बच्चे के जन्म से पहले कौन से संस्कार किए जाते हैं? - bachche ke janm se pahale kaun se sanskaar kie jaate hain?

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आपका प्रश्न है जन्म पूर्व संस्कार कितने प्रकार के होते हैं मैं आपको बताता हूं हिंदू धर्म में सोलह संस्कारों का उल्लेख किया जाता है मानव को उसके गर्भाधान कार से लेकर आती ऑस्ट्रेलिया तक किए जाते हैं में से विवाह को पवित्र संस्कार बड़े धूमधाम से मनाए जाते वर्तमान समय में सनातन धर्म हिंदू धर्म के अनुयाई अन्याय में करवा धन से मृत्यु तक सोलह संस्कार होते हैं धन्यवाद

aapka prashna hai janam purv sanskar kitne prakar ke hote hain main aapko batata hoon hindu dharm me solah sanskaron ka ullekh kiya jata hai manav ko uske garbhadhan car se lekar aati austrailia tak kiye jaate hain me se vivah ko pavitra sanskar bade dhumadham se manaye jaate vartaman samay me sanatan dharm hindu dharm ke anuyayi anyay me karva dhan se mrityu tak solah sanskar hote hain dhanyavad

हिंदू धर्म में जिन 16 संस्कारों का महत्व धार्मिक और वैज्ञानिक दोनों ही तरीकों से है, उन्हीं में से चौथा संस्कार है जातकर्म संस्कार। इस संस्कार को गर्भ के आठवें महीने में किया जाता है। शिशु के जन्म के वक्त भी यह संस्कार किया जाता है। इसके बारे में कहा गया है- ‘जाते जातक्रिया भवेत्।’ इसका अर्थ यह हुआ कि गर्भ से पैदा होने के समय शिशु के लिए जो भी चीजें की जाती हैं, उन सभी को जातकर्म कहा जाता है।


मान्यता है कि जन्म लेने के बाद जो बच्चा बाहर आता है, वह सूतक होता है। उसके दोषों को दूर करना जरूरी होता है। ये दोष असल में माता के गर्भ में ही होते हैं। जैसे कि सुवर्ण वास्तुदोष, रक्त दोष, रसपान दोष आदि। इस संस्कार में बच्चे को नहलाया जाता है। उसके मुंह को साफ किया जाता है। उसे शहद और घी चटाया जाता है। साथ ही उसे स्तनपान भी कराया जाता है।

1) जानिए कैसे किया जाता है जातकर्म संस्कार

शिशु के जन्म के उपरांत किये जाने वाले इस संस्कार के तहत शिशु को शहद और घी चटाया जाता है। एक तरह से यह उसके लिए औषधि का भी काम करता है। इस दौरान पिता को शिशु का चेहरा देखने से पहले अपने कुलदेवता और घर के बड़े-बुजुर्गों को प्रणाम करके आशीर्वाद लेना होता है। एक बार शिशु का चेहरा देख लेने के बाद पिता को उत्तर दिशा में मुख करके किसी धार्मिक स्थल पर स्नान करने का भी रिवाज इस संस्कार के तहत है। साथ ही यदि शिशु मूल-ज्येष्ठा या किसी और अशुभ मुहूर्त में जन्मा है, तो ऐसे में पिता को नहाने से पहले शिशु का चेहरा नहीं देखना चाहिए।

3) जानिए कैसे किया जाता है जातकर्म संस्कार

शिशु के जन्म के उपरांत किये जाने वाले इस संस्कार के तहत शिशु को शहद और घी चटाया जाता है। एक तरह से यह उसके लिए औषधि का भी काम करता है। इस दौरान पिता को शिशु का चेहरा देखने से पहले अपने कुलदेवता और घर के बड़े-बुजुर्गों को प्रणाम करके आशीर्वाद लेना होता है। एक बार शिशु का चेहरा देख लेने के बाद पिता को उत्तर दिशा में मुख करके किसी धार्मिक स्थल पर स्नान करने का भी रिवाज इस संस्कार के तहत है। साथ ही यदि शिशु मूल-ज्येष्ठा या किसी और अशुभ मुहूर्त में जन्मा है, तो ऐसे में पिता को नहाने से पहले शिशु का चेहरा नहीं देखना चाहिए।

जन्म के बाद शिशु के शरीर पर उबटन लगाया जाता है। यह चने के बारीक आटे से बनता है, जिसमें मसूर या मूंग का बारीक पीसा हुआ आटा मिलाया जाता है। फिर शिशु को नहला दिया जाता है।

जन्म के बाद शिशु के शरीर पर उबटन लगाया जाता है। यह चने के बारीक आटे से बनता है, जिसमें मसूर या मूंग का बारीक पीसा हुआ आटा मिलाया जाता है। फिर शिशु को नहला दिया जाता है।

जब शिशु मां के गर्भ में रहता है, तो उसका मुंह असल में बंद रहता है। इस वजह से उसके अंदर कफ आदि भरा होता है। यही वजह है कि जन्म के बाद उंगली से उसके मुंह को साफ करते हैं और उसे उल्टी भी करवाते हैं, ताकि अंदर की सारी गंदगी बाहर निकल जाए। वैसे घी में मिलाकर सैंधव नमक देने से लाभ मिलता है।

जब शिशु मां के गर्भ में रहता है, तो उसका मुंह असल में बंद रहता है। इस वजह से उसके अंदर कफ आदि भरा होता है। यही वजह है कि जन्म के बाद उंगली से उसके मुंह को साफ करते हैं और उसे उल्टी भी करवाते हैं, ताकि अंदर की सारी गंदगी बाहर निकल जाए। वैसे घी में मिलाकर सैंधव नमक देने से लाभ मिलता है।

शिशु के तालु को मजबूत बनाना जरूरी होता है, जिससे कि उसका अच्छी तरह से पोषण हो। इसके लिए उसके तालु पर घी और तेल लगाया जाता है। इससे उसके शरीर, बुद्धि, आंखों की रोशनी, वीर्य आदि में वृद्धि होती है।

नवजात शिशु हेतु जन्मकालिक संस्कार प्रश्न: संतान के जन्म समय पर संपादित किये जाने वाले क्षेत्रीय सांस्कारिक, धार्मिक एवं ज्योतिषीय क्रिया-कलापों का प्रभाव एवं महत्व बताते हुये विवरण प्रस्तुत करें तथा इनके न किये जाने पर दुष्प्रभावों का भी वर्णन करें। संतानोत्पत्ति के समय गर्भवती को सुयोग्य पौष्टिक खीर खिलाई जाती है। प्राचीन समय में सीमांतोन्नयन संस्कार के अवसर पर वीणा-वादन के साथ सोमराग का गान आदि भी होता था जो गर्भवती को प्रफुल्लित करने तथा भक्ति का संस्कार भरने का एक उत्तम साधन था। विष्णुबली: गर्भ के आठवें मास में यह संस्कार किया जाता है। इस संस्कार में भगवान विष्णु के लिए अग्नि में चैसठ बली रूप आहुतियां अर्पित की जाती हैं। वैदिक सूक्तों से विष्णु की स्तुति की जाती है। इस संस्कार के द्वारा गर्भस्थ शिशु की सुरक्षा होती है।, गर्भमुक्ति का भय दूर होता है। जातकर्म: शिशु के जन्म लेने पर जो संस्कार किया जाता है उसे जातकर्म कहते हैं। जातकर्म संस्कार का मुख्य अंग मेघाजनन संस्कार है। इस संस्कार द्वारा मातृ-पितृज के शारीरिक दोषों का शमन होता है। पिता अथवा घर के वयोवृद्ध व्यक्ति द्वारा नाल काटने के पश्चात् स्वर्ण की सलाई से शिशु को मधु और घृत विषम मात्रा में चटाना चाहिए। इसी के साथ संतानोत्पत्ति से पूर्व की सांस्कारिक क्रियाएं पूर्ण हो जाती हैं। जन्म के छठे दिन किया जाने वाला षष्ठी संस्कार पुराणों के अनुसार शिशु को दीर्घायु बनाना उसकी रक्षा और भरण पोषण करना भगवती षष्ठी देवी का स्वाभाविक गुण है। नंदराय जी एवं यशोदा ने जगत के पालनहार श्री कृष्ण के जन्म के छठे दिन अपने पुत्र के अरिष्ट निवारणार्थ ब्राह्मणों को बुलाकर भगवती षष्ठी व्रत पूजन विधिपूर्वक करवाया था। आज शिशु के जन्म के छठे दिन छठी पूजन संस्कार का विधान प्रचलित है। पुराणों में षष्ठी देवी की बड़ी महत्ता प्रतिपादित की गई है। मूल प्रकृति के छठे अंश से प्रगट होने से षष्ठी नाम पड़ा है। ये बह्मा की मानद पुत्री एवं शिव पार्वती के पुत्र स्कंद की प्राणप्रिया देवसेना के नाम से प्रख्यात है। इन्हें विष्णु माया और बालदा भी कहा जाता है। भगवती षष्ठी देवी अपने योग के प्रभाव से शिशुओं के पास सदैव वृद्धमाता के रूप में विद्यमान रहती हंै तथा उनकी रक्षा एवं भरण पोषण करती हंै। शिशु को स्वप्न में खिलाती, हंसाती, दुलारती एवं वात्सल्य प्रदान करती रहती हैं। इसी कारण सभी शिशु आधिकांश समय सोना ही पसंद करते हैं। आंख खुलते ही उनकी दृष्टि से भगवती ओझल हो जाती हैं। अतः कभी-कभी शिशु बहुत जोर से रोने भी लगते हैं। नामकरण संस्कार: ंशुभ मुहूर्त में सूतका स्नान के अनंतर गृह शुद्धि करें। गणपति आदि गृह मातृका तथा वरूण का पूजन करके नार्नद मुख श्राद्ध् करें। शिशु को स्नान कराकर नवीन वस्त्र पहनाएं। स्वस्ति वाचन के साथ माता की गोद में शिशु को पूर्वाभिमुख लिटाकर उसके दाहिने कान में ‘‘अमुक शर्माशि, अमुक वर्माशि’’ इत्यादि नाम तीन बार सुनाएं। तदनंतर, ब्राह्मण भोजन कराएं। जन भाषा में इसे दशोहन या दस दिवसीय जननाशौच निवृत्ति कहा जाता है। नाम दो प्रकार के दिए जाते हैं- एक जन्म नक्षत्र का नाम जो गुह्य होता है और दूसरा पुकार का नाम जो पिता शिशु के कान में कहता है। पुकार का नाम व्यवहार के लिए होता है। नाम केवल शब्द ही नहीं एक कल्याणमय विचार भी हैं। नामकरण संस्कार चारों वर्णों का होता है। स्त्री एवं शूद्र का अमंत्रक एवं विजातियों का समंत्रक होता है। ब्राह्मण का नाम मंगलकारी एवं शर्मा युक्त क्षत्रिय का बल तथा रक्षा समन्वित, वैश्य का धन पुष्टि युक्त तथा शूद्र का दैन्य और सेवा भाव युक्त होता है। स्त्रियों के नाम सुकोमल मनोहारी, मंगलकारी, तथा दीर्घ वर्णांत होना चाहिए जैसे यशोदा। कुछ ऋषियों ने नक्षत्र नाम को माता-पिता की जानकारी में रहना उपयुक्त बताया है अर्थात जिसे माता-पिता ही जाने अन्य नहीं। व्यवहार नाम ही प्रचलन में रहना चाहिए ताकि शत्रु के अविचार आदि कर्मों से शिशु की रक्षा की जा सके। अतः माताः पिता भी उसे व्यवहार नाम से ही संबोधित करें। आज इस इक्कीसवीं सदी में नामकरण कर न तो इस प्राचीन संस्कृति की रक्षा की जाती है और न नैतिकता का पालन ही होता है। कोई अपनी बच्ची को लिली कहता है तो कोई बेबी और कोई डौली। कुछ लोग अपने लड़के को हेनरी, जैफ, जेन्सन, हार्वे जैसे नामों से पुकार कर बड़ी प्रसन्नता का अनुभव करते हैं। अश्विन, अश्लेषा, मघा, जयेष्ठा, मूला और रेवती ये छह गंडमूल नक्षत्र हैं। इनमें से किसी भी नक्षत्र में जन्मा शिशु माता-पिता, अपने कुल या अपने शरीर के लिए कष्टदायक होता है। इसके विपरीत यदि संकट समाप्त हो जाए तो अपार धन, वैभव, ऐश्वर्य, वाहन आदि का स्वामी होता है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार तो उचित यही है कि 27 दिन तक पिता को ऐसे शिशु का मुख नहीं देखना चाहिए। मूल शांति कराने के बाद ही संबंधित नक्षत्र का दान, हवन, पूजा आदि कराकर 27 दिन बाद ही मुख देखें। 27 दिन बाद ही जब वही नक्षत्र फिर आए तब पुरोहित द्वारा मूल शांति कराकर यथासंभव दान आदि करके ही प्रसूति स्नान कराना चाहिए और उसके बाद ही नामकरण संस्कार करना चाहिए। झूला आरोहण: जन्मदिन से 10, 12, 16, 22 एवं 32 वें दिन शिशु को आरामदेह झूले में सुलाना चाहिए। झूले में डालने से पूर्व शुभ तिथि, वार, नक्षत्र, योग, आदि का विचार कर लेना चाहिए। माता, दादा या दादी को भगवान विष्णु का ध्यान करते हुए शिशु को खुले में सिर पूर्व की ओर रखकर सुलाना चाहिए। ऐसा करने से शिशु की आयु एवं ऐश्वर्य की वृद्धि होती है। निष्क्रमण संस्कार: यह संस्कार उस समय किया जाता है जब बालक को सर्वप्रथम घर से बाहर ले जाना हो। नामकरण संस्कार के दूसरे अथवा चैथे माह में शुभ मुहूर्त देखकर निष्क्रमण संस्कार करना चाहिए। घर से बाहर सर्व प्रथम पास के किसी मंदिर में बालक को ले जाना चाहिए तथा उसी रात्रि में शुक्ल पक्ष के चंद्र के दर्शन कराना चाहिए। भूम्योपवेशन: पांचवें मास में भूम्योपवेशन नामक संस्कार होता है। शुभ दिन शुभ नक्षत्रादि में पृथ्वी और बाराह का पूजन कर बालक की कमर में सूत्र बांधकर पृथ्वी पर बिठाते हैं और पृथ्वी से इस प्रकार प्रार्थना करते हैं: रजैनं वसुधे देवी सदा सर्वगतं शुभे। आयु प्रमाणं सफलं निक्षिपसव हरिप्रिये।। इस अवसर पर पुस्तक, कलम, मशीन आदि विभिन्न वस्तुएं बालक के सामने रखी जाती हंै। वह जिस वस्तु को सबसे पहले उठाता है उसे ही उसकी आजीविका का साधन मानकर उसे तदनुरूप शिक्षा दी जाती है। वर्धापन संस्कार: शिशु दीर्घायु हो और उसका जीवन सुखमय हो इसके लिये शास्त्रों में प्रत्येक वर्ष जन्म तिथि को वर्धापन संस्कार का विधान किया गया है। वर्धापन संस्कार सुरुचिपूर्ण स्वास्थ्य वर्धक आयु विषयक एवं समृद्धि दायक होता है। सनातन धर्म में मनुष्य के जन्म के अनंतर पहले वर्ष प्रत्येक मास में जन्म तिथि का अखंड दीप प्रज्ज्वलित कर जन्मोत्सव मनाने का विधान है। इसके बाद प्रत्येक वर्ष जन्म मास में पड़ने वाली जन्म तिथि को जन्मोत्सव मनाया जाता है। इस दिन सर्वप्रथम शरीर में तिल का उबटन लगाकर तिल मिश्रित जल से स्नान करना चाहिए। तदनंतर नूतन वस्त्र धारण करके आसन पर पर बैठकर तिलक लगाएं और गुरु की पूजा करके अक्षत पुष्पों पर निम्नलिखित प्रकार से देवताओं का आह्नान तथा प्रतिष्ठा करके उनकी पूजा करें। सर्वप्रथम कुल देवताभ्यौ नमः मंत्र से कुल देवता का आह्नान एवं पूजन करें। फिर जन्म नक्षत्र माता-पिता, प्रजापति, सूर्य, गणेश, मार्कंडेय, व्यास, परशुराम, अश्वत्थामा, कृपाचार्य, बलि, प्रह्लाद, हनुमान, विभीषण एवं षष्ठी देवी का अक्षत पूजा पर नाम मंत्र से आह्नान करके उनकी पूजा करनी चाहिए। तत्पश्चात मार्कण्डेय जी को श्वेत तिल और गुण मिश्रित दूध तथा षष्ठी देवी को दही भात का नैवेद्य अर्पित करें। इसके बाद कल्प कल्यान्ति जावी महामुनी मार्कंडेय जी से दीर्घ आयु तथा आरोग्य की प्रार्थना करें। इस दिन नख और केश नहीं कटाएं। गर्म पानी से नहीं नहाएं। अपने से बड़ों का अभिवादन करें। वर्तमान में चल पड़ी केक काटकर ‘‘हैप्पी बर्थ डे टू यू’’ कहते हुए जन्मदिन मनाना पाश्चात्य संस्कृति का अंधानुकरण मात्र है। इससे सर्वथा बचते हुए भारतीय सनातन आराधना पद्धति ही अपनाना चाहिए अन्यथा मंगल कम अमंगल की आशंका अधिक रहती है। अन्न प्राशन संस्कार: इस संस्कार के द्वारा माता के गर्भ में मलिन भक्षण-जन्म दोष जो बालक में आ जाते हैं उनका नाश हो जाता है। (अन्ननाशनान्मातृगर्भे मलाशाध्र्याय सुध्यति)। जब बालक छह सात मास का होता है, दांत निकलने लगते हैं, पाचन शक्ति प्रबल होने लगती है, तब यह संस्कार किया जाता है। शुभ मुहूर्त में देवताओं का पूजन करने के पश्चात माता-पिता आदि सोने या चांदी की सलाका या चम्मच से निम्नलिखित मंत्र बोलकर सिर आदि पवित्र और पुष्टिकारक अन्न चटाते हैं। शिवौ नेसतां ब्रीहिय्वाव्वलासाप्दोमधौ। एग्तौ यूक्ष्मं वि बोधते एतौ मुन्चता अंहसः ।। अर्थात हे बालक ! जौ और चावल, तुम्हारे लिए बलदायक और पुष्टिकारक हों क्योंकि ये दोनों वस्तुएं यश्मानाशक है तथा देवान्न होने से पाप नाशक है। चूड़ाकर्म संस्कार: इसे मुंडन संस्कार भी कहते हैं। यह संस्कार जन्म के प्रथम वर्ष, तृतीय वर्ष या पंचम वर्ष में किया जाता है। बाल काटने के लिए बालक को पूर्व की ओर मुख करके बिठाएं। बीच में मांग निकालकर दाएं, बाएं और पीछे की ओर सिर में बालों को बैल के गोबर को लपेटकर रखना चाहिए। कटे हुए बालों को गोबर सहित एक नवीन वस्त्र में रखकर जमीन में गाड़ देना चाहिए। या परिवार की परंपरा के अनुसार गंगाजी में जल प्रवाह कर देना चाहिए। कर्ण वेधन: यह संस्कार पूर्ण पुरुषत्व एवं स्त्रीत्व की प्राप्ति के लिए किया जाता है। शास्त्रों में कर्ण वेधन रहित पुरुष को शास्त्र का अधिकारी नहीं माना गया है। यह संस्कार शिशु जन्म से छह मास से 16 मास के बीच अथवा तीन, पांच आदि विषम वर्षीय आयु में या कुल परंपरागत आचार के अनुरूप संपन्न कराना चाहिए। सूर्य की किरणें कानों के छिद्र से प्रविष्ट होकर बालक-बालिका को पवित्र करती हैं और तेज संपन्न बनाती हैं। ब्राह्मण और वैश्व का रजत शलाका से, क्षत्रिय का स्वर्ण शलाका से तथा शूद्र का लौह शलाका से कर्ण छेदन का विधान है। आयुर्वेद के अनुसार कानों में छेद करने से एक ऐसी नस बिंदु जाती है जिससे आंत्र वृद्धि (हर्निया रोग नहीं होता है। इससे पुरुषत्व नष्ट करने वाले रोगों से रक्षा होती है। उपनयन संस्कार: इस संस्कार को यज्ञोपवीत या जनेऊ संस्कार भी कहते हैं। इस संस्कार में मानव जीवन के विकास का आरंभ माना जाता है। कहा जाता है कि यज्ञोपवीत धारण करने से करोड़ांे जन्मों के संचित पाप कर्म नष्ट हो जाते हैं। शूद्रों को यह संस्कार नहीं कराया जाता। ब्राह्मण का उपनयन संस्कार आठवंे वर्ष में, क्षत्रिय का ग्यारहवें और वैश्य का बारहवें वर्ष कराना चाहिए। वर्ष की गणना गर्भ के समय से करनी चाहिए। उपनयन संस्कार के समय विभिन्न वैदिक मंत्रों के अलावा गायत्री मंत्र का पूर्ण उच्चारण भी किया जाता है और आचार्य बालक को गायत्री मंत्र की दीक्षा देता है। उपनयन संस्कार में भिक्षाचरण भी होता है। उपनयन संस्कार हो जाने के बाद बालक वैदिक कर्म करने का अधिकारी हो जाता है। किंतु उसे विवाह होने तक ब्रह्मचर्य के नियमों का पालन गंभीरतापूर्वक करना चाहिए। साथ ही आचार्य द्वारा दिए गये उपदेशों का पालन भी दृढ़ता से करना चाहिए, तभी उसे दिव्यत्व की प्राप्ति होती है। यज्ञोपवीत: यज्ञ सूत्र निरंतर हमंे अपने धर्म, जाति एवं प्रवर ऋषियों, पुरुषों के उपकार का स्मरण दिलाते हैं। हमारे यज्ञ सूत्र में सभी देवों का वास है अतएव यथाधिकारी यज्ञोपवीत धारण करना परम आवश्यक है। ब्रह्म व्रत: गुरुकुल में गुरु सेवार्थ धारण किया जाने वाला (अन्तेवासी शिष्य का) यह अखंड ब्रह्मचर्य व्रत है। इस संस्कार में उपनीत वतु आचार्य गृह में गुरु का अंतेवासी बनकर अखंड ब्रह्मचर्य व्रत धारण करता हुआ परमात्मा के पथ पर अग्रसर होने के लिए अपने पुरुषार्थ की प्रतिज्ञा करता है। इस काल में वतु के लिए दो कार्य अनिवार्य हैं- ब्रह्मचर्य का पालन और गुरु सेवा। वेदारंभ संस्कार: उपनयन संस्कार संपन्न होने पर उसी दिन अथवा उससे तीन दिन बाद वेदारंभ कर सकते हैं। महर्षि वशिष्ठ के अनुसार जिन-जिन कुलों में वेद शाखाओं का अध्ययन परंपरा से होता चला आ रहा हो, उन-उन कुलों के बालकों को उसी शाखा का अभ्यास करना चाहिए। अपने कुल की परंपरागत शाखा (उपनिषद आदि) का अध्ययन कर लेने के बाद अन्य शाखाओं के उपनिषदों का अध्ययन करना चाहिए। वेदाध्ययन गुरु के सान्निध्य में करना चाहिए। वेद का अर्थ सहित अध्ययन करना चाहिए। वेदारंभ संस्कार में वेद मंत्र की आहुतियों से यज्ञ करने का विधान है। समावर्तन: यह संस्कार विद्याध्ययन का अंतिम संस्कार है। विद्याध्ययन पूर्ण हो जाने के अनंतर स्नातक ब्रह्मचारी अपने पूज्य गुरु की आज्ञा पाकर अपने घर में समावर्तित होता है। इसलिए इसे समापन संस्कार कहते हैं। गृहस्थ जीवन में प्रवेश का अधिकारी हो जाना इस संस्कार का फल है। संस्कारों का प्रयोजन: हर संस्कार भिन्न-भिन्न उद्देश्यों के लिए होता है। संस्कारों के कतिपय लौकिक अंग भी होते हैं। संस्कार में विविध कृत्य ग्रथित होते हैं जिन्हें अपनाने से व्यक्ति को अनेक शुभ फल प्राप्त होते हैं और अशुभ फलों से मुक्ति मिलती है। अशुभ प्रभाव का प्रतिकार: शुभ कार्यों में अमंगल की भी आशंका रहती है अतः अशुभ प्रभाव से रक्षा के लिए संस्कारों में कुछ विशेष कृत्य भी किये जाते हैं। जैसे आसुरी शक्तियां संस्कार्य व्यक्ति पर अशुभ प्रभाव न डाले, इसलिए उन्हें बलि प्रदान कर शांत किया जाता है। इसी प्रकार विनायक शांति भी की जाती है। शिशु जन्म प्रसंग में पिता रोग कारक भूत-प्रेत से कहता है कि तुम लोग मेरे पुत्र को रोगादि पीड़ा मत पहुंचाओ। तुम लोग चले जाओ मैं तुम्हारे प्रति आदर भाव रखूंगा। शुभ प्रभाव का आकर्षण: गर्भाधान तथा विवाह के प्रधान देवता प्रजापति और उपनयन के प्रधान देवता बृहस्पति हैं। इन प्रसंगों में इन देवताओं के सूक्तों द्वारा उनसे अभीष्ट शुभ फल की प्रार्थना की जाती है। शुभ वस्तु के स्पर्श से शुभ फल प्राप्त होता है। अतः सीमांतोन्नयन नामक संस्कार के समय औदुंबर वृक्ष की शाखा का गर्भवती स्त्री की ग्रीवा से स्पर्श कराया जाता है। जिस प्रकार आदुंबर वृक्ष पर विपुल फल आते हैं, उसी प्रकार गर्भवती स्त्री को अनेक संतान हो, इसके पीछे यही भाव निहित है। सांस्कारिक प्रयोजन: शास्त्रज्ञों ने संस्कारों में उच्चतर धर्म एवं पवित्रता के समावेश की शक्ति का प्रतिपादन किया है। याज्ञवल्क्य ऋषि संस्कारों से बीज और गर्भ की शुद्धि और पवित्रता पर बल देते हैं। जातक कर्मादि संस्कारों से अशुद्धता का निवारण होता है। शरीर आत्मा का वास स्थान है और यह शरीर संस्कारों से शुद्ध होता है। नैतिक प्रयोजन: संस्कारों को केवल संस्कार रूप में करना संस्कार विधान में नहीं है। अपितु संस्कार करने से नैतिक गुणों की अभिवृद्धि होती है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए शास्त्रज्ञों ने संस्कार में जीवन के प्रत्येक सोपान के लिए व्यवहार के नियम धर्म निर्धारित किये हैं। आध्यात्मिक प्रयोजन: शास्त्रीय संस्कारों से उत्पन्न होने वाले नैतिक गुणों से संस्कार्य व्यक्ति का आध्यात्मिक विकास हो यही संस्कार का अभिप्राय है। सांस्कारिक जीवन भौतिक धारणा और आत्मवाद के बीच का माध्यम मात्र है। यद्यपि आध्यात्मिक दृष्टि से शरीर को निसार माना गया है, फिर भी शरीर आत्म मंदिर है। साधना अनुष्ठान का माध्यम है, इसलिए अति मूल्यवान है। यह आत्म मंदिर संस्कारों से परिष्कृत होकर परमात्मा का वास स्थान बन सके यही संस्कारों का अभिप्राय है। इस प्रकार संस्कार आध्यात्मिक शिक्षण के सोपान हैं। सुसंस्कृत व्यक्ति का सम्पूर्ण जीवन संस्कारमय होता है और सभी दैहिक क्रियाएं आध्यात्मिक विचारों से अनुप्राणित होती हैं। संस्कारों से व्यक्ति को यह विश्वास होता है कि विधियुक्त संस्कार के अनुष्ठान से वह देह बंधन से मुक्त होकर भवसागर से पार हो सकता है। समाज के श्रेष्ठजन सविधि संस्कारों का पालन करते हैं, अतः इतरजन भी उनका अनुसरण कर सुखी होते हैं। भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति में संस्कारों का विशेष महत्व है। प्राचीन ऋषियों ने गर्भाधान से लेकर अंत्येष्टि कर्म तक शोडष संस्कारों को एकमत से स्वीकार किया है। मनुष्य जन्म से अबोध होता है परंतु संस्कारों से उसके आंतरिक एवं बाह्य व्यक्तित्व में निखार आता है, उसका परिष्कार होता है। शास्त्र में कहा गया है- जन्मनाजायत े शदु ्र सस्ं काराद ् द्विज उच्यत।े वेद चांडाल मपेत विप्र पृक्ष जानाति ब्राह्मण।। सुख समृद्धि चाहने वाले प्रत्येक वर्ण के गृहस्थ मनुष्य को परंपरा का अनुसरण करना चाहिए। ऐसा करने से संतान मेधावी, स्वस्थ, धनी, यशस्वी एवं दीर्घायु होगी। गर्भाधान संस्कार: इस पूरे प्रकरण में एक बात उल्लेखनीय है कि शुरू से अंत तक किसी भी ऋषि ने गर्भाधान संस्कार का त्याग नहीं किया। सभी ने इस प्रथम संस्कार को आवश्यक माना है। वर्तमान में गर्भाधान तो खूब होता है किंतु संस्कार बिल्कुल नहीं। आज हमने गर्भाधान संस्कार को पूरी तरह भुला दिया है। कोई इस विषय पर चर्चा करना भी पसंद नहीं करता है। यौन विषयों पर सर्वाधिक चर्चा होती है, यौन शिक्षा पर पूरे देश में बहस चलती है, किंतु गर्भाधान संस्कार की जानकारी शिक्षित समाज को भी नहीं है। इच्छित संतान की प्राप्ति हेतु गर्भाधान करने से पूर्व पति-पत्नी को अपने मन और शरीर को पवित्र बनाने के लिए यह प्रथम संस्कार करना चाहिए। शुद्ध रज-वीर्य के संयोग से ही संस्कारवान संतान का जन्म होता है। पतिव्रत धर्म और ब्रह्मचर्य के पालन से ही रज-वीर्य की शुद्धि होती है। जिस शुभ रात्रि में जिस समय गर्भाधान करना हो उस समय पति और पत्नी को स्वयं को आचमन आदि से शुद्ध कर लेना चाहिए। फिर पति हाथ में जल लेकर कहे कि मैं इस पत्नी के प्रथम संस्कार के बीज तथा गर्भ संबंधी दोषों के निवारणार्थ इस गर्भाधान संस्कार क्रिया को करता हूं। पत्नी पश्चिम की ओर पैर करके सीधा चित लेटे तथा पति पूर्वाभिमुख बैठकर पत्नी के नाभि स्थल को अपने दायें हाथ से स्पर्श करता हुआ निम्न मंत्र का उच्चारण करे: ऊँ पूषा भग सविता मे ददातु रुद्रः कल्पयतु ललामगुम। ऊँ विष्णुर्योनिकल्पयतु त्वष्टा रुपाणि यिथशतु आसिंचत प्रजापतिर्धाना गर्भ दधालुते।। (ऋग्वेद-4/2/42) पुंसवन संस्कार: अथ पुंसवानम पुरा स्पन्दत इति मासे द्वितीये तृतीये वा। (पारस्कर गुह्यसूत्र-1-16) गर्भ का विकास सम्यक प्रकार से हो सके इसके लिए पुंसवन संस्कार करना चाहिए। यह संस्कार गर्भाधान के दूसरे या तीसरे मास में किया जाये। इस संस्कार की मुख्य क्रिया में खीर की पांच आहुतियां दी जाती हैं। ह्वन से बची हुई खीर को एक पात्र में भरकर पति पत्नी की गोद में रखता है और एक नारियल भी प्रदान करता है। पूजा समाप्ति और ब्राह्मण भोजन कराने के पश्चात् पत्नी इस खीर का प्रेम पूर्वक सेवन करती है। सीमांतोन्न्ायन संस्कार: यह संस्कार भी गर्भस्थ शिशु के उन्नयन के लिए किया जाता है। यह संस्कार शिशु को सौभाग्य संपन्न बनाता है। पारस्कर गुह्य सूत्र में कहा गया है कि यह संस्कार प्रथम गर्भ के छठे अथवा आठवें मास में करना चाहिए। इस संस्कार में हवन किया जाता है और गर्भवती स्त्री के जूड़े (सिर के बालों) में तीन कुशाएं और गूलर के फल लगाए जाते हैं।

जन्म से पहले कौन कौन से संस्कार होते हैं?

विभिन्न धर्मग्रंथों में संस्कारों के क्रम में थोडा-बहुत अन्तर है, लेकिन प्रचलित संस्कारों के क्रम में गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूड़ाकर्म, विद्यारंभ, कर्णवेध, यज्ञोपवीत, वेदारम्भ, केशान्त, समावर्तन, विवाह तथा अन्त्येष्टि ही मान्य है।

शिशु के जन्म के पूर्व कौन से संस्कार किये जाते हैं?

बता दें कि गर्भधारण के समय गर्भाधान संस्कार किया जाता है। फिर तीसरे माह में पुंसवन संस्कार संपन्न किया जाता है। इसके बाद जब महिला का गर्भ 6 महीने का हो जाता है तो उस समय आने वाले शिशु के लिए सीमन्तोन्नयन संस्कार किया जाता है। फिर जैसे ही शिशु का जन्म होता है तब जातकर्म संस्कार किया जाता है।

संतान के जन्म के समय कौन सा संस्कार किया जाता है?

दूसरा पुंसवन-संस्कार का उद्देश्य बलवान, शक्तिशाली एवं स्वस्थ संतान को जन्म देना है। इस संस्कार से गर्भस्थ शिशु की रक्षा होती है तथा उसे उत्तम संस्कारों से पूर्ण बनाया जाता है। हिंदू धार्मिक ग्रंथों में सुश्रुतसंहिता, यजुर्वेद आदि में तो पुंसवन संस्कार को पुत्र प्राप्ति से भी जोड़ा गया है।

बालक के जन्म के तुरंत बाद कौन सा संस्कार किया जाता है?

जातकर्म संस्कार : यह बालक के जन्म के बाद किया जाता है। इसमें बालक को शहद और घी चटाया जाता है। इससे बालक की बुद्धि का विकास तीव्र होता है। इसके बाद से माता बालक को बालक को स्तनपान कराना शुरू करती है।