शिक्षा धर्मनिरपेक्षता का प्रभावी क्या है? - shiksha dharmanirapekshata ka prabhaavee kya hai?

धर्मनिरपेक्षता में शिक्षा की भूमिका - Role of education in Secularism

वर्तमान में परलौकिक तत्वों पर मानव का विश्वास न रहकर भौतिकवाद पर विश्वास बढ़ रहा है। आत्मा, परमात्मा, अमरता आदि परलौकिक तत्वों पर विश्वास नहीं रहां है। किन्तु मानव कल्याण एवं जनकल्याण हेतु मानव प्रेम, सहयोग, सहजीवन, वैज्ञानिक दृष्टिकोण, दया, क्षमा शांति आदि मानवीय मूल्यों में विश्वास रहना नितांत आवश्यक है। स्वतंत्रता के उपरांत धर्मनिरपेक्षता को भारतीय संविधान में सम्मिलित किया गया। भारतीय संविधान में अंतर्निहित मूल्यों का परिपोष करने के लिए शिक्षा की सुचारु व्यवस्था करना आवश्यक है। भारतीय संविधान के अनुसार सरकारी आनुदान वाले विद्यालयों में धार्मिक शिक्षा प्रदान करने पर पाबंदी लगाई है। किन्तु यदि कोई यदि कोई धार्मिक शिक्षा देने हेतु विद्यालय संचालित करना चाहता है

तो उस विद्यालय को बिना किसी भेदभाव से सरकारी अनुदान दिया जायेगा। धर्मनिरपेक्षता को सर्वधर्मसमभाव की दृष्टी से शिक्षा द्वारा प्रचलित करना है। उदारवादी, मानवतावादी, समन्वयवादी दृष्टिकोण से शिक्षा व्यवस्था को विकसित करना चाहिए। शिक्षा की माध्यम से नागरिकों को शिक्षा के माध्यम से नैतिक, चारित्रिक विकास पर बल देना चाहिए। शाश्वत जीवन को विकसित करने की शिक्षा हमें प्रदान करनी चाहिए। महापुरुषों का जीवन चरित्र, धर्मग्रंथ में सम्मिलित समान तत्व, सर्वधर्म समभाव के सिद्धांत, नैतिक मूल्यों का समावेश शिक्षा में करना आवश्यक है।

विभिन्न आयोग तथा समितियों ने सर्वधर्मसमभाव की दृष्टी से शिक्षा देनेपर बल दिया है। शिक्षाशास्त्री हुमायूँ कबीर का मानना है कि, वस्तुतः जब धर्म कट्टरता, अंधविश्वास के मकड़जाल में फास जाता है तो संकुचित मनोवृत्ती उपजती है एवं लोगो में संघर्ष की उत्पत्ति होती है। एतिहासिक घटनाओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि भारत में धर्म एवं जाती से संबंधित हिंसा का प्रमाण अधिक है।

ऐसी स्थिति में शिक्षा में धर्म के स्थान का विरोध करते है। बट्रेंड रसेल के अनुसार धर्म की बातों को जनमानस बिना चिंतन-मनन के ग्रहण कर लेती है जिससे अंधविश्वास फैलता है।

धार्मिक शिक्षा का समर्थन करते हुए श्री अरविंद ने कहा है कि. चाहे धर्म की शिक्षा किसी रूप में स्पष्ट रुप से दी जाये या न दी जाए, किन्तु ईश्वर के लिए, मानवता के लिए राष्ट्र के लिए तथा स्वयं के लिए, धर्म के सारतत्व को प्रत्येक शिक्षा संस्था का आदर्श बनाना चाहिए। स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत धर्म निरपेक्षता का स्वीकार किया है किन्तु धर्म निरपेक्षता के प्रति संवेदनशीलता बढ़ाने में भारतीय शिक्षा व्यबस्था अपुरी पड़ी है। प्राचीन काल से दैदीप्यमान सांस्कृतिक धरोहर से प्रसिद्ध भारत भूमि को अपने पूर्व मक़ाम तक पहुचाने में शिक्षा की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।

सद्प्रवृत्तियां मूल्यों, सदाचार, सहअस्तित्व नैतिकता, चरित्र्यता, समाजशिलता, दया. स्वतंत्रता, समानता, न्याय, बंधुभाव, वात्सल्य आदि मानव जीवन के लिए आवश्यक है।

उक्त मूल्यों का समावेश हमारे व्यवहार में रहना शाश्वत मानव जीवन के लिए आवश्यक है। यह शिक्षा के बिना असंभव है। धर्म में अधिष्ठित नैतिकता, मूल्य, चारित्रिक गुण आदि का समावेश पाठ्यक्रम करके विद्यार्थियों का सर्वांगिक विकास किया जा सकता है। संस्कृति धर्मसे जुड़ी होती है। संस्कृति का संस्करण विकास एवं स्थानातरण शिक्षा के द्वारा ही संभव है। शिक्षा एवं धर्म का अत्यंत घनिष्ट संबंध है। लोकतांत्रिक मूल्यों का परिपोष शिक्षा की माध्यम किया जाता है। अभिनव धर्मो जैसे- बौद्ध धर्म द्वारा लोकतांत्रिक मूल्यों का स्वीकार किया है। धर्म द्वारा अपेक्षित आदर्श गुण मानव के जीवन में उतरने के लिए शिक्षा अत्यंत आवश्यक है। सुधारवादी और विज्ञान पर आधारित धर्म एवं शिक्षा आधुनिक मानवी जीवन को सफल बना सकते है। धर्म एवं शिक्षा की माध्यम से विद्यार्थियों में शाश्वत मूल्यों का विकास किया जा सकता है। धर्म के अनुसार अपेक्षित जनकल्याणकरी नागरिक का निर्माण किया जा सकता है। शिक्षा की माध्यम से विद्यार्थियों में सदगुणों का विकास किया जा सकता है।

आधुनिक जीवन शैली का अनिष्ट परिणाम मानव पर हो रहा है।

तनाव, चिंता, न्युनत्व, कुसमायोजन, शारीरिक एवं मानसिक रोग आदि का प्रभाव व्यक्ति के स्वास्थ पर हो रहा है। इससे मानवी जीवन एवं समाज जीवन प्रभावित हो रहा है। शाश्वत समाज जीवन के लिए शांतिमय पारिवारिक एवं सामाजिक जीवन की नितांत आवश्यकता है। ध्यान, योग, प्राणायाम, मौन साधना, उपासना व्यक्ति को मानसिक स्वास्थ्य प्रदान करता है। मानसिक एवं शारीरिक स्वास्थ्य के लिए सभी धर्मों में अंतरनिहित मुलभूत तत्व, आदर्श नियम, मूल्यों का समावेश शिक्षा में किया जाना चाहिए। हमारे भविष्यकालिक नागरिक सार्वभौमिक धर्मनिरपेक्ष बनने चाहिए। संकुचित मनोवृत्तियों पर बल देनेवाले विषयवस्तु को पाठ्यक्रम में सम्मिलित नहीं करना चाहिए। शिक्षा में पारस्पारिक विचार-विमर्श को स्थान देना चाहिए। पाठ्यसहगामी गतिविधियों में राष्ट्रिय उत्सव एवं सभी धर्मीय त्योहारों का आयोजन कराना चाहिए। जीवन मूल्यों, राष्ट्रिय एवं अंतरराष्ट्रीय सदभाव परक मूल्यों, मानवीय मूल्यों का विकास एवं संवर्धन शिक्षा की सहायता से किया जाना चाहिए। वसुधैव कुटुम्बकम् की भावनाओं विकास करने में शिक्षा एक अदभुत शक्ति के रूप में कार्य कर सकती है।

नैतिक मूल्यों का विकास करना, मानवतावादी दृष्टिकोण का विकास करना.

सामाजिक आदर्शों का विकास करना, सामाजिक मूल्यों का विकास करना संविधानिक मूल्यों का परिपोष करना, चारित्रिक गुणों का विकास करना, मानवाधिकार के प्रति जागरूकता निर्माण करना, विश्वकल्यान, लोककल्यान की भावना का विकास करना, वैश्विक शांति की भावना का विकास करना, आदर्श जीविकोपार्जन के लिए कौशल एवं प्रशिक्षण प्रदान करना, लोकतांत्रिक मूल्यों का विकास करना, सर्वधर्म समभाव की भावना का विकास करना आदि उद्देश्यों पर आधारित शिक्षा होनी चाहिए।

प्रजातांत्रिक एवं धर्म निरपेक्ष राष्ट्र में धार्मिक शिक्षा देना बहुत बड़ी चुनौती है। धर्म निरपेक्ष तत्वों का तंतोतंत पालन करते हुए धार्मिक शिक्षा देना आवश्यक है। अन्यथा जातीय तेढ, धार्मिक विद्वेष, मानसिक अंतर्द्वद्व, धार्मिक घृणा, धार्मिक एवं जातीय अलगाव और नफरत. धार्मिक असहिष्णुता, धार्मिक कट्टरता, जातीय एवं धार्मिक दंगे आदि विध्वंसक क्रियाओं को बढ़ावा मिल सकता है। पाखंड, अंधविश्वास, कुरीतियाँ, धार्मिक तेढ, जातीय विद्वेष बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित करने वाली धार्मिक शिक्षा नहीं देनी चाहिए। आज के विद्यार्थी कल नागरिक होते है। इसलिए धार्मिक शिक्षा सोच समझकर एवं सावधानीपूर्वक देनी आवश्यक है।

शिक्षा की सहायता से धार्मिक समानता बनाये रखना आज के वर्तमान समाज की नितांत आवश्यकता है। शिक्षा की माध्यम से विद्यार्थियों में सर्वधर्म समभाव भावना की विकसित करना वर्तमान शिक्षा का प्रधान लक्ष्य होना चाहिए। धर्म संस्कृति का अभिन्न अंग है एवं शिक्षा संस्कृति की वाहिका है। इस हेतु शिक्षा पर आधिक जबाबदेही आती है। संविधानिक मूल्यों का परिपोष शिक्षा की सहायता से ही संभव है। धार्मिक सहिष्णुता के तत्वों का समावेश शिक्षा में होना आवश्यक है।

संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि -

• धार्मिक शिक्षा सभी धर्मो के मुलतत्वों पर आधारित हो।

• धार्मिक शिक्षा देते समय समन्वयवादी दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। 

• विविध धर्म के संस्थापक, विचारक, महापुरुषों की जीवनियाँ पाठ्यक्रम में सम्मिलित करनी चाहिए।

• सभी धर्मों की सामान्य जानकारी विद्यार्थियों को देनी चाहिए।

• धर्मनिरपेक्ष शिक्षा में सभी धर्मो का आदर रखना सीखना चाहिए।

• विद्यालयों में किसीभी धर्म के अनुयायियों के साथ भेदभाव नहीं करना चाहिए।

• जाती, धर्म एवं क्षेत्र में अनिष्ट भावना निर्माण करनेवाला पाठ्यक्रम नहीं होना चाहिए।

• शिक्षा का सभी को स्वातंत्र्य रहना चाहिए।

• धार्मिक भावनाओं को ठेस ना पहुंचे यह हमें ध्यान में रखना है।

• धर्मनिरपेक्षता के मूल सिद्धांतों के आधार पर ही शिक्षा दी जानी चाहिए।

• धर्मनिरपेक्षता के लिए कार्य करनेवाले महान विभूतियों के कार्य एवं विचारों से अवगत कराना आवश्यक है।

• धर्मनिरपेक्षता को बढ़ावा देने हेतु विद्यालयों का वातावरण निर्माण करना चाहिए।

• शारीरिक शिक्षा, पाठ्यसहगामी गतिविधियाँ, जनशिक्षा, विद्यालयोंकी दिनचर्या एवं वातावरण धर्मनिरपेक्षता को प्रोत्साहित करनेवाला बनाना आवश्यक है।

• मानव कल्याण एवं जनकल्याण शिक्षा का प्रधान उद्देश्य होना चाहिए।

• सद्प्रवृत्तियां मूल्यों, सदाचार, सहअस्तित्व नैतिकता, चरित्र्यता, समाजशिलता, दया, स्वतंत्रता, समानता, न्याय, बंधुभाव, विवेकशीलता, वात्सल्य, मानव प्रेम, सहयोग, सहजीवन, वैज्ञानिक दृष्टिकोण, दया, क्षमा, शांति आदि मानवीय मूल्यों विकास शिक्षा से होना चाहिए।

• भारतीय संविधान में अंतर्निहित मूल्यों का परिपोष करना शिक्षा का लक्ष्य होना चाहिए।

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• धर्मनिरपेक्षता को सर्वधर्मसमभाव की दृष्टी से शिक्षा द्वारा प्रचलित करना है।

• उदारवादी मानवतावादी समन्वयवादी दृष्टिकोण से शिक्षा व्यवस्था को विकसित करना चाहिए।

• शिक्षा की माध्यम से नागरिकों को शिक्षा के माध्यम से नैतिक, चारित्रिक विकास पर बल देना चाहिए।

लोकतांत्रिक मूल्यों का परिपोष शिक्षा की माध्यम किया जाना चाहिए। ध्यान, योग, प्राणायाम, मौन, साधना, उपासना व्यक्ति को मानसिक एवं शारीरिक स्वास्थ्य प्रदान करती है, जिसका समावेश शिक्षा में होना चाहिए।

शिक्षा धर्मनिरपेक्ष का प्रभावी क्या है?

धर्मनिरपेक्षता को सर्वधर्मसमभाव की दृष्टी से शिक्षा द्वारा प्रचलित करना है। उदारवादी, मानवतावादी, समन्वयवादी दृष्टिकोण से शिक्षा व्यवस्था को विकसित करना चाहिए। शिक्षा की माध्यम से नागरिकों को शिक्षा के माध्यम से नैतिक, चारित्रिक विकास पर बल देना चाहिए। शाश्वत जीवन को विकसित करने की शिक्षा हमें प्रदान करनी चाहिए।

धर्मनिरपेक्षता का उद्देश्य क्या है?

धर्मनिरपेक्षता का अर्थ: धर्मनिरपेक्षता का अर्थ है कि राज्य राजनीति या किसी गैर-धार्मिक मामले से धर्म को दूर रखे तथा सरकार धर्म के आधार पर किसी से भी कोई भेदभाव न करे। धर्मनिरपेक्षता का अर्थ किसी के धर्म का विरोध करना नहीं है बल्कि सभी को अपने धार्मिक विश्वासों एवं मान्यताओं को पूरी आज़ादी से मानने की छूट देता है।

धर्मनिरपेक्षता का सबसे महत्वपूर्ण कारक क्या है?

धर्मनिरपेक्षता की विचारधारा के प्रोत्साहन में भारत में विभिन्न धर्मों का पाया जाना भी एक महत्वपूर्ण कारण रहा है। भारत में चूंकि विभिन्न धर्मों के अनुयाई साथ साथ रहते हैं, आता है राज्य के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि वह सभी धर्मों के प्रति समानता का व्यवहार करें और सब को विकास के समान अवसर प्रदान करें।

भारत में धर्मनिरपेक्षता का क्या महत्व है?

भारत में धर्मनिरपेक्षता संविधान में भारतीय राज्य का कोई धर्म घोषित नहीं किया गया है और न ही किसी खास धर्म का समर्थन किया गया है। संविधान के अनुच्छेद 14 के अनुसार भारतीय राज्य क्षेत्र में सभी व्यक्ति कानून की दृष्टि से समान होगें और धर्म, जाति अथवा लिंग के आधार पर उनके साथ कोई भेदभाव नहीं किया जायेगा।