेने के लिए भेजा. वर्षकार के मुंह से मगध–सम्राट की इच्छा जान लेने के पश्चात गौतम बुद्ध ने कहा—‘वैशाली के निवासी जब तक अपने निर्णय मिल–जुलकर लेंगे, फैसलों में पारदर्शिता बनाए रखेंगे, हे राजन! उस समय तक वे अजेय रहेंगे.’ संकेत स्पष्ट था. बुद्ध कहना चाहते थे कि सम्मिलित जनशक्ति के आगे बड़े से बड़े साम्राज्य की शक्तियां भी क्षीण होती हैं. आजादी की महत्ता को समझने वाली कौम ही उसकी रक्षा करना जानती है. गौतम बुद्ध की बातों का ही प्रभाव था कि अजातशत्रु को वज्जि संघों पर आक्रमण का इरादा छोड़ना पड़ा था. मगध अमात्य के समक्ष गौतम बुद्ध वज्जि संघ की न केवल मुक्त कंठ से प्रशंसा करते हैं, बल्कि अपने भिक्षु संघ में लोकतांत्रिक चेतना पर आधारित व्यवस्था भी लागू करते हैं, इससे उनकी इस प्रणाली के प्रति निष्ठा का आकलन किया जा सकता है. समानता का विचार प्राणिमात्र के प्रति करुणा की भावना पर निर्भर होता है. एकपण्ण जातक में एक राजकुमार की कहानी है, जिसमें प्राणिमात्र के प्रति करुणा बरतने का संदेश दिया गया है. कहानी कुछ इस प्रकार है—
संदेश के अनुसार व्यक्ति को चाहिए कि वह दूसरों के साथ वही व्यवहार करे, जैसा वह दूसरों से अपने प्रति चाहता है. इससे यह संकेत भी मिलता है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनता सर्वोपरि होती है. वह कर्तव्य–च्युत सम्राट को सत्ता से कभी भी बेदखल कर सकती है. राज्य यदि अनीति, अनाचार और क्रूरता भरा आचरण करता है तो प्रजा को उसे तत्क्षण उखाड़ फैंकने का अधिकार है—जातक के माध्यम से बुद्ध यह संदेश भी लोगों तक पहुंचाते हैं. बौद्ध काल में सम्राट अपनी प्रजा का पालनकर्ता, संरक्षक और मालिक होता था. उसका आचरण नियमों में बंधा हुआ था. कहने को वैशाली जैसे कुछ छोटे–छोटे गणतंत्र भी थे, परंतु नाम के, क्योंकि उसमें केवल समाज के चुनींदा लोगों को हिस्सेदारी लेने का अधिकार था. उपर्युक्त राजनीति विज्ञान की भाषा में उसे कुलीनतंत्र भी कह सकते हैं. उसके बनिस्पत गौतम बुद्ध द्वारा स्थापित संर्घों में व्यक्ति को अपेक्षाकृत अधिक आजादी प्राप्त थी. तत्कालीन गणतंत्रों में राज्य का संघ पर कोई अधिकार नहीं था. राजा के सीमित अधिकारों का समर्थन करती एक और जातक कथा है. एक बार एक राजा की मुंह लगी पटरानी ने राजा से यह वर मांगा—
इस कहानी को पढ़ते हुए किसी विचारक का यह कथन दिमाग में कौंध जाता है. राज्य और कानून के औचित्य पर प्रश्न–चिह्न लगाते हुए उसने कहा था—‘दुनिया के सारे कानून व्यर्थ हैं. इसलिए कि भले आदमी को उनकी जरूरत ही नहीं पड़ती और बुरे को उनके भरोसे सुधारा नहीं जा सकता. ऐसे में मनुष्यता का अभीष्ट केवल ऐसा राज–समाज हो सकता है, जिसमें कानूनों का न्यूनतम दखल हो. मानवाधिकार राज्य की उदारता को सामने लाकर शासक और समाज के बीच की दूरी को पाटने का काम करते हैं. गौरतलब है कि ईसा से छह–सात सौ वर्ष पहले तक मथुरा, मगध जैसे कुछ बड़े राज्यों को छोड़कर अधिकांश राज्य छोटे–छोटे थे. उनके बीच वर्चस्व का संघर्ष निरंतर चलता रहता था. तीसरी शताब्दी पहले जन्मा कौटिल्य भी राजशाही के नेतृत्व में कल्याणकारी राज्य के गठन का समर्थक था. वह मानता था कि राजा को बुद्धिमान, वीर, साहसी, दूरदृष्टा और उत्तम गुणों से परिपूर्ण होना चाहिए. उसे इतना संवेदनशील भी होना चाहिए कि प्रजा के कष्ठों का अनुभव कर उनका निदान कर सके. उसके राजनीतिक दर्शन का निचोड़ था कि राजा राज्य का स्वामी नहीं, प्रथम प्रबंधनकर्ता है. प्रजा पर अपनी मनमानी इच्छाएं थोपने को लेकर चाणक्य ने राजा को सावधान किया है—‘जनता का कोप सभी कोपों से बढ़कर है.’ प्रजा से संबंधित मामलों में जनसाधारण के हित को आगे रखने की बात चाणक्य के इस कथन से भी स्पष्ट हो जाती है—‘राजा चाहे न भी हो, पर यदि जनता की अवस्था उत्तम हो तो राज्य भली–भांति चल सकता है.’ यहां एक बोधकथा याद आ रही है. लेखक हैं, फ्रांसिसी क्रांति के महानायकों में से एक—संत साइमन. बोधकथा में साइमन ने अनोखी कल्पना की है—
लघुकथा का संदेश स्पष्ट है. कोई भी देश राजा अथवा उसके दरबारियों से नहीं बनता. न ही शिखर पर विराजमान, सत्ता–सुख भोगनेवाले लोग उसको बनाते हैं. देश जनता की, सर्वसाधारण की विनिर्मिति होता है. वही उसका वास्तविक शक्ति–केंद्र होते हैं. लेकिन उनमें से अधिकांश जनता यानी अपनी ही अकूत शक्ति से अपरिचित होते हैं. इस कारण राज्य का संचालन शिखरस्थ लोगों के अधीन बना रहता है. कभी विकास, कभी सुख–शांति और कभी सुरक्षा के नाम पर वे अपने शिखरत्व का औचित्य सिद्ध करने में लगे रहते हैं. यदि वे न हों तो भी जनता अपने विकास का रास्ता खोज लेती है. स्वार्थी सत्ताएं जनता को कभी धर्म, कभी जाति, कभी राज्य–भक्ति तो कभी राष्ट्रप्रेम के नाम पर अनुकूलित करने की कोशिश हमेशा से करती आई हैं. भारत में स्मृतियों, ब्राह्मण ग्रंथों आदि के माध्यम से समाज को संगठित और अनुशासित करने के प्रयास महाभारत काल से ही आरंभ हो चुके थे. यद्यपि किसी न किसी रूप में वे सभी धार्मिक आचार–संहिता का हिस्सा थे. उनके लिए सदाचरण का अभिप्राय था, किसी तीसरी अज्ञात–काल्पनिक सत्ता को प्रसन्न करना, ताकि मोक्ष के लक्ष्य को प्राप्त किया जा सके. इस काल्पनिक शक्ति का मूल स्वरूप भरपूर लचीलापन लिए होता है. अपनी कल्पना के अनुसार व्यक्ति जैसा चाहे उसका रूप निर्धारित कर सकता है. धर्म का यह आचरण दिखने में भले ही लोकतांत्रिक लगे, असल में दिखावटी होता है. अवसर मिलते ही धर्म के अलंबरदार विरोधी शक्तियों को कुचलने के षड्यंत्र में जुट जाते हैं. धर्माधारित संहिताओं में मानव–कल्याण लक्ष्य न होकर केवल उसका उप–उत्पाद होता है. चूंकि मोक्ष के रूप में वह लक्ष्य व्यक्ति–विशेष को ही प्राप्त हो सकता है; तथा उसकी राह में सांसारिक रिश्ते–नातों को बाधक माना जाता था. इस कारण उस परंपरा में सामाजिक आचार–संहिताएं, अपने समग्र प्रभाव में ठेठ व्यक्तिवादी आयोजन बनकर रह जाती हैं. व्यक्ति समाज के बीच रहकर भी पूरी तरह से समाज का नहीं हो पाता. धर्म सांसारिक संबंधों को मोक्ष की राह में बाधा मानता है. भौतिक उपलब्धियों को हेय मानकर उनकी उपेक्षा करता है. परिणामस्वरूप विकास कुछ लोगों, जो उसकी वास्तविकता को समझते हैं, या उसकी कमजोरियों का लाभ उठाना जानते हैं—तक सिमट जाता है. हालांकि गौतम बुद्ध, महावीर स्वामी ने मनुष्य और उसके सामाजिक दायित्वों के बीच से तीसरी शक्ति को निकालकर आचरण की शुद्धता पर पूरा जोर दिया था. लोगों पर उनका प्रभाव भी पड़ा था. लेकिन जब तक कोई विचार केवल विचार बना रहे, लोगों के रोजमर्रा के आचरण का हिस्सा न बने, तब तक उसका प्रभाव अस्थायी ही रहता है. सत्तासीन लोगों के निर्देश या उनकी नकल के आधार पर निर्णय लेने वाली जनता, शिखर पर परिवर्तन के साथ, प्रायः अपनी रुचियां और आचरण भी बदल लेती है. इससे स्वार्थी शक्तियां अपना वर्चस्व कायम रखने में सफल रहती हैं. यही कारण है कि संसार को कर्मक्षेत्र, विकास की चुनौती मानने के बजाय उसे मोह, माया, छल–फरेब घोषित करने का रिवाज आज भी बड़े तबके में कायम है. मानव–अधिकारों की पृष्ठभूमि मानवाधिकारों के प्रति चेतना यद्यपि सभी समाजों में सभ्यताकरण के आरंभ से ही दिखाई पड़ती है. तथापि इस दृष्टि से देखा जाए तो पश्चिम में स्थितियां अपेक्षाकृत अनुकूल थीं. सुकरात ने ‘सद्गुण ही ज्ञान है’ कहकर आचरण की सभ्यता को दार्शनिक विमर्श के केंद्र में ला दिया. उसके बाद प्लेटो, अरस्तु, जेनोफीन आदि ने एक तरह से सुकरात की विचारधारा को ही विस्तार देने का काम किया. आशय है कि जहां भारत की दार्शनिक चेतना के केंद्र में तीसरी अदृश्य, अज्ञात शक्ति हमेशा व्याप्त रही है. वही पश्चिम की विचार–चेतना का केंद्र–बिंदू मनुष्य बना रहा. हालांकि बीच–बीच में चर्च ने भी लोगों को अपने प्रभाव में लेने की कोशिश की. कई बार उसको सफलता भी मिली. इसके बावजूवहां प्रगतिशील शक्तियां सक्रिय रहीं और समय–समय पर चर्च को मनुष्यता का रास्ता दिखाती रहीं. मानव–केंद्रित सामाजिक आचार–संहिता के गठन की नींव वहां ईसा से लगभग 1000 वर्ष पहले ही पड़ चुकी थी. विद्वानों के अनुसार यही समय महाभारत का भी है, जिसमें धर्म के नाम पर 3,93,660 हाथी, 27,55,620 घोड़े तथा 82,67,094 मनुष्यों को बलि देनी पड़ी थी. ‘संयुक्त राष्ट्र संघ जनसंख्या ब्यूरो’ के अनुसार ईसा से 1000 वर्ष पहले विश्व की कुल जनंसंख्या 5 करोड़ में, एशिया की अनुमानित जनसंख्या 3.3 करोड़ तथा यूरोप की जनसंख्या लगभग 90 लाख थी. इस तरह धर्म के नाम पर हुए उस युद्ध में, एशिया की जनसंख्या के लगभग एक–चौथाई जनसंख्या तथा यूरोप की कुल जनसंख्या के बराबर सैनिक खेत हुए थे. शायद युद्ध की वे भयावह स्मृतियां ही थीं, जिनसे उबरने के लिए लोकायतों तथा आजीवकों ने धार्मिक कर्मकांडों का खुला विरोध किया. तदनंतर मध्यम मार्ग पर अमल करते हुए महावीर स्वामी और गौतम बुद्ध ने अहिंसा पर आधारित धर्म–दर्शनों की नींव रखी. भारत की धर्म–केंद्रित सामाजिक आचार–संहिता के सापेक्ष पश्चिम में व्यक्ति–केंद्रित आचार–संहिता पर जोर दिया गया. अभी तक ज्ञात साक्ष्यों के आधार पर मनुष्य को केंद्र में रखकर प्राचीनतम न्याय–संहिता(कोड आ॓फ जस्टिस) के गठन का श्रेय 2300 ईस्वी पूर्व सुमेरियाई सभ्यता में, लागेश के बादशाह उरुकजीन को जाता है. उरुकजीन ने अपनी प्रजा को सूदखोर व्यापारियों के चंगुल से बचाने के नियम बनाए. साथ ही उसने विधवाओं और लावारिसों को कर में राहत देकर शासन को आमजन का हितैषी दिखाने की शुरुआत की. उरुकजीन के बाद मेसोपोटामिया सभ्यता के उर नगर के सम्राट नाम्मु ने लिखित आचार–संहिता को लागू किया. लगभग 2050 ईस्वी पूर्व लागू उस न्याय संहिता में मौत और अपहरण के अपराधी को मृत्युदंड का प्रावधान था. नाम्मु की न्याय संहिता में सामाजिक शुचिता का सम्मान करते हुए, स्त्री–पुरुष संबंधों को उस समय की प्रथाओं के अनुसार अनुशासित करने का प्रयास किया गया था. उसका विशेष आकर्षण दासों को दिए गए अधिकार थे. तदनुसार यदि कोई दास किसी दास स्त्री से विवाह करता था, तो स्त्री को दासत्व से मुक्ति मिल जाती थी. हालांकि दास को पहले की तरह ही काम करना पड़ता था. लेकिन यदि कोई दास स्त्री अथवा पुरुष, गैर दास पुरुष अथवा स्त्री से विवाह करे तो उस दंपति को अपनी प्रथम संतान गृहस्वामी को सौंपनी पड़ती थी. सार्वजनिक निर्णय तथा दो व्यक्तियों के बीच किए गए लिखित अनुबंध का महत्त्व था. यदि कोई पिता अपनी बेटी का किसी युवक से विवाह करने का सार्वजनिक निर्णय कर ले; और बाद में किसी कारणवश अपनी पुत्री का विवाह किसी और युवक से कर दे तो उसको वर पक्ष की ओर से प्राप्त स्त्री–धन और सौगातों से दो गुने मूल्य के बराबर धन, बतौर जुर्माना उस युवक को चुकाना पड़ता था. उर–नाम्मु के बाद अगला लिखित संविधान मेसापोटामिया सभ्यता में इसिन वासियों की ओर से लगभग 1870 ईस्वी पूर्व लिपित–ईस्तर नामक सम्राट द्वारा बनाया गया था. उसे देखकर लगता है कि उस समय तक कृषि का विकास हो चुका था. लोग खेतों को तैयार करने, तैयार खेत को कृषिकर्म हेतु दूसरों को उधार देने लगे थे. समाज में श्रम–विभाजन आरंभ हो चुका था. परिणामस्वरूप दूसरों के श्रम से लार्भाजन की प्रवृत्ति बढ़ रही थी. फलदार बाग लगाने का चलन भी बढ़ा था. फलोद्यानों में चोरी की रोकथाम के लिए नियम बनाए जाने लगे थे. लिपित–ईस्तर की व्यवस्था के अनुसार दूसरे व्यक्ति के फलोद्यान में अनाधिकृत प्रवेश दंडनीय अपराध था. यदि कोई व्यक्ति दूसरे के बाग में जाकर वृक्ष को नुकसान पहुंचाता है तो उसे उद्यान–स्वामी को पहुंचाए गए नुकसान के बराबर धनराशि का भुगतान बतौर जुर्माना करना पड़ता था. दूसरे के बाग में जाकर अनाधिकृत रूप से वृक्ष काटने पर एक मीना(330 ग्राम) चांदी के भुगतान की व्यवस्था उस दंड संहिता में थी. दासों का दायित्व गैर दास लोगों की सेवा करना था. इसिन–वासियों की न्याय–संहिता में उनके हितों की रक्षा की कोशिश भी दिखाई पड़ती है. यदि कोई दास–दंपति शहर में जाकर रहने गले, और शहर में कोई व्यक्ति उसको अपने मकान में आश्रय दे दे तो उस व्यक्ति को जिसने दास–दंपति को अपने यहां आश्रय दिया है, बदले में उस परिवार को जिसे उस विवाह के कारण दास अथवा दासी को मुक्त करना पड़ा है, वैकल्पिक दास या दासी उपलब्ध कराएगा. उस समय तक राजसत्ता स्वयं को मजबूत करने में लगी थी. इसलिए राजा के विशेषाधिकारों की बढ़ोत्तरी होने लगी थी. न्याय–संहिता में राजगृह में सेवारत दास–दासियों पर नजर रखना, उन्हें भड़काना/ दंडनीय अपराध माना जाता था. उसके लिए मृत्युदंड जैसी सजा का प्रावधान था. बेवीलोनिया में लागू हम्मुरबी न्याय–संहिता अपेक्षाकृत विकसित थी. उसको बेबीलोन के सम्राट हम्मुरबी द्वारा ईसा से अनुमतः 1754 पहले लागु किया गया था. 282 सूत्रों में विभाजित उस न्याय–संहिता की कुछ शर्तों में आधुनिक विधि–सिद्धांतों की झलक भी मिलती है. उदाहरण के लिए यदि किसी ठेकेदार द्वारा बनाया गया मकान अल्पावधि में ही गिर जाता है, तो उसकी जिम्मेदारी ठेकेदार की मानी जाती थी. उसे ठेकेदार की लापरवाही मानते हुए उसपर इमारत की कीमत जितना जुर्माना ठोका जा सकता था. लूट–पाट, रहजनी और चोरी–डकैती की रोकथाम हेतु सख्त नियम बनाए गए थे. हत्या जैसे संगीन अपराध की श्रेणी में रखकर, उनके लिए भी मृत्युदंड का प्रावधान किया गया था. हम्मुरब्बी की न्याय–संहिता की एक और विशेषता थी, न्याय–व्यवस्था में ईमानदारी और निष्पक्षता को बढ़ावा देना. उसके अनुसार यदि कोई न्यायाधीश किसी मुकदमे की सुनवाई के बाद कोई लिखित व्यवस्था करता है, और यदि उसके द्वारा किया गया न्याय आगे चलकर गलत अथवा दुर्भावना पूर्ण माना जाता है, तो उस जज को प्रभावित पक्ष पर लगाए गए जुर्माने का 12गुना धन, बतौर जुर्माना भरना पड़ता था. साथ ही उसे न्यायाधीश के पद से हमेशा के लिए हटा दिया जाता था. समाज में अपशकुन विचार आरंभ हो चुका था. उसका प्रभाव न्याय–व्यवस्था पर भी था. हम्मुराबी न्याय संहिता में 13 की संख्या को अशुभ मानते हुए उस स्थान को जानबूझकर खाली रखा गया है. वे न्याय–संहिताएं समाज में समानता और बराबरी कायम करने के नाम पर लागू की गई थीं, लेकिन समानता की संकल्पना बड़ी स्थूल थी. उर–नम्मु, लिपित–ईस्तर, हम्मुरबी आदि तत्कालीन न्याय–संहिताओं का मूलाधार यह विचार था कि अपराधी को उसके द्वारा किए गए अपराध जितना ही दंड मिलना चाहिए. आंख के बदले आंख, कान के बदले कान और खून के बदले खून. सभ्य समाजों में उसे न्यायोचित नहीं माना जाता. प्रायः बर्बर न्याय कहकर उसकी आलोचना की जाती है, मगर उस युग में जब समाज स्वयं को संगठित और संयोजित करने की कोशिश कर रहा था, समानता के विचार को, भले ही स्थूल रूप में लागू करना—अपने आप में क्रांतिकारी कदम था. उनके आधार पर शासन को सामाजिक मान्यता मिल जाती थी. कुछ समाजों में जहां धर्म कानून से अधिक प्रभावी है अथवा धर्म–केंद्रित कानून–व्यवस्था लागू है, इस प्रकार की न्याय व्यवस्था आज भी लागू है. हम्मुरबी के अलावा प्राचीनतम न्याय–संहिताओं में हतीती(1650 ईस्वी पूर्व), असीरियन(1075 ईस्वी पूर्व) तथा मोसाक न्याय संहिता आदि प्रमुख हैं. इतमें हतीती न्याय संहिता अपेक्षाकृत उदार व्यवस्था के चेहरे को दर्शाती थी. प्राचीन यूनान में दास को मालिक लोग अपनी संपत्ति मानते थे. उसको मनचाहा दंड देने का अधिकार उसके स्वामी को होता था. हतीती न्याय संहिता में दास के साथ भी मनुष्य जैसा व्यवहार हो, इसकी व्यवस्था दिखाई पड़ती है. यदि कोई स्वामी क्रोध के वशीभूत हो, दास अथवा दासी का कान चीर देता है तो उसपर तीन शेकेल(33 ग्राम) चांदी का जुर्माना लगेगा. हतीती न्याय संहिता में मृत्युदंड के प्रति घृणा का भाव दिखाई पड़ता था. यदि कोई गंभीर अपराध करे तो उसे कठिन श्रम का दंड दिया जाता था. ईसा पूर्व छठी शताब्दी में जीवन में सामान्य नैतिकता को महत्त्व देने के प्रयास पूरब और पश्चिम में लगभग एक साथ प्रारंभ हुए थे. भारत में यह कार्य महावीर स्वामी, गौतम बुद्ध के नेतृत्व में संभव हुआ तो पश्चिम में बौद्धिक क्रांति के अगुआ सुकरात, प्लेटो, अरस्तु आदि थे. सामान्य न्याय–संहिता को संविधान का रूप देने की सबसे पहली कोशिश एथेंस के शासक और धर्मशास्त्री ड्रेसो(650—600 ईसा पूर्व) की ओर से की गई. मगर ड्रेसो कुछ ज्यादा ही शुद्धतावादी था. उसके संविधान में मानवीय चूकों के लिए कोई स्थान नहीं था. गलती चाहे जान–बूझकर की जाए अथवा अनजाने में हो, अपराध छोटा हो या बड़ा, दोनों के लिए मृत्युदंड का प्रावधान था. नतीजा यह हुआ कि निर्दोषों को भी सजा मिलने लगी. राज्य की ऐसी मनमानी लोगों को खलनी ही थी. धीरे–धीरे जनता में विद्रोह पनपने लगा. आगे चलकर सोलोन(638—558 ईसा पूर्व) ने ड्रेसो की भूल का समाधान किया. उसने श्रमिकों और दासों के प्रति उदारता का प्रदर्शन करते हुए श्रम–संबंधी नियमों में छूट दी. व्यक्तिगत गुणों को बढ़ावा देते हुए कुलीनता का आधार जन्म के बजाय अर्जित धन को बना दिया. उसके विधान मंे अभिजात वर्ग में शामिल होने के लिए किसी कुल विशेष में सम्मिलित होना आवश्यक नहीं था, आवश्यक यह था कि अपने पुरुषार्थ का उपयोग करते हुए व्यक्ति अधिकतम धनोपार्जन के लक्ष्य में कितना सफल हो पाता है. इससे समाज में व्यक्तिगत गुणों को सम्मान मिलने लगा. जो योग्य थे, वे अपने कौशल से स्वयं को श्रेष्ठ सिद्ध कर उच्च वर्ग में सम्मिलित हो सकते थे. सोलोन द्वारा निर्मित संविधान को एथेंस सहित पूरे यूनान में सराहा गया. उस संविधान में संशोधन का अगला काम क्लेस्टींस की ओर से किया गया. क्लेस्टींस ने निर्वाचन की प्रणाली में सुधार कर, शासन को गणतांत्रिक स्वरूप प्रदान करने की कोशिश की. उसने एथेंस की न्याय प्रणाली में भी सुधार किए. उर–नाम्मु की न्याय–संहिता से लेकर सोलन के विधान तक जो सामान्य बात नजर आती है, वह यह कि सभी में दास प्रथा का समर्थन किया गया है. यह दिखाता है कि समाज में दास प्रथा का आगमन आज से 5000 वर्ष अथवा उससे भी पहले, आरंभ हो चुका था. उस समय तक समाज के कुछ वर्गों ने स्वयं को इतना संगठित कर लिया था कि अपने संगठन और समाजार्थिक सामर्थ्य के बल पर वे समाज के बड़े वर्ग से, उसके मनुष्य होने का अधिकार भी छीन सकते थे. यह मनुष्य के प्राकृतिक अधिकारों का हनन, एक तरह से अनैतिक कर्म था. धर्म उस समय तक संगठित नहीं था. फिर भी इस विभाजन को लेकर सामाजिक–धार्मिक मान्यताओं में कोई विरोध नहीं था. यह मान लिया गया था कि कुछ लोग स्वाभाविक रूप से दास के रूप में जन्म लेते हैं; और कुछ लोग जो कथित भाग्यशाली हैं, उच्च परिवारों में पैदा होते हैं. न्याय संहिता में दूसरा आग्रह स्त्री–पुरुष संबंधों को लेकर था. स्त्री और दासों के प्रति वे संविधान, कदाचित उदारता का प्रदर्शन करते हुए नजर आते हैं. इसके बावजूद उन न्याय–संहिताओं में तत्कालीन शासन का अभिजनोन्मुखी चरित्र तथा पित्र–सत्तात्मकता के प्रति झुकाव स्पष्ट नजर आता है. चोरी, डकैती, लूटमार जैसे अपराधों के लिए मृत्युदंड की व्यवस्था दर्शाती है कि उस समय समाज की तुलना में व्यक्ति का मूल्य बहुत कम रहा होगा. यह कदाचित स्वाभाविक भी था. उन दिनों पारिवारिक संबंध अपनी प्रारंभिक अवस्था में थे. स्त्री–पुरुष संबंध आमतौर पर कबीलों के भीतर सीमित रहते थे, जो अपेक्षाकृत बड़ा परिवार था. जंगली जानवरों तथा प्राकृतिक आपदाओं के अलावा दुश्मन कबीलों से समूह की रक्षा करना चुनौतीपूर्ण कार्य था. इसलिए जीवन–संभाव्यता कम रही होगी और मौत एक सामान्य घटना. पारिवारिक संस्था के अभाव में संतान किसी एक व्यक्ति के बजाय पूरे समूह की मानी जाती थी. यानी कुल मिलाकर तत्कालीन समाज सामूहिक संगठन थे. बड़ा परिवार जिनमें रिश्ते व्यक्ति की कार्य–कुशलता, भोजन एवं सेक्स संबंधी आवश्यकताओं के अनुसार तय होते थे. व्यक्तिगत स्वतंत्रता से ज्यादा महत्त्व संगठन और सांगठनिक एकता को दिया जाता था. ऐसे में सामूहिक हितों के आगे व्यक्तिगत हितों की बलि देना, बहुत सामान्य रहा होगा. तदनुसार उन समाजों में मानवाधिकारों की खोज करना अतिरिक्त अपेक्षा कही जाएगी. फिर भी मनुष्य द्वारा समाज को व्यवस्थित करने के लिए की जानेवाली कोशिशों के रूप में उनका ऐतिहासिक महत्त्व है. उन न्याय–संहिताओं में इस तथ्य को लगभग उपेक्षित रखा गया था कि मनुष्य के चरित्र निर्माण पर उसके परिवेश का भी प्रभाव होता है. साधारणतः कबीलाई युद्धों के लिए विख्यात पर्शियावासी भी वैचारिक क्रांति के क्षेत्र में पीछे न थे. उस दौर में पर्शियावासियों की दुनिया–भर को सौगात थी, साइरस सिलिंडर. जिसे आज पूरी दुनिया में अभी तक ज्ञात मानवाधिकार के सर्वप्रथम दस्तावेज के रूप में मान्यता प्राप्त है. महान पर्शिया सम्राट साइरस द्वारा उत्क्रीडि़त ‘साइरस सिलेंडर’ की खोज 1879 में की गई. उसका अन्वेषक था, असीरियाई–ब्रिटिश मूल का प्रतिभाशाली पुरातत्ववेत्ता हरमुज्द रसम. हरमुज्द को ‘गिलगमेश का महाकाव्य’, ‘हैंगिंग गार्डन’ आदि खोजने का श्रेय भी प्राप्त है. ईसा से 539 वर्ष पहले साइरस ने बेबीलोन पर आसान जीत हासिल की थी. उसने धार्मिक वृत्ति के तानाशाह बादशाह नबोनिदस को पराजित किया था. अपने विजय अभियान को यादगार बनाने के लिए उसने एक सिलेंडर उत्क्रीडि़त कराया था. 22.5 सेंटीमीटर लंबे और अधिकतम 10 सेंटीमीटर व्यास का वह सिलेंडर असल में साइरस द्वारा बेबीलोन पर विजय का आख्यान है. इसीलिए कुछ विद्वान उसे साइरस का आत्मप्रशंसात्मक लेख भी मानते हैं, जैसा उस समय के राजाओं का सामान्य चलन था. फिर भी साइरस के उस सिलेंडर में ऐसा बहुत कुछ था, जिसने आधुनिक मानवाधिकारवादियों को प्रभावित किया है. साइरस के प्रचारात्मक आख्यान के अलावा सिलेंडर पर राज्य में, धर्म और रंग के आधार पर भेदभाव से मुक्ति तथा दासों को अपने मूल प्रदेश वापस लौट जाने की स्वतंत्रता की घोषणा है. सिलेंडर पर उत्क्रीडि़त पाठ का संयुक्त राष्ट्र संघ की छह भाषाओं में अनुवाद किया गया है. धर्म, रंग, जातीय आधार पर भेदभाव से मुक्ति, समानता जैसे साइरस सिलेंडर के संदेश को ‘मानवाधिकारों का सार्वत्रिक घोषणापत्र’ के प्रथम चार अनुच्छेदों के रूप शामिल किया गया है. अपने अधिकारों के लिए पहली ज्ञात हड़ताल का श्रेय प्राचीन मिò के मजदूरों को जाता है. 1170 ईस्वी की यह घटना है. पूर्व मिस्र के बादशाह फेरों रामेस्स तृतीय के शासनकाल में मजदूर दायर–अल–मदीना में शाही कब्रिस्तान बनाने के काम में लगे हुए थे. जब उन्हें कई दिनों तक दैनिक मजदूरी के रूप में निर्धारित अनाज का भुगतान नहीं हुआ तो उनका धैर्य चुकने लगा. आखिर उन्होंने हड़ताल की घोषणा कर दी. उसपर तत्काल अमल करते हुए सभी मजदूरों ने अपने औजार रख दिए और निकट ही श्मशान में बने धर्मस्थान में जाकर बैठ गए. लगभग तीन हजार वर्ष पुरानी उस घटना का उल्लेख एडगर्टन विलियम ने अपनी पुस्तक ‘रामेस्स तृतीय के 29वें वर्ष में हड़ताल’ शीर्षक से प्रकाशित पुस्तक में किया है. वर्णित घटना कुछ इस प्रकार है—
उपर्युक्त न्याय–संहिताओं में राज्य अथवा समूह व्यक्ति पर हावी दिखाई पड़ता है. समूह के हित के लिए व्यक्ति का बलिदान, एकदम सहज, स्वाभाविक और तत्कालीन आचार–संहिता में मान्य था. व्यक्तिगत गुणों का सम्मान किया जाता था, तथापि व्यक्ति–स्वातंत्रय जैसा कोई प्रत्यय उस समय के विचारकों के दिमाग में नहीं था. चीन में कन्फ्यूशियस तथा यूनान में अरस्तु ने मनुष्य को समाज के समानांतर रखकर विचार अवश्य किया. मगर उनका सोच भी कुलीनतावादी था. उनके आदर्श राज्य में दासों, कृषि–मजदूरों और स्त्रियों की स्वतंत्रता संबंधी दृष्टिकोण मालिक लोगों के स्वतंत्रता संबंधी दृष्टिकोण से अलग था. स्वामी और दास के बीच अधिकार विभाजन को एकदम सामान्य मान लिया गया था. ध्यातव्य है कि परिवर्तनकामी राजनीतिक दर्शन के लिए प्लेटो(427 ईस्वी पूर्व—347ईस्वी पूर्व) अपने गुरु सुकरात से प्रेरित था, जिसने यह कहकर कि ‘सद्गुण ही ज्ञान है’—मनुष्यत्व की परख हेतु कसौटी का निर्माण किया था. स्वभाव से कवि, विचारों से दार्शनिक प्लेटो ने ऐसे आदर्श राज्य की कल्पना की थी, जिसमें सभी नागरिक एक समान नागरिक संहिता द्वारा शासित हों. उसका विचार था कि केवल दार्शनिक ही आदर्श शासक सिद्ध हो सकता है. अपने बाद के चिंतन में यह मानते हुए कि अकेले व्यक्ति के अधीन शासन कभी भी तानाशाही में बदल सकता है, उसने दार्शनिकों के समूह को सत्ता सौंपे जाने की अनुशंसा अपने ग्रंथों में की थी. लेकिन प्लेटो ने जिस आदर्श राज्य का सपना अपने ग्रंथों में देखा था, वह व्यवहार में बहुत कठिन था. इसलिए आदर्श राज्य का उसका सपना यथार्थ में कभी साकार नहीं हो सका. विचार और पंरपरा अथवा संस्कृति में भेद करते हुए प्लेटो ने विचार केंद्रित राजनीति की आवश्यकता पर जोर दिया; और इस तरह मनुष्य के अधिकारों के लिए जमीन तैयार की. कालांतर में अरस्तु ने उस समय तक प्रचलित प्रायः सभी राजनीतिक प्रणालियों यथा राजशाही, तानाशाही, गणतंत्र, कुलीनतंत्र आदि की अच्छाइयों और बुराइयों का विश्लेषण अपने राजनीतिक दर्शन में किया. अंतः में वह इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि कोई भी राजनीतिक दर्शन अपने आप में पूर्ण और सर्वत्र निरापद नहीं है. आदर्श राज्य के लिए विशिष्ट राजनीतिक दर्शन की अनुशंसा करने के बजाय उसने शासन के गुणों पर अपना ध्यान केंद्रित किया. प्लेटो का मानना था कि शासन का कर्तव्य समाज में शुभत्व की स्थापना करना है. उसका यह सपना ‘रिपब्लिक’ और ‘दि ला॓ज’ जैसे ग्रंथों के रूप में सामने आया था. अरस्तु का विचार था कि शुभता को समर्पित शासन ही शुभ है. वह उच्च नैतिक गुणों से संपन्न राज्य का सपना देखता था. मानता था कि शासन की श्रेष्ठता का पैमाना समाज में शुभत्व की स्थापना है. अरस्तु ने दास प्रथा का वैसा विरोध नहीं किया, जैसा अपेक्षित था, तथापि उसने माना कि अपनी प्रवृत्ति और प्रकृति के अनुसार सभी मनुष्य एक हैं. अतएव सभी मनुष्यों को चाहे स्वतंत्र हों अथवा दास, कानून के अधीन होना चाहिए. अरस्तु ने सामान्य न्याय–संहिता को पहली बार संविधान का रूप देने की कोशिश की. उसने अच्छे और बुरे संविधान की विशेषताओं पर भी प्रकाश डाला. अपने दो महत्त्वपूर्ण ग्रंथों ‘राजनीति’ और ‘नैतिकता’ के माध्यम से अरस्तु ने यह विचार स्थापित किया कि केवल और केवल नैतिकता पर आधारित राज्य ही आदर्श राज्य की शर्तों को पूरा कर सकता है. प्लेटो की दार्शनिक राज्य की अवधारणा से हटकर अरस्तु का मानना था कि नैतिकता और उच्च मानवीय मूल्यों पर केंद्रित ‘राजतंत्र’, भीड़ की मानसिकता द्वारा संचालित ‘लोकतंत्र’ से श्रेष्ठ हो सकता है. राज्य के नैतिक स्वरूप को बनाए रखने के लिए आवश्यक है कि उसकी समस्त कार्रवाही पारदर्शी और सुस्पष्ट विधान के अनुसार संचालित हो. इससे प्रकारांतर में लिखित संविधान की संकल्पना को बल मिला. सुकरात, प्लेटो, अरस्तु आदि विचारकों द्वारा रोपा गया समानता का सपना आगे भी लोगों की आंखों में झिलमिलाता रहा. कवि, नाटककार यूरीपीडस की गिनती यूनान के अत्यंत प्रतिभाशाली विचारकों में होती है. उसकी प्रसिद्धि में सर्वाधिक योगदान उसके दुखांत नाटकों का है, जबकि उसके दार्शनिक विचारों पर हम बुद्ध के मध्यम–मार्ग की छाया देखते हैं. ध्यातव्य है कि उस समय तक यूनान में दास प्रथा एवं अप्रत्यक्ष गुलामी के विरुद्ध आवाजें उठने लगी थीं. यूरीपीडस के एक नाटक में जोकास्टा नामक नौकरानी अपने पुत्र को समानता और सबके प्रति उदारता बरतने के लिए मध्यम मार्ग अपनाने की सीख देती है—
दार्शनिक और गणितज्ञ के रूप में पाइथागोरस की ख्याति पूरी दुनिया में है. अपने समकालीन यूनानी दार्शनिकों की भांति वह भी सामाजिक समानता का समर्थक था. लेकिन गणितज्ञ होने के कारण पाइथागोरस की समानता की व्याख्या पर भी गणित का प्रभाव है. न्याय को परिभाषित करते हुए उसने कहा था—‘न्याय एक वर्ग संख्या है.’ वर्ग एक ऐसी ज्यामितीय रचना है, जिसकी समस्त भुजाएं समान होती हैं. समाज में भी इसी प्रकार विभिन्न वर्गों, व्यक्तियों के बीच समानता बोध का एहसास होना चाहिए. जैसे वर्ग को पूरा करने में उसकी प्रत्येक भुजा का समान महत्त्व होता है, ऐसे ही समाज के विभिन्न वर्गों को लगना चाहिए कि उनकी महत्ता है. समाज के साथ मिलकर भी वे अपनी स्वतंत्र पहचान और अस्मिता को सुरक्षित रख सकते हैं. पाइथागोरस के अनुसार यदि समाज में समानता, समरसता तथा राज्य की ओर से सभी नागरिकों को बराबर अधिकार प्राप्त हों, तो वह न्याय की ओर स्वतः अग्रसर हो जाता है. समाज में बढ़ती अधिकार चेतना का एक रूप एरिस्टोफेन के नाटक ‘लाइस्ट्रेटा’ में भी दिखाई पड़ता है. 411 ईस्वी पूर्व लिखे गए इस हास्य नाटक में लाइस्ट्रेटा नामक स्त्री प्रसिद्ध ‘पेलोपेनीशियन युद्ध’ के विरोध में ग्रीक महिलाओं को हड़ताल के लिए प्रेरित करती है. वह उनसे कहती है कि जब तक उनके पति युद्ध छोड़कर शांति–वार्ता के लिए तैयार नहीं हो जाते, तब तक वे उनके साथ सहवास न करें. युद्ध की त्रासदी झेल रही स्त्रियां शांति की खातिर लाइस्ट्रेटा का साथ देने को विवश हो जाती हैं. आज से लगभग 2500 वर्ष पहले के पुरुष प्रधान समाज में स्त्री चेतना के ये स्वर झकझोर देने वाले हैं. ईसा पूर्व 342 ईस्वी में जन्मा क्रीटवासी जीनो प्रतिभाशाली दार्शनिक, स्टोइक दर्शन का जन्मदाता था. प्लेटो के आदर्श राज्य की परिकल्पना का विरोध करते हुए उसने मुक्त समाज की स्थापना पर जोर दिया था. उसने राज्य की संप्रभुता, शक्ति संपन्नता, नागरिकों के जीवन में हस्तक्षेप करने के उसके अधिकार, ताकत बटोरने हेतु सेनाएं खड़ी करने की प्रवृत्ति और साम्राज्यवादी महत्त्वाकांक्षाओं का विरोध करते हुए, व्यक्तिमात्र की नैतिकता तथा उसको संरक्षण प्रदान करने वाले नियमों का पक्ष लिया था. व्यक्ति की जटिल मनोरचना का विश्लेषण करते हुए जीनो ने लिखा था कि आत्मसंरक्षण और आत्मपरिवर्धन की प्रवृत्ति जहां मनुष्य को अहंवादी बनाती है, वहीं इसको संतुलित करने के लिए एक अन्य प्रवृत्ति भी मानव मन में सतत सक्रिय रहती है, वह है व्यक्तिमात्र में अंतनिर्हित उसका सामाजिकताबोध, जो विश्व–भर के जनसमूहों को दूसरे जनसमूहों के साथ मैत्री–संबंध बनाने; यानी मानवमात्र के बीच एकता का भाव पैदा करता है. उसने लिखा था कि दूसरों के साथ मिल–जुलकर रहने का स्वभाव मनुष्य को प्रकृति की ओर से प्राप्त है. तदनुसार मैत्री और मेल–मिलाप नैसर्गिक गुण हैं. उनकी सुरक्षा के लिए मनुष्य को न तो किसी कानून की आवश्यकता है, न पुलिस, न कोर्ट–कचहरी की. यहां तक कि उसे धर्म, धर्मालय, धन–संपदा, उपहार आदि की भी कोई आवश्यकता नहीं है. मनुष्य को अपने मनुष्यत्व का बोध रहे, इतना पर्याप्त है. दूसरों के साथ मैत्री, सामंजस्य और शांति बनाए रखने के लिए मनुष्य को चाहिए कि वह अपनी आवश्यकताओं को सीमित रखे, विलासिता के दुर्गुण को अपने मन में न पनपने दे. अपने अधिकार में ऐसी कोई वस्तु न रखे, जो समाज के दूसरे सदस्यों को सहज उपलब्ध न हो. यह दुर्भाग्य ही है कि जीनो के व्यक्तिमात्र की अधिकारिता के से जुड़े विचारों को उन दिनों बहुत महत्त्व नहीं दिया जा सका. इसका कारण उसके समकालीन प्लेटो और अरस्तु की उच्चस्तरीय ख्याति थी, जिनके विचार सुकरात के दर्शन की छत्रछाया में विकसित हुए थे. मध्यकाल में व्यक्तिमात्र के अधिकारों का समर्थन मार्को जिरोलमो वाइड तथा फ्रांसिसी कवि–दार्शनिक ला बूइटी(1530—1563) के साहित्य में भी प्राप्त होता है. बूइटी असल में मानवतावादी विचारक था. उसने व्यक्तिमात्र की स्वतंत्रता का समर्थन करते हुए उसके पक्ष में जोरदार तर्क दुनिया के सामने रखे. क्रीटवासी जीनो से प्रभावित बूइटी का विचार था कि मानवाधिकारों का हनन करते हुए, तानाशाही चाहे वह बलपूर्वक स्थापित की गई हो, अथवा किसी अन्य माध्यम से, बड़े से बड़ा तानाशाह केवल उस समय तक सत्ता शिखर पर बना रह सकता है, जब तक कि जनता उसको वहां बनाए रखना चाहती है. ऐसे तानाशाह को बलपूर्वक खदेड़ने की आवश्यकता नहीं पड़ती. जनता यदि अपने दासताबोध से बाहर आ जाए तो तानाशाही स्वतः दम तोड़ लेती है. इसलिए आजादी की चाह रखने वाली जनता को सबसे पहले स्वयं दासता–चक्र से बाहर निकालना चाहिए. बूइटी को हम सत्याग्रह आंदोलन का आदि प्रवत्र्तक भी मान सकते हैं. यह बात चौंका सकती है कि 1575 में धार्मिक सुधारवादी नेता ह्युजनोट द्वारा प्रकाशित एक पंपलेट में बूइटी ने—‘कस्बों और शहर में रहने वाले लोगों से सिविल नाफरमानी का सहारा लेते हुए राज्य को दिए जाने वाला किसी भी प्रकार का टैक्स न चुकाने की अपील की थी.’ वह जनता द्वारा अपने अधिकारों के प्रति स्वयं–स्फूत्र्त कार्रवाही थी. मानवाधिकारों की जमीन तैयार करने में जेकुइस रा॓क्स का योगदान भी उल्लेखनीय है. फ्रांसिसी क्रांति के सूत्रधार आंदोलनकारी भीड़ को संबोधित करते समय उसने अपने वक्तव्य को ‘आक्रोश का घोषणापत्र’ नाम दिया था. व्यक्ति–स्वातंत्रय के अभाव में जन्मी असमानता पर प्रहार करते हुए अपने ऐतिहासिक वक्तव्य में उसने कहा था कि ऐसे राज्य में जहां—
अपने घोषणापत्र में रा॓क्स ने जनता से अपने अधिकारों को पहचानते हुए, उनके लिए संघर्ष करने तथा एक जुट होकर आततायी राजसत्ता को उखाड़ फेंकने का आवाह्न किया था. अठारवीं शताब्दी के उत्तरार्ध तक व्यक्ति–स्वातंत्रय की मांग विस्तार ले चुकी थी. उन्हीं दिनों इमानुएल जोसेफ सीयेस(1748—1836) ने लोगों को अपने अधिकारों की रक्षा हेतु खड़े होने के लिए क्रांतिकारी काम किया, जिसने इतिहास की धारा ही बदल दी. कुलीन मध्यवर्गी परिवार में जन्मे सीयेस ने अपनी शिक्षा धार्मिक माहौल में पूरी की थी. समय आने पर उसको एक चर्च में पादरी की नौकरी मिल गई. लेकिन वह पादरी के परंपरागत कार्य में रमे रहने के बजाय सुधारवादी कार्यक्रमों में प्रवृत्त हुआ. अपने क्रांतिधर्मी विचारों को लेकर सीयेस ने कई छोटे–छोटे परिपत्र लिखे, जिन्होंने समाज में नई चेतना का प्रसार किया. उसके लिखे परिपत्रों में ‘तीसरी दुनिया क्या है?(व्हा॓ट इज थर्ड एस्टेट?)’ शीर्षक से लिखा गए परिपत्र अत्यंत महत्त्वपूर्ण है. उस परिपत्र में नए युग का संदेश निहित था. कालांतर में यही परिपत्र फ्रांसिसी क्रांति का प्रमुख उत्प्रेरक बना. राजशाही में मानवाधिकारों के हनन पर प्रश्नचिह्न लगाते हुए सीयेस ने लिखा था—
मानवाधिकारों की नींव जिस नैतिक दर्शन पर रखी गई है, उसकी झलक हमें ईसा पूर्व पहली शताब्दी में जन्मे सिसरों के राजनीतिक दर्शन में भी दिखाई पड़ती है. सिसरो की कृति ‘नैतिक कर्तव्य’ इस संबंध में मील का पत्थर है. और यह नैतिकता प्राणिमात्र के प्रति समानताबोध से पैदा होती है. किसी को छोटा या बड़ा, मानना प्रकृति का अपमान करने जैसा है. सिसरो के शब्दों में, ‘मनुष्यों में अपनी अस्मिता की रक्षा करने की प्रवृत्ति जन्मजात होती है. जानवर और मनुष्य में सबसे बड़ा अंतर यह है कि जानवर अपने परिवेश और जैविक क्रियाओं के प्रति संवेदनशील रह सकता है, जबकि मनुष्य अपने मस्तिष्क के बल पर भविष्य के हल्के–फुल्के आकलन के अनुसार निर्णय लेता है. मस्तिष्क मनुष्य के लिए प्रकृति की अमूल सौगात है. उसके पास स्मृति की धरोहर हमेशा रहती है, जिसमें वह अपने अनुभवों को संचित रखता है. निर्णय लेते समय वह अपने विवेक के आधार पर उसके पक्ष–विपक्ष में तर्क करता है. जीवन और प्रकृति के सामंजस्य पर जोर देते हुए सिसरो ने तर्कसम्मत निर्णय लेने पर जोर दिया था. उसका मानना था कि प्रत्येक मनुष्य व्यक्तित्व की दृष्टि से स्वतंत्र होता है. मानव–मात्र की स्वतंत्र अस्मिता होती है, जिसका सम्मान किया जाना चाहिए. देश–समाज की सीमाओं से परे यह अनंतिम सत्य है. इसलिए वही विधान सर्वोत्तम है जो मनुष्य की नैसर्गिक स्वतंत्रता का रक्षण करता हो. उसका मानना था कि प्राकृतिक विधान और सार्वत्रिक न्याय का योग, मानव–मात्र को परस्पर निकट लाने में सहायक होगा. बिना किसी भेद–भाव के वे संगठित होंगे. ये उदाहरण सिद्ध करते हैं कि मनुष्य और राज्य के संबंधों को निर्धारित करने, मनुष्य की प्राकृतिक स्वतंत्रता की रक्षा करने के प्रयास सभ्यता के विकास के आरंभिक काल में ही शुरू हो चुके थे. हालांकि उन्हें सफलता, काफी देर से मिल सकी. उस समय, जब राजनीति को धर्म के बजाय कानून से मर्यादित करने की कोशिश की गई. यह अनायास नहीं था. बल्कि इसके पीछे जनसाधारण के संघर्ष का लंबा इतिहास रहा है. ईसा पूर्व छठी शताब्दी में उठी वैचारिक क्रांति की लहर ने दुनिया की सभी सभ्यताओं को प्रभावित किया था. भारत में गौतम वुद्ध, मक्खलि घोषाल, कौत्स, अजित केशकंबलि, महावीर स्वामी आदि अपनी–अपनी तरह से सामाजिक यथास्थिति के विरुद्ध संघर्ष कर रहे थे. चीन में मानवतावादी चिंतन का नेतृत्व महान शिक्षक कन्फ्यूशियस के हाथों में था. मानवता का वह महान शिक्षक आजीवन तरह–तरह के पाखंड और धार्मिक जड़ता के विरुद्ध अलख जगाता रहा. सामान्य नैतिकता, प्राणिमात्र के प्रति करुणा–भाव पर जोर दिया जाता था. चीनी विद्वान कन्फ्यूशियस जीवन और समाज में उच्चतम जीवन–मूल्यों की स्थापना के लिए प्रयास रत था. वह स्वतंत्र, मानवीय चेतना का समर्थक था. सभी मनुष्य बराबर हैं, प्रकृति में कोई ऐसा प्राणी नहीं जो श्रेष्ठता में मनुष्य के बराबर हो, इसलिए मानवीय अस्मिता का सम्मान होना आवश्यक है—ऐसा उसका मानना था. यह लक्ष्य समानता के बगैर असंभव था. इसलिए कन्फ्यूशियस का कहना था कि मानव–मात्र के साथ कानून के अनुसार पक्षपात–रहित वर्ताब किया जाना चाहिए. दोषी को कानून के अंतर्गत दंड मिलना चाहिए. उसने जोर देकर कहा था कि राज्य न तो केवल कानून से चलता है, न केवल करुणा से. श्रेष्ठ शासक आवश्यकतानुसार कानून की गरमी और करुणा की नरमी से काम लेता है. आदर्श राज्य की कोशिश होनी चाहिए कि करुणा और सदाशयता का सर्वत्र प्रसार हो. सख्ती अथवा बलप्रयोग की आवश्यकता कम से कम पड़े. यह तभी संभव है जब समाज में सभी व्यक्ति अपने–अपने कर्तव्य को समझकर उसका पालन करें. कन्फ्यूशियस का मानना था कि ‘शासन जनता की जिम्मेदारी है. यदि जनता जागरूक होगी तो शासन की कम से कम जरूरत पड़ेगी.’ कन्फ्यूशियस के अनुसार, ‘पृथ्वी पर कोई भी प्राणी इतना महत्त्वपूर्ण नहीं है, जितना मनुष्य.’ सभी व्यक्ति एक समान नहीं होते. चारित्रिक वैभिन्न्य एक अकाट्य सत्य है, मगर करुणा और उदारता कठोर व्यक्ति को भी अपने बस में कर लेती है. समाज में विनीत भी होते हैं और कुटिल भी. कन्फ्यूशियस के अनुसार शासन का दायित्व है कि वह श्रेष्ठ लोगों और जीवन मूल्यों को संरक्षण प्रदान करे. जो चालाक हैं, स्वार्थी और दुष्प्रवृत्ति वाले हैं, उन्हें सुधार का अवसर देते हुए उनकी दुष्प्रवृत्तियों पर अंकुश लगाने का काम करे. यह कार्य जितनी सदाशयता के साथ हो, उतना ही अच्छा. कन्फ्यूशियस के अनुसार यदि कोई व्यक्ति किसी विनम्र व्यक्ति को प्रोत्साहित कर, उसे कुटिल लोगों का शासक बना दे तो लोग उसके अधीन हो जाएंगे. लेकिन यदि कोई कुटिल व्यक्ति को प्रोत्साहित कर उसे दूसरे कुटिल व्यक्तियों का शासक बनाना चाहे, तो वे कभी उसकी अधीनता स्वीकार नहीं करेंगे.’6यह समाज में सदगुणों की प्रतिष्ठा तथा मानवमात्र के उनके प्रति सम्मान–भाव का द्ययोतक है. शुभता को प्राप्त करने का रास्ता क्या है? इस बारे में कन्फ्यूशियस स्पष्ट था. उसके अनुसार केवल शासन की शुभता से काम चलनेवाला नहीं है. इस प्रश्न के उत्तर में यह पूछने पर कि शुभता क्या है? कन्फ्यूशियस का कहना था, ‘शुभता प्राणिमात्र के कल्याण की वांछा है. यदि कोई व्यक्ति अपने पैरों पर खड़ा होना चाहता है, तो उसको चाहिए कि दूसरे व्यक्तियों के आत्मनिर्भर बनने में मदद करे. इसी तरह यदि कोई व्यक्ति अपने जीवन में सफलता की कामना करता है, तब उसे चाहिए कि दूसरों को सफल होने में भरसक योगदान दे.7 मानव अधिकारिता अन्योन्याश्रित पद है. यह समाज का गुण है. समाज में रहते हुए मनुष्य अपने अधिकारों की सुरक्षा तभी कर सकता है, जब उसके हृदय में दूसरों के अधिकारों के प्रति सम्मान हो. सरकार मानव अधिकारों को तभी वरीयता दे सकती है, जब वह मानव–मात्र की महत्ता में विश्वास रखती हो. ‘व्यक्ति शासन की अपेक्षा महत्त्वपूर्ण है’—कन्फ्यूशियस को इसमें जरा भी संदेह नहीं है. इसलिए व्यक्तिमात्र की महत्ता को वह नए–नए तर्कों द्वारा स्थापित करने की कोशिश करता है—‘राजा नाव है, जन–साधारण महासागर का जल. जल न केवल नाव को बहाकर ले जा चाहता है, अपतिु उसको डुबा भी सकता है.’ कन्फ्यूशियस की बात पर बल देता हुआ उसका शिष्य चीनी विद्वान मेनसियस(372—289 ईस्वी पूर्व) लिखता है कि मनुष्य, राज्य और सम्राट तीनों में ‘सर्वाधिक मूल्यवान है—मनुष्य. राज्य का नंबर उसके बाद में आता है. राजा इन दोनों से काफी पीछे है.’8मनुष्य के श्रेष्ठत्व का आधार है उसका विवेक. उच्च मानवीय मूल्यों से भरपूर उसका व्यक्तित्व, लेकिन अनुदार राज्य में व्यक्तित्व रक्षण संभव नहीं है. अनुदार राज्य की नकारात्मक वृत्तियां उसके नागरिकों को भी उदार नहीं रहने देतीं. स्वार्थपूर्ण आचरण में लिप्त ऐसा राज्य अपने नागरिकों का विश्वास खो देता है. वे सहज मानवीय विवेक के बजाय भीड़ की मनोवृत्ति से काम करने लगते हैं. विवेक मनुष्यत्व की कसौटी है. यदि वह मनुष्य के पास न हो तो उसमें और पशु में कोई अंतर नहीं रह जाता. कन्फ्यूशियस नागरिक चरित्र और राष्ट्रीय चरित्र में अंतर नहीं समझता, ‘यदि आपके हृदय में दूसरों के प्रति न्याय की भावना होगी, तो आपका चरित्र स्वतः उज्जवल हो जाएगा.न्याय के लिए वह राज्य से अनुकूल वातावरण के निर्माण की अपेक्षा रखता है. वहीं नागरिकों से भी उम्मीद करता है कि वे प्राणिमात्र के प्रति उदार रहते हुए न्याय को अपने व्यक्तित्व का हिस्सा बनाएं—‘यदि आपका चरित्र उज्जवल होगा, तो परिवार में सामन्जस्य और सुख–शांति रहेगी. यदि परिवार में सामंजस्य और सुख–शांति होगी तो राष्ट्र में अनुशासन आएगा. यदि राज्य में अनुशासन होगा तो विश्व में शांति और समृद्धि आ जाएगी.’ कन्फ्यूशियस ने जोर देकर कहा था—‘दुनिया के महासागर में, सभी मनुष्य एक समान हैं.’ इसलिए दूसरों के साथ ऐसा व्यवहार हरगिज मत करो, जैसा तुम अपने लिए नहीं चाहते. चीन में व्यक्तिमात्र के प्रति समान व्यवहार और समान अधिकारिता की मांग कन्फ्यूशियस तक ही नहीं रुकती. चीनी विद्वान चुआंग जु(369—286) ने किसी भी प्रकार की अधिकारिता को मनुष्यता पर अंकुश माना था. उसका मानना था कि सत्ताएं अन्याय को बढ़ावा देती हैं. राज्यसत्ता में पलने वाले अन्याय का उल्लेख करते हुए उसने लिखा था कि सत्ता प्रायः अन्यायी का पक्ष लेती है. साधारण व्यक्ति के लिए कानून अनगिनत निषेधाज्ञाओं और प्रतिबंधों का जखीरा खड़ा कर देता है, जबकि शक्तिशाली को मनमानी करने के लिए खुला छोड़ देता है. कानून का लाभ उठाकर सत्ताशीर्ष पर विराजमान लोग जनसाधारण का शोषण, उत्पीड़न करते रहते हैं. राज्य का झुकाव समृद्धिशाली वर्ग की ओर होता है, वह पहले से ही सुविधासंपन्न वर्ग को और अधिक सुख–सुविधाएं बटोरने का अवसर प्रदान करता है, जबकि निर्धन उसकी दया पर जीने के लिए विवश होता है. राज्य के मनमाने और मानवाधिकार विरोधी आचरण के बारे में चुआंग जु ने लिखा था कि उसके बनाए कानून ने—‘मामूली चोर को जेल भेज दिया गया है, जबकि खूंखार डकैत राज्याधिपति बना हुआ है.’ जीवन में कृत्रिमता के विरुद्ध चुआंग–जु का मानना था कि प्रत्येक प्राणी अपने आप में पूर्ण है. प्राकृतिक रूप से समृद्ध. सामान्य जीवन जीने के लिए प्राणी को किसी बाह्यः साधन की आवश्यकता ही नहीं है. वह उदाहरण देता है—
चुआंग–जु का यह उदाहरण दर्शाता है कि कृत्रिमता जीवन को सुविधाजनक भले बनाए, किंतु वह अनेक व्यवधान भी खड़े करती है. मनुष्य को हालांकि सामाजिक प्राणी कहा जाता है, लेकिन सामाजिक होने का अभिप्राय प्रकृति से विलग हो जाना नहीं है. दूसरे सामाजिकता केवल मनुष्य का लक्षण नहीं है. यह गुण अन्य जीवों में भी पाया जाता है. चींटियों, मधुमक्खियों तथा पक्षियों की सामाजिकता पर अनेक ग्रंथ रचे जा चुके हैं. मनुष्य ने लंबा जीवन प्रकृति के सान्निध्य में बिताया है. अब भी प्रकृति पर उसकी निर्भरता कम नहीं हो पाई है. इसलिए उसकी सामाजिकता प्रकृति और नैसर्गिक नियमों से मुक्त नहीं हो सकती, जो जीवन में कृत्रिमता का निषेध करते हैं. जीवन की नैसर्गिक स्वतंत्रता के समर्थन में चुआंग–जु एक के बाद एक कई तर्क देता है. वह लिखता है कि कुम्हार यह दावा करता है कि वह मामूली मिट्टी को मनमानी आकृति में ढाल सकता है, चाहे गोल हो या चैकोर, आयताकार हो अथवा वृताकार—उसके लिए कुछ भी कठिन या असंभव नहीं है. काष्ठकार यह गुमान करता है कि वह लकड़ी को जैसी चाहे वैसी आकृति देने में कुशल है. चाहे गोलाकार हो या घुमावदार. सीधी हो अथवा आड़ी—सब उसके लिए बाएं हाथ का खेल है. ऐसा ही दावा दूसरे शिल्पकर्मी भी कर सकते हैं. चुआंग–जु के अनुसार उपर्युक्त उदाहरण में कुम्हार और काष्ठकार दोनों अपनी–अपनी कला का बखान करते हैं. मिट्टी और लकड़ी स्वयं क्या चाहती हैं, उनकी अपनी खुशी किसमें है, यह उनमें से कोई नहीं जानना चाहता. जैसे पो लो ने घोड़ों से साथ वह किया जो वह चाहता था; या जो उसको सिखाया गया था. घोड़े स्वयं क्या पसंद करते हैं. किस कार्य में उन्हें सर्वाधिक खुशी हासिल होती है, यह उसने कभी जानने का प्रयास ही नहीं किया था. यही प्रवृत्ति शासक की होती है. हर शासक सत्ता पर सवार होते ही मनमानी पर उतर आता है. वह दावा करता है कि उसका शासन जनता के हक में, उसकी बेहतरी के लिए है. जनता स्वयं क्या चाहती है, यह जानने का वह कभी प्रयास तक नहीं करता. जनता के लिए ऐसा शासक जो केवल मनमानी करे, जनता की इच्छा और उसकी अधिकारों की उपेक्षा करे, अनावश्यक है. मानवाधिकारों का हनन करने वाली सत्ता को अनावश्यक और अप्रासंगिक बताने वाला चुआंग–जु पहला विद्वान नहीं था. उससे लगभग दो शताब्दी पहले जन्मे लाओ–जु ने साफ लिखा था कि सर्वोत्तम तो यह है कि सरकार हो नहीं. यदि सरकार बनाना अनिवार्य है, तो बुद्धिमानी इसमें है कि उसका स्वरूप एकदम सादा और सरल हो. वह कोई काम न करे. बस शांत बनी रहे. कुछ करना जरूरी समझे तो नागरिकों की अधिकारों का रक्षण करे. समाज में सुख–शांति और समृद्धि के लिए व्यक्तिमात्र को पे्ररित करे. नागरिकों को बदलने, उन्हें उनका धर्म सिखाने के लिए वे अपनी ओर से कौन–सा कदम उठाना चाहेंगे, इस प्रश्न के उत्तर में लाओ–जु जो कहता है, उससे व्यक्तिमात्र की स्वतंत्रता तथा उसकी स्वयं–प्रभुता की आवश्यकता को बल मिलता है—
लाओ–जु का मानना था—
लोककल्याण को ऊपर से थोपा नहीं जा सकता. लोगों का वास्तविक कल्याण तभी संभव है, जब वे स्वयं उसके लिए प्रयत्न करें. मानव–समूह की कुछ सामान्य विशेषताएं होती हैं, जो नैसर्गिक स्वतंत्रता के प्रति उसकी चाहत को दर्शाती हैं. उदाहरण के लिए प्रत्येक व्यक्ति अपना भोजन स्वयं कमाना–करना पसंद करता है. अपने कपड़े वह स्वयं पहनता है. अनौपचारिक वातावरण में ऐसे अनेक कार्य हो सकते हैं, जिन्हें मनुष्य को स्वयं करने से प्रसन्नता प्राप्त होती हो. कहा जा सकता है कि ये उसके जन्मजात लक्षण हैं. इन कार्यों के लिए किसी बाहरी उपकरण, सहायता अथवा प्रेरणा की आवश्यकता भी नहीं पड़ती. इस स्तर तक मनुष्य को शासन की भी आवश्यकता नहीं है. यह आदिम अवस्था है. परंतु जब कोई समाज विकास की ओर अग्रसर होता है, तो वह पाता है कि विकास के लिए आवश्यक मानी जाने वाली सभी वस्तुओं का उत्पादन प्रत्येक के लिए संभव नहीं है. अपनी रुचि, स्वभाव, सामर्थ्य के आधार पर व्यक्ति किसी कार्य–विशेष में ही निपुण हो सकता है. इन स्थितियों में कार्य–विभाजन समाज की आवश्यकता बन जाता है. पूंजीवादी व्यवस्था में कार्य–विभाजन का आधार लाभ की वांछा से किया जाता है. उससे समाज में स्पर्धा बढ़ती है, जो एक व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति की दासता के लिए बाध्य करती है. इसलिए आवश्यक है कि कार्य–विभाजन लार्भाजन के बजाय सामूहिक कल्याण की भावना से प्रेरित हो, ताकि मनुष्य की स्वतंत्रता किसी भी प्रकार से बाधित न हो. यह तभी संभव है जब मनुष्य स्वयं निर्णय ले. व्यक्ति के रूप में भी और समूह के रूप में भी. निर्णय ऊपर से थोपे न जाएं. ©ओमप्रकाश कश्यप 1. चेस्टर बाल्स द्वारा दिल्ली विश्वविद्यालय में दी गई भाषणमाला, ‘न्याय समाज के मूलाधार’ से उद्धृत, पृष्ठ 12.2. मित्रस्याहं चक्षुसा सवाणिभूतानि समीक्षे.- शुक्ल यजुर्वेद 36/18. 3. good man must be a good citizen; a good man could hardly exist except in a good state.-George H. Sabine, History of Political Theory, Holt, Rinehart and Winston, Inc., USA, 19614- न राज्यं न च राज्यासीत, न दंडो न च दांडिकः। स्वयमेव प्रजा सर्वा रक्षंति स्मः परस्परम।। शांतिपर्व, महाभारत.5- Equality, which knitteth friends to friends, Cities to cities, allies unto allies. Man’s law of nature is equality. . . . . . . . . Measures for men equality ordained Meting of weights and number she assigned. The Tragedies of Euripides in English Verse by Euripides, Trans. Arthur Sanders Way, Biblio Bazaar, 20106. If one promotes the straight and sets them on top of the crooked, they will be submissive; if one promotes the crooked and sets them on top of the straight, they will not be submissive.-Confucius, Quoted by Professor Gu Chunde in Confucian Human Rights Ideas and Their Influence on Modern Human Rights Thought.7. I would describe goodness like this: one who desires standing, helps others to gain standing; one who wants success, helps others to attain success.” “Never do to others what you don’t want others do to you.-Confucius, Ibid.8. The human being is the most precious, the state is second, and the ruler the least-Mencius, Quoted by Professor Gu Chunde in Confucian Human Rights Ideas and Their Influence on Modern Human Rights Thought.क्या ईश्वर बुराई पर अंकुश लगाना चाहता है, लेकिन लगा नहीं सकता? तब वह सर्वशक्तिमान नहीं है. क्या वह अंकुश लगा सकता है, लेकिन उसकी इच्छा नहीं है? तब वह विद्वेषी है. वह कर सकता है और करने की इच्छा भी रखता है? तब ये ढेर सारी बुराइयां कहां से आती हैं? वह न तो कर सकता है, न ही करने की इच्छा रखता है? तब उसे ईश्वर क्यों माना जाए? —एपीक्यूरस, लेक्टेंटियस द्वारा ”आ॓न दि एंगर आ॓फ गॉड”, 13.19. स्पर्धा आधुनिक पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का सबसे कारगर उपकरण है. एक तरह से मूलमंत्र. मान लिया गया है कि स्पर्धा रहेगी, तब तरक्की होगी. प्रतिभाशाली लोग आगे आएंगे. लोगों को अच्छे उत्पाद सस्ते मूल्य पर प्राप्त हो सकेंगे. इसलिए जो इस व्यवस्था को अपनाता है, जाने-अनजाने स्पर्धा में शामिल हो ही जाता है. लोग स्पर्धा को विकास का मूलमंत्र मानना चाहते हैं, मानें. उसमें सफलता व्यक्ति के प्रतिभा-कौशल से तय नहीं होती. वास्तविक परिणाम स्पर्धारत व्यक्ति/व्यक्ति-समूहों की आर्थिक-सामाजिक हैसियत पर निर्भर करते हैं. उन प्रक्रियाओं द्वारा तय होते हैं, जिन्हें साधारण भाषा में मौकापरस्ती कहा जाता है. दो उद्योगपति इसलिए स्पर्धा में रहते हैं, ताकि बाजार के अधिकतम हिस्से पर कब्जा कर, वहां अपने एकाधिकार का परचम लहरा सकें. भूखों की स्पर्धा उन्हें अपनी थाली में कटौती के साथ जैसे-तैसे जीते जाने की मजबूरी की ओर ढकेल देती है. मार्क्स के अलावा मिखाइल बकुनिन, विल्फ्रेद परेतो, जीतान मोसका आदि ने स्पर्धा की प्रवृत्ति का विद्वतापूर्ण विश्लेषण किया है. उनके अनुसार स्पर्धा असमान व्यक्तियों की बेमेल प्रतियोगिता है. उसका परिणाम असमानता की खाई के उत्तरोत्तर चौड़े होने के रूप में सामने आता है. चूंकि स्पर्धा लोकतांत्रिक मूल्यों एवं समानाधिकार के प्रसाद के रूप में व्यवहृत होती है, इसलिए उसका विरोध लोकतंत्र का प्रतिवाद मान लिया जाता है. शिखर तक पहुंचने तथा वहां टिके रहने की स्पर्धा में व्यक्ति को अनेक समझौते करने पड़ते हैं. कई बार सामान्य नैतिकता सहित उन मूल्यों को भी दांव पर लगाना पड़ता है, जिनके प्रति प्रतिबद्धता उस अभियान का औचित्य रही है. यह सब याद आया हिंदी के चर्चित ब्लॉग ‘साइंटिफिक वर्ल्ड’ चल रही एक बहस को पढ़कर. इस ब्लॉग पर एक चौंकाऊ, विज्ञान के नाम पर अवैज्ञानिक बहस पिछले दिनों ऐसे देखने को मिली, जैसे टीआरपी बढ़ाने के लिए टीवी चैनल सामान्य सूचनाओं को भी ‘न भूतो न भविष्यति’ कहकर परोस देते हैं. भले ही यह अनजाने में हुआ हो अथवा अतिउत्साह में, नजर साफ आ रहा था. पिछले दिनों ‘साइंटिफिक वर्ल्ड’ पर दो आलेख प्रकाशित हुए हैं, उनमें पहला आलेख के पी सिंह का ‘क्या ईश्वर को वैज्ञानिक आधार पर प्रमाणित किया जा सकता है?’ दूसरे आलेख, ‘ईश्वर की अवधारणा: विज्ञान की कसौटी!’ के लेखक विष्णुप्रसाद चतुर्वेदी हैं. दोनों आलेख ईश्वरवादियों की ओर से लिखे गए हैं, इसलिए उनमें ईश्वर की सत्ता पर संदेह कम, विश्वास और आस्था की अभिव्यक्ति अधिक है. दोनों विद्वान आस्था-मंडित हैं. ईश्वरत्व में संदेह उन्हें छू भी नहीं पाया है. इसलिए दोनों अपनी-अपनी तरह से ईश्वर को प्रमाणित करने की कोशिश करते हैं. मगर इकतरफा होने के कारण दोनों लेख ईश्वर-प्रचारक मंडली के प्रवचन बन जाते हैं. विज्ञान के नाम पर अवैज्ञानिकता का आशय यही है. लेखों में दिए गए तर्क भी नए नहीं हैं. कथावाचक किस्म के ‘गुरु महाराज’ ऐसे तर्क देते ही रहते हैं. के. पी. सिंह जिस आस्था को प्रश्नवाचक चिह्न के साथ आरंभ करते हैं, वैसी ही आस्था चतुर्वेदी जी के लेख में विस्मयादिबोधक चिह्न के साथ नजर आती है. गोया लेखों को विज्ञान की श्रेणी में लाने के लिए वे संदेह का हिस्सा पाठक के लिए छोड़ देना चाहते हैं. आपत्तिजनक यह नहीं है कि ब्ला॓ग पर दो ईश्वरवादियों ने अपने-अपने तर्क जुटाए हैं. निस्संदेह जैसा वे सोचते और महसूस करते हैं, उसको अभिव्यक्त करने का उन्हें पूरा-पूरा अधिकार है. आपत्तिजनक यह है कि इन लेखों को ऐसे ब्ला॓ग पर जगह मिली है जो स्वयं को विज्ञान के प्रति समर्पित बताकर बौद्धिक जड़ता एवं पाखंड के विरोध का अभियान चला रहा है. इसी प्रतिबद्धता के चलते उसको हजारों पाठक मिले हैं. इन लेखों की कमजोरी है कि उनकी सामग्री उनके अपने ही शीर्षक से मेल नहीं खाती. शीर्षक से लगता है कि उनमें विषय का वस्तुनिष्ट विवेचन देखने को मिलेगा, मगर असलियत में सारे तर्क एकतरफा होने से लेख पूरी तरह आत्मपरक, निजी आस्था की प्रस्तुति तक सिमट गए है. दोनों में कहीं भी शंका अथवा संदेह को जगह नहीं है. इस विषय पर ऐसे लेखों की कमी नहीं है जिनमें लेखक पूर्वाग्रह अथवा पूर्व निष्पत्ति के साथ लिखना आरंभ करता है. अपने मत के समर्थन में जो भी तर्क जंचते हैं उन्हें सामने रखता जाता है. मगर पूर्वाग्रहों के दबाव में उस सामग्री की वस्तुनिष्ट समीक्षा करना भूल जाता है, जिसे उसने अपने मत के समर्थन में बतौर उद्धरण प्रयुक्त किया है. विचाराधीन आलेखों में से पहले में भारतीय संदर्भ अधिक हैं तो दूसरे में पाश्चात्य विद्वानों को अपने समर्थन में दिखाने की कोशिश की गई है. विज्ञान संदेह के साथ शुरू होता तथा उसी के साथ आगे बढ़ता है. उसमें ठहराव की स्थिति कभी नहीं आती. किसी वैज्ञानिक सत्य पर भरोसा करने से पहले प्रत्येक को उसे जांचने-परखने तथा प्रयोगों की कसौटी पर कसने की छूट प्राप्त होती है. ईश्वर एवं मानवीय आस्था के बीच विज्ञान को न लाएं तो भी उसके अस्तित्व पर संदेह एवं तदनुरूप उठनेवाली बहस नई नहीं है. भारत में भी ढाई-तीन हजार वर्षों से यह बहस लगातार चली आ रही है. वैदिक काल में ईश्वरवादी धारणा का खंडन करने वाले आजीवक और लोकायती संप्रदाय थे. वहीं आस्थावादियों के समर्थन में वैदिक धर्म की अनेक शाखाएं थीं. दर्शन की दृष्टि से वह भारतीय मेधा का सबसे प्रस्फुटनकारी दौर था. उसी दौर में वेदों को आप्त-ग्रंथ की संज्ञा दी गई. उन्हें दैवी उपहार माना गया. श्रद्धालु आचार्यों का एक वर्ग ‘आस्तिक’ बनाम ‘नास्तिक’ की बहस में वेदों को आप्तग्रंथ मनवाने जुटा रहा. बावजूद इसके नास्तिक दर्शनों की प्रतिष्ठा उतनी ही बनी रही, जितनी आस्तिक दर्शनों की थी. विचारों के उस लोकतंत्र ने सांख्य जैसे निरीश्वरवादी दर्शन को जगह थी तो कर्मकांड प्रधान मीमांसा दर्शन को भी. वैदिक धर्मों के विचलन के दौर में उभरे जैन और बौद्ध दर्शन ने ‘आत्मा’ और ‘ईश्वर’ पर केंद्रित बहसों में उलझने के बजाए मनुष्य के आचरण को महत्त्वपूर्ण माना. उन्होंने सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह आदि पर जोर देकर नैतिक एवं समाजोन्मुखी, जीवन जीने का आवाह्न किया. मानो सभ्यताओं के तार आपस में जुड़े हुए थे. लगभग उन्हीं दिनों भारत से हजारों मील दूर यूनान में भी कुछ वैसा ही हुआ. ईसा पूर्व छठी शताब्दी में वहां सुकरात, प्लेटो, जीनोफेन जैसे विचारकों ने अभिजन संस्कृति का पोषण करने वाले परंपरावादी सोफिस्टों को चुनौती दी. सुकरात ने ईश्वर को शुभ का पर्याय माना तथा उसकी प्राप्ति के लिए सद्गुण और सदाचरण पर जोर दिया. गौतम बुद्ध, महावीर स्वामी, सुकरात, कन्फ्यूशियस, प्लेटो जैसे दार्शनिकों का नैतिक प्रभामंडल इतना तेजोमय था कि उसका प्रभाव शताब्दियों तक बना रहा. आज भी ईसा से तीन से छह शताब्दी पूर्व का वह समय विश्व-इतिहास में बौद्धिक क्रांति का सफलतम दौर माना जाता है. आगे चलकर जितने भी राजनीतिक-सामाजिक दर्शन सामने आए, वे भी जो विश्व-परिदृश्य में परिवर्तन के वाहक बने, सभी की नींव इस दौर में पड़ चुकी थी. विद्वान लेखकों द्वारा दिए गए तर्कों में प्रत्येक पर स्वतंत्र रूप से चर्चा संभव है. तथापि इस लेख की सीमा को ध्यान में रखते हुए मैं केवल स्टीफन डी. अनविन के उद्धरण की ओर दिलाना चाहूंगा. स्टीफन अनविन ने विशेषरूप से पुस्तक लिख, ‘ईश्वर के पक्ष-विपक्ष में आंकड़े जुटाकर ईश्वर के होने की प्रायिकता 67 प्रतिशत’ सिद्ध की है.’ मैंने वह पुस्तक नहीं पढ़ी है, किंतु उसपर पर्याप्त समालोचनात्मक सामग्री इंटरनेट पर उपलब्ध है. इस आलेख में आए गणितीय संदर्भ वहीं से लिए गए हैं. मेरी कोशिश उसी को आगे बढ़ाने की है, ताकि अनविन द्वारा प्राकलित ईश्वर की 67% प्रायिकता का सच पाठकों के सामने आ सके. अनविन भौतिक विज्ञानी हैं. डा॓क्ट्रेट उन्होंने सैद्धांतिकी भौतिकी की शाखा ‘क्वांटम गुरुत्च’ में की है. प्रसंगवश बता दें कि यह विज्ञान की वही शाखा है जिसके अंतर्गत आजकल विश्व-प्रसिद्ध ‘लार्ज हैड्रा॓न कोलीडर’ नाम का दीर्घकालिक और महत्त्वाकांक्षी प्रयोग चल रहा है. उससे जुड़े वैज्ञानिकों ने द्रव्यमान का कारण कहे जानेवाले मूलकण यानी ‘हिग्स बोसोन’ की खोज का दावा किया, जिसे वस्तुओं में भारता के लिए जिम्मेदार माना जाता है. विज्ञान की चुनौतियों के आगे लड़खड़ा रहे आस्थावादी यहां भी क्यों चूकने वाले थे. वैज्ञानिक अपने प्रयोग के आरंभिक निष्कर्षों के पुनरीक्षण में जुटे ही थे कि आस्थावादियों ने उसे तुरत-फुरत ‘गॉड पार्टिकिल’ का नाम दे दिया. जिसका हिग्स बोसोन की खोज में जुटी प्रयोगशाला सर्न के वैज्ञानिकों ने जोरदार विरोध किया. प्रयोगशाला से जुड़े वरिष्ठ अमेरिकी वैज्ञानिक पोलीन गा॓नन से 2011 में यूरोप के रेडियो पत्रकार ने जिनेवा में एक साक्षात्कार के दौरान जब कहा, ‘मैं मीडिया से हूं और मैं उसे यही(गॉड पार्टिकिल) कहता रहूंगा.’ तब गा॓नन का जवाब था, ‘यह सब आप ही का दिया गया नाम है….मैं इससे घृणा करता हूं.’ वैज्ञानिकों के न चाहने के बावजूद हिग्स बोसोन को ‘गॉड पार्टिकिल’ कहने का षड्यंत्र आज भी चल रहा है. षड्यंत्र इसलिए क्योंकि धर्मसत्ता, राजसत्ता, अर्थसत्ता और उनसे पालित-पोषित मीडिया में से कोई नहीं चाहता कि जनता विज्ञान को विज्ञान की तरह जाने. उसका विवेकीकरण हो. इसलिए वैज्ञानिक शोधों को तत्काल अपने पाले में खींच लेने, उनका तेज कम करने तथा उनसे लाभ उठाने की प्रवृत्ति प्रायः सभी समाजों में रही है. इससे धर्मग्रंथों का मूल संदेश गंडे-ताबीजों में कैद होकर रह जाता है. कंप्यूटर जन्मपत्री बनाने लगता है और टेलीविजन पर बाबा लोग भविष्य सुधारने का धंधा करने लगते हैं. अनविन संयुक्त राष्ट्र के ऊर्जा विभाग के दूत रह चुके है. आजकल वे एक सलाहकार फर्म का संचालन करते हैं, जिसका काम विश्व की नामी-गिरामी पूंजीपति कंपनियों को आपदा प्रबंधन के मामले में सलाह देना है. अनविन की एक चर्चित पुस्तक The Probability of God: A Simple Calculation That Proves the Ultimate Truth. 2003 का उल्लेख चतुर्वेदी जी ने अपने आलेख में किया है. यह उनकी अध्ययनशीलता को दर्शाता है. अपनी पुस्तक में अनविन ने ईश्वर के अस्तित्व की संभाव्यता को गणित के माध्यम से सिद्ध किया है. इस निष्कर्ष में उनके व्यावसायिक स्वार्थ छिपे होने की संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता. आपदा को ईश्वरीय कर्म सिद्ध कर देने से प्रबंधकीय कौशल पर लगनेवाले आरोप कम हो जाते हैं. शायद इसलिए वे ईश्वर के विचार को उसी प्रकार जीवित रखना चाहते हैं, जैसे अपनी रोजी-रोटी चलाने के लिए ज्योतिषी प्रारब्ध की संकल्पना को ऊल-जुलूल तर्क देकर पालता-पोषता है. हालांकि अनविन ने स्पष्ट किया है कि उन्होंने जो समीकरण दिए हैं, वे आवश्यक नहीं कि पूरी तरह खरे, अंतिम सत्य हों. वे केवल एक पक्ष यानी उस पक्ष को जो ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास रखता है, अपनी बात को और अच्छी तरह स्पष्ट करने के लिए कुछ उपकरण उपलब्ध करा रहे हैं. वे यह भी लिखते हैं कि ईश्वर विषयक विज्ञान की सभी मान्यताएं अधूरी हैं. अर्थात जिन संकल्पनाओं पर चलते हुए अनविन ईश्वरत्व की संभावना को 50 प्रतिशत से बढ़ाकर 67 प्रतिशत तक आंकते हैं, दूसरा उन्हीं संकल्पनाओं को अपनी तरह से प्रस्तुत कर, उनसे नए निष्कर्ष निकाल सकता है. वे भी गणितीय मापदंड पर उतने ही खरे उतरेंगे, जितने स्वयं अनविन के. कहने की आवश्यकता नहीं कि ऐसा हुआ है. उसकी चर्चा हम यथास्थान करेंगे. कुल मिलाकर मामला वहां भी आस्था का और आस्थावादियों के लिए है, गणित का नहीं. अब बात उस गणित की जिसके आधार पर अनविन ने ईश्वर की प्रायिकता को कथितरूप से 50 प्रतिशत से बढ़ाकर 67 प्रतिशत कर दिया है. पहले तो यह जान लें कि अनविन ईश्वर की 50 प्रतिशत संभाव्यता तक किस प्रकार पहुंचे हैं. इसके लिए उन्होंने न तो कोई सर्वे किया है, जो सांख्यिकी का मूल कर्म है, न ही किसी और माध्यम से आंकड़े जमा किए हैं. केवल काम-चलाऊ प्रतीतियों के सहारे अपने मंतव्य को गढ़ा है. यह साधारण से साधारण व्यक्ति भी जानता है कि ईश्वर को लेकर दो प्रकार की संभावनाएं बनती हैं. पहली, ईश्वर हो सकता है. और दूसरी ईश्वर नहीं हो सकता. इस तरह ईश्वर के होने या न होने की मूल प्रायिकता बराबर-बराबर अर्थात पचास प्रतिशत है. सिवाय संभाव्यता के अलावा इसके पीछे कोई और तर्क नहीं है. एक तरह से यह अनविन की मजबूरी भी थी. क्योंकि प्रायिकता को बढ़ाने के अनविन जिस गणितीय सूत्र का सहारा लेता है, वह सांख्यिकी-विद् रेवरेंड थामस बा॓यस का है. वह सूत्र तभी काम कर सकता है जब उसके लिए आधार अथवा प्राथमिक संभाव्यता मौजूद हो. इसलिए उन लोगों के लिए जो ईश्वर की संभावना को शून्य अथवा नगण्य मानते हैं, यह सूत्र और प्रकारांतर में अनविन के निष्कर्ष, किसी काम के नहीं हैं. उल्लेखनीय है कि जब कोई गणितज्ञ सांख्यिकीय आकलन करता है तो उसके आंकड़े किसी न किसी रूप में समाज से, अथवा किसी वैज्ञानिक प्रयोग द्वारा ठोस परिगणनाओं के आधार पर जुटाए गए होते हैं. वे किसी व्यक्ति-विशेष के बारे में सत्य भले ही न हों, मगर वास्तविकता का एक सामान्य चित्र हमारे समक्ष प्रस्तुत करते हैं, जो सामाजिक अध्ययन में बहुत कारगर सिद्ध होते हैं. उससे प्राप्त निष्कर्ष किसी न किसी सामाजिक यथार्थ का प्रतिनिधित्व करते हैं. आगे बढ़ने से पहले बा॓यस के सूत्र के बारे में जान लेना आवश्यक है. इसके लिए पहले कुछ उदाहरण— मान लीजिए एक घर है. जिसका दरवाजा खुला हुआ है. एक आदमी उस घर में घुसता है. उसको किसी ने बाहर आते हुए नहीं देखा. तब उस व्यक्ति की, जब तक कोई और साक्ष्य न हो, घर में होने तथा न होने की संभावना बराबर-बराबर यानी पचास प्रतिशत होगी. सूत्र के गणितीय हिस्से पर आने से पहले एक और स्थिति. मान लीजिए एक व्यक्ति हर रोज घर में कुछ न कुछ फल लेकर अवश्य आता है. परिवार में दो बच्चे हैं. उनमें एक को केला पसंद हैं, दूसरे को अनार. व्यक्ति दोनों का मन रखने के लिए एक दिन केले लेकर आता है, दूसरे दिन अनार. इस तरह उसके किसी एक दिन केला या अनार लाने की संभावना 0.5 अर्थात 50 प्रतिशत होगी. पापा केला लाएंगे या अनार, यह बात बच्चे भी जानते हैं. एक दिन भाई-बहन छत पर थे कि पापा को हाथ में थैला लिए आते देखा. दोनों बच्चे बहस करने लगे—
अब मान लीजिए जहां से उन बच्चों के पिता फल खरीदते हैं, वहां केवल दो फलवाले खड़े होते हैं. उनमें से एक अनार बेचता है और दूसरा केला, तो जो बच्चा अपने पक्ष में अतिरिक्त तर्क दे पाएगा, उस दिन उस फल को लाने की संभावना उतनी ही बढ़ जाएगी. अनविन का 50 प्रतिशत वाला विचार यही कहता है. मान लीजिए लोगों से पूछा जाए कि ईश्वर है? कुछ लोग कहेंगे—‘हां’, कुछ कहेंगे—‘नहीं.’ जरूरत इस कवायद की भी नहीं है. आप एक सिक्का लीजिए, उछालिए. हेड और टेल आने की प्रायिकता बराबर होगी. अनविन ईश्वर न होने की संभावना को किनारे कर, शेष पचास प्रतिशत को उसके पक्ष में प्रमाण मान लेता है. यही उसके अनुसार ईश्वर की आधार प्रायिकता है. इस 50 प्रतिशत को 67 प्रतिशत तक पहुंचाने के लिए वह आगे भी ऐसी ही पूर्वापेक्षाओं का सहारा लेता है. जबकि बायस संभावनाओं की पड़ताल के लिए स्थितिजन्य साक्ष्य प्रस्तुत करता है. ठीक ऐसे ही जैसे कोई चतुर पुलिस अधिकारी किसी घटना की पड़ताल करता है. कल्पना कीजिए प्लेटफार्म पर उतरता हुआ कोई आदमी चलती ट्रेन में खिड़की के बराबर बैठे एक पुरुष को अपने सहयात्री से बातचीत करते हुए देखता है. इससे पहले कि वह दूसरे व्यक्ति को पहचान पाए कि वह स्त्री है अथवा पुरुष, ट्रेन आगे बढ़ जाती है. दृष्टा इतना तो जान चुका है कि खिड़की के बराबर में बैठा यात्री पुरुष था. लेकिन जिससे वह बात कर रहा था, वह पुरुष भी हो सकता है, स्त्री भी. उसके स्त्री अथवा पुरुष होने की प्रायिकता बराबर, अर्थात पचास प्रतिशत होगी. अब यदि कोई तीसरा व्यक्ति दृष्टा से उन यात्रियों के बारे में पड़ताल करना चाहे तो उनकी बातचीत कुछ इस प्रकार होगी—
‘लंबे.’ दृष्टा को याद आता है. जांच करने वाला जानता है कि सामान्यतः स्त्रियां लंबे बाल रखती हैं. लेकिन सभी स्त्रियां बाल नहीं रखतीं. औसतन कितनी स्त्रियां लंबे बाल रखती हैं, इसके आंकड़े उसके पास हैं. यदि नहीं तो जुटाए जा सकते हैं. वह प्राप्त आंकड़ों से मिलान करके देखता है. लंबे बाल रखनेवाले हर चार व्यक्तियों में से आमतौर पर एक पुरुष होता है, तीन स्त्रियां. वह हिसाब लगाता है. उसके अनुसार जिस व्यक्ति से वह बातचीत कर रहा था उसके स्त्री होने की संभावना चार में से तीन, यानी 75 प्रतिशत है. प्रायिकता को बढ़ाने के लिए जांचकर्ता कुछ और सवाल कर सकता है. जैसे क्या उसने हाथ रचाए हुए थे? ऐसे साक्ष्यों के साथ प्रायिकता में आनुपातिक रूप से वृद्धि अथवा कमी आती जाएगी. बा॓यस के सूत्र का यही आधार है. इसी को विस्तार देते हुए वह स्थिति-विशेष के समर्थन में साक्ष्य जुटाता है और विशुद्ध गणितीय पद्धति का अनुपालन करते हुए सामान्य निष्कर्ष तक पहुंचता है. बा॓यस के अनुसार यदि हम मान लें कि बातचीत स्त्री ‘स’ के साथ हो रही थी, तब यह मानते हुए कि समाज में स्त्री-पुरुष की संख्या लगभग बराबर है, बगैर किसी गहराई में जाए मान सकते हैं कि सहयात्री के स्त्री होने की प्राथमिक संभाव्यता सप्रथम= 0.5 होगी. जिसका आशय है कि पुरुष की बगल में बैठे सहयात्री के स्त्री अथवा पुरुष होने की संभावना बराबर-बराबर है. यदि यह मान लिया जाए कि उस सहयात्री के बाल लंबे थे और आंकड़ों से यह सिद्ध हो कि प्रत्येक चार स्त्रियों में से तीन(75 प्रतिशत) लंबे बाल रखती हैं तो बा॓यस के अनुसार लंबे बालों के आधार पर पुरुष के सहयात्री के, स्त्री होने की संभावना सलंब/म = 0.75 होगी. इसे बायस ने सशर्त प्रायिकता कहा है. अर्थात वह प्रायिकता जो घटना के लक्षणों तथा उपलब्ध साक्ष्यों के आधार से तय होती है. ऐसे ही जैसे मान लीजिए कि 25 प्रतिशत पुरुष लंबे बाल रखते हैं तो उपर्युक्त घटना में सहयात्री के लंबे बालों के आधार पर पुरुष होने की संभावना सल/पु= 0.25 होगी. यहां यह मान लिया गया है कि बातचीत केवल स्त्री अथवा पुरुष के साथ हो रही थी, अन्य किसी प्राणी के साथ नहीं. बायस इससे अंतिम संभाव्यता अथवा कुल लाक्षणिक संभाव्यता को जानना चाहता है. इसके लिए वह निम्नलिखित सूत्र देता है— सप्रथम x सलंब/म सअंतिम = ………………………. सम (सम = कुल संभाव्यता) सप्रथम x सलंब/म = ………………………………………… सप्रथम x सलंब/म + सप्रथम x सल/पु 0.75 x 0.50 0.375 = …………………………………… = ……………. 0.50 x 0.75 + 0.50 x 0.25 0.500 = 75 % लगभग इस तरह लंबे बाल के साक्ष्य के आधार पर उपर्युक्त उदाहरण में सहयात्री के स्त्री होने की संभावना 50% से बढ़कर 75% हो जाती है. साक्ष्यों की संख्या तथा उनकी कोटि का प्रभाव संभाव्यता के स्तर पर पड़ता है. डा॓क्टर रोगी से तथा पुलिस मुजरिम से जांच-पड़ताल के दौरान इसी तरह संभाव्यता को आगे बढ़ाती जाती है. अनविन उसी सूत्र को ईश्वर की संभाव्यता पुष्ट करने के लिए अपनाता है. बा॓यस के सूत्र को ईश्वर की परिगणना के लिए आधार बनाते समय अनविन यह दावा कतई नहीं करता कि उसने जो सूत्र दिया है, उससे सभी सहमत होंगे. वह स्वयं मानता है कि विज्ञान और गणित के माध्यम से ईश्वर की संभाव्यता को सिद्ध करना बहुत मुश्किल भरा काम है. उसका बस इतना दावा है कि वे लोग जो ईश्वर की सत्ता में विश्वास रखते हैं, उसके तथाकथित गणितीय सूत्र का सहारा लेकर अपने मत को बेहतर ढंग से प्रस्तुत कर सकते हैं. वह जानता है कि उसके निष्कर्षों से लोग अपनी मान्यताएं बदलने को राजी नहीं होंगे. इसलिए अपने बचाव हेतु वह पर्याप्त संभावनाएं पहले ही सोच कर चलता है. कहने की आवश्यकता नहीं कि ईश्वरवादियों को अनविन के तर्क अपनी आस्था के प्रति चमत्कारी समर्थन प्रतीत होते हैं. ईश्वर की आधार-संभावना(सपूर्व = 50 प्रतिशत) तय कर लेने के पश्चात, बा॓यस के सूत्र में किंचित संशोधन के साथ वह अपना सूत्र प्रस्तुत करता है. निष्कर्ष संभाव्यता(सपश्चात) तक पहुंचने के लिए अनविन द्वारा प्रयुक्त सूत्र निम्नवत है— सपूर्व x द सपश्चात = …………………………. सपूर्व x द + 1—सपूर्व अनविन के अनुसार ‘द’ दिव्यता सूचकांक है. वह अपने दिव्यता सूचकांक को अलग-अलग अंक देकर गणना करता है. वे अंक भी अनविन द्वारा प्राकल्पित हैं. अलग-अलग स्थितियों के अनुरूप अनविन द्वारा प्रकल्पित दिव्यता सूचकांक निम्नलिखित हैं—
2 दूसरी गणना के लिए वह यह मानते हुए कि ईश्वर है, एक नहीं दो बार है, वह दिव्यता सूचकांक ‘द’ को 2 अंक देता है.
दिव्यता सूचकांक को तय करने का अनविन का अलग मापदंड हैं. सांख्यिकी आंकड़ों के साथ साक्ष्य पर भी विश्वास करती है, जबकि अनविन के यहां ऐसा कुछ भी नहीं है. दिव्यता सूचकांक के अलग-अलग निर्धारण हेतु वह पुनः प्रतिज्ञप्तियों की कल्पना करता है. जाहिर है ये प्रतिज्ञप्तियां आस्था के आधार गढ़े गए उसके छह भिन्न स्तर हैं—
उपर्युक्त दिव्यता सूचकांकों को वह अपने सूत्र अलग-अलग रखकर गणना करता है. तदनुसार—‘ईश्वर के होने की प्रायिकता 67 प्रतिशत सिद्ध होती है.’ आगे वह जोर देकर कहता है, ‘यह संख्या व्यक्तिपरक है. इसलिए कि यह मेरे निजी साक्ष्यों के आकलन पर आधारित है.’ उदारता का प्रदर्शन करते हुए वह कहता है कि सूचकांकों को प्रत्येक व्यक्ति अपने-अपने हिसाब से आकलित कर सकते हैं. मगर उस अवस्था में अनविन का सूत्र लड़खड़ा जाता है. ‘साइंटिफिक अमेरिकन’ पत्रिका के जुलाई 2004 अंक में प्रकाशित एक आलेख में Skeptic के प्रकाशक मिशेल शर्मर अनविन के दिव्यता सूचकांकों को 1 से 10 अंक अपनी ओर से देते हैं. फिर उसी सूत्र के आधार पर ईश्वर की संभाव्यता का आकलन करते हैं, तो वह घटकर मात्र 2 प्रतिशत रह जाती है. एक अन्य गणना का उल्लेख पुस्तक की आलोचना के दौरान बा॓ब सीडेंस्टकर ने अपने लेख ‘कंप्यूटिंग दि प्रोबेबिलिटी आ॓फ गा॓ड’ में किया है. बा॓ब अनविन के दिव्यता सूचकांक में जैसे ही ऐच्छिक मान रखता है, ईश्वर की संभाव्यता और भी घटकर नगण्य(10—16) तक रह जाती है. स्पष्ट है कि अनविन का आकलन उसकी व्यक्तिगत धारणा की अभिव्यक्ति है. हालांकि उसने कभी दावा नहीं किया कि वह ईश्वर को वैज्ञानिक आधार पर प्रमाणित कर रहा है. और कोई भी उसको जांचकर वैसे ही निष्कर्ष पर पहुंच सकता है, जैसा कि दूसरे वैज्ञानिक प्रयोगों में होता है. इस पुस्तक को एक-दो को छोड़कर अधिकांश आलोचकों ने मजाक के रूप में लिया है. उनके अनुसार यह पुस्तक गणित के लिए पढ़ी जा सकती है, मनोरंजन के लिए पढ़ी जा सकती है, यदि आप ईश्वर के अस्तित्व पर भरोसा करते हैं, तब थोड़ी-बहुत तसल्ली के लिए पढ़ी जा सकती है. लेकिन यदि आप किसी दार्शनिक समस्या का समाधान इससे चाहते हैं, तब वह व्यर्थ की कवायद सिद्ध होगी. पुस्तक के समीक्षकों में से एक हेमंत मेहता लिखते हैं—‘पढ़ने में मजेदार. वैचारिकी का आश्चर्यजनक प्रयोग….अनविन को ऐसे लोगों की ओर खड़ा कर देता है, जिनका गणित से कोई वास्ता नहीं है.’ अनविन अपनी धारणाओं को लादने के लिए गणित का सहारा लेता है, लेकिन आवश्यकता पड़ने पर बच निकलने का रास्ता भी तैयार रखता है. यह कोशिश कृति को मनोरंजक प्रयोग से आगे नहीं बढ़ने देती. बा॓यस के सूत्र का उपयोग चिकित्सा से लेकर अपराध-जांच तक कहीं भी किया जा सकता है, जहां प्रायिकता को बढ़ाने के लिए ठोस साक्ष्य उपलब्ध हों. जबकि अनविन के दिव्यता सूचकांक का कोई तार्किक आधार नहीं है. वह केवल उसकी मनोरचना है, जिसे उसने बेहिचक स्वीकारा भी है. उल्लेखनीय है कि विज्ञान को धर्म से जोड़ने अथवा धर्म और विज्ञान का साम्य दिखाने की कोशिश करनेवाले अनविन अकेले नहीं हैं. इस विषय पर पिछली दशाब्दियों में और भी पुस्तकें आई हैं. उनमें स्टीवन ब्रम्स की ‘सुपीरियर बीईंग्स : इफ दे एक्जिस्ट’, रिचर्ड दाकिन की ‘दि गार्ड डिल्यूजन’ आदि प्रमुख हैं. इनमें किसी न किसी प्रकार ईश्वर के विचार को विज्ञान से जोड़ने की असफल कोशिश की गई है. अनविन के इस आत्मपरक लेखन के कई सामाजिक पहलु भी हैं. दिव्यता सूचकांक में शुभता को ईश्वर में स्थापित करना मनुष्यता के रास्ते अवरुद्ध करने जैसा है. आज हम पूंजीवादी अर्थतंत्र पर आरोप लगाते हैं कि उसने मनुष्य को भौतिकवादी बना दिया है. इतना स्वार्थी बना दिया है कि मनुष्य को सिवाय अपने सुख के, भोग और स्वार्थ-लिप्सा के कुछ भी नजर नहीं आता. इसी आधार पर अपसंस्कृतिकरण का रोना भी रोया जाता है. उस समय हम भूल जाते हैं कि जिसे हम बाजारवाद की देन बताते हैं, वैसी स्वार्थपरता, अकेले-अकेले सुख पाने की कामना का उपदेश तो धर्म सहस्राब्दियों से देता आया है. धर्म की ओर प्रवृत्त करने के लिए गुरु आमतौर पर अपने शिष्यों को समझाता है—‘यह संसार माया है. इसमें कोई भी तुम्हारा अपना नहीं है. भाई, बहन, पत्नी, माता-पिता, सभी से तुम्हारा स्वार्थ का नाता है. वे भी तुमसे स्वार्थ से बंधे हैं. कोई तुम्हारा साथ नहीं देने वाला. इसलिए यदि स्वर्ग का सुख पाना है, तो इस मोह-ममता को त्याग कर परमात्मा की शरण में आ.’ थोड़े-बहुत फेरबदल के साथ गीता में कृष्ण ने यही कहा है. गीता निष्काम कर्म का संदेश देकर उसे संतुलित करने का प्रयास करती है. केवल अपने लिए सुख-समृद्धि और स्वर्ग की कामना, अनेक बार मनुष्य को सामाजिक दायित्वों की ओर से उदासीन बनाकर, घोर स्वार्थी आचरण की ओर प्रवृत्त कर देती है. दूसरे केवल अपने सुख की कामना तथा स्वार्थसिद्धि के लिए काम करना, सामाजिक नैतिकता को बिसार देना है. यह भुला देना है कि मनुष्य सामाजिक प्राणी है. भले ही वह समाज में अपने सुख और सुरक्षा के लिए शामिल हुआ हो, समाज के प्रति उसकी भी पर्याप्त जिम्मेदारियां हैं. प्रकट में प्रत्येक धर्म अपने माता-पिता, पड़ोसी, मित्र-सखा के प्रति उदारतापूर्वक पेश आने की सलाह देता है. लेकिन मोक्ष एवं कल्याण के नाम पर वही धर्म संसार को माया और विभ्रम बताकर मनुष्य को ऐसी अंध-स्पर्धा से जोड़ देता है, जिसकी अति उसे सामाजिक कर्तव्यों की ओर से उदासीन बनाती है. इसलिए हम देखते हैं कि भारत जैसे समाजों जहां सामान्य नैतिकता को भी धर्म के भरोसे छोड़ दिया जाता है, नागरिकबोध बहुत कम होता है. पूरा समाज एक भीड़ के आचरण को अपने स्वभाव का हिस्सा बना लेता है. फिर एक अवैज्ञानिक कार्य को विज्ञान जितना महत्त्व दिए जाने का कारण? दरअसल, आस्तिक को उतना डर धर्म, ईश्वर या पापकर्म से नहीं लगता, जितना नास्तिक से लगता है. उस विचार से लगता है, जो ईश्वर को नकारता है. इसलिए जब भी वह किसी नास्तिक को देखता है, नकलीपन का एहसास उसे कचोटने लगता है. वह उसे बार-बार उकसाता है—‘अरे! यह ईश्वर को नहीं मानता! अगर नहीं मानता तो जीवित कैसे है?’ सामंती समाजों के देवता और भी बड़े सामंत होते हैं. देवत्व की अवमानना करने, यहां तक कि प्रसाद तक न खाने अथवा प्रसाद लेकर उसको खाना भूल जाने से भी उनकी त्योरियां चढ़ जाती हैं. आस्तिक यही सोचकर हैरान होता है कि ऐसे कोपवंत देवताओं के चलते उनके अस्तित्व को नकारनेवाला धरती पर सुरक्षित कैसे है? जरूर वह दिखावा करता है. अगर यह सचमुच ईश्वर को नकारता है तब तो ईश्वर का कोप उसे सताएगा ही. उस समय मैं भी इसका साथी न मान लिया जाऊं? ऐसे न जाने कितने अनजाने भय उस व्यक्ति को घेर लेते हैं. पक्ष में दिखने के लिए वह ईश्वर पर सवाल उठाने की संभावना को ही धिक्कारने लगता है. फिर चाहे कोई कितना ही कहे कि वह नास्तिक है—वह विश्वास ही नहीं करता. लोग यह मानने को तैयार ही नहीं होते कि नास्तिक होना भी भारतीय दर्शन-परंपरा का हिस्सा है. उस समय सौ में से अस्सी का एक ही जवाब होता है—‘हं…हं! नास्तिक में भी तो अस्तिः(नः+अस्तिः) छिपा हुआ है. उस समय कोई लाख तर्क दे कि ‘‘भइया, ‘अस्तिः’ को नकारने के लिए ही ‘नः’ उपसर्ग लगाया गया है.’’—बात उनके गले नहीं उतरती. जिद पर कायम रहने के लिए ईश्वरवादियों के रटे-रटाए तर्क होते हैं. उनके दिमाग की सुई हजार-दो-हजार साल पहले के समय पर अटकी होती है, जब साम्राज्यवादी लालसा में दर्शन का धार्मिकीकरण कर मनुष्य के सहजबोध को उससे बांध दिया गया था. ईश्वरवादियों का दूसरा तर्क होता है, इस दुनिया को किसी ने तो बनाया है! वही शक्ति ईश्वर है. फिर ईश्वर को किसने बनाया है? ईश्वर को भला कौन बनाएगा? वह तो अनादि-अनंत और सर्वशक्तिमान है. यही बात हम इस सृष्टि के लिए कहें तो? कार्य-कारण का उनका नियम ईश्वर तक जाकर ठहर जाता है. उससे पीछे ले जाने में उनके पसीने छूटने लगते हैं. यदि उनपर जोर डाला जाए, कहा जाए कि यदि ईश्वर अनादि-अनंत हो सकता है तो सृष्टि क्यों नहीं? यदि ब्रह्मांड का विस्तार ही कल्पनातीत है तब उसके कथित निर्माता की कल्पना कैसे संभव है? उस समय बहस से कन्नी काटते हुए वे सृष्टि को ही ईश्वर मान लेंगे. यानी चिपके अपनी बात से रहेंगे. डरे हुए लोग ठहरे. उनका डर उनके किस पापबोध की परिणति है, वे जानें. विज्ञान और धर्म के रास्ते एकदम अलग हैं. विज्ञान संदेह का रास्ता है. ईश्वर आस्था का मसला. दिमाग की सुई एक जगह ठहर जाए, तब आदमी धार्मिक कहलाता है. उदाहरण के लिए इन दिनों भारत की ओर से भेजा गया मंगलयान रास्ते में है. सब कुछ ठीक ठाक रहा तो अगले कुछ दिनों में मंगल की कक्षा में होगा. मान लीजिए उस यान को किसी सुदूर ग्रह पर बैठा ऐसा व्यक्ति देखे जिसके दिमाग की सुई रामायण काल पर अटकी हुई है तो वह यही कहेगा—देखों धरती से फेंगी गई पवनपुत्र हनुमान की गदा आसमान में उड़ रही है.’ ऐसे ही दूसरा व्यक्ति जो किसी कारणवश महाभारत युग पर अटका हुआ है, उसे भीम की गदा बताएगा. इसे आप मजाक की तरह भी ले सकते हैं. लेकिन अशोक की लाट को भीम की गदा बतानेवाले लोग भी इसी देश-समाज में होते आए हैं. अतिप्राचीन समाजों में धर्म की चाहे जो प्रासंगिकता रही हो, आज वह सामाजिक भेदभाव और ऊंच-नीच का कदाचित सबसे बड़ा मददगार है. शीर्षस्थ वर्गों के साम्राज्यवादी मंसूबों ने धर्म को राजनीति और समाज में प्रासंगिक बनाए रखा. करीब ढाई-तीन हजार वर्ष पहले यह महसूस किया जाने लगा था कि छोटे-छोटे राज्यों से काम नहीं चलनेवाला. हमलावर दुश्मनों से सुरक्षा के लिए बड़ी ताकत बनना होगा. ऐसे में धर्म ने आसंजक और संसजक दोनों का काम किया. इस अवधि में कुछ अच्छे परिणाम भी धर्म के कारण देखने को मिले. भौतिकता की आड़ के रूप में वह अनेक व्यक्तिगत और सामाजिक तनावों को कम करने का माध्यम बना है. धर्म का औचित्य बनाए रखने के लिए उसको नैतिक मूल्यों से जोड़ा गया था, लेकिन बाद में उन्हें धर्म का पर्याय बताना आरंभ कर दिया. उसकी सबसे बड़ी भूमिका सामजिक-आर्थिक और राजनीतिक विभाजन को शास्त्रीय रूप देने में रही, जिससे कालांतर में बड़े आर्थिक-सामाजिक विभाजनों को जगह मिली. धर्म का अतिवादी रूप महाभारतकाल में भी दिखाई पड़ता है, जब आर्यवर्त पर एकक्षत्र राज्य कायम करने के लिए कृष्ण चतुराई पूर्वक समस्त आर्यवर्त के राजाओं को परस्पर लड़वा देते हैं. सभी छोटे-बड़े राजा खेत रहते हैं. कौरवों को पराजित कर, देर-सवेर पांडव भी महाप्रयाण पर चले जाते हैं. आगे चलकर कुछ ऐसी ही कोशिश चाणक्य के नेतृत्व में नजर आती है. सवाल है कि यदि कि विज्ञान ही सबकुछ है तो जीवन, मृत्यु जैसे प्रश्न अनुत्तरित क्यों हैं. इसके अलावा भी ऐसे अनेकानेक प्रश्न हैं जिनका उत्तर विज्ञान नहीं दे पाया है. लेकिन विज्ञान ने कभी दावा भी नहीं किया कि उसने सबकुछ जान लिया है. धार्मिक प्रवृत्ति के लोग दुनिया के सारे ज्ञान को परमात्मा में अवस्थित मान लेते हैं. धीरे-धीरे अधिकांश के लिए यह परमात्मा को प्रसन्न रखने का कर्मकांड बन जाता है. धीरे-धीरे वह सुबह-शाम की आरती में सिमट जाता है. ऐसे आस्थावादी समाज में लोग 24—25 पृष्ठ रटकर सत्यनारायण की कथा सुनाने वाले पुरोहित को ‘पंडित’ मान लें, तो आश्चर्य कैसा! वैज्ञानिक को अपने ज्ञान का कभी गुमान नहीं होता. सच्चा वैज्ञानिक भली-भांति जानता है कि उसका अज्ञान उसके ज्ञान कहीं अधिक बड़ा है. इसलिए वह निरंतर और जानने के लिए प्रयासरत रहता है. अपने ही ज्ञान पर निरंतर संदेह करता है. इसी में उसकी सिद्धि है. इसके लिए विज्ञान की आलोचना करना उचित नहीं. अनसुलझे सवालों के उत्तर की खोज के लिए वैज्ञानिकों को पर्याप्त समय देना होगा. यूं भी सृष्टि की उम्र छोडि़ए, पृथ्वी की आयु के समक्ष भी विज्ञान की उम्र शिशु जितनी नहीं है. इस बारे में अमेरिकी लेखक हावर्ड बूस फ्रेंकलिन ने एक मजेदार उदाहरण दिया है—
सत्य से परे होने के बावजूद मैं अनविन के प्रयासों की सराहना करूंगा. उन्होंने ईश्वरत्व को गणित के आधार पर आकलित करने का विचार तो दिया. आगे और लोग भी आएंगे. जिसके फलस्वरूप पारंपरिक धर्म ने अपने चारों ओर जो बाड़ें लगाई हैं, वे कमजोर होंगी; तथा धर्म की वैज्ञानिकता पर बहस का सिलसिला आगे बढ़ेगा. तब शायद लोग महाभारत के इस सत्य को स्वीकारने को राजी हो जाएं—
[पुनश्चः: मुझे एक बात जानकर हैरानी होती है कि धर्म के नाम पर, अपने समय के शीर्षस्थ महारथियों, अठारह अक्षौहिणी सेना, देवता-राक्षस तथा यादव कुल का विनाश लिख देने के पश्चात महाभारतकार ने कानाफूसी के अंदाज में ही क्यों कहा कि ‘इस संसार में मनुष्य से श्रेष्ठ कुछ भी नहीं है.’ युद्ध में अपनों से लड़ाई छेड़ने के लिए अर्जुन को उकसानेवाले कृष्ण भी इस ‘परमसत्य’ को लोगों से छिपा ले जाते हैं और गीता इससे वंचित रह जाती है. अगर यह उपदेश पहले ही दे दिया होता तो क्या युद्ध होता? प्रजा यदि जानती कि मनुष्य के लिए एकमात्र श्रेष्ठतम मनुष्य है तो क्या वह दूसरों के कहने पर अपनों का गला काटने को तैयार होती? हरगिज नहीं! दरअसल शिखर पर विराजमान लोगों के लिए केवल वही मनुष्य होते हैं, जो उनके सगे या सत्ता के आसपास होते हैं. बाकी या तो सेवक होते हैं अथवा प्रजा. वे सुन न लें, इसलिए अच्छी बात हमेशा चुपके-चुपके कानाफूसी के अंदाज में, केवल अपनों के बीच कही जाती है, और उकसाने की जरूरत आ पड़े तो ‘धर्म-धर्म चिल्लाया जाता है.] © ओमप्रकाश कश्यपकल्पना की प्रवृत्ति आगे बढ़ना है, ठहरना अथवा पीछे हटना नहीं. —वाल्डो इमर्सन अन्य कथा–रूपों की भांति परीकथाएं भी उत्पादकता के कारणों से प्रभावित होती है. आरंभ में जब जनजीवन प्रकृति आधारित था, जीवन आखेट और वन–वनस्पतियों पर टिका था तो मानव–अभिव्यक्ति का आकर्षण प्राकृतिक उपादान यथा पशु–पक्षी, वन–वनस्पति आदि होते थे. उन दिनों मनुष्य को अपनी बुद्धि पर गुमान नहीं था. वह स्वयं को पशु–पक्षियों के परिवार का ही एक हिस्सा मानता था. इसलिए यह मानते हुए कि जड़–चेतन किसी से भी सीखा जा सकता है, उसने पशु–पक्षियों तथा प्राकृतिक उपादानों को केंद्र में रखकर अनगिनत कहानियां गढ़ीं. संगठन और संस्कृतिकरण की कोशिशों के रूप में धार्मिक–सांस्कृतिक प्रतीकों को लेकर भी कहानियां रची गईं. कालांतर में मिथकों और पुराकथाओं के सृजन का सिलसिला इतनी तेजी से चला कि मनोरंजन और सांस्कृतिकरण की कोशिश के रूप में गढ़ी गई पशु–पक्षियों की कहानियां भी पुराकथाओं का हिस्सा बनती गईं. दोनों का कोला॓ज सांस्कृतिकरण की प्रक्रिया में सहायक बना. आगे चलकर राज्य संगठित होने लगे. सुरक्षा हेतु सेनाएं रखी जाने लगीं. यूनान के नगर–राज्यों के बीच निरंतर चलनेवाले युद्धों के कारण युद्ध–संस्कृति का विस्तार हुआ तो युवाओं को युद्ध की ओर प्रवृत्त करने के लिए नायक प्रधान परीकथाएं गढ़ी जाने लगीं. धीरे–धीरे राजनीति व्यक्ति–केंद्रित होने लगी. राजाओं की विलासिता बढ़ी. रनिवास में एक से अधिक स्त्रियों का होना शान का प्रतीक माना जाने लगा. मुंह लगे लोग राजा की पसंदीदा रानियों की सुंदरता का बखान ‘परी’, ‘हूर’, ‘अप्सरा’ आदि कहकर करने लगे. उससे पहले परियों को जादूगरनी, चुड़ैल वगैरह माना जाता था. मध्य–काल आते–आते उनकी छवि में सुधार हुआ. उन्हें मनुष्य की कामना–पूर्ति में सहायक बताया जाने लगा. औद्योगिक क्रांति के दौर में वैचारिक आंदोलन चले. समाज का पुराना सामंतवादी ढांचा चरमरा उठा. उसका प्रभाव परीकथा साहित्य पर भी पड़ा. फलस्वरूप उनमें भी बदलाव की मांग की जाने लगी. किस्सा कोताह यह कि आरंभ में केवल व्यक्ति था, समाज अनुपस्थित. धीरे–धीरे समाज अस्तित्व में आया और व्यक्ति पर हावी होता चला गया. कालांतर में कुछ व्यक्ति–समूह और भी उभरे, फिर कुलीनतावाद अस्तित्व में आया. आगे चलकर अलग–अलग टुकड़ों में बंटे या बांट दिए गए समाज ने एकल सत्ता को स्वीकृति दी. प्रकारांतर में समाज को दरकिनार करते हुए उस व्यक्ति ने खुद को इतना मजबूत कर लिया कि वह पूरे समाज का सर्वेसर्वा बन गया. एक आदमी खुश तो सारा समाज खुश. वह दुखी तो संपूर्ण राज्य पर चिंताओं के काले बादल मंडराने लगते. विरोधों को बलपूर्वक कुचलने की नीति ने साम्राज्यवादी ताकतों को आगे बढ़ने का अवसर दिया. फिर समय ऐसा भी आया जब राज्य के सर्वस्ववादी आचरण के विरुद्ध लोक चेतना जगी. व्यक्ति को अपनी गुमशुदा अस्मिता की याद सताने लगी. विज्ञान और प्रौद्योगिकी के विकास के साथ–साथ ‘अस्मिता’ के सवाल सिर उठाने लगे. व्यक्ति एवं समाज के संबंध क्या हों? ‘स्वयं’ और ‘स्वयं से परे’ के बीच विभाजन–रेखा कहां पर खींची जाए—विचारक ऐसे प्रश्नों के उत्तर में सिर खपाने लगे. इसके बावजूद चली उनकी जिनका सत्ता और संसाधनों पर कब्जा था. साहित्य शब्द का पहला प्रयोग भर्तृहरि ने किया था—‘साहित्य, संगीत, कला विहीनः नरः. साक्षात पशु पुच्छ विषाण हीनः.’ उसका नजरिया हरेक दौर में समन्वयवादी का रहा. मौखिक और लिखित दोनों तरह से वह तनावों के शमन पर निरंतर जोर देता रहा. यदि हम प्राचीन परीकथाओं को देखें तो उनमें ऐसे लोक के दर्शन हमें होते हैं, जो सत्ताओं को सदैव उनकी सीमाओं की याद दिलाता रहता है. यह लोकसाहित्य की ताकत ही है कि उसमें एक किसान, बूढ़ी औरत या गरीब मजदूर भी राजा को उसके कर्तव्य की याद दिलाने से नहीं चूकता. इसका असर महाकाव्यों पर भी देखने को मिलता है. लोक ने राम को इसलिए ‘भगवान’ का दर्जा दिया क्योंकि वह सत्ता का मोह छोड़ कर्तव्य–पथ की ओर बढ़ने में देर नहीं करते. युद्ध के पश्चात पांडव जब वन गमन करते है तो वे भी दर्शा रहे होते हैं कि अठारह अक्षौहिणी सेना की बलि चढ़ाकर भी सत्ता का शाश्वत भोग असंभव है. राजशाही की कमजोरी है कि वह सर्वप्रथम व्यक्ति के मूलभूत अधिकारों पर डाका डालती है, जबकि लोकथाओं एवं परीकथाओं में मानवाधिकारों तथा देश, समाज, संस्कृति और सभ्यता के गुणगान के साथ–साथ व्यक्ति की नैसर्गिक स्वतंत्रता के प्रति सहानुभूति भी हमेशा बनी रही. विशेषकर स्त्री–पुरुष के भावनात्मक संबंधों को लेकर. तदनुरूप परीकथाओं में ऐसे विचारों को भी जगह मिली, जिन्हें व्यवहार में अनाचार अथवा समाज–विरोधी माना जाता है. जैसे एक विवाहित पुरुष यदि विवाहित स्त्री से प्यार करने लगे तो समाज की निगाह में वह दुराचरण है. परीकथाओं में वह मनोरंजन के नाम पर खपा लिया जाता था. उसके माध्यम से परीकथाएं उन स्थितियों को सामने लाती हैं, जो समाज की तयशुदा आचार–संहिता के उल्लंघन का परिणाम हो सकती हैं. अपनी नैसर्गिक स्वच्छंदता का भोग करना, मनुष्य की जन्मजात चाहत होती है. लेकिन समाज में रहने के लिए उसे अपनी स्वच्छंदता के एक हिस्से का बलिदान करना पड़ता है. मानव–प्रवृत्ति इस बलिदान को एकाएक स्वीकार नहीं करती. उसमें हमेशा ऐसी इच्छाएं अंगड़ाई लेती रहती हैं, जिन्हें समाज निषिद्ध मानता है. धीरे–धीरे वे मनुष्य के अवचेतन का हिस्सा बन जाती हैं तथा अनुकूल अवसर पर कहानियों, परीकथाओं, सपनों आदि के माध्यम से प्रकट होती हैं. इसलिए कहानियों में वे प्रसंग जो दमित इच्छाओं की पूर्ति में सहायक हों, अथवा उनका समर्थन करते हों, पाठक की भावनाओं को छू लेते हैं. व्यावहारिक रूप में मान्य न होते हुए भी कहानियों/परीकथाओं में उनका आकर्षण लगातार बना रहता है. इस कारण परीकथाओं को साहित्य का ऐसा कोना मान सकते हैं, जहां व्यक्ति सामाजिक मर्यादाओं से परे, अपनी स्वच्छंदता का एहसास कर सकता है. इस तरह मानव–मन में छिपे ज्ञात–अज्ञात विकारों के उपचार हेतु परीकथाओं ने औषध का काम किया है. मनुष्य की अद्वितीय कल्पनाशक्ति का विकास ब्रह्मांड के सापेक्ष बौनेपन की कुंठा तथा उसके समाहार की ललक से हुआ है. यह परीकथाओं और लोकसाहित्य में ही संभव था कि एक ‘कद्दू’ अपनी गरीब मां को सुखी देखने के लिए कमाई करने घर से निकले, राज–दरबार में पहुंचकर अपने प्रतिभा–कौशल से सभी को चमत्कृत करे और राजकुमारी को ब्याह कर घर ले आए. राजकुमारी की ओर देखने–भर से आंख निकलवा लेने वाली राजसत्ता उसका कुछ न बिगाड़ पाए. ऐसी कहानियां कोरी कल्पना की उड़ान न थीं. उनका लौकिक महत्त्व भी था. अतिसाधारण परिवार के किशोर बेटे का प्रतीक ‘कद्दू’ अपने बुद्धि–चातुर्य से राजदरबार में सभी को चमत्कृत कर यह सिद्ध कर देता है कि बुद्धि–विवेक, चपलता, तत्परता, साहस, वीरता और निडरता जैसे उदात्त गुण, केवल सत्ता–शिखर पर विराजमान लोगों का एकाधिकार नहीं है. ब्राह्मण को मूर्ख, राजा को कमजोर और कायर तथा रानी को बदचलन दिखा पाना भी केवल कहानियों में संभव रहा. उनमें कौआ महान गाथाएं सुना सकता था, कुत्ता दर्शन बघार सकता था; और नदी का मामूली जीव कछुआ लोगों को राजनीति की शिक्षा दे सकता है. लोकमानस में स्वयं–स्फूत्र्त जन्मी ये परीकथाएं उसे न केवल अपने अंधेरे कोनों से परचाती थीं, बल्कि सत्ता के दाग–धब्बों की ओर संकेत करते हुए, शीर्षस्थ वर्ग से भी समानता और सच्चरित्रता की मांग भी करती थीं. समाज का आईना होने के साथ–साथ वे प्रजा की ओर से प्रस्तुत मांगपत्र जैसी थीं. दूसरी ओर ऐसी कहानियां और लोककथाएं भी रहीं, जिनमें राजा और उसके दरबारियों का महिमा–मंडन होता था. जो सामाजिक विभाजन को, ऊंच–नींच, जात–पात, धर्म–भेद को शास्त्र–सम्मत बताती थीं. जिनमें राजकुमारी को केवल उच्च कुल के राजकुमार से विवाह करने की छूट थी. जो कुल–परंपरा में छोटे हों, उन्हें राजकुमारी की ओर देखने तक का अधिकार नहीं था. दूसरे किस्म की कहानियां सामान्यतः मौखिक न होकर लिखित रूप में थीं. वे दरबारी लोगों द्वारा अपने आश्रयदाताओं के मनोरंजन हेतु, सुख–सुविधाओं के बीच गढ़ी जाती थीं. जनसाधारण के बीच परीकथाओं की लोकप्रियता का कारण यह भी रहा क्योंकि वे चमत्कार के माध्यम से ही सही, पलक झपकते नाकुछ को सबकुछ बनाकर शीर्ष पर ले आती थीं. उनमें छोटे–बड़े का भेद नहीं था. जिस अलाव के किनारे अस्सी वर्ष का दादा कहानी सुन सकता है, उसी के आगे, किशोर पोता भी कहानी का आनंद ले सकता है. इसलिए वे तीन–तीन, चार–पीढि़यों की ज्ञान–संपदा का वहन करने तथा उसे ऐच्छिक व्यक्ति अथवा व्यक्ति–समूहों तक पहुंचाने का कार्य लगातार करती रहीं. समाज के छोटे–से छोटे व्यक्ति को केंद्र में आने का अवसर देने के कारण परीकथाएं समाज के वंचित वर्ग में विशेष लोकप्रिय रही हैं. यह समानता हालांकि कल्पना तक सीमित थी, इसके बावजूद वह व्यक्ति की कुंठाओं के समाहार में काफी मददगार सिद्ध होती थी. लोकसाहित्य की इसी ताकत और पैठ के आगे, समाज का प्रभु वर्ग, परीकथाओं को छोटे, वंचित लोगों का प्रलाप कहकर उपेक्षित करता रहा. तथापि परीकथाओं की लोकप्रियता पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा. प्रौद्योगिकीय क्रांति के दौरान उभरे मध्यवर्ग ने शिक्षा पर अधिकार कर प्रभुवर्ग के समक्ष अपनी शक्ति और पैठ का एहसास कराया था. यह एहसास भी कराया था कि प्रभुवर्ग का श्रेष्ठत्व, धन–वैभव आदि उन्हीं अर्थात मध्य वर्ग के बुद्धिबल और श्रमबल की देन है. इसी वर्ग ने श्रुत परंपरा की परीकथाओं को लिखित रूप में पेश किया. शुरुआत फ्रांसिसी महिलाओं ने की, जो कुलीन परिवारों से संबद्ध होने के बावजूद लैंगिक भेद–भाव का शिकार थीं. धीरे–धीरे वे पूरे कुलीन समाज की पसंद में उतरने लगीं. दबाव में ही सही, शीर्षस्थ लोगों की निगाह में उपेक्षित रही देहाती और गंवईं कहानियां, प्रकारांतर में प्रभुवर्ग के बेडरूमों और दरबारों में भी दस्तक देने लगीं. परीकथाओं में नैतिक और भावनात्मक खजाने की खोज की जाने लगीं. इस तरह वे कहानियां दो भिन्न कार्य–संस्कृति और हैसियत वाले वर्गांे के बीच समन्वय हेतु पुल बनने में कामयाब रही हैं. मूलतः सुनने–सुनाने की विधा रही कहानियों ने अपना लंबा समय किस्सागोई के साथ बिताया है. फलस्वरूप उसकी शैली और प्रस्तुतीकरण में सार्वजनिक बोध हमेशा ही रहा. आज भी जब कोई मंजा हुआ किस्सागो परीकथा सुनाते समय अलखाता है—‘एक बार की बात है….’, ‘एक बार एक बियावान जंगल में’ तब वह अपने श्रोताओं को स्वतः ही एक परंपरा से जोड़ लेता है. प्रकारांतर में वे कहानियां सामूहिकता का आयोजन बन जाती हैं. प्राचीन परीकथाओं में प्रायः एक राजकुमार होता है, जिसे अंत में राजकुमारी मिल जाती है. यह मनुष्य की नैसर्गिक स्वतंत्रता का प्रतीक, व्यक्ति का व्यक्ति से मिलन है. उसमें दोनों के व्यक्तित्व आमने–सामने होते हैं. दोनों की सक्रियता में अंतर के बावजूद उनके स्नेह–बंधन को सामाजिक स्वीकृति प्राप्त होती है. राजकुमार का संघर्ष भले ही राजकुमारी के लिए हो, लेकिन अंततोगत्वा वह स्त्री–पुरुष के नैसर्गिक संबंध की ओर ही संकेत करता है. राज्य की चिंता छोड़ केवल राजकुमारी को पाने की सनक में निकले राजकुमार के आचरण को कोई भी स्वार्थपूर्ण नहीं कहता है. यह मानते हुए कि सामाजिक–राजनीतिक कर्तव्य के बावजूद राजकुमार का अपना जीवन है, उसके कर्तव्य को निजी पुरुषार्थ की प्रस्तुति के रूप में सराहा जाता रहा है. यह व्यक्ति की नैसर्गिक स्वतंत्रता; यानी उन जीवनमूल्यों का सम्मान है जो देश–काल, धर्म, संस्कृति से परे, जन्म लेने के साथ ही उसे प्राप्त हो जाते हैं. यहां विवेकानंद का कथन स्मरणीय है. एक सभा को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा था—‘‘आप मुझे एक शिशु दीजिए. मैं उससे बार–बार कहूंगा—‘तुम ब्रह्म हो….तुम्हीं ब्रह्म हो’, ‘तत्वं असि….तत्वं असि.’ साहित्य पाठक को उसकी अस्मिता और जीवनबोध से परचाने का कार्य पल–छिन करता है. परीकथाओं की विशेषता है कि उनमें ‘पर’ के साथ–साथ ‘अपर’ यानी ‘आत्म’ को भी सम्मान मिलता है. जबकि धार्मिक आख्यानों में ‘आत्म’ को ‘परमात्म’ का अंश कहकर गौण मान लिया जाता है. परीकथाओं में ‘आत्म’ की उपस्थिति को, जब तक शेष समाज को उससे कोई हानि न पहुंचे, सर्वत्र सराहा जाता है. जर्मन दार्शनिक मार्टिन बुबर(1878—1965) ने व्यक्तिपरकता की सामाजिक संदर्भ में व्याख्या की है. बुबर के अनुसार मनुष्य का आत्म सामान्यतः दो प्रकार से स्वयं को अभिव्यक्त करता है. पहला ‘मैं तू हूं’ और दूसरा ‘मैं, यह हूं’. ‘मैं तू हूं’ जहां स्वयं को दूसरे के व्यक्तित्व में विलीन कर देने की चाहत है. वहीं ‘मैं, यह हूं’ आत्म–संबोधि की अवस्था है. भारतीय परंपरा में इसे क्रमशः ‘तत्वं असि’(तुम ही ब्रह्म हो) तथा ‘अहं ब्रह्मास्मि’(मैं ब्रह्म हूं) कहा गया है. आशय है कि कहानियां जहां व्यक्ति को समाज से परचाती हैं, उसे पूरे परिवेश से जोड़कर विराट ब्रह्मांड का हिस्सा बना देती हैं, वहीं व्यक्ति के ‘आत्म’ की भी सुरक्षा करती हैं. इस प्रकार वे असीमित ‘पर’ और सीमित ‘अपर’ के बीच संतुलन और सौहार्द बनाए रखने में सहायक होती हैं. दूसरे शब्दों में ‘आत्म की पहचान’ के साथ–साथ ‘विराट का बोध’ कराना ही साहित्य का उद्देश्य रहा है, ताकि व्यक्ति की गरिमा और समाज की मर्यादा, दोनों सुरक्षित रहें. यही साहित्यकर्म है. लोकसाहित्य इसे सहस्राब्दियों से निभाता आया है. विज्ञान साहित्य किसी वस्तु अथवा प्राणी के अंतर्जगत एवं बाह्यः जगत दोनों को तर्कसंगत ढंग से जानने का माध्यम है. विज्ञान साहित्य अथवा साहित्यिक विज्ञान लेखन और अकादमिक विज्ञान लेखन में अंतर है. विज्ञान साहित्य में विज्ञान की तार्किकता को पाठकीय संवेदना और सामाजिक संदर्भों में उसकी उपयोगिता के आधार पर परखा जाता है. जबकि अकादमिक लेखन तथ्यों के वस्तुनिष्ठ विवेचन तक सीमित रहता है. साहित्य के सरोकार मानवीय होते हैं. साहित्य सोचता है—‘विज्ञान मानव–मात्र के लिए’ है. इसी विचार को वह अपनी रचनाओं में उतारता है. कामना करता है कि उसके लाभ जन–जन तक पहुंचें. वैज्ञानिक और विज्ञान के अकादमिक व्याख्याता, ‘विज्ञान विज्ञान के लिए’ जैसी निस्पृहता के साथ काम करते हैं. उनके कार्य की प्रकृति के अनुरूप निष्पृह रहना आवश्यक है. वैज्ञानिक ऐसी निस्पृहता न रखें तो उनका काम बड़ा मुश्किल हो जाए. आइंस्टाइन यदि सोचते कि उनके शोध के आधार पर भविष्य में परमाणु बम का निर्माण संभव होगा, जिससे हिरोशिमा और नागासाकी जैसी तबाही की कहानियां लिखी जाएंगी, तब क्या वे उस शोध के लिए उतनी ही तन्मयता के साथ काम कर पाते. वैज्ञानिक उपलब्धियों का लोक–हित में प्रयोग हो, इसके लिए सामाजिक दबाव अनिवार्य हैं. उनके अभाव में महत्त्वपूर्ण वैज्ञानिक शोध पूंजीपतियों और व्यापारियों के अधिकार में चले जाते हैं, जिनका उपयोग वे निहित लाभ की वांछा के साथ करते हैं. ऐसे में उन लेखकों की जिम्मेदारी बढ़ जाती है, जो विज्ञान को लोक–कल्याणकारी भूमिका में देखना चाहते हैं. आधुनिक विज्ञान लेखन ऐसे ही लेखकों की सर्जना का सुफल है. उसमें बहुत कुछ श्रेष्ठ है, लेकिन बहुत कुछ ऐसा भी है जो विज्ञान के नाम पर केवल पिष्ट–प्रेषण है. महज औपचारिकता, जिससे संबंधित लेखक की विज्ञान और विज्ञान साहित्य के प्रति कम–समझी को को परखा जा सकता है. विज्ञान के विशिष्ट ज्ञान की कमी तथा जातीय एवं धार्मिक पूर्वाग्रहों के कारण रचना विज्ञानबोध से वंचित रह जाती है. उसकी भरपाई वे कल्पना के अतिशय प्रयोग द्वारा करते हैं. परिणामस्वरूप वे विज्ञानकथा लिखने की यदि कोशिश करें भी तो रचना छिटककर विज्ञानगल्प के दायरे में चली जाती है. लेखक में विज्ञानबोध की कमी का परिणाम यह होता है कि कृति वैज्ञानिक आविष्कारों की पिछलग्गू बनी रहती है. यहां एक विवाद खड़ा हो सकता है. कुछ उत्साहित लेखक आपत्ति कर सकते हैं कि विज्ञान साहित्यकार मनुष्य के मंगल ग्रह पर पहुंचने की कल्पना कर चुके हैं. अपनी गल्पकथाओं में मनुष्य को आकाश–गंगाओं और नीहारिकों में बसने वाले जीवन का सपना भी दिखा चुके हैं, जबकि वैज्ञानिक अभी तक मंगल के चक्कर ही काट रहे हैं. उत्तर स्पष्ट है, केवल विज्ञान और प्रौद्योगिकी का परिवेश बना देने से विज्ञान–साहित्य का उद्देश्य पूरा नहीं हो जाता. इससे तो यह संदेश जाता है कि वैज्ञानिक लक्ष्यों की सिद्धि केवल विशिष्ट परिवेश, खास उद्देश्यों हेतु संभव है. साधारण जीवन में उसका कोई काम नहीं है. श्रेष्ठ विज्ञान लेखक वैज्ञानिक उपकरणों, प्रविधियों के पीछे निहित वैज्ञानिक तथ्यों को अपनी रचनाओं का विषय बनाता है. उसकी निगाह विकास के नाम पर अग्रसर प्रवृत्तियों पर भी रहती है. कुल मिलाकर विज्ञान–साहित्य केवल ‘असंभाव्य को संभव’ दिखाने की कलाकारी नहीं है, उसके विमर्श का दायरा इससे कहीं अधिक विस्तृत है. परीकथा और विज्ञानकथा का भविष्य व्यक्ति एवं समाज के भावी संबंधों द्वारा तय होगा. इस बात से होगा कि व्यक्ति और समाज, एक–दूसरे की अस्मिता का सम्मान करते हुए पारस्परिक हितों की रक्षा हेतु कितना तालमेल कर पाते हैं. यद्यपि साहित्यकारों का बड़ा वर्ग आज भी समर्पित भाव से सार्थक परीकथाएं एवं विज्ञानगल्प लिखने में लगा है. न केवल पुरानी और वैश्विक लोकप्रियता हासिल कर चुकी परीकथाओं को नई युगदृष्टि के अनुकूल ढाला जा रहा है, बल्कि नए युगबोध के अनुसार नई रचनाएं लिखने में भी इस वर्ग ने सफलता प्राप्त की है. तथापि जितनी बड़ी अपेक्षाएं हैं, चुनौतियां भी उतनी ही कड़ी हैं. जनमानस के बड़े हिस्से को बाजार ने अपनी चकाचैंध से प्रभावित किया है. निहित स्वार्थ के लिए वह उपलब्ध कलारूपों का भी व्यवसायीकरण करने में लगा है. उसी दिशा में काम करते हुए हाल के वर्षों में बाजार ने परीकथाओं एवं विज्ञानगल्प दोनों को अपने स्वार्थ के अनुरूप ढाला है. उनका नया रूप इतना बनावटी और विरूपित है कि कभी–कभी तो रचना की श्रेणी अर्थात वह ‘परीकथा है अथवा विज्ञानकथा’—तय कर पाना भी कठिन हो जाता है. अतः इन दोनों कथारूपों के भविष्य की दिशा इससे भी तय होगी कि आगे ये दोनों धाराएं अपने साहित्यिक लक्ष्य एवं बाजारवादी आग्रहों के बीच संतुलन रखते हुए सामाजिक गतिशीलता के पक्ष में कितना योगदान दे पाती हैं. उम्मीद कम है, फिर भी परीकथाओं और विज्ञानसाहित्य की आगामी दिशा–दशा इस पर भी निर्भर करेगी कि उत्पादकता के लाभों को जनसाधारण तक पहुंचाने के लिए अर्थव्यवस्वस्था ने खुद को कितना और किस दिशा में बदला है. ध्यातव्य है कि मुक्त बाजार की अवधारणा उत्पादन–केंद्रित अर्थव्यवस्था द्वारा, व्यक्ति–मात्र को लाभ पहुंचाने के आश्वासन के साथ रखी गई है. मगर उसके लाभ मात्र कुछ हाथों तक सिमटकर रह जाते हैं. जिन्हें उनकी सचमुच जरूरत है, उन तक पहुंच ही नहीं पाते हैं. स्थिति सामंतवाद जैसी भले न हो, मगर इसके कई लक्षण उस व्यवस्था से पूरी तरह मेल खाते हैं. राजशाही और सामंती युग में समस्त अधिकार राजा के चहेते सामंतों और जमींदार वर्ग तक सीमित रह जाते हैं. नई व्यवस्था में पूंजीवादी शक्तियों के समर्थन–सहयोग से बनी दायित्वहीन सरकारें स्वार्थ–सिद्धि हेतु उद्यमियों और शीर्षस्थ नौकरशाह का अत्यंत शक्तिशाली वर्ग खड़ी कर देती हें, जो धीरे–धीरे समस्त सत्ता–केंद्रों पर कब्जा कर, मीडिया और अन्यान्य माध्यमों द्वारा लोगों को भरमाने लगता है. उस वर्ग की कोशिश रहती है कि उपलब्ध कलाएं अपने मूल सरोकारों से कटकर उसके प्रचारक–तंत्र के रूप में कार्य करें. शक्ति–केंद्रों पर काबिज होने के कारण वह दूसरों पर अपनी इच्छाएं थोपने की स्थिति में भी होता है. या यूं कहें कि अपने स्वार्थ के अनुरूप कलाओं को मनचाहा रंग देकर उनसे सांस्कृतिक हथियार का काम लेता है. उसका प्रभाव विभिन्न कलारूपों पर भी पड़ता है. यदि बाजारवाद भविष्य में भी इसी तरह हावी रहता है, राजनीति जनता के प्रति अपने दायित्वों को भुलाकर केवल उद्योगपतियों और सरमायेदारों की हित–रक्षक बनने में लगी रहती है, तो प्रसारण के बड़े माध्यमों यथा दूरदर्शन, सिनेमा आदि पर परीकथाओं और विज्ञानकथाओं से संवेदना और सामाजिकता के क्षरण की स्थिति ऐसी ही बनी रहेगी, जैसी अब है. कृत्रिम कथानकों में वृद्धि होगी. वे जनसरोकारों से दूर ‘कला केवल मुनाफे के लिए’ के निमित्त प्रयुक्त होकर अपनी सामाजिक भूमिका से पलायन करते हुए नजर आएंगे. ऊपर जो आशंका हमने व्यक्त की है, वह सर्वथा निराधार नहीं हैं. कहीं न कहीं इसके बीजतत्व अतीत में भी छिपे हुए हैं. तीसरी औद्योगिक क्रांति से गुजर रही इकीसवीं शताब्दी में तकनीक स्वयं फंतासी का रूप ले चुकी है. कई जगह तो उसका आभामंडल इतना प्रभावी और सम्मोहक है कि खुद को अभिव्यक्त करने के लिए उसे किसी और कथा–माध्यम की आवश्यकता ही महसूस नहीं होती. यही कारण है कि इंटरनेट, कंप्यूटर गेम, सिनेमा, दूरदर्शन आदि पर प्रसारित, प्रचारित कई ऐसे कार्यक्रम हैं जो कथानक की जरूरत को नकारने का दावा करते हैं. यह मान लिया गया है कि आपाधापी के दौर में एक ही स्थान पर टिककर कहानी सुनने, परीकथा का आनंद लेने का समय किसी के पास नहीं है. इस व्यस्तता, जिसका बड़ा हिस्सा बनावटी है, का लाभ उठाने के लिए बाजार ने नए–नए उपकरण उतारे हैं, जो तकनीकी कौशल के आधार पर मनोरंजन की जरूरत की भरपाई कर सकते हैं. उसके बनाए मायाजाल के आगे साहित्य और कलाएं दम तोड़ती नजर आती हैं. इन माध्यमों का सबसे बड़ा हमला कहन की कला पर है, जिसकी खूबी है कि वह व्यक्ति को अकेला नहीं रहने देती. पाठक–श्रोता के चाहे–अनचाहे, किस्से–कहानी के रूप में, वास्तविक या आभासी समाज उसके चारों ओर बन जाता है, जो उसको अवसरानुकूल प्रेरणाएं देने में सक्षम होता है. कहानियां व्यक्ति को विश्वास दिलाती हैं कि उसका अस्तित्व शेष समाज के साथ ही सुरक्षित है. दूसरी ओर आधुनिक प्रौद्योगिकी मानवमात्र को उपभोक्ता मानते हुए उसके आंतरिक एवं बाह्यः संसार पर अधिपत्य जमा लेने में अपनी सफलता मानती है. उसके संपर्क में आने के बाद वह स्वयं को न केवल आत्मनिर्भर और स्वतंत्र महसूस करता है, बल्कि खुद को शक्तिशाली भी मान बैठता है. इसलिए वह उपलब्ध कथारूपों का उपयोग केवल अपने खालीपन को भरने के लिए, औपचारिकता की तरह करता है. चूंकि मनुष्य सामाजिक प्राणी है, वह स्वयं को बाहर की दुनिया से अलग कर ले फिर भी, उसके भीतर पैठा हुआ सामाजिक बोध उसे शेष समाज से जोड़े रखता है. इस कारण उसके साहित्य और कला की दुनिया की ओर वापस लौटने की संभावना सदैव बनी रहती है. मानवमन की इस प्रवृत्ति पर नियंत्रण रखने तथा कमाई हेतु आज्ञाकारी उपभोक्ता में ढालने के लिए नई तकनीक ने आभासी दुनिया सृजित करने में सक्षम अनेक अवतार सृजित किए हैं. उनमें मैत्री केवल तस्वीरों से और विचार कंप्यूटर स्क्रीनों के सामने व्यक्त किए जाते हैं. उसकी विडंबना है कि एक साथ कितनी ही कंप्यूटर स्क्रीन से छनकर विचार जब व्यक्ति तक पहुंचते हैं, तब वे एक रेला बन चुके होते हैं. कंप्यूटर स्क्रीन चूंकि प्रतिवाद नहीं करती, इसलिए उनके आगे बैठा प्रत्येक व्यक्ति स्वयं को विचार प्रदाता मानता है. सीधे संवाद के अवसरों के अभाव में वह अपने विचारों को ही अंतिम और सर्वोत्तम मानने का भ्रम पाले रहता है. दूसरे के विचारों को ग्रहण करने, उन्हें आत्मसात् कर दूसरों तक पहुंचाने का धैर्य उसके पास नहीं होता. कंप्यूटर स्क्रीन से निकलकर आ रहे विचारों के रेले में से नीर–क्षीर की विवेचना करने के बजाए वह अपनी आधी–अधूरी मान्यताओं के साथ बने रहने में ही गर्व महसूस करता है. कुल मिलाकर विचारों के रेले के बीच वह सबकुछ पाता है, परंतु असल में कुछ भी नहीं पाता. परिणामस्वरूप विभिन्न विचारधाराओं के बीच सार्थक संवाद, फिर कुछ निष्कर्षों को लेकर संकल्प धारण करने की स्थिति बन ही नहीं पाती. चूंकि वे माध्यम शक्तिशाली और तीव्र गति होने के साथ–साथ चमक–दमक से भी भरे होते हैं, इसलिए उनके प्रति युवामन में दीवानगी का भाव रहता है. तकनीक का आकर्षण कई बार इतना गहरा होता है कि कविता, कहानी जैसी साहित्य की विभिन्न विधाओं में विशेष रुचि न होने के बावजूद युवावर्ग उनमें इसलिए रुचि दिखाता है, ताकि तकनीक का प्रयोग कर ‘जमाने के साथ चलने’ का भ्रम पाल सके. आधुनिक विकास की अवधारणा इस सिद्धांत पर टिकी है कि उसने व्यक्ति के जीवन को कितना सुविधामय और आत्मनिर्भर बनाया है. विज्ञान यह दावा भी करता है कि उसने व्यक्ति को सामाजिक जकड़बंदी से बाहर निकालकर आत्मनिर्भर बनाने का काम किया है? क्या इस आत्मनिर्भरता को प्राकृतिक स्वतंत्रता का पर्याय माना जा सकता है? शायद नहीं, क्योंकि प्राकृतिक स्वतंत्रता व्यक्ति को मुक्त करती थी. जबकि प्रौद्योगिकी प्रदत्त आत्मनिर्भरता व्यक्ति को समाज से काटकर यंत्रों और उपकरणों के माध्यम से आभासी दुनिया में कैद कर देती है. इतना आश्रित बना लेती है कि यंत्रों और उपकरणों की दुनिया ही उसे वैज्ञानिक ज्ञान–विज्ञान का पर्याय लगने लगती है. प्राकृतिक स्वतंत्रता में असंतोष नहीं होता, प्राणिमात्र को यह भरोसा होता है कि प्रकृति उसकी आवश्यकतानुसार वस्तुएं उत्पादित करने में सक्षम है, इसलिए उसकी जरूरत की वस्तुएं उसको आगे भी समयानुसार मिलती रहेंगी. यह तोष उसको सहजीवन में बने रहने की प्रेरणा देता है. इस कारण वहां स्पर्धा को महत्त्व नहीं दिया जाता. आधुनिक प्रौद्योगिकी द्वारा निर्देशित दुनिया में ऐसा नहीं है. वहां विज्ञान और प्रौद्योगिकी का जिस प्रकार सीमित हितों में उपयोग होता है, उसमें हर नया शोध मनुष्य की कामनाओं को भड़काता है. उसकी आवश्यकताएं निरंतर बढ़ती चली जाती हैं. परिणामस्वरूप अनावश्यक स्पर्धा पैदा होती है. मनुष्य को हर समय यह लगता है कि उसके सुख के लिए सिवाय उसके कोई और सोचने और सहयोग करने वाला नहीं है. इस धारणा के साथ ही वह स्पर्धा को अपरिहार्य मान लेता है. वह डरता है कि दूसरों के भरोसे छोड़ते ही सबकुछ उसके हाथ से छिटक जाएगा. इस अविश्वास का परिणाम यह होता है कि जो स्पर्धा पहले बाहर के लोगों के साथ होती थी, उसका निरंतर सिमटता हुआ दायरा परिवार को भी अपनी गिरफ्त में ले लेता है. इसका असर सुख–सुविधाओं के लिए अपने ही परिजनों पर संदेह, अविश्वास, हताशा और कुंठा के रूप में नजर आता है. इससे सामाजिक संबंधों का हृास होता है. संबंधों में आत्मीयता की खोज व्यक्ति को आभासी दुनिया में ले जाती है. चूंकि आभासी दुनिया के लोग उसकी सुख–सुविधाओं के साथ सीधे स्पर्धा में नहीं होते, और उनके साथ संवाद करते हुए वह अपने अभावों को भी छिपा सकता है, इसलिए उस दुनिया में उसका मन रमने लगता है. धीरे–धीरे उसे वह नकली और आभासी दुनिया ही असली प्रतीत होने लगती है. इसमें दोष विज्ञान और प्रौद्योगिकी का नहीं है, बल्कि उसके लाभों का सीमित हाथों में कैद हो जाने का है. ज्ञान पर कभी किसी एक व्यक्ति का अधिकार नहीं रहा. वह पूरे समाज का होता है. उसके अर्जन में प्रत्यक्ष या परोक्ष सभी वर्गों का योगदान होता है. बावजूद इसके सामान्यतः उसका लाभ समाज के मुट्ठी–भर लोगों को मिलता रहा है. यही बात विज्ञान और प्रौद्योगिकी पर भी खरी सिद्ध होती है. वैज्ञानिक आविष्कारों के पीछे भी किसी न किसी रूप में समाज के प्रत्येक वर्ग का योगदान होता है, मगर उसका अधिकांश लाभ वे लोग उठाते हैं, जो कुछ पूंजी लगा देने मात्र से प्रयोगशालाओं के मालिक मान लिए जाते हैं. इसकी प्रतिक्रिया समाज के दूसरे वर्गों पर भी होती है. विकास के लाभों से वंचित लोग यह सोचकर कि उन्हें विकास के लाभ से सोची–समझी नीति के अंतर्गत दूर रखा गया है, विकास–प्रक्रिया में भरपूर योगदान देने से जी चुराने लगते हैं; अथवा उसका योगदान स्वतःस्फूर्त्त न होकर कर्मकांड मात्र रह जाता है. इससे सामाजिक अविश्वास जन्म लेते हैं, अंत:संघर्षों का जन्म होता है. उत्पादक यहां भी लाभ की स्थिति में रहता है. श्रमिकों को समझाने, उनकी समस्याओं का निदान खोजने की अपेक्षा वह तकनीक के स्वचालीकरण पर जोर देता है. जिससे उसकी उत्पादकता बढ़ती है. मालिक श्रमिक–हितों के साथ मनमानी करने की स्थिति में बना रहता है. इससे दोनों वर्गों के बीच की खाई निरंतर बढ़ती जाती है. ऐसे में साहित्यकार क्या कर सकता है? इसका उत्तर एकदम साफ है. साहित्य केवल साहित्य बना रहे, साहित्यकार निष्ठापूर्वक अपनी भूमिका निभाए, इससे अधिक न तो साहित्यकार से अपेक्षाएं हैं, न ही उसकी कोई आवश्यकता है. साहित्यकार को भरोसा होना चाहिए कि साहित्य समाज का केवल दर्पण नहीं होता. यदि साहित्य की भूमिका को केवल दर्पण तक सीमित कर दिया जाए तो इस प्रकार का काम करनेवाली और भी कई चीजें मिल जाएंगी. हम सभी समाज में रहते, उसको देखते–भोगते हैं. हमारी टिप्पणियां या जीवन एक प्रकार से समाज की छोटी–छोटी तस्वीरें ही होती हैं. साहित्यकार की भूमिका इतनी भर नहीं है कि वह समाज का रोजमर्रा का हिसाब–किताब लिखता फिरे. साहित्य की भूमिका विधेयात्मक होती है. साहित्य समाज को केवल आईना ही नहीं दिखाता. गुण–दोष दिखाने के साथ–साथ वह समाज को यह भी बताता है कि उसके लिए क्या और कैसा होना श्रेयस्कर है. इसके लिए उपलब्ध मार्गों की ओर संकेत करते चलना भी साहित्यिक विमर्श का हिस्सा होता है. इस हकीकत को पूंजीपति भी भली–भांति समझता है. मगर उसके पास हर वर्ग से निपटने का खास तरीका होताा है, वह राजनेताओं को फुसलाकर, लालच देकर अपने बस में करता है तो साहित्यकारों को किसी न किसी प्रकार भरमाने, उनका विश्वास जीतने में लगा रहता है. इसलिए चाहे–अनचाहे साहित्यकार से भी चूक होती रही है. अधिकांश लेखकों ने विज्ञान को धर्म की तरह देखा; तथा वैज्ञानिक को पुरोहित की भांति पवित्र मान लिया. मान लिया कि सरकार या पूंजीपति द्वारा वैज्ञानिक से जो ‘पौरोहित्य कर्म’ कराया जा रहा है, वह वैसा ही है, जैसा उसको होना चाहिए. ऐसी परिस्थितियों में विज्ञान लेखन का कर्मकांड में ढल जाना स्वाभाविक हो गया. इस बारे में आलोचकीय चुप्पी षड्यंत्र की तरह कायम रही. अपवाद को छोड़कर वह कभी सक्रिय नहीं रही. इस कारण आधुनिक विज्ञान लेखन में न केवल दोहराव है, बल्कि कुछ अर्थों में तो वह परंपरा का ही पुनःप्रस्तुतीकरण लगता है. यदि पिछली शताब्दी के विज्ञान लेखन को देखा जाए तो उसके नब्बे प्रतिशत में वैसी वैज्ञानिकीय यात्राएं हैं, जैसे पहले राजा–महाराजा युद्ध अभियानों पर निकलते थे और किए नए राज्य को फतह करके लौट आते थे. उनमें दो विपरीत शक्तियों के बीच महत्त्वाकांक्षाओं का वैसा ही संघर्ष है, जैसा कभी देवता और राक्षसों के बीच रहता था. यह दुनिया को अच्छे और बुरे में बैठे–ठाले बांट देने का शगल है, जिसके पीछे कुल व्यवस्था को सुर और असुर में बांटकर देखने का चलन रहा है. इससे इतर भी वैज्ञानिक लेखन या विमर्श हो सकता है, इसपर शायद ही कभी सोचा ही नहीं गया. यदि ध्यान से देखा जाए तो इसी प्रकार का लेखन पारंपरिक परीकथाओं में भी है. बल्कि कुछ मायनों, विशेषकर जन–भावनाओं से नैकट्य के आधार पर मैं लोकसाहित्य और परीकथाओं को विज्ञान लेखन से बेहतर स्थिति में मानता हूं. उनमें लोक की न केवल ससम्मान उपस्थिति रहती है, बल्कि अनुकूल अवसरों पर उसके असंतोष और विरोध का भी उल्लेख होता है, जिससे समाज की आंतरिक हलचलों को परखा जा सकता है. विज्ञानकथाओं में इसका अभाव है. इस कारण वे अभिजन संस्कृति के चहेते सपनों का आधुनिक आख्यान बनकर रह जाती हैं. इस अवैज्ञानिक धारणा को कम से कम विज्ञान लेखकों द्वारा सच मान लिया लगता है कि कुछ लोग ‘ज्ञान प्राप्त करने में सक्षम हैं’ और ‘कुछ ज्ञान प्राप्त करने में पूर्णतः अक्षम.’ परोक्ष रूप में विज्ञान–साहित्य भी इसी को सच सिद्ध करता है, इसलिए वह मध्यवर्गी फंतासी तक सीमित रह जाता है. विज्ञान की सामाजिक भूमिका वाला भाव वहां अनुपस्थित बना रहता है. दूसरे शब्दों में हमारे विज्ञान लेखकों ने विज्ञान–साहित्य रचा अवश्य, लेकिन उनका संस्कार वही रहा, जो परीकथाओं में जमाने से चला आ रहा था. तो क्या हमारे विज्ञान–साहित्यकार विज्ञान लेखन के नाम पर परीकथाओं को ही नए कलेवर में ढालते आए हैं? यह सुनकर विचित्र लग सकता है. मगर सचाई यही है कि हमारा विज्ञान लेखन, विशेषकर विज्ञानकथाएं और विज्ञान गल्प, परीकथाओं के यदि एकदम आसपास नहीं, तो बहुत दूर भी नहीं है. कारण सिर्फ इतना है कि हमारे लेखकों ने अपनी रचनाओं में नवीनतम शोध और कल्पनाओं को तो भरपूर जगह दी, परंतु वे स्वयं विज्ञानबोध को वंचित रहे. समाज तो दूर वे उसे अपने जीवन में भी नहीं उतार पाए. अधिकांश विज्ञान लेखकों के लिए विज्ञान का अभिप्राय अंतरिक्षीय उड़ानों, हवाई जहाज, उपग्रह, प्रयोगशाला, अंतर्ग्रही युद्धों तक सीमित रहा. जबकि विज्ञान यंत्र अथवा उपकरण तक सीमित नहीं है. वह प्रयोगशाला भी नहीं है, जहां वैज्ञानिक लोग बड़े–बड़े शोध किया करते हैं. विज्ञान असल में पद्धति है. प्रणाली है ज्ञानार्जन की. उसकी नींव तार्किकता, जांच–परख और प्रयोगों–परीक्षणों पर टिकी होती है. ऐसा विज्ञान लेखन वैज्ञानिक उपकरण, प्रयोगशाला आदि के बगैर भी लिखा जा सकता है. आदर्श विज्ञानगल्प तो वह है जिसमें वैज्ञानिक उपकरणों, प्रयोशाला और यंत्रों के उल्लेख के बिना भी भरपूर तार्किकता और विज्ञानबोध हो. क्योंकि ये सब विज्ञान साहित्य के साधन हो सकते हैं, साध्य नहीं. अधिकांश विज्ञान लेखक साध्य और साधन में अंतर नहीं कर पाते. इस कारण वे साधन को ही साध्य मानने की भूल कर बैठते हैं. वे विज्ञान की सामाजिक भूमिका को लेकर आश्वस्त नहीं हो पाते. बेकन ने विज्ञान को शक्ति माना था. ‘ज्ञान ही शक्ति है’ का नारा उसने दिया. वैज्ञानिकों के साथ–साथ लेखकों ने भी उसी को मंत्र का दर्जा दे दे दिया. मुझे लगता है कि ज्ञान–विज्ञान के साथ शक्ति के प्रत्यय को जोड़ देना सबसे बड़ी भूल रही, क्योंकि ‘शक्ति’ के साथ कहीं न कहीं ‘जंगल के न्याय’ की अवधारणा भी जुड़ी हुई है. शक्ति केवल विभाजन कर सकती है. छोटे–बड़े का, गरीब–अमीर का, काले और गोरे, स्त्री और पुरुष का वगैरह. यही हुआ भी है. शोध कार्य में डूबा हुआ वैज्ञानिक भले ही निर्लिप्त–निष्पक्ष रहे, विज्ञान की शक्ति जिसके हाथों में जाती है, चाहे उद्योगपति हो अथवा राजनेता, व्यापारी हो या अधिकारी, सभी उसका उपयोग प्रायः जंगल के न्याय की भावना के साथ करता है. यही होता आया है. बेकन के करीब साढ़े तीन शताब्दी बाद आइंस्टाइन ने जरूर कहा कि ‘ज्ञान सत्य है और सत्य का बोध आत्मा के लिए आवश्यक है.’ परंतु तब तक बहुत देर हो चुकी थी. दुनिया विज्ञान की ताकत से हिल चुकी थी. अतः यह अपेक्षा विज्ञान लेखकों से थी कि वे बेकन की उक्ति ‘ज्ञान ही शक्ति है’ को भक्ति–भाव लेने के बजाय उसके निहितार्थ को समझते तथा उसमें तत्काल संशोधन करते. बेकन के कथन के विरोधाभास को समझते कि विज्ञान का विकास यदि लोगों को उनके कष्टों से मुक्ति दिलाने के लिए हुआ है तो वह कल्याणधर्मी है. इसलिए विज्ञान को शक्ति बताने के बजाय ‘विज्ञान से सर्वकल्याण’ का नारा अधिक समीचीन रहता. उचित होता कि वे साहित्यकार और समाजकर्मी एकजुट होकर विज्ञान के लोकोन्मुखी उपयोग पर जोर देते. तब शायद कहीं वे विज्ञान की आमद के साथ देखे गए सपनों को पूरा करने में अधिक सार्थक भूमिका को अंजाम दे पाते. इसके लिए प्रेरणाएं बहुत थीं. पश्चिम में सुकरात ने ‘सदगुण को शुभ’ की संज्ञा दी थी. अरस्तु ने नैतिकता के मार्ग को ही सर्वोत्तम माना था. महाभारत में तो अरस्तु और सुकरात से शताब्दियों पहले लिखा जा चुका था, ‘न हि मानुषात् श्रेष्ठतरं हि किंचितः’ मनुष्य के लिए ‘मनुष्य से श्रेष्ठ कुछ भी नहीं है.’ विज्ञान को शक्ति का पर्याय मानने का ही परिणाम था कि आइंस्टाइन के आविष्कार के आगे अलेक्जेंडर फ्लेमिंग, एडबर्ड जेनर की उपलब्धियों की पर्याप्त चर्चा न हो सकती. जबकि फ्लेंमिग ने पेनसिलीन तथा जेनर ने चेचक की वैक्सीन का निर्माण कर दुनिया को जानलेवा महामारियों से बचाने में मदद की थी. करोड़ों लोगों को उससे लाभ मिला. आज भी वे दोनों आविष्कार करोड़ों लोगों को स्वाथ्य–लाभ देते हैं. आइंस्टाइन को सर्वाधिक चर्चा शायद इसलिए मिली, क्योंकि उनका आविष्कार ‘बड़ा धमाका’ कर सकता था. लोग उसके आविष्कार से भय खाते थे. वह भय वश जन्मा अनुराग था. कदाचित सामंती संस्कार, जो शक्ति के न्याय को ही अंतिम मान लेता है. आइंस्टाइन का आविष्कार बेकन की स्थापना कि ‘ज्ञान ही शक्ति है’ के अधिक निकट था. क्या इसके पीछे कोई साहित्यिक चूक रही? क्या उन साहित्यकारों की कमी रही, जो बेकन की परिभाषा को अंतिम मानते हुए वैज्ञानिक शोधों के समाजशास्त्रीय विश्लेषण से किनारा करते रहे? क्या इसके पीछे लेखकों का परंपरा और संस्कृति के पीछे अत्यानुराग था? जो मनुष्यता और मानव–कल्याण की भावनाओं को भी देश, संस्कृति और राज्य की सीमाओं के अनुसार परखता है. क्या इसी कारण वह आधुनिकता से प्राप्त ज्ञान–विज्ञान के साधनों का समयानुसार लाभ उठाने में विफल रहा? दरअसल यही वह चुनौती है जिससे हमारे साहित्यकारों को जूझना है. फिर वे चाहे परीकथा लेखक हों अथवा विज्ञान लेखक. उन्हें मान लेना चाहिए कि वे पहले साहित्यकर्मी हैं, विधाओं और लेखन की धाराओं का अंतर बाद में आता है. इसलिए यदि कोई परीकथा लिखना चाहता है तो उसको चाहिए ऐसा लिखे कि उसकी रचना में पर्याप्त विज्ञानबोध हो; और यदि विज्ञानकथा लिखना चाहता है तो उसके लिए रचना को परंपरा, संस्कृति और संवेदना के साथ–साथ मनुष्यता से जोड़े रखना बेहद जरूरी है. परीकथा, विज्ञानकथा और विज्ञानगल्प में समानता है कि ये तीनों मनुष्य का स्वप्नलोक रचने में सहायक होते हैं. केवल उनकी प्रकृति का अंतर है. परीकथाएं उस दौर के समाज का प्रतिनिधित्व करती हैं जब सामाजिक आचार–संहिता पूरी तरह धर्म से नियंत्रित होती थी. धार्मिक मिथकों, परंपराओं से प्रेरित परीकथाएं जनसाधारण की भावनाओं, सपनों और आकांक्षाओं को अभिव्यक्त करती हैं. एक तरह से वे धार्मिक विधान के भीतर ही अपने लिए स्वप्नलोक का निर्माण करना चाहती हैं. इस कोशिश में कहीं–कहीं वे धर्म के मायावाद का शिकार भी नजर आती हैं. चूंकि धर्म सामंतवादी समाज की खोज है, इसलिए परीकथाओं की संरचना पर सामंती प्रभाव स्पष्ट नजर आता है. उनमें हमें ऐसे समाज के दर्शन होते हैं, जिसमें आर्थिक–सामाजिक और राजनीतिक वैषम्य को शास्त्रीय मान्यता प्राप्त थी. ऐसे में अधिकार वंचित वर्ग का स्वप्नलोक अपने लिए न्यूनतम आजादी, समानता और सुख–सुविधाओं की अपेक्षा तक सीमित रह जाता है. समान नागरिक संहिता जैसा कोई सपना उस समाज का नहीं था, इसलिए समस्याओं के समाधान भी उसकी तय आचार संहिता के अनुसार ही प्राप्त होते थे. परीकथा में उदार एवं कृपालु परी की अनुकंपा नायक और नायिका पर अलग–अलग होती थी. कथानायक यदि लड़का है तो परी उसे जादुई मदद द्वारा किसी छोटे–मोटे राज्य का राजा बना देती थी. लड़की होने पर परी का काम कदाचित आसान था. राजकुमारी की सामान्य लालसा किसी सुंदर, सजीले, बहादुर राजकुमार की अर्धांगिनी बनने तक सीमित रहती थी. इसके लिए राजकुमार स्वयं प्रयासरत रहता था, इसलिए परी का काम राजकुमारी को प्रतीक्षारत छोड़कर अथवा उसके लिए सुंदर वस्त्रों, आभूषणों का प्रबंध कर देने मात्र से कार्य सध जाता था. पाठक इतने से संतुष्ट हो जाता था, हालांकि इसकी बहुत बड़ी कीमत स्त्री को अपनी स्वतंत्रता के रूप में चुकानी पड़ती थी. जातीय आधार पर विभाजित समाज में सभी वर्गों की भूमिका तय थी. इसलिए परिवर्तन का सपना देखनेवाले साधारण पृष्ठभूमि को अपने महत्त्वाकांक्षाओं को साधने के लिए वर्गीय उत्क्रमण की प्रतीक्षा भी करनी पड़ती थी; और वह केवल चमत्कार में ही संभव था. दूसरे शब्दों में राजनीतिक अधिकारों के भोग हेतु नायक द्वारा आवश्यक शक्ति अथवा किसी चमत्कार के माध्यम से अपने वर्ग का उत्क्रमण कर, तत्कालीन राजनीतिक अधिकार संपन्न वर्ग में सम्मिलित होना आवश्यक था. उसके आसपास के लोगों को राजनीतिक अधिकारों में सीधी हिस्सेदारी के बजाए या तो अपनी नियति से समझौता करना पड़ता था, अथवा ऐसे ही किसी चमत्कार की प्रतीक्षा करती पड़ती थी जो उनका उत्क्रमण करा सके. नायक–नायिका के सीधे हित अथवा उनके महिमा–मंडन के अवसरों से इतर, प्रजा का उल्लेख परीकथा में आवश्यक न था. उसकी कहानी नायक–नायिका से आरंभ होकर उन्हीं पर समाप्त हो जाती थी. समाज में कार्य–विभाजन का आधार जाति–व्यवस्था थी. कृषि भूमि राज्याधीन. इसलिए किसान, मजदूर, छोटे–मोटे दस्तकार और व्यापारियों की आय उतनी नहीं थी कि उसके आधार पर वे आर्थिक आत्मनिर्भरता का सपना देख सकें. इस कारण परीकथाओं में एक स्वप्नलोक आर्थिक आत्मनिर्भरता का भी था, जिसका रास्ता पुनः चमत्कारों के रास्ते जाता था. समस्या के निदान के लिए परी छड़ी हिलाकर खजाने के ढेर लगा देती अथवा किसी अन्य चमत्कार के बहाने कोई छिपा हुआ खजाना नायक–नायिका के बदले वर्तमान और भविष्य की प्रतीति करा देता था. कह सकते हैं कि परीकथाएं जनसाधारण के रोजमर्रा सपनों की उड़ान हैं. उन्हें नाउम्मीद भरे वातावरण में, स्थितियों से समझौता कर चुके समाज की शरण–स्थली भी कही जा सकती हैं. विज्ञान का जन्म ही परंपरा के प्रति संदेह के साथ हुआ था. धर्म जहां जीवन की समस्याओं का अंतिम निदान मोक्ष में खोजता था, वहीं वैज्ञानिकों का परम लक्ष्य इस भौतिक संसार में ही, अपने पुरुषार्थ द्वारा मोक्ष जैसी स्थिति उत्पन्न कर संपूर्ण मनुष्यता का कल्याण करने का रहा है. विज्ञान मानता है कि सृष्टि में कुछ भी अनुपयोगी या अशुभ नहीं है. न ही कुछ ऐसा है जिसका उपयोग मनुष्य के लिए निषिद्ध हो. जिसकी अनुभूति होती है, उसका अस्तित्व भी है. जिसका अस्तित्व है, प्राणिमात्र की कल्याण–भावना के साथ उसका उपयोग करना पुरुषार्थ है. जीवन को सुखी बनाना प्रत्येक व्यक्ति का अधिकार है. उसके लिए कोई भी कार्य जिससे दूसरों को प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष किसी प्रकार की हानि न पहुंचे, करने की आजादी व्यक्ति–मात्र को मिलनी चाहिए. उल्लेखनीय है कि विज्ञान का विकास उस दौर में हुआ, जब समाज में प्रसुप्त अस्मिताएं सिर उठाने लगी थीं. नए विचारों की रोशनी में समाज में बराबरी के सपने जगे, तब लगा कि विज्ञान भी चमत्कार कर सकता है. इसलिए कहानी में जो कार्य पहले जादू से किया जाता था, वह तकनीक की सहायता से किया जाने लगा. लोगों को जागरूक और चैतन्य बनाने के लिए भी विज्ञानलेखन की जरूरत महसूस की गई थी. उसके लिए अनेक प्रतिभाशाली लेखक आगे आए. विज्ञान ने उन लोगों को सपने देखने का अवसर दिया जो साधनविहीन थे. जिनकी पूंजी केवल उनका श्रम था; जो अभी तक दूसरों पर आश्रित जीवन जीते आए थे, जिन्हें धर्म, जाति अथवा किसी अन्य व्यवस्था में सीधे हस्तक्षेप तथा अन्य अवसरों से वंचित किया गया था, उनके समर्थन में अनेक उदारवादी चिंतक, लेखक और कार्यकर्ता थे. सभी की आंखों में समरस समाज का सपना था. उनका मानना था कि विज्ञान ने अपने आगमन के साथ जो सपने लोगों को दिखाए गए थे, एक–एक कर वे सभी झूठे सिद्ध हुए हैं. यह वर्ग निराश अवश्य था, किंतु हताश नहीं हुआ था. विज्ञान और प्रौद्योगिकी के सहयोग से स्वप्नलोक बसाने का उसका सपना, धरती पर अथवा धरती से परे, ऐसे लोक का सपना था, जहां श्रम का सम्मान हो. सभी कष्टकारी कार्य तकनीक की सहायता से संपन्न होते हों. जीवन खुशहाल, सभी बराबर और निरोग हों. विज्ञान पर अत्यधिक निर्भरता प्राणिमात्र एवं पर्यावरण के लिए कितनी हानिकर हो सकती है—इस प्रकार की चिंताएं भी उनकी रचनाओं में जगह लेती थीं. विज्ञानकथाओं और विज्ञानगल्प को लोकप्रिय बनाने में इसी सपने का योगदान रहा. यह लोकप्रियता इतनी बढ़ी कि विज्ञानगल्प को गल्प का पर्याय मान लिया गया. तकनीक के कंधे चढ़ा मौलिक और कल्पनाप्रधान विज्ञानगल्प, आधुनिक व्यावसायिक सिनेमा की पहचान बन गया. आदर्श समाज की स्थापना का ऐसा ही सपना परीकथाओं का भी रहा है. अपने स्वप्नलोक की खोज की यात्रा विज्ञान कथाकार को पृथ्वी से इतर किसी अन्य गृह, नक्षत्र पर भी ले जा सकती है. परीकथाएं सामाजिक जीवन के अपेक्षाकृत निकट बनी रहती हैं.वे स्वस्थ–संपन्न सामाजिकता में अपना सार्थक पाती हैं. जीवन के लिए अनुकूल स्थितियों की कल्पना करते हुए वे पाठक को परीलोक ले जाती हैं, जहां मानवीय कल्पना साकार होती है. चूंकि प्राचीनकाल में यह माना जाता था कि देवलोक देवताओं का ठिकाना है, वहां केवल देवानुकंपा से जाया जा सकता है. दूसरा पाताल लोक, वहां राक्षसों का साम्राज्य है. इस कारण वह भी मनुष्य के लिए अनुपयुक्त है. अतः मृत्य मानव के लिए केवल मृत्युलोक है. केवल पृथ्वी जहां अनेकानेक चुनौतियां हैं, उसका ठिकाना हो सकती है. इसलिए मनुष्य ने कल्पना की एक और दुनिया गढ़ी, परीलोक. पृथ्वी और स्वर्ग के बीच का खूबसूरत ठिकाना. और मनुष्य को वह कल्पना इतनी पसंद आई की पीढि़यों का सपना बन गई. हालांकि सब कुछ वायवी, सुंदर सपने की तरह होने के कारण परीलोक का महत्त्व सैर–सपाटे से अधिक न था. परीकथा पूरी होते ही उसका स्वप्नलोक भी बिखरने लगता था. इसके बावजूद उस कल्प–कृति का महत्त्व बना रहा. इसलिए कि संघर्ष से जूझते, निराश अथवा महत्त्वाकांक्षाओं के घोड़े पर सवार मनुष्य को भी, कल्पना की वह रम्य–स्थली थोड़े आराम का अवसर दे देती थी. ताकि वहां कुछ पल गुजारकर वह जीवन के नए सफर की ओर नई ऊर्जा के साथ प्रयाण कर सके. परीकथा पूरी होते ही मनुष्य वापस अपनी दुनिया में लौट जाता है. कदाचित अपनी दुनिया को परीलोक जैसा सुंदर–सार्थक बनाने का स्वप्न लेकर. दूसरे लोक की यात्रा के प्रसंग पुराकथाओं में भी हैं. मर्त्य सम्राट देवताओं की मदद के लिए स्वर्ग यात्रा करते रहते थे. विज्ञानगल्प में इस सपने को विस्तार मिला कि पृथ्वी से इतर अंतरिक्ष में भी स्थायी बस्तियों का निर्माण संभव है. ऐसी बस्ती जहां सभी बराबर हों. जहां सभी सुविधाएं यंत्रों द्वारा संभव हों. नागरिकों में पर्याप्त सामाजिक बोध हो. पुलिस, कानून, अदालतों की जहां आवश्यकता ही न पड़ती हो. आशय है कि आदर्शलोक चाहे वह परीकथाओं के माध्यम से देखा गया सपना हो अथवा विज्ञान की मदद से, दोनों लगभग एक–जैसे ही थे. अंतर केवल उस आदर्शलोक के सपने को साकार करने के माध्यम पर था. विज्ञानगल्प द्वारा कल्पित आदर्शलोक मनुष्य के अपने बुद्धि–विवेक, पुरुषार्थ, मैत्री, वैज्ञानिक दक्षता और सहयोग–भावना पर टिका हुआ था. जबकि परीलोक की व्यवस्था परामानवीय शक्तियों अथवा चामत्कारिक अनुकंपा पर टिकी थी. एक खूबसूरत सपने की भांति, परीलोक में जरूरत की सभी वस्तुएं सहज हासिल की जा सकती हैं. लेकिन वहां की व्यवस्था के केंद्र में परियों की रानी होती थी. एक तरह से परीलोक आदर्श, उदार राज्य की छवि प्रस्तुत करता है. विज्ञानलोक में आमतौर पर वैज्ञानिक सर्वेसर्वा होते हैं. प्रायः मान लिया जाता है कि यदि सभी खुशहाल होंगे, अवसरों में सब की समान भागीदारी होगी तो राज्य नामक संस्था की जरूरत ही नहीं पड़ेगी. इसलिए विज्ञान के आदर्शलोक को ‘बिना राजा का राज्य’ भी मान सकते हैं. हालांकि नकारात्मक सोच लिए कोई वैज्ञानिक ऐसा लोक भी गढ़ सकता है, जहां एकदम विपरीत परिस्थितियां हों. उस लोक का सर्वेसर्वा विज्ञान की ताकत के बल पर पूरी दुनिया पर काबिज होने का सपना देखता हो. विज्ञानगल्पों में ऐसे वैज्ञानिक को खलनायक मान लिया जाता है. कह सकते हैं कि विज्ञान गल्प में अकेले व्यक्ति की अति महत्त्वाकांक्षाओं के स्थान पर, लोककल्याण के साथ देखे गए सपनों को वरीयता प्राप्त होती है. इस तरह विज्ञानलोक का आदर्श, वहां की लोकतांत्रिक अथवा ‘बिना राजा के राज्य’ जैसी व्यवस्था परीलोक के उदार राज्य की अपेक्षा आधुनिकता के निकट अनुभव होती है. परंतु क्या सचमुच ऐसा ही है? विज्ञानसाहित्य जिस प्रकार के आदर्शलोक का सपना हमारे समक्ष प्रस्तुत करता है, क्या वह सचमुच लोकतांत्रिक अथवा अ–राजक है? इसके लिए हमें आधुनिक विज्ञान साहित्य के कुछ विशिष्ट पहलुओं पर विचार करना होगा. ‘दि टाइम मशीन’ जैसे चुंनीदा मौलिक विज्ञान उपन्यासों को छोड़कर अधिकतर के कथानक चंद स्थितियों के इर्द–गिर्द घूमते हुए नजर आएंगे. अधिकांश से बेकन की आत्मा झांकती हुई नजर आएगी, लगभग नब्बे प्रतिशत विज्ञानगल्प या तो यात्रा अभियान हैं; अथवा किसी वैज्ञानिक महत्त्वाकांक्षा के दुष्परिणाम की कथायात्रा. यात्रा अभियान पृथ्वी के दुर्गम स्थानों के हो सकते हैं और अंत:ग्रही भी. वे किसी उदार वैज्ञानिक के प्रयोग के दुष्परिणाम भी हो सकते हैं, अथवा किसी दुष्ट वैज्ञानिक के दुनिया पर छा जाने के पागलपन के भी. इसकी नींव मेरी शैली की कृति ‘फ्रेंकेस्टीन’, जिसे प्रथम वैज्ञानिक उपन्यास का दर्जा दिया गया है, के साथ ही पड़ चुकी थी. फ्रेंकेस्टीन में एक वैज्ञानिक मरे हुए प्राणियों को पुनर्जीवित करने का फार्मूला खोज लेता है. ‘फ्रेंकेस्टीन’ ऐसी ही रचना है, जिसमें ‘राक्षसी ताकत’ है. विज्ञान लेखकों का दूसरा सबसे पसंदीदा विषय यात्रा–अभियान और उसमें भी अंतरिक्षीय अथवा अंतग्र्रही यात्राओं का रहा है. जूल बर्न के उपन्यासों से लेकर ‘आश्चर्य वृतांत’(अंबिकादत्त व्यास), ‘चंद्रलोक की यात्रा’(केशवप्रसाद सिंह), डा. हरिकृष्ण देवसरे के ‘ला–वेनी’, ‘राजू की मंगल यात्रा’, ‘लूशियन का रहस्य’ जैसे उपन्यास अंतरिक्ष यात्रा को लेकर लिखे गए हैं. आशय है कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो लगभग सारा का सारा वैज्ञानिक साहित्य विज्ञान को शक्ति का पर्याय सिद्ध करने की कोशिश करता है. परीकथाओं में जो कार्य जादू, टोने या राक्षसी वृत्ति द्वारा किया–कराया जाता था, विज्ञानकथाएं ऐसे असंभव दिखने वाले कार्य को ज्ञान–विज्ञान के माध्यम से संभव होते हुए दिखाती हैं. वे ज्ञान का मिथकीकरण करने में योगदान करती हैं. दरअसल जब हम शक्ति, विशेषकर किसी व्यक्ति, प्राणी अथवा मशीन को लेकर अकूत शक्ति की बात करने लगते हैं तो समाज को अनायास ही शक्तिसंपन्न और शक्तिहीनों में बांट देते हैं. तब अनचाहे ही समाज में मोटी रक्षा खिंच जाती है. उसके एक ओर वे होते हैं, जो शक्ति संपन्न हैं, दूसरी ओर शक्ति से वंचित. दोनों का टकराव कथानक को आगे बढ़ाने के काम लाता है. और जब समाज बंटा हुआ हो, उसमें मोटी रेखाएं खिंची हुई हों, तो वह लोकतांत्रिक हो ही नहीं सकता. यानी विज्ञान साहित्य के नाम पर लिखित रचनाएं, रचनाओं में दर्ज उनके आदर्शलोक लोकतांत्रिक होने का दिखावा भले ही करें, उनका संदेश लोकतंत्र के आदर्श से दूर रह जाता है. हालांकि विज्ञान में लोकतांत्रिक होने की भरपूर संभावना होती है, मगर विज्ञान को धर्म मान लेने वाले साहित्यकार प्रायः विज्ञानबोध से कटे होते हैं. इसलिए वे साहित्य की आत्मा के साथ न्याय करने में असफल सिद्ध होते हैं. विज्ञान का रूप कल्याणकारी हो सकता है, ज्ञान–विज्ञान को लेकर साधारण आदमी की दृष्टि से भी सोचा जा सकता है, या सोचा जाना चाहिए, उस ओर हमारे विज्ञान लेखकों की प्रायः दृष्टि ही नहीं जा पाती. लालच, विज्ञान के प्रति नासमझी, यश–प्रतिष्ठा अथवा किसी ओर कारण से, विज्ञान साहित्य का जो स्वरूप इससे बनता है, वह परंपरागत परीकथा साहित्य से कतई भिन्न नहीं है. विज्ञान गल्प में लेखक उन लोगों को जो पृथ्वी से परे की यात्रा करने में सक्षम हैं, एक अलग काल्पनिक दुनिया बसा लेता है. मगर ऐसे आदर्शलोक का यात्री चाहे पाठक हो या कथापात्र, हमेशा यह याद रखता है कि एक पिछड़ी हुई, अवैज्ञानिक किस्म की दुनिया, धरती पर मौजूद है. इससे उसमें अभिजन संस्कार पनपने लगता है और वह स्वयं को जनसमाज से भिन्न, उससे श्रेष्ठ सिद्ध करने में जुटा रहता है. इस तरह विज्ञान का आदर्शलोक पीछे हमने जिसे ‘बिना राजा का राज्य कहा है, अभिजातों की रम्यस्थली बन जाता है. बहरहाल, विज्ञान जिस तरह से पांव पसार रहा है, उससे इस बात की पर्याप्त संभावना है कि कल्पना की यात्रा आगे और भी तीव्र होने वाली है. यह विरूपित होगी या सही दिशा की ओर लौटेगी, यह लेखकों, समाज–शास्त्रियों, साहित्यकारों और आलोचकों पर निर्भर करेगा. इस बात पर भी निर्भर करेगा कि वे स्थितियों की व्याख्या सत्ता द्वारा निर्धारित अथवा उनके अनुकूल दिखनेवाली कसौटियों के आधार पर करते हैं; अथवा उनकी दृष्टि समाजोन्मुखी, बहुसंख्यक के हित को समर्पित होगी. ऐसे में परीकथाओं का क्या होगा? प्रौद्योगिकीय आकर्षण ने विज्ञान लेखकों को भटकाया है तो परीकथाओं को विरूपित करने में भी उसने कोई कमी नहीं छोड़ी है. यह प्रवृत्ति आज की नहीं है. 1847—1848 में जब छायाकार जार्ज क्रुकशंक ने शराब के दुष्परिणामों को जन–जन तक पहुंचाने के लिए, लोकप्रिय परीकथाओं के मुख्य चरित्रों का उपयोग शराब की बोतलों के लेवल डिजायन के लिए किया, तो उस शताब्दी के महान उपन्यासकार चाल्र्स डिकेंस ने उसका जोरदार विरोध करते हुए एक महत्त्वपूर्ण लेख ‘फ्रा॓ड आ॓न फेयरीटेल्स’ लिखा था. आगे चलकर वह लेख हेंस एंडरसन जैसे अनेक परीकथा लेखकों की प्रेरणा बना. ऐसे प्रसंग गिने–चुने होंगे. सच यही है कि विज्ञान और तकनीक को जो दिशा लेखकों, साहित्यकारों, वुद्धिजीवियों और समाज–शास्त्रियों की ओर से मिली चाहिए थी, उसका अभाव रहा है. शायद इसलिए कि आधुनिक मनुष्य प्राचीनता एवं आधुनिकता के बीच तालमेल बनाने में असफल सिद्ध हुआ है. विकास का लालच नई प्रौद्योगिकी को आकर्षित करता है तो परंपरा और संस्कृति के दबाव उसको पीछे की ओर ढकेलते हैं. जिस कंप्यूटर से वह बड़ी–बड़ी गणनाएं करता है, योजनाएं बनाता है, उसी कंप्यूटर का उपयोग ‘ज्योतिष’ और ‘कुंडली मिलान’ के लिए भी करता है. इनमें से पहले के लिए विज्ञान तर्क देता है, दूसरी के लिए आस्था. हालांकि ये व्यक्ति और समाज दोनों की स्वाभाविक गतियां हैं. विकास की प्रक्रिया दो कदम आगे और एक कदम पीछे हटते हुए आगे बढ़ती है. विकास–धारा अवरुद्ध न हो, इसके लिए अनुकूल प्रेरणाओं की जरूरत हमेशा बनी रहती है. आधुनिक विज्ञान लेखक माक्र्स को भले ही न मानें, मगर उसका ‘द्वंद्वात्मक भौतिकवाद’ किसी न किसी रूप में उनकी रचनाओं पर छाया रहता है. उनमें अच्छे और बुरे की बीच सपाट विभाजन होता है; यानी एक और सभी अच्छे मान लिए जाते हैं, दूसरी ओर सभी बुरे. उस व्यवस्था में न्याय की एक ही संभावना बनती है. अच्छे द्वारा बुरे का अंत. दोनों के बीच संवाद या समझौते की स्थितियां भी हो सकती हैं, किंतु उसपर आधुनिक विज्ञान–लेखन विचार ही नहीं करता. कुछ ऐसा ही परंपरागत परीकथाओं में भी होता है. यद्यपि नए चलन की परीकथाएं इस आरोप से बाहर आने को उत्सुक हैं. उनमें नायक की सराहना इसलिए की जाती है, क्योंकि वह समाज द्वारा स्थापित मान्यताओं के समर्थन में रहता है. जबकि खलनायक सामाजिक नियमों, व्यवस्थाओं को कदम–कदम पर चुनौती देता है. रचना में विचित्रता की चाहत विज्ञान लेखकों को कई बार परीकथाओं और मिथकीय पात्रों की ओर ले जाती है. इससे परीकथा और विज्ञानकथा की दूरी घटती जाती है. प्रथम विज्ञान उपन्यास ‘फ्रेंकिस्टीन’ से लेकर आधुनिक विज्ञानगल्पों तक यही स्थिति है. फिल्मों में भी ‘ही मेन’, ‘स्पाइडर मेन’, ‘शक्तिमान’, बैटमेन, ‘रा–वन’, ‘रोबोट’ जैसे चरित्र पुराकथाओं और/या परीकथाओं से चरित्रों का आयात करने के बाद ही गढ़े गए हैं. विज्ञान लेखक भले ही कहते फिरें कि आज का बालक समझदार है, परियों, बौने, भूत–प्रेत, तंत्र–मंत्र की हकीकत को जान चुका है. समझता है कि ये सब कल्पना की उड़ान हैं, लेकिन जब स्वयं चरित्र गढ़ने की बात आती है, तब उनकी कल्पना भी वहीं से प्रेरणा ग्रहण करती है, जिसे वे पुराना, पोंगापंथी और दकियानूसी बताते हैं. पुराकथाओं और परीकथाओं के चरित्र, बदले नाम–रूप में ‘असंभाव्य को संभव’ दिखाने के कथा–कौशल के बीच, तथाकथित विज्ञान–साहित्य में आसानी से खपा लिए जाते हैं. परीकथा लेखक इस बारे में अपेक्षाकृत ईमानदारी बरतता है. उसका ध्यान केवल मनोरंजन तथा रचना द्वारा मिलनेवाले संदेश तक सीमित होता है. पात्रों की वास्तविकता का उसका कोई दावा नहीं होता. जबकि विज्ञानगल्प में पुराकथाओं के चरित्रों को इस रूप में प्रस्तुत किया जाता है कि ये आज भले ही काल्पनिक लगें, कल उन्हें प्रयोगशाला में गढ़ा जा सकता है. कई बार तो उन्हंे प्रयोगशालाओं में गढ़ा हुआ दिखाया भी जाता है. ‘डायनासोर’ नामक हालीवुड की फिल्म में वैज्ञानिकों को डायनासोर के जीवाश्म से प्राप्त डीएनए द्वारा सचमुच का डायनासोर गढ़ते हुए कल्पित किया गया है. परीकथाएं भी रक्तबीज जैसी कल्पनाओं को सहेजे रखती हैं. ऐसे पात्रों को वे राक्षस या ऐसा ही कोई नाम दे देती हैं. सामान्य विज्ञानबोध और तार्किकता के अभाव में विज्ञानगल्प, परीकथाओं के साथ उलझी हुई नजर आने लगती हैं. पात्रों की भिन्नता के बावजूद उनमें वास्तविक अंतर बहुत कम रह जाता है. परीकथाओं की आत्मा किस्सागोई में बसती है. इधर जीवन में दिनों–दिन बढ़ती व्यस्तता के बीच किस्से सुनने–सुनाने की परंपरा लुप्तप्रायः हो चुकी है. तो क्या साहित्य की यह रेशमी, खूबसूरत विधा एक दिन दमतोड़ लेगी? अथवा जिस तरह विज्ञानगल्पों में सीधे–सीधे या घुमा–फिराकर मिथकों और परीकथाओं के चरित्रों का उपयोग किया जा रहा है तथा परीकथाओं में नए–नए प्रयोगों का सिलसिला चल रहा है, उससे भविष्य में दोनों का अंतर और भी तेजी से कम होता जाएगा? यह सब तो भविष्य ही तय करेगा. लेकिन जिस प्रकार असमान विकास के कारण गांव और शहर के बीच खाई बढ़ती जा रही है. गरीबी–अमीरी अनुपात में लगातार इजाफा हो रहा है—उससे इतनी उम्मीद तो बनती है कि एक वर्ग के लिए परीकथाएं आगे भी उसका स्वप्नलोक बनी रहेंगीं. चूंकि उपभोक्तावादी मानसिकता का दौर अभी लंबा खिंचना है, ग्रामीण और सुदूर अंचल में बसे जनसमाजों में अपनी पैठ बनाने के लिए सिनेमा, दूरदर्शन, इंटरनेट आदि उनकी कहानियों तथा अन्य कथा–प्रतीकों का जमकर उपयोग करेंगे, इससे यह भी तय माना जा सकता है कि दोनों के चरित्र परस्पर गड्ड–मड्ड होते जाएंगे. चूंकि आधुनिकता के तमाम आग्रहों के बावजूद मनुष्य परंपरागत मिथकों से किसी न किसी रूप में जुड़ा रहता है, इसलिए जनसमाज में अपनी पैठ बनाने के लिए, व्यावसायिक कारणों से ही सही, विज्ञानगल्प आगे भी परीकथाओं के मिथकीय चरित्रों का बड़ा आयातक सिद्ध होगा. जिस तरह संचार–क्रांति ने दूरियों को पाटा है. सिनेमा, दूरदर्शन के अलावा इंटरनेट, मोबाइल फोन, कंप्यूटर आदि संप्रेषण के माध्यम के रूप में उभर कर आए हैं, उससे कहानियां पढ़ने–सुनने से अधिक देखने की चीज बनती जा रही हैं. बदले परिवेश में लेखकीय कौशल की महत्ता घटी है. कुछ दशकों पहले आई फंतासीनुमा फिल्मों ‘स्पाइडर मेन’, बैटमेन, रा–वन आदि के मुख्य पात्रों की कल्पना परीकथाओं से प्रेरित थी. मगर उनमें तकनीक का इतना प्रयोग किया गया कि उनमें कथानक की संवेदना, जो परीकथाओं की प्रमुख विशेषता और साहित्य का गुण है, लगभग समाप्त–सी हो गई. अमिताभ बच्चन अभिनीत भूतनाथ शृंखला की फिल्म ‘भूतनाथ’ 2008 में आई थी. वह फिल्म आस्कर वाइल्ड की परीकथा ‘दि केंटरविले घोस्ट’ पर आधारित थी. उसकी अगली कड़ी ‘भूतनाथ रिटर्नस’ केवल फंतासी है. भूत उसमें भी है, मगर उसका चरित्र परिवर्तन किया गया है. फिल्म का भूत खलनायक न होकर नायक है. पृथ्वी पर पहुंचने के बाद वह भारत की राजनीति तथा सामाजिक जीवन में व्याप्त भ्रष्टाचार, लापरवाही को देखकर इतना उद्वेलित होता है कि अपने लोक वापस लौटने का इरादा छोड़कर स्वयं चुनाव लड़ने का निर्णय ले लेता है. निर्वाचन नियमों की खामी का लाभ उठाकर वह टिकट पाने में सफल भी हो जाता है. कहानी में भ्रष्टाचार मुक्त राजनीति और अपने अधिकारों के प्रति सचेत जनता के स्वप्नलोक को गढ़ा गया है. मुंबइया फिल्म ‘एंटरटेनमेंट’ भी लोकतत्व पर आधारित है. उसमें एक अमीर आदमी कुत्ते को अपना वारिस बनाकर मर जाता है. कुत्ता जिस तरह के कारनामे दिखाता है, उससे एक श्रेष्ठ गल्प की संभावना बनती है. हिंदी के एक युवा ब्लाॅगर ने पिछले दिनों विज्ञान गल्प के नाम पर एक धारावाहिक उपन्यास लिखा. उसमें एक ओर गणित की बारीकियां थीं, विज्ञान के आधुनिकतम उपकरणों और शोधों की ओर संकेत था, वहीं चैंकानेवाली चीज उसमें राक्षस की उपस्थिति थी, जो किसी परीकथा से निकलकर विज्ञानगल्प में जा बैठा था. बहरहाल, परीकथा और विज्ञानगल्प के बीच यह सामान्य किंतु अनपेक्षित लेन–देन है. सामान्य इसलिए क्योंकि मनुष्य अपने अतीत को भूल नहीं पाता. भविष्य के लिए योजना–निर्माण तथा वर्तमान की चुनौतियों से निपटने के लिए वह अपने ज्ञानानुभव के साथ–साथ वह पीढ़ी–दर–पीढ़ी चले आ रहे संस्कारों भी प्रेरणा लेता है. इसलिए विज्ञानकथा और परीकथाओं के संलयन पर लेखकों और आलोचकों के चाहे जो विचार हों, इतना तय है कि दोनों कथा–धाराओं के बीच लेन–देन की प्रवृृत्ति आगे भी बनी रहेगी. और जैसा कि संकेत किया गया है, इस आदान–प्रदान में विज्ञानगल्प परीकथाओं की अपेक्षा बड़ा ग्राहक सिद्ध होगा. यद्यपि वह प्रायः उन्हीं चरित्रों को उधार लेने को उत्सुक होगा, जो परीकथाओं में पुराकथाओं से आयातित हैं तथा लोकप्रिय मिथक के रूप में समाज में उनकी पूर्वप्रतिष्ठा है. इसलिए मौलिक और युगानुकूल परीकथाएं(विज्ञानगल्प भी) लिखनेवालों के लिए संभावना और चुनौती आगे भी बराबर बनी रहेगी. इससे परीकथाओं की महत्ता को आसानी से समझा जाता है. परीकथाओं के भविष्य को लेकर ऐसी ही आश्वस्ति चाल्र्स डिकेंस के शब्दों(फ्रा॓ड आ॓न फेयरीज) से भी झलकती है— ‘करुणा, सहिष्णुता, निर्बल और विपन्न के प्रति करुणा–भाव, जानवरों के प्रति ममता, प्रकृति से स्नेहानुराग, क्रूरता और आतंक के प्रति घृणा, नफरत जैसी अच्छी बातें बच्चे के हृदय में पहली बार परीकथाओं जैसी सशक्त विधा के माध्यम से ही प्रवेश करती हैं. सही मायने में वे हमें भटकाव के दौर में सही रास्ता दिखाती हैं, हमें अंधियारे रास्तों से बचाती हैं, और हमें उस सीधे–सादे रास्ते पर ले आती हैं जहां हम बच्चों के साथ उनकी उमंग और प्रफुल्लता के साथ साझा करते हुए घूम–फिर सकते हैं. उपयोगितावादी दौर और हरेक काल में, हमेशा इस बात पर जोर दिया गया है कि परीकथाओं का सम्मान किया जाना चाहिए. अतएव प्रत्येक मनुष्य जो इस विषय को भली–भांति समझता है, वह यह भी जानता है कि जहां तक सूरज की रोशनी जाती है वहां तक, बगैर किसी कल्पना, बगैर किसी रोमांस के कोई राष्ट्र पहले न तो कभी था, न हो सकता है, न ही होगा.’ परीकथाएं लोकानुभूतियों का दस्तावेज हैं. उसमें आमजन के सपनों, इच्छाओं, संघर्षों एवं पीड़ाओं की झलक मिलती है. बड़ी बात यह कि वे कठिन संघर्ष के बीच भी उम्मीद को बनाए रखती हैं. उनका यही गुण उन्हें मानव–सभ्यता से जोड़कर जीवन में लगातार प्रासंगिक बनाए रहता है. परीकथाओं के इन गुणों को आत्मसात् कर आधुनिक विज्ञान लेखन अपनी सामाजिक उपादेयता सिद्ध कर सकता है. दूसरी ओर विज्ञानकथाओं की तार्किकता एवं आधुनिक मूल्यबोध को अपनाकर, परीकथाएं भी अपने ऊपर लगनेवाले आरोपों से मुक्ति पा सकती हैं. उस दिन पुराने प्रकाशक मित्र के घर जाना हुआ. आजकल वे मंदी से जूझ रहे हैं. कारण अंदरूनी हैं. पहले प्रकाशन को दो भाई मिलकर चलाते थे. बाद में छोटे के मन में लालच उमड़ा. उसने नया प्रकाशन खोल लिया. वह पहले से जुड़े साहित्यकारों को अपनी ओर खींचने लगा. पुराना संस्थान घाटे में आ गया. अपनों की मार से कराह रहा व्यक्ति प्रायः भावुक हो जाता है. वे अपना दुखड़ा बयां कर ही रहे थे कि उनका पोता खेलता-खेलता कमरे में चला आया. जैसे अंधेरे कमरे में धूप ने दस्तक दी हो. चमत्कार की तरह उनके चेहरे का विषाद एकाएक धुल गया. उन्होंने पोते को गोद में उठा लिया— ‘कश्यप जी, कुल मिलाकर तीन साल का है. लेकिन बड़े से बड़ा वाक्य एक साथ बोल लेता है. पूरी तरह साफ. मानो डॉ…..शर्मा खुद लौट आए हों….’ उन्होंने नगर के चर्चित भाषा-विज्ञानी रह चुके अपने दिवंगत पिता का नाम लिया. बच्चे की बातें सुनकर मैं समझ चुका था कि वे गलत नहीं कह रहे. बालक सचमुच ही तेज है. मेरी निगाहें उसी पर टिकी थीं. किंतु मस्तिष्क पर ईशान छाया हुआ था. मेरा साढ़े तीन वर्ष का पोता. बच्चे की जन्मतिथि पूछकर मैं जान चुका था कि ईशान उससे चार महीना बड़ा है. और मैं यह कल्पना कर रहा था कि चार महीने पहले, यानी उस बच्चे की अवस्था में ईशान का व्यवहार कैसा था. दिमाग में चौकड़ी भरते स्पर्धा के अश्व, ईशान को उस बच्चे से आगे लिए जा रहे थे. बालक अभी भी अपनी धुन में मग्न था. प्रकाशक मित्र के चेहरे पर उमड़ा वात्सल्य और चमक बता रही थी कि उन्हें भी अपने पोते के निरालेपन पर गर्व है. यह सामान्य बात है. जीवन में ऐसे अनुभव अकसर होते रहते हैं. बच्चों की विलक्षण मेधा को लेकर सैकड़ों-हजारों कहानियां हमने पढ़ी हैं. शास्त्रों में नचिकेता, ध्रुव, सत्यकाम, उपमन्यु, अभिमन्यु, आरुणि उद्दालक आदि न जाने कितने विलक्षण प्रतिभाशाली और सूझ-बूझ संपन्न बच्चों का जिक्र है. पश्चिम में भी उदाहरण कम नहीं हैं. प्लेटो की विलक्षण मेधा के बारे में जन्म से ही भविष्यवाणी कर दी गई थी. जेम्स मिल ने अपने बच्चे की प्रतिभा को पहचाना था और जैसा उसे वह बनाना चाहता था, वैसा उसने किया. फलस्वरूप बेटा जॉन स्टुअर्ट मिल महान दार्शनिक बना. जन्म के समय हर बालक नचिकेता और अभिमन्यु की भांति ही प्रतिभाशाली होता है. जब वह दुनिया में आता है तो किसी भी प्रकार के पूर्वाग्रह से मुक्त होता है. सीधे प्रकृति के साथ उसका जुड़ाव होता है. उसके अतिरिक्त यदि किसी दूसरे से उसका अपनापा होता है तो उस स्त्री से जिसने उसको जन्म दिया है. इसलिए नहीं कि वह उसकी मां है. मां संबोधन के मायने क्या हैं, यह उसकी समझ में बहुत बाद में आता है. उससे पहले उसका संबंध प्राकृतिक होता है. मां उसे भोजन देती है. उसका लालन-पालन करती है. आवश्यकता पड़ने पर उसे सुरक्षा भी देती है. मां की गोद से वह परिवेश में झांकने की शुरुआत करता है. प्रकृति के अंश के रूप में अपने चारों ओर विस्तृत ब्रह्मांड को देखकर वह विस्मित होता है. यह विस्मय ही जिज्ञासा का मूल है. छोटे-से छोटा बालक अपने आसपास की वस्तुओं के बारे में जान लेना चाहता है. यह बचपन की स्वाभाविक प्रक्रिया है. चूंकि परिवेश की हरेक वस्तु बालक के लिए नई होती है, इसलिए वह उनमें से प्रत्येक को जान लेना चाहता है. न केवल दृश्य को, बल्कि दृश्यमान के पीछे जो अदृश्य कारण है, उसे जानने की भी उसकी जिज्ञासा होती है. फिर हमें हर बालक अजूबा क्यों लगता है? क्यों उसकी जल्दी से जल्दी सीखने की आकुलता हमें हैरत में डाल देती है? क्या इसलिए कि उसकी बातें हमें दुनियादारी से बाहर की लगती हैं. हमें लगता है कि बालक जो सोच रहा है, उसका यथार्थ से कोई संबंध नहीं है! यह अस्वाभाविक भी नहीं है. बालक की दुनिया हमसे स्वतंत्र होती है. वह अपनी स्वतंत्रता को बनाए रखना चाहता है. जबकि हमारी कोशिश होती है कि बालक जल्दी से जल्दी अपने दुनिया छोड़कर हमारी बिरादरी में सम्मिलित हो जाए. एक सीमा तक तो यह जरूरी भी है. बालक को जिस समाज में रहना है, उसके रीति-रिवाजों, परंपराओं और प्रवृत्तियों के बारे में उसको जानना ही चाहिए. लेकिन बड़े होने के नाते हमारी ओर से इतनी उदारता जरूरी है कि बालक को बजाय हमेशा सिखाते रहने के, उसे समझने और आवश्यकतानुसार कुछ सीखने की इच्छा भी रखें. इसके बावजूद बालक की दुनिया को जाने बिना, बगैर उसकी मौलिकता का सम्मान किए, उसपर अपनी परंपराएं लाद देने की माता-पिता की कोशिशें उसके जन्म के साथ ही आरंभ हो जाती है. इस मामले में हमारा उतावलापन कमाल का होता है. बालक जब शैशवावस्था में होता है, तभी हम उसकी दुनिया को वस्तुओं से, उन वस्तुओं से जिनके बारे में हमें बताया जाता है कि वे बालक की पसंद से जुड़ी हैं, भर देना चाहते हैं. बालक की रुचि और उसकी जिज्ञासा पर हम उतना ध्यान नहीं देते, जितना किसी न किसी रूप में अपनी पसंद की वस्तुओं को उसपर लादने पर. बालक घर की पुरानी चीजों से, कबाड़ से खेलना चाहता है, हाथ में कलम या पैंसिल आ जाए तो वह उससे दीवार पर आड़ा-तिरछा कुछ बना देना चाहता तो उससे हमें असुविधा होती है. हम उसको ‘गंदी बात’ कहकर बरजते रहते हैं. बालक निरुत्साहित होकर अपनी भावनाओं को छिपाने लगता है. कुछ बच्चे भीतर-ही-भीतर घुटने लगते हैं. नतीजा यह होता है कि जन्म के कुछ महीने बाद ही बालक अपनी मौलिकता खोने लगता है. बालक और उसके माता-पिता एक ही परिवेश में साथ-साथ रहते हैं. लेकिन परिवेश को देखने की दोनों की दृष्टि अलग-अलग होती है. बालक के लिए उसकी जिज्ञासा और कौतूहल महत्त्वपूर्ण होते हैं. इसलिए वह परिवेश के प्रति बोधात्मक दृष्टि रखता है. उसकी उत्सुकता एक विद्यार्थी की उत्सुकता होती है. माता-पिता सहित परिवार के अन्य सदस्यों की दृष्टि बाह्यः जगत को उपयोगितावादी नजरिये से देखती है. वे वस्तुओं को जानने से ज्यादा उन्हें उपयोग करने के लिए अपने साथ रखते हैं. आसान शब्दों में कहें तो वस्तु जगत के प्रति बालक और बड़ों की दृष्टि में दार्शनिक और व्यापारी जैसा अंतर होता है. लोकप्रिय संस्कृति में बाजी सामान्यतः व्यापारी के हाथ रहती है. उसका नुकसान ज्ञानार्जन के क्षेत्र में मौलिकता के अभाव के रूप में सामने आता है. बालक और उसकी जिज्ञासा वृत्ति के आकलन के बहुस से तरीके हैं. तीन-चार वर्ष का बालक अपने माता-पिता, सगे-संबंधियों से औसतन 450 सवाल प्रतिदिन पूछता है. उत्तर मिल जाता है तो जानने की इच्छा और भड़कती है. प्रत्येक प्रश्न अपने साथ पुनः कुछ नए प्रश्न लाता है. हर सवाल के साथ उसकी जिज्ञासा कुलांचे भरती रहती है. वह सवाल के भीतर से सवाल निकालता है. उत्तर न मिले तो मायूस हो जाता है. भीतर उमगते कौतूहल के समाहार के लिए वह फिर सवाल करता है. यदि बार-बार पूछने पर भी प्रश्नों के उत्तर न मिलें तो उसकी प्रश्नाकुलता दम तोड़ने लगती है. बड़ों के साथ यह बात नहीं होती. उन्हें यह भ्रम होता है कि उन्होंने ‘जो कुछ जानने योग्य था, वह जान लिया है.’ इसी के साथ वे अपनी जिज्ञासावृत्ति से पीछा छुड़ा लेते हैं. अपनी बंधी-बधाई दिनचर्या में वे नएपन का अनुभव शायद कर ही नहीं पाते हैं. यदि कोई नया ज्ञान दिमाग के दरवाजे पर दस्तक भी दे तो झट से उससे किनारा कर जाते हैं. इसे जानकर क्या होगा?’ यह हमारे सुख-वैभव में कितनी वृद्धि करेगा? वगैरह. उनकी ज्ञान और उसके वास्तविक उपकरणों के प्रति सामान्य उपेक्षा बनी ही रहती है. छोटा बच्चा दार्शनिक की भांति अपनी हर जिज्ञासा का समाधान चाहता है. वह सवाल की तह तक पैठना चाहता है. बुढ़ापा आते-आते आदमी आम तौर पर पोंगा-पंडित बनकर रह जाता है. यह सच है कि बालक की सीखने की ललक हमसे ज्यादा होती है. इसलिए नहीं कि वह बुद्धि में हमसे तेज होता है. बल्कि इसलिए कि उसके पास ढेरों प्रश्न होते हैं. उसे इस बात का बोध होता है कि उसे क्या नहीं आता. सुकरात के शब्दों में कहें तो बालक को अपने अज्ञान का ज्ञान होता है. उसकी भरपाई के लिए वह सवाल करता है. बड़े मना कर देते हैं, मुंह फेर देते हैं, टाल जाते हैं. झुंझलाकर हड़का भी देते हैं, फिर भी वह सवाल करना नहीं छोड़ता. इस मोर्चे पर बड़े बालक से पिछड़ा हुआ पाते हैं. इसलिए कि वे अपनी जिज्ञासा, सीखने की ललक, ज्ञानार्जन की चाहत को दुनियादारी के बीच मार चुके होते हैं. उनके सामने उनकी महत्त्वाकांक्षाएं होती हैं. ऐसी महत्त्वाकांक्षाएं जो उनकी अपनी ईजाद नहीं होतीं. प्रायः दूसरों के अनुसरण में अपना ली जाती हैं. उपलब्धि को वे भौतिकता के पैमानों से आंकते हैं—‘उसकी कमीज मेरी कमीज से सफेद क्यों?’, ‘हमारी कार पड़ोसी की कार से छोटी क्यों’ वगैरह….दूसरों से पिछड़ जाने की चिंता उन्हें मारे रहती है. ठीक है सपने देखना बुरा नहीं. यदि कोई किसी वस्तु को अपने पास रखना चाहता है तो वस्तु को वैधानिक तरीके से अर्जित कर उसका स्वामित्व प्राप्त करने का अधिकार उसे है. समस्या तब उत्पन्न होती है जब वह किसी ऐसी वस्तु जिसे वह स्वयं अर्जित करने में नाकाम रहा है, को अपनी संतान के माध्यम से पाना चाहता है. चाहता है कि उसके बेटे-बेटियां उसके सपनों को अपना समझकर उन्हें पाने को समर्पित हों. भूल जाता है कि बच्चों का भी स्वतंत्र सोच और वरीयताएं हो सकती हैं. इसके बावजूद अधिकांश माता-पिता माने रहते हैं कि उनका अपनी संतान पर निर्जीव वस्तुओं जितना ही अधिकार है. बालक की दुनिया को लेकर अपनी कल्पना होती है. वह अपनी कल्पना के संसार को बसाना चाहता है. ठीक है उन्हें तत्काल पूरा करना उसके बस की बात नहीं होती. अपनी छोटी-से-छोटी जरूरत के लिए वह माता-पिता पर निर्भर होता है. संतानोत्पत्ति और बच्चे का लालन-पालन माता-पिता का नैसर्गिक कर्म है. यह कार्य उन्हें बालक के मौलिक सोच की सुरक्षा के साथ करना चाहिए. उसपर अपने विचार थोपने से उस समय तक बचना चाहिए जब तक उससे परिवार में बहुत बड़ा नैतिक संकट उत्पन्न होने की संभावना न हो. बावजूद इसके बालक के सपनों की कद्र करने के बजाय उन्हें अपने सपनों की चिंता सताए रहती है. ऐसे में सवाल करता हुआ बालक उनके लिए समस्या बन जाता है. माता-पिता को बालक के वे सवाल फिजूल लगने लगते हैं, जिनका उनके अपने सपनों से कोई वास्ता न हो. उससे बालक के सामने असमंजस की स्थिति उत्पन्न हो जाती है. उसके लिए यह तय करना कठिन हो जाता है कि वह अपने सपनों पर ध्यान दे, दुनिया को उस दृष्टि से देखे, जैसा वह सोचता आया है या वैसा करे जैसा उसके माता-पिता और अभिभावक उससे चाहते हैं. चूंकि वह माता-पिता पर आश्रित है, उनसे भावनात्मक और भौतिक संरक्षण प्राप्त करता है. अतः उसके लिए माता-पिता की उपेक्षा करना भी सर्वथा संभव नहीं होता. यह स्थिति उसे अनचाहे तनाव की ओर ले जाती है. कई बार सुविधा और संसाधन जुटाने की कोशिश में लगे माता-पिता बच्चों पर पूरा ध्यान नहीं दे पाते. वे दिन-भर आॅफिस में या दूसरी ऐसी जगह खटते रहते हैं जहां से कुछ आमदनी हो सके. दूसरी ओर बच्चे पहले स्कूल फिर टयूशन. टयूशन भी एक नहीं, दिन में चार-चार ट्यूशन. दिन-भर कड़ी स्पर्धा. माता-पिता सुविधा-संसाधन बटोरने के लिए उतावलापन दिखाते हैं. बालक से चाहते हैं वह पढ़ने-लिखने में उतावलापन दिखाए, ताकि वे अपने मृत हो चले सपनों में प्राण-प्रतिष्ठा कर सकें. ऐसे माता-पिता दिखावा तो यह करते हैं मानो वे अपना योग्य उत्तराधिकारी तैयार करना चाहते हैं. असल में उनकी कोशिश बच्चों पर अपनी इच्छाएं लादने की पुरानी परंपरा को आगे बढ़ाने; यानी खुद को श्रेष्ठ उत्तराधिकारी सिद्ध करने की होती है. उनका तर्क होता है कि माता-पिता की विनम्र संतान के रूप में वे स्वयं अपने सपनों को दांव पर लगा चुके हैं. इसलिए बच्चों पर अपनी इच्छाएं लादना कहीं से भी गलत नहीं है. दिखाई गई तस्वीर से अलग दुनिया को लेकर कोई नया सपना उनके पास नहीं होता. एक बार मौलिकता गंवा देने के बाद उनके पास अनुसरण के सिवाय दूसरा रास्ता रह ही नहीं जाता. वे मान लेते हैं कि दुनिया जैसी है, उसी रूप में अच्छी है. स्पर्धी समाज में परिवार के ऐसे बहुत से काम जिन्हें माता-पिता की ओर से पूरा करने की अपेक्षा की जाती है, बच्चे को करने पड़ते हैं. बालक उन्हें अपनी क्षमतानुसार निपटाते भी हैं, माता-पिता की महत्त्वाकांक्षा को उनकी विवशता मानकर सबकुछ खुशी-खुशी करने को तैयार रहते हैं. लेकिन एक बालक होने नाते उनकी स्वाभाविक इच्छा होती है कि माता-पिता सप्ताह का एक दिन उनके लिए सुरक्षित रखें. कई माता-पिता अपनी संतान की इस मामूली मगर स्वाभाविक इच्छा में भी पिछड़ जाते हैं. बालमन पर बड़ों के सपनों के अध्यारोपण ने बच्चों का बचपन छीन लिया है. ऐसा नहीं कि बालक उसे जानता तक नहीं. वह इतना नादान भी नहीं होता कि आपकी बातें मान ले. ज्यूं की त्यूं मान ले. उस समय उसका सामना अपने ही भीतर विराजमान उस सजग बालक से होता है जो अपने जीवन को अपनी तरह से जीना चाहता है. जिसके अपने सपने हैं. जीवन के प्रति अपना खास द्रष्टिकोण है. कर्तव्यों के बीच द्वंद्व की स्थिति उसको डांवाडोल कर देती है. उन्हें लगता है कि उनसे कुछ छीना जा रहा है. इसी के साथ वह अपने कर्तव्य की ओर से उदासीन होने लगता है. अवांछित उदासीनता उसको घेरने लगती है. वह काम से जी चुराने लगता है. स्कूलों में हमने बिगडै़ल बच्चों को देखा होगा. प्रायः वे अपने परिवेश से उकताए हुए जीव होते हैं. उन्हें लगता है कि उनकी सुनी नहीं जा रही. इसलिए वे गुस्से के जरिये अपना क्षोभ प्रकट करते हैं. गुस्सा इसलिए आता है कि क्षोभ और असंतोष प्रकट करने के दूसरे तरीके यानी संवाद का रास्ता अपनाने का उन्हें अभ्यास नहीं होता. उन्हें यह अभ्यास कराया ही नहीं जाता. जबकि यह बहुत जरूरी है. इससे बालक का आत्मविश्वास बढ़ता है. उसकी निर्णय क्षमता में सुधार आता है. संवाद के लिए जरूरी नहीं कि एकाधिक व्यक्ति ही हों. व्यक्ति अपने आप से भी संवाद कर सकता है. कई बार अपने आप से संवाद का होना भी लाभदायक होता है. इसके अभाव में उनका आत्मविश्वास डगमगाने लगता है. वे स्वयं को दिशाहीन, उदासीन, लक्ष्यविहीन और अनुरागविहीन नजर आते हैं. ये ऐसी समस्याएं हैं बच्चों का दूर रहना ही श्रेयस्कर है. लेकिन ऐसा हो नहीं पाता. द्वंद्व और द्वैध की स्थिति उन्हें चिड़चिड़ा बना देती है. उसका दुष्परिणाम बच्चों में सिरदर्द, पेटदर्द, अनिद्रा, भूख न लगना, तनाव, एकाकीपन, अवसाद आदि रूप में सामने आता है. सबकुछ एकाएक समेटने की कोशिश में माता-पिता हर काम में उतावलापन दिखाते हैं. वे चाहते हैं बालक जल्दी से जल्दी बड़ा होकर कैरियर को संभाले. इसके लिए वे बालक को जल्दी से जल्दी सबकुछ पढ़ा देना चाहते हैं. माता-पिता का यह रोग अंततः उनकी संतान में भी चला आता है. आपाधापी के बीच माता-पिता के लिए भी यह संभव नहीं होता कि वे बालक का पूरी तरह अपने सपनों के अनुसार अनुकूलन कर सकें. यानी बालक उन्हीं मामलों में बड़ा हो जिनमें उसके माता-पिता चाहते हैं. बड़ा होने की आपाधापी में वह उस दिशा में भी बढ़ जाता है, जो उसके बचपन के लिए घातक सिद्ध हो सकती है. अभी तक पश्चिमी देश इसके ज्यादा शिकार हैं. लेकिन भारत में जिस गति से शहरीकरण बढ़ रहा है, कैरियर के लिए अंतहीन स्पर्धा और तनाव से बालक को गुजरना पड़ता है, वहां भी इसका असर पड़ने लगा है. नतीजा यह हुआ है कि बच्चों में नशाखोरी बढ़ रही है. स्कूलों में अपराध, आत्महत्या, किशोरावस्था में गर्भधारण का अनुपात तेजी से बढ़ रहा है. विकसित देशों में इसके जो आंकड़े देते हैं, वे किसी भी सभ्य देश के लिए चिंताजनक हैं. आंकड़ों के अनुसार 70 प्रतिशत किशोरियां किशोरावस्था से पहले ही अपना कौमार्य खो देती हैं. उनमें से 40 प्रतिशत गर्भ के कारण अपने जीवन को खतरे में डाल देती हैं. इनके अलावा ड्रग और शराब के बड़ते हुए मामले, आत्महत्या तेजी से बढ़ रही है. पांच हजार किशोर प्रतिवर्ष किसी न किसी कारण आत्महत्या के लिए बाध्य होते हैं. इनमें बहुत से ऐसे होते हैं जो अपने साथ-साथ अपने माता-पिता के सपनों के बोझ से दबकर कराह रहे होते हैं. परिवार की आर्थिक बेहतरी के लिए काम करने का दबाव गरीब परिवारों में भी होता है. लेकिन गरीब माता-पिता बच्चों को इसलिए बड़ा होते देखना चाहते हैं ताकि वे आर्थिक मामलों में उनकी मदद कर सकें. लेकिन उनकी ऐसी हैसियत नहीं होती कि बच्चों को उनकी वयस् के अनुकूल काम दिला सकें. परिणामस्वरूप गरीब बालक कम उम्र में ही चाय के ढाबों पर, होटलों में, कबाड़ी के यहां, स्टेशनों पर छोटे-मोटे काम करने लगते हैं, जहां उन्हें नशाखोरी और शराब की शरण में जाने के अधिक अवसर प्राप्त होते हैं. मध्यवर्गीय परिवार अपने सपनों के साथ जीता है. वहां माता-पिता की चाहत होती है कि बालक जल्दी से जल्दी बड़ा होकर नाम कमाए, उसका अच्छा कैरियर हो, ताकि वे उन सभी सुख-साधनों को प्राप्त कर सकें, जिन्हें वह स्वयं पाने में नाकाम रहे हैं. दूसरे शब्दों में गरीब परिवारों के बच्चों के सपने छोटे, जरूरतें बड़ी होती हैं. वही उन्हें छोटे-मोटे धंधों में अपना बचपन छकाने के लिए विवश कर देती हैं. किंतु स्टेशन पर, ढाबों, होटलों, बाजार में कुलीगिरी करते हुए उनके चारों ओर का परिवेश ऐसा होता है जो उन्हें जरूरतें पूरी करने के फेर में भटकाव की ओर ले जाता है. मध्यवर्गी परिवार के बालक के कंधों पर अभिभावकों के सपनों का बोझ होता है. अपेक्षाएं होती हैं. कठिन स्पर्धा के बीच अनिश्चितता भी होती है. इससे वह तनाव का शिकार हो जाता है. तनाव-मुक्ति की खोज उसे ड्रग, शराब आदि दुव्र्ययनों की ओर ले जाती है. यानी बच्चे चाहे गरीब परिवार में जन्मे हों या मध्यवर्गी परिवार में, बचपन को बचपन की भांति न जीने देने के दबाव दोनों को एक ही नियति की ओर ढकेल देते हैं. इसमें दोष किसका है? मध्य वर्ग में पला-बढ़ा बालक जानता है कि उसको तनाव की ढकेलने, अपनी अपेक्षाओं का बोझ लादने और असमय ही बचपन छीन लेने के लिए उसके माता-पिता भी जिम्मेदार हैं. गरीब माता-पिता की संतान अपेक्षाकृत उदारता बरतती है. वह जानती है कि उन्हें असमय काम पर ढकेल देना, उनके माता-पिता की जरूरत थी. गरीब माता-पिता अपनी जरूरतें बच्चे पर लादते हैं. बच्चे भी उनसे इत्तफाक रखते हैं. इसलिए वे माता-पिता को दोष देने के बजाय समाज को दोष देते हैं, जिसमें भारी आर्थिक उतार-चढ़ाव हैं. जहां अमीर छाती ठोंककर अपने उत्पाद का, ऐसे उत्पाद का मूल्यांकन करता है, जिसे बनाने में उसका अपना श्रम-योगदान शून्य है. जबकि गरीब से उसके श्रम के मूल्यांकन का अधिकार भी छीन लिया जाता है. गरीब माता-पिता की संतान समझती है कि उनपर अपनी मजबूरी लादना माता-पिता की विवशता थी. मध्यवर्गी और उच्च मध्यवर्गी माता-पिता की संतान असफलता की अवस्था में सीधे अपने माता-पिता को दोष देती है. वह मान लेती है कि अपने माता-पिता के सपनों को साकार करने के बजाय अपना श्रम उन्होंने यदि अपने सपनों को साकार करने में लगाया होता तो अधिक कामयाब हो सकते थे. गरीब परिवार में जन्मा बालक अपने माता-पिता द्वारा समुचित समय न देने को इसलिए भी क्षमा कर देता है कयोंकि वह जानता है कि उनके लिए माता-पिता के पास समय ही नहीं था. जबकि मध्यमवर्गी माता-पिता द्वारा बालक के समुचित विकास के लिए समय दे ही नहीं पाते. क्योंकि उस अवधि में वे अपनी स्वार्थ-सिद्धि में जुटे होते हैं. यह स्थिति मध्यवर्गी परिवारों में असंतोष और विघटन की बढ़ती दर के रूप में सामने आती है. और बच्चों के मामले में तो तय है कि वे बचपन में जैसा भोगते हैं, बड़ा होने पर उसी को सूद समेत लौटाते हैं. बकौल डेबिड अलकिंद, ‘तरुणाई वह अवस्था है जब बच्चे हमारे उन सभी अपराधों को, चाहे वे वास्तविक हों अथवा काल्पनिक हमें वापस लौटा देते हैं जो हमने उनके विरुद्ध तब किए थे, जब वे छोटे थे.’ ये बातें ऐसी नहीं जो अजानी हों. बालक के कोमल मन पर परिवार और परिवेश के प्रभाव के बारे में मनोवैज्ञानिक अर्से से बताते आ रहे हैं. इसके बावजूद स्थिति दिनोंदिन भयावह हो रही है. नई तकनीक ने मां के गर्भ में झांकने की ताकत इंसान को दे दी है. इस काबलियत का उपयोग मनुष्य गर्भ से ही बालक की कंडीशनिंग के लिए करने लगा है. ‘सुपर बेबी’, ‘मनचाही संतान’ की सनक बालक को जन्म से ही माता-पिता की प्रयोगशाला बना देती है. तीन महीने के बच्चे का बौद्धिकता स्तर मापने के प्रयोग बढ़ रहे हैं. टेलीविजन पर लाइव शो ने एक और स्पर्धा खड़ी कर दी है. वहां तीन-चार वर्ष तक के बच्चे हाथ-पैर चलाने की कोशिश करते हुए मिल जाएंगे. उनके माता-पिता गर्व से बताते हैं कि वे महीनों पहले उनकी ट्रेनिंग आरंभ कर चुके हैं. यानी दो-ढाई साल के बालक को ज्ञान की, सौंदर्य की, खेल की, नांच-गाने और संगीत की स्पर्धा में ढकेल दिया जाता है. चूंकि यह काम बाजार की मर्जी से हो रहा है, इसलिए बाजार उसका लाभ भी उठा रहा है. गर्भ से ही बच्चे की जांच, शैश्वावस्था में बौद्धिकता परिक्षण के लिए महंगी किट बाजार में आने लगी हैं. टेलीविजन, फिल्म आदि पर बच्चों की सक्रियता देख उनके लिए डिजायन कपड़ों के अलावा चार से नौ वर्ष के बच्चे के लिए लिपिस्टिक, आई लाईनर, साबुन, क्रीम, फेशियल जैसे उत्पादों से बाजार अटे पड़े हैं. नाच-गानों में बच्चों से कामुक मुद्राएं कराई जाती हैं. उसकी समस्याएं भी सामने आ रही हैं. बालक जल्दी वयस्क होने लगे हैं, उनका चिड़चिड़ापन बढ़ रहा है. अजीर्ण, सिर-दर्द, उल्टी, नजर की कमजोरी जैसी व्याधियां असमय ही उनसे चिपक जाती हैं. बालक को डिजायनर कपड़े पहनाने, फैशन की डगर पर पटक देने में माता-पिता को उसका विकास नजर आता है. उनमें से अधिकांश वे हैं जो लार्ड मैकाले को कोसते हैं कि उसने भारतीयों पर अंग्रेजी थोपी. शिक्षा का ढर्रा बदलकर उसे रटंत-कला बना दिया. आज के शिक्षाशास्त्री उन्हें नजर नहीं आते जो बाजार के इशारे पर ज्ञान को सूचना में समेट चुके हैं. पूरी शिक्षा प्रणाली जिसे बालक के मौलिक और बहुआयामी विकास को समर्पित होना चाहिए, सूचना और आंकड़ों में सिमटकर रह गई है. कोई मानवाधिकारवादी संगठन इसके विरुद्ध खड़ा नजर नहीं आता. प्रकट-अप्रकट रूप में सभी ने बालक को माता-पिता की विशिष्ट परिसंपत्ति मान लिया है. यह एक चुनौती है. जिससे निपटने के लिए बालक की बेहतरी की सोचने, उसको समग्र मानवीय इकाई मानने वाले साहित्य, साहित्यकार एवं शिक्षा-मनीषियों की जिम्मेदारी और भी बढ़ जाती है. © ओमप्रकाश कश्यप9013 254 232 हिंदी बालसाहित्य : अतीत से आज तक—3 विश्व इतिहास में अठारवीं शताब्दी को विभिन्न वैचारिक आंदोलनों की जन्मदाता होने का श्रेय प्राप्त है. मगर भारत के संदर्भ में यह शताब्दी करीब–करीब ठहरा हुआ समय था. मुगल समाज पतनोन्मुखी था. रजबाड़ों में विलासिता का दौर जारी जारी था. भक्त कवियों ने जिस सामाजिक क्रांति का शुभारंभ किया था, वह कर्मकांडों और बौद्धिक हताशा के दौर में पड़कर दम तोड़ चुकी थी. यही कारण है कि इस कालखंड में जो विदेशी व्यापार कंपनियां भारत में आईं, स्थानीय राजाओं की आपसी फूट और राजसी लिप्साओं के कारण वे यहां बड़ी आसानी से राजनीतिक शक्ति बटोरती चली गईं. निहित स्वार्थ के लिए उन्होंने भारतीय साहित्य का अध्ययन–शोधन करना आरंभ किया. कालांतर में उसका लाभ देशवासियों को भी हुआ. यूरोपीय ज्ञान–विज्ञान और संस्कृतियों के लेन–देन के बीच नए विचारों ने देश में दस्तक दी. इससे साहित्य–संस्कृति में नया युग आरंभ हुआ. यूरोप के संदर्भ में यह पंद्रहवीं शताब्दी से शुरू होता है. उस संधिकाल का एक पक्ष वैज्ञानिक प्रबोधन की घटना से जुड़ा है, जब एक ओर मार्टिन लूथर, जान काल्विन जैसे सुधारवादी विचारक धर्म के नाम पर फैलाई जा रही जड़ता और पुरोहितवर्ग की लूट–खसोट की ओर ध्यानाकर्षित करा रहे थे. दूसरी ओर वैज्ञानिकों और मौलिक विचारकों का वर्ग था जो लोगों को अज्ञानता के दलदल से निकालने की कोशिश कर रहे थे. वैज्ञानिकों में न्यूटन और कापरनिकस सबसे अग्रणी थे. उन्होंने अपने मौलिक खोजों द्वारा उन्होंने अर्से से चली आ रही अवैज्ञानिक मान्यताओं, रूढ़ियों तथा अज्ञानता के प्रतीकों पर जोरदार प्रहार किया था. प्रौद्योगिकीय क्रांति ने अनेक सामाजिक समस्याएं भी पैदा की थीं. जिसने दार्शनिकों, समाजविज्ञानियों को नए सिरे से सोचने को विवश कर दिया था. कालांतर में मानवाधिकार एवं स्वाधीनतावादी आंदोलनों ने समाज में एक नई चेतना प्रवाहित की. इसी दौर में स्त्री–स्वातंत्रय की बयार चली. प्रकारांतर में उसने बालकों के अधिकारों की ओर भी ध्यान आकृष्ट किया. साहित्य भूमि पर बचपन की दस्तक शब्दों में मासूमियत की दस्तक है. यह उस क्षण की खोज है जब से बालक की स्वतंत्र अस्मिता को पहचानने का चलन शुरू हुआ. उस अवसर की खोज है जब यह माना जाने लगा कि बालक स्वतंत्र नागरिक है तथा बच्चों की सक्रिय मौजूदगी के अभाव में कोई रचना उनपर थोपी हुई रचना कही जानी चाहिए. प्राचीन भारतीय वाङमय यथा स्मृतियों, ब्राह्मण ग्रंथों, आरण्यकों आदि में इसपर विस्तार से चर्चा है. उपनिषद का तो मतलब ही गुरु के आगे बैठकर ज्ञानार्जन करना है. वेद–उपनिषदादि में एकलव्य, नचिकेता, उपमन्यु, ध्रुव, अभिमन्यु, आरुणि उद्दालक आदि उदात्त बालचरित्रों का वर्णन हैं. उनमें दर्शन है, गुरुभक्ति है, त्याग है, समर्पण है, प्रेम और श्रद्धा भी है. सूरदास ने कृष्ण की बाललीलाओं का ऐसा मनोरम वर्णन किया है जिसका उदाहरण अन्यत्र दुर्लभ है. लेकिन सब बड़ांे द्वारा, बड़ों के बड़े उद्देश्य साधने के निमित्त किया गया साहित्यिक आयोजन था. बचपन का मुक्त उल्लास वहां अनुपस्थित है. लेकिन यह भी स्मरण रखने योग्य है कि बच्चों की शिक्षा को लेकर तो मनुष्य सभ्यता के आरंभ से ही सजग था, परंतु बचपन पर वास्तविक विमर्श काफी विलंब से आरंभ हो सकता. यह वस्तुतः बीसवीं शताब्दी के मध्याह्न की घटना है. वह दूसरे विश्वयुद्ध के बाद शुरू हुई द्वितीय औद्योगिक क्रांति की सफलता का चमचमाता हुआ दौर था. दूसरा विश्वयुद्ध ही अपने आप में चुनौतीर्पूण समय था. पश्चिम में स्वतंत्र बालसाहित्य की आवश्यकता पंद्रहवीं शताब्दी में ही अनुभव की जाने लगी थी. यूनानी साहित्य में बचपन को महत्त्व दिए जाने का प्रथम प्रयास हमें प्लेटो के लेखन से दिखाई पड़ता है. सुकरात का अपना लिखा तो कुछ नहीं मिलता, लेकिन प्लेटो ने सुकरात के विचारों को अपनी संवाद पुस्तकों ‘सीता,’ पर जो लिखा लेकर जो लिखा है, उससे स्पष्ट है कि गुरु–शिष्य दोनों ही बच्चों की शिक्षा को पर्याप्त महत्त्व देते थे. किंचित विरोधाभास के बावजूद प्लेटो का शिक्षा–दर्शन पर्याप्त आधुनिक और अभिनव संभावनाओं से युक्त है. वह पहला विचारक था जिसने स्त्रियों की शिक्षा पर बराबर जोर दिया, खासकर ऐसे समय में जब उसके समकालीन विचारकों में से अधिकांश स्त्रियों को घर की चारदीवारी से बाहर कोई जिम्मेदारी देने को तैयार न थे. उसने सुझाव दिया था कि पूरा शिक्षा–तंत्र किसी कुशल पर्यवेक्षक की देखरेख में संचालित होना चाहिए. ऐसा व्यक्ति जो शिक्षा से जुड़े समस्त मामलों की विशद जानकारी रखता हो तथा जो समाज के सभी वर्गों, स्त्री, पुरुष आदि के बीच बिना किसी भेदभाव के शिक्षा का प्रसार कर सके. उल्लेखनीय है लोकतांत्रिक पद्धति के आलोचक रहे प्लेटो ने राज्य की बागडोर दार्शनिक मंडल के हाथों में सौंपने का सुझाव दिया था. यह पूछे जाने पर शिक्षा का लाभ क्या है, प्लेटो संवाद पुस्तक ‘ला॓ज’ में एक एथेंसवासी के माध्यम से स्पष्ट करता है—‘यदि तुम यह जानना चाहते हो कि शिक्षा का सामान्य लाभ क्या है, तो इसका उत्तर बहुत आसान है—शिक्षा मनुष्य को सद्गुण–संपन्न करती है; और सद्गुण–संपन्न व्यक्ति विनम्रतापूर्ण व्यवहार करता है. अपनी विनम्रता के बल पर वह युद्ध में अपने शत्रुओं का दिल भी जीत लेता है.’ शिक्षा के लिए विद्यार्थी की उम्र कितनी हो? इस बारे में वह लिखता है कि बालक की शिक्षा का शुभारंभ यथासंभव न्यूनतम उम्र से कर देना चाहिए. यदि संभव हो तो उसके जन्म से अथवा उसके पहले से ही. उसके अनुसार शिक्षा का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हिस्सा ही वह है, जो बचपन में सिखाया जाता है—इसलिए अभिभावक वर्ग का दायित्व है कि वह शिशु की शिक्षा का अनुकूल प्रबंध करे. ताकि बड़ा होने पर वह अपने कार्य में पूरी दक्षता प्राप्त कर सके. प्लेटो के अनुसार शिक्षा कभी समाप्त न होने वाला कर्म है. उसके लिए उम्र की कोई सीमा नहीं है. इसलिए बालक को जहां तक संभव हो, जन्म से ही शिक्षा के लिए तैयार किया जाना चाहिए. वह बच्चों को जन्म से ही राज्य के संरक्षण में रखने और पूर्व निर्धारित मापदंडों के अनुसार उनका पालन–पोषण करने का सुझाव देता है. वह मानता है कि शारीरिक और मानसिक रूप से कमजोर तथा हृष्ट–पुष्ट बच्चों का लालन–पालन अलग–अलग समूहों में होना चाहिए. कठोर निर्णय लेते हुए वह अःशक्त एवं अपंग बच्चों को अज्ञात स्थान पर रखने का सुझाव देता है. वह माता–पिता को अपने बच्चों के साथ संतुलित व्यवहार करने का परामर्श देता है. उपेक्षा एवं असंतुलित व्यवहार से बालक मानसिक रूप से कमजोर रह सकता है. वह लिखता है— ‘बच्चों की उपेक्षा उन्हें मानसिक रूप से चिड़चिड़ा, कमजोर तथा अधैर्यवान बना सकती है, उनके साथ दोषपूर्ण व्यवहार तथा अज्ञानतापूर्ण जोर–जबरदस्ती, मारपीट उन्हें कठोर, चापलूस, संकोची एवं एकांतजीवी बनाएगी. प्रकारांतर में वे सामान्य पारिवारिक और नागरिक जीवन जीने के अयोग्य हो सकते हैं.’ प्लेटो के बाद अरस्तु ने भी बच्चों की शिक्षा पर जोर दिया. उसका कहना था कि शिक्षा मनुष्य लिए शिक्षा मनुष्य को नैतिक बनाए रखने के लिए अनिवार्य है. प्लेटो के अनुसार राजनीति प्रकटतः शिक्षा कार्यक्रम का हिस्सा थी. इसलिए उसने अकादमिक ज्ञान के बजाय व्यावहारिक ज्ञान पर ज्यादा जोर दिया, ‘पढ़ना–लिखना बच्चों को इसलिए नहीं सिखाया जाना चाहिए कि वह उपयोगी है, प्रत्युत इसलिए भी सिखाएं जाने चाहिए कि उसके द्वारा ज्ञान की अन्य बहुत–सी शाखाएं प्राप्त करना संभव है….बच्चों को पढ़ाने के लिए विवेक से पहले अभ्यास का उपयोग करना चाहिए तथा बुद्धि से पहले शरीर को शिक्षित करना चाहिए.’3अरस्तु के अनुसार शिक्षा का काम नागरिकों के मन में आवश्यक सद्गुणों का संचार करना है, ताकि वे समाज हित में आवश्यक कर्तव्यों को बेहतर ढंग से अंजाम दे सकें. प्लेटो और अरस्तु के शिक्षा–संबंधी विचार शताब्दियों तक पश्चिमी समाज का नेतृत्व करते रहे. अरस्तु के करीब तेरह सौ वर्ष बाद उसके ज्ञान–सिद्धांत को पहली चुनौती मिली पीटर अबेलार्ड के शब्दों में. उसने ज्ञान के आरंभिक लोकप्रचलित सिद्धांत कि ‘जो दिखता है, वह विश्वसनीय है’ सूत्रवाक्य को बदलते हुए उसने कहा कि ‘जो दिखता है, वह संद्धिग्ध है.’ उसका संकेत एकदम स्पष्ट था. अब तक चले आ रहे ज्ञान और उसपर विश्वास को एक झटके में धराशायी करते हुए ज्ञान की उपलब्ध विरासत पर संदेह करना और फिर पूरी तरह जांच–पड़ताल के बाद सत्य का अवगाहन करना. वह अनूठा कवि–दार्शनिक था. संदेह से आगे बढ़ते ससंदेह को सम्मान देना. पीटर अबेलार्ड ने लिखा था— ‘संदेह होने पर हम जांच–पड़ताल आरंभ करते हैं तथा जांच–पड़ताल हमें सत्य तक पहंुचा देती है.’ पीटर अबलार्ड की इस उक्ति में जहां मानवीय जिज्ञासा को महत्त्व दिया गया था, वहीं मस्तिष्क की संभावनाओं और ज्ञान की शक्ति की ओर इशारा भी निहित था. इसमें एक आशावाद था. अबेलार्ड स्वयं आस्थावादी था. सत्य से उसका अभिप्राय ‘परमात्मा’ से ही था. तो भी परमात्मा की खोज के लिए संदेह को महत्त्व देकर उसने मानवीय जिज्ञासा की महत्ता को रेखांकित किया था. इसका परिणाम सोलहवीं और सतरहवीं शताब्दी में दो प्रमुख पुस्तकों के रूप में सामने आया, जो एक तरह से अबेलार्ड की संदेहवादी खोज का विस्तार थीं. ये पुस्तकें थीं ‘दि रिबोल्युनिबस आरबियम(1543)’ तथा ‘फिलास्फी नेचुरलिस प्रिंसिपिया मेथमैटिका(1687)’. लेखक थे क्रमशः निकोलस कापरनिकस और इसाक न्यूटन. महान खगोलविज्ञानी निकोलस कापरनिकस ने स्थापित किया था कि ब्रह्मांड का केंद्र पृथ्वी न होकर सूर्य है. उसने यह खोज अपने जीवन के आरंभिक दिनों में ही कर ली थी, लेकिन इस डर से कि उसकी खोज धार्मिक जगत में तहलका मचा सकती है, वह उसको वर्षों तक दबाए रखा था. अंततः जीवन के अंतिम दिनों में एक मित्र के आग्रह पर उसने पुस्तक की पांडुलिपि छपने को दे दी. पुस्तक जब बाजार में आई तब समाज में उसकी वही प्रतिक्रिया हुई, जैसा काॅपरनिकस ने कल्पना की थी. आखिरकार चर्च से क्षमाचायना करने के बाद ही बूढ़े काॅपरनिकस को जीवन के चंद दिन उधार मिल सके. न्यूटन ने काॅपरनिकस के निष्कर्षों से आगे बढ़ते हुए गुरुत्वबल की खोज की थी. उसके निष्कर्ष भी तत्कालीन धार्मिक मान्यताओं का विरुद्ध जाते थे, लेकिन उस समय तक यूरोपीय समाज काफी आगे आ चुका था. उसकी पुस्तक ‘प्रिंसिपिया मेथमैटिका’ को विज्ञान के क्षेत्र में अभी तक लिखी मौलिक पुस्तकों में श्रेष्ठतम का दर्जा दिया जाता है. इन पुस्तकों का साहित्य से सीधा संबंध नहीं था. मनुष्य की शाश्वत ज्ञान–पिपासा को रेखांकित करने वाली ये पुस्तकें मानवीय मेधा की अनूठी देन थीं. दर्शाती थीं कि केवल आध्यात्मिक जिज्ञासाएं नहीं, बल्कि भौतिक जगत को जानने–समझने की ललक भी मनुष्य को अज्ञान के अंधेरे से बाहर ला सकती हैं. इन पुस्तकों के प्रकाशन के साथ ही समाज में नए ज्ञान की ललक पैदा हुई. जिससे वैज्ञानिक शोध को विस्तार मिला, जो कालांतर में औद्योगिक क्रांति का वाहक बना. वैज्ञानिक ज्ञान एवं औद्योगिकीकरण की ताकत को समय रहते पहचाना—फ्रांसिस बेकन ने. उसने लिखा कि आनेवाले दिनों में मनुष्यता का इतिहास मनुष्य की ज्ञान के प्रति ललक के आधार पर लिखा जाएगा. ‘ज्ञान ही शक्ति है’—बेकन का यह वाक्य वैज्ञानिक प्रबोधन की आधारशिला बन गया. हालांकि जड़ता में आकंठ डूबे समाज में उस समय भी ऐसे बहुत से लोग थे, जो नए ज्ञान के विरोध में जुटे थे. वे ज्ञान को अलौकिक और दिव्य मानते आए थे. उनका विचार था कि आध्यामिक जिज्ञासाएं ही मानवीय ज्ञान का मूल हैं. इसलिए बच्चों और बड़ों को दी जाने वाली शिक्षा केवल धर्म सीमित होती थी. इसी बोध के साथ बच्चों को धार्मिक प्रतीकों, कर्मकांडों, अवतारवाद, पूजा–पाठ और तंत्र–मंत्र के बारे में अच्छी तरह रटा दिया जाता था. ज्ञान के नाम पर यह पोंगापंथी आचरण पीढ़ी–दर–पीढ़ी अंतरित होता था. उस व्यवस्था के साथ बालक का इस प्रकार अनुकूलन कर दिया जाता था कि वह उनपर शायद ही संदेह कर सके. सांस्कृतिक–सामाजिक दबावों के बीच यही बोध पीढ़ी–दर–पीढ़ी अंतरित होता था. नए बोध के फलस्वरूप समाज के उपेक्षित वर्गों के बारे में नए सिरे से सोचा जाने लगा. अवसर का लाभ उठाते हुए स्त्री–स्वातंत्रयवादी आंदोलनों ने जोर पकड़ा, इसकी पहल का श्रेय फ्रांस को जाता है. बच्चों के लिए विशेष रूप से लिखी गई पहली सचित्र पुस्तक जाॅन अमोस कामिनियस(1592—1670) की ‘आरिबस सेन्युलियम पिक्चस्(1657)’ थी, जिसका अभिप्राय है—‘चित्रों की दुनिया’. इस पुस्तक में बच्चों की रोजमर्रा की दुनिया की वस्तुओं को चित्रों के माध्यम से समझाने का प्रयास किया गया था. कामिनियस का मानना था कि मानवीय मस्तिष्क की सीमाएं अनंत होती हैं. उसने अरस्तु की इस बात से तो सहमति व्यक्त की थी कि मानव–मस्तिष्क कोरी सलेट के समान होता है, जिसपर कुछ भी लिखा जा सकता है. मगर मस्तिष्क की सीमा को जड़ सलेट तक सीमित कर देने पर उसकी असहमति थी. मानवीय मस्तिष्क के विपुल सामर्थ्य का उल्लेख करते हुए अपनी पुस्तक ‘शिक्षण की संपूर्ण कला’ में उसने लिखा था— ‘यह ठीक है कि बच्चे का मस्तिष्क कोरी सलेट होता है, जिसपर हम मनचाही इबारत लिख सकते हैं. लेकिन एक अर्थ में यह उससे भी बढ़कर है. सलेट की सीमा होती है. हम उसपर उसके आकार से अधिक कोई इबारत लिख ही नहीं सकते. जबकि मानव–मस्तिष्क अनंत क्षमतावान होता है. उसपर जितना चाहे लिखा जा सकता है, क्योंकि वह निस्सीम विस्तार है.’ कामिनयस का कहना था कि बच्चे स्वभावतः अच्छे होते हैं. इतने अच्छे कि उन्हें सद्गुणों की खान कहा जा सकता है. किंतु उनके व्यक्तित्व को निखारने के लिए शिक्षा अनिवार्य है. कामिनियस ने ये विचार उस समय और समाज में व्यक्त किए थे, जहां एक सर्वमान्य मान्यता थी कि पाप मनुष्य के साथ उसके जन्म से जुड़ा है. अतः पतित मनुष्य के त्राण हेतु शिक्षा (धार्मिक) अनिवार्य है. इस मान्यता के चलते तत्कालीन समाज में शिक्षा के नाम पर बलप्रयोग सामान्य बात थी. शिक्षाकर्म के जुड़े अधिकांश विचारक परंपरावादियों की ‘कर्म–आचार संहिता’ से प्रभावित थे, जिसका संदेश था—‘कठिन परिश्रम, बुराई के विरुद्ध युद्ध में हथियार की तरह डटे रहना.’ इस खतरनाक और स्वार्थी अवधारणा के चलते अबोध बच्चों को तांबे और कोयला की खदानों, कारखानों, खेतों और कपड़ा मिलों में जोत दिया जाता था. उनसे ऐसे काम लिए जाते जिन्हें बड़े आदमी करने से कतराते थे. आर्थर वालेस काल्हों(1885—1979) ने अपनी पुस्तक ‘ए सोशल हिस्ट्री आफ अमेरिकन फेमिलीज’ में एक रोंगटे खड़े कर देने वाले तथ्य का खुलासा किया है. उसने लिखा है कि यूरोप से लेकर अमेरिका तक बालश्रम इतना आम था कि यूरोप से अपहृत बच्चों को कृषि–मजदूर तथा उद्योग मजदूर के रूप में अमेरिका ले जाकर बेच दिया जाता था. वहां खतरनाक परिस्थितियों में बच्चों से अमानवीय परिस्थितियों में सोलह–सतरह घंटे प्रतिदिन बिना किसी विश्राम के काम लिया जाता था. बदले में उन्हें मामूली मजदूरी दी जाती थी. बीमार होने पर उनके इलाज का भी कोई इंतजाम न था. भारत के हालात भी भिन्न न थे. यहां भी लोहे, तांबे और कोयले की खदानों में छोटे–छोटे बच्चों से अमानवीय परिस्थितियों में काम लिया जाता था. बीमार होने पर उपचार की कोई व्यवस्था न थी. दम घुटने से होने वाली दुर्घटनाएं आम थीं. कामिनियस ने जोर देकर कहा था कि न केवल अमीर और ताकतवर वर्ग के बच्चों, बल्कि गांवों, कस्बों, शहरों में रहने वाले अभिजात्य और सामान्य, गरीब और अमीर, झोपड़ियों और अट्टालिकाओं में रहने वाले सभी लड़के–लड़कियों को शिक्षा के लिए अनिवार्यतः स्कूल जाना चाहिए. ये विचार तत्कालीन यूरोपीय समाज में क्रांतिकारी थे. ‘डाइडेक्टि मेग्ना’ को चतुर्दिक सराहना मिली और प्रायः सभी यूरोपीय भाषाओं में उसका अनुवाद किया गया. यह पुस्तक वर्षों तक कई यूरोपीय भाषाओं में सर्वाधिक बिकने वाली बनी रही. बच्चों के बीच शिक्षा को सरल एवं ग्राह्यः बनाने के लिए उसने सचित्र पुस्तक, आरबिस सेंसुलियम पिक्चस् (1658), जिसका अर्थ है—चित्रों की दुनिया, भी तैयार भी की थी. वह पुस्तक वास्तव में एक लघु ज्ञानकोश थी, जिसमें बच्चों के काम की जानकारी चित्रों के साथ प्रकाशित की गई थी. ‘आरबिस सेंसुलियम पिक्चस्’ को विश्व की पहली सचित्र पुस्तक होने का गौरव प्राप्त है. काॅमिनियस द्वारा शिक्षा के क्षेत्र में दिए गए योगदान के लिए यूरोपवासी उसको सम्मान के साथ ‘आधुनिक शिक्षा का पितामह’ कहकर बुलाते हैं. उसने जोर देकर कहा था कि शिक्षा पर हर बच्चे का अधिकार है, इसलिए यह राज्य का धर्म है कि वह प्रत्येक बच्चे के लिए शिक्षण की समुचित व्यवस्था करे— ‘न केवल संपन्न और शक्तिशाली वर्ग के बच्चों के लिए, बल्कि हर वर्ग के बच्चों को जैसे की लड़का और लड़की, गरीब और अमीर, सभ्रांत और असभ्रांत, शहर और कस्बे, गांव और बस्ती प्रत्येक बच्चे को शिक्षार्जन के लिए अनिवार्य रूप से स्कूल भेजा जाना चाहिए.’ बचपन के मनोविज्ञान को समझने की वास्तविक शुरुआत हुई सतरहवीं शताब्दी में. इसका श्रेय अनुभववादी दार्शनिक जान लाक(1632—1704) तथा स्वतंत्रतावादी विचारक रूसो को जाता है. अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘एन ऐस्से आन ह्युमैन अंडरस्टेंडिंग’ में लाक ने प्लेटो की उस धारणा को चुनौती दी, जिसमें उसने कहा था कि पढ़ना असल में दिमाग में पहले से ही विद्यमान ज्ञान–संपदा को तरोताजा करने की प्रक्रिया है. इस बारे में अरस्तु का समर्थन करते हुए लाक ने बच्चों के मस्तिष्क को ‘कोरा कागज’ बताया और माना कि मनुष्य का ज्ञान उसके अनुभव की देन है. उसने बच्चों में पुस्तक–पाठन की रुचि बढ़ाने के लिए सुझाव देते हुए कहा था कि बच्चों के लिए ऐसी पुस्तकें प्रकाशित की जाएं जो उनकी बौद्धिक क्षमता और वयस् के अनुकूल हों. जिनमें उनका बचपन झलकता हो. जो उनके मनोविज्ञान और रुचि को प्राथमिकता दें. जिनमें भरपूर कल्पनाशीलता हो, साथ में रोचकता भी. अरस्तु परीकथाओं को बच्चों के लिए गैरजरूरी मानता था, जबकि लोककथाओं और नीतिकथाओं का यह मानते हुए पक्ष लिया था कि उनमें यदा–कदा नैतिकता से भरपूर सामग्री होती है, जो कि बच्चों में सामाजिक बोध जगाने के लिए आवश्यक है. यही नहीं लाॅक ने रेनार्ड दि फाक्स(1481) ईसप की बोधकथाओं(1484) की प्रशंसा की थी. साथ में यह भी कहा था कि ‘यदि ईसप अपनी अपनी कहानियों में चित्रों का संयोजन भी करते तो वह और भी अधिक उपयोगी हो सकती थीं.’ बच्चों की पुस्तकें कैसी हों, इस बारे में सुझाव देते हुए लाॅक ने कहा था कि बच्चों की पुस्तकें उनके लिए—‘‘उपयोगी और आनंददायक हों, जिन्हें पढ़ाते समय शिक्षक को और पढ़ते समय विद्यार्थी को आनंद आए.’ यह बचपन को समझने की पहली गंभीर कोशिश थी. लाॅक के विचारों का प्रभाव आगे आने पीढ़ियों पर भी पड़ा. उसकी मृत्यु के लगभग मात्र आठ वर्ष बाद जन्मे रूसो ने बचपन को लघु अभ्यारण्य की अवधि माना. अपनी पुस्तक ‘एमाइल’ में वह प्रश्न करता है—‘आखिर वह कौन–सी अवस्था है जिसकी सामान्य गतिविधियां करुणा और परोपकार से भी बढ़कर हैं?’ उत्तर वह स्वयं देता है—‘बचपन!’ अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए वह लिखता है—‘बचपन को प्यार करो. उसके साथ खेल खेलो. उसके सुखामोद में शामिल होकर उसकी मनोरम प्रकृति में डूब जाओ.कृबचपन के आनंदमय दिनों को छीनो मत, ये बहुत जल्दी गुजर जाने वाले हैं.’ इसी पुस्तक में संत पियरे की बात को आगे बढ़ाता हुआ वह लिखता है—‘संत पियरे ने व्यक्ति को बड़ा बालक कहा है. हम चाहें तो बालक को छोटा व्यक्ति भी कह सकते हैं.’ ‘एमाइल’ पहली बार फ्रांसिसी भाषा में 1762 में प्रकाशित हुई थी, उसका तत्काल अंग्रेजी में अनुवाद हुआ. पुस्तक में रूसो ने शुद्धतावादियों की ‘मूल अपराध’ की विचारधारा का खंडन किया था, जो सृष्टि के उद्भव को आदम और हव्वा के ‘प्रथम अपराध’ से जोड़ती थी. उल्लेखनीय है कि उस समय तक शुद्धतावादियों के दबाव में बच्चों को उपदेशक साहित्य ही पढ़ने को दिया जाता था. उसमें बच्चों को पढ़ाया जाता था–‘आदम के पाप में…हम सब अपराधी.’ जान लाक के तर्क को विस्तार देते हुए रूसो ने ‘एमाइल’ में लिखा—‘बच्चे निर्दोष जन्मते हैं, बाद में समाज उन्हें बिगाड़ देता है.’ रूसो की एक और मान्यता थी कि बच्चे पढ़ने के बजाय अनुभवों से गुजरते हुए सीखते हैं. उसका मानना था कि बच्चों की शिक्षा की शुरुआत बारह वर्ष की उम्र से होनी चाहिए. आरंभ के लिए डेनियल डिफोई की राबिन्सन क्रूसो(1719) की पुस्तक पर्याप्त है. हालांकि आगे चलकर रूसो के विचारों को अपरिपक्व मानते हुए करीब–करीब छोड़ दिया गया, तो भी उस समय रूसो के विचारों को मौलिक और क्रांतिकारी माना गया. बालसाहित्य के क्षेत्र में उसके विचार नए लेखन और प्रयोगों का माध्यम बने. उसकी प्रेरणा पर थाॅमस डे ने ‘हिस्ट्री आॅफ स्टेंडफोर्डेंड मार्टन(1783-1789) की रचना की. तीन खंडों में लिखी गई इस पुस्तक में गरीब किसान के सद्गुण संपन्न बेटे हेरी सेंडफोर्ड तथा एक धनी सौदागर के बिगडैल बेटे टामी मार्टन की कहानी थी. स्टेंडफोर्ड अपने किसान पिता के साथ खेतों पर खेलते–कूदते बड़ा होता है. उसका गरीब पिता उसकी शिक्षा की व्यवस्था भी ढंग से नहीं कर पाता. दूसरी ओर मार्टिन का पिता अपने बेटे के लिए बेहतरीन शिक्षण की व्यवस्था करता है. वह उसको अच्छी पाठशाला में भेजता है, जहां उसको नियमित नैतिक शिक्षा दी जाती है. बावजूद इसके मार्टन बिगड़ जाता है. इस कहानी का शिक्षा थी कि केवल महंगी शिक्षा की पर्याप्त नहीं है, बल्कि बालक के संपूर्ण चारित्रिक विकास के लिए अनुकूल वातावरण भी जरूरी है. यह बालसाहित्य के क्षेत्र में यथार्थवादी लेखन का शुभारंभ था. निस्संदेह उसका श्रेय रूसो को ही जाता है. उसके पश्चात तो यूरोपीय साहित्य में ऐसे कथानकों की बाढ़–सी आ गई. बालकों की मनोरचना को समझकर उनके अनुरूप मनोरंजक और उद्देश्यपूर्ण बालसाहित्य की रचना की मांग जोर पकड़ने लगी. 1744 में जान लाक और रूसो से प्रभावित एक समर्पित प्रकाशक जान न्यूबेरी आगे आया. ‘एक छोटी–सुंदर पाकेट बुक’ के नारे के अंतर्गत प्रकाशित न्यूबेरी की चित्रात्मक पुस्तकें असल में बालोपयोगी सूचनाओं का कोष थीं. उनमें अक्षरों, कहावतों, लोकोक्तियों को ईसप की कहानियों के साथ चित्रों के साथ प्रकाशित किया जाता था. उसको आधुनिक रचनात्मक बालसाहित्य की प्रारंभिक पुस्तक कहा जाता है. अपनी पुस्तकों को लोकप्रिय बनाने के लिए न्यूबेरी ने कुशल विपणन तकनीक अपनाई थी. ग्राहक यदि लड़का हो तो प्रत्येक पुस्तक के साथ एक गेंद और लड़की हो तो उसे एक पिनकुशन भेंट में दिया जाता था. न्यूबेरी द्वारा प्रकाशित पुस्तकमाला को इंग्लेंड में व्यापक लोकप्रियता मिली. न्यूबेरी द्वारा बच्चों के लिए पुस्तकों का प्रकाशन किसी भी पुस्तक विक्रेता द्वारा मौलिक एवं सुरुचिपूर्ण बालसाहित्य के प्रकाशन के क्षेत्र में किया गया पहला गंभीर प्रयास था. न्यूबेरी से पहले बच्चों के लिए उपलब्ध पुस्तकों के कथानक किसी लोकनायक अथवा मिथकीय पात्र पर निर्भर करते थे. इसी क्रम में विलियम के केक्सटन ने ‘रेनार्ड दि फाक्स’(1481) तथा फ्रांसिसी से अनूदित ‘ईसप की बोधकथाओं’(1484), थामस मलोरी की ‘मोर्ट डार्थर’(1485) के कई संस्करण प्रकाशित किए थे. उसके बाद वाइकिन दि वार्ड ने ‘राबिन हुड के कारनामे’(गेस्ट आफ राबिनहुड, 1510) का प्रकाशन किया. साहसी और बहादुर नायकों की कथा के रूप में किंग आर्थर तथा लोकगाथाओं के नायक डिक व्हीटिंग्टन की कहानियों लोगों के बीच पहुंचने लगीं. सोलहवीं शताब्दी में ये पुस्तकें छोटे दुकानदारों और फेरी वालों के माध्यम से गांव–गांव पहुंचाई जातीं, जहां वे कुछ पेंस में बेची जाती थीं. सोलह से चैबीस पृष्ठ संख्या वाली पुस्तकों को आकर्षक बनाने के लिए उनमें लकड़ी के ब्लाॅक की सहायता से चित्र बनाए जाते थे. ये पुस्तकें हालांकि ‘विशेषरूप से बच्चों के लिए’ जैसी श्रेणी में प्रकाशित नहीं हुई थी, उनपर धार्मिक शिक्षा का गहरा प्रभाव था. तो भी ये बच्चों में पुस्तक–पाठन संस्कृति की आधारशिला रखने में सहायक बनीं. बच्चों के बीच इन्हें खूब पसंद किया जाता था. न्यूबेरी ने अंग्रेजी बालसाहित्य को जो दिशा दी, वही कालांतर में बच्चों के लिए मौलिक साहित्यलेखन का प्रस्थान बिंदु बन गई. तदनंतर बालसाहित्य के नाम पर नीति, धर्म, अध्यात्म आदि के नाम पर छापे जा रहे ‘उपदेशक साहित्य’ का प्रकाशन घटने लगा. उसके स्थान पर बच्चों की रुचि, मनोरंजन एवं उपयोगिता को केंद्र में रखकर लिखी गई पुस्तकें बाजार में छाने लगीं. उन पुस्तकों का लक्ष्य बच्चों को केवल कहानियोंं सुनाना या उनका मनोरंजन मात्र न था, उनके माध्यम से लेखक की कोशिश होती थी कि बालक अपने व्यक्तित्व का संपूर्ण विकास करे, ताकि भविष्य की चुनौतियों से आसानी से निपट सके. बच्चों के मनोविज्ञान को नए सिरे समझने का गंभीर प्रयास भी किया गया, जो अंततोगत्वा मौलिक बालसाहित्य की आवश्यकता को स्थापित करने में सहायक बना. उस समय पुस्तकों की उपलब्धता धनी और उच्च मध्यमवर्गीय परिवारों तक ही सीमित थी. गरीब परिवारों में व्यक्तिगत संबंधों और आपसी अनुराग, शिक्षा आदि का महत्त्व आर्थिक भरण–पोषण के बाद था. गरीब परिवारों में जन्मे बच्चे अपने माता–पिता के साथ श्रम करते थे. पठन–पाठन की सुविधा उनमें से गिने–चुने बच्चों को ही मिल पाती थी. हां, माताएं घर लौटने पर अपने बच्चों के मनोरंजन के लिए किस्से–कहानियोंं अवश्य सुनाती थीं. निर्धन बच्चों के लिए, विशुद्ध बालसाहित्य की कोटि में रखे जाने योग्य पुस्तकों की संख्या नगण्य थी. इसके स्थान पर उपदेशक और प्रचारात्मक पुस्तकों की भरमार थी. इस स्थिति ने अपने समय के कई महान लेखकों जैसे डेनियल डेफो(राबिन्सन क्रूसो, 1719), जोनाथन स्फिट(गुलीवर की यात्राएं, 1726), लेविस केरौल(ऐलिस इन वंडरलेंड, 1865 लुकिंग ग्लास, 1871), मेरी शेरवुड(हिस्ट्री आॅफ दि फेयरचाइल्ड फैमिली, 1818), मार्क ट्वेन(दि एडवेंचर आफ दि टाम सायर), चाल्र्स डिकेन्स जैसे महान बालसाहित्यकारों को जन्म दिया. सतरहवीं–अठारवीं शताब्दी के यूरोपीय पुनर्जागरण का असर देर से ही सही, भारत पर भी पड़ा. स्वाभाविक रूप से इसमें ईस्ट इंडिया कंपनी तथा अन्य यूरोपवासियों की भी भूमिका रही, जो मुगल शासन के अवसान के दिनों में भारत आए और यहां की राजनीतिक अस्थिरता देख अपने पांव जमाने की कोशिश करने में लगे थे. अंग्रेज भारत में व्यापार के सिलसिले में आए थे. सतरहवीं शताब्दी में वहां आरंभ हुई औद्योगिक क्रांति ने उत्पादन में तीव्र बढ़ोत्तरी की थी. उत्पादित माल की बिक्री के लिए अब उन्हें नए बाजारों की तलाश थी. उनके लिए भारत आदर्श बाजार हो सकता था. पराधीनता के बावजूद यहां की जनता अपने प्रचुर प्राकृतिक संसाधनों के दम पर पूरी दुनिया में अपनी ललचाती थीं. अंग्रेजों ने अपने ठिकाने समुद्र के किनारे बसाए थे. जहां से उन्हें माल लाने–ले जाने में आसानी रहे. शासन व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने के लिए लिए उन्हें अंग्रेजी पढ़े–लिखे लोगों की आवश्यकता थी. इसके लिए लार्ड मैकाले ने औपनिवेशिक भारत की शिक्षा–नीति में कंपनी के स्वार्थानुरूप बदलाव किया, जिसका भारतीय बुद्धिजीवियों द्वारा व्यापक विरोध भी हुआ. उस समय तक भारत में लोकचेतना की लहर व्याप चुकी थी. राष्ट्रीय अस्मिता का संघर्ष दो स्तरों पर जारी था. एक ओर तो धार्मिक–सामाजिक सुधारवादी के रूप में स्वामी विवेकानंद, स्वामी रामकृष्ण परमहंस, महर्षि अरविंद, राजा राममोहनराय, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, दयानंद सरस्वती जैसे विचारक थे, जो देश को रूढ़ियों और परतंत्रता से मुक्ति दिलाकर उसका पुराना गौरव लौटाने को प्रतिबद्ध थे. दूसरी ओर देश की राजनीतिक–सामाजिक अस्मिता की लड़ाई भी जोर पकड़ने लगी थी. इसके उत्प्रेरकों में राष्ट्रवादी लेखक, पत्रकार, साहित्यकर्मी आदि थे. भारत में छापाखाना 1694 में स्थापित हुआ. लेकिन देश को भारतीय अस्मिता से परचानेवाला एक और महान व्यक्ति इसी दौर में अवतरित हुआ था, जो भारतीय नहीं था. मगर उसने भारतीयता का अनुसंधान इतनी लगन, गहन निष्ठा और परिश्रम के साथ किया था कि उसके द्वारा भारत के बारे में, अपने बारे में जानकार भारतीय विद्वान भी चौंक पड़े थे. उन्हें पहली बार अनुभव हुआ था कि शताब्दियों लंबी दासता के दौरान वे अपने आपको, अपनी पहचान को कितना पीछे छोड़ आए हैं. वह विद्वान था—मैक्समूलर. जर्मन के इस भारत–अनुरागी विद्वान ने विलुप्तप्रायः संस्कृत वाङमय से न केवल पूरी दुनिया, बल्कि भारत का भी परिचय कराया था. मैक्समूलर के अध्ययन का प्रभाव यूरोपीय देशों पर भी पड़ा. इसके फलस्वरूप भारतीय दर्शन और साहित्य को लेकर बड़े पैमाने पर शोधकार्य आरंभ हुआ. पश्चिम में उन दिनों सुधारवादी आंदोलनों की बाढ़ आई हुई थी. फ्रांसिसी क्रांति सफल हो चुकी थी. उसका असर भारतीय जनमानस पर पड़ना स्वाभाविक ही था. वे सभी कारण भारतीय अस्मिता के उभार के दिन थे, जो आगे चलकर राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन की प्रेरणा बने. सतरहवीं शताब्दी में जब पश्चिम में वैचारिक आंदोलन जोर पकड़ रहा था, भारत में मुगल साम्राज्य का सूरज अस्ताचलगामी था. अपनी रूढ़ धार्मिक परंपराओं और विरल शैक्षिक रुझान के कारण मुगलों में धर्मेत्तर पुस्तकों को पढ़ने की परंपरा क्षीण थी. लंबी दासता से हिंदी मनीषा का आत्मविश्वास डिगा हुआ था. विद्वान देश पर छाए राजनीतिक संकट को धार्मिक संकट के रूप में देखते थे. अंग्रेज सरकार धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप छोड़कर राजनीतिक निर्णय चाहे जो ले, भारत के शिखरस्थ वर्ग की यह सामान्य नीति थी. इसलिए उनका अधिकांश लेखन प्रतिक्रियावादी था. सामंतवादी सोच एवं जातीय पूर्वाग्रहों के बीच विद्वानों से क्रांतिकारी सोच की अपेक्षा कम ही थी. लार्ड मैकाले ने तत्कालीन शिक्षा प्रणाली पर धर्म के वर्चस्व को लेकर बेहतर टिप्पणी की है. हिंदू एवं मुस्लिम शिक्षा प्रणाली पर आलोचनात्मक टिप्पणी करते हुए उसने लिखा था— ‘हिंदुओं और मुसलमानों की शिक्षा–पद्धति में काफी समानता थी. वे उस भाषा में शिक्षा देते थे जो जनता की भाषा नहीं थी. उनकी शिक्षा का मूलस्रोत धर्म था और उसकी आप्तता अपरिवर्तनीय थी. वे नए अभिनिवेश और परिवर्तन के विरुद्ध थे….’ दरअसल उनीसवीं शताब्दी में हिंदू और मुस्लिम दोनों को मानने वाले कट्टरता में डूबे हुए थे. मुस्लिमों की अपेक्षा हिंदू धर्म अपेक्षाकृत अधिक सहिष्णु रहा है, लेकिन निरंतर बाहरी आक्रमणों के बीच इस प्रकार की शिक्षा पद्धति धर्म के प्रति कट्टरता की भावना ही पैदा कर सकती थी. इसके द्वारा स्वतंत्र व्यक्तित्व और विवेक सम्मत(रेशनल) वैज्ञानिक दृष्टिकोण का निर्माण संभव नहीं था. इकीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में ईस्ट इंडिया कंपनी के अंग्रेज अधिकारियों ने भारतीय संस्कृति और साहित्य को समझने के गंभीर प्रयास आरंभ कर दिए. कंपनी की ओर से जार्ज प्रिंसेप, विलियम जोन्स, गियर्सन जैसे विद्वानों को नियुक्त किया था. उन्होंने भारतीय साहित्य का दस्तवेजीकरण कर उसका यूरोपीय भाषाओं में अनुवाद किया, इससे भारत की परंपरागत छवि जो जेम्स मिल जैसे दार्शनिक–इतिहासकारों की अधूरी और एकांगी समझ द्वारा बनी थी, में बदलाव होने लगा. इससे विदेशी विद्वानों का ध्यान भारतीय संस्कृति और साहित्य की ओर गया. ईस्ट इंडिया कंपनी ने सुखवादी विचारक जेम्स मिल को भारतीय इतिहास के अध्ययन के लिए नियुक्त किया था. मिल भारत आने से पहले ही उपयोगितावादी दार्शनिक के रूप में पर्याप्त ख्याति अर्जित कर चुका था. ईस्ट इंडिया कंपनी के कर्मचारी की हैसियत से उसने ‘हिस्ट्री आॅफ ब्रिटिश इंडिया’ नामक ग्रंथ की रचना की. पुस्तक में भारतीय समाज के जातीय विभाजन, धर्म और परंपरा के नाम पर फैली घोर रूढ़िवादिता तथा आडंबर, राजनीति की जगह घोर अवसरवाद, छोटे–छोटे रजबाड़ों के आपसी वैमनस्य, अकारण युद्ध और मारकाट जैसी बुराइयों का, जो भारत की राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक दुर्दशा का कारण बन चुकी थीं, प्रामाणिक और तथ्यपरक चित्रण किया था. छह खंडों की इस पुस्तक को पूरा करने में मिल को बारह वर्ष लगे थे. इस पुस्तक को भारी सफलता प्राप्त हुई. हालांकि इसके कारण उसकी आलोचना भी खूब हुई. अपने महत्त्वपूर्ण उपयोगितावादी दर्शन के कारण मिल की जैसी प्रतिष्ठा इंग्लेंड तथा अन्य यूरोपीय देशों पर सवार थी. भारत में वह प्रतिष्ठा कभी हासिल न हो सकी. अपने एकतरफा आकलन में साम्राज्यवादी दृष्टिकोण अपनाते हुए मिल ने भारत के बारे कटु टिप्पणियां की थीं, साथ ही भारत में ब्रिटिश साम्राज्य का समर्थन किया था. ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा किए गए कार्यों की सराहना करते हुए उसने लिखा था— ‘‘ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत को सभ्य बनाने, उसका नागरीकरण करने में मदद की थी. अंग्रेजों के आने से पहले भारत एक बर्बर युग से बाहर आने के लिए छटपटा रहा था.’ हालांकि बाद में मिल ने अपने ही कथन का उलट करते हुए भारत में ब्रिटिश राज को ‘समाज के संपन्न तबके के लिए बाहरी मदद उपलब्ध कराने वाला व्यापक तंत्र’’ कहकर ब्रिटिश राज्य की वास्तविक खामियों की ओर इशारा भी किया था.’’ पुस्तक में मिल ने एक तरह से तत्कालीन ब्रिटिश सरकार का बचाव ही किया था.उसकी पुस्तक ब्रिटिश सरकार उपनिवेशवादी सोच को मान्यता प्रदान करती थी. वह अंग्रेजों के इस दुष्प्रचार का समर्थन करती थी कि भारतीय समाज के नागरीकरण तथा उनमें एक–राष्ट्र की भावना पैदा करने के लिए अंगे्रजों का इस देश में टिके रहना आवश्यक है. मिल को उसका लाभ भी मिला. पुस्तक लिखने के साथ ही मिल को इंडिया हाउस में नियुक्ति मिल गई. उसके बाद तो उसने विभिन्न राजनीतिक पदों पर रहते हुए खूब प्रतिष्ठा एवं मान–सम्मान अर्जित किया. इसमें कोई संदेह नहीं कि मिल का विश्लेषण औपनिवेशिक दृष्टि से परिपूर्ण था. बावजूद इसके पुस्तक में उसने कई स्थानों पर भारतीय समाज की कटु सचाइयों को बेनकाब भी किया था, जो उसकी राजनीतिक–आर्थिक और सामाजिक दुरवस्था का कारण थीं. इसलिए भारत में उस पुस्तक की आलोचना होना स्वाभाविक ही था. मिल के कई निष्कर्ष भारतीय विद्वानों, खासकर ब्राह्मणों की स्वार्थपरता और उनकी शोषणवादी प्रवृत्तियों पर सीधे चोट करते थे. पुस्तक के दूसरे खंड में उसने लिखा था— ‘हिंदू शासन–व्यवस्था का अध्ययन करते समय हम पहले ही देख चुके हैं कि राजशाही के रूप में एक चालू किस्म की शासकीय निरंकुशता, नितांत अकलात्मक यानी बड़े ही रूढ़ तरीके से भारत में स्थापित हुई, जिसको (निहित स्वार्थों के लिए) दैवी–सत्ता के रूप में मान्यता दी जाती रही. भारतीय समाज का जातीय आधार पर विभाजन, हयुक्त तथा घृणास्पद विचारों का कुफल था, जिसने हिंदू–समाज का बेहद ओछा और हानिकारक स्तरीकरण किया था. यही नहीं, स्वार्थी तत्वों द्वारा इस जातीय विभाजन को दुनिया के किसी भी अन्य समाज की अपेक्षा कहीं अधिक विध्वंसात्मक महत्ता प्रदान की गई; और हम देखते हैं कि अत्यंत हानिकारक अंधविश्वासों पर टिकी उस उत्पीड़क और ताकतवर धर्मसत्ता ने मनुष्यता की ऐसी अवमानना की जिसकी मिसाल किसी भी अन्य राष्ट्र–समाज में मिलनी मुश्किल है. उनके दिमाग उनके शरीरों से कहीं अधिक असहिष्णु थे. संक्षेप में निरंकुश राजशाही तथा धर्मसत्ता की सम्मिलित शक्ति ने हिंदुओं के दिलो–दिमाग पर कब्जा कर उन्हें मानव–समाज के सबसे दास–समूह में बदल दिया था.’ इससे आगे वह सर विलियम जोन्स द्वारा मनुस्मृति के अनुवाद की भूमिका से उद्धरण देते हुए लिखता है— ‘वैधानिक रूप से मान्य राजनीतिक निरंकुशता तथा धर्मसत्ता का वह मिला–जुला तंत्र आपसी सहमति के सिद्धांत के आधार पर समाज में अपनी जगह बनाए था. वह अज्ञात दिव्य सत्ता के नियम द्वारा संचालित तथा उसी के द्वारा नियंत्रित होता था. हमने देखा कि समाज के जातीय बंटवारे तथा ब्राह्मणों के पूर्वाग्रहयुक्त, विभेदनकारी सोच ने हिंदुओं में ऊंच–नीच की घोर हानिकारक प्रथा को जन्म दिया. इस प्रकार का जाति आधारित विध्वंसकारी विभाजन जैसा भारत में देखने को मिला, वैसा अन्यत्र कहीं न था. हमने देखा कि ब्राह्मणवादी व्यवस्था के घृणित, पीड़ादायी और अमानवीय विभाजन ने समाज के बड़े वर्ग का निरंतर उत्पीड़न किया है. इतनी बुरी तरह से कि लोगों के दिमाग उनके शरीर से बड़े गुलाम बन चुके हैं. संक्षेप में धार्मिक–राजनीतिक निरंकुशता एवं पुरोहितवाद ने मिलकर हिंदुओं के दिलो–दिमाग को मानवीय सभ्यता का सबसे बड़ा दास बनाने का काम किया है.’ एक ओर व्यक्ति–स्वातंत्रय और जनवादी विचारधारा का पक्ष लेना तथा दूसरी ओर एक औपनिवेशिक सत्ता के समर्थन में भारी–भरकम तर्क गढ़ना, ये जेम्स मिल के जीवन के अंतर्विरोध हैं. ब्रिटिश कालीन भारत का इतिहास लिखते समय अपनी लेखकीय ईमानदारी का प्रदर्शन करते हुए वह यह तो लिखता है कि उसने भारत नहीं देखा और उसका समस्त ज्ञान भारत संबंधी पुस्तकों, संदर्भ ग्रंथों और छुटपुट आलेखों तक सीमित है, मगर अपनी पुस्तक को प्रामाणिक बनाने के लिए वह भारतीय सभ्यता और संस्कृति को लेकर वैसा शोध नहीं कर पाता, जो विलियम जोन्स, मैक्समूलर जैसे विद्वानों ने खुले मन से बिना किसी पूर्वाग्रह के किया, जिससे प्राचीन भारत की बौद्धिक संपदा को लेकर वे दरवाजे खुले जिनके बारे में अधिकांश भारतीय बुद्धिजीवी भी अनजान थे. इसके बावजूद हमें मानना पड़ेगा कि अपनी पुस्तक में जेम्स मिल ने भारतीय समाज के बारे में कटु वास्तविकताओं की ओर संकेत किया था, जो यहां जातीय विभाजन के रूप में शताब्दियों से चली आ रही थीं. उनकी जकड़ इतनी मजबूत थी कि जाति–व्यवस्था के निचले पायदान पर मौजूद लोगों ने जातीय शोषण को अपनी नियति मान लिया था. उल्लेखनीय है कि सतरहवीं–अठारहवीं शताब्दी में यूरोपीय देशों में प्राचीनकाल से चली आ रही दासप्रथा के उन्मूलन के लिए आंदोलन जोरों पर थे; और जेम्स मिल उन विचारकों में से था जो घृणित दासप्रथा को तत्काल समाप्त किए जाने के पक्ष में थे. इसलिए भारतीय समाज के जातीय विभाजन तथा उसके आधार पर एक वर्ग द्वारा दूसरे वर्ग की शारीरिक–मानसिक गुलामी के बारे में सुनने के बाद उसका क्षुब्ध होना स्वाभाविक ही था. बहरहाल, भारतीय इतिहास और संस्कृति को लेकर अंग्रेजों की कोशिश का परिणाम यह हुआ कि जिस देश का इतिहास एक हजार वर्ष पहले तक खोजे नहीं मिलता था, उसको ग्रियर्सन और विलियम जोन्स, जार्ज प्रिंसेप की टीम ने न केवल ढाई हजार वर्ष पहले तक पहुंचा दिया, बल्कि भारतीय संस्कृति की विविधता एवं विशालता को लेकर ऐसे तथ्य भी उजागर किए जो लंबी गुलामी और समाज में व्याप्त अशिक्षा, धार्मिक–जातीय वैमनस्य के कारण लुप्तप्रायः थे. लगभग यही वह दौर था, जब मैक्समूलर ने वेदों का जर्मन अनुवाद किया और भारत का वह रूप दुनिया के सामने आया, जिसके आधार पर वह ढाई हजार वर्ष पहले विश्वगुरु का दर्जा हासिल कर चुका था. मैक्समूलर की प्रेरणा से यूरोपीय विद्वानों के बीच भारतीय साहित्य के अध्ययन–विश्लेषण को लेकर मानो होड़–सी व्याप गई. आर्थर एंथोनी मैक्डानल, मौरिस विंटरनिट्ज, जे. गोंडा, कीथ आदि विद्वानों ने भारतीय साहित्य का विशद् अध्ययन द्वारा उसे संयोजित, विश्लेषित करने का युगांतरकारी कार्य किया. इन प्रयासों द्वारा भारतीय जनता का खोया हुआ आत्मविश्वास वापस लाने में मदद मिली, जो शताब्दियों की दासता में लगभग गायब हो चुका था. जर्मनी के अलावा फ्रांस तथा इंग्लेंड के विद्वान भी आगे आए, जिसके फलस्वरूप भारत को समझने के लिए पाश्चात्य विद्वानों को साहित्यिक सामग्री उन्हीं की भाषा में उपलब्ध हो सकी. अंग्रेज अपने साथ एक आर्थिक व्यवस्था भी लाए थे, जो मशीनों द्वारा उत्पादन पर टिकी थी. उन्होंने भारत का वैसा औद्योगिकीकरण नहीं किया, जैसा इंग्लेंड में हो चुका था. व्यापारी अंग्रेजों की इसके पीछे भी एक चाल थी. उनका इरादा अपने अन्य उपनिवेशों की भांति भारत को भी कच्चे माल के òोत के रूप में इस्तेमाल करने का था. उन्होंने भारत में सिर्फ वही कारखाने या उद्यम स्थापित किए जिनकी या तो यहां प्रशासनिक दृष्टि से अनिवार्यता थी अथवा वे जिन्हें पर्यावरण की दृष्टि से इंग्लेंड में लगाया जाना उचित न था. पहली श्रेणी में रेल यातायात और छापाखाना आते हैं, जबकि दूसरी में नील और अफीम की खेती जैसे विनाशकारी उद्यम, जो कालांतर भारत में अंग्रेजों के प्रति आक्रोश को बढ़ावा देने और उनकी शोषणकारी वृत्ति को सामने लाने में सहायक बने. ये चेताएं समाज को औपनिवेशिक शोषण के विरुद्ध एकजुट कर रही थीं. लगभग पूरी दुनिया में चल रहे सुधारवादी आंदोलनों का प्रभाव भारत पर भी पड़ रहा था. इससे वे प्रसुप्त अस्मिताएं भी सिर उठा रही थीं, जिन्हें अभी तक जाति, धर्म, सामंतवाद आदि के कारण उपेक्षा का शिकार होना पड़ा था. अंग्रेजी शिक्षा के बढ़ते चलन के कारण परंपरागत शिक्षा तक सीमित रहना अब जरूरी नहीं रह गया था. नई शिक्षा के लिए आधुनिक भावबोध से भरपूर पुस्तकों की आवश्यकता थी. इसलिए अन्य देशों की भांति भारत में भी बच्चों के लिए पुस्तक लेखन का सिलसिला पाठ्य पुस्तकें तैयार करने से आरंभ हुआ, फिर जैसे ही बच्चों में पढ़ने की ललक जन्मी, उनके लिए साहित्यकारों ने बहुउपयोगी पुस्तकें रचना आरंभ कर दिया. हिंदी बालसाहित्य की मुख्य प्रेरणाएं पहले भी कहा गया कि भारत में बालक कभी उपेक्षित नहीं रहा. धर्मग्रंथों में भी उदात्त बालचरित्रों का वर्णन जगह–जगह हुआ है. हमारे यहां नचिकेताओं की परंपरा रही है, जो बचपन से ही मृत्यु जैसे गंभीर सवालों से दो चार होते रहे हैं. ध्रुव, प्रहृलाद, आरुणि उद्दालक, एकलव्य, सत्यकाम जाबालि जैसे बच्चों की कहानियोंं भले ही धार्मिक–सामाजिक जरूरतों के आधार पर गढ़ी गई हों, मगर वे यह दर्शाती हैं कि भारतीय परिवारों में बालक चेतना के केंद्र में रहा है. उन्हें देश की आध्यात्मिक चेतना का उत्तराधिकारी और सूत्रधार भी बताया गया था. बावजूद इसके चाहे वह कठोपनिषद हो अथवा कोई और, बच्चों के माध्यम से जो विषय विमर्श के केंद्र में लाए गए हैं, उनका संबंध बड़ों से था, या कह सकते हैं कि वे बच्चों को बड़ी–बड़ी बातें, बड़ों की भाषा और संस्कार के साथ पढ़ाते–सुनाते थे. बालसाहित्य की आधुनिक अवधारणा से जो अभिप्रेत है, उसके उन दिनों तक विकास ही नहीं हो पाया था. प्राचीन ग्रीक, यूनानी, मिश्र, अरब देशों आदि की भांति भारत में भी साहित्य का प्रथम लक्ष्य धर्म का प्रसार–प्रचार रहा है. अन्य सभ्यताओं की भांति भारत में भी अक्षर के आविष्कार को मनुष्य की आध्यात्मिक चेतना का विचार माना गया. हालांकि वह विस्तार संपूर्ण मानवीय चेतना का था, जिसका अध्यात्मिक चेतना केवल एक अंग है. संभव है कि समाज के कुछ वर्गों ने निहित स्वार्थों के लिए जान–बूझकर ऐसा किया हो. तो भी लेखन–पाठन लंबे समय तक धर्म–दर्शन और अध्यात्म तक सिमटा रहा. इसके अलावा जो पढ़ना पड़ता था, वह वर्गीय शिक्षा थी. जैसे क्षत्रिय बालक को गुरु से हथियार चलाने की शिक्षा लेना अनिवार्य था. वैश्य बालक को गणित के बारे में सिखाना जरूरी माना जाता था, ताकि वह अपने पैत्रिक व्यवसाय को आगे बढ़ा सके. इसका अभिप्राय यह नहीं है कि भारतीय परंपरा में बालक को सर्वथा उपेक्षित माना जाता था. वैदिक साहित्य की वाचिक परंपरा में गुरु बच्चे को अपने समक्ष बिठाकर पाठ सिखाता था. उस समय लेखन–वाचन को समान महत्त्व दिया जाता था. वेदों में ऐसी कई रचनाएं हैं जिन्हें बच्चों के नैतिक विकास के लिए अनिवार्य माना जाता है. भारतीय वाङमय में बच्चों के लिए उपयोगी साहित्य के रूप मे वड्डकथा, कथासरित्सागर, जातक कथाएं, पंचतंत्र, हितोपदेश आदि पुस्तकों की चर्चा समय–समय पर होती रहती है. इनमें कथासरित्सागर और हितोपदेश मौलिक न होकर क्रमशः वड्डकथा(बृहत्कथा) और पंचतंत्र का पुनर्लेखन हैं. वड्डकथा की रचनाकाल 495 ईस्वीपूर्व माना जाता है. उसके रचनाकार गुणादय सातवाहन के राज्य में मंत्री थे. कहा जाता है कि प्राकृत भाषा में लिखी गई ‘वड्डकथा’ में सात लाख सूक्त थे, लेकिन उसका कोई भी हिस्सा आज उपलब्ध नहीं है. कश्मीरी पंडित सोमदेव ने ‘वड्डकथा’ को संस्कृत में लिखा और नाम दिया ‘कथासरित्सागर’. सोमदेव कश्मीर सम्राट अनंत के आश्रित थे. कथासरित्सागर की रचना उन्होंने रानी सूर्यमती के मनोरंजन के निमित्त की थी. ‘पंचतंत्र’ को न केवल भारत बल्कि दुनिया–भर के बालसाहित्य का स्रोत कहा सकता है. इस कृति का मूल रचनाकार विष्णु शर्मा को माना गया है, जो महिलारोप्य नामक नगर के सम्राट अमरशक्ति के आश्रित थे. राजा के तीन उद्दंड बेटों बहुशक्ति, उग्रशक्ति और मंदशक्ति को सही रास्ते पर लाने के लिए विष्णु शर्मा ने उन्हें एक–एक कर कई कहानियों सुनाई थीं, वही पंचतंत्र के रूप में संकलित हैं. कुछ विद्वानों के अनुसार विष्णुशर्मा और कोई नहीं चंद्रगुप्त मौर्य के मंत्री विष्णुगुप्त चाणक्य हैं. उन्होंने ही छद्म नाम से इस पुस्तक की रचना की है. उल्लेखनीय है कि प्राचीन भारतीय वाङमय में महिलारोप्य नाम के किसी राज्य का उल्लेख नहीं है. इससे लगता है कि यह पंचतंत्रकार की एक कल्पना थी. दूसरी बात यह कि जिस कूटनीति की शिक्षा पंचतंत्र की कहानियों देती हैं, वे चाणक्य की नीति से बहुत मेल खाती है. जो हो इतना तो साफ है कि व्यावहारिक राजनीति के बारे में पंचतंत्रकार और चाणक्य की नीति एक–दूसरे से बहुत मेल खाती थी. इस आधार पर पंचतंत्र ईसा से करीब 350 वर्ष पुरानी रचना है. जबकि हटेल ‘पंचतंत्र’ को 200 ईस्वीपूर्व की रचना मानता है. कहते हैं कि पुस्तक के लेखक ने उसकी रचना 80 वर्ष की परिपक्व अवस्था में की थी. इसलिए ‘पंचतंत्र’ में उस समय की कूटनीति और व्यवहारशास्त्र का निचोड़ है. यह उस समय की रचना है जब भारत में गणतांत्रिक राज्य अपनी प्रासंगिकता खो चुके थे तथा साम्राज्यवाद की धारणा जोर पकड़ने लगी थी. ‘पंचतंत्र’ का अनुवाद और पुनर्लेखन भारतीय और विदेशी भाषाओं में लगातार होता रहा है. भारतीय दर्शन के विशेषज्ञ, गीता, पंचतंत्र जैसी पुस्तकों का सीधे संस्कृत से अंग्रेजी में अनुवाद, संस्कृत व्याकरण तथा उसका शब्दकोश तैयार करने वाले फ्रैंकलिन एडगर्टन(1885—1963) ने पंचतंत्र के अनुवादों की विशद्ता का उल्लेख करते हुए लिखा है कि उसके— ‘पचास से अधिक भाषाओं में दो सौ से अधिक अलग–अलग अनुवाद हुए है. इनमें से तीन–चैथाई भाषाएं भारत से बाहर की हैं. यह ग्रंथ अनुवाद के माध्यम से ग्यारहवीं शताब्दी के आरंभ में ही यूरोप में दस्तक दे चुका था. सोलवीं शती में उसकी गूंज यूनान, लैटिन, स्पेन, इटली, जर्मनी, अंग्रेजी, स्लोवाकिया, चेक गणराज्य सहित स्लोवाकिया की अन्यान्य भाषाओं में सुनाई पड़ने लगी थी. उसकी पहुंच जावा से लेकर दक्षिणी ध्रुव तक बनी थी. (भारत में भी)…पंचतंत्र का निरंतर लेखन–पुनर्लेखन चलता रहा. इसका विस्तार, संक्षेपीकरण, टीकाकरण जैसे कार्य लगातार होते रहे. भारतीय में भी पंचतंत्र की रचनाओं के पद्यानुवाद तथा गद्य लेखन–रूपातंरण होते रहे. संस्कृत में पुनर्लेखन सहित इसका मध्यकालीन लोकभाषाओं में भी अनुवाद किया गया. किस्सा–कहानी के दीवाने भारतीयों ने पंचतंत्र की अनेक कहानियों को लोककथाओं के रूप में पिरोया और शताब्दियों तक लगातार सुनते–सुनाते रहे. फिर आधुनिक लेखकों ने लोककथाओं में अनेक रूप में सुनी–सुनाई जाने वाली पंत्रतंत्र की कथाओं का अनेक बार पुनर्प्रस्तुतिकरण भी किया.’ भारत में पंचतंत्र के विभिन्न भाषाओं में 25 से अधिक रूप मिलते हैं. जिनमें एक संस्कृत में लिखी तंत्र–आख्यायिका भी है. पारसी भाषाओं में इसका अनुवाद 570 ईस्वी में बोर्जु–या द्वारा किया गया. वहां से वह सीरियाई भाषाओं में ‘कलिलग तथा दमनग’ के शीर्षक के अंतर्गत अनूदित किया गया. अरबी में इसका अनुवाद पारसी विद्वान अब्दुल्ला इब्न अल–मुकाफा द्वारा ‘कलि–ला वा दिमनाह’ शीर्षक से किया गया. अरबी अनुवाद के आधार पर पंचतंत्र पारसी भाषा में ‘अनवा–रे–सोहेली’ के रूप में सामने आया. यूरोप में पंचतंत्र के आरंभिक अनुवाद अरबी भाषा से हुए, जहां पंचतंत्र की कहानियों ‘बिदपई(कुछ यूरोपीय देशों में पिलपई) की परीकथाओं’ के रूप में प्रसिद्ध हैं. बिदपई का उल्लेख कुछ स्थानों पर सूफी संत के रूप में हुआ है. संभव है यह पंचतंत्रकार विष्णु शर्मा के नाम का अरबी संस्करण हो, जो बोली–भाषा की सहजता के कारण बदलकर ‘बिदपई’ हो गया हो. जबकि कुछ विद्वान इसे मध्यकाल के लेखक विद्यापति का अपभ्रंश बताते हैं. डोरिस लेसिंग ने अपने एक निबंध में बिदपई को एक सूफी संत के रूप में दर्शाया है. लेकिन सभी में बिदपई का कार्यकाल पंचतंत्रकार के मुकाबले बहुत बाद का है. यहां डोरिस लेसिंग ने एक निबंध में बिदपई को लेकर एक कहानी का उल्लेख किया है. कहानी में बिदपई एक सूफी संत के रूप में दर्शित है. वह लोककथाओं का जादूगर तथा अनूठा किस्सागो है. कहानी कुछ इस प्रकार है— ‘बात उन दिनों की है जब सम्राट सिकंदर भारत छोड़कर जा रहा था. भारत में विजित राज्यों की देखभाल के लिए उसने अपने प्रतिनिधि नियुक्त किए थे. उनमें एक राजा बहुत ही उदंड एवं आततायी था. प्रजा के सुख–दुख से उसे कोई मतलब ही न था. उस समय एक साधु आगे आया, नाम था बिदपई. उसने अपनी पत्नी से कहा कि मैं राजा को डपटने समझाने जा रहा हूं. इसपर पत्नी रोने–झींकने लगी तो बिदपई ने उसको समझाया और प्रस्थान कर गया. जब वह सम्राट के दरबार में पहुंचा तो उस समय रात हो चुकी थी. इसपर पत्नी रोने–झींकने लगी. उसको समझाकर बिदपई प्रस्थान कर गया. जिस समय वह सम्राट की नगरी में पहुंचा अंधेरा हो चुका था. राजभवन की छत पर बैठा सम्राट खुले आसमान में तारे देख रहा था. विस्तीर्ण अनंताकाश में टिमटिमाते अनगिनत तारों को देख अचानक राजा को अपने अस्तित्व की लघुता का बोध होने लगा. उसका लगा कि अनंताकाश के समक्ष वह कितना तुच्छ है. ये तारे हजारों–लाखों वर्षों से इसी प्रकार टिमटिमाते आ रहे हैं. इन्हें देखते हुए उसका जीवन कितना लघु है. देखते ही देखते सम्राट का नगण्यताबोध अवसाद में ढल गया. उसे अपना जीवन तुच्छ लगने लगा. उसी क्षण सम्राट ने एक भव्य आकृति को अपने समक्ष पाया. वह हरे वस्त्रों पहने थी, जिनपर अनेक कहानियों छपी हुई थीं. सम्राट की मनःस्थिति को पहचानते हुए भव्य आकृति बोली—‘चूंकि तुमने पहली बार अपने वैभव और महत्त्वाकांक्षाओं से परे हटकर जीवन के सत्य के बारे में सोचा है, इसलिए मैं तुम्हें एक वरदान देना चाह रहा हूं. यदि तुम कल प्रातःकाल मेरी बताई गई दिशा में प्रस्थान करोगे तो वहां तुम्हें अनमोल खजाना प्राप्त होगा.’ राजा वैभव से उकता चुका था. साधु की बात मान अगले दिन उसने राज्य छोड़ दिया और साधु द्वारा बताई दिशा में प्रस्थान कर गया. चलते–चलते अचानक उसकी निगाह एक फटेहाल व्यक्ति पर पड़ी. राजा उसके पास पहुंचा. पूछने पर थकान से चूर राजा ने कहा—‘मित्र कल रात मुझसे कहा गया था कि यहां पहुंचने पर मुझे खजाना मिलेगा, मैं उसी की तलाश में हूं.’ ‘क्या तुम सम्राट देवशलीन हो!’ ‘हां, मैं सम्राट देवशलीन ही हूं.’ ‘तब तो उस गुफा में खजाना तुम्हारी प्रतीक्षा में है. चलकर देखो.’ मंत्रमुग्ध–सा सम्राट उसके पीछे चल दिया. गुफा के भीतर पहुंचते ही सम्राट की आंखें चौंधियां गईं. वहां सोने और हीरे–जवाहरात का ढेर लगा था. सम्राट उसको फटी–फटी आंखों से मग्न मन कुछ देर तो देखता रहा, थोड़ी देर बाद बोला—‘अरे, यह सब तो मेरे पास पहले ही बहुत सारा है. और मुझे भला क्यों चाहिए?’ तभी उसकी निगाह एक पुस्तक पर पड़ी. उसने जतन से उसको उठाया और खोलकर देखा. लेकिन उसकी कुछ समझ में न आया. हीरे–जवाहरात के ढेर को वहीं छोड़ सम्राट उस पुस्तक को ले राजमहल लौट आया. लेकिन पुस्तक में कही गई पहेलीनुमा बातें उसकी समझ में न आ सकीं. उसने उकताकर पुस्तक को नाली में फेंक दिया. अचानक वह हरे वस्त्रधारी साधु वहां उपस्थित हुआ. उसने पुस्तक को निकाला. साफ किया. राजा उसको हैरानी से देखता रहा— ‘क्या तुम इस पुस्तक के बारे में बता सकते हो?’ उसने साधु से फरियाद की. ‘अवश्य.’ साधु ने कहा. वह साधु बिदपई था.’ पंचतंत्र की कहानियों की अरब यात्रा के साथ अनेकानेक कहानियों के साथ यह कहानी भी जन्मी और उनके साथ–साथ अरब देशों के लोकसमाज का हिस्सा बन गई. भारत में हितोपदेश के रूप में पंचतंत्र का पुनर्लेखन नारायण पंडित ने संवत 1393(12वीं शताब्दी) में किया था. नारायण पंडित बंगाल के राजा धवलचंद के आश्रित थे. हितोपदेश की कहानियों के संकलन के पीछे उनका उद्देश्य था युवाओं को व्यावहारिक जीवन–दर्शन से परचाना, ताकि बड़े होकर वे जिम्मेदार नागरिक बन सकें. पंचतंत्र और हितोपदेश की कई कहानियोंं जातक कथाओं से भी मिलती हैं. ऐतिहासिक दृष्टि से जातक कथाएं इन सबमें पुरानी हैं. जातक कथाओं के रूप में लगभग तीन–हजार रचनाएं प्राप्त होती हैं. उनका लेखनकाल ईसापूर्व तीसरी–चैथी शताब्दी है. इस वर्ग में धर्म, नीति और आचारशास्त्र पर अलग–अलग कहानियोंं प्राप्त होती हैं. प्रत्येक कहानी में नैतिक संदेश छिपा हुआ है. इन कहानियों को बुद्ध के पूर्वजन्म की कथाएं कहकर प्रचलित किया गया है. लगभग इसी दौर में रचे गए महाकाव्यों, शताधिक पुराणों, स्मृतियों और आरण्यकों में भी ऐसी कई कहानियों और दृष्टांत आए हैं, जिन्हें बच्चों के लिए उपयोगी माना जा सकता है. हालांकि उस समय के अधिक साहित्य की भांति इन सबकी रचना भी बड़ों की जरूरत और पसंद को केंद्र में रखकर की गई थी. मध्यकाल में भी ऐसी कई कृतियों की रचना इस देश में हुई जिन्हें बच्चे चाव से पढ़ते हैं. इनमें अकबर–बीरबल के चुटुकले, तेनाली राम के किस्से, देवन मिसर, गोनू झा की कहानियों, वैताल पचीसी, सिंहासन बतीसी आदि सम्मिलित हैं. कुछ रचनाएं मुगलों और इस्लाम के अनुयाइयों के सौजन्य से भी इस देश में पहुंची थीं, जिनमें ‘हजार रातें उर्फ आलिफ लैला’, हातिम ताई, मुल्ला नसीरुद्दीन, गुलबकाबली आदि किस्से सम्मिलित हैं. बीरबल सम्राट अकबर का समकालीन और उसका दरबारी था. जबकि तेनाली राम विजयनगर सम्राट महाराज कृष्णदेव के दरबार में रहता था. गोनू झा मिथिलांचल में चैदहवीं शताब्दी में जन्मे थे. उनके वुद्धि चातुर्य और सूझबूझ का परिचय देते छोटे–छोटे किस्से हैं, उनमें गजब की पठनीयता है. ‘वैताल पचीसी’ और ‘सिंहासन बतीसी’ वस्तुतः कथासरित्सागर की कुछ कहानियों का ही पुनर्लेखन है. लेकिन कथासरित्सागर की कहानियों में जहां नैतिकताबोध प्रबल है, वहीं ‘वैताल पचीसी’ और ‘सिहांसन बतीसी’ की कहानियों में कर्मकांड की प्रचुरता है. ‘वैताल पचीसी’ के रचनाकार या प्रस्तोता वैताल भट्ट बताए जाते हैं, जो न्याय और वीरता के लिए प्रसिद्ध सम्राट विक्रमादित्य के दरबार में मंत्री थी. ‘वैताल पचीसी’ की भांति ‘सिंहासन बतीसी’ भी सम्राट विक्रमादित्य की न्यायप्रियता और बहादुरी का बखान करती है. ‘सिंहासन बत्तीसी’ का प्रस्तोता मुनि क्षेमेंद्र हैं. इन कहानियों का प्रस्तुतीकरण दक्षिण भारत और बंगाल में भी अलग–अलग समय हुआ. दक्षिण में ये कहानियों ‘विक्रमचरित’ के नाम से विख्यात हुईं. बंगाल में इनके प्रस्तोता वररुचि थे. वर्षों तक यह कहानियों जनसमाज के बीच किस्से–कहानियों के रूप में सुनी–सुनाई जाती रहीं. घरों में पंचतंत्र और हितापदेश की कहानियों के लौकिक संस्करण भी परिजनों द्वारा बच्चों को सुनाए जाते रहे. इनमें पंचतंत्र को छोड़कर जिसके बारे में सभी जानते हैं कि उसकी रचना उदंड राजकुमारों को व्यावहारिक ज्ञान की शिक्षा देने के ध्येय से की गई था. जबकि वैताल पचीसी, कथासरितसागर और सिंहासन बतीसी आदि की रचनाओं का मुख्य ध्येय बड़ों का मनोरंजन करना, उन्हें कुछ नैतिक–व्यावहारिक सीख देना था. उनकी रचना भी बड़ों को केंद्र में रखकर की गई थी. मध्ययुग के कथाचरित्र पर लोक और सामंतवाद की छाया है. अधिकांश जनजीवन चूंकि ग्राम्याश्रित था, जहां मनोरंजन के कम साधन थे, इसलिए कहानी–किस्से सुनना–सुनाना लोगों के मनोरंजन का प्रमुख साधन था. गोनू झा, बीरबल, तेनाली राम आदि सभी किसी न किसी सम्राट के आश्रित थे. इसलिए उनकी कहानियों पर सामंतवाद की छाया है. यह भारतीय इतिहास का वह कालखंड है जब राजनीति तेजविहीन हो चुकी थी. वर्णव्यवस्था, जातिवाद और कर्मकांडों से ग्रस्त भारतीय मनीषा की धार कुंद थी. उम्मीद थी तो बस लोक से. उन लेखकों, कवियों से जो स्वयं को राजसत्ता के बजाय लोक के अधिक निकट पाते थे. गोनू झा उन्हीं में से थे. वे लोक को बिसराते नहीं है. समय–समय पर हंसी–मजाक के जरिये ही सही, जहां सम्राट को उसके कर्तव्य की याद दिलाते हैं, वहीं लोक के विचलन पर उसको भी आवश्यक चेतावनी दे जाते हैं. गोनू झा की कहानियों लोक के अधिक करीब, सीधे लोकसाहित्य का हिस्सा जान पड़ती हैं. मध्ययुग के कथासाहित्य की बानगी के तौर पर उनकी एक कहानी का आनंद लेते हैं— ‘गोनू झा की मां बीमार थी. मरणासन्न अवस्था. बचने की कोई उम्मीद न थी. कुदरत का कमाल. उस बरस गोनू झा के खेतों में गन्ने की फसल खूब लहलहाई थी. जो भी देखता उसकी प्रशंसा किए बिना न रहता. गोनू झा ने मां का काफी उपचार कराया, पर जरा–जर्जर काया प्राणों को अधिक दिन संभाल न सकी. वृद्धा के देहांत का समाचार इलाके के पंडितों और गांववालों को मिला तो जोरदार भोज की उम्मीद में सबने गोनू झा को घेर लिया— ‘गरीब आदमी हूं, पांच ब्राह्मणों से अधिक नहीं जिमा सकता.’ गोनू झा ने कहा. ‘आप और गरीब, इस पर कौन विश्वास करेगा? कम से कम पचीस गांवों का भोज जमना चाहिए.’ ‘पचीस गांव! यह तो ज्यादती है. इतने लोगों को जिमाने के लिए धन कहां से लाऊंगा!’ ‘वह केवल आपकी नहीं, हमारी भी मां थी. इसलिए हम सब इसमें सहयोग करने को तैयार हैं. आपको जितने धन की आवश्यकता हो मांग लीजिए. उधार रहेगा, धीरे–धीरे चुकाते रहना.’ ‘कर्ज लेकर भोज कराना क्या की समझदारी है!’ ‘इसमें गलत क्या है. मां आखिर रोज–रोज तो मरती नहीं. और हां, भोज में शुद्ध मिष्ठान चलना चाहिए.’ गोनू झा ने गांववालों को काफी समझाने की कोशिश की. परंतु वे जिद ठाने रहे. निर्णय के लिए एक दिन का समय लेकर गोनू झा घर लौट गए. बेहद चिंतित. समझ नहीं पा रहे थे कि क्या करें! गांव में जो घटा, उसकी खबर पत्नी को भी मिल चुकी थी. गांववालों के व्यवहार से वह गुस्से में थी. गोनू झा घर पहुंचे तो बोली— ‘उन्हें भोज ही चाहिए तो पत्तल पर एक–एक ढेली गुड़ की रख दीजिए.’ त्वरित बुद्धि गोनू झा ने झट से निर्णय ले लिया. अगले दिन गांव में लोग जुटे तो उन्होंने पचीस गांवों को भोज देने की स्वीकृति दे दी. ‘भोज में शुद्ध मिष्ठान्न होना चाहिए.’ ‘अवश्य!’ गोनू झा ने कहा. ‘आपने गांव वालों की बात रखी तो हम भी पीछे नहीं रहेंगे. पचीस गांवों की दावत है. बड़ा खर्च होगा. आप चिंता छोड़कर बता दीजिए….जितना उधार चाहेंगे मिल जाएगा.’ गांव के महाजन आगे आए. पर गोनू झा ने मना कर दिया— ‘रहने दीजिए, यदि आवश्यकता पड़ी तो मांग लूंगा.’ ‘देखा हम कहते थे न, यह गोनू झा हैं. माल–मत्ते की कोई कमी थोड़े ही है इन पर. वो तो बस दावत से बचना चाहते थे.’ एक बार फिर शुद्ध मिष्ठान्न की याद दिलाकर गांववाले अपने–अपने घर लौट गए. आखिर दावत का दिन करीब आया. एक दिन पहले ही गोनू झा ने अपनी ईख कटवा दी. गन्नों को साफ कर उसके छोटे–छोटे टुकड़े कराकर रख लिए. अगले दिन दावत थी. सुबह से ही भोज के लिए गांववालों का आना शुरू हो गया. ‘मिष्ठान्न की महक नहीं आ रही.’ एक पंडित ने बोला. ‘आप बैठिए तो सही, मिठाई बस आने ही वाली है.’ ‘भीतर हवेली में हलवाई जुटे होंगे. आखिर गोनू झा ठहरे. कोई ऐसे–वैसे आदमी थोड़े ही हैं.’ पंडित कतारबद्ध होकर बैठने लगे. उनके बैठते ही गोनू झा सिर पर टोकरा रखकर मिष्ठान्न परोसने निकले. सब ललचाई निगाहों से टोकरे की ओर देखने लगे. गोनू झा ने परोसना आरंभ किया. पर यह क्या! पत्तल पर मिठाई के स्थान पर गन्ने का टुकड़ा देख पंडित लोग चैंक पड़े. ‘क्या यही खिलाने लिए आपने हमें यहां बुलवाया है?’ ‘क्यों इसमें क्या बुराई है. मिठाई है. शुद्ध है. यही तो मैंने कहा था.’ ‘पर क्या गन्ना भी दावत में परोसा जाता है.’ ‘क्यों नहीं. दावत तो गृहस्थ की मर्जी से होती है. और मेरे पास जो था, वह तो मैंने आपके हवाले कर दिए.’ भोज में आए ब्राह्मणों के पास इसका कोई जवाब न था. गन्ने के टुकड़े को बगल में दबाए वे घर लौटने लगे. ये लोक से जुड़ी कहानियों हैं. हास्य मिश्रित, मगर कुरीतियों पर कटाक्ष करती हुई. देवन मिसर, गोपाल भांड, गोनू झा, तेनालीराम, मुल्ला नसीरुद्दीन के किस्से इस कसौटी पर खरे उतरते हैं. यही आगे चलकर हिंदी बालसाहित्य की मुख्य प्रेरणा बने और किसी न किसी रूप में उसको लगभग एक शताब्दी तक प्रभावित करते रहे. बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में जब दूसरी औद्योगिक क्रांति ने लोगों के सोच और जीवनमूल्यों पर प्रभाव डालना आरंभ किया तो बालसाहित्य भी परिवर्तन से अछूता न रहा. लेकिन संस्कृति के नाम पर, परंपरा के नाम पर लोक में घुलमिल गए इन किस्से–कहानियों का प्रभाव उसपर आज तक बना है. हिंदी बालसाहित्य का उद्भव अंग्रेजी शिक्षा के प्रभाव और परिवर्तनशील समय की आवश्यकताओं को देखते हुए बच्चों के लिए उपयुक्त साहित्यिक पुस्तकों की आवश्यकता अनुभव की गई तो श्रेष्ठ और मौलिक बालसाहित्य के विकल्प के अभाव में वैताल पचीसी, सिंहासन बतीसी, कथासरितसागर, जातक कथा, आलिफ लैला की रचनाओं को भी बालोपयोगी साहित्य में शुमार लिया. उनकी कहानियों का संक्षिप्त रूप लिखित और वाचिक परंपरा के माध्यम से बच्चों को पढ़ाया–सुनाया जाता रहा. यह स्थिति हिंदी में मौलिक बालसाहित्य की दस्तक तक चलती रही. कालांतर में हिंदी में मौलिक लेखन का शुभारंभ हुआ. उसका श्रेय जाता है, भाखा–मुंशी लल्लूलाल(1763—1835) तथा सदल मिश्र(1767/68—1847/48) आदि को. वे फोर्ट विलियम कालेज में हिंदी की पुस्तकों को बढ़ावा देने के लिए नियुक्त किए गए थे. दोनों में विशेष साहित्यिक प्रतिभा तो न थी, लेकिन संस्कृत, ब्रजभाषा आदि का अच्छा ज्ञान था. उपलब्ध साहित्य के खड़ी बोली में रूपांतरण के साथ नए भाषाई क्षेत्र में आत्मविश्वास के साथ कदम बढ़ाने का उन्होंने जो साहस दिखाया वह उनकी ऐतिहासिक भूमिका को रेखांकित करने के लिए पर्याप्त है. उस समय के साहित्यकारों की प्रमुख समस्या थी कि भाषा का रूप तत्सम हो या आम बोलचाल वाला? उर्दू और हिंदवी में साहित्य की भाषा क्या हो, यह भी मसला था. इस बीच बच्चों की शिक्षा के लिए पुस्तकों की आवश्यकता आन पड़ी. इसके लिए हिंदी लेखकों की आवश्यकता थी, जो बच्चों की युगीन आवश्यकता को पहचानकर पुस्तकें लिख सकें. फोर्ड विलियम कालेज के प्रोफेसर गिलक्राइस्ट उस योजना के प्रभारी थे. उन्होंने लल्लूलाल और सदल मिश्र को यह जिम्मेदारी सौंपी— ‘लल्लूलाल ने ब्रजभाषा में लिखी कहानियों को उर्दू–हिंदी गद्य में लिखा. इन्होंने ‘सिंहासन बत्तीसी’, ‘वैताल पचीसी’, ‘शकुंतला नाटक’, ‘माधोनल’ आदि पुस्तकें लिखीं. सके अतिरिक सन 1812 में इन्होंने ‘राजनीति’ नाम से हितोपदेश की कहानियों को भी गद्य में लिखा. वास्तव में इस समय जो पुस्तकें लिखवाई जा रही थीं, उनके दो उद्देश्य थे—एक यह कि ‘भाखा’ की समस्या सुलझाई जा सके और दूसरा यह कि वे पुस्तकें स्कूलों में भी पढ़ाई जाएं, जिनसे ‘भाखा’ का भविष्य निर्मित हो सके और वह अधिक लोकप्रिय हो सके….इन पुस्तकों की भाषा सरल और आसानी से समझ में आने वाली होती थी. जिन स्थानों पर अंग्रेजी पढ़ाने के लिए स्कूल और कालेज खुल चुके थे, वहां भी अंग्रेजी के साथ–साथ हिंदी पढ़ाई जाने लगी.’(हिंदी बालसाहित्य: एक अध्ययन—डा. हरिकृष्ण देवसरे) बालसाहित्य के शुभचिंतकों के लिए यह सुखदायक है कि हिंदी के इन प्रारंभिक गद्यकारों ने शेष साहित्य के साथ बालोपयोगी साहित्य को भी पर्याप्त महत्त्व दिया था. वस्तुतः यह उनके काम का ही हिस्सा था. ईस्ट इंडिया कंपनी भारत पर अपने प्रभुत्व को स्थायी बनाने के लिए यहां के जनसमाज को अपने प्रभाव में लेना चाहती थी. कंपनी के विरोध में आए दिन होने वाले विरोधों को देखते हुए उसके संचालकों यह लगने लगा था कि भारत में स्थायी प्रभुत्व के लिए यहां के साहित्य, संस्कृति और इतिहास को समझना अनिवार्य है. इसके लिए उन्होंने खड़ी बोली को महत्त्व दिया. सन 1800 में फोर्ट विलियम कालेज की स्थापना का उद्देश्य भी भारत में अंग्रेजों को प्रशासिक मामलों में मदद के लिए आवश्यक संसाधन तैयार करना था. उस समय तक संस्कृत, फारसी और अरबी प्रमुख साहित्यिक भाषाएं थीं. अंग्रेजों को लोकभाषा को महत्त्व दिए जाने का परिणाम यह हुआ कि कालांतर में बांग्ला, तमिल, हिंदुस्तानी, भाखा, मराठी आदि भाषाओं में भी साहित्यिक लेखन होने लगा. हिंदुस्तानी के प्राध्यापक के रूप में फोर्ट विलियम काॅलेज की ओर से गिलक्राइस्ट को नियुक्त किया गया. गिलक्राइस्ट के लिए हिंदुस्तानी का अभिप्राय था, अरबी–फारसी शब्दों से भरपूर भाषा. उनके नेतृत्व में अरबी–फारसी मिश्रित हिंदवी भाखा को बढ़ावा मिला. लगभग 25 वर्षों तक फोर्ट विलियम कालेज में अरबी–फारसी भाखा का दबदबा बना रहा. इसलिए उसके समय में जो अनुवाद या लेखन कार्य हुआ, उसपर अरबी–फारसी का असर बना रहा. स्थिति 1824 में उस समय बदली जब कैप्टन विलियम प्राइस को हिंदुस्तानी भाषा का प्रभारी बनाया गया. प्राइस ने गिलक्राइस्ट की भाखा–नीति में बदलाव लाते हुए उर्दू के बजाय हिंदवी को प्रमुखता दी. इससे खड़ी बोली का रास्ता साफ हुआ. ईसाई मिशनरियों ने भी नई भाषा नीति का समर्थन किया. नई भाखा–नीति के अनुरूप विद्यार्थियों को पुस्तकें प्राप्त हो सकें, इसलिए कालेज की ओर से उर्दू और भाखा यानी हिंदी में पुस्तकें लिखने के लिए अलग–अलग विभागों की स्थापना की गई. भाखा के लिए पुस्तकें तैयार करने का दायित्व सौंपा गया लल्लू लाल और सदल मिश्र को. यह एक युगप्रर्वत्तनकारी पहल थी, मगर इसका आशय यह नहीं है कि खड़ी बोली में साहित्यिक लेखन की पहल फोर्ट विलियम कालेज की ओर से की गई थी तथा उससे बाहर उसे कोई पूछने वाला ही नहीं था. वस्तुतः कालेज से बाहर भी खड़ी बोली के प्रशंसक भारी मात्रा में थे. फोर्ट विलियम कालेज से बाहर के प्रमुख लेखकों में इंशाअल्ला खां और सदासुख राय निसार(1746—1824) प्रमुख थे. सदासुखराय हिंदी में ‘सुखसागर’ तथा उर्दू में ‘निसार’ उपनाम से रचनाएं लिखते थे. वे लल्लूलाल और सदल मिश्र से वरिष्ठ थे, जबकि इंशाअल्ला खां उनके समकालीन. इंशाअल्ला खां की लिखी ‘रानी केतकी की कहानी’ को हिंदी की पहली कहानी माना जाता है. स्पष्ट है कि हिंदी लेखन का शुभारंभ फोर्ड विलियम कालेज में भाखा के लिए अलग विभाग खोले जाने से पहले ही हो चुका था. लेकिन बालोपयोगी पुस्तकों के लेखन और अनुवाद का श्रेय फोर्ट विलियम कार्य के भाखा अध्यापक लल्लूलाल को ही जाता है. उन्होंने छोटी–बड़ी लगभग 14 पुस्तकें लिखीं. अनेक बालोपयोगी पुस्तकों के अनुवाद भी उन्होंने किए. खड़ी बोली में अनूदित उनकी बालोपयोगी पुस्तकों में ‘राजनीति’(1802, हिस्ट्री आफ हिंदी लिटरेचर के लेखक फ्रेंक अर्नेस्ट ने इसे 1809 उद्धृत किया है) अथवा ‘वार्तिक’ भी आती है, जो ब्रजभाषा में ‘हितोपदेश’ यानी ‘पंचतंत्र’ का गद्यानुवाद थी. पंचतंत्र के अनुवाद के अलावा लल्लूलाल ने ‘वैताल पचीसी’ और ‘सिंहासन बतीसी’ का भी अनुवाद किया. उनकी भाषा उर्दू के निकट थी. हिंदी साहित्य के इतिहासकार फ्रांसिसी विद्वान गार्सा दा तासी का मानना है कि लल्लूलाल के अनुवाद कार्य केवल उनके अपने नहीं थे. इसके लिए उन्होंने दूसरे विद्वानों की भी मदद ली थी. लल्लूलाल द्वारा अनूदित वैताल पचीसी की भाषा का एक नमूना देखिए— ‘ये बातें करते थे कि इतने में सांझ हुई. उसे अच्छा भोजन दिया और उसने अच्छा व्यालू किया. मसल मशहूर है कि भोग आठ प्रकार का है. एक सुगंध है, दूसरे वनिता, तीसरे वस्त, चैथे गीत, पांचवे पान, छठे भोजन, सातवें सेज, आठवें आभूषण—ये सब वहां मौजूद थे. गरज जब पहररात आई, उसने रंगमहल में जा उसके साथ सारी रात आनंद से काटी. जब भोर हुई, वह अपने घर गया और वह उठके अपनी सहेलियों के पास आई.’ ‘सिंहासन बतीसी’ की भाषा भी अरबी, हिंदवी, हिंदुस्तानी और संस्कृत का मिश्रण थी. इसके बावजूद उसकी नजदीकी आधुनिक हिंदी भाषा से है. इस अनुवाद का उदाहरण देखिए— ‘तीनों लोक में हंगामा मचा कि राजा वीर विक्रमाजीत का काल हुआ उस वक्त आगिया कोयला दोनों वीर भी साथ राजा ही के लोप हो गए न वह स्वामी रहा न वे दास रहे—संसार में से धर्म की धजा उखड़ गई सब रएयत राजा के राज की रोने लगी—विराहमन भाट भिखारी रांड दुखी सब धाय मार–मार रो–रो कहने लगे कि हमारा आदर करने वाला और मान रखने वाला आज जग से उठ गया रानियां राजा के साथ सती हुईं, और जितने दास–दासी थे सब अनाथ हो गए….’ जैसा कि कहा जा चुका है ऊपर दी हुई रचना अथवा उनका अनुवाद करने वाले लेखक राजाओं के आश्रित थे और ब्राह्मण थे. इसलिए इन ‘सिंहासन बत्तीसी’ और ‘वैताल पचीसी’ की कहानियों में समाज में व्याप्त वर्णाश्रम व्यवस्था को तरह–तरह से सराहा गया है. उनमें वर्णित मूल्य किसी न किसी रूप में सामंतवाद को बढ़ावा देने वाले हैं, जिनका उनीसवीं शताब्दी में बदलते जीवनमूल्यों और सुधारवादी आंदोलनों के बीच कोई महत्त्व न था. इसलिए अंग्रेजी शासन में जो सुधारवादी आंदोलन भारत में चले उनमें अंग्रेजों के सर्वसत्तावादी दृष्टिकोण का तो विरोध किया गया था, अंग्रेजी शासन के शासन के विरुद्ध जगह–जगह आंदोलन भी चलते रहे, मगर उनके पश्चिम से आ रहे प्रगतिशील विचारों को अपनाने पर भी जोर दिया जाने लगा था. इसका प्रभाव हिंदी के बहुआयामी विकास पर पड़ा. प्रारंभिक दौर में जो साहित्यकार खड़ी बोली को साहित्यिक समृद्धि प्रदान करने के लिए आगे आए उनके समक्ष एक और समस्या थी कि भाषा का रूप तत्सम हो या आम बोलचाल वाला. उर्दू और हिंदवी का भी मसला था. इस बीच बच्चों की शिक्षा के लिए अपनाई जाने वाली भाषा की भी समस्या थी. कुछ लोग उन्हें उर्दू से संपन्न रखना चाहते थे, क्योंकि वह लंबे समय तक राजदरबार की भाषा थी और उस समय भी अदालतों और सरकारी विभागों में संवाद का प्रमुख माध्यम बनी हुई थी. परंतु हिंदू जागरण का सपना आंखों में बसाए एक वर्ग उर्दू को अध्ययन की भाषा बनाने का सख्त विरोधी था. भारत में अपने पांव जमाने के प्रयास में जुटे अंग्रेजों के लिए किसी भी वर्ग को नाराज करना संभव न था. इसलिए फोर्ड विलियम कालेज से लेकर सरकार के कामकाज तक, अंग्रेज मिली–जुली भाषा की ही सिफारिश करते रहे. यही कारण है कि अंग्रेज नौकरशाहों के नेतृत्व में जो हिंदी पनपी उसमें अरबी, फारसी के अलाबा ब्रजभाषा, अवधी आदि स्थानीय भाषाओं का भी पुट था. इसका लाभ यह हुआ कि हिंदी का शब्द भंडार तेजी से बढ़ता गया और कालांतर में अनेक भाषा–बोली से संबंधित क्षेत्रों के विद्वान साहित्यकार हिंदी की ओर मुड़े, जिससे अंततः हिंदी साहित्य को लाभ ही हुआ. हिंदी बालसाहित्य की नींव: आदि युग किसी भी भाषा में साहित्य का जन्म उस भाषा के विकास का आदि चरण होता है. इसलिए कि अपने जन्म के साथ ही भाषा अपने समाज के विभिन्न वर्गों की भावनाओं, इच्छा–आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करने लगती है. साहित्य का प्रारंभिक रूप लोकाश्रयी रहा है. वह वाचिक परंपरा के माध्यम से एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति, एक स्थान से दूसरे स्थान और एक कालखंड से दूसरे कालखंड के बीच यात्रा करता रहा है. हिंदी में भी साहित्य की वाचिक परंपरा की शुरुआत इस भाषा जितनी ही पुरानी है, जो कुछ विद्वानों के अनुसार पंद्रहवीं शताब्दी तक जाती है. उस समय साहित्य का बालक और बड़ों के बीच विभाजन नहीं हुआ था. हिंदी ही क्यों दुनिया की किसी भी भाषा में यही स्थिति थी. बड़ों के लिए लिखी–गढ़ी जाने वाली रचनाओं में से सहज–सरल बोली–बानी और रोचक कथानक वाली रचनाएं ही बच्चों के मनोरंजन का काम भी करती थीं. लिखित साहित्य की विधिवत शुरुआत के बाद भी दशकों तक यही होता रहा. साहित्यकार की निगाह में केवल उसका पाठक होता था. बालक के लिए अलग साहित्य लिखा जा सकता है या लिखा जाना चाहिए, यह उस समय तक परिकल्पित ही नहीं था. इसलिए आधुनिक समय में विश्वसाहित्य में बालसाहित्य की जो भी धरोहर कृतियां कही जाती हैं, हिंदी–संस्कृत के संदर्भ में कहें तो पंचतंत्र, कथासरितसागर, हितोपदेश, जातक कहानियों आदि सभी की रचना बड़ों द्वारा बड़ों के मनोरंजन अथवा कल्याण–भावना के साथ लिखी गई थीं. इनमें पंचतंत्र की रचना अवश्य महिलारोप्य नामक नगर के राजकुमारों को व्यावहारिक शिक्षा देने के लिए की गई थी, तथापि उसका उद्देश्य बड़ों के बड़े उद्देश्य साधना ही था. साहित्य से जो अपेक्षा आज की जाती है, वह इस पुस्तक से जुड़ी हुई नहीं थी. तो भी इन पुस्तकों का लोक और संस्कृति पर गहरा प्रभाव था. यही कारण है कि उनीसवीं शताब्दी के आरंभ में फोर्ट विलियम कालेज में जब बच्चों की शिक्षा के लिए पुस्तक तैयार करने का समय आया तो प्रारंभ में बालोपयोगी पुस्तकों के नाम पर पंचतंत्र, सिंहासन बतीसी, हितोपदेश जैसी पुस्तकों के अनुवाद से ही काम चलाया गया. मौलिक बालसाहित्य की परंपरा देर से जन्म ले सकी. कुछ विद्वान यद्धपि हिंदी बालसाहित्य का शुभारंभ सूरदास से मानते हैं. लेकिन यह उचित नहीं लगता. सूरदास ने कृष्ण की बाल्यावस्था का वर्णन अवश्य किया, उनके वर्णन में प्रामाणिकता है तथा भाषा में लालित्य. इसके बावजूद सूरदास ने जो लिखा उसको बालसाहित्य नहीं कहा सकता. कई दशकों तक नंदन जैसी लोकप्रिय बालपत्रिका के संपादन का दायित्व संभाल चुके जयप्रकाश भारती हिंदी बालसाहित्य के उद्भवकाल को 1623 तक खींच लाते हैं. वे जटमल द्वारा लिखित ‘गोरा बादल की कथा’ पर हिंदी बालसाहित्य की पहली पुस्तक का विशेषण चस्पां कर देते हैं. बालसाहित्य के कतिपय आधुनिक समीक्षक–विचारक भी मिश्र बंधुओं के हवाले से ‘गोरा बादल की कथा’ को हिंदी बालसाहित्य की पहली पुस्तक मानते हैं. लेकिन यह धारणा अतार्किक और पूर्वाग्रह प्रेरित लगती है. इस पुस्तक के बारे में जो विवरण हमें डा. रामकुमार वर्मा की पुस्तक ‘हिंदी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास’(पृष्ठ 593—594) से प्राप्त होते हैं, वे हैं— ‘‘इधर राजस्थान में हस्तलिखित पुस्तकों की जो खोज की गई है, उसमें जटमल–कृत ‘गोरा–बादल की कथा’ की जितनी हस्तलिखित प्रतियां उपलब्ध हुई हैं, वे सब पद्य में हैं. राजपूताने के चारणों और ऐतिहासिक ग्रंथों का जो विवरण बंगाल की ऐशियाटिक सोसायटी की ओर से, डा. एल. पी. टेसीटरी ने सन 1918 में प्रकाशित कराया है, उसके प्रथम भाग के द्वितीय खंड में 52वें पृष्ठ पर ‘गोरा–बादल की कथा’ के संबंध में कुछ ज्ञातव्य बातें मालूम होती हैं. डा. टेसीटरी को गद्य का एक हस्तलिखित ग्रंथ प्राप्त हुआ है जिसका नाम है—‘फुटकर वातां रो संग्रह’. इसे उन्होंने हस्तलिखित ग्रंथ नंबर 15 माना है. इस ग्रंथ में 425 पन्ने हैं, जिनका आकार 12 गुणा 8 है. यह ग्रंथ बड़ी बुरी दशा में है. इसके कई पन्ने फट गए हैं. अंत के कुछ पन्ने गायब भी हो गए हैं. प्रत्येक पृष्ठ में 26 या 27 पंक्तियां हैं और प्रत्येक पंक्ति में 20 से 24 अक्षर हैं. इसका कुछ भाग तो संवत 1845 में देशणोक में और कुछ भाग दासोढ़ी में रतन मन रूप के द्वारा लिखा गया है. इस वृहत ग्रंथ में भिन्न–भिन्न 39 फुटकर वार्ताओं का संग्रह है. इन्हीं वार्ताओं में तीसवीं वार्ता गोरा–बादल के संबंध में है. इस ग्रंथ में टेसीटरी उसका वर्णन इस प्रकार करते हैं— गोरा–बादल री कथा—(पृष्ठ 288 अ. से 295 अ. तक) जटमल द्वारा लिखित चित्तौड़ की सुंदरी पद्यिमिनी और उसके सगे–संबंधी गोरा–बादल की पद्यबद्ध प्रसिद्ध कहानी, उसका प्रारंभ इस प्रकार है— ‘चरण कमल चीत लायक। स्मरू श्री सारदा। मुझ अष्यर दे माय। कहो सकथा चीत लायक।।1।। जम्बू द्वीप मंझार। भरतषंड षंडा सिर। नगर भलो इ संसार। गढ़ चित्तौड़ है विषम अत।। 2।। आदि इसी खंड के 73 वें पृष्ठ पर गोरा–बादल के संबंध में एक दूसरी प्रति मिलती है. यह प्रति हस्तलिखित ग्रंथ नंबर 22 ‘फुटकर बातां रो संग्रह’ में है. इस संग्रह में 436 पन्ने हैं जिनका आकार 11.5 गुणा 7.25 है. प्रत्येक पृष्ठ में 30 पंक्तियां हैं और प्रत्येक पंक्ति में 24 से 30 अक्षर हैं. इस संग्रह में कई पन्ने कोरे हैं. इससे ज्ञात होता है कि यह किसी दूसरे ग्रंथ की प्रतिलिपि है, जिसके कुछ पन्ने या तो खो गए हैं या पढ़े नहीं जा सके. ‘ड’ और ‘ड़’ में कोई अंतर नहीं रखा गया. यह संग्रह महाराजा राजसिंह बीकानेर वालों ने संवत 1820 में लिखाया था. इसी से 15(1845 संवत), 18, 20, 21 नंबर के संग्रहों की बहुत–सी वार्ताएं नकल की गई हैं. पांचवीं वार्ता में गोरा–बादल की कथा का विवरण निम्नवत है— गोंरे–बादल री कथा—(पृष्ठ 87 अ. से 93 अ. तक) यह लगभग वही वार्ता है जो हस्तलिखित ग्रंथ नंबर 15 में है. पर पाठांतर बहुत है, उदाहरण के लिए इस प्रति का प्रारंभिक भाग देखिए— चरण कमल चित लाय के समरूं सरसति माय कहिस कथा बनाय के प्रणमू सदगुरु पाय।।1।। जंबू दीप मझारि भरथ क्षेत्र सोभित अधिक। नगर भलो चित्रोड़ है ता परि दूठ दुरंग। रतनसेन राणो निपुण अमली माण अभंग।।2।। आदि इस प्रति के अंत में एक दोहा है, जो संग्रह 15 में नहीं है. इसमें कवि का नाम (जटमल) और कथा का लेखनकाल(संवत 1680) दिया है. सोलै सो असी थै समै फागुण पूनिम मास बीरारस सिणगाररस कही जटमल सुपरकास(1)49 इस प्रकार गोरा–बादल की ये दोनों प्रतियां क्रमशः संवत 1820 और 1845(अथवा 1892) में लिखी गईं थीं, पद्य ही में हैं, हां, दोनों के पाठ में भेद बहुत है भाव तो अधिकतर वही हैं.’’ उपर्युक्त 22वें हस्तलिखित ग्रंथ का अंतिम दोहा जो ग्रंथ संख्या 15 में नहीं है, से स्पष्ट है कि कवि जटमल की यह रचना वीर एवं शृंगार रस की कृति है. ऐसी कृतियों का मूल उद्देश्य अपने आश्रयदाता सम्राट को प्रसन्न करना था. ‘गोरा–बादल की कथा’ के मूल में भी जो कथा है वह भी, राजशाही के प्रंपचों और सनकों से भरी पड़ी है. ऐसी कथा को बालसाहित्य की आधारकृति मान लेना सरासर अनुचित है. इसके मूल में कहानी चित्तौड़ की रानी पद्यमिनी की है, जिसके सौंदर्य के वशीभूत बादशाह अलाउद्दीन खिलजी उसपर हमला कर देता है. उसकी विशाल सेना के आगे चित्तौड़ के बांकुरे कुछ नहीं कर पाते. पराजय सन्निकट देख पद्यमिनी चतुराई का सहारा लेती है. वह अपने काका गोरा और भाई बादल के साथ मिलकर सात सौ पालकी तैयार कराती है. प्रत्येक पालकी में एक सैनिक को छिपाकर अलाउद्दीन के शिविर में पहुंचती है. वहां जो घमासान होता है, ‘गोरा–बादल की कथा’ उसी की रोमांचक गाथा है. युद्ध में दोनों रणबांकुरे वीरगति को प्राप्त होते हैं. इस कहानी में गोरा–बादल की वीरता है. परंतु उसका जो संदर्भ है, वह उसको कहीं से भी बालसाहित्य की रचना सिद्ध नहीं करता. ‘गोरा–बादल’ की कहानी सामंती मूल्यों के समक्ष बलिदान की गाथा है, जिसका लोकतांत्रिक समाज में कोई महत्त्व नहीं है. यदि ‘गोरा–बादल की कथा’ को हिंदी की पहली बालसाहित्य की रचना कहा जा सकता है तो सूरदास की बालसुलभ चेष्ठाओं का वर्णन तो उससे भी कहीं अधिक मौलिक और बालमनोविज्ञान के निकट है. उस अवस्था में तो हिंदी या ब्रजभाषा के प्रथम बालसाहित्य सर्जक का श्रेय सूरदास को ही मिलना चाहिए. फिर सूरदास ही क्यों, पहेलियां भी तो बालसाहित्य की एक मान्य विधा है. इस दृष्टि से देखें तो अमीर खुसरो से भी बालसाहित्य की शुरुआत मानी जा सकती है. उल्लेखनीय है कि अमीर खुसरो का हिंदी गद्य भी ‘गोरा–बादल की कथा’ के गद्य की अपेक्षा कहीं सहज और आधुनिक हिंदी के करीब है. वह इस उदाहरण से भी स्पष्ट हो जाता है. अपनी रचना ‘आशिका’ में अमीर खुसरो हिंदी की प्रशंसा जी खोलकर करते हैं— ‘किंतु मेरी यह भूल थी, क्योंकि यदि आप इस विषय पर अच्छी तरह से विचार करें तो आप हिंदी भाषा को फारसी से किसी प्रकार भी हीन न पावेंगे. वह भाषाओं की स्वामिनी अरबी से कुछ हीन अवश्य है पर राय और रूम(परशिया के शहर) में जो भाषा प्रचलित है, वह हिंदी से हीन है. यह मैंने बहुत विचारपूर्वक निर्धारित किया है. हिंदी अरबी के समान है, क्योंकि इन दोनों में से कोई भी मिश्रित नहीं है. यदि अरबी में व्याकरण और शब्द–विन्यास है तो हिंदी में भी वह एक अक्षर कम नहीं है. यदि आप पूछें कि उसमें काव्य–शास्त्र है तो हिंदी किसी प्रकार भी इस क्षेत्र में हीन नहीं है. जो व्यक्ति तीनों भाषाओं का ज्ञाता है, वह समझ लेगा कि मैं न तो भूल कर रहा हूं और न अतिश्योक्ति ही.’1 . खुसरो की मुकरियां और पहेलियां भी आम–फहम हिंदी में लिखी हुई हैं. इसके बावजूद यदि सूरदास और खुसरों की रचनाओं को बालसाहित्य का आदिस्रोत मानने में आपत्ति है तो जटमल को भी यह श्रेय दे पाना कदापि संभव नहीं है. अधिकांश विद्वान हिंदी बालसाहित्य के शुभारंभ का श्रेय भारतेंदु हरिश्चंद्र को देते हैं. और यह तार्किक भी है. स्वयं डा॓. देवसरे भी इससे सहमत हैं. उनके अनुसार बालसाहित्य की शुरुआत 1 जनवरी 1874 से, पत्रिका ‘बालाबोधिनी’ के प्रकाशन की तिथि से मानना उचित होगा. लेकिन ’बालाबोधिनी’ के प्रकाशन की तिथि से नारीवादी साहित्य की दस्तक तो मानी जा सकती है, बालसाहित्य की नहीं. केवल अपनी सुविधा के लिए तथ्यों से छेड़छाड़ अनुचित है. फिर बालाबोधिनी के संपादक ने तो पत्रिका के मुखपृष्ठ पर—‘स्त्री जनों की प्यारी हिंदी भाषा में सुधारी’ लिखकर अपनी मंशा साफ कर दी थी कि वे महिलाओं के लिए पत्रिका निकाल रहे हैं. पत्रिका के मुखपृष्ठ पर उपर्युक्त वाक्य के नीचे ये पंक्तियां भी छपा करती थीं— सीता अनुसूया सती अरुंधती अनुहारि शील लाजि विद्यादि गुण लहौ सकल जग नारि स्पष्ट है कि ‘बालाबोधिनी’ के प्रकाशन तिथि को हिंदी बालसाहित्य की पहली दस्तक नहीं माना जाता. परंतु इसी कारण डा॓. देवसरे को पूरी तरह गलत भी नहीं ठहराया जा सकता. हिंदी बालसाहित्य के आदि–उन्नायक का श्रेय भारतेंदु जी को ही जाता है. इसलिए कि उन्होंने बालसाहित्य के उन्नयन हेतु अनेक जहां बालोपयोगी नाटक, जिनमें ‘सत्य हरिश्चंद्र’ एवं ‘अंधेर नगरी’ प्रमुख हंै, हिंदी में नाट्य विधा का श्रेय भी उन्हीं को जाता है. इसके साथ उन्होंने कुछ मौलिक बालोपयोगी कहानियों भी लिखीं हैं. उनकी दो बालोपयोगी कहानियों हम पाठकों के लिए बानगी के तौर पर प्रस्तुत कर रहे हैं. इनमें पहली कहानी का शीर्षक ‘एक से दो’ है— एक काने ने किसी आदमी से यह शर्त बदी कि, ‘जो मैं तुमसे ज्यादा देखता हूं तो पचास रुपया जीतूं.’ और जब शर्त पक्की हो चुकी तो काना बोला कि, ‘लो, मैं जीता.’ दूसरे ने पूछा, ‘क्यों?’ इसने जवाब दिया कि, ‘मैं तुम्हारी दोनों आंखें देखता हूँ और तुम मेरी एक ही.’ ऐसी ही अनेक मजेदार कहानियों भारतेंदु जी ने बच्चों के लिए लिखी हैं, जिनमें आधुनिक हिंदी बालकथा के बीजतत्व सुरक्षित हैं. उनके द्वारा लिखी गई एक और मजेदार कहानी ‘सच्चा घोड़ा’ शीर्षक से है— एक सौदागर किसी रईस के पास एक घोड़ा बेचने को लाया और बार–बार उसकी तारीफ में कहता, ‘हुजूर, यह जानवर गजब का सच्चा है.’ रईस साहब ने घोड़े को खरीद कर सौदागर से पूछा कि, ‘घोड़े के सच्चे होने से तुम्हारा मतलब क्या है?’ सौदागर ने जवाब दिया, ‘हुजूर, जब कभी मैं इस घोड़े पर सवार हुआ, इसने हमेशा गिराने का खौफ दिलाया, और सचमुच, इसने आज तक कभी झूठी धमकी न दी.’ कहा जा सकता है कि नाट्य विधा की भांति ही भारतेंदु ने हिंदी बालसाहित्य को भी पहली दस्तक दी. बालसाहित्य की पहली रचना कौन–सी है, यह आज भी शोध का विषय है, लेकिन बालसाहित्य की ओर हिंदी लेखकों का पहली बार ध्यान भारतेंदु युग में ही गया. भारतेंदु ने स्वयं रोचक बालकहानियों भी लिखीं. संभव है वे बालसाहित्य को स्वतंत्र रूप से भी आगे बढ़ाते यदि नियति ने उन्हें कुछ लंबा जीवन दिया होता. लेकिन अल्पायु में ही उन्होंने बच्चों और बड़ों सभी के लिए साहित्यकारों की एक समर्थ पीढ़ी तैयार की. भारतेंदु की प्रेरणा से ही 1882 ईस्वी में इलाहाबाद से ‘बाल दर्पण’ नामक पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ हुआ. इसके छह वर्ष बाद लखनऊ से ‘बालहितकर’ प्रकाशित हुई. इसका परिणाम यह हुआ कि बड़ों के लिए लिख रहे साहित्यकारों का ध्यान बालसाहित्य की ओर गया. उल्लेखनीय है कि संस्कृत में बाल–पत्रकारिता का आरंभ बहुत पहले, 1876 में ही हो चुका था. संस्कृत की प्रथम बालपत्रिका थी—‘विद्यार्थी’. पहले चरण में इसके मात्र दो अंक ही निकल पाए थे. पत्रिका का पुनःप्रकाशन 1878 में हुआ. उसके बाद भी पत्रिका थोड़े समय ही निकल पाई थी. रचनात्मक बालसाहित्य लेखन के क्षेत्र में भी भारतेंदु हरिश्चंद्र की प्रेरणा से युगांतरकारी कार्य हुआ. उनके उत्साहवर्धन के फलस्वरूप बद्री नारायण ‘प्रेमघन’ ने सुंदर बालोपयोगी कविताएं लिखीं. उनके अलावा श्रीनिवास दास, प्रतापनारायण मिश्र, रायकृष्णदास, काशीनाथ खत्री, बालकृष्ण भट्ट आदि ने भी बालोपयोगी साहित्य की रचना की. प्रेमघन कवि थे. उन्होंने मुख्यतः बालोपयोगी कविताओं की रचना की. जबकि प्रताप नारायण मिश्र, रायकृष्ण दास, बालकृष्ण भट्ट, काशीनाथ खत्री ने बच्चों के लिए कहानियों और नाटकादि लिखकर बालसाहित्य की धारा को आगे बढ़ाने का काम किया. इनके अलावा फ्रेडरिक पिन्काट(1836—1896) जैसे विदेशी भी थे, जिन्हें हिंदी का लालित्य अपनी ओर खींच लाया था. गौरतलब है कि साधारण परिवार में जन्मे पिन्काट का कभी भारत आना नहीं हुआ था. वे ब्रिटेन में एक छापाखाने में शब्द संयोजक थे, जो आगे चलकर प्रसिद्ध एलन कंपनी में अधिकारी बने. छापाखाने में कार्य करते हुए उनकी हिंदी तथा भारतीय भाषाओं में रुचि जन्मी. संस्कृत, ब्रजभाषा, अवधी आदि उस समय की भारतीय भाषाओं का ज्ञान उन्होंने अपने स्वाध्याय के बल पर अर्जित किया. यह ज्ञान इतना गहरा और प्रामाणिक था कि पिन्काट की हिंदी में लिखी गई पुस्तकें उन दिनों ‘ब्रिटिश सिविल सर्विस’ के पाठ्यक्रम में सम्मिलित थीं. पिन्काट स्वयं हिंदी एवं संस्कृत के विद्वान थे. ब्रिटेन से भारत आने वाले अधिकारियों को हिंदी का ज्ञान अनिवार्य हो—इसके लिए भी पिन्काट का योगदान सराहनीय था. खड़ी बोली के आरंभिक कवियों में प्रमुख श्रीधर पाठक को लिखे गए पत्र में उन्होंने लिखा है— ‘बीस साल पहले मैं एकमात्र यूरोपीयन था, जिसने सरकार पर हिंदी के बारे में दबाव डाला और दस साल बाद इस नियम को बनवाने में सफल रहा कि भारत आने वाले अंग्रेजों को हिंदी की परीक्षा पास करना अनिवार्य किया जाए.’ पिन्काट आस्थावान व्यक्ति थे. तत्कालीन साहित्यिक परंपरा के अनुसार उन्होंने भी बच्चों के लिए नीति–प्रधान रचनाएं ही लिखीं. उनकी पुस्तक ‘एक थी बालदीपक’ को उन दिनों बिहार के स्कूलों में पढ़ाया जाता था. इस कालखंड की कविताएं और कहानियों साहित्यिक दृष्टि से चाहे जो हों, उनमें मौलिकता का अभाव है. अधिकांश रचनाएं बच्चों को नैतिकता का पाठ पढ़ाने के लिए लिखी गई हैं. उनमें उपदेशात्मकता का भाव है. मौलिक बालसाहित्य के अभाव के बावजूद इस युग का महत्त्व इसलिए है क्योंकि पहली बार बच्चों को लेकर विमर्श की शुरुआत हुई तथा उनके लिए स्वतंत्र शैक्षणिक–साहित्यिक सामग्री की आवश्यकता के बारे में सोचा गया. हिंदी साहित्य के इतिहास में भारतेंदु युग का महत्त्व लगभग सभी विधाओं के दिशा–निर्धारण के लिए जाना जाता है. विशेषकर नाटक, कविता, कहानी आदि के क्षेत्र में इस युग में जो शुरुआत हुई, उसने कालांतर में महान साहित्यकारों की कई पीढ़ियों को जन्म दिया. उनीसवीं शताब्दी के समापन तक पहुंचते–पहुंचते हिंदी साहित्य की धाराओं के निर्धारण का काम लगभग पूरा हो चुका था. खड़ी बोली स्वयं को उस समय राजकाज में उपयोग हो रहीं भाषाओं के विकल्प के रूप में स्थापित कर चुकी थी. स्वयं पिन्काट ने माना था कि इस भाषा में राजभाषा बनने के समस्त गुण उपलब्ध हैं. आगे चुनौती भाषा के परिमार्जन तथा मौलिकता के समावेश को लेकर थी. भाषा को लेकर अब भी दो वर्ग थे, जो भारतेंदु युग के आरंभ से चले आ रहे थे. उनमें से एक संस्कृतनिष्ठ हिंदी का समर्थक था, तो दूसरा उर्दू मिश्रित हिंदी का. भाषा–संबंधी इस मतभेद के पीछे उस समय कुछ लेखकों की सांप्रदायिक दृष्टि भी थी. कुछ हिंदी साहित्यकार संस्कृतनिष्ठ हिंदी के प्रयोग को जातीय पुनरुत्थान के रूप में देख रहे थे. उनके अलावा कुछ साहित्यकार थे जो समावेशी चेतना पर जोर देते थे और लेखक की भाषा को आमजन की भाषा बनाए रखने के समर्थक थे. बालसाहित्य को लेकर भी चुनौतियां कम नहीं थीं. वह अब भी उपदेशात्मक बना हुआ था. इस क्षेत्र में युगांतरकारी काम हुआ, महावीर प्रसाद द्विवेदी के तत्वावधान में. 1903 में ‘सरस्वती’ के संपादन के साथ ही द्विवेदी जी ने हिंदी साहित्य को रचनात्मक और तत्वात्मक सुधार के प्रति समर्पित कर दिया. बालसाहित्य की दृष्टि से भी द्विवेदीयुग में उल्लेखनीय कार्य हुआ. इस युग के आरंभ में बच्चों के मनोरंजन के लिए पाठ्येत्तर पुस्तकों के प्रकाशन पर जोर दिया गया. कई लेखकों ने बच्चों के लिए स्वयंस्फूर्त भाव से मौलिक पुस्तकें लिखीं. आवश्यकतानुसार कुछ पुस्तकें लिखवाई भी गईं. यद्यपि आरंभ में जो पुस्तकें प्रकाशित हुईं, उनपर धार्मिक पुस्तकों का दबाव था. रामायण और महाभारत के बालोपयोगी संस्करणों ने बच्चों को भारतीय साहित्य की परंपरा से जोड़ने में मुख्य भूमिका अदा की. बाल–मनोरंजन को केंद्र में रखकर लोककथाओं और पौराणिक कथाओं को संकलित किया जाने लगा. लगभग इसी दौर में श्रीसीतारामशरण भगवानप्रसाद रूपकलाजी द्वारा रचित ‘पीपाजी की कथा’ नामक लघु पुस्तक का प्रकाशन हुआ. यह गन्नौर के विलासी सम्राट पीपा के भोग विलास से उकताकर वैराग्य धारण कर, ‘संत पीपाजी’ बनने की कथा थी. पुस्तक बड़ों के साथ–साथ बच्चों में भी लोकप्रिय हुई. इस पुस्तक के उस दौर में कई संस्करण प्रकाशित हुए. सरस्वती का प्रकाशन साहित्यिक पत्रकारिता के दौर में नए युग की शुरुआत थी. यह युग पत्रकारिता के नए क्षेत्रों में विस्तार का भी था. महिला–पत्रकारिता की नींव तो भारतेंदु ही रख चुके थे. ‘बाला बोधिनी’ में समय–समय पर बालोपयोगी सामग्री प्रकाशित होती थी. बालसाहित्य की स्वतंत्र पत्रकारिता के शुभारंभ का श्रेय द्विवेदी युग को जाता है, जिसमें पहली दस्तक 1882 में निकली पत्रिका ‘बालसखा’ की रही. 1906 में अलीगढ़ से ‘छात्र हितैषी’ का प्रकाशन आरंभ हुआ तो बनारस से इसी वर्ष ‘बाल प्रभाकर’ ने दस्तक दी, इसके संपादक थे, किशोरीलाल गोस्वामी. फिर तो एक के बाद बालपत्रिकाओं के प्रकाशन का सिलसिला आरंभ हो गया. 1910 में इलाहाबाद से ‘विद्यार्थी’ का प्रकाशन हुआ. इसमें किशोर और बालक दोनों के लिए उपयोगी सामग्री का प्रकाशन होता था. इसके मात्र दो वर्ष बाद 1912 में नरसिंहपुर से एक पत्रिका का प्रकाशन आरंभ हुआ, नाम था—‘मानीटर’. देश में जैसे–जैसे स्वाधीनता संग्राम जोर पकड़ रहा था, हिंदी पत्रकारिता भी उतनी ही तेजी से विस्तार ले रही थी. बालपत्रकारिता पर उसका प्रभाव पड़ना स्वाभाविक ही था. इसके फलस्वरूप एक के बाद एक नई और उपयोगी बालोपयोगी पत्रिकाओं के प्रकाशन का सिलसिला बन रहा था. बीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक में प्रकाशित होने वाली प्रमुख बालपत्रिका थी, सुदर्शनाचार्य के संपादन में निकली—‘शिशु’. सुदर्शनाचार्य के पास बालसाहित्य को लेकर मौलिक दृष्टि थी. इसके फलस्वरूप बालसाहित्य के नए युग की शुरूआत हुई. पहली बार बालक को परंपरा और उपदेशात्मक साहित्य की कैद से बाहर निकालकर मौलिक लेखन के बारे में विचार किया गया. उसके बाद तो ‘बालसखा(1917)’ संपादक बद्रीनाथ भट्ट, ‘छात्र सहोदर(1920)’ संपादक मातादीन शुक्ल बाद में नरसिंह दास, ‘वीर बालक’(1924), ‘बालक’(1926), इलाहाबाद से संपादक रामजीलाल शर्मा के संपादन में ‘खिलौना’(1927) जैसी बालसाहित्य की श्रेष्ठ एवं मौलिक पत्रिकाओं की कतार लग गई. इनमें सबसे अधिक प्रतिष्ठा मिली ‘बालसखा’ को. 53 वर्षों तक निरंतर प्रकाशित होते वाली यह पत्रिका बालसाहित्य में नवीनता की स्थापक सिद्ध हुई. महान बालसाहित्यकारों की बड़ी पीढ़ी तैयार करने का श्रेय भी इस पत्रिका को जाता है. इससे बालसाहित्य को महत्त्व मिलना आरंभ हुआ. फलस्वरूप बड़े साहित्यकारों का ध्यान भी बालसाहित्य की ओर गया. रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की प्रथम कविता जो 1924 में छपी थी, के प्रकाशन का श्रेय ‘छात्र सहोदर’ को जाता है. द्विवेदी युग में साहित्य में भाषा के परिमार्जन के क्षेत्र में उल्लेखनीय काम हुआ. स्वयं द्विवेदी जी ने ‘सरस्वती’ जैसी स्तरीय पत्रिका का संपादन–दायित्व संभाला जिसने हिंदी साहित्य को भाषा और वर्तनी की एकरूपता में बांधने में बड़ी भूमिका अदा की. इससे हिंदी की प्रतिष्ठा में इजाफा हुआ. फलस्वरूप हिंदी और उर्दू के बीच की वह दूरी मिटने लगी, जो खड़ी बोली के मूल में जन्मी थी. स्मरणीय है कि खड़ी बोली को महत्त्व दिए जाने के पीछे हिंदुओं और मुस्लिमों के बीच वर्चस्व की लड़ाई थी. 1837 में स्थानीय प्रशासन को चुस्त एवं जिम्मेदार बनाने तथा जनसाधारण में कंपनी के प्रति विश्वास पैदा करने के लिए ईस्ट इंडिया कंपनी ने घोषणा की थी कि स्थानीय प्रशासन तथा अदालतों की कार्रवाही के लिए स्थानीय भाषा का प्रयोग होगा. उस समय तक हिंदी और उर्दू का भेद नहीं बन पाया था. न हिंदुओं और मुस्लिमों के बीच कोई सांप्रदायिक दुराव था. लेकिन भाषाई नीति लागू होने के बाद संबंधों में खटास पड़ने लगी थी. हिंदुओं को लगता था कि यदि सरकारी कामकाज की भाषा उर्दू बनती है तो भाषा के जानकार होने के कारण मुस्लिमों को सरकारी नौकरियों में अधिक अवसर प्राप्त होंगे, इससे उनका विकास बाधित होगा. इसलिए हिंदुओं का एक वर्ग सरकारी कामकाज के लिए वैकल्पिक भाषा की खोज में था. हालांकि ब्रज, अवधी और भोजपुरी उस समय की स्थापित भाषाएं थीं. ब्रज और अवधी की तो समृद्ध साहित्यिक परंपरा भी थी. इन भाषाओं का साहित्य लोकतत्वों से समृद्ध था. संस्कृत देवभाषा थी. उसपर अपना विशेषाधिकार कायम रखते हुए हिंदू पुनरुत्थानवादी लेखक ऐसी भाषा चाहते थे, जो अपेक्षाकृत कम लोकप्रिय हो. इसके लिए दिल्ली और मेरठ के आसपास के क्षेत्रों में बोली जाने वाली भाषा को साहित्यिक भाषा के रूप में चुना गया. उसको नाम दिया गया ‘खड़ी बोली’ का. भाषाई राजनीति के चलते तत्कालीन बुद्धिजीवी वर्ग दो हिस्सों में बंट गया. भारतेंदु युग का आरंभ उर्दू के समानांतर वैकल्पिक भाषा खड़ी करने के संघर्ष के फलस्वरूप हुआ था. इसलिए उस युग की चुनौतियां बड़ी थीं. द्विवेदी युग में हिंदी अपना संस्कार ग्रहण कर चुकी थी, अतएव नए लेखकों तेजी से उसकी ओर आकर्षित हुए थे. ‘सरस्वती’ ने न केवल हिंदी को भाषाई कलेवर में ढाला, वर्तनी को एकरूपता प्रदान की, बल्कि लेखकों की कई पीढ़ियां भी तैयार कीं. इसके बावजूद बालसाहित्य के क्षेत्र में यथास्थिति बनी रही. यह बात अलग है कि बच्चों के लिए कई उल्लेखनीय पत्रिकाएं इस युग में आरंभ हुईं. बालसाहित्य को बढ़ावा देने के कारण ‘विद्यार्थी’, ‘बालसखा’, ‘वानर’ आदि पत्रिकाएं इस युग की विशिष्ट पहचान बनीं. लेखन की दृष्टि से भी इस युग में बदलाव देखा गया. भारतेंदु हरिश्चंद्र के समय में बालसाहित्य रामायण, महाभारत आदि के बालोपयोगी संस्करणों….उपनिषदों, पुराणों की कहानियों के पुनर्लेखन तथा ‘हितोपदेश’ आदि के अनुवाद तक सीमित था. द्विवेदी युग में बालसाहित्य के क्षेत्र में मौलिक विषयों का समावेश हुआ. इस युग में महाकाव्यों, पुराणों, वैताल पचीसी, सिंहासन बतीसी आदि रचनाओं के अनुवाद, पुनर्लेखन के अलावा लोकसाहित्य ने भी बालसाहित्य में दस्तक दी. यूं तो लोकसाहित्य को साहित्य की मुख्यधारा में लाने की शुरुआत भारतेंदु हरिश्चंद्र कर चुके थे. उन्होंने ‘भारत दुर्दशा’ तथा ‘अंधेर नगरी’ में लोकतत्वों का जमकर उपयोग किया था. इन दोनों नाटकों की सफलता का मुख्य कारण भी व्यंजना के साथ लोकतत्व की उपस्थिति थी, जो दर्शाती थी कि भारतीय लोकमानस अंग्रेजी शासन से त्रस्त होकर उसको नकार चुका है. लेकिन मौलिक कथा–साहित्य का अभाव था. द्विवेदी युग में राजा–रानी, पशु–पक्षी के अलावा चोर–ठग आदि भी बालसाहित्य में पात्र के रूप में समाने लगे. हालांकि उसपर अब भी उपदेशात्मकता का कब्जा था. लेकिन रचनाओं में नए पात्रों की दस्तक से संकेत मिलता है कि बालसाहित्य में गुणात्मक परिवर्तनों का दौर जारी था. नई बालपत्रिकाओं ने इस युग में बड़ी संख्या में साहित्यकारों को बालसाहित्य से जोड़ा. इस युग के प्रमुख बालसाहित्यकारों में महावीर प्रसाद द्विवेदी के अलावा श्रीधर पाठक, बालमुकुंद गुप्त, अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’, मैथिलीशरण गुप्त, ललन द्विवेदी गजपुरी, कामताप्रसाद गुरु, रामजीलाल शर्मा, सुखराम चौबे ‘गुणाकर’, लज्जाशंकर, ठाकुर श्रीनाथ सिंह, रामनरेश त्रिपाठी, रामचंद रघुनाथ सर्वटे, विद्याभूषण ‘विभु’, गिरिजादत्त ‘गिरीश’, सुदर्शन, सुदर्शनाचार्य, डा. रामकुमार वर्मा, शंभुदयाल सक्सेना, रघुनंदन प्रसाद त्रिपाठी, गोपालशरण सिंह आदि सम्मिलित थे. इस युग में बालसाहित्य की नई पुस्तकों के साथ–साथ बच्चों के लिए नया पाठ्यक्रम बनाने की पहल भी की गई. ‘उपन्यास सम्राट’ कहे जाने वाले प्रेमचंद ने भी इसी युग में दस्तक दी. उनका अधिकांश साहित्य बड़ों के लिए है. लेकिन भाषा–शैली और कथ्य के स्तर पर सहजाभिव्यक्ति के कारण उनकी अनेक कहानियों आधुनिक बालसाहित्य की धरोहर मानी जाती हैं. उनके द्वारा रचित कहानियों में कई के पात्र बालक और किशोर थे. ‘ईदगाह’, ‘गिल्ली–डंडा’, ‘आत्माराम’, ‘पंच परमेश्वर’, ‘पुरस्कार’, ‘बड़े भाई साहब’, ‘जुलूस’, ‘सवा सेर गेंहूं’, ‘नशा’, ‘जुलूस’ जैसी कहानियों मौलिक बालसाहित्य की प्रेरक और पहचान बन गईं. बालपाठकों के लिए प्रेमचंद ने ‘कुत्ते की कहानी’ शीर्षक से एक उपन्यास भी लिखा. इसे हिंदी का पहला बाल उपन्यास माना जाता है. प्रेमचंद के अलावा सुदर्शन ने भी कुछ बालोपयोगी कहानियों लिखीं, जिनमें ‘हार की जीत’, ‘साइकिल की सवारी’ हिंदी की उत्कृष्टतम कहानियों में से हैं. कविताओं के क्षेत्र में विद्याभूषण ‘विभू’, रामनरेश त्रिपाठी, श्रीधर पाठक आदि कवियों का उल्लेखनीय योगदान रहा. उस समय तक भी हालांकि बालसाहित्य को गंभीरता से लेने का चलन कम ही था. न बालक के स्वतंत्र व्यक्तित्व को महत्त्व देने वाली अवधारणा का ही जन्म हुआ था. इसके बावजूद इस युग के कई साहित्यकारों ने स्तरीय बालसाहित्य की रचना की. लेकिन इस युग की श्रेष्ठतम बालोपयोगी कहानियोंं वे हैं, जिनका लेखन सामान्य पाठकों को ध्यान में रखकर किया गया था. इसके अलावा कुछ नई बालोपयोगी पत्रिकाओं का प्रकाशन भी इस दौर में आरंभ हुआ. प्रेमचंद, सुदर्शन आदि की बालोपयोगी कहानियोंं परंपरा से हटकर थीं, इससे बालसाहित्य में मौलिक लेखन को बढ़ावा मिला, जो उससे पहले दूर की कौड़ी लगती थी. बच्चों के लिए नई पाठ्यपुस्तकों के लेखन की जिम्मेदारी भी विद्वान साहित्यकारों और मनीषियों ने संभाली. हालांकि उनका महत्त्व केवल पाठ्य पुस्तकें उपलब्ध कराने जैसा था, लेकिन यह पहला अवसर था जब पाठ्यपुस्तकों में कविता, कहानी के अलावा पहेलियों, निबंध, बुझौवल आदि को भी स्थान दिया गया था. फलस्वरूप हिंदी पाठकों का नया वर्ग पैदा हुआ. द्विवेदी युग के महत्त्वपूर्ण हस्ताक्षरों में बालमुकुंद गुप्त, अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’, सुखराम चैबे ‘गुणाकर’, मनन द्विवेदी गजपुरी, मैथिलीशरण गुप्त आदि प्रमुख हैं. इस युग में ‘बाल–हितकर’, ‘बाल–प्रभाकर’, ‘विद्याथीं’, ‘बाल–मनोरंजन’, ‘शिशु’ आदि पत्रिकाओं का आरंभ हुआ. बालकों के भाषा–ज्ञान को समृद्ध करने के लिए व्याकरण पर आधारित पुस्तकों का लेखन भी हुआ. इससे बालसाहित्य की ओर समीक्षकों का ध्यान गया. स्वयं महावीरप्रसाद द्विवेदी ने ‘सरस्वती’ में बालोपयोगी रचनाओं को मुक्तमन से स्थान दिया. इसी युग में बच्चों के लिए स्वतंत्र समाचारपत्रों का श्रीगणेश हुआ. ‘बालहितकर’(लखनऊ), ‘छात्र हितैषी’(अलीगढ़, 1906), ‘बालप्रभाकर’, ‘मानीटर’, ‘विद्यार्थी’, ‘बालमनोरंजन’, ‘शिशु’ आदि अनेक बालोपयोगी पत्र आरंभ किए गए. इन सभी ने अपनी–अपनी तरह से बालसाहित्य को आगे ले जाने, उसको स्थायित्व देने में मदद की. यह बात अलग है कि संसाधनों के अभाव में ये पत्र लंबे समय तक मौजूदगी बनाए रखने में नाकाम रहे. इसी समय में ‘बालसखा’ निकालने की घोषणा हुई. द्विवेदी जी के प्रोत्साहन पर इस समाचारपत्र को निकालने का दायित्व वहन किया था—‘इंडियन प्रेस’ ने. यह पत्रिका न केवल चली बल्कि उस समय बालसाहित्य के स्वरूप का निर्धारण करने में भी बहुत सहायक सिद्ध हुई. ‘बालसखा’ ने बच्चों के लिए मौलिक साहित्य रचना को आंदोलन के रूप में लिया, जिसके परिणामस्वरूप हिंदी बालसाहित्य तंत्र–मंत्र, जादू–टोने, पुराकथाओं और परीकथाओं के दायरे से बाहर निकलने को छटपटाने लगा. इसी युग में साहित्यकारों का एक वर्ग ऐसा भी उभरा, जो बच्चों के लिए रोजमर्रा के जीवन से उठाई गई, कदाचित नए आविष्कार और विज्ञान के रोमांच भरपूर, मौलिक एवं समसामयिक रचनाएं लिख रहा था. रेल का आगमन भारत में हो चुका था. भारतीय रेल पर इसी समय में लिखी गई, एक अख्यातनाम् कवि माधव या माधो कवि की हस्तलिखित पाण्डुलिपि से प्राप्त एक कविता का उद्धरण देखिए— घन सो घहराति औ उड़ति हाहाकार करि खात पाठ पानी धुवा छायो आसमान है. वौक बाहार देश देशन सो भेंट हो ऐसी फहरात मानो अर्जुन को बान है. माधो कवि कहै नेक पाइके बखान करौ लाखान मन लादि लेत जानत जहान है. धाम है सुजान बात दूसरी न आन मारौ रेल मेरी जान तो कुबेर को विमान है. —– और की सवारी असवारी सबै न्यारी–न्यारी रेल की सवारी से सवारी सबै रद्द है. हिंदी बालसाहित्य को द्विवेदी युग का महत्त्वपूर्ण योगदान यह रहा कि बच्चों के मनोरंजन को ध्यान में रखकर रचनाएं लिखी जाने लगीं. हालांकि एक वर्ग अब भी बच्चों को पौराणिक साहित्य से भरपूर सामग्री लिख रहा था. राजा–रानी, भूत–प्रेत, तंत्र–मंत्र और जादूगरी से भरपूर कहानियों की रचना भी धड़ल्ले से जारी थी. बच्चों की रुचि एवं उनके मनोरंजन के नाम पर बालसाहित्यकारों का बड़ा वर्ग इस प्रकार की रचनाएं दे रहा था. निश्चित रूप से ये कहानियोंं लोकपरंपरा से साहित्य में आई थीं; तथा पर्याप्त साहित्यिक चेतना एवं स्पष्ट दृष्टिकोण के अभाव में लेखकों द्वारा बच्चों के लिए अपना भी ली गई थीं. तथापि ऐसे भी अनेक लेखक थे, जो इस प्रकार के साहित्य को अनुपयोगी मानते हुए बच्चों के लिए रोचक, मनोरंजक, मौलिक तथा प्रेरणास्पद रचनाएं दे रहे थे. यही उस युग की वास्तविक देन कही जानी चाहिए. बालसाहित्य को द्विवेदी युग की एक और बड़ी देन थी, जिसपर पर्याप्त चर्चा अभी तक अपेक्षित है, वह है विज्ञान बालसाहित्य का आर्विभाव. अठारहवीं शताब्दी की औद्योगिक क्रांति विज्ञान–शोधों के आधार पर संभव हो पाई थी. बालसाहित्य में नई चेतना के स्थायित्व के लिए उसको विज्ञान साहित्य से जोड़ना अनिवार्य था. पश्चिम में चूंकि तकनीकी क्रांति भी पहले आई थी, इसके फलस्वरूप वहां विज्ञान साहित्य उनीसवीं शताब्दी के आरंभ में ही दस्तक दे चुका था. वहां बच्चों के लिए एक से बढ़कर एक विज्ञान पुस्तकें लिखी जा रही थीं. बीसवीं शताब्दी की शुरुआत में सापेक्षिकता के सिद्धांत की खोज हो चुकी थी और मानव–प्रज्ञा मुक्त ब्रह्मांड के नए–नए छोरों की तलाश में जुटी हुई थी. ऐसे में जूलियस बर्न तथा एच. जी. वेल्स ने बच्चों के लिए विज्ञानपरक बालसाहित्य को रचकर नए युग का सूत्रपात किया. जूलियस बर्न द्वारा लिखित ‘जर्नी टू सेंटर आ॓फ दि अर्थ’ गुरुत्वाकर्षण के बारे जानकारी देने वाला रोमांचक उपन्यास था. एच. जी. वेल्स ने ‘टाइम मशीन’ तथा ‘दि इन्वीजिबिल मेन’ जैसे उपन्यास लिखकर विज्ञान साहित्य में क्रांति लाने का काम किया था. इन पुस्तकों की लोकप्रियता का प्रभाव भारतीय लेखकों और पाठकों पर भी पड़ा, जो प्रकारांतर में हिंदी विज्ञान साहित्य की नींव बना. इससे प्रेरित होकर हिंदी के कई साहित्यकार आगे आए. इस प्रकार हिंदी विज्ञान साहित्य नींव पड़ी. यद्यपि विज्ञान साहित्य संबंधी स्पष्ट सोच के अभाव में उनका लेखन अनुवाद और अनुसरण की परंपरा से आगे न बढ़ सका. तो भी उनके योगदान को नकार पाना संभव नहीं है. हिंदी में विज्ञान साहित्य की शुरुआत करने का श्रेय अंबिकादत्त व्यास को जाता है. उन्होंने ‘आश्चर्य वृतांत’ नामक उपन्यास लिखा था. यह उपन्यास स्वयं लेखक द्वारा संपादित पत्र ‘पीयूष प्रवाह’ में चार वर्षों 1884 से 1888 तक प्रकाशित होता रहा. इस आधार पर अंबिकादत्त व्यास को हिंदी का प्रथम विज्ञान लेखक होने का श्रेय दिया जाता है. हालांकि उनकी इस दावेदारी पर सवाल भी लगातार उठते रहे हैं. इसका कारण है कि ‘आश्चर्य वृतांत’ मौलिक कृति न होकर, जूलियस बर्न के सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘ए जर्नी टू दि सेंटर आ॓फ दि अर्थ’ से प्रभावित था. इसके वर्षों बाद केशव प्रसाद सिंह ने ‘चंद्र लोक की यात्रा’ शीर्षक से एक उपन्यास लिखा. उसका प्रकाशन 1900 में सरस्वती में हुआ. यह कृति भी विदेशी प्रभाव से मुक्त नहीं थी. अंबिकादत्त व्यास के उपन्यास की भांति केशवप्रसाद सिंह की पुस्तक पर भी बन्र्स के उपन्यास ‘फाइव वीक्स इन बैलून’ की छाया थी. इनके अलावा भी हिंदी में कई विज्ञानपरक बालोपयोगी पुस्तकों की रचना की गई, लेकिन द्विवेदी युग तक हिंदी विज्ञान साहित्य अनुवाद और विदेशी प्रभाव से मुक्त न हो सका. हिंदी विज्ञान साहित्य में वास्तविक हलचल स्वतंत्रता के बाद ही संभव हो सकी. इसके बावजूद विज्ञान साहित्य के क्षेत्र में द्विवेदी युग के योगदान को नकार पाना संभव नहीं है. इसलिए कि अनुवाद के बहाने से ही सही, इस युग में हिंदी साहित्यकारों का ध्यान विज्ञान साहित्य की ओर गया. इसके फलस्वरूप सरस्वती जैसी पत्रिका ने भी वैज्ञानिक कथानकों पर आधारित कहानियों को प्रमुखता से प्रकाशित किया. © ओमप्रकाश कश्यप हिंदी बालसाहित्य : अतीत से आज तक—2यूं तो भारत में पशु-पक्षियों को लेकर कहानी लिखे जाने का चलन वैदिक काल में ही शुरू हो चुका था. उत्तर वैदिककाल तक वे कहानियों लोकसाहित्य में घुलमिलकर जनसमाज में अपनी जगह बना चुकी थीं. लोग उनके संदेश को जीवन में ढालने का प्रयत्न करने लगे थे. इस बीच उनमें गुणात्मक परिवर्तन भी आया था. किंतु लोकमानस में उनकी पैठ का, सोची-समझी कल्याणकारी नीति के अंतर्गत उपयोग जैन और वौद्ध आचार्यों द्वारा किया गया. उस समय वैदिक धर्म कर्मकांड और निरर्थक वितंडा में डूबकर अपनी प्रासंगिकता खोने लगा था. जनमानस धर्म के नाम पर थोपे जा रहे आडंबरों से त्रस्त था. कहने की आवश्यकता नहीं कि जब समाज का नेतृत्व दिशाहीन हो, निरर्थक वितंडा में खोकर अपना तेज बिसरा चुका हो, तब शताब्दियों से चली आ रही कहानियों, दंतकथाएं और किवदंतियां घने असमंजस में लोगों का मार्गदर्शन करती होंगी. जैन और बौद्ध आचार्यों ने समाज की जीवनी शक्ति और चेतना का प्रतीक बन चुकी कहानियों और दंतकथाओं को समाज से उठाया और अपने प्रवर्त्तक के नाम से जोड़कर उन्हें नए सिरे से प्रासंगिक बनाने में अपना योगदान दिया. यह काम इतनी बुद्धिमत्तापूर्वक किया गया कि उन कहानियों में अंतनिर्हित नीति-संदेश उनके धर्म-प्रवर्त्तक और मार्गदर्शक का जान पड़े. इसका लाभ भी उन्हें मिला. नए-नए उभरे बौद्ध और जैन धर्म की जनमानस में पैठ बनती गई. कहानियों के रूप में मौजूद लोकसंपदा और लोकविश्वासों का लाभ उठाने की यह अकेली कोशिश न थी. उससे पहले वैदिक धर्म के आचार्य भी यह करते आए थे. प्रकृति आधारित जीवन में वर्षा, धूप जल, अग्नि, वायू मनुष्य की मूलभूत आवश्यकताएं थीं. प्राचीन देवताओं का जखीरा जीवन की इन्हीं मूलभूत आवश्यकताओं के अधिष्ठाता के रूप में खड़ा किया गया था, जिसमें इंद्र(वर्षा), धूप(सूर्य) जल(वरुण), वायू(मरुत्), अग्नि(अग्नि) जैसे देवताओं की परिकल्पना की गई. इसी के फलस्वरूप जातक कथा, पंचतंत्र, बड्डकहा अथवा बृहत्कथा जैसे ग्रंथ अस्तित्व में आए. बुद्ध के पूर्वजन्मों को लेकर ईसा पूर्व चौथी-पांचवी शताब्दी में लिखी गई जातक कथाओं का बड़ा हिस्सा श्रीलंका में रचा गया था. कालांतर में विश्व की पचास से अधिक भाषाओं में अनूदित होकर ये कहानियां देश-देशांतर के साहित्य का हिस्सा बनीं और सर्वत्र सराही गईं. जातक कथा अथवा किसी अन्य रूपाकार में जिन दिनों ये कहानियां लिखी जा रही थीं, वह समय पूरे विश्व में बौद्धिक जागरण का था. प्राचीनतम धर्मों में आ चुकी विकृतियों से मुक्ति के प्रयास हर जगह शुरू हो चुके थे. भारत में बुद्ध और महावीर, चीन में कन्फ्यूशियस, यूनान में सुकरात, प्लेटो तथा जापान में ताओ के माध्यम से धर्म-दर्शनों में नवीकरण का अध्याय लिखा जाने लगा था. पुराने धर्म अपनी विकृतियों के कारण उत्तरोत्तर ठहराव का शिकार हो रहे थे, नए धर्मों ने उनके द्वारा छोड़ी गई खाली जमीन पर अपने आदर्शों की नींव रखी और अपेक्षाकृत व्यावहारिक दृष्टिकोण के सहारे लोगों का विश्वास जीतने में कामयाब हुए. इसके लिए उन्होंने हर उस संसाधन का प्रयोग किया, जिनके आधार पर पुराने धर्मों ने अपनी जमीन बनाई थी, किंतु बाद में पूरी तरह अभिजातोन्मुखी हो जाने के कारण वे जनसाधारण के गले की हड्डी बनने लगे थे. बहरहाल, जातक कथाओं के बाद अगली महत्त्वपूर्ण कृति गुणाढ्य की ‘बड्डकहा’ थी. मूल ‘बड्डकहा’ अथवा ‘बृहत्कथा’ वररुचि(350 ईस्वी पूर्व) ने काणभूति से कही थी. गुणाढ्य ने उसे काणभूति ये सुना तथा उनका पैशाची में पुनर्लेखन किया. आगे चलकर यह कृति कथासरित्सागर, बृहत्कथामंजरी, हितोपदेश, बृहत्कथाश्लोक संग्रह, वैताल पचीसी, सिंहासन बतीसी जैसी महान कृतियों का आधार बनी. इन सभी में भारत की कहानीकला का उत्कृष्टतम रूप मौजूद है. बड्डकहा का मूल स्वरूप अनुपलब्ध है. मूल ग्रंथ सात खंडों में था. उनमें से अब एक भी प्राप्यः नहीं हैं. हिंदी कथा साहित्य में बड्डकथा का संस्कृत साहित्य के तीन मूर्धन्य कथाकार दंडी, सुबाहू और वाणभट्ट की रचनाओं पर उसका गहरा प्रभाव है. 850 ईस्वी में कंबोडिया की एक संस्कृत प्रशस्ति में गुणाढ्य और बृहत्कथा का उल्लेख हुआ है. इससे स्पष्ट है कि उस समय तक यह कृति न केवल प्राप्त थी, बल्कि इसकी ख्याति दूसरे देशों तक भी पहुंच चुकी थीं. ‘अरेबियन नाइट्स’ की कहानियां भी कथासरित्सागर के प्रभाव से अछूती नहीं हैं. ‘बड्डकहा’ के लिखे जाने की कहानी भी अपने आप में रोचक दृष्टांत हैं. भारतीय इतिहास में सातवाहन वंश बहुत चर्चित रहा है. ईसा से पांच सौ वर्ष पहले लिखे गए ग्रंथ ऐतरेय ब्राह्मण में दक्षिण की एक पराक्रमी जनजाति ‘आंध्र’ को ‘दस्यु’ तथा अनार्य माना गया है. इसी वंश के सम्राट सिमुक(शासनकाल 235 ईसापूर्व—195 ईस्वी पूर्व) ने सातवाहन साम्राज्य की नींव डाली थी. सिमुक के वंश में हा॓ल का जन्म हुआ. बीसवीं शताब्दी में दक्षिण में पुरातात्विक खोज के दौरान उस कालखंड के कुछ सिक्के प्राप्त हुएं हैं, जिनपर ‘साड़’ अथवा ‘सात’ खुदा मिला है. विशेषज्ञों के अनुसार वह ‘हा॓ल’(शासनकाल 20 ईस्वीपूर्व से 24ईस्वी पूर्व) का ही प्राकृत नाम है. हा॓ल बहुत पराक्रमी सम्राट था. उसकी साहित्य में भी पर्याप्त रुचि थी. हा॓ल ने सतसई की रचना की है, जिसमें उसने गुणाढ्य द्वारा ‘बड्डकहा’ अथवा ‘बृहत्कथा’ के लेखन के दौरान उठाए गए कष्टों का उल्लेख किया गया है. अधिकांश विद्वानों का यह भी मानना है कि ‘बड्डकहा’ का लेखन हा॓ल के शासनकाल में ही हुआ था. वह संस्कृत का विद्वान था, जबकि बड्डकहा की रचना उस समय की लोकभाषा पैशाची में की गई थी. इसके पीछे स्वयं एक बृहत्कथा है. कहानी कुछ इस प्रकार है—
‘बृहत्कथामंजरी’ में दी गई इस कहानी में कितनी सचाई है, कहना कठिन है. इससे यह निष्कर्ष अवश्य निकलता है कि प्राचीन ग्रंथों, विशेषरूप से जिनमें कहानी अथवा लोक-मनोरंजन से जुड़ी सामग्री हो, को लिखने के कारण स्वरूप एक कहानी जुड़ी होती थी. कहानी की कहानी के रूप में. यह परिपाटी तत्कालीन कहानी को लेकर उस समय की शास्त्रीय परंपरा के अनुरूप थी. रुद्रट ने कथा अथवा महाकथा के लक्षण बताते हुए लिखा है कि कथा के आरंभ में देवता या गुरु की वंदना होनी चाहिए. फिर ग्रंथकार का अपना और कुल का परिचय दिया जाना चाहिए. और उसके बाद कथा लिखने का उद्देश्य वर्णित होना चाहिए. गुरु में एक कथानक होना चाहिए जो प्रधान कहानी का प्रस्ताव रख सके.’2 कथाग्रंथों को लिखने की कहानी, यानी कहानी की कहानी क्यों जरूरी है, इसका कारण स्पष्ट नहीं है. संभव है यह केवल व्यवस्था रही हो. चूंकि प्राचीन लेखन धर्मोन्मुखी था, धर्म-दर्शन की व्याख्या-विश्लेषण में लिखे हुए को महत्त्वपूर्ण माना जाता था और केवल मनोरंजन के लिए किस्से-कहानियां लिखने की कोई परिपाटी न थी—संभवतः ऐसे लेखन को मर्यादित करने तथा जब पर्याप्त कारण हों तभी लिखने की व्यवस्था प्राचीन आचार्यों ने की थी. जो भी हो गुणाढ्य ने ‘बृहत्कथा’ द्वारा प्रचलित परिपाटी में एक नया अध्याय जोड़ा था. पंचतंत्रप्राचीन भारतीय कथा-साहित्य में सर्वाधिक ख्याति ‘पंचतंत्र को मिली. छोटी-छोटी कहानियों को समेटे हुए यह कृति जहां-जहां गई, वहीं अपना प्रभाव छोड़ा. न केवल लिखित वाङ्मय पर, बल्कि देश-विदेश के लोकसाहित्य को भी इसने गहराई से प्रभावित किया. कह सकते हैं कि न केवल भारतीय बल्कि विश्व-साहित्य के इतिहास में पंचतंत्र मील का वह पत्थर है, जहां से उसकी मौलिकता और सोद्देश्यपरकता की यात्रा आरंभ होती है. बौद्ध दर्शन के बाद यही एकमात्र ऐसी भारतीय कृति है जिसने विश्व-भर की संस्कृतियों को प्रभावित किया है. कथा और उपकथा के रूप में छोटी-छोटी कुल 75 रचनाओं को अपने भीतर समेटे इस लघुकाय कृति की महत्ता इससे भी जाहिर होती है कि आर्थर एंथनी मेक्डोनल(1854—1930) ने ‘संस्कृत साहित्य का इतिहास’ लिखा तो उसके चैदहवें अध्याय ‘परीकथाएं और नीतिकथाएं’ की शुरुआत पंचतंत्र से की. कीथ और विंटरनिट्ज ने भी पंचतंत्र को विश्व-साहित्य को भारतीय मनीषा का प्रमुखतम अवदान माना है. यही नहीं बलदेव उपाध्याय ने ‘संस्कृत साहित्य का इतिहास’ तथा डा॓. कपिलदेव द्विवेदी ने ‘संस्कृत साहित्य का समीक्षात्मक इतिहास’ में भी ‘पंचतंत्र’ को प्रमुख स्थान दिया है. उल्लेखनीय है कि जिन दिनों पंचतंत्र की रचना हुई, उन्हीं दिनों बौद्ध और जैन विद्वान भी पशु-पक्षियों को पात्र बनाकर नीति कथाएं लिख रहे थे, किंतु येन-केन-प्रकारेण उनका ध्येय लोगों में अपने-अपने धर्म-दर्शन को लोकप्रिय बनाना था. इसके लिए वे धर्म को नीति और नैतिकता का आधार बनाकर प्रस्तुत कर रहे थे. उससे पहले महाभारत में भी नीति कथाएं आ चुकी थीं. महाभारत को धर्मग्रंथ और धर्मयुद्ध मानते हुए परोक्षरूप में धर्म को नीति कथाओं के आलंबन या मुख्य प्रेरणा के रूप में इस्तेमाल किया गया था. तुलनात्मक रूप से विष्णु शर्मा की दृष्टि कहीं अधिक मौलिक और यथार्थवादी थी. पंचतंत्र की रचना उन्होंने अस्सी वर्ष की परिपक्व अवस्था में की थी. तत्कालीन परंपरा के अनुसार निश्चय ही उनकी भी कुछ धार्मिक मान्यताएं रही होंगी, किंतु अपने रचनाकर्म को धार्मिक आस्था से निरपेक्ष रखते हुए उन्होंने पंचतंत्र को नीति-ग्रंथ के रूप में प्रस्तुत किया था, जिसमें मनुष्य को नीति-विषयक बोध केवल मनुष्य होने के नाते जरूरी माना गया था, न कि किसी धर्म-विशेष में आस्था के कारण. ‘पंचतंत्र’ की नीतिकथाओं की विशेषता है कि उनके मुख्य पात्र मानवेत्तर प्राणी पशु-पक्षी आदि हैं. महाभारत और उससे पहले की पुराकथाओं में आई नीतिकथाओं का मुख्य ध्येय सामान्यतः मोक्ष अथवा मत्यु-पर्यंत कल्याण की कामना को लेकर होता था. जबकि पंचतंत्र की रचनाओं का संबंध जीवन के व्यावहारिक पक्ष से था. राष्ट्र से था और उस राजनीति से था, जो प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों ही विधियों से राज्य पर असर डालती है. वे मनुष्य को दैनिक जीवन के सामान्य व्यवहार, कर्तव्य-अकर्तव्य, अच्छाई-बुराई आदि से परचाती हैं. वह भी बिना किसी धार्मिक शक्ति या विश्वास को बीच में लाए. पंचतंत्र की कहानियों के मुख्य विषय आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक हैं. यदि कहानियों के भावबोध, राजनीतिक दर्शन और नीति-विषयक सूझबूझ की दृष्टि से परखा जाए तो पंचतंत्र की कहानियों तथा चाणक्य प्रणीत ‘अर्थशास्त्र’ में समानता दिखेगी. इसलिए कुछ विद्वान आचार्य चाणक्य और पंचतंत्रकार विष्णु शर्मा को एक मानते हैं. यदि ऐसा न भी हो तो भी पंचतंत्रकार और ‘अर्थशास्त्र’ के रचियता चाणक्य में वैचारिक साम्य अवश्य रहा होगा. पंचतंत्र की रचना महिलारोप्य के राजा अमरशक्ति के तीन उदंड पुत्रों को राजनीति की व्यावहारिक शिक्षा देने के लिए की गई थी. वह भी मात्र छह महीने में. उन राजकुमारों ने ‘पंचतंत्र’ से क्या सीखा, यह तो ज्ञात नहीं है. पूरा इतिहास इसपर मौन नजर आता है, लेकिन पंचतंत्र के लिखे जाने के बाद से ही साहित्यिक कृति के रूप में इसे जो वैश्विक प्रतिष्ठा मिली, उससे न जाने कितने ‘राजकुमारों’ को इसने अपने नीति-विषयक ज्ञान से दीक्षित किया है; और आगे भी करता रहेगा. उल्लेखनीय है कि पशु-पक्षियों की कहानियां तो समस्त दुनिया में कही-सुनी जाती थीं. वे मनुष्य के अर्वाचीन साथी रहे हैं. मनुष्य ने जब से अभिव्यक्ति की कला सीखी तभी से वह पशु-पक्षियों के साथ अपने संबंध को कलात्मक अभिव्यक्ति देता आया है. यह बात फ्रांस में खोजे गए हिम युग के गुफा चित्रों से होती है. फिर पंचतंत्र में ऐसा क्या था, जिसने इसे बाइबिल के बाद दुनिया की सर्वाधिक प्रचार पानेवाली पुस्तक बना दिया? दरअसल इससे पहले पशु-पक्षियों की कहानियां अक्रमबद्ध रूप में प्राप्त होती थीं. उनमें से प्रत्येक कहानी अपनी जगह महत्त्वपूर्ण होती थी, लेकिन सभी कहानियां अपनी-अपनी जगह महत्त्वपूर्ण हों तथा अलग-अलग होकर भी एक वृहद उद्देश्य को समर्पित हों, ऐसा नहीं हो पाता था. यूं जातक कथाएं ‘पंचतंत्र’ से पहले ही लिखी जा चुकी थीं. उनमें जो कहानियां थीं, वे अपने अनगढ़ रूप में लोक में विद्यमान थीं. जिसे भी अपने विचार के समर्थन में नीति-विषयक तर्क देना हो वह नीति-कथाओं को बीच में ले आता था. एक ही ग्रंथ में अलग-अलग संदर्भ के साथ अलग-अलग मिजाज की कहानियां हो सकती थीं. पंचतंत्रकार ने पहली बार नीति-कथाओं की ताकत को पहचाना था और अपेक्षाकृत बड़े उद्देश्य, उदंड राजकुमारों को शिक्षित करने के ध्येय से उन्हें क्रमबद्ध रूप में पुस्तकाकार पेश किया था. चूंकि दुनिया में कोई भी सत्य अंतिम नहीं होता. प्रत्येक नीति विशिष्ट परिवेश में ही अनुकूल सिद्ध होती है. परिस्थितियों के अनुसार केवल संदर्भ बदलते रहते हैं. मनुष्य की स्वतंत्र प्रवृत्ति तथा व्यक्तित्व की जटिलता के कारण सभी को किसी एक नियम या विचार-दृष्टि से नहीं देखा जा सकता. जैसे किसी भले व्यक्ति से अच्छी बात कही जाए तो वह उससे सीख लेगा, लेकिन दुर्जन को यदि उपदेश दिया जाए तो वह उसको हमेशा उल्टा लेगा. इस बात को पंचतंत्रकार ने चिड़िया और कौए की कहानी के माध्यम से समझाया था. चिड़िया कौए को घौंसला बनाने को कहती है. उसको समझाने की कोशिश करती है. कौआ इसमें अपनी तौहीन समझता है और गुस्से में आकर चिड़िया के घौंसले को तहस-नहस कर देता है. तो क्या दुर्जन को सुधारने की कोशिश ही न की जाए? पंचतंत्रकार का ऐसा उद्देश्य नहीं है. पंचतंत्र की रचना ही उदंड राजकुमारों को सही रास्ते पर लाने के लिए की गई है. उपर्युक्त कहानी में यदि चिड़िया को पता होता कि दुष्ट कौआ नाराज होकर नुकसान भी पहुंचा सकता है, तो वह दूसरा रास्ता अपना शक्ति थी; अथवा कौए की संभावित प्रतिक्रिया का अनुमान लगाकर उससे अपनी सुरक्षा की व्यवस्था कर सकती थी. इसलिए क्रिया की प्रतिक्रिया क्या हो सकती है, कोई भी कदम बढ़ाने से पहले इसका आकलन करना जरूरी है. इसलिए पंचतंत्र की कहानियां अपने संदेश में एक-दूसरे का विरोध करती, परस्पर काटती हुई लग सकती हैं. मगर असल में वे एक-दूसरे की विरोधी न होकर पूरक हैं. यही पंचतंत्र की विशेषता है. इसके लिए पंचतंत्रकार ने कहानियों का पैटर्न ऐसा रखा कि वे नीति और व्यवहार का पूरा ब्रह्मांड रच देती हैं. एक कहानी से दूसरी कहानी उसकी पूरक होकर निकलती चली जाती है. यही पंचतंत्र की महत्ता है. इसी से प्रभावित होकर ईरान के शाह नौशेरवां ने पंचतंत्र को ‘ज्ञान का महासागर’ था, जबकि बुर्ज़ोई पंचतंत्र को अमृत तुल्य मानता था. पंचतंत्र को लेकर एक किस्सा यह भी है कि संस्कृत साहित्य के पारखी विद्वान मौरिज विंटरनिट्ज से किसी ने प्रश्न किया—‘आपकी सम्मिति में भारत की विश्व को मौलिक देन क्या है?’ उत्तर में विंटरनिट्ज का कहना था—
पंचतंत्र का लेखनकाल तीसरी शताब्दी पूर्व का है. लेकिन विडंबना है कि शताब्दियों तक अपनी इस कृति से अनजान थे. यह कृति या तो ग्रंथालयों में पड़ी धूल चाट रही थी, अथवा लाल कपड़े में लिपटी किसी अलमारी में मुंह छिपाए होगी. भला हो जर्मन विद्वान जोहंस हर्टल(1872—1955) और अमेरिकी भाषाविज्ञानी फ्रेंकलिन एडगर्टन(1885—1963) का जिन्होंने उस कैद से पंचतंत्र का उद्धार किया. हालांकि पंचतंत्र की ख्याति पर दुनिया की पहले से ही नजर थी. उसका पहला अनुवाद पहेलवी में ईरान के राजा नौशेरवां के आग्रह पर उसके मंत्री हकीम बुर्ज़ोई ने किया था.
उस समय तक पंचतंत्र को लिखे 800 से अधिक वर्ष बीत चुके थे. हैरानी की बात यह भी है कि भारत के ‘अमृत’ के बारे में दुनिया आठ शताब्दी के बाद जान रही थी. पंचतंत्र की महत्ता असंद्धिग्ध है. मगर भारतीयों की अपने ज्ञान और उपलब्धियों को छिपाकर रखने के स्वभाव के चलते हुआ था. हालांकि इस बीच पंचतंत्र के भारतीय भाषाओं में अनुवाद टीकाकरण आदि हो चुके थे. संस्कृत में तंत्राख्यायिका, दक्षिण भारतीय पंचतंत्र, नेपाली पंचतंत्र, हितोपदेश, सोमदेवकृत कथासरित्सागर, क्षेमेंद्र लिखित बृहत्कथा मंजरी, पश्चिम भारतीय पंचतंत्र, पूर्णभद्र कृत पंचाख्यान आदि ग्रंथों की रचना में पंचतंत्र की सामग्री का आंशिक या पूर्ण रूप से उपयोग किया गया था. लेकिन पंचतंत्र जैसी पुस्तक के आठ सौ वर्षों में मात्र आठ-दस अनुवादों या टीकाओं में सिमटकर रह जाना, उन दिनों भारतीयों की अपने ज्ञान के विस्तार के प्रति उदासीनता को दर्शाता है. हालांकि यह भी हो सकता है कि पंचतंत्र को जो प्रतिष्ठा बाद में, विशेषकर विदेशी भाषाओं में अनुवाद के पश्चात मिली, वैसी उस समय न रही हो. अध्यात्म और दर्शन जैसे गूढ़ विषयों के अध्ययन-अध्यापन में लीन रहनेवाले भारतीय मनीषियों को पशु-पक्षियों की कहानियां बहुत साधारण जान पड़ी हों. श्रेष्ठताबोध के साथ-साथ अपने ज्ञान को छिपाकर रखने, उसको दुनिया की नजरों से बचाए रखने का डर भी संभवतः भारतीयों के मन में था. यह इस बात से भी स्पष्ट हो जाती है कि भारतीयों को पंचतंत्र के दूसरे अनुवाद, जो सीरियाई भाषा में बुद द्वारा 570 ईस्वी में किया गया था—का पता उनीसवीं शताब्दी में जर्मनी विद्वानों द्वारा चला. कुछ लोगों का कहना है कि बुद द्वारा सीरियाई भाषा में किया गया अनुवाद मूल संस्कृत के पंचतंत्र के सर्वाधिक निकट है. मूल ग्रंथ अप्राप्य होने के कारण यह बात दावे के साथ नहीं कही जा सकती. लेकिन मूल ग्रंथ अप्राप्य होने के कारण ही उसके अनुवादों का महत्त्व और भी बढ़ जाता है. पंचतंत्र के अनुवादों को लेकर थियोडोर बेन्फी का अध्ययन बहुत महत्त्वपूर्ण है. विभिन्न अनुवादों का तुलनात्मक अध्ययन कर उसने मूल पंचतंत्र के निकट पहुंचने का सार्थक प्रयास किया है. पंचतंत्र का अगला अनुवाद 750 ईस्वी में सीरियाई भाषा से अरबी में हुआ, अनुवादक थे—अब्दुल्ला इब्नल मोकफ्फा. अरबी अनुवाद को उन्होंने नाम दिया—कलिलह-दिमनह, जो पंचतंत्र के मुख्य पात्र ‘करटक’ और ‘दमनक’ के अरबी रूपांतरण थे. ‘पंचतंत्र’ के यूरोपीय भाषाओं में अनुवादों का सिलसिला अरबी अनुवाद के माध्यम से ही बना. अरबी अनुवाद से ग्यारहवीं शताब्दी के अंत में सिमियन ने यूनानी भाषा में पंचतंत्र को अनूदित किया. तदनंतर रब्बी जोयल कृत अरबी अनुवाद से 11वीं शताब्दी में ही हिबू्र अनुवाद. 1142 में अबुल मआली नसरल्ला द्वारा अरबी में एक और अनुवाद सामने आया. इसी वर्ष हिब्रू अनुवाद से जा॓न आफ केपुआ ने 1263—1278 लैटिन अनुवाद किया. 1470—1505 के बीच अबुल मआली नरसल्ला के अरबी अनुवाद से पंचतंत्र को फारसी अनूदित किया गया. आगे चलकर इससे तुर्की, फ्रेंच, डच, मलय, चेक, स्पेनिश, जर्मन और हंगारियन भाषाओं में कई अनुवाद हुए. 1483 ईस्वी में एंथानियस वा॓न फर द्वारा जर्मन अनुवाद, 1493 में स्पेनिश, 1546 में इटालियन, 1556 में फ्रेंच, 1570 में टामस नार्थ द्वारा अंग्रेजी तथा 1583 ईस्वी में गियुलियो नुति द्वारा इतालवी अनुवाद संपन्न हुए. 1644 में पंचतंत्र का एक और अनुवाद फ्रांसिसी भाषा में हुआ. आश्चर्यजनक रूप से वह अनुवाद ‘पिलपिली साहब की कहानियों’ के नाम से चर्चित हो गया. फ्रांसिसी लेखक ला॓ फोंतेन ने अपनी पुस्तक ‘फेबल्स’ लिखी थी. 12 खंडों में प्रकाशित उस पुस्तक में कुल 239 जीव-जंतु कथाएं थीं. अपनी कृति के बारे में फोंतेन की आत्मस्वीकृति थी कि उसने अपनी पुस्तक के लिए पशु-पक्षी की कथाओं का अधिकांश हिस्सा महात्मा पिल्पे की कहानियों से लिया है. महात्मा पिल्पे भारतीय लेखक विद्यापति का स्थानीय अपभ्रंश था. 1724 में फारसी के अनवार सुहेली के तुर्की अनुवाद से एक और फ्रांसिसी संस्करण तैयार किया गया, जिसका शीर्षक ‘विदपई की भारतीय कहानियां’ रखा गया. विदपई भी विद्यापति का ही अपभ्रंश था. उसके बाद तो पंचतंत्र के इतने अनुवाद हुए कि उनकी सूची बना पाना कठिन है. आखिर पंचतंत्र की विश्वव्यापी लोकप्रियता का कारण क्या है? पशु-पक्षियों की कहानियां तो उससे पहले भी लिखी जा चुकी थीं. बल्कि उनका चलन दुनिया-भर के लोकसाहित्य में था. स्वयं भारत में ‘जातक कथाएं’ शीर्षक के अंतर्गत पशु-पक्षियों की कहानियों की भरमार है. पंचतंत्र को मिली अप्रत्याशित लोकप्रियता का कारण एक तो यह है कि ये एक उद्देश्य को समर्पित थीं. जातक कथा या दूसरे ग्रंथों जैसा बिखराब इनमें नहीं था. विष्णु शर्मा एक विचार या नीति की स्थापना के लिए कुछ कहानियां चुनते हैं. और उन्हें एक-दूसरे में इस तरह गूंथते हैं कि हर कहानी विचार को मजबूती प्रदान करती है. किसी विचार के पक्ष में नए-नए तर्क जुटाना भारतीयों के लिए नया नहीं था. वैदिक संस्कृत ने शास्त्रार्थ की परंपरा स्थापित की थी, जिसमें ऐसी बहसें चलती थीं. किंतु उसके लिए कहानियों का सहारा लेना, फिर पिटारे से एक के बाद एक कहानियां निकालते जाना और अंत में वृहद उद्देश्य से जोड़ देना पहली बार पंचतंत्र के रूप में सामने आया था. कहानी की शक्ति का यह पहला, अनूठा और सबसे सार्थक प्रयोग था. पंचतंत्र की रचना उदंड राजकुमारों को रास्ते पर लाने के लिए की गई थी. उसके लिए लेखक ने उस समय के उपलब्ध नीति और व्यवहार ज्ञान के अनुसार कहानियों को एक क्रम में सजाया था. चूंकि जीवन में कुछ भी एकरैखिक या सीधा-सादा नहीं होता, प्रत्येक घटना के तार दूसरी घटनाओं से जुड़े होते हैं. दूसरे शब्दों में प्रत्येक घटना एक भी होती है और अनेक भी. इसी प्रकार पंचतंत्र की कहानियों अलग-अलग होकर भी एक-दूसरे से संबद्ध थीं. जैसे एक घटना का संबंध दूसरी घटना से होता है, वही ‘कार्य-कारण’ संबंध पंचतंत्र की कहानियों में था. यह पंचतंत्रकार की शैली का अनूठापन था, जिसमें मनोरंजन भी था और दर्शन भी. पंचतंत्र की शैली का जादू ही था कि कालांतर में इसे कई बड़े आख्यानों में उपयोग किया गया, जिसका सबसे अच्छा उदाहरण ‘आलिफ लैला’ है. पंचतंत्र की दूसरी विशेषता इसकी भाषाई सहजता है. पंचतंत्रकार ने जानवरों को कहानी का पात्र बनाया था. इसलिए उन्होंने अनावश्यक पांडित्य से भाषा को मुक्त रखा. पंचतंत्र में व्यावहारिक ज्ञान के लिए एक नीति-संदेश है. लेकिन वह इकहरा नहीं है. बल्कि परिस्थितियों से जुड़ा हुआ है. जो दिखाता है कि परिस्थितियां भिन्न हों तो नीति का स्वरूप भी बदल सकता है. ऊपर से खूबी यह कि पाठक उसे कहानी के रूप में आत्मसात् करता है. चूंकि पात्र नाकुछ से पशु-पक्षी हैं, इसलिए कहानी के समापन के साथ ही उनका असर फीका पड़ जाता है, रह जाता है वह संदेश जिसको पाठक तक पहुंचाने के उद्देश्य से कहानी को गढ़ा गया है. पंचतंत्र के समय ही एक और महत्त्वपूर्ण कृति की रचना हुई थी, रचनाकार थे, गुणाढ्य और कृति का नाम था—बड्डकहा अथवा बृहत्कथा(350—200ईस्वीपूर्व). पंचतंत्र की भांति मूल ‘बड्डकहा’ भी अनुपलब्ध है. कथासरित्सागर से पता चलता है कि मूल ‘बड्डकहा’ लगभग 350 ईस्वी पूर्व वररुचि ने काणभूति से कही थी और काणभूति ने गुणाढ्य से. गुणाढ्य ने इसका पैशाची में पुनर्लेखन किया. आगे चलकर यह कृति कथासरित्सागर, बृहत्कथामंजरी, हितोपदेश, बृहत्कथाश्लोक संग्रह, वैताल पचीसी, सिंहासन बतीसी जैसी महान कृतियों का आधार बनी. इन सभी पुस्तकों में भारत में सहस्राब्दियों से कही जाने वाली पशु-पक्षियों की कहानियां हैं. इन्हीं के आधार पर विद्वान भारत को परीकथाओं का आदिदेश होने का दावा करते हैं. © ओमप्रकाश कश्यप1. पैशाची वाग् मषी रक्तं मौनोन्मत्तश्च लेखकः। कोई भी भाषा तभी समृद्ध मानी जा सकती है, जब उसमें समाज के प्रत्येक वर्ग जिनमें स्त्री–पुरुष, बाल–वृद्ध, धनवान–निर्धन, उच्च और अल्प शिक्षित आदि सभी के लिए भरपूर पाठ्यः सामग्री उपलब्ध हो. भरपूर पाठ्य–सामग्री से हमारा अभिप्राय शिक्षा, संस्कृति, कला, दर्शन, साहित्य एवं साहित्येत्तर विषयों पर आवश्यक समस्त शब्द–संपदा से है, जो किसी भी समाज के प्रबोधीकरण के लिए अनिवार्य हो सकती है. पाठ्य सामग्री की बहुलता के साथ आवश्यक है कि उसको पढ़ने, समझने और पसंद करने वाले भी बहुसंख्यक हों. हालांकि किसी भाषा का पूरी दुनिया के लिए एकसमान उपयोगी होना, विभिन्न मान्यताओं, संस्कृतियों और सभ्यता वाले समाजों के प्रत्येक वर्ग से, एक ही स्तर पर संवाद करना पूर्णतः आदर्श एवं अव्यावहारिक अवस्था है, लेकिन किसी भी भाषा के लिए जो स्वयं को जीवंत और सचेतक होने का दम भरती हो, जिसका दुनिया के विभिन्न समाजों के बीच संपर्क सेतु बनाने का दावा हो, यह पवित्र लक्ष्य भी है. चूंकि देश की भांति प्रत्येक भाषा–भाषी समाज की भी सीमाएं, विशिष्ट सामाजिक–सांस्कृतिक आग्रह एवं परिस्थितियां होती हैं. इसलिए प्रत्येक वर्ग–विषय के अनुरूप पर्याप्त सामग्री उपलब्ध करा पाना, अभी तक किसी भी भाषा के लिए संभव नहीं हो पाया है. वैसी स्थिति में व्यावहारिक रूप में भाषा की समृद्धता का स्तर समाज में उसकी पैठ तथा उसके लिए साहित्य एवं ज्ञान–विज्ञान से भरपूर पाठ्य–सामग्री की उपलब्धता से लिया जाता है. जब कोई भाषा लोक संपर्क से आगे बढ़ती है, तो वह सबसे पहले अपने समाज की मूल–भूत जिज्ञासाओं को पंख देना चाहती है. उसके बाद उसका अगला काम उन जिज्ञासाओं, जीवनानुभवों, सामाजिक–सांस्कृतिक प्रतीकों, पुराख्यानों तथा ज्ञान के अन्यान्य उपादानों को सहेजते हुए, जिन्हें वह समाज के प्रबोधीकरण के लिए आवश्यक मानती है—विमर्श के बीच निरंतर बनाए रखना रह जाता है. इन जिज्ञासाओं में जीवन–जगत की उपस्थिति, व्यक्ति और समाज की समस्याएं, परिस्थतिकीय ससंबंध, प्रकृति और बृह्मांड से उपजी जिज्ञासाएं होती हैं. स्वाभाविक रूप से हर भाषा पहले इन्हीं चुनौतियों से दो–चार होती है. वह न केवल उनसे प्रभाव ग्रहण करती है, बल्कि अनिवार्यरूप से उनको प्रभावित भी करती है. शायद इसीलिए इतिहास में प्रत्येक भाषा पहले आध्यात्मिक जिज्ञासाओं की शोधक बनी है. कालांतर में उसमें समाज, संस्कृति, उत्पादन के साधनों के आधार पर विकसित अर्थनीति, राजनीति एवं विज्ञान सहित अन्य लोकोपयोगी धाराएं भी समाविष्ठ होती जाती हैं. देखा जाए तो यही मनुष्य की बौद्धिक चेतना का विस्तारक्रम भी है. जिसे हम साहित्य कहते हैं अथवा साहित्य का जो रूप आजकल प्रचलित है, वह विभिन्न विचारधाराओं के समन्वय एवं संघर्ष, विज्ञान तथा प्रौद्योगिकीकरण के परिणामों, उसकी उपलब्धियों, विसंगतियों एवं तज्जनित आंदोलनों का संवेदनात्मक विस्तार है. किसी भी समाज में साहित्य की प्रथम दस्तक लोककथाओं एवं लोकपरंपराओं के रूप में सामने आती है. ये साहित्य की वे मूल धाराएं हैं, जिनके लिए औपचारिक शिक्षा आवश्यक नहीं होती. वाचिक परंपरा में समाज के सभी वर्ग इनसे न केवल लाभान्वित होते हैं, बल्कि अपनी–अपनी तरह से इनके विस्तार में योगदान भी देते हैं. साहित्य का आदिस्वरूप वाचिक परंपरा से समृद्ध रहा है. सहस्राब्दियों तक वही सभ्यता और संस्कृति के आदान–प्रदान, लोकानुभवों को सहेजने, अंतरित करने, नए प्रतीक तथा जीवनमूल्य गढ़ने का माध्यम बना रहा. साहित्य का जो रूप आज प्रचलन में है तथा उसकी परिभाषा से जो सामान्यबोध अभिव्यक्त होता है—कुछ शताब्दियों के पहले तक साहित्य के वह मायने नहीं थे. साहित्य का आरंभिक रूप मनुष्य की नैसर्गिक आवश्यकता की भांति स्वतः जन्मा. वह मनुष्य को उपयोगी जान पड़ा इसलिए उसको अपनाया जाने लगा. अपने आदिरूप में साहित्य लोक संस्कार का हिस्सा था. मनोरंजन के अलावा लोग उसका उपयोग अपने मंतव्य को स्पष्ट करने, बात को धार देने, तार्किकता प्रदान करने हेतु भी करते थे. जीवन में स्थायित्व आने पर समाज की एकता एवं विकास–दर को बनाए रखने के दबाव ने साहित्य की सप्रयोजन रचना की मांग को जन्म दिया. हालांकि लेखनकला के विकास तथा उसकी सर्वोपलब्धता तक साहित्य का मौखिक रूप ही बहुस्वीकार्य बना रहा. कालांतर में लिपि का विकास हुआ तो साहित्य को जैसे ठोस आधार मिला. जनसाधारण तक उसकी पहुंच बढ़ी, साथ में जिम्मेदारियां तथा अपेक्षाएं भी. लिपिबद्ध साहित्य पर बहस करना आसान था. उससे एकाएक मुकर पाना संभव नहीं था. इससे विचारधाराओं के जन्म का मार्ग प्रशस्त हुआ. लोकसाहित्य में रचनाकार की पहचान स्थायी रखने का कोई कारगर उपाय न था. लिपिबद्ध साहित्य ने यह समस्या दूर कर दी थी. अब रचनाकार आसानी से अपना नाम रचना के साथ चला सकता था. इससे रचनाओं पर परिश्रम कर, सोच–समझकर उद्देश्यपूर्ण ढंग से लिखने की परंपरा ने जोर पकड़ा. धीरे–धीरे विचारधारा की अभिव्यक्ति के लिए भी साहित्य का उपयोग होने लगा. सवाल उठता है कि वे कौन–सी आवश्यकताएं थीं, जिन्होंने साहित्य को जन्म दिया. उसको मनुष्य के लिए अपरिहार्य बनाया. इसके लिए हमें मानव–इतिहास के वे पन्ने पलटने होंगे जब वह आखेट युग से कृषि युग में प्रवेश कर चुका था और जीवन में आए स्थायित्व ने मनुष्य को सोचने के लिए न केवल नए क्षेत्र बल्कि अवसर भी दिए थे. कृषि–कला के विकास ने मानवीय सभ्यता के विकास को नए पंख दिए थे. आखेट युग में मनुष्य का प्रमुख भोजन मांस था. उसकी सुलभता थी, परंतु जुटा पाना आसान न था. शिकार करने के लिए मनुष्य को कठिन परिश्रम भी करना पड़ता था. इस कार्य में जान का भी खतरा था. स्वयं शिकार हो जाने का खतरा शिकारी के सिर पर मंडराता ही रहता था. पशु उत्पादों को भोज्य पदार्थ के रूप में उपयोग करने की दूसरी कमजोरी थी कि उन्हें लंबे समय तक संरक्षित कर पाना संभव न था. जबकि कृषि उत्पादों को न केवल लंबे समय तक सुरक्षित रखा जा सकता था, बल्कि कृष्ठ भूमि की प्रचुरता के कारण अकेला व्यक्ति अनेक परिवारों के लिए भोजन उगा सकता था. इससे बची हुई श्रमशक्ति का उपयोग शिल्पकर्मों में होने लगा, जो कृषिकर्म के विकास के साथ समाज की अनिवार्य आवश्यकता बन चुके थे. कृषि–औजार तथा जीवन की बढ़ती जरूरतों के लिए अन्यान्य वस्तुओं की आपूर्ति के लिए मृदाकारी, लौहकारी, काष्ठकर्म, बुनकर, चर्मकारी जैसे शिल्पकर्मों का विकास हुआ. अतिरिक्त अनाज को संरक्षित करने के लिए मिट्टी के बर्तन बनाए जाने लगे. भोजन की निश्चिंतता बढ़ने से सभ्यता के विकास को गति मिली. उपजाऊ भू–स्थलों पर, जहां सिंचाई के लिए पानी का उपयुक्त प्रबंध था, मानव बस्तियां आकार गढ़ने लगीं. समूह की सदस्य संख्या बढ़ने के साथ–साथ समाज में शांति और व्यवस्था बनाए रखने के लिए भी मनुष्य की जिम्मेदारी बढ़ती जा रही थी. समाज को व्यवस्थित रखने के लिए ग्रामणी, गण, गणप्रमुख आदि पदों का सृजन किया गया. इन पदों पर समाज के वरिष्ठ एवं योग्यतम व्यक्तियों को बिठाया जाता. यही वर्ग अतिरिक्त अनाज के सरंक्षण एवं जरूरतमंद लोगों के बीच विपणन का दायित्व वहन करता था. एक ओर समाज भौतिक जीवन में प्रगति की डगर पर था तो दूसरी ओर उसकी बौद्धिक उपलब्धियां नित–नए आसमान छू रही थीं. उसकी बुद्धि विराट प्रकृति के जितने रहस्यों का अनावरण करती, उतनी ही उलझती जाती थी. वह उसकी विलक्षणता के प्रति नतमस्तक था. जिज्ञासा के आयाम अनंत थे. उन सबका एकाएक समाधान उसके लिए संभव न था. मनुष्य की बौद्धिक सीमाओं ने प्रकारांतर में प्रकृति के प्रति दैवीय भाव को जन्म दिया. वैसे भी खेती हो अथवा नदी–सागर तट पर बनी बस्ती, सभी तो प्रकृति की कृपा पर निर्भर थे. बारिश न पड़े तो खेती बंजर बन जाए, अतिवृष्टि हो तो खड़ी फसल बह जाए. जीवन से कदम–कदम पर जूझता मनुष्य इन प्राकृतिक आपदाओं का सामना भी करता था. आपदाओं के डर तथा प्रकृति के प्रति मन में उमड़ी अतिश्रद्धा ने स्तुतियों को जन्म दिया. जीवन–संघर्ष से गुजरते मनुष्य ने अपनी भावनाओं को कविता में ढालना, कहानी में पिरोना आरंभ कर दिया. इसके मूल में आदि मानव की मनोरंजन की भूख तथा दूसरों के साथ अपने अनुभव बांटने की ललक थी. दिन–भर की घटनाएं सुनना–सुनाना भी कम मनोरंजक न था. सांझ को काम से निवृत्त हुए लोग अलाव के सहारे, गांव–बस्ती के सार्वजनिक स्थलों पर जुटते तो अनुभवों–आख्यानों के आदान–प्रदान का सिलसिला आरंभ हो जाता. उन्हीं में एकाध व्यक्ति ऐसा भी मिल जाता, जिसको कहन की कला में दूसरों की अपेक्षा महारत हासिल होती. लोगों का सूचना के साथ मनोरंजन भी हो जाता. प्रकृति के सीधे साहचर्य में रहने वाले, कदम–कदम पर संघर्ष करने वाले मनुष्य के लिए यह सौगात कम न थी. इसलिए लोगों के बीच वह व्यक्ति गुणी, अतिरिक्त सम्मान और सराहना का पात्र समझा जाता. चतुर किस्सागो अपनी रचना में जीवन–जगत से जुडे़ उदाहरण पेश करता, साथ में कुछ न कुछ काम की बातें भी जोड़ देता था. इससे वे न केवल मनोरंजन की कसौटी पर सौ टका खरी उतरतीं, बल्कि बालकों–बड़ों को बौद्धिकरूप में समृद्ध भी बनाती थीं. इस तरह साहित्य का वाचिक रूप समाज में विकसित होने लगा था. लेखनकला का विकास हुआ तो रोजमर्रा के अनुभवों तथा संपर्क में आने वाले व्यक्तियों, पशु–पक्षियों, वस्तु जगत आदि को लोकाख्यानों में ढालने, सुगठित रचना का रूप देने की परंपरा बनी. इससे साहित्य और अन्यान्य कलाओं के विकास को गति मिली. अनुभव सहेजे जाने से मनुष्य के बौद्धिक विकास को पुनः गति मिली. सभ्यता के विकास केव्व दौरान अक्षर की खोज मनुष्य के लिए सर्वाधिक चौंकाने और आत्ममुग्ध कर देने वाली है. यह उसको रचयिता की अनुभूति से भर देती है. इसलिए मनुष्य ने ज्यों ही अक्षरों को जोड़ना सीखा, इस कला का उपयोग उसने अपने सोच और संकल्पनाओं को शब्दबद्ध करने के लिए किया. इसमें उसको अभूतपूर्व आनंद मिला. मनुष्य अथवा समाज विशेष की धार्मिक–आध्यात्मिक जिज्ञासाओं के उस समय तक पूर्णतः निजी, सीमित और उथला रह जाने का अंदेशा था, जब तक कि उनमें समाज के वृहद हिस्से के लिए उपयोगी तत्व न हो. इसलिए उसके लेखन में धार्मिक–आध्यात्मिक जिज्ञासाओं के साथ उन सामान्य नैतिकताओं को भी स्थान मिलने लगा, जिन्हें मनुष्य ने विकासक्रम के अंतर्गत अपने अनुभव से जाना–समझा था. जिनके बिना उसे लगता था कि समाज का चल पाना असंभव होगा. रचे गए धर्म–ग्रंथ तथा उनमें वर्णित विचार सर्वमान्य तथा बहुउपयोगी हों, इसके लिए उनमें लोककल्याण की भावना को स्थान मिला. चूंकि सृजन का काम कहीं न कहीं बड़ेपन की अनुभूति से भी भर देता था, अतएव रचनाकार तथा उसकी कृति को दैवीय मानने का चलन हुआ. मानवमात्र के लिए कल्याणकारी कृतियों को लोकेत्तर माने जाने का चलन आरंभ हुआ. वे आसानी से सर्वग्राह्यः हों, इसके लिए उनके साथ दैवीय सहमति जैसा कुछ जोड़ा जाने लगा. भारतीय मनीषियों ने नाम के बजाय लेखन के उद्देश्य को प्राथमिकता दी है. विशेषकर प्राचीन समाजों में, जहां विद्वानों की लंबी कतार है जो अपनी बड़ी से बड़ी रचना से अपना जोड़ने के बजाय उसको स्थापित गोत्र या ऋषिकुल के नाम करते रहे हैं. उनके द्वारा प्रणीत ग्रंथों का उद्देश्य ही लोककल्याण की उदात्त भावना थी. समाज की ओर से मानव जीवन के लिए अनिवार्य मान लिए गए आचार–विचारों के प्रतिपादन हेतु रचित ग्रंथों को कालांतर में दैवीय मानने का चलन हुआ. इस प्रवृत्ति के पीछे आरंभ में भले ही मनुष्य की सदेच्छाएं, सद्भावनाएं रही हों, मगर यह सर्वथा निःस्वार्थ नहीं रह सका. कुछ अरसे बाद ही उनके समर्थन का हवाला देते हुए समाज में एक परजीवी वर्ग पनपने लगा. उसने स्वयं को धर्म–ग्रंथों का व्याख्याकार, लेखक बताते हुए उनमें मनमाना प्रक्षेपण करना आरंभ कर दिया. प्राचीन ग्रंथों के प्रणयन से एक संकेत भी मिलता है कि वैचारिक द्वंद्व और मत–वैभिन्न्य उस उस समय भी थे. ऐसे में वही लेखक या लेखक समूह, जो अपने विचारों के संग्रंथन में सफल रहा, जिसने समावेशी दृष्टि का परिचय दिया, अपने विचारों को बचाने तथा दूर–दूर तक फैलाने में भी कामयाब हो सका. साहित्य का आधुनिक रूप औद्योगिकीकरण और विज्ञान के विस्तार की देन है. जैसा कि ऊपर संकेत किया गया है, उससे पहले या तो सामंतों और राजाओं की प्रशस्ति में किया जाने वाला लेखन था, अथवा आत्मश्लाघा से भरा इतिहास, जिसे राजा और बादशाह अपने आश्रित विद्वानों से लिखवाया करते थे. गौरवशाली अतीत से आगामी पीढ़ियों को परचाने के लिए प्रत्येक भाषा और समाज में महाकाव्य भी लिखे गए. उनमें इतिहास, अर्थशास्त्र, दर्शन तथा राजनीतिक–सामाजिक गठन का विवरण मिलता है. इन सब ग्रंथों का आज साहित्येतिहासिक महत्त्व है, मगर उन्हें आधुनिक चेतनाबोध का उत्स मान लेना, एक प्रकार का अतीत व्यामोह, नास्टेल्जिया या अधिक से अधिक स्मृति को सहेजने का परिणाम है. साहित्य में समकालीन मूल्यबोध ही सर्वाधिक प्रेरणाशील एवं उपयोगी होता है. लेकिन परंपरागत रूप में सहेजे गए आचार–विचार, नियम, संकल्प आदि भी अपनी भूमिका निभाते हैं. भारतीय संदर्भों में मनुष्य के सामाजिक–सांस्कृतिक विकास के आगे के इतिहास को हम चार वर्गों में बांट सकते हैं— क. वैदिक युग:यह युग मानवेतिहास में लगभग तीन हजार ईसा पूर्व से लेकर लगभग एक हजार वर्ष ईसापूर्व तक विस्तृत है. ख. महाकाव्य युग:एक हजार ईसा पूर्व से लगभग छह सौ ईस्वी पूर्व तक. ग. बौद्धकाल:ईसा पूर्व छठी शताब्दी से लेकर हर्षवर्धन तक. इस कालखंड का बड़ा हिस्सा इतिहास में भारत के स्वर्णकाल के नाम से भी जाना जाता है. हम इसको प्रबोधनकाल भी कह सकते हैं. घ. मध्यकाल से लेकर ईस्ट इंडिया कंपनी के आगमन तक:इसमें भक्ति आंदोलन का परिवर्तनकारी दौर भी शामिल है. ङ. आधुनिक काल:सुविधा की दृष्टि से इस कालखंड को चाहें तो स्वतंत्रता पूर्व और स्वातंत्रयोत्तर भारत में पिछली शताब्दी के दौरान रचे गए बालसाहित्य में भी बांट सकते हैं. बालसाहित्य की स्वतंत्र अवधारणा का विकास तो बीसवीं शताब्दी में हुआ. उससे पहले बच्चे बड़ों के लिए गए साहित्य से काम चलाते थे. बड़ों के लिए लिखी गई जो रचना बच्चों को रुचिकर लगती, वही उनकी हो जाती थी. यह बात विद्वानों के काफी देर से समझ आई कि बच्चों की रुचि और मनोविज्ञान को पहचानते हुए उनके लिए अलग साहित्य रचा जाए. यह सिर्फ भारत में नहीं हुआ, बल्कि दुनिया के प्रायः सभी देशों, भाषाओं की यही स्थिति रही. वहां भी जिसको श्रेष्ठतम बालसाहित्य कहा जाता है, वह मूलतः बड़ों के लिए रचा गया है. दूसरे शब्दों में बालोपयोगी साहित्य से बालसाहित्य तक की यात्रा अपने भीतर लंबा इतिहास समेटे हुए है. बालसाहित्य की पीठिका को समझने के लिए उसपर संक्षिप्त चर्चा आवश्यक है. पुरा वैदिक युग से वैदिक युग तक कहानी कहने–सुनने का इतिहास मानवीय सभ्यता के इतिहास से भी बहुत अधिक पुराना है. सितंबर 1940 को में भ्रमण पर निकले चार फ्रांसिसी किशोरों—मार्सल रेवीडट, जेकुइस मार्शल, साइमन कोइनकस तथा जार्ज एंगेल ने पाइरेनीस पर्वतमालाओं के बीच लेसका॓क्स नामक गुफाओं की ऐसी शृंखला की खोज की, जिनकी दीवारों पर जानवरों और कीड़े–मकोड़ों की रंगीन चित्राकृतियां बनी हैं. उससे पहले 1880 स्पेन की अल्टामाइरा नामक गुफाओं में भी इसी प्रकार की शैल–चित्र शृंखलाएं पाई गई थीं. ये चित्र महज दीवारों पर उकेरी गई आकृतियां नहीं हैं. बल्कि उनमें अद्भुत कलात्मक तारतम्यता है, जिसमें कथात्मकता का आभास होता है. उससे लगता है कि प्राचीन मनुष्य अपनी अभिव्यक्ति और मनोरंजन के माध्यमों की खोज कर चुका था. अल्टामाइरा की गुफाओं की जब खोज की गई तो अनेक विद्वानों ने इस बात पर संदेह व्यक्त किया था कि पूर्व पाषाण युग का मनुष्य इस प्रकार कलात्मक अभिव्यक्ति की क्षमता क्षमता शायद ही रखता था. उसकी अगली कड़ी के रूप में लेसकाॅक्स गुफाओं की खोज ने उनके संदेह को निर्मूल सिद्ध कर दिया है. कार्बन जांच से पता चला है कि इनमें से कुछ गुफाएं 35,000 वर्ष पुरानी हैं. 1940 के बाद लेसकाक्स में दर्जनों गुफाओं की खोज की जा चुकी है. उनकी दीवारों पर विभिन्न पशुओं की आकृतियां इस प्रकार चित्रित की गई हैं, मानो उनके माध्यम से कहानी कहने का प्रयास किया गया हो. स्पष्ट है कि आखेट युग में मनुष्य कहानी कहने की कला में प्रवीणता प्राप्त कर चुका था. यह स्वाभाविक भी था. समूह में रहकर शिकार करने वाला मनुष्य शाम को जब अपने परिजनों के साथ आराम करने के लिए जुटता होगा, तो दिन–भर की घटनाओं को सुनने–सुनाने की रुचि स्वाभाविक रूप से लोगों को रहती होगी. इसी से कहानी कला का विकास हुआ. आदि मानव के लिए कहानी सुनना–सुनाना भी चमत्कारी कला रही होगी. समूह के उन सदस्यों को जो किसी कारण उस दिन शिकार पर जाने में असमर्थ रहे हों, अथवा वृद्ध परिजनों जो शिकार करने में अक्षम हो चुके हों, को दिन–भर की संघर्षपूर्ण घटनाओं का रोमांचक बयान देना एक नैमत्तिक कर्म रहा होगा. यदि शिकार करते समय कोई बड़ी घटना घटी है अथवा कोई बड़ा शिकार करने में कामयाबी मिली है तो उसको समूह के सदस्यों के बीच बांटना बड़ा मनोरंजक रहा होगा. कहानी सुनाने के उत्साह में अवश्य ही कुछ अतिश्योक्तिपूर्ण, कुछ अतिरेकी होता होगा, जिसे श्रोता ज्यादा पंसद करते हों. इससे सचाई से परे केवल कल्पनाधारित किस्से–कहानी गढ़ने की शुरुआत हुई, जिनका ध्येय केवल मनोरंजन था. धीरे–धीरे जंगल तथा वहां के जानवरों के बारे में कहानियों गढ़ना, शिकार के बनावटी किस्से सुनाने का प्रचलन भी बढ़ता गया. आदिमानव के लिए यह भी संभव नहीं था कि वह प्रतिदिन शिकार पर जा सके. इसलिए विश्राम के दिनों में शिकार की रूपरेखा बनाना, बच्चों एवं वृद्धों को वन्य जीवों एवं शिकार के बारे में बताना, अपनी स्मृति को बनाए रखने के लिए विशिष्ट अवसरों पर घटनाओं को पत्थर पर उकेरना आदिमानव के पसंदीदा काम रहे होंगे. यह कार्य विभिन्न स्थानों पर वन्य जीवों तथा जंगल की परिस्थितियों के अनुसार भिन्न–भिन्न प्रकार से किया जाता है. इससे अलग–अलग संस्कृतियों की नींव पड़ी. सिंधु घाटी की सभ्यता में भी बड़ी संख्या में प्रस्तर चित्रावलियां प्राप्त हुई हैं, जिससे लगता है कि वहां भी कहानी कहने की परंपरा मौजूद थी. कह सकते हैं कि कहानियों गढ़ने का प्रचलन एक युगीन घटना है. शिकार कर्म में निपुण, समूह का नेतृत्व करने वाले नायक, अथवा शिकार के दौरान विपरीत परिस्थितियों में विशिष्ट साहस का प्रदर्शन करने वाले व्यक्ति को अतिरिक्त सम्मान का पात्र समझा जाता होगा. इसलिए उसके किस्से समूहों के बाकी सदस्यों और बच्चों को सुनाने की परंपरा बनी होगी. इसने कालांतर में समूह के नायकों, बहादुर व्यक्तियों को अतिरिक्त महत्त्व मिलना शुरू हुआ. प्रकारांतर में सर्वगुणसंपन्न व्यक्तित्व के रूप में देवताओं की कल्पना की गई. सबसे पहले यह कल्पना कहानियों के माध्यम से सामने आई होगी. इस आधार पर कहा जा सकता है कि कहन की परंपरा मानव–संस्कृति की न केवल साक्षी बनी, बल्कि उसमें सहायक भी रही है. आगे चलकर जब मनुष्य ने पशुपालन व्यवस्था से कृषि व्यवस्था में प्रवेश किया, गांवों और कस्बों का विकास हुआ तो ऐसे व्यक्तियों जो घटनाओं को आकर्षक ढंग से सुना सकें को अतिरिक्त महत्त्व दिया जाने लगा. इसी से पेशेवर किस्सागो का जन्म हुआ. दुनिया का पहला लिखित किस्सा यूनान में गिलगमेश के महाकाव्य के रूप में उपलब्ध है. वह लगभग 4000 वर्ष पुराना है. यूनान के अलावा चीन और भारत भी कहानी सुनने–सुनाने की परंपरा आदिकाल से रही है. प्रायः सभी प्रमुख सभ्यताओं का विकास नदियों के किनारे हुआ. पानी की उपलब्धता के कारण वहां पर खेती करना, पशुओं के लिए भोजन जुटाना आसान था. परंतु नदी के तटवर्ती जीवन–बसर की अपनी अलग समस्याएं थीं. बरसात के दिनों में उमड़ती नदियां पूरी बस्ती को तबाह कर जाती थी. तबाही का मंजर वर्षों तक लोगों की यादों में बना रहता और धीरे–धीरे किस्से कहानी का रूप ले लेता. प्रायः सभी सभ्यताओं में जल–प्लावन को युगांतरकारी घटना के रूप में दर्ज किया है. भारतीय प्रायद्वीप में भी जल–प्लावन की घटना शतपथ ब्राह्मण में नई सृष्टि के जन्म के रूप में दर्ज है. इस बात के भी पर्याप्त प्रमाण है कि ईसा से तीन हजार वर्ष तक पहले गांवों में स्थानीय प्रशासन व्यवस्था विकसित हो चुकी थी. ग्राम्य–स्तर के पदाधिकारियों में ग्रामणी के अलावा किस्सागो का भी पद हुआ करता था. विशिष्ट अवसरों पर वह कहानी सुनाकर गांववालों का मनोरंजन करता था. लेखनकला का विकास उस समय तक नहीं हो पाया था. समूह की अनुभव संपदा और रोमांचक स्मृतियों को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंचाने का दायित्व किस्सागो का था. इसलिए उसे हम उस दौर का संस्कृतिकर्मी भी कह सकते हैं. इस तरह कहानी के कहन की परंपरा का इतिहास सभ्यता के इतिहास जितना ही पुराना है. विभिन्न संस्कृतियों में गढ़ी गई प्राचीन कहानियोंं में आश्चर्यजनक एकरूपता है. बाढ़ की स्मृतियां लगभग सभी में सुरक्षित हैं. इसके अलावा नैतिकता के प्रति तीव्र आग्रह, भोजन के बंटवारे को लेकर संघर्ष की लगभग एक समान स्थितियां हैं. ऋग्वेद को भारतीय मेधा का पहला लिखित दस्तावेज माना जाता है. विद्वानों के अनुसार इसका संहिताकरण ईसा से करीब 1500 वर्ष पहले किया गया. हालांकि श्रुति परंपरा के रूप में यह ग्रंथ उससे बहुत पहले से भारतीय जनजीवन को प्रभावित करता रहा है. विद्वानों के अनुसार ऋग्वेद की कुछ ऋचाएं ईसा से पांच से छह हजार वर्ष पुरानी हैं. ऋग्वेद तक आते–आते भारत में नागरी सभ्यता विकसित हो चुकी थी. बालक के महत्त्व को समझा जाने लगा था. यद्यपि उसके स्वतंत्र व्यक्तित्व को मान्यता नहीं मिल पाई थी, तथापि उसके चारित्रिक विकास में शिक्षा के योगदान को स्वीकारा जाने लगा था. वेद, उपनिषद, स्मृति–गं्रथ और आरण्यकों में ऐसी अनेक कहानियों उपलब्ध हैं, जिनको आज भी हिंदी बालसाहित्य की महत्त्वपूर्ण निधि के रूप में स्वीकार किया जाता है. वेदों में ऐसी अनेक कथाएं हैं, जिनके पात्र बच्चे हैं. उनसे यह साफ जाहिर होता है कि उनकी रचना बच्चों को संस्कारित करने अथवा उनकी संस्कारशीलता को दर्शाने हेतु की गई थी. इनमें सत्यकाम जाबालि, नचिकेता, आरुणि उद्दालक, उपमन्यु की कहानियों उदात्त बालचरित्रों को दर्शाती हैं— ‘‘जाबाला का पुत्र सत्यकाम अपनी माता के पास जाकर बोला, ‘हे माता, मैं ब्रह्मचारी बनना चाहता हूं. मैं किस वंश का हूं?’ माता ने उसे उत्तर दिया, ‘हे मेरे पुत्र! मैं नहीं जानती कि तू किस वंश का है. अपनी युवावस्था में जब मुझे दासी के रूप में बहुत अधिक बाहर आना–जाना होता था, तभी तू मेरे गर्भ में आया था. इसलिए मैं नहीं जानती कि तू किस वंश का है. मेरा नाम जाबाला है. तू सत्यकाम है. तू कह सकता है कि मैं सत्यकाम जाबाला हूं. हरिद्रमुत के पुत्र गौतम के पास जाकर उसने कहा, ‘भगवन्! मैं आपका ब्रह्मचारी बनना चाहता हूं. क्या मैं आपके यहां आ सकता हूं?’ उसने सत्यकाम से कहा, ‘हे मेरे बंधु, तू किस वंश का है?’ उसने कहा, ‘भगवन्, मैं नहीं जानता कि मैं किस वंश का हूं. मैंने अपनी माता से पूछा था और उसने यह उत्तर दिया—‘अपनी युवावस्था में जब दासी का काम करते समय मुझे बहुत बाहर आना–जाना होता था, तब तू मेरे गर्भ में आया. मैं नहीं जानती कि तू किस वंश का है. मेरा नाम जाबाला है और तू सत्यकाम है’—इसलिए हे भगवन्! मैं सत्यकाम जाबाला हूं.’ गौतम ने सत्यकाम से कहा कि, ‘एक सच्चे ब्राह्मण के अतिरिक्त अन्य कोई इतना स्पष्टवादी नहीं हो सकता. जा और समिधा ले आ. मैं तुझे दीक्षा दूंगा. तू सत्य के मार्ग से च्युत नहीं हुआ है.’’ (छांदोग्योपनिषद 4.4,1,4). भले ही विधिवत बालसाहित्य का हिस्सा न हों, पर ये कहानियोंं कहन की उस परंपरा का विस्तार हैं, जो उससे हजारों वर्ष पहले आरंभ हो चुकी थी. चूकि वेद–उपनिषद आदि दार्शनिक विवेचना के लिए लिखे गए ग्रंथ हैं, अतएव उनमें बालकों को भी दर्शन के गूढ़ प्रश्नों से साक्षात करते हुए दिखाया गया है. आरुणि उद्दालक, उपमन्यु की कहानियोंं तो सर्वख्यात हैं. दोनों में ही गुरुभक्ति और समाज के प्रति अनन्य निष्ठा का प्रदर्शन हैं. आरुणि गुरु के आदेश पर बांध का निरीक्षण करने जाता है. बरसात का मौसम है. बांध पर जाकर वह देखता है कि वहां से पानी रिस रहा है. आरुणि पानी को रोकने का प्रयास करता है. मगर नाकाम रहता है. इसी कोशिश में शाम हो जाती है. बांध का छेद बढ़ता ही जा रहा है. आश्रम और खेतों को बचाने के लिए आरुणि को जब कोई और उपाय नहीं सूझता तो वह बांध के टूटे हुए भाग से पीठ सटाकर बैठ जाता है. पूरी रात वह बांध से पीठ सटाए बैठा रहता है. सुबह ऋषि धौम्य अपने शिष्यों के साथ आरुणि को खोजते हुए वहां पहुंचते हैं, तब उन्हें आरुणि की गुरुभक्ति एवं आश्रम के प्रति निष्ठा का पता चलता है. छांदोग्योपनिषद के एक प्रसंग में श्वेतकेतु को अपने पिता से संवाद करते हुए दर्शाया गया है. पिता उससे कहता है— ‘वहां से मेरे लिए न्यग्रोध वृक्ष का फल लाकर दो.’ ‘यह लीजिए, भगवन, यह है.’ ‘इसे फोड़ो.’ ‘लीजिए तात्, यह फूट गया.’ ‘तुम्हें इसमें क्या दिखाई देता है.’ ‘यह बीज है, जो अत्यंत सूक्ष्म है.’ ‘इसमें किसी एक को फोड़ो.’ ‘लीजिए भगवन, यह फूट गया.’ ‘तुम्हें इसमें क्या दिखाई देता है?’ ‘कुछ नहीं भगवन्!’ पिता ने कहा, ‘हे मेरे पुत्र, वह सूक्ष्म तत्व जो तुम्हें उसमें प्रत्यक्ष नहीं होता, वस्तुतः उसी तत्व से इस महान नयग्रोध वृक्ष की सत्ता है. हे मेरे पुत्र! विश्वास करो इस सत्य पर कि यह सूक्ष्म तत्व ही है, और इसी के अंदर सब कुछ वर्तमान है. वही आत्मा को धारण करता है. यही सत्य है. यही आत्मा है. और तू, हे श्वेतकेतु, तू यही है.’’ (छांदोग्योपनिषद: 6: 10 और आगे). नचिकेता और उपमन्यु की कथाओं के बीजतत्व ऋग्वेद में मौजूद हैं. सम्राट वाजश्रवा का पुत्र नचिकेता पिता द्वारा बीमार और अशक्त गायों को दान दिए जाने पर खिन्न होकर पिता से पूछता है—‘पिताजी मुझे किसको दान देंगे?’ पिता के यह कहने पर कि यमराज को, तब वह उससे मिलने की उत्कंठा में राज्य छोड़ देता है. लंबी साधना के उपरांत उसकी भेंट यमराज से होती है. यमराज उसको मृत्यु के बारे में बताते हैं. यह प्रसंग कठोपनिषद् में विस्तार आया है. बल्कि पूरी उपनिषद ही यमराज और नचिकेता के संवाद पर केंद्रित है. कुछ लोग यह कह सकते हैं कि आठ–नौ वर्ष के बालक से जीवन–मृत्यु जैसे गंभीर प्रश्नों पर संवाद कराना उसके साथ खिलवाड़ करना है. भले ही यह संवाद सर्वथा काल्पनिक हो. तो भी यह कहा जा सकता है कि उस समय तक जीवन–मूल्यों, विचारों, दार्शनिक–सामाजिक मान्यताओं को लेकर साहित्य सृजन की शुरुआत हो चुकी थी. दूसरे यह उस कालखंड की रचना है जब आश्रमों में दार्शनिक प्रश्नों पर विमर्श करना सामान्य चर्या थी. शिष्य गुरु के सान्न्ध्यि में रहता था. माता–पिता भी अपने बच्चों को गुरु के आश्रम में कठोर दिनचर्या के लिए छोड़ देते थे, ताकि उसका नवोन्मेष हो सके. बच्चों के प्रसंग में एक संस्कार का उल्लेख ऋग्वेद में कई स्थानों पर हुआ है. वह था—उपनयन संस्कार. जब बालक माता–पिता के आंगन से निकलकर गुरु के आश्रम में चला जाता था. शिक्षार्जन करने. जितनी अवधि वह पाठशाला में रहता, उसपर केवल उसके गुरु का आदेश चलता था. शिष्य की निष्ठा को परखने के लिए गुरु उसकी तरह–तरह से परीक्षा भी लेते थे. एक और बालक उपमन्यु की गुरुभक्ति का किस्सा ऋग्वेद में मिलता है— ‘‘महर्षि आयोदधौम्य का शिष्य उपमन्यु दूसरे शिष्यों के साथ भिक्षाटन करने जाता है. एक दिन गुरु प्रश्न करते हैं— ‘वत्स उपमन्यु, तुम भोजन क्या करते हो.’ ‘गुरुदेव भिक्षाटन से जो मिलता है, उसी से कुछ अपने लिए रख लेता हूं.’ ‘पर भिक्षाटन पर तो गुरु और आश्रम का अधिकार होता है.’ अगले दिन उपमन्यु को जो भिक्षान्न प्राप्त हुआ वह उसने गुरु के समक्ष लाकर रख दिया. गुरु ने उसको आश्रम के सुपुर्द कर दिया. उपमन्यु को भूखा रह जाना पड़ा. दूसरे दिन भी यही हुआ तो उपमन्यु भूख मिटाने के लिए दुबारा भिक्षाटन के लिए निकल गया. अगले दिन गुरुदेव ने पुनः वही प्रश्न किया— ‘वत्स उपमन्यु, आजकल भोजन क्या करते हो?’ उपमन्यु ने सच कह दिया. इसपर गुरु विचलित होकर बोले—‘दुबारा भिक्षाटन करना तो धर्म विरुद्ध है. इससे गृहस्थों पर अतिरिक्त भार पड़ता है.’ गुरु की आज्ञा मानकर उपमन्यु ने वह भी छोड़ दिया. एक दिन गुरु ने फिर पूछा— ‘वत्स उपमन्यु, आजकल भोजन क्या करते हो?’ ‘गुरुदेव, गायों का दूध पी लेता हूं.’ ‘परंतु आश्रम की गायों पर तो मेरा अधिकार है? मुझसे बिना अनुमति के गायों का दूध पी लेना तो चोरी हुई.’ उसके बाद उपमन्यु केवल दूध दुहने के बाद गायों के फेन से काम चलाने लगा. गुरु को पता चला तो वह भी बंद करा दिया. उपमन्यु निराहार रहने लगा. भूख असह् होने पर एक दिन उसने आक के पत्ते खा लिए. इससे उसकी नेत्रों की ज्योति चली गई…’’ कहानी का अंत दुःखद होता है. गुरु–शिष्य के संबंधों में बंटी उस शिक्षा–व्यवस्था में गुरु के गुरुत्व को दर्शाने के लिए चामत्कारिक कहानियोंं लिखना सामान्य बात थी. यहां इन कहानियों की नैतिकता खंगालने का उद्दिष्ट हमारा नहीं. हमारा उद्देश्य मात्र यह दिखाना है कि बच्चों के लिए साहित्य लेखन का आरंभ वैदिक युग में ही हो चुका था. उसका आरंभिक उद्देश्य समाज को तात्कालिक मान्यताओं, विश्वासों के अनुकूल ठालना था. यह भी कह सकते हैं कि कहन की कला लिपि के आविष्कार के साथ ही शब्दों में ढलने लगी थी. उपनिषदों, ब्राह्मण ग्रंथों, आरण्यकों और स्मृतियों में आकर इसको और भी गति मिली. कहानी सुनना–सुनाना लोगों में इतना लोकप्रिय हुआ कि हर ‘पुर’ में एक दक्ष किस्सागो की मौजूदगी अनिवार्य मान ली गई. उसको लगभग उतना ही सम्मान मिलता था, जितना गांव प्रमुख को. महाकाव्य युग महाकाव्य युग(1500 ईस्वी पूर्व—800 ईस्वी पूर्व तक) तक आते–आते भारतीय समाज व्यवस्थित हो चुका था. आपस में युद्धरत रहने वाले छोटे–छोटे कबीलों ने बड़े राज्यों में संगठित होना आरंभ कर दिया था. राजाओं में स्पर्धा और साम्राज्यवादी ललक बढ़ी थी. अर्थव्यवस्था के स्रोतों में भी बदलाव आया था. कृषि की उपयोगिता बढ़ती जा रही थी. हालांकि समाज के कुछ वर्ग उस समय भी पशुपालन अर्थव्यवस्था को अपनाए हुए थे.अपने राज्य की सीमाओं का विस्तार करता, अधिक से अधिक कृष्ठ भूमि को अपनी सीमाओं में सम्मिलित करना, वीरता और राजकीय कौशल की पहचान बन चुका था. जिस सम्राट का अधिक भू–भाग पर अधिकार हो, वह अधिक सम्मान का पात्र माना जाने लगा था. कृषि के विकास ने सहायक उद्योग–धंधों को जन्म दिया था. लोगों की आवश्यकताएं निरंतर बढ़ रही थीं. इसके फलस्वरूप समाज में शिल्पकार वर्ग का सम्मान बढ़ा था. आय बढ़ने से व्यापार में तेजी आई थी. समृद्धि और वैभव के प्रतीक बड़े–बड़े प्रासाद, अट्टालिकाएं, दुर्ग समाज में आकर्षण का केंद्र बनते जा रहे थे. वर्ग–विभाजन एवं आर्थिक स्तरीकरण की शुरुआत हो चुकी थी. शीर्षस्थ वर्ग की निकटता का लाभ उठाने के लिए पुरोहितों एवं धर्माचार्यों ने लोगों को अपने प्रभाव में लेना आरंभ कर दिया था. वे धर्म के नाम पर लोगों का सत्ता के साथ अनुकूलन करना सिखा रहे थे. राजा का पद महत्त्वपूर्ण था. उसको पृथ्वी पर ईश्वर का प्रतिनिधि माना जाता था. उससे अपेक्षा की जाती थी कि वह ब्राह्मण को यथोचित महत्त्व दे. इस तरह पूरे समाज पर धर्मसत्ता और राजसत्ता का समवेत अधिकार था. उस दौर में बच्चों के लिए अथवा उनके नाम पर जो साहित्य रचा गया, वह किसी न किसी प्रकार इन्हीं दो सत्ताओं से संबद्ध था. उसका एक ही उद्देश्य था शिखर–सत्ताओं से तालमेल बनाकर चलना. उससे अनुकूलन करते रहने की शिक्षा देना. कर्मकांड और दैवीय ताकतों के भरोसे पूरा समाज स्वयं को वर्णव्यवस्था के अनुरूप ढाल चुका था. वर्चस्ववादी सत्ता का विरोध उस समय भी होता था. उसके प्रमाण वैदिक और उत्तरवैदिक साहित्य में भरे पड़े हैं. रामायण–महाभारतकाल तक वैदिक सभ्यता के समानांतर उसी के समान तेजवंत और प्रतापी सभ्यता मौजूद थी. उसको रक्षक(राक्षसी) सभ्यता कहा गया है. इस सभ्यता का कोई ग्रंथ उपलब्ध नहीं है. दोनों महाकाव्य असल में पुरातन रक्षक सभ्यता पर वैदिक सभ्यता की जीत का बयान है. आर्यों को युद्धप्रिय जाति बताया गया है. अतः यह संभव है कि आर्य–द्रविड़ युद्ध में युद्ध जीतने के उपरांत आर्यों ने रक्षक सभ्यता के सभी संदर्भग्रंथ, साहित्यिक प्रमाण जला दिए हों. वैदिक साहित्य में इंद्र की महिमा तथा उस समय के देव–दानव युद्धों का वर्णन तो है, लेकिन उस समय के रक्षक सभ्यता के साहित्य का नामोल्लेख तक नहीं है. जिसको प्राचीन भारतीय साहित्यिक संपदा कहा जा सकता है, वह असल में व्यवस्था से अनुकूलित–मर्यादित साहित्य–रचना है. उसमें विद्रोह की छवि सर्वथा अलभ्य है. अपने से बड़ों के प्रति विद्रोह तो दूर मतभेद की अनुमति तक नहीं थी. बालक को घर में माता–पिता और पाठशाला में गुरु के अनुशासन में रहना पड़ता था. इस युग के बालकों में राम और कृष्ण के अलावा एकलव्य, श्रवण कुमार, कौषिक, ध्रुव, प्रहलाद, लव–कुश आदि ऐसे बालचरित्र हैं, जिनका उल्लेख रामायण और महाभारत दोनों में मिलता है. इनमें ध्रुव और प्रहलाद की कहानियोंं आर्य संस्कृति के विस्तार को दर्शाती हैं. जबकि एकलव्य की कहानी एक बालक के आत्मविश्वास और अंततः उस व्यवस्था से छले जाने की गाथा है. एकलव्य सम्राट हिरण्यधेनु का बेटा है. द्रोणाचार्य जो केवल राजपुत्रों को शस्त्र–संधान करना सिखाते हैं, की ख्याति से प्रभावित होकर वह उनके पास जाता है. ठुकराए जाने पर वह उन्हीं को गुरु मानकर अपनी एकांत साधना आरंभ कर देता है. कठिन परिश्रम और अनवरत अभ्यास द्वारा वह अल्प समय में ही इतनी निपुणता प्राप्त कर लेता है कि उसके धनु–संधान कौशल की धूम मच जाती है. एक दिन द्रोणाचार्य स्वयं शर–संधान का उसका कौशल देख चमत्कृत रह जाते हैं. एकलव्य का शस्त्र–कौशल देखकर उन्हें अर्जुन को सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनाने के लिए दिया गया वचन खटाई में जान पड़ता है. उसमें जीत ब्राह्मणवाद की होती है. द्रोण कुटिलतापूर्वक एकलव्य का अंगूठा मांग लेते हैं. उल्लेखनीय है कि बालक एकलव्य स्वयं राजपुत्र है. द्रोण द्वारा केवल राजपुत्रों को शस्त्र–संधान सिखाने की शर्त को वह पूरा करता है. यही विश्वास उसको उनके पास खींच ले जाता है. हालांकि उसके अग्रज जानते हैं कि द्रोण उसको शिक्षा देने को हरगिज तैयार न होंगे. वही होता भी है. द्रोण इन्कार कर देते हैं. एकलव्य का संबंध उस अनार्य संस्कृति से था, जिसपर विजय की कामना रामायण और महाभारत युद्ध की प्रमुख प्रेरणाएं हैं. सांस्कृतिक प्रेरणा के दबाव में ही द्रोण गुरुदक्षिणा में एकलव्य का अंगूठा मांग लेता है. एक विलक्षण अनार्य योद्धा आर्य संस्कृति के मनमाने आचरण और सम्मोहन का शिकार हो जाता है. विलक्षण प्रतिभा की इस बलात् हत्या को ‘गुरुभक्ति’ का नाम दिया जाता है. एकलव्य की कहानी यदि देखा जाए तो सांस्कृतिक वर्चस्ववाद की कहानी है. दिखाती है कि एक ताकतवर संस्कृति किस प्रकार कमजोर संस्कृति को मिटने पर बाध्य कर देती है. यह बात बिलकुल भिन्न है कि कटे हुए अंगूठे के बावजूद एकलव्य केवल उंगलियों की मदद से तीर–संधान के अपने अभ्यास को जारी रखता है और जरासंध की सेना में सम्मिलित होकर कृष्ण के आगे चुनौती पेश करता है. उस युद्ध में वह वीरगति को प्राप्त होता है. उसकी वीरता देखकर स्वयं कृष्ण सम्मोहित हैं. महाभारत युद्ध में पराक्रमी एकलव्य के रणकौशल की प्रशंसा करते हुए वे अर्जुन से कहते हैं—‘हे पार्थ! आज यदि एकलव्य जीवित होता तो देव, दानव और नाग ये सब मिलकर भी उसे युद्ध में जीत नहीं सकते थे.’ एकलव्य के साथ हुए अन्याय का बोध विजेता संस्कृति के आचार्यों को भी रहा. संभवतः इसी घटना से जन्मे पापबोध पर पछतावा करते हुए बाद के एक उपनिषदकार ने कहा है— ‘वत्स, तू केवल हमारे अच्छे कर्मों से प्रेरणा लेना. उससे इतर कर्मों से: अर्थात जो अश्रेष्ठ और हेय हैं, तू कोई शिक्षा ग्रहण मत करना.’1 तत्कालीन साहित्य द्वारा यह भ्रम भी लगातार बनाया जाता है कि केवल क्षत्रिय ही राज करते थे या विद्याध्ययन का कार्य केवल तथा केवल ब्राह्मण शिक्षित एवं विद्धान. इतिहास में कोई समय ऐसा नहीं हुआ जब केवल इन्हीं दो वर्गों का वर्चस्व रहा हो, लेकिन इस व्यवस्था से अनुकूलन की कोशिश हर समय होती रही. लेकिन समाज पर धर्म का बढ़ता अनुशासन सदैव प्रतिगामी रहा हो, ऐसा नहीं है. अच्छे जीवन–मूल्यों से परचाने के लिए भी धर्म को माध्यम बनाया जाता था. महाभारत में कौषिक नाम के ब्राह्मण की एक बालोपयोगी कहानी आती है— ‘‘वेदाध्ययन को उत्सुक कौषिक जब गुरु की खोज में जाने को उद्धत हुआ तो उसके वृद्ध माता–पिता को चिंता हुई. मां ने कहा— ‘वत्स! हम दोनों जराशक्त हैं. तुम चले गए तो हमारी देखभाल कौन करेगा?’ कौषिक पर तो वेदाध्यन का भूत सवार था. वृद्ध माता–पिता को निराश्रित छोड़कर वह जंगल की ओर प्रस्थान कर गया. कुछ वर्षों की साधना के पश्चात उसने अनेक सिद्धियां प्राप्त कर लीं. एक दिन वह एक वृक्ष के नीचे बैठा आराम कर रहा था. उसी समय एक सारस ऊपर डाल पर आकर बैठ गया. उसने कौषिक के सिर पर बीट कर दी. कुपित कौषिक ने पक्षी को घूरा. कहानी बताती है कि तापस की कोप दृष्टि के आगे पक्षी कहां टिक पाता. वह भस्म होकर भूमि पर आ गिरा. पक्षी को जमीन पर तड़फते देख कौषिक को बड़ा अपराधबोध हुआ— ‘यदि मैं अपने गुस्से पर नियंत्रण नहीं रख पाता तो मुझे मान लेना चाहिए कि मेरी साधना में दोष है.’ उसने स्वयं से कहा. समस्या थी कि गुस्से पर नियंत्रण कैसे प्राप्त हो? अगले दिन वह भिक्षाटन के लिए निकला. एक गृहणी के द्वार जाकर उसने टेर लगाई. गृहणी बाहर आई और शीघ्र लौटने का आश्वासन देकर भीतर चली गई. उसी समय स्त्री का पति वहां पहुंच गया. स्त्री सब–कुछ छोड़कर अपने पति की सेवा में जुट गई. कौषिक को यह बहुत अपमानजनक लगा. कुछ देर बाद स्त्री भिक्षान्न का कटोरा लिए बाहर आई तो उससे रहा न गया. उसने कुपित दृष्टि स्त्री पर डाली— ‘एक साधु को दरवाजे पर छोड़कर तुम अपने पति की सेवा में जुट गईं. यह ब्राह्मण का अपमान है….’ ‘मैंने तो केवल अपने कर्तव्य का पालन किया है.’ स्त्री ने उत्तर दिया. ‘ब्राह्मण के अपमान के लिए मैं तुम्हें शाप भी दे सकता हूं.’ ‘मुझे धमकी देने की आवश्यकता नहीं है, भिक्षुक. मैं कोई सारस नहीं हूं जो तुम्हारी कोप–दृष्टि से भस्म हो जाऊंगी.’ कौषिक हैरान. आखिर उस घटना के बारे में स्त्री कैसे जानती हे. अवश्य यह सिद्ध स्त्री है. वह क्षमायाचना करने लगा— ‘क्षमा करें देवि, इतनी सिद्धियां प्राप्त करने के बावजूद मैं अपने क्रोध पर नियंत्रण नहीं रख पाता….क्या आप मेरी गुरु बनकर मुझे बताएंगी कि गुस्से पर नियंत्रण कैसे पाया जा सकता है?’ ‘मेरा समय तो अपने पति और बच्चों के लिए है. मैं तुम्हें शिक्षा नहीं दे सकती. परंतु मथुरा में धर्मव्याध रहता है. वह तुम्हारी समस्या का समाधान अवश्य करेगा.’ कौषिक धर्मव्याध के पास पहुंचा. वह उस समय अपनी दुकान पर था. दुकान पर लटके मांस के लोथड़ों को देखकर कौषिक दंग रह गया— ‘एक कसाई भला धर्मसिद्ध कैसे हो सकता है.’ ‘व्यक्ति को उसके कार्य से नहीं, कर्तव्य–निष्ठा द्वारा पहचाना जाता है.’ धर्मव्याध ने कहा. यही वह सीख है, जिसे समझाने के लिए उस गृहणी ने तुम्हें यहां भेजा है. आओ घर चलें. घबराओ मत, मेरा ठिकाना यहां से बस थोड़ी दूर है.’ ‘मांस का कारोबार तो हिंसा से भरा है…’ चलते–चलते कौषिक ने कहा. ‘दुनिया में ऐसा कौन–सा कारोबार है, जिसमें हिंसा न होती हो. किसान हल चलाता है तो फाल से लगकर लाखों कीड़े–मकोड़ों की सहसा जान चली जाती है, पर किसान को कोई कसाई या हत्यारा नहीं कहता. राह चलते व्यक्ति के कदमों के नीचे भी हजारों छोटे जीव रोज कुचले जाते हैं, परंतु कोई स्वयं को अपराधी नहीं मानता. मैं भी अपना कार्य करता हूं. फिर मुझे पाप का भागीदार क्यों होना पड़ेगा?’ कौषिक धर्मव्याध के घर पहुंचा तो आंगन में बच्चों को खेलता हुआ पाया. उसकी पत्नी घर के कार्यों में लगी थी. धर्मव्याध ने बुलाकर उसका परिचय कराया. भीतर के कमरे में पहुंचा तो धर्मव्याध के वृद्ध माता–पिता वहां मौजूद थे. धर्मव्याध ने आगे बढ़कर उनके पांव छुए. फिर मुड़कर कौषिक से बोला—‘मेरे माता–पिता ही मेरे सर्वस्व हैं. अपने परिवार के साथ मैं इनकी सेवा करता हूं. जो काम अपने लिए चुना है, उसका पालन करता हूं. और बचा हुआ समय अपने माता–पिता की सेवा में लगाता हूं.’ कौषिक कुछ सोचने लगा. इसपर धर्मव्याध ने कहा— ‘यही वह शिक्षा है, जिसे ग्रहण करने के लिए उस स्त्री ने तुम्हें यहां भेजा है. ’ कौषिक को अपनी गलती का एहसास हुआ. वह वापस अपने वृद्ध माता–पिता के पास लौट गया.’’ ऊपर कहानी में उस समय की परंपरा के अनुसार यह दर्शाने की कोशिश की गई है कि समाज द्वारा निर्दिष्ट जीविका के लिए किया जाने वाला कार्य पाप की श्रेणी में नहीं आता, भले ही उससे कुछ जीवों को नुकसान पहुंचता हो. युद्धभूमि पर परिजनों को सामने देख मोहाग्रस्त हो हथियार छोड़ बैठे अर्जुन को भी कृष्ण का यही उपदेश है कि हे अर्जुन, तू केवल अपना कर्म कर. फल की चिंता जाने दे. कहानी में सामाजिक मर्यादाओं का पूरा–पूरा ध्यान रखा गया है. ब्राह्मण को देख धर्मव्याध के वयोवृद्ध माता–पिता ससम्मान प्रणाम करते हैं. ब्राह्मण उनके घर जाता अवश्य है, मगर भोजन से दूर रहता है. इस प्रकार की युगीन नैतिकता प्रधान कहानियोंं रामायण और महाभारत में भरी पड़ी हैं. दरअसल यही वह साहित्य है जो सांस्कृतिक रूप से हमारे जीवन को प्रभावित–निर्देशित करता है. प्राचीन भारतीय साहित्य की एक भी पुस्तक, इस मर्यादा के पार नहीं जाती. सिवाय चार्वाक दर्शन के जो कर्मकांडों और पोंगापंथी पर मुक्त कटाक्ष करता है, परंतु शेष साहित्य उसे इतना निंदनीय और त्याज्य घोषित कर देता है कि प्रकट रूप से उसका समर्थन कर पाना किसी के लिए भी असंभव था. ये कहानियों धार्मिक साहित्य के रूप में प्रचलित थीं. रचनाकर्मियों का लक्ष्य पाठक संपूर्ण जनसमाज था. बच्चों के लिए अलग साहित्य का विचार उस समय तक जन्मा ही नहीं था. बौद्ध और जैन साहित्य में बालोपयोगी साहित्य इस युग में कहानियों कहने–सुनाने की परंपरा तत्कालीन सभ्यता और संस्कृति का अंग बन चुकी थी. प्रमाणस्वरूप उस युग की उन चित्राकृतियों का जिक्र किया जा सकता है, जो हमें प्राचीन भवनों, स्तूपों, मीनारों पर उकेरी हुई प्राप्त होती हैं. उनकी उम्र दो हजार वर्ष से भी ऊपर मानी जा सकती है. गौतम बुद्ध ने मूर्तिपूजा का तीव्रतम विरोध किया था. बल्कि बौद्ध धर्म की तो नींव ही कर्मकांड, जीव हिंसा एवं मूर्तिपूजा के विरोध स्वरूप रखी गई थी. यह बात अलग है कि गौतम बुद्ध के अवसान के बाद बौद्ध धर्म को जनता के बीच स्थापित करने की छटपटाहट ने बौद्ध भिक्षुओं को भी वही रास्ते अपनाने के लिए बाध्य कर दिया था, जिसपर चलकर वैदिक सभ्यता पतनोन्मुखी बनी थी. इसके बावजूद यह कहने में संकोच नहीं होना चाहिए कि बौद्धधर्म के प्रचार–प्रसार हेतु उसके अनुयायियों ने जो रास्ते अपनाए वे कालांतर में भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति के बहुआयामी विकास में मददगार बने. पहली बार भारत की दार्शनिक संपदा देश की सीमाओं को लांघकर चीन, जापान, श्रीलंका, कंबोडिया, जावा, सुमित्रा, मारीशस आदि हजारों किलोमीटर दूर देशों तक पहुंची. कंबोडिया, जाबा, सुमात्रा तो भारतीय संस्कृति के अविस्मरणीय ठिकाने हें. सैकड़ों प्राचीन बौद्ध इमारतों, स्तूपों, धर्म स्तंभों पर आज गौतम बुद्ध के पूर्वजन्म की कथाएं चित्रों में उकेरी गई हैं, जो तत्कालीन समाज में कहानी की स्थापित लोकप्रियता के बारे में बताती हैं. सांची, अमरावती, सारनाथ, बेहरूत आदि स्थानों से प्राप्त बौद्धकालीन इमारतों के भग्नावशेषों, धर्मस्तंभों पर गौतम बुद्ध के पूर्वजन्म की कहानियों दी गई हैं. राजकुल में जन्मे बालक सिद्धार्थ का गौतम बुद्ध के रूप में उभरना और दार्शनिक चिंतन के आधार पर दुनिया–भर पर अपना प्रभाव जमाना अपने आप में ही एक कहानी है. ऐसी कहानी जिससे बालक और बड़े दोनों आनंद ले सकते हैं. गौतम बुद्ध के निधन के उपरांत उनके विचारों को पंथ में बदलने की चाहत ने उनके शिष्यों को बुद्ध के जीवन से जुड़ी कहानियों गढ़ने के लिए बाध्य कर दिया. परिणामस्वरूप जातक कथाओं का जन्म हुआ. उस समय कहानियों जनसमुदाय में अपने विचारों को फैलाने का सशक्त माध्यम थी. बस्तियों में दक्ष किस्सागो का बहुत मान किया जाता था. बौद्ध धर्म की घर–घर में पैठ बनाने के लिए जातक कथाओं की रचना की गई. जैन मुनिगण भी महावीर स्वामी के बाद से ही अपने धर्म–दर्शन को किस्सों–कहानियों, किवदंतियों के माध्यम से जन–जन में लोकप्रिय बनाने के लिए जुटे थे. जातक कथाओं तथा महावीर स्वामी के जीवन तथा उनके जीवनदर्शन को लोकप्रिय बनाने के लिए कहानियों के अलावा भी इस युग में बहुत कुछ ऐसा रचा गया जिसका उद्देश्य हालांकि तात्कालिक धर्म और उसके नैतिक मूल्यों को जनसाधारण में लोकप्रिय बनाना था. कथासरितसागर, जातक कथाएं, पंचतंत्र, हितोपदेश आदि प्रमुख ग्रंथ जिन्हें आज हिंदी बालसाहित्य की अमूल्य संपदा माना जाता है, की रचना इसी युग में की गई. इनमें ‘कथासरितसागर’ प्राकृत में रचित, इस भाषा की संभवतः सबसे पहली पुस्तक, गुणाढ्य की बृहद पुस्तक ‘बड्डकहा’ पर आधारित है. गुणाढ्य पंडित सातवाहन सम्राट के दरबारी थे. सातवाहन सम्राट के सिक्कों पर ‘सात’ अथवा ‘साड’ छापा गया है. वे प्राकृत भाषा के बड़े प्रेमी थे. बताते हैं कि उन्होंने अपने राजमहल में प्राकृत बोलने का नियम बना रखा था. इसके लिए संस्कृत अनुरागी पंडित समाज उनका उपहास भी करता था. ‘बड्डकहा’ का मूल स्वरूप आज अनुपलब्ध है. इसके पीछे कहानी है कि महाराज सातवाहन के ही अन्य दरबारी कवि वत्सल ‘हाल’ द्वारा कृति का उपहास उड़ाए जाने से क्षुब्ध गुणाढ्य पंडित ने उसको स्वयं ही जला दिया था. राजा के प्रयास से पुस्तक का सातवां हिस्सा जलने से बचा लिया गया था. बचाया गया सातवां हिस्सा भी मूल रूप में अनुपलब्ध है. उसके संस्कृत भावानुवाद बुद्धस्वामी के ‘बृहत्कथा श्लोक संग्रह’, ‘क्षेमेंद्र की बृहत्कथा मंजरी’ तथा सोमदेव के ‘कथासरित्सागर’ के रूप में उपलब्ध हैं. इसके बारह खंडों में कुल 124 अध्याय हैं. पुस्तक का दसवां खंड ‘पंचतंत्र’ तथा बारहवां ‘वैताल पचीसी’ को अपने साथ जोड़े हुए है. इससे इस ग्रंथ की विशद्ता का अनुमान लगाया जा सकता है. पंचतंत्र, वैताल पचीसी तथा कथासरित्सागर की कहानियों के मूल चरित्र में जो एकरूपता और लोकतत्व है, उससे प्रतीत होता है कि ये कहानियोंं लिखे जाने से पहले ही लोकसाहित्य में प्रचलित हो चुकी थीं. इन कहानियों की रचना समाज के सभी वर्गों के लिए की गई थी. इनका सहज किस्सागोई रूप बच्चों को घर–परिवार में सुनाया जाता था. यही स्थिति जातक कथाओं के साथ भी है. जातक कथाएं यद्यपि गौतम बुद्ध के पूर्वजन्म की कहानियों के रूप में लिखी गई थीं. उद्देश्य था गौतमबुद्ध तथा उनके धर्म के बारे में लोगों को शिक्षित करना. ये नैतिकता और मानवीय मूल्यों की कहानियोंं हैं. उनसे मिली–जुली कथाएं हमारे लोकसाहित्य में भी मौजूद रही हैं. कहा जा सकता है कि समाज में पहले से ही व्याप्त कहानियों की लोकप्रियता का लाभ उठाने के लिए उनके आधार अपनी धार्मिक–दार्शनिक मान्यताओं को समाज में लोकप्रिय बनाने का प्रयास, दार्शनिकों, प्रचारकों द्वारा समय–समय पर किया जाता रहा है. पंचतंत्र को छोड़कर शेष दोनों खंडों का उद्देश्य यद्धपि बड़ों को धार्मिक नैतिकता से परचाना था. लेकिन अपनी उद्देश्यपरकता, रोचकता, मनोरंजन सामथ्र्य तथा सहजता के आधार पर ये कृतियां बड़ों के साथ बच्चों में भी समानरूप से लोकप्रिय होती गईं. पर्याप्त लोकतत्व होने के कारण उन्हें लोकसाहित्य का हिस्सा बनते देर न लगी. बौद्ध दर्शन के पराभव के उपरांत भारत भारत में नए सिरे से कर्मकांडों तथा जातीय ऊंच–नीच की बाढ़ आ गई. बौद्धिक क्षेत्र में जड़ता का प्रवाह होने लगा था. बौद्धधर्म के साथ–साथ इस युग में जैन धर्म भी अपनी जड़ जमा चुका था. लेकिन अहिंसा के प्रति अपने अतिवादी द्रष्टिकोण के कारण यह लोकमानस में अपेक्षित पैठ न बना सका. दूसरी ओर जातक कथाएं अपने नैतिकतावादी द्रष्टिकोण और रोचक शैली के कारण देश–विदेश में समाज के हर वर्ग के बीच लोकप्रिय होती चली गईं. उन्हें विद्वानों द्वारा समयानुसार लिपिबद्ध किया जाता रहा है— कौशल नरेश सम्राट प्रसेनजित के पास एक हाथी था. नाम था—पायेक्का. महाराज प्रसेनजित थे, उदार, प्रजावत्सल और पराक्रमी. ऐसा ही उनका हाथी था. सुंदर, सजीला, परम बलशाली और बुद्धिमान. चिंघाड़ पड़े तो दुश्मन की सेना के छक्के छूट जाएं. कमजोर दिल इंसान गश खाकर जमीन पर जा पड़े. पायेक्का पर सवार होकर महाराज प्रसेनजित ने अनेक युद्ध लड़े थे. हर बार विजयश्री प्राप्त की थी. खुद पायेक्का भी अनेक बार, अनेक दुश्मनों के दांत खट्टे कर चुका था. महाराज उसे पुत्रवत प्यार करते, उसकी देखभाल में कोई कमी न आने देते. पर वक्त के साथ हाथी बूढ़ा होने लगा. तब सम्राट प्रसेनजित ने उसे अपनी सेवा से मुक्त कर दिया. हाथी के साथ बूढ़ा महावत भी सेवामुक्त होकर गांव लौट गया. राज्य में एक झील थी. प्रकृति की गोद में पनपी. गहरी और नीले–स्वच्छ जल से लबालब भरी हुई. मनोहर कमलदल हमेशा उसकी शोभा बढ़ाते. एक बार की बात. बूढ़ा पायेक्का झील में पानी पीने गया. झील की सुंदरता ने उसका मन मोह लिया. वह उसमें और भीतर, और भीतर घुसता चला गया. झील में दलदल था. बूढ़ा पायेक्का उसमें फंसने लगा. बाहर निकलने की वह जितनी भी कोशिश करता, दलदल उसको अपनी ओर खींचता जाता. पायेक्का को झील से निकालने के लिए लोगों ने उकसाया. बाहर आने के लिए स्वादिष्ट भोजन का लालच दिया. डंडे का डर भी दिखाया. उकसावे पर पायेक्का बार–बार जोर लगाता. पर उबरने के बजाय दलदल में और गहरा धंसता चला जाता. रक्षक दल के औसान बिगड़ने लगे. इस बीच पायेक्का को देखने हजारों की भीड़ झील के किनारे आ जुटी थी. महाराज तक खबर पहुंची तो वे भी अपने प्यारे हाथी को बचाने के लिए झील–किनारे आ गए. उन्होंने खुद भी पायेक्का को उकसाया. बाहर आने के लिए पुकारा. महाराज की आवाज सुनकर पायेक्का ने एक बार फिर जोर लगाया. लेकिन बूढे शरीर में दलदल को पार करने की ताकत कहां! अपनी विवशता पर पायेक्का की आंखों में आंसू आ गए. उसको उदास देख प्रसेनजित भी अपने आंसू न रोक सके. अपने प्यारे सम्राट को रोता हुआ देख प्रजा भी रोने लगी. मंत्री–महामंत्री, बाल–वृद्ध सब उदास हो गए. प्रकृति में रुदन मच गया. तब किसी ने पुराने महावत को बुलाने की सलाह दी. उन दिनों अनाथपिंडक सेठ के जेतवनाराम में महात्मा बुद्ध पधारे हुए थे. उनका धर्मोपदेश चल ही रहा था कि महावत को बुलाने के लिए सम्राट का दूत आ पहुंचा. बुद्ध का आशीर्वाद लेकर महावत वहां से चल पड़ा. कुछ भिक्कु भी उसके साथ हो लिए. पायेक्का को दलदल में फंसा देख महावत की हंसी छूट गई. फिर देर तक वह हंसता ही रहा. लोग उसकी उन्मादित हंसी देखकर हैरान थे. ‘यह कैसा पागलपन है महावत. राज्य से दूर रहकर क्या आप उसके अनुशासन भी भूल चुके हैं. महाराज अपने प्रिय हाथी को फंसा देखकर उदास हैं और आपको हंसी छूट रही है?’ महामंत्री ने चेताया. ‘क्षमा करें महाराज!’ महावत ने कहा. आप फौरन युद्ध के वाद्य मंगवाइये. नगाड़ा और बिगुल बजने दीजिए.’ महामंत्री को लगा कि बूढ़ा महावत सठिया चुका है. उम्र के साथ उसकी अक्ल भी बुढ़ा चुकी है. पर उस समय महावत की बात न मानने के अलावा कोई और रास्ता भी न था. तत्काल युद्ध के वाद्य मंगवाए गए. रणभेरियां बजने लगीं. पायेक्का ने बिगुल की आवाज सुनी तो उसका खून उबाल मारने लगा. रग–रग सनसना उठी. लगा कि उसका दुश्मन आंखों के सामने है. एक झटके में उसको वह रौंद सकता है. वह उछला. एक ही प्रयास में दलदल से बाहर था. उसे झील से कुलांचे मारकर बाहर आते देख लोग खुशी से चीखने लगे. महाराज की आंखें भी खुशी से छलछला उठीं. बूढ़े महावत को भारी ईनाम देकर विदा किया गया. वह भिक्कुओं के साथ बुद्ध की शरण में पहुंचा. भिक्कुओं के मन बेचैन थे. उलझे हुए अनगिनत प्रश्न उनके दिलो–दिमाग को मथ रहे थे. ‘वत्स, प्रश्न की खोज उत्तर से भी कठिन है. जिज्ञासा को दबाओ मत.’ भिक्कुओं के चेहरे के भाव पहचानकर बुद्ध ने कहा. ‘देव, आप प्राणीमात्र के प्रति दया की शिक्षा देते हैं. सभी से प्रेम करना सिखाते हैं. दूसरों को संकट में देखकर उनका उपहास करना और भी बुरा है—यह आप ही ने सिखाया है.’ ‘अपनी शंका तो व्यक्त करो वत्स!’ बुद्ध ने मुस्कान बिखेरी. ‘देव, आप जानते हैं कि वह महावत वर्षों तक उस हाथी के साथ रहा है. फिर भी अपने दुलारे हाथी की दलदल में दुर्दशा देखकर वह हंसने लगा, बुद्धिमान होकर भी उसने पागलों जैसा व्यवहार क्यों किया? सिर्फ आप ही इस रहस्य की व्याख्या कर सकते हैं?’ तब बुद्ध ने अपने प्रिय शिष्यों पर दिव्य मुस्कान बिखेरते हुए कहा— ‘तुम ठीक कहते हो. वह महावत ज्ञानी है, उसको हाथी का मूल स्वभाव और महान अतीत पता था. वह हंसा तो इसलिए कि सम्राट प्रसेनजित को सैकड़ों बार युद्ध के मैदान से सुरक्षित निकाल लाने वाला पायेक्का मामूली दलदल को देखते ही घबरा गया. उसी घबराहट में वह अपना मूल स्वभाव और आत्मविश्वास भी भूल बैठा. युद्ध के नगाड़े और बिगुल की आवाज सुनकर हाथी को अपना महान अतीत और पराक्रम फिर याद आ गए. साथ ही उसका आत्मविश्वास भी लौट आया. उसी के जोश में वह दलदल से बाहर आने में सफल हो सका.’ यह जातक कथा जितनी बड़ों के लिए उपयोगी है, उतनी ही बच्चों के लिए मूल्यवान है. उनका रचनाकाल पंचतंत्र से पुराना है. लेकिन वह कई शताब्दियों तक फैला हुआ है. इससे यह भी सिद्ध होता है कि पशु–पक्षियों को केंद्रीय पात्र बनाकर किस्सागोई का आरंभ बौद्धकाल में ही हो चुका था. अंतर सिर्फ इतना है कि जातक कथाओं का उद्देश्य जहां गौतम बुद्ध के नीति–संदेश को जन–जन तक पहुंचाना था. वहीं पंचतंत्र की रचनाओं का प्रथम उद्देश्य था राजकुमारों को व्यावहारिक ज्ञान से समृद्ध करना. पंचतंत्र की रचना चाणक्य के समकालीन विष्णुशर्मा ने की थी. चाणक्य का एक नाम विष्णुगुप्त भी है, इसलिए अनेक विद्वान दोनों को एक ही व्यक्ति मानते हैं. चाणक्य तक आते–आते बड़े साम्राज्यों का महत्त्व बढ़ चुका था. और बड़े साम्राज्य की स्थापना केवल नीतिगत उपदेशों के सहारे संभव न थी. इसलिए चाणक्य के समय में नीति कूटनीति का रूप ले लेती है. यही कूटनीति व्यवहारशास्त्र के रूप में पंचतंत्र की मूल प्रेरणा है. चाणक्य के समकालीन अरस्तु ने भी अपने गुरु प्लेटो के दार्शनिक सम्राट के सुझाव को किनारे करते हुए नीति–आधारित व्यावहारिक राजनीतिक दर्शन का पक्ष लिया है. मध्यकाल: भक्तिकाव्य हर्षवर्धन(590—647) के बाद भारतीय उपमहाद्वीप में राजनीतिक अस्थिरता का लंबा दौर चला. स्थानीय राजाओं की आपसी रंजिशों और महत्त्वाकांक्षाओं के कारण देश छोटे–छोटे राज्यों में बिखरता चला गया. इस बीच दक्षिण में कुछ बड़े राज्य पनपे. मगर कुल मिलाकर राजनीतिक अस्थिरता ही व्यापती रही. बिखरी हुई राजनीतिक शक्तियां विदेशी आक्रामकों से अपनी और देश की रक्षा करने में अक्षम सिद्ध हुई थीं. इस बीच उत्तर में पृथ्वीराज चैहान तथा दक्षिण में चालुक्य वंशीय राजाओं ने भारतीय राजाओं की कीर्ति रक्षा के लिए संघर्ष किया ओर कुछ सीमा तक उसे बचाए भी रखा, परंतु आपसी फूट के कारण वे मुस्लिम आक्रामकों के निरंतर प्रहार को झेल पाने में असमर्थ रहे. सोलहवीं शताब्दी में मुगल शासकों ने भारत को फिर से एकसूत्र में पिरोने में कामयाबी हासिल की. इससे भिन्न संस्कृतियों से मेलजोल का सिलसिला बना. इसके फलस्वरूप साहित्यिक–सांस्कृतिक आदान–प्रदान में भी तेजी आई. मध्य युग तक आते–आते साहित्य की दो प्रमुख धाराएं बन चुकी थीं. पहली वेद–वेदांगों पर आधारित रचनाएं, जो मूलतः मनुष्य की प्राकृतिक उपादानों के प्रति तीव्र आस्था, विश्वास, तर्क–सामथ्र्य, आध्यात्मिक चेतना एवं समर्पण–भाव को अभिव्यक्त करती थीं, लेकिन उसमें पहले जैसी गूढ़ता और ज्ञान के प्रति ललक गायब हो चुकी थी. उसकी जगह कर्मकांड तथा स्तुतिकाव्य ने ले ली थी. सम्राटों, सामंतों और जमींदारों की प्रशस्ति, उनके आग्रह पर रचा गया स्तुतिगान अथवा उनका कृपापात्र बनने, उन्हें रिझाने की कोशिश में नायक–नायिकाओं का नख–सिख वर्णन जोर पकड़ने लगा था. साहित्यिकता तथा उसकी मूल भावना से उसका दूर–दूर तक कोई संबंध नहीं था. इस कालखंड में संस्कृतियों के संलयन के साथ साहित्य का भी संलयन हो रहा था. काफिलों के रूप में दूर–देश की यात्रा करने वाले व्यापारियों के माध्यम से अरब, रोम, मिò और भारत की सभ्यताएं परस्पर तेजी से पास आ रही थीं. इस परंपरा में जातक कथाएं, कथासरित्सागर, हितोपदेश, पंचतंत्र, वैतालपचीसी, शुकसप्तति, सिहांसनबतीसी आदि हिंदी की क्लासिक कृतियों की रचना हुई. ये कृतियां टीका और अनुवाद के सहारे विभिन्न भाषाओं में अपना स्थान बनाने में सफल रहीं. दूसरी ओर आलिफ–लैला, हातिमताई, गुलबकाबली जैसी पुस्तकें अनूदित होकर भारत में आईं. लोकसाहित्य में भी उनका जादू सिर चढ़कर बोला, जिसके फलस्वरूप सांस्कृतिक तालमेल का वातावरण बना. इनमें किस्सागोई का कमाल था. जो कहन की प्राचीन परंपरा से जन्मी थी. कथासरितसागर, वैतालपचीसी, सिंहासनबतीसी आदि पुस्तकों की रचना के केंद्र में बच्चे नहीं थे. ‘शुक सप्तति’ तो बड़ों की कहानियों की पुस्तक थी. लेकिन अपनी रोचक–सहज भाषा शैली के कारण ये पुस्तकें शीघ्र ही लोकमानस का हिस्सा बन गईं. इस अवधि में चंदबरदाई, सूरदास, अमीर खुसरो, कबीर जैसे कवि हुए. सूरदास ने कृष्ण के बचपन को लेकर अनूठी कविताएं लिखीं, लेकिन वे बच्चों की समझ से बहुत ऊपर थीं. सोलहवीं शताब्दी में जन्मे नरोत्तम दास(1550—1605) ने ‘सुदामा चरित’ और ‘धु्रव चरित’ लिखकर बालोपयोगी साम्रगी की रचना की. उनीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में जन्मे गिरधर कविराय(1877) ने भी अपनी कुंडलियों के माध्यम से लोकरुचि के अनेक विषयों पर कविताएं लिखीं. उनकी लगभग 500 प्राप्य कुंडलियों में से अनेक बालोपयोगी हैं. नरोत्तम दास और गिरधर कवि दोनों के मन में बालसाहित्य संबंधी कोई प्रत्यय मौजूद नहीं था. लेकिन अपनी विषय–भूमि तथा सहज अभिव्यक्ति के कारण उनकी रचनाएं आज भी बच्चों में लोकप्रिय हैं. कुल मिलाकर इस युग का सारा साहित्य बड़ों के लिए बड़ों द्वारा बड़ी कामनाओं की सिद्धि के लिए किया गया आयोजन था. बानगी के तौर पर गिरधर की दो कुंडलियां यहां उद्धृत की जा रही हैं— हुक्का बांध्यौ फेंट में नैं गहि लीनी हाथ चले राह में जात है, बंधी तमाकू साथ बंधी तमाकू साथ गैल कौ धंधा भूल्यौ गई सब चिंता दूर आग देखत मन फूल्यौ कह गिरधर कविराय जु जम कौ आयो रुक्का जीव लै गया काल हाथ में रह गयौ हुक्का. गिरधर कवि की ही एक और कुंडली, जो समसामयिक और आधुनिकताबोध से परिपूर्ण है— साईं घोड़न के अछत गदहन आयौ राज कौआ लीजै हाथ में दूर कीजियै बाज दूर कीजियै बाज राज ऐसौ ही आयो सिंह कैद में कियो स्यार गजराज चढ़ायौ कह गिरधर कविराय जहां यह बूझ बढ़ाई तहां न कीजै सांझ सवेरहि चलियै साईं भारतीय साहित्य के लौकिकीकरण तथा उसको आम–आदमी की इच्छा–आकांक्षाओं, कुंठाओं, तनावों एवं जनसमस्याओं से रू–ब–रू कराने का श्रेय प्रारंभिक भक्त कवियों को जाता है. उन्होंने जाति, धर्म और क्षेत्र के आधार पर बुरी तरह विभाजित समाज में मूर्तिपूजा, कर्मकांड, रूढ़िवाद तथा तंत्र–मंत्र के सहारे चल रहे शोषण एवं अमानवीय आचरण का अपनी सीधी–सादी मगर तीखी वाणी में चुनौती देते हुए निराकार–निर्गुण परमात्मा की अराधना पर जोर दिया था. जाति–धर्म तथा संप्रदाय के नाम पर भेद करने वालों को ललकारा. प्रारंभिक भक्त कवि समाज की उन जातियों से आए थे, जो स्वयं शोषण का शिकार थीं. उन्हें वेद पढ़ने की मनाही थी. मंदिर की सीढ़ियां चढ़ने से उन्हें रोक दिया जाता था. उन्होंने समाज के वंचित तबके की पीड़ा, धर्म तथा जाति के आधार पर उसके शोषण–उत्पीड़न को समझा और कहा कि ईश्वर की खोज में बाहर भटकना नादानी है. वह तो जन–जन के भीतर है. उसके लिए मंदिर–मस्जिद जाने की जरूरत नहीं है. लोगों ने इस सीख को हाथों–हाथ लिया. इसके फलस्वरूप समाज में क्रांतिधर्मी लहरें उठने लगीं. लोकोपकारी साहित्य–सर्जक के रूप में संत कवि सत्ता से निस्पृह रहकर, लगभग विद्रोही अवस्था में क्रांतिधर्मा साहित्य का सृजन कर रहे थे. स्तुतिकाव्य रचने वाले कवियों, चारण–वृंदों के लिए जो प्रजा थी, भक्त कवियों की निगाह में वह आत्मा का रूप ले चुकी थी. उनके लिए राजा और प्रजा की आत्मा में भेद न था. भक्ति काल का उद्भव सही मायने में धार्मिक आडंबरवाद और जातीय वर्चस्ववाद के विरुद्ध शंखनाद था, उसका श्रेय उन संत कवियों को जाता है, जो समाज के कथित निचले वर्गों से अपनी प्रतिभा और नैतिक ऊंचाई के बल पर उभरकर आए थे; और अपने नैतिक सामथ्र्य के दम पर बड़ी से बड़ी सत्ता से टकराने का साहस रखते थे. जनसाधारण ने भक्त कवियों को सिर–माथे बिठाया, दूसरी ओर यथास्थितिवादियों की ओर से इन कवियों का भरपूर विरोध किया गया. उन्हें तरह–तरह की प्रताड़नाएं दी गईं. धीरे–धीरे समाज पर उनका प्रभाव बढ़ता गया. दक्षिण भारत से शुरू हुआ निर्गुण भक्ति आंदोलन दो शताब्दी से अधिक अपना तेज कायम न रख सका. कालांतर में भक्त–कवियों में ऊंची जातियों के कवि आ मिले. वे अपने साथ जातीय संस्कार भी लाए थे. उनके प्रभाव से निर्गुण के उपासक सगुण की उपासना करने लगे. पूर्वस्थापित देवताओं के स्थान पर राम और कृष्ण जैसे नए देवता अवतार बनकर विराजमान हो गए. उन्होंने भक्ति आंदोलन की धार को कंुद करने का ही काम किया. सगुण उपासना भक्ति आंदोलन की क्रांतिधर्मिता पर पानी फेरने का कारण बनी. तो भी इस युग की उपलब्धियां सराहनीय थीं. आध्यात्मिक नजरिये से मध्यकाल में ही यह संभव हो पाया कि समानता और बराबरी की बातें, जो सहस्राब्दियों से लुप्त हो चली थीं, भक्त–कवियों की वाणी में पुनः सामाजिक विमर्श का हिस्सा बनने लगीं. अधिकांश भक्त कवि धर्म और जाति के आधार पर समाज के विभाजन का विरोध करते हैं. आदमी–आदमी के बीच फर्क तथा आवश्यकता से अधिक संचय न करने, सबके साथ समानतापूर्ण व्यवहार एवं जरूरत के समय दूसरों की मदद करने का आवाह्न भी वे करते हैं. इसके बावजूद भक्ति आंदोलन की क्रांतिचेतना, उच्चवर्गीय लोगों की मानस–रचना में आमूल बदलाव लाने में असमर्थ रही. सगुण भक्तों के अवतारवादी द्रष्टिकोण ने पूरे भक्ति आंदोलन की उपलब्धियों पर पानी फेरने का काम किया. इस बीच इस धारा में कुछ ऐसे कवि–लेखक भी आ मिले जिनकी आस्था पुरातन वर्णव्यवस्था में थी. उन्होंने अपने वर्गीय हितों के अनुकूल साहित्य की रचना पर जोर दिया. इसी के चलते तुलसी युग के सबसे बड़े कवि के रूप में स्थापित हुए. निर्गुण भक्त कवि सामान्यतः राज्याश्रय से दूर रहते थे, मगर उनके सगुण उत्तराधिकारियों ने राज्याश्रय अथवा सत्ता–शिखर के आसपास रहना आरंभ कर दिया. मगर इससे भक्ति काव्य की क्रांतिधर्मिता फीकी पड़ती गई. ईष्ठ देव के आगे त्राण की पुकार करते संत कवियों की रचनाओं में आम आदमी, विशेषकर सामाजिक रूप से उपेक्षित वर्गों की व्यथा को खूब विस्तार मिला. यह कहना तो अनुचित होगा कि उस दौरान राजा की प्रशस्ति में साहित्य रचा ही नहीं गया. बल्कि ढेर इसी कोटि में समा सकता है. बड़े–बड़े राजाओं, सम्राटों की लिखित शब्द के प्रति आस्था ही थी, जिससे उसे राजदरबार में इतिहासकारों, लेखकों और कवि के रूप में चारण–वृंदों की विधिवत नियुक्ति होती थी. उनकी प्रतिभा का कथित ‘सम्मान’ होता था. चूंकि समस्त मान–सम्मान और पद–प्रतिष्ठा आश्रयदाता की खुशी पर निर्भर थे, उसकी वक्री नजर से सब कुछ एक झटके में छिन सकता था. इसलिए कवि लेखक अपने आश्रयदाता की भावनाओं के अनुकूल इतिहास और काव्य के सृजन में लीन रहते थे. उन कवियों ने जो लिखा उसको आधुनिक हिंदी आलोचक रीतिकालीन साहित्य मानते हैं. ‘स्तुतिकाव्य’ को ‘रीतिकाव्य’ कहना, तत्कालीन सामंतीतंत्र से सहानुभूति का ही द्योतक है. बहरहाल उस समय तक साहित्य के तीन रूप प्रचलित थे— 1. धार्मिक आस्थाओं, संप्रदाय आदि को लेकर लिखा जाने वाला साहित्य : महत्त्वपूर्ण होते हुए भी यह आमजन की वास्तविक समस्याओं से दूर था. 2. आश्रयदाता की सहमति पर उसकी प्रशंसा या कृपा के लिए लिखा जाने वाला साहित्य : इस श्रेणी के लेखकों की वर्गीय दृष्टि प्रबल थी. इसलिए ऐसे लेखन का कलात्मक मूल्य चाहे जो हो, उसका साहित्यिक मूल्य नगण्य है. 3. भक्त कवियों द्वारा लिखा जाने वाला साहित्य: इसमें समाज के धर्म और जातीयता आधारित विभाजन तथा ऊंच–नीच की भावना को ललकारा गया था. तात्कालिक परिस्थितियों को देखते हुए ऐसे साहित्य को हम क्रांतिधर्मी साहित्य कह सकते हैं. और ऐसा हुआ भी है. लेकिन भक्त कवियों की समस्या है कि वे छोटी से छोटी समस्या से त्राण के लिए परमात्मा की ओर ही देखते थे. सामंती सत्ताओं से टकराने के बजाय वह वर्ग उससे दूर रहने पर जोर देता था.राजनीतिक चेतना से लगभग शून्य होने के कारण भक्ति साहित्य समाज को अपेक्षित दिशा देने में असफल रहा. बल्कि इसकी जनमानस में लोकप्रियता का लाभ उठाते हुए ऐसे कवि भी इससे जुड़ गए जिनका उसकी भक्ति आंदोलन मूल चेतना से दूर तक संबंध नहीं था. 4. जन–प्रतिभाओं द्वारा रचा जाने वाला लोकसाहित्य: जनसमाज किसी भी प्रकार की सत्ता और उसके आतंककारी प्रभावों से परे जनसाधारण भी अपनी आवश्यकता और रुचि के अनुकूल मौखिक परंपरा का साहित्य रचने में दक्ष होता है. सही मायने में यही साहित्य समाज की जीवनधारा होता है. यह श्रुति–स्मृति के माध्यम से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक अंतरित होता रहता है; और सत्ता परिवर्तन से निरपेक्ष रहकर विषम परिस्थितियों में भी अपनी जगह बनाए रखता है. भक्तिकाल में साहित्य जीवन के करीब आया था. भले ही इसके मूल में उस समय व्याप्त राजनीतिक–धार्मिक हताशा रही हो, जो लगभग तीन शताब्दी तक परतंत्र रह चुके जनसमाज में स्वभाविक रूप से उभरने लगी थी. भक्तिकाल के प्रमुख कवियों कबीर, रहीम, सूरदास, मीरा आदि के काव्य में बहुत कुछ ऐसा है, जिसको आज हम बच्चों के लिए उपयोगी पाते हैं. तो भी उसको बालसाहित्य नहीं कहा जा सकता. इस कालखंड के दौरान लोकसाहित्य खूब समृद्ध हुआ. बीरबल, तेनालीराम, गोपाल भांड, गोनू झा, देवन मिसर मुल्ला नसरुद्दीन के किस्से दक्ष किस्सागोओं और लोगों की जुबान पर चढ़कर गांव–गांव सुनाए जाते थे. आल्ह खंड, नल दमयंती, गोरा–बादल जैसी कालजयी लोकगाथाओं की रचना भी इसी कालाखंड में हुई, जिन्होंने बच्चों और बड़ों के बीच एकसमान लोकप्रियता अर्जित की. क्रमश:…. ©ओमप्रकाश कश्यप आलेख
आपका बच्चा खोया–खोया रहता है! देर तक आसमान ताकना उसकी आदत में शुमार है! अकेला बैठा हुआ न जाने क्या सोचता रहता है! आप उसको समझा चुके हैं. इसके बावजूद स्कूल की कॉपी में न जाने क्या–क्या लिख आता है. पढ़कर ‘मेम’ का दिमाग भी चकरा जाता है. वह डांटती हैं. पर वह मानता ही नहीं. जरूर कोई बीमारी है. इलाज के लिए आप उसे डॉक्टर के पास ले जाते हैं. वह किसी नई बीमारी का नाम लेता है—‘डिप्रेसन’….‘फोबिया’ या कुछ ऐसा ही भारी–भरकम. नए जमाने की बीमारी! छोटे बालक को जिसने अभी सपने देखना शुरू ही किया है. जीवन की चुनौतियों के बारे में जो जानता तक नहीं है, उसे भला कैसा अवसाद! कैसी चिंता! कैसा फोबिया! कैसी घबराहट! फोबिया है भी तो उसके लिए कौन जिम्मेदार है. डिप्रेसन यदि है तो इसलिए कि आपने अपनी अंतहीन अपेक्षाओं का बोझ उसपर लाद दिया है. नन्हा शिशु सांप को रस्सी समझकर खेल सकता है, और बड़ा होते ही यदि रस्सी को सांप मानकर भय से चिल्लाने लगता है तो इसके लिए जिम्मेदार कौन है? आप, आपका समाज, या शायद दोनों ही. साफ है कि उम्र के साथ आपने उसे बड़ा नहीं होने दिया. उसका मन बचपन में जितना मजबूत था, उतना अब नहीं है. प्रकृति ने तो उसके साथ पूरा न्याय किया. शरीर अपनी गति से बढ़ता गया. ठीक समय पर लाकर देह खिला दी. मगर बौद्धिक परिपक्वता, मन का विश्वास, संघर्ष–चेतना, अपना निर्णय आप लेने की कूबत सब पीछे छूटते गए. तो जरूरत आपके इलाज की है. समाज के इलाज की है, मगर आप अपना दोष तो मानेंगे नहीं. न समाज को दोष देने का साहस आपके भीतर है. बचता है अकेला बालक. जो अपनी विशिष्ट शारीरिक अवस्था के कारण आपके ऊपर निर्भर है. या आपने जो समाज–व्यवस्था बनाई हुई उसमें साधारण को स्वतंत्रता के इसलिए आप सारी जिम्मेदारी बालक के मत्थे मढ़ देते हैं. मान लेते हैं(न मानने का आपके पास कुछ आधार भी नहीं है?) कि डॉक्टर ने कहा है तो जरूर सच होगा. आप इलाज शुरू कर देते हैं. डॉक्टरी इलाज में चूक हो जाए तो दिमाग ठिकाने रखने के लिए दूसरा इंतजाम भी है. इसके लिए आप उसे नियमित मंदिर ले जाते हैं. हनुमानजी का भोग, अघोरी का झाड़ा लगवाते हैं. सुबह–शाम महीने, दो महीने, छह महीने….नियमित इलाज, पाठ–पूजा और सत्संग का असर होता है. अब वह अकेला नहीं रहता. आसमान नहीं ताकता. ‘अच्छा बच्चा’ बन चुका है. आप खुश हैं. अध्यापक खुश होकर अच्छे नंबर देने लगे हैं. क्योंकि अब बालक सवालों के वही उत्तर देता है, जो उसे रटाए जाते हैं. पाठ्य पुस्तकों के बाहर भी ज्ञान की दुनिया है, इसका उसे अंदाजा तक नहीं है….दिमाग को उड़ान भरने का अभ्यास जो नहीं रहा. ‘अच्छा बच्चा’ बनने के लिए इस काम को वह कभी का छोड़ चुका है. पर जरा सोचिए, अल्बर्ट आइंस्टाइन की मां या उनका सगा–संबंधी उन्हें लाइन पर लाने के लिए उन्हें इसी प्रकार खुद के वजूद से काट देता तो क्या हम सापेक्षिकता के सिद्धांत तक पहुंच पाते? जेम्स वाट की चाची यदि उसको प्रयोग करने से रोकतीं तो क्या वह भाप का इंजन बना पाता? थॉमस अल्वा एडीसन या माइकेल फैराडे के परिजन यदि उन्हें ‘अच्छा बच्चा’ बनाने के लिए उनके साथ मनमानी करते और जिज्ञासा से काट कर ‘परम विश्वास’ की दुनिया में ले जाते तो क्या हम बल्व और बिजली की मोटर जैसे आविष्कारों से रू–ब–रू हो पाते? शायद हो भी जाते, मगर तब जब किसी और अल्बर्ट आइंस्टाइन, एडीसन, फैराडे या जेम्स वाट के परिजनों को उन्हें वह करने की छूट देनी पड़ती, जिससे वे अपनी मनोसृष्टि को वास्तविक सृष्टि में ढाल पाते. मनोसृष्टि या कल्पना पर बाकी चर्चा आगे. पहले 1954 के आसपास की एक घटना. बताया जाता है कि एक स्त्री आइंस्टाइन से मिलने पहुंची. नोबल पुरस्कार विजेता, विलक्षण प्रतिभा संपन्न वैज्ञानिक होने के कारण उनका मान–सम्मान पहले भी कम न था. मगर 1952 में इजरायल के राष्ट्रपति पद का प्रस्ताव विनम्रतापूर्वक ठुकरा देने के बाद तो वे पूरी दुनिया पर छा चुके थे. मिलने पहुंची औरत आइंस्टाइन की प्रशंसक थी. वह चाहती थी कि आइंस्टाइन उसके बेटे को समझाएं. उन पुस्तकों की जानकारी दें, जिन्हें पढ़कर उसका बेटा उन जैसा महान वैज्ञानिक बन सके. उत्तर में आइंस्टाइन का कहना था—‘आप इसे परीकथाएं, अधिक से अधिक परीकथाएं पढ़ने को दीजिए.’ महिला चौंकी. उसको लगा आइंस्टाइन ने कोई मजाक किया है. उसने वैज्ञानिक से गंभीर होने की विनती की. बताया कि वह अपने बेटे से बहुत प्यार करती है तथा उसे जीवन में सफल देखना चाहती है. इसके बावजूद आइंस्टाइन का उत्तर पहले जैसा ही था. उनका कहना था कि रचनात्मक कल्पनाशक्ति सच्चे वैज्ञानिक के लिए उसका अनिवार्य बौद्धिक उपकरण है. परीकथाएं बालक की कल्पनाशक्ति को प्रखर करती हैं. उन्होंने जोर देकर कहा था, ‘मैंने अपने सोचने–समझने के तरीके की पड़ताल की है. काफी सोच–विचार के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि मेरे लिए मेरी अद्भुत कल्पनाशक्ति वस्तुजगत संबंधी किसी भी बोध, यहां तक कि सकारात्मक सोच से भी कहीं अधिक लाभकारी है.’ उन्होंने महिला को पुनः समझाया—
उपर्युक्त प्रसंग का उल्लेख अनेक विद्वानों ने किया है. कितना सच है यह दावे के साथ नहीं कहा जा सकता. यदि यह सच है तो आइंस्टाइन ने उस स्त्री से क्या सचमुच परिहास किया था? क्या शोध एवं कल्पना का कोई अंतःसंबंध है? क्या परीकथाओं को पढ़कर कोई बालक सचमुच वैज्ञानिक बन सकता है? यदि नहीं तो आइंस्टाइन ने ऐसा क्यों किया था? यदि हां, जो यह कैसे संभव है कि परीकथा जैसे निहायत कल्पनाशील किस्सों को पढ़कर कोई बालक वैज्ञानिक बन सके? ऐसी पहेलियां हम जैसे साधारण बौद्धिकों की उलझन होती हैं. जो विलक्षण मेधावी हैं, वैज्ञानिक प्रविधियों की जानकारी रखते हैं, जिन्हें विज्ञान और उसके इतिहास की समझ है, वे जानते हैं कि यह असंभव भी नहीं है. ज्ञान–विज्ञान एवं कल्पना का रिश्ता बड़ा करीबी है. तीव्र कल्पनाशक्ति संभावनाओं के नए वितान खोलकर वैज्ञानिक बोध को रचनात्मक दिशा देने में मददगार सिद्ध होती है. आइंस्टाइन ने खुद स्वीकार किया था कि उनके द्वारा किए गए शोध के पीछे उनकी अद्भुत कल्पनाशक्ति का योगदान था. अन्यथा यह तो कभी का प्रमाणित हो चुका था कि पृथ्वी समेत ब्रह्मांड के सभी ग्रह–नक्षत्र गतिमान हैं. उनकी गति चक्रीय एवं घूर्णन दो प्रकार की होती है. सतत परिवर्तनशील ब्रह्मांड के बीच दो गतिशील पिडों की प्रस्थिति की सटीक गणना तब तक असंभव है, जब तक बाकी गतियों की कल्पना में ही सही, प्रभावहीन मानकर उपेक्षा न कर दी जाए. प्रायः ऐसा ही होता आया है. तब आइंस्टाइन ने सापेक्षिकता की संकल्पना प्रस्तुत की. जिसके अनुसार चराचर जगत में कोई भी प्रस्थिति निरपेक्ष नहीं है. एक प्रस्थिति दूसरी प्रस्थिति के और दूसरी तीसरी के सापेक्ष है. सापेक्षिकता के सिद्धांत के पीछे यही मूल अवधारणा थी. यह खोज कल्पना की तीव्रतर उड़ान के बगैर संभव ही नहीं थी. आइंस्टाइन सहित उस समय के भौतिक विज्ञानी एक जटिल पहेली से जूझ रहे थे. पहेली थी—‘मान लीजिए कोई अंतरिक्ष यात्री प्रकाशवेग जैसे असंभव वेग से अंतरिक्ष यात्रा पर है. उसके हाथ में एक दर्पण है. तो क्या उस दर्पण में वह अपना प्रतिबिंब देख पाएगा? कोई और होता तो उस पहेली पर कुछ देर माथापच्ची करता. तीर–तुक्का चलाता. फिर हाथ झाड़कर आगे बढ़ जाता. जब से वह पहेली बनी थी, तब से यही होता आया था. साधारण मनुष्यों की भांति यदि आइंस्टाइन भी यही करते तो उन्हें ‘जीनियस’ कौन कहता! कौन उन्हें याद रखता! उस पहेली का हल ढूंढने में आइंस्टाइन एक–दो दिन, महीने या वर्ष नहीं, पूरे दस वर्ष लगा दिए. 1895 से 1905 तक. 1895 में सोलह वर्ष का किशोर आइंस्टाइन पहेली पर दांव लगाते–लगाते छबीस वर्ष का युवा हो गया. इस बीच जो भी उन्हें मिला उससे पहेली के बारे में चर्चा की. उसका समाधान करना चाहा. मित्रों–गुरुजनों–परिजनों को पत्र लिखकर संवाद किया. मगर नाकामी हाथ लगी. आखिरकार उनकी तीव्र कल्पनाशक्ति ही उनके काम आई. मनोसृष्टि ने सृष्टि के गूढ़तम रहस्य से पर्दा हटाकर नए सिद्धांत के निर्माण की राह खोल दी. उस समय तक प्रकाशवेग को परिवर्तनशील माना जाता था. मान्यता थी कि प्रेक्षक के अनुसार प्रकाश का वेग भी बदलता रहता है. आइंस्टाइन ने पारंपरिक उद्भावनाओं को किनारे कर दिया. कल्पना की ऊंची छलांग लगाते हुए उन्होंने प्रकाश वेग को प्रकृति का सबसे उच्चतम वेग माना. साथ ही परिकल्पना की कि वह प्रेक्षक की स्थिति पर निर्भर नहीं करता. प्रकाश का वेग हर अवस्था में एक समान होता है. प्रेक्षक चाहे जिस अवस्था में हो वह कभी नहीं बदलता. यानी अंतरिक्ष में हाथ में दर्पण लिए प्रकाशवेग से गतिमान प्रेक्षक और कुछ चाहे कर सके या नहीं. दर्पण में अपना चेहरा अवश्य देख सकता है. ‘प्रकाशवेग की प्रेक्षक निरपेक्षकता’, जिसपर इस सिद्धांत की नींव रखी गई को हम सापेक्षिकता के सिद्धांत का आंतरिक विरोधाभास भी कह सकते हैं. आइंस्टाइन ने जो कहा उसको वैज्ञानिक प्रणाली के अनुसार सिद्ध करने में तो पूरे बीस वर्ष लग गए. कल्पना के सहारे हुए इस खोज के फलस्वरूप खगोलीय पिंडों की स्थिति की सटीक व्याख्या के लिए क्षण को महत्ता प्राप्त हुई. समय को चौथे आयाम के रूप में स्वीकारा जाने लगा. न केवल आइंस्टाइन बल्कि न्यूटन, आर्कीमिडीज, लियोनार्दो दा विंसी, गैलीलियो, थाॅमस अल्वा एडीसन, जेम्स वाट आदि अनेक वैज्ञानिक हुए हैं, जिनकी सफलता के पीछे उनकी विलक्षण कल्पना–शक्ति का योगदान था. पृथ्वी में कोई शक्ति है यह विचार न्यूटन को कथित रूप से सेब के जमीन पर गिरने की घटना से सूझा था. ‘कथित’ इसलिए क्योंकि फल गिरने से आकर्षण शक्ति की परिकल्पना का उल्लेख न्यूटन से करीब नौ सौ वर्ष पहले लिखित ‘ब्रह्मस्फुटसिद्धांत’ में भी मिलता है, जो मध्यकालीन आचार्य ब्रह्मगुप्त की रचना है. उनसे भी पहले वाराहमिहिर ने लिखा था—‘पृथ्वी उसी को आकृष्ट करती है, जो उसके ऊपर हो. क्योंकि यह सभी दिशाओं में नीचे है और आकाश सभी दिशाओं में ऊपर है.’ ब्रह्मगुप्त इसे और भी स्पष्ट कर देते हैं—
तात्पर्य है कि वैज्ञानिक शोध के लिए कल्पना का आश्रय प्राचीनकाल से लिया जाता रहा है. शोध क्षेत्र में कामयाबी भी प्रायः उन्हीं वैज्ञानिकों के हाथ लगी, जिनकी कल्पना–शक्ति मौलिक एवं प्रखर थी. यह न्यूटन की कल्पनाशक्ति ही थी जिसने उसको चेताया कि यदि पृथ्वी में आकर्षण बल है तो उसका कुछ न कुछ परिमाण भी होना चाहिए! अपनी विलक्षण मेधा से उसने गुरुत्वाकर्षण बल की संकल्पना को नए सिरे न केवल स्थापित किया, बल्कि उसकी परिगणना भी की. एक नई संकल्पना ने जन्म लिया कि पृथ्वी सहित ब्रह्मांड के सभी ग्रह एक–दूसरे को आकर्षित करते हैं. आकर्षण बल की मात्रा उनके द्रव्यमान तथा बीच की दूरी पर निर्भर करती है. न्यूटन के पूर्ववर्ती वैज्ञानिक जिनमें भारतीय गणितज्ञ भी सम्मिलित हैं, इस दिशा में आगे न बढ़ सके तो इसलिए कि उनके धार्मिक आग्रह प्रबल थे. आस्था से बोझिल उनकी कल्पना अपनी मौलिकता गंवा चुकी थी. जैसे ब्रह्मगुप्त ने लिखा कि सभी भारी वस्तुएं प्रकृति के नियमानुसार नीचे पृथ्वी पर गिरती हैं. क्योंकि वस्तुओं को अपनी ओर आकृष्ट करना और उन्हें रखना पृथ्वी का धर्म है. उसी प्रकार जैसे जल का धर्म है बहना, अग्नि का जलना और वायु का गति प्रदान करना. इस सोच के पीछे एक पवित्र विश्वास झलकता था, एक ऐसी धारणा इसके पीछे थी जो कौतूहल को जिज्ञासा में बदलने के बजाय आस्था की ओर ले जाती है. परिणामस्वरूप आदमी दिमाग के बजाय, पूर्व–निष्पत्तियों से काम चलाने लगता है. श्रद्धा विवेक की राह रोक देती है. वैज्ञानिक शोध के क्षेत्र में कल्पनाशक्ति का योगदान लक्ष्य की पूर्वपीठिका तैयार करने का है, जिसके बिना किसी यात्रा का शुभारंभ असंभव है. किसी भी वैज्ञानिक शोध के प्रायः दो रास्ते होते हैं. पहली आगमनात्मक प्रणाली. यह वैज्ञानिक शोध की सबसे लोकप्रिय प्रणाली है, जिसमें उपस्थित विशिष्ट तथ्यों के आधार पर सामान्य सिद्धांत का अन्वेषण किया जाता है. न्यूटन का जड़त्व का सिद्धांत, एडवर्ड जेनर द्वारा चेचक की वैक्सीन, फ्लेमिंग द्वारा बादलों में बिजली इसी प्रकार के शोध हैं. दूसरी ‘निगमनात्मक प्रणाली’ है. इसमें पहले सामान्य सिद्धांत की परिकल्पना कर ली जाती है, तदनंतर उसकी पुष्टि हेतु प्रमाण खोजे जाते हैं. इनमें से पहली यानी ‘आगमनात्मक प्रणाली’ का उपयोग प्रायः वैज्ञानिक शोध के क्षेत्र में किया जाता है. इसका आशय यह नहीं है कि ‘निगमनात्मक प्रणाली’ विज्ञान के लिए सर्वथा वर्जित है. बल्कि ऐसे अनेक मामले हैं, जिनमें प्रमाणों के अभाव में वैज्ञानिक अपने बोध अथवा अनुभव के आधार पर सामान्य परिकल्पना कर लेते हैं. बाद में विभिन्न प्रयोगों, अन्वीक्षण आदि के आधार पर उस परिकल्पना को जांचा–परखा जाता है. न्यूटन के गुरुत्त्वाकर्षण और आइंस्टाइन के सापेक्षिकता के सिद्धांत की खोज में आगमनात्मक और निगमनात्मक दोनों प्रणालियों का योगदान दिखाई पड़ता है. तीसरी श्रेणी आकस्मिक रूप से होने वाली खोजों; यानी उन आविष्कारों की है जो किसी दूसरे प्रयोग अथवा घटना के दौरान अकस्मात हाथ लग जाते हैं—जैसे मैग्नीशिया के चरवाहों द्वारा चुंबक की खोज, मेडम क्यूरी द्वारा रेडियम, फीनीशिया के समुद्रतट पर सीरियाई व्यापारियों द्वारा कांच की खोज वगैरह. उनमें भी ऐसी सूझ का होना जरूरी है जो नएपन को तत्क्षण पकड़ सके तथा उसके आधार पर सामान्य परिकल्पना गढ़कर आगे बढ़ सके. बुदापेस्ट विश्वविद्यालय के प्रोफेसर डॉ. के. स्टेलजेर ने शोधकर्ता में अपेक्षित जिन आठ गुणों को जरूरी बताया है, वे हैं—तत्परता(5%), खुला मन(10%), दृष्टि की विशालता(15%), कल्पनाशक्ति(30%), निर्णय दक्षता(15%), विषय का सांकेतिक ज्ञान(10%), अनुभव(10%) तथा दायित्वबोध(5%). इस विश्लेषण को ध्यान से देखें तो नवीन शोध के लिए कल्पना को सर्वाधिक महत्त्व दिया गया है. इससे यह निष्कर्ष सामने आता है कि कल्पना और विज्ञान में न तो कोई स्पर्धा है और न कोई वैर. बल्कि उच्च कल्पनाशक्ति वैज्ञानिक शोधों में मददगार सिद्ध होती है. अब यह स्वतः सिद्ध है कि कल्पनाएं बालक के मौलिक विकास में सहायक होती हैं. बालक का सृजन–सामर्थ्य उन्हीं के भरोसे आगे बढ़ता है. पर ये कल्पनाएं आती कहां से हैं? जन्म के समय बालक का मस्तिष्क खाली, परंतु ऊर्जा से लबालब होता है. साथ में इतना सक्रिय कि नन्हा शिशु जल्दी से जल्दी दुनिया–भर की जानकारी उसमें समेट लेना चाहता है. उस जानकारी को कुछ वह परिवेश से जुटाता है. जो जानकारी परिवेश से नहीं मिल पाती उसके लिए वह अपने मस्तिष्क के घोडे़ दौड़ाने आरंभ करता है. अनुमान की प्रक्रिया का वह आरंभिक दौर होता है. आगे एक स्थिति ऐसी भी आती है, जब वह अपनी आभासी दुनिया का चित्र मन में बनाने लगता है. वे ऐच्छिक–अनैच्छिक मनोनिर्मितियां कल्पना कही जाती हैं. कल्पनाएं आसमानी चीज हैं. परंतु सीधे आसमान से नहीं उतरतीं. उनकी जड़ें जमीन में होती हैं. बालक की कल्पना और उसके परिवेश में अनिवार्य संगति होती है. कुछ शताब्दी पहले तक, जब बारूद और बंदूक का आविष्कार नहीं हुआ था, बालक अपना युद्ध–कौशल प्रकट करने के लिए तलवार, भाला, बरछी जैसे उन हथियारों की ही कल्पना कर सकता था. लेकिन अब इस तकनीक के दौर में बालक की युद्धक कल्पनाएं बगैर बम, सैटेलाइट, मिसाइल, रिमोट तकनीक के बगैर संभव ही नहीं है.साधारण मनुष्य असंभव कल्पना कर सकता है, मगर असंभव कल्पना को विशेषीकृत करना, उसके लिए संभव नहीं होता. उदाहरण के लिए हम पचास हजार भुजाओं तथा पचास हजार एक भुजाओं वाले दो अलग–अलग बहुभुजों की कल्पना तो कर सकते हैं. मगर यदि उनमें अंतर बताने, विशेषीकृत करने के लिए कहा जाए तो हम सिवाय उस अंतर के, जो इन दो संख्याओं के बीच है, कुछ और बता पाने में शायद ही सफल हो पाएं. ऐसे ही अंतरिक्ष में दो ग्रहों की कल्पना करना हमारे लिए आसान है. लेकिन यदि उन दोनों के बीच के सूक्ष्म अंतर की कल्पना करनी हो तो वह हमारे लिए संभव नहीं है. इसलिए कि पृथ्वी के बाहर के ग्रहों का हमारा अनुभव शून्य है. उस अवस्था में हमारे लिए उतनी ही कल्पना संभव है, जो सुनी–पढ़ी घटनाओं के प्रभाव से बनी हो. उससे आगे की कल्पना के लिए सृजनात्मक क्षमता की जरूरत होती है. सामान्य नागरिक होने के नाते सुदूर ग्रहों की कल्पना हमारे लिए भले असंभव हो, किंतु सृजनात्मक प्रतिभा से युक्त लेखक, कवि और कलाकारों के लिए यह असंभव नहीं है. वे वहां के वातावरण को लेकर अच्छा–खासा रूपक खड़ा कर सकते हैं. अतः यह बालक और समाज दोनों के हित में है कि उसका कल्पना–सामर्थ्य मुक्त रचनात्मक विस्तार ले. परंतु प्रायः ऐसा हो नहीं पाता. धर्म, समाज, संस्कृति, जाति, परंपरा आदि के नाम से शुरू से उसके चारों ओर ऐसे घेरे बना दिए जाते हैं, जिनमें फंसकर वह एक दायरे के बाहर सोचना बंद कर देता है. आस्था और अंध–विश्वास तो ऐसे घेरे हैं, जो मनुष्य के विवेक और प्रकारांतर में उसके रचनात्मक कौशल को मंद कर देते हैं. बालक कल्पना के बारे में ऐसी शास्त्रीय बातें भले ही न जाने, मगर वह उन्हें जीना बाखूबी जानता है. उसकी आरंभिक कल्पनाओं को किसी खास रूपाकार में बांधना असंभव होता है. नन्हा शिशु अपने संपर्क में आने वाली प्रत्येक वस्तु को एक जिज्ञासा एवं कौतुहल की दृष्टि से परखना चाहता है. वस्तु के बारे में बंधा–बंधाया ‘सच’ उसे स्वीकार्य नहीं होता. नएपन की खोज वह उतावलेपन की सीमा तक जाकर कर सकता है. माता–पिता उसे खिलौना लाकर देते हैं. वह कुछ देर उससे खेलता है. मगर थोड़ी ही देर बाद उसकी आंतरिक संरचना को जानने के लिए उद्यत हो जाता है. खिलौने के बारे में दूसरों के दिए ज्ञान से उसको संतोष नहीं होता. अपने सजग–सक्रिय–चैतन्य मष्तिष्क से वह स्वयं उसका अन्वीक्षण करना चाहता है. बालक अपने कल्पना जगत को अपनी ही तरह गढ़ता है. इसलिए वह नाकुछ वस्तुओं से खेल सकता है, विचित्र से विचित्र प्राणी को अपना सकता है. परंतु अधिक देर तक नहीं, जैसे ही उसको भरोसा जमता है कि उसने उस वस्तु या प्राणी में जानने योग्य जान लिया है, उसका कौतूहल समाप्त हो जाता है और वह उकताने लगता है. उसके बाद उसे खुद से दूर करते, उपेक्षा करते उसे देर नहीं लगती. हां, कोई खिलौना या वस्तु बालक की संवेदना को छू जाए तो वह उसको सोते–जागते, उठते–बैठते अपने साथ भी रख सकता है. उम्र के साथ बालक के बुद्धि–सामर्थ्य का विकास होता है. मगर सीखने की रफ्तार लगातार कमजोर पड़ती जाती है. इसके लिए बालक जिम्मेदार नहीं होता. जिम्मेदार वे लोग या समाज होता है, जो उसके आसपास का परिवेश रचते हैं. किस्से–कहानियों में भी वह रुचि लेता है क्योंकि वे उसे उसके कल्पनाजगत के नजदीक ले जाकर उसको और भी समृद्ध करते हैं. अपने माता–पिता और परिवार के बाहर बालक यदि किसी के सर्वाधिक सन्निकट होता है तो उसका कल्पनाजगत ही है. उसमें वह बड़ों द्वारा किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं चाहता. चूंकि बालक का मस्तिष्क बड़ों की अपेक्षा अधिक सक्रिय होता है, इसलिए जो भी उसके आरंभिक संपर्क में आता है, जिसके भी साथ वह समानता के स्तर पर संवाद करने में खुशी का अनुभव करता है, और जिसके बारे में उसको लगता है अपने बड़प्पन द्वारा वह उसकी अस्मिता को आहत करने वाला नहीं है, वही उसका मीत–सखा बन जाता है. पशु–पक्षी बालक को आकर्षित करते हैं तो इसलिए कि बालक को लगता है कि उनसे अपनी बात मनवा सकता है. वे न तो उपदेश देते हैं न अपने बड़ेपन का रौब गांठते हैं. बल्कि छोटे बनकर बालक को बड़ेपन का एहसास कराते हैं. उनके साथ खेलते–बतियाते हुए बालक अपनी नैसर्गिक स्वतंत्रता का आनंद ले सकता है. इस कारण बालक के अस्मिता जगत में वे बहुत जल्दी जगह बना लेते हैं. अपने लघु आकार और स्नेहिल व्यवहार द्वारा परियां भी यही करती हैं. बल्कि उनकी कल्पना ही बालक की मददगार के रूप में की गई. यही कारण है कि बालक के कल्पनालोक का सर्वाधिक हिस्सा पशु–पक्षी, खेल–खिलौने, बौने, परियां, पेड़–पौधे आदि घेरते हैं. उन्हीं से वह अपनी सृजनात्मकता में रंग भरता है. सिंगमड फ्रायड ने बालक की कल्पनाशक्ति की दो कसौटियां निर्धारित की हैं. उनमें से द्वितीयक कल्पनाशक्ति रचनात्मक अभिव्यक्ति में सहायक होती है. बालक इसका प्रदर्शन विभिन्न कलाओं एवं खेलों के माध्यम से करता है. छोटा बालक रंगों की पहचान भले न कर सके, रुपहले सपने देखना उसे खूब आता है. उसके भविष्य की नींद इन्हीं सपनों पर टिकी होती है. तीव्र कल्पनाशक्ति शोध–वृति का अनिवार्य लक्षण है. सवाल है कि हम बालक की मौलिक कल्पनाशक्ति को उभारने के लिए क्या करते हैं. शायद कुछ भी नहीं. या इस क्षेत्र में हमारी कोशिश होती भी है तो नगण्य. जबकि मौलिक कल्पना सामर्थ्य की धार को कुंद करने के लिए हर चंद कोशिश की जाती है. धर्म के नाम पर, संस्कृति, समाज और परंपरा के नाम पर, यह कार्य योजनाबद्ध तरीके से किया जाता है. सामंती आग्रहों पर बनी संस्थाएं जैसे धर्म संतोष को एक सदगुण की भांति परोसती हैं. रूखी–सूखी खाय के ठंडा पानी पीव’ या रहीम का कथन—‘गौ धन, गजधन, बाजिधन और रतन धन खान, जब आवै संतोष धन सब धन धूरि समान.’ जैसी उक्तियां जो एक काल और परिस्थिति विशेष की उपज थीं, नैतिकता की तरह परोसी जाती थीं. उस समय संतोष और लालच के बीच के अंतर को समझाना तो दूर, कई बार उसको गड्ड–मड्ड कर दिया जाता था. भुला दिया जाता था कि संतोष का अर्थ ‘जो है, जितना है उसी से समझौता कर एक काल्पनिक सुख में जिंदगी गंवा देना है’—जबकि लालच दूसरे की सुख, संपदा पर अनैतिक दृष्टि रख उसको अनैतिक रूप से पाने की लालसा करना है. इस अंतर को समझे बिना, केवल संतोष को सर्वोच्च–निधि बताने वाली अतार्किक रचनाएं बालक को अनावश्यक रूप से अंतर्मुखी, पलायनवादी और समझौतापरस्त बनाती हैं. जबकि सुख पाने की अभिलाषा अपराध नहीं है. अच्छा जीवन जीने के सपने देखना और उसके लिए भरसक प्रयत्न करना, प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है. इसके बावजूद बालक को यथास्थितिवादी बनाने के प्रयास हर स्तर पर तरह–तरह से किए जाते हैं. नतीजा यह होता है कि सृजनात्मक कल्पनाशक्ति जो बचपन से बाहर आने के लिए छटपटा रही थी, असमय काल–कवलित हो जाती है. उसके अभाव में बालक बड़ा होते–होते अनुसरण को अपना धर्म बना लेता है. धर्म स्वयं में बौद्धिक शैथिल्य का प्रमुख कारण है, जहां ‘सत्य’ निर्रथक आडंबरों के नीचे दबा दिया जाता है. साहित्य और दूसरी कलाओं का काम मौलिक अभिव्यक्तियों और कल्पनाओं का सरंक्षण–संवर्धन करना है. भारत में एक–चौथाई बच्चे आज भी प्राथमिक या छठी–सातवीं कक्षा से आगे नहीं जा पाते. बीच में पढ़ाई छोड़ देते हैं. ऐसे बच्चे जब बड़े होकर जिंदगी के समर में उतरते हैं तो उनपर कबीर और रहीम के दोहों का असर रहता है. वे जीवन में यथास्थितिवादी और पलायनोन्मुखी बने रहते हैं. ‘तेते पांव पसारिये जेती लांबी सौर’—पांव चादर के भीतर ही रहें, इस कोशिश में वे पूरा जीवन बिता देते हैं. अतींद्रिय धार्मिक विश्वासों के बहाने बालक के मौलिक सोच और कल्पनाओं को अवरुद्ध करने की घटना आज की नहीं है. वह तब की है, जब से इस सभ्यता का विकास हुआ. इस कारण भी गत सहस्राब्दियों में जन्मे बेहद प्रतिभाशाली दार्शनिकों, वैज्ञानिकों, कवि, कलाकारों और चिंतकों के अमूल्य योगदान के बावजूद मनुष्य का अब तक का अर्जित ज्ञान उसके अज्ञान के आगे बौना है. जितना उपलब्ध है उससे भी समाज के बहुसंख्यक वर्ग को वंचित कर दिया जाता है. धर्म–कर्म, पूजा–पाठ, पीर–औलिया, नाथ–पैगंबर वगैरह के नाम पर जो कुछ उसे सिखाया जाता है, वह सत तो क्या ‘असत’ के भी करीब नहीं होता. वह केवल और केवल भ्रम होता है, जिसमें फंसकर व्यक्ति अपना पूरा जीवन गुजार देता है. बालपन से ही जनसाधारण को उसके कथित साधारणपन का एहसास तरह–तरह से और इतनी बार कराया जाता है कि वह अपनी सीमाओं के पर जाने की कोशिश तो दूर, कल्पना तक नहीं कर पाता. इसकी नींव बालक के कल्पना–सामर्थ्य को अवरुद्ध करने, उसके सोच के अनुकूलन के आरंभिक प्रयास के साथ ही रख दी जाती है. यह कोशिश तब की जाती है जब वह बौद्धिक स्तर पर सर्वाधिक सक्रिय और स्वतंत्र होता है; और इसलिए की जाती है ताकि समाज में व्याप्त अन्याय, असमानता और शोषणकारी स्थितियों को देखकर वह भड़के नहीं. मुक्ति के लिए खुद स्वतंत्र निर्णय लेने के बजाय दूसरों से पहल की उम्मीद करता रहे. ऐसे में साहित्य और साहित्यकार दोनों की चुनौती बढ़ जाती है. ‘अच्छी कल्पना मनुष्य को रोकती नहीं, निरंतर आगे ले जाती है.’4इसलिए उनकी पहली चुनौती होती है बालक के मौलिक सोच को बनाए रखकर कल्पनाशक्ति को सृजनात्मक विस्तार देने की. दूसरे उसको इस विश्वास से भर देने की कि समाज के भले के लिए उसको हर दिशा में, पहल करनी है. बदलाव की खातिर जब भी जरूरी हो आगे आना है. यह तभी संभव है जब बालक की आंखों में सुंदर भविष्य का सपना हो. अपने गढ़े हुए सपनों पर उसको पूरा–पूरा विश्वास हो. ©ओमप्रकाश कश्यप अनुक्रमणिका : 1. Science does not know its debt to imagination. – Ralph Waldo Emerson, in Poetry and Imagination. (1872) 2. When I examine myself and my methods of thought, I come to the conclusion that the gift of fantasy has meant more to me than any talent for abstract, positive thinking….If you want your children to be intelligent, read them fairy tales. If you want them to be more intelligent, read them more fairy tales….” – ALBERT EINSTEIN, MONTANA LIBRARIES : Volumes 8-14 (1954). 3. अथ सत्यपि वृक्षाग्राच्चतुर्दिक्षु समाऽकाशे भुव्येव पक्वं फलमेकं बहुत्र पदत्वलोक्य भूपृष्ठनिष्ठाखिलबिंदुष्वाकर्षण शक्तिरस्तीत्यनुमितम्. 4. The Quality of imagination. Is to flow and not to freeze – Ralph Waldo Emerson, in The Poet” (1844) पोस्ट नेविगेशनटोटम से संबंधित एक पवित्र वस्तु कौन है?टोटम, उसकी खाल और उससे संबंधित अन्य वस्तुओं को बहुत पवित्र माना जाता है । टोटम की खाल को विशेष विशेष अवसरों पर धारण किया जाता है । टोटम के चित्र बनाकर या बनवाकर रखे जाते हैं और शरीर पर टोटम के चित्र की गुदाई भी प्रायः सभी लोग करवाते हैं ।
टोटम से क्या अभिप्राय है?'टोटम' शब्द ओजिब्वे (Ojibwe) नामक मूल अमेरिकी आदिवासी क़बीले की भाषा के 'ओतोतेमन' (ototeman) से लिया गया है, जिसका मतलब 'अपना भाई/बहन रिश्तेदार' है। इसका मूल शब्द 'ओते' (ote) है जिसका अर्थ एक ही माँ के जन्में भाई-बहन हैं जिनमें ख़ून का रिश्ता है और जो एक-दूसरे से विवाह नहीं कर सकते।
टोटम के कितने प्रकार होते हैं?प्रकार. गोत्र टोटम. पितृवंशीय टोटम. मातृवंशीय टोटम. व्यक्तिगत टोटम. लिंग टोटम. विभक्त टोटम. बहुसंख्यक टोटम. गर्भधारण टोटम. टोटम क्या है टोटम वाद की प्रमुख विशेषताएं बताइए?टोटमवाद- किसी भौतिक वस्तु, पशु, पक्षी, पेड़, पौधा या प्रकृति की अन्य कोई चीज जिसके साथ एक गोत्र के सदस्य अपना एक अलौकिक या गूढ़ सम्बन्ध मानते हैं और जिसके प्रति वे विशेष श्रद्धा, भक्ति और आदर का भाव रखते हैं, टोटम कहलाता है और इस टोटम से सम्बन्धित समस्त धारणाओं, विश्वासों और संगठन को टोटमवाद कहते हैं।
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