स्वयं के विभिन्न आयाम कौन से हैं? - svayan ke vibhinn aayaam kaun se hain?

स्वयं की समझ | D.El.Ed Notes in Hindi

  • July 24, 2022
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  • S-4

स्वयं की समझ | D.El.Ed Notes in Hindi

S-4                                       स्वयं की समझ

                               दीर्घ उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

यह

प्रश्न 1. आत्म (Self) से क्या समझते हैं ? आत्म की प्रकृति स्पष्ट करें

अहम् (Ego) से किस प्रकार भिन्न है ?

उत्तर—आत्म (Self) एक ऐसा आकर्षण का केन्द्र-बिन्दु है जिसके इर्द-गिर्द अनेक

आवश्यकताएँ और लक्ष्य संगठित होते हैं। ‘आत्म’ दूसरों के सम्बन्ध में एक मनुष्य के विचारों

और कार्यों की चेतना है। ‘आत्म’ से अभिप्राय है— स्वयं के प्रति दृष्टिकोणों के विकास का

परिणाम । व्यक्ति के ‘ आत्म’ लम्बी प्रक्रिया का परिणाम होता है। व्यक्ति के दूसरों के संदर्भ

में पदार्थों, समूहों, संस्थाओं तथा मूल्यों के संदर्भ में सभी अनुभव ‘ आत्म’ के विकास के लिए

उत्तरदायी होते हैं। आत्म उन सभी अर्थों से बना होता है जिन्हें व्यक्ति स्वयं के बारे में जानता

है तथा अपने आसपास के बारे में जानता है।

          व्यक्ति स्वयं की पहचान यह कहकर कर सकता है कि ‘मेरा परिवार’, ‘मेरा झण्डा’,

‘मेरा कार्यालय’, ‘मेरी जाति’। मैं भारतीय हूँ, मैं बिहारी हूँ, मैं भोजपुरी क्षेत्र का हूँ इत्यादि ।

ये सभी अभिव्यक्तियाँ उसके अहम् के दृष्टिकोण को दर्शाती हैं। व्यक्ति स्वयं के बारे में क्या

सोचता है—यह आपस में जुड़े अहम् के दृष्टिकोणों पर निर्भर करता है। एक दृष्टिकोण

व्यवहार में स्थिरता लाता है। व्यक्ति के विभिन्न दृष्टिकोणों में एक विशेष सम्बन्ध होता है।

‘आत्म’ विकासात्मकं प्रक्रिया है जिसमें दूसरे व्यक्तियों के प्रति कई दृष्टिकोण शामिल होते

हैं। यह एक विकासात्मक प्रतिफल हैं।

◆ Kretch and Cruch field, 1948 के अनुसार, “Self is the way in which

the individual Sees himself.”

◆ जेम्स ड्रीवर (James Drever, 1968) के अनुसार, “आत्म (Self) शब्द का

प्रयोग अहम् के अर्थ में किया जाता है। आत्म, सामान्यतः अहम् के अर्थ में, एक एजेन्ट

के रूप में जाना जाता है जो अपनी पहचान की निरंतरता के लिए चेतना रहता है।”

◆ जानसन (Johnson, 1961) के अनुसार, “आत्म एक ऐसी आन्तरिक वस्तु है जो

किसी व्यक्ति के स्वयं के व्यक्तित्व का प्रतिनिधित्व करती है।”

◆ आइजेंक और साथियों (Eysenck and Others, 1972) के विचारानुसार,

“अनुभवात्मक अनुसंधान के अन्तर्गत आत्म से अभिप्राय व्यक्ति के उस प्रत्यक्षीकरण से

समझा जाता है जिसे वह स्वयं के बारे में करता है।”

‘आत्म’ के प्रत्यय या धारणा की उत्पत्ति व्यक्तित्व के सिद्धांत के पूर्व इतिहास में हो

चुकी थीं। व्यक्तित्व के संगठित पक्ष के लिए फ्रायड ने ‘अहम्’ शब्द का प्रयोग किया। अन्य

• सिद्धान्तवादियों ने ‘आत्म’ शब्द का प्रयोग किया।

      [The term Self is used constitently to label the totality of actions and

behaviour of the Single individual.]

       ◆ Allport (आलपोर्ट) के अनुसार भी “आत्म वह सब कुछ है जिससे हम तत्काल

परिचित हो।”

        ‘आत्म’ में ये पक्ष शामिल होते हैं— स्वयं के प्रति दृष्टिकोण, स्वयं के प्रत्यक्षीकरण की

संगठित संरचना, वे सभी प्रत्यक्षीकरण, विश्वास, भावनाएँ तथा मूल्य जिन्हें व्यक्ति स्वयं की

विशेषताएँ मानता हो, इत्यादि शामिल हैं।

        आत्म का अर्थ उस प्रत्यक्षीकरण या अभिवृत्तियों से है जो व्यक्ति अपने ही सम्बन्ध में

करता है। उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि अधिकांश समाज मनोवैज्ञानिकों ने ‘आत्म’

और ‘आत्म प्रत्यय’ पदों का प्रयोग समान अर्थों में किया है। यहाँ व्यक्ति की स्वयं के प्रति

अभिवृत्तियों के तीन पहलू हैं:

1. ज्ञानात्मक

2. भावात्मक

3. व्यवहारात्मक

यह स्वयं के प्रति अभिवृत्ति के ज्ञानात्मक पहलू का अर्थ ‘आत्म की विषयवस्तु’ से है ।

जैसे—”मैं मजबूत हूँ। मैं बुद्धिमान हूँ।” इसी प्रकार, स्वयं के प्रति अभिवृत्ति के भावात्मक

पहलू का अर्थ उन भावनाओं से है जो व्यक्ति अपने स्वयं के प्रति रखता है। इन भावनाओं

को शब्दों के रूप में अभिव्यक्त करना कठिन होता है। इसी प्रकार, स्वयं के प्रति अभिवृत्ति

के व्यवहारात्मक पक्ष का अर्थ है—स्वयं के प्रति विभिन्न प्रकार से क्रिया करने के तरीके ।

समाज मनोवैज्ञानिकों के अनुसार, ‘आत्म (Self) जन्मजात नहीं होता। यह सामाजिक

स्थितियों की क्रिया का अर्जित परिणाम है।’

                                      ‘आत्म’ और ‘अहम्’ में अंतर

         फ्रायड ने आत्म और अहम् को एक ही माना है जबकि सेमण्ड (Symond, 1950)

ने दोनों में अंतर बताया है।

      Symond 1950 के अनुसार, अहम् प्रतिक्रियाओं का वह समूह है जिसमें प्रत्यक्षीकरण,

चिन्तन और स्मरण शामिल होते हैं। अपनी आन्तरिक सन्तुष्टि के लिए योजनाओं का विकास

और संचालन यहीं प्रतिक्रियाएँ करती हैं।

                  ‘आत्म’ का अर्थ है—व्यक्ति स्वयं के बारे में किस प्रकार की प्रतिक्रिया करता है।

(Self is the way in which the individual reacts to himself) इस प्रकार, हम

देखते हैं कि आत्म के चार पक्ष होते हैं :

1. व्यक्ति स्वयं का प्रत्यक्षीकरण किस प्रकार करता है ?

2. वह अपना मूल्यांकन किस तरह करता है ?

3. वह खुद के बारे में किस प्रकार चिन्तन-मनन करता है ?

4. वह अपनी क्रियाओं द्वारा स्वयं की सुरक्षा कैसे करता है ?

प्रश्न 2. मूल्य (Values) से क्या समझते है ? व्यक्ति के स्वयं के प्रति एवं सामाजिक मूल्यों

की विवेचना करें।

उत्तर –’एनसाइक्लोपीडिया ऑफ सोशल साइंसेज’ के अनुसार मूल्य से अर्थ है―

रुचियाँ, आनन्द, पसंदें, कर्त्तव्य, नैतिक उत्तरदायित्व, इच्छाएँ, आवश्यकताएँ और कई प्रकार

के सामाजिक झुकाव के तरीके । कैटेल के अनुसार, “मूल्यों से हमारा अर्थ होता है―

सामाजिक, कलात्मक, नैतिक और अन्य मानक जिनके अनुसार एक व्यकित स्वयं चलना

चाहेगा और दूसरों को भी चलाना चाहेगा।” क्लूकहोन के अनुसार, “मूल्य उचित व्यवहार

के विचार होते हैं जो चुने हुए व्यवहार से सम्बन्धित होते हैं।”

        व्यक्ति के स्वयं के प्रति एवं सामाजिक मूल्य-मनुष्य के व्यक्तित्त्व और व्यवहार

में पाँच मूलभूत मूल्य होने चाहिए-सत्य, प्रेम, शान्ति, धर्म या सही कार्य तथा अहिंसा।

जिस प्रकार से एक हाथ में पाँच उँगलिया होती हैं जिनमें से प्रत्येक पूरे हाथ की सही

कार्यशीलता और कुशलतापूर्वक कार्य करने में आवश्यक व सहायक हैं। सभी देशों और

संस्कृतियों में इन पाँच प्रमुख मूल्यों को स्वीकारा गया है। सभी धर्मों के संस्थापकों ने अपनी

शिक्षाओं में इनको महत्त्वपूर्ण बताया है और अनेक विद्वानों ने इनके बारे में महत्त्वपूर्ण कथन

दिये हैं। इन्हें सार्वभौमिक या विश्वव्यापी मूल्य कहा जाता है।

       मनुष्य के व्यक्तित्व और व्यवहार में पाँच मूलभूत मूल्य होने चाहिए :

(1) सत्य–सत्य हममें से प्रत्येक में जीवन सिद्धांत के रूप में व्याप्त होता है। इसे

भगवान माना जाता है। कहा जाता हैं, ‘Truth a God’ : इसके बिना व्यक्ति और विश्व

नहीं टिक सकता, रह नहीं सकता । मानव बुद्धि का कार्य प्रत्येक वस्तु और व्यक्ति में स्वयं

में सत्य की अस्तित्व को मानने पर आधारित होता है। सत्य वास्तविकता का स्वरूप ही होता

है। यह मानव जीवन का वह आध्यात्मिक पक्ष है जो कभी नहीं बदलता । यह न तो शरीर

होता है, न इन्द्रियाँ, न मन, न बुद्धि अपितु यह प्रत्येक में वर्तमान ‘दैवत्व’ होता है । इसके

लिए मस्तिष्क की शक्तियों को कार्य करना होता है जिसमें ‘स्मरण’ प्रमुख होता है।

(2) प्रेम―प्रेम मानव में देवत्व की अभिव्यक्ति है। यह संसार में सबसे बड़ी शक्ति

है। यह एक भावना नहीं है, अपितु यह वह शक्ति या ऊर्जा है जो प्रत्येक व्यक्ति पाता और

दूसरों को देता रहता है। यही सभी स्वरूपों के जीवित प्राणियों को प्रभावित करता है। यह

सभी में एकता का भाव उत्पन्न करता है, यह जब उदित होता है तब एक व्यक्ति में

स्वार्थहीनता और सहयोग करने की प्रवृत्तियाँ बढ़ती हैं। प्रत्येक प्राणी मानव प्रेम से आनन्दित

और प्रभावित होता है, लाभ पाता है, प्रेरणा पाता है।

(3) शान्ति–सम्पूर्ण जीवन का प्रयास होता है शान्ति प्राप्त करना । शान्ति से प्रसन्नता

मिलती है, उत्साहवर्धन होता है, क्रियात्मकता विकसित होती है। शान्ति ‘Power packed

stillness’ होती है अर्थात् वह शक्ति भारी निस्तब्धता होती है। जब तक व्यक्ति में शान्ति

नहीं है, तब तक समुदाय और विश्व की शान्ति सम्भव नहीं होती।

(4) धर्म–प्रेम का कार्यरूप सदाचार या धर्म (Right conduct) होता है । जो व्यक्ति

स्वयं का और दूसरों का हित समान भाव से रखकर कार्य करता है वह सही प्रकार का

व्यवहार करता है।

मानव के लिए पाँच प्रकार के धर्म निर्धारित किए गए हैं:

कुल धर्म–अपने व्यावसायिक समूह के प्रति कर्त्तव्य ।

देश धर्म–अपने राष्ट्र के प्रति अपना कर्त्तव्य ।

मत धर्म–अपने धर्म या मत के प्रति अपना कर्त्तव्य

गण धर्म–अपने समाज के प्रति अपना कर्त्तव्य ।

आपद् धर्म-आपदा या विपत्ति के समय अपना कर्त्तव्य ।

धर्म विश्वव्यापी या सार्वभौमिक मूल्य है। भारतीयों के लिए और विदेशियों के लिए

भिन्न-भिन्न धर्म नहीं होता है।

(5) अहिंसा–यह मानव उपलब्धि की पराकाष्ठा होना है। यह सार्वभौमिक या

विश्वव्यापी प्रेम है जो सम्पूर्ण प्राणी जीवन के प्रकारों के प्रति प्रेम और करूणा है। यह सभी

को एकता के सूत्र में बाँधता है। यह इस विचार पर आधारित है कि मनुष्य का विश्व के

सभी प्राणियों और वस्तुओं के प्रति कर्त्तव्य है। किसी को भी मन, वचन और कर्म से हानि,

हिंसा, चोट नहीं पहुँचानी चाहिए। सभी के प्रति करुणा, दया तथा भला करने की भावना

से कार्य करना चाहिए ।

       मानव व्यक्तित्व के विविध पक्षों या स्तरों का सम्बन्ध इन सार्वभौमिक मूल्यों से होता है:

1. बौद्धिक पक्ष (Intellect)― सत्य ।

2. शारीरिक पक्ष (Physical)—सही कार्य करना/धर्म ।

3. भावनात्मक पक्ष (Educational)—शान्ति ।

4. मानविक पक्ष (Psyche)– प्रेम ।

5. आध्यात्मिक पक्ष (Spiritual)― अहिंसा

प्रत्येक मूलभूत अथवा सार्वभौमिक मूल्य के कई उपमूल्य (Sub-values) होते हैं,

जैसे :

1.Truth                                 सत्य के उप-मूल्य

Curiosity                                जिज्ञासा

Equality                                  समानता

Honesty                                   ईमानदारी

Integrity                                   सच्चाई

Intuition                                   अन्तप्रेरणा

Optimism                                आशावाद

Quest for knowledge             ज्ञान हेतु खोज

Reason                                    तर्क

Self-analysis                           स्व-विश्लेषण

Spirit of Inquiry.                      खोज करने की भावना

Synthesis                                 संश्लेषण

Truthfulness                            सत्यता

2. Righteousness               धर्म के उप-मूल्य

Cleanliness                          स्वच्छता

Contentment                        सन्तोष

Courage                                साहस

Defendability                        विश्वसनीयता

Duty                                       कर्त्तव्य

Ethics                                    नैतिकता

Gratitude                               कृतज्ञता

Goals                                     उद्देश्य

Good behaviour                   उत्तम व्यवहार

Healthy living                       स्वस्थ जीवनयापन

Helpfulness                         सहायता करना

Initiative                               उद्यमी होने का मूल्य

Leadership                           नेतृत्व

Perseverance                      निरंतरता

Proper use of time             समय का सदुपयोग

Resourcefulness                प्रसाधनशीलता

Respect                               सम्मान करना

Responsibility                     उत्तरदायित्व की भावना

Sacrifice                               त्याग

Self-confidence                  आत्मविश्वास

Self-sufficiency                   आत्म-निर्भरता

Simplicity                             सादगी

3. Peace                            शान्ति के उप-मूल्य

Attention                           सावधानी

Calm                                  शान्ति / स्तब्धता

Concentration                  ध्यानशीलता

Contentment                    धारणशीलता

Dignity                                गौरव – गरिमा

Discipline                           अनुशासन

Endurance                         सहनशीलता

Focus                                 ध्यान केन्द्रीकरण

Happiness                         प्रसन्नता

Honesty                             ईमानदारी

Humility                             विनम्रता

Inner silence                     आन्तरिक शान्ति

Optimism                          आशावाद

Patience                            धैर्य

Reflection                          चिन्ता

Satisfaction                       सन्तुष्टि

Self-acceptance                स्वयं को स्वीकारना

Self-confidence                 आत्मविश्वास

Self-control                        आत्म-नियंत्रण

Self-discipline                    स्वशासन (स्व-अनुशासन)

Self-respect                        आत्म-सम्मान

Understanding                   समझ

4. Love                                 प्रेम के उप-मूल्य

Caring                                   देखभाल/परचिन्ता करना,

Compassion                         दया/सहृदयता

Dedication                             समर्पण भाव

Devotion                                 भक्ति

Friendship                               मित्रता

Forgiveness                            क्षमा

Generosity                               उदारता

Helping                                     सहायता करना

Inner happiness                       आन्तरिक शान्ति

Joy                                              प्रसन्नता

Kindness                                     दया

Patience                                      धैर्य

Sharing                                        शेयर करना (बाँटना)

Sincerity                                      विश्वासपात्रता

Sympathy                                     सहानुभूति

Tolerance                                     सहनशीलता

5. Non-violence                           अहिंसा के उप-मूल्य

Compassion                                 करुणा भाव

Concern for others                      दूसरों का हित-चिन्तन

Consideration                               दूसरों के प्रति ख्याल करना

Cooperation                                   सहयोग

Forgiveness                                   क्षमाशीलता

Good manners                               उत्तर आचार के गुण

Loyalty                                             भक्ति/निष्ठा

Universal love                                 सार्वभौमिक प्रेम

Unwillingness to hurt                     किसी को चोट पहुँचने की अनिच्छा

Appreciation of other cultures      अन्य संस्कृतियों का आदर करना।

Brotherhood                                      भ्रातृत्व भाव

Citizenship                                         नागरिकता

Equality                                               समानता

National awareness                          राष्ट्रीय चेतना

Respect for property                         सम्पत्ति के प्रति आदर

Service to others                               दूसरों की सेवा

Social justice                                     सामाजिक न्याय

Unity                                                    एकता

प्रश्न 3. नैतिक मूल्य (Moral Values) पर टिप्पणी लिखें ।

उत्तर—नैतिक मूल्य–मनुष्य एक सामाजिक प्राणी हैं। उसे दूसरों के साथ नैतिकता

के साथ रहना चाहिए। 1959 में श्रीप्रकाश के नेतृत्त्व में एक धार्मिक और नैतिक शिक्षा

की समिति भारत सरकार ने नियुक्त की थी। अपनी रिपोर्ट में नैतिकता मूल्यों के बारे में

उस समिति ने यह कहा था :

        (i) “नैतिक मूल्यों का विशेष रूप से अर्थ है मानव का आचरण या व्यवहार जो दूसरे

व्यक्ति के प्रति विभिन्न परिस्थितियों में होता है।” “Moral values particularly refer

to the conduct of man towards man in various situations in which human

beings come together in thw home, in social and economic fields, and in

 the life of the outside world generally.”

          (ii) “वह कोई भी चीज जो हमें दूसरों के साथ सही प्रकार का सद्व्यवहार करने में

सहायता करती है वह नैतिक मूल्य ।’

        (iii)”वह कोई भी चीज तो हमें अपनेपन से बाहर ले जाती है और दूसरों या किसी

बड़े कारण की भलाई के लिए त्याग करने को प्रेरित करती है वह आध्यात्मिक मूल्य होती है।”

        इस प्रकार नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों में अंतर होता है। नैतिक मूल्यों में सद्गुणों

(good manners), तहजीव या तमीज का प्रमुख स्थान होता है। एक नैतिक व्यक्ति वह

होता है जो स्वयं पर नियंत्रण रखता है, रूखे ढंग से नहीं बोलता, चोरी नहीं करता,

व्याभिचार, लोभ, अन्याय, दगाबाजी नहीं करता, किसी दूसरे को हानि पहुँचाने का प्रयास

नहीं करता । वह सांस्कृतिक मर्यादाओं और प्रतिमाओं का स्वागत करता है, उनको मानता

है। वह अपने धर्म, संस्कृति व समाज में मान्य प्रतिमाओं के अनुसार कार्य करता है।

पर-धन, पर-स्त्री तथा पर वस्तु को पाने का विचार तक नहीं लाता। सभी धर्मों और

संस्कृतियों में विविध नैतिक मूल्यों को बतलाया गया है जिनके अनुसार व्यवहार करना सभी

सदस्यों के लिए आवश्यक होता है। सभी में दया, करुणा, ममता, प्रेम, सहृदयता के मूल्यों

पर बल दिया जाता है।

          फ्रेंच शिक्षा समाजशास्त्री दुर्खीम ने अपनी विख्यात पुस्तक ‘Moral Education’ में

बताया है कि नैतिकता के तीन प्रमुख तत्त्व होते हैं—अनुशासन की भावना, त्याग की भावना

और आत्म-निर्भरता ।

                                    Spirit of discipline

                                                     ↑

                                              (Morality)

                ↓___________________|__________↓

Spirity of sacrifice                                Spirit of autonomy

(self-dependence)

                         Three Main Elements of Morality

                                     (Emile Durkhenim)

      राज्य शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद् (S.C.E.R.T.) नई दिल्ली के प्राध्यापक

डी. वी. सिंह ने अपने प्रकाशन ‘माध्यमिक विद्यालयों में नैतिक शिक्षा’ (2000) में बताया

है कि, लारेंस, कोहलबर्ग, आदि विद्वानों के अनुसार व्यक्ति में नैतिकता के विकास के तीन

स्तर होते हैं :

(1) पूर्व नैतिक स्तर (Pre Moral Level)—इस समय बालक न नैतिक होता है,

न अनैतिकता। उसका व्यवहार स्व-केन्द्रित होता है। वह दण्ड से बचने और स्वीकृति या

पुरस्कार पाने हेतु कार्य करता है। प्रशंसा और प्रताड़ना के कारण वह व्यवहार की अच्छाई

या बुराई को जानता है। इस स्तर पर वह व्यवहार के लिए प्रेरणाएं प्राप्त करता है।

(2) परम्परागत भूमिका निर्वहन का नैतिक स्तर (Moral Level of Traditions

Role Discharge) — इस स्तर पर बालक यह सीखता है कि समाज के अनुसार क्या

अच्छा है, क्या बुरा है ? वह समाज में प्रचलित परम्पराओं और मान्यताओं के अनुसार

व्यवहार कनरना सीखता है।

(3) स्वयं स्वीकारे गये नैतिक सिद्धांतों का नैतिक स्तर (Moral Level of Self

Accepted Moral Principles) — इस स्तर पर व्यक्ति का व्यवहार उसकी अन्तआत्मा

और दूसरों के अधिकारों का सम्मान करने के सिद्धांत से संचालित होता है, उसका

अन्तःकरण पूर्णतया जागृत होता है।

            नैतिक मूल्यों को निम्नांकित क्षेत्रों में बाँटा जा सकता हैं :

(i) आत्मोकर्ष–स्व से प्रेम

(ii) मानव मात्र से प्रेम

(iii) सत्य से प्रेम

(iv) शिष्टाचार से प्रेम

(v) न्याय से प्रेम

(vi) परानुभूति

(vii) लोकतंत्र से प्रेम

(viii) समतावाद से प्रेम

(ix) पंथ निरपेक्षता से प्रेम

(x) कर्त्तव्य और श्रम से प्रेम

(xi) ज्ञान-विज्ञान से प्रेम

(xii) प्रकृति से प्रेम

(xiii) अनास्ति से प्रेम

(xiv) राष्ट्र से प्रेम

      राष्ट्रीय मुक्त विद्या शिक्षा संस्थान, नई दिल्ली के प्रकाशन ‘मानवीय मूल्य विकास :

व्यावहारिक आचरण’ (भाग-2) में यह बतलाया गया है कि नैतिक मूल्यों की शिक्षा प्रदान

करने में व्यक्ति के विकास में निम्नांकित तीन सोपानों को ध्यान में रखना चाहिए :

          प्रथम सोपान (First Stage)― प्रत्येक व्यक्ति को ऐसी नैतिक शिक्षा देनी है जिससे

उसके स्वभाव में साधुता आ सके और वह अपने जीवन को सुखी बना सके। वह सदा नैतिक

व्यवहार करे और अपने भाव, भाषा, वेश-भूषा तथा भोजन को सात्विक तथा सन्तुलित रखे।

      द्वितीय सोपान (Second Stage) — इस स्तर पर व्यक्ति से यह आशा की जाती है

कि वह सामान्य रूप में और समस्या उत्पन्न होने पर ऐसा व्यवहार करे जिससे वह उस

समस्या को सहज रूप से हल कर सके। वह अपने व्यक्तिगत गुणों और सामाजिक मूल्यों

की रक्षा कर सके ।

        तृतीय सोपान (Third Stage) — इस स्तर पर व्यक्ति से यह आशा की जाती है कि

वह अन्य लोगों की समस्याओं को समझ सके, उनके प्रति संवेदनशील बन सके और उनकी

समस्याओं को हल करके उनकी मदद कर सके। उसको उनके प्रति सहयोगी बनना चाहिए।

         प्रो. धर्मपाल मैंनी ने अपनी पुस्तिका ‘भारतीय जीवन-मूल्य’ में कहा है-नैतिक जीवन

मूल्यों में कर्त्तव्यपालन, ईमानदारी, त्याग, बलिदान, परोपकार, सेवा, सदाचार, शिष्ट व्यवहार,

सत्यनिष्ठा, व्यवस्था के प्रति आदर को लिया जा सकता है।

प्रश्न 4. डायरी लिखना क्या है ? शिक्षक अपने कार्यों के विश्लेषण के लिए

दैनिक रिफ्लेक्टिव डायरी कैसे लिखेंगे एवम् उसको स्वयं को समझने के लिए प्रयोग

कैसे करेंगे ? उदाहरण द्वारा स्पष्ट करें ?

उत्तर―डायरी लिखने की शुरूआत मन की बातों को अभिव्यक्ति देने की जरूरत से

जन्म ले सकती है। डायरी लिखना रोज के अनुभवों को लिपिबद्ध करने का एक बहाना

भी हो सकता है। डायरी लिखते समय हमें भाषा की गलतियों की परवाह किए बिना

सीधे-सपाट शब्दों में अपनी बात लिखते चलना चाहिए।

    लिखते समय मन में आने वाले सवालों, उलझनों, भावनाओं, हलचलों को ज्यों का त्यों

व्यक्त करने की कोशिश करनी चाहिए। डायरी में निजता का भाव होता है। यह हमारा

वह स्पशे होता है, जहाँ हम खुद का सामना बिना किसी मुखौटे के करते हैं। डायरी लेखन

के दौरान हम खुद को अपने ज्यादा करीब होने का मौका देते हैं। इसमें भाषा का सवाल

भी हो सकता है कि किस भाषा में डायरी लिखें तो जहाँ तक संभव हो अपनी मातृभाषा

में लिखने की कोशिश करनी चाहिए। बाकी किसी नई भाषा में भी डायरी लिखी जा सकती

है।

    शिक्षकों को विद्यालय में किए जाने वाले कार्यों के लिए एक सुनियोजित योजना बनानी

चाहिए। इन्हीं के अनुसार अपने कार्यों की व्यवस्था करनी पड़ती है। शिक्षक इन्हीं कार्यों

के विश्लेषण के लिए दैनिक रिफ्लेक्टिव डायरी लिखते हैं और खुद को समझने के लिए प्रयोग

करते है। इनको उदाहरण द्वारा स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है।

          वर्ग कक्षा में इतिहास का पाठ शुरू किया। पाठ शुरू करने के लिए समय रेखा व

मानचित्र का इस्तेमाल किया गया। बच्चों से पहले के पाठों की जानकारी जानने के लिए

सवाल पूछे। बच्चे पहले के पाठ के बारे में कुछ भी बता नहीं पा रहे थे। जब उनसे

महाजनपद और मौर्य वंश के बारे में पूछा तो वे नहीं बता पाए। यहाँ फिर मैंने सवाल में

तब्दीली की और विशिष्ट जानकारी वाले सवाल पूछे। जैसे मौर्य वंश का एक महान शासक

कौन था, जिसके बारे में आपने किताब में पढ़ा। बच्चे नहीं बता पाए। फिर मैंने और भी

संकेत दिए। जैसे उनके ऊपर फिल्म भी बनी है। उनका चक्र हमारे राष्ट्रीय झण्डे में लगा

है। यह सुनकर दो बच्चों ने जवाब दिया “अशोक” । मुझे थोड़ी खुशी हुई। फिर मैंने मौर्य

वंश पर थोड़ी बातचीत की ताकि पुरानी पढ़ी जानकारी से सम्बन्ध बने। इसके बाद समय

रेखा की सहायता ली। इससे बताया कि मौर्य साम्राज्य किस समय था। बच्चों को समय

रेखा समझने में बहुत दिक्कत हुई क्योंकि उन्हें ईसवी और ईसा पूर्व के बारे में पता नहीं

था। मैंने समझाया, फिर भी काफी समस्या हो रही थी । यहाँ घटनाओं का उदाहरण लेना

पड़ा। जैसे बुद्ध का जन्म, अशोक का समय। इस तरह के उदाहरण देकर समझाया तब

बच्चों को समझ आने लगा। मुझे रोजाना इसके लिए थोड़ा समय निकालना पड़ेगा ताकि

समय रेखा को लेकर उनकी समझ विकसित हो सके।

प्रश्न 5. अपने खूबियों को पहचानने के क्या तरीके हैं ? उसे प्रदर्शित एवं शिक्षण में प्रयोग

किस प्रकार करेंगे ? उदाहरण द्वारा स्पष्ट करें ।

उत्तर — अपने खूबियों को पहचानने के लिए पहले अपने बारे में जानना जरूरी है।

जब आप अपने को जान पाते है तब आप अपने खूबियों को पहचान पाते हैं ।

       हर कामयाब व्यक्ति में कुछ न कुछ विशेष गुण व योग्यता होती है। मगर उससे भी

खास बात यह होती हैं कि वे एक अच्छे सपने देखने वाले होते हैं। उनके जीवन की तमाम

इच्छाएँ उनके सपनों के साथ जुड़ी होती हैं। कोई भी चीज तब तक नहीं मिल पाती, जब

तक कि उसके बारे में एक विचार न जन्म ले, जब तक कि किसी के मन में उस चीज

को लेकर कोई सपने न जन्म ले। अपने भविष्य का आइना होते है। हर कामयाब व्यक्ति

के मन में अपने जीवन को बेहतर बनाने के कुछ सपने होते है……. एक बेहतर भविष्य कि

उम्मीदें होती है….उनके मन में कुछ न कुछ पहले से आभास होता है और वे उस दिशा

में सब कुछ करते है। उनकी हिम्मत, उनकी इच्छा शक्ति मजबूत होती जाती है।

इच्छाशक्ति किसी भी सपने के साकार होने में हौसला बढ़ाने का काम करती है। आपकी

इच्छाशक्ति आपको सपने देखने को उकसाती है। फिर जैसे-जैसे आपके अंदर सपने

विकसित होते जाते हैं तो आपके मन में जीवन और भविष्य कि एक बेहतर, साफ तस्वीर

उभरनी शुरू हो जाती है। फिर आप इस दिशा में सोचना शुरू कर देते हैं, कि किस तरह

उन सपनों को साकार किया जाए। इस प्रकार से आप अपने खूबियों को पहचान पाते हैं।

      अपने खूबियों को प्रदर्शित करने के लिए कुछ बिंदुओं अपने जीवन में शामिल करना

जरूरी है। जैसे-लक्ष्य (goal), योजना (plan), विश्वास (belief), कर्म (object) । इन्हीं

बिंदुओं को हम एक शिक्षक के रूप में शिक्षण में शामिल कर सकते हैं। उदाहरण स्वरूप

अगर कोई व्यक्ति अपने जीवन में एक सफल व्यक्तिव का इंसान बनना चाहता है तो उनको

निम्न बिंदुओं पर अनुसरण करना जरूरी है तभी वो एक कामयाब इंसान बन पाएगा।

विद्यालय में शिक्षक के द्वारा बच्चों का व्यक्तित्व का विकास किया जा सकता है।

शिक्षालय के पर्यावरण का भी बालक के मानसिक स्वास्थ्य पर पर्याप्त प्रभाव पड़ता है।

उसका अपने शिक्षक तथा सहपाठियों से जो सामाजिक संबंध होता है वह अत्यंत महत्त्वपूर्ण

है। बच्चों को शिक्षा देने के लिए सबसे पहले तो उन्हें प्यार करना चाहिए | शिक्षक जब

बच्चों को प्यार करता है, अपना हृदय उन्हें अर्पित करता है, तभी वह उनमें श्रम की खुशी,

मित्रता व मानवीयता की भावनाएँ भर सकता है। शिक्षक को बाल हृदय तक पहुँचना है।

उनकी हित-चिंता उसका महत्त्वपूर्ण कार्य-भार है। वह ऐसा वातावरण बनाए विद्यालय घर

बन जाए।

         जहाँ भय न सौहार्द हो । केवल तभी वह बच्चों को अपने परिवार, स्कूल और देश से

प्रेम करना सिखा सकेगा, उनमें श्रम और ज्ञान पाने की अभिलाषा जगा सकेगा। बाल हृदय

तक पहुँचना यही है। शिक्षण का सार है—छात्रों और शिक्षकों के मन का मिलन । सद्भावना

और विश्वास का वातावरण । परिवार जैसा स्नेह और सौहार्द ।

      बच्चों के प्रकृति-प्रदत्त गुणों को मुखारित करना, उनके नैतिक गुणों को पहचानना और

सँवारना, उन्हें सच्च ईमानदार और उच्च आदर्शों के प्रति निष्ठावान नागरिक बनाना शिक्षक

का ध्येय है।

प्रश्न 6. कार्यशाला में प्रेरणादायक कहानियों, फिल्मों आदि पर चर्चा करने का

क्या महत्व है। इससे शिक्षकों की अस्मिता एवं उनके कार्यों पर क्या असर पड़ता

है? कार्यशाला में किस तरह की कहानियों और फिल्मों को शामिल करना चाहिए ?

उत्तर–साहित्य की सभी विधाओं में ‘कहानी’ सबसे पुरानी विधा है, जन जीवन में यह

सबसे अधिक लोकप्रिय है। प्राचीन कालों में कहानियों को कथा, आख्यायिका, गल्प आदि

कहा जाता है। आधुनिक काल में कहानी ही अधिक प्रचलित है। साहित्य में यह अब अत्यंत

महत्वपूर्ण स्थान बना चुकी है। पहले कहानी का उद्देश्य उपदेश देना और मनोरंजन करना

माना जाता है। आज इसका लक्ष्य मानव-जीवन की विभिन्न समस्याओं और संवेदनाओं को

व्यक्त करना है। यही कारण है कि प्राचीन कथा से आधुनिक हिन्दी कहानी बिल्कुल भिन्न

हो गई उसकी आत्मा बदली है और शैली भी। इसी तरह फिल्म मनोरंजन का एक ऐसा

साधन जिसमें कोई कहानी घटित होती है और चलती-फिरती छवियों के कारण जिसमें

निरंतरता का आभास होता है।

              समय-समय पर शिक्षकों के द्वारा कार्यशाला का आयोजन किया जाना चाहिए।

कार्यशाला के आयोजन से बच्चों का मानसिक व बौद्धिक गतिविधियों का काफी विकास होता

है। बच्चों की सोचने समझने की क्षमता का विकास होता है। कार्यशाला के आयोजन करने

से बच्चों को किसी भी विषय वस्तु को समझाने में शिक्षकों को काफी मदद मिलती हैं। इस

प्रकार के आयोजनों से समाज में शिक्षकों की काफी प्रशंसा होती हैं जिससे शिक्षकों को भी

आगे कुछ नया करने की प्रेरणा मिलती हैं। शिक्षक का हौसला अफजाई होती है।

कार्यशाला का उद्देश्य बच्चों की सृजनात्मकता का विकास, उनकी सोचने की क्षमता

का विकास इत्यादि से है। कहानी आज के समय को ध्यान में रख कर होनी चाहिए। कहानी

में वह अंतर्दृष्टि हो जो दूसरों के हृदय में पैठ कर उन की वेदना स्वयं महसूस कर सके।

यथार्थ और कल्पना का खूबसूरत मेल कहानी के रूप में निखर कर आता है। इसी तरह

फिल्म के कहानी में एक बेहतर स्पष्ट शुरूआत, बीच का भाग और सुनियोजित अंत होना

चाहिए। अलग-अलग सामाजिक मुद्दों पर फिल्म बननी चाहिए। जागरूकता, प्रोत्साहित

करने के उद्देश्य आयोजित फिल्मों को कार्यशाला में शामिल करना चाहिए।

प्रश्न 7. निम्न पर टिप्पणी करें ।

1. पाठ योजना

2. पाठ टीका

3. शिक्षक डायरी

4. व्यक्तित्व

5. अभिवृत्ति

6. वृत्तिक विकास ।

उत्तर – 1. पाठ योजना–पाठ योजना एक पाठ को पढ़ाने के उद्देश्य, सामग्री और

समय-सीमा का विवरण देती है। यह कक्षा में पाठ से संबंधित गतिविधियों, संसाधनों के

उपयोग आदि के बारे में बताती है। पाठ योजना तकनीकी तौर पर स्कूल से संबंधित होती

है इसलिए इसे औपचारिक रूप से बनाया जाता है।

2. पाठ टीका–पाठ टीका एक अध्यापक अपने आपको एक पाठ के बारे में कुछ

बातें याद दिलाने के लिए बनाता है। उदाहरण के लिए, व्यक्तिगत छात्र की जरूरतों, विशेष

पाठ्यक्रम संबंधी सामग्री और किसी भी अतिरिक्त जानकारी के बारे में, जो उसको पाठ के

अंत से पहले विद्यार्थियों को प्रदान करने की आवश्यकता होती है।

3. शिक्षक डायरी—किसी कार्य को सुचारू रूप से करने के लिए अभिलेखीकरण

की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। बिना अभिलेखीकरण के किसी कार्य को पूरी प्रमाणिकता

के साथ करना लगभग असम्भव हो जाता है। एनसीएफ 2005 में अध्यापकों से की गई

अपेक्षाएँ बिना अध्यापक डायरी के पूरी नहीं हो सकती। बिना डायरी की सहायता के

विद्यार्थियों को उनकी आवश्यकतानुसार शिक्षित नहीं किया जा सकता है। इस प्रकार हम

कह सकते हैं कि अध्यापक डायरी अध्यापक की विश्वसनीय सहयोगी होती है । एनसीएफ

2005 की अपेक्षाओं को पूरा करने में अध्यापक डायरी “मील का पत्थर” साबित हो रही

है।

4. व्यक्तित्व—‘व्यक्तित्व’ अंग्रेजी के पर्सनेल्टी (Personality) का पर्याय है । पर्सनेल्टी

शब्द की उत्पत्ति यूनानी भाषा के ‘पर्सोना’ शब्द से हुई है, जिसका अर्थ है ‘मुखोटा

(Mask)’। उस समय व्यक्तित्व का तात्पर्य बाह्य गुणों से लगाया जाता था। यह धारणा

व्यक्तित्व के पूर्ण अर्थ की व्याख्या नहीं करती।

               व्यक्तित्व की कुछ आधुनिक परिभाषाएँ दृष्टव्य है―

(क) गिलफोर्ड–व्यक्तित्व गुणों का समन्वित रूप है।

(ख) वुडवर्थ―व्यक्तित के व्यवहार की एक समग्र विशेषता ही व्यक्तित्व है।

(ग) मार्टन–व्यक्तित्व व्यक्ति के जन्मजात तथा अर्जित स्वभाव, मूल प्रवृत्तियों,

भावनाओं तथा इच्छाओं आदि का समुदाय है।

(घ) बिग एवं हंट―व्यक्तित्व व्यवहार प्रवृत्तियों का एक समग्र रूप है, जो व्यक्तित

के सामाजिक समायोजन में अभिव्यक्त होता है।

(ङ) ऑलपोर्ट—व्यक्तित्व का सम्बन्ध मनुष्य की उन शारीरिक तथा आन्तरिक

इतियों से है, जिनके आधार पर व्यक्ति अपने वातावरण के साथ समायोजन स्थापित करता

है।

    इस प्रकार हम निष्कर्ष रूप में कह सकते हैं, कि व्यक्तित्व एक व्यक्ति के समस्त

मानसिक एवं शारीरिक गुणों का ऐसा गतिशील संगठन है, जो वातावरण के साथ उस व्यक्ति

का समायोजन निर्धारित करता है।

5. अभिवृत्ति—अभिवृत्ति (Attitude) मनुष्य की वह सामान्य प्रतिक्रिया है जिसके द्वारा

वस्तु का मनोवैज्ञानिक ज्ञान होता है। इसी आधार पर व्यक्ति वस्तुओं का मूल्यांकन करता

है। कुछ पाश्चात्य वैज्ञानिकों ने अभिवृत्ति को मनुष्य की वह अवस्था माना है जिसके द्वारा

मानसिक तथा नाड़ी-व्यापार-संबंधी अनुभवों का ज्ञान होता है। इस विचारधारा के प्रमुख

प्रवर्त्तक औलपार्ट हैं। उनके सिद्धांतों के अनुसार अभिवृत्ति जीवन में वस्तुबोधन का मुख्य

कारण है। इस परिभाषा के द्वारा अभिवृत्ति वह सामान्य प्रत्यक्ष है जिसके द्वारा मनुष्य

भिन्न-भिन्न अनुभवों का समन्वय करता है। यह वह मापदंड है जिसके द्वारा व्यक्तित्व के

निर्माण में सामाजिक तथा बौद्धिक गुणों का समावेश होता है। मनोवैज्ञानिकों ने अभिवृत्तियों

का विभाजन, उनके वस्तु आधार, उनकी गहनता तथा उनकी प्रतिक्रिया के आधार पर किया

है। इसका घनिष्ठ संबंध व्यक्ति के अमूर्त विचार तथा कल्पना से ही है । अभिवृत्ति का जन्म

प्रायः चार साधनों से होता हुआ देखा गया है-प्रथम समन्वय द्वारा, द्वितीय आघात द्वारा,

तृतीय भेद द्वारा तथा चतुर्थ स्वीकरण द्वारा। यह आवश्यक नहीं है कि ये यंत्र स्वतंत्र रूप

से ही कार्य करे ऐसा भी देखा गया है कि इनमें एक या दो कारण भी मिलकर अभिवृत्ति

को जन्म देते हैं ।

6. वृत्तिक विकास–वृत्तिक विकास एक व्यक्ति के जीवन की एक महत्वपूर्ण एवं

जीवन पर्यन्त प्रक्रिया है । यह बहुत से कारकों से प्रभावित होती है, जैसे—परिवार, व्यक्तिगत

मापदंड, रुचि, अभिरुचि और समाज ।

      नेशनल वोकेशनल गाइडेंस एसोसिएशन (1924) द्वारा वृत्तिक विकास पर प्रकाश डाला

गया। इस एसोसिएशन ने अपनी रिपोर्ट में व्यावसायिक निर्देशन को परिभाषित करते हुए

लिखा कि ‘व्यवसाय निर्देशन एक व्यवसाय को चुनने, उसके तैयार होने उसमें प्रवेश तथा

उनमें विकास करने हेतु सूचना देने तथा सुझाव देने की पद्धति है।

प्रश्न 8. एक शिक्षक को अपने व्यक्तित्व को समझने की जिज्ञासा क्यों

आवश्यक है ? इसमें ‘मैं कौन हूँ’ सेल्फ बनाम ईगो’ तथा शिक्षक अस्मिता के विभिन

पहलुओं के आधार पर वर्णन करें ।

      उत्तर–प्रत्येक व्यक्ति में कुछ विशेष गुण या विशेषताएँ होती हैं जो दूसरे व्यक्ति में

नहीं होती। इन्हीं गुणों एवं विशेषताओं के कारण ही व्यक्ति एक-दूसरे से भिन्न होता है।

किसी व्यक्ति का एक शिक्षक के तौर पर उनका जो व्यक्तित्व निर्मित होता है, उसमें

उनके जीवन अनुभव, व्यक्तिगत सोच एवं सामाजिक मान्यताएँ शामिल रहते हैं। वास्तव में

शिक्षकों का धर्म विद्यार्थियों में सद्गुणों की वृद्धि कर उन्हें संजोना है, क्योंकि विद्यालय से

निकले हुए सद्गुणी विद्यार्थी का ही समाज को लाभ होता है। समाज और राष्ट्र को खरे

अर्थ से (वास्तविक रूप से) सक्षम और गुणों से युक्त परिपूर्ण नागरिक देना ही शिक्षकों का

धर्म है। चिंतन करने पर यह ध्यान में आता है कि हमारे द्वारा सदगुणी नागरिक नहीं बनाए

जाते। इसका अर्थ यह है कि हम अपने शिक्षक धर्म का पालन नहीं करते।

      शिक्षक कहते हैं कि विद्यार्थियों को अच्छे अंक मिलने से हमारा कर्तव्य पूर्ण हो जाता

हैं, परंतु इससे उनकी कर्तव्यपूर्ति नहीं होती। गुणों से विद्यार्थियों को नौकरी और पैसा तो

मिल जाता हैं परंतु वे प्रेम से, प्रामाणिकता से और नीतिमत्ता से समाज की सेवा करेंगे इसकी

निश्चितता नहीं हैं। इसलिए आज हमें प्रत्येक कार्यालय में भ्रष्ट अधिकारी देखने को मिलते

है। वे निर्लज बनकर भ्रष्टाचार करते हैं। उन्हें यह भान भी नहीं होता कि वे किसी को क्या

कष्ट दे रहे हैं।

         यदि इस परिस्थिति से बाहर निकलना है तो नटखट और दुर्गुणी बालक भी ईश्वर के

नाम जपने से परिवर्तित हो सकता है, यह दूंढ श्रर्धा शिक्षक अपने में विकसित करे तथा

संस्कार वर्ग के माध्यम से खरे अर्थ से राष्ट्र कार्य करें। यही शिक्षकों का वास्तविक धर्म

और कर्तव्य है

        ‘मैं कौन हूँ ?’–मनुष्य के जन्म के साथ ही विभिन्न संबंधों में यह भ्रम हो जाता है

कि ‘मैं कौन हूँ’ ? यह जिज्ञासा यौगिक है। शरीर एक प्रकार से वस्त्र की भांति है। यह

शरीर छूटा, दूसरा पुनः मिल गया। मृत्यु के उपरांत पुरुष कीट-पतंग, पशु-पक्षी या अन्य

रूपों में पुनः जन्म लेता है। हर हालत में योनि पाता है। अतः यह प्रश्न ज्यों का त्यों है

कि ‘मैं कौन हूँ’ ?–वेदांत का यह प्रिय विषय है।

        वास्तव में जब दृष्टय यह आत्मा अपने स्वरूप में स्थिर हो जाता है तो वहीं आपका

वास्तविक स्वरूप है। अगर आप खुद को अच्छी तरह जानते हैं और यह भी जानते हैं कि

आप किन सिद्धांतों पर चलते है तो गलत चीजों को करने के लिए उकसाए जाने पर भी

आप अपने सिद्धांतों पर कायम रहेंगे।

        ‘सेल्फ बनाम ईगो’—सेल्फ या स्वयं को हम आंतरिक चिंतन से लेकर बाह्य व्यवहार

के श्रोता के तौर पर समझ सकते है। इस संदर्भ में शिक्षकों को यह समझना जरूरी है कि

एक शिक्षक या शिक्षिका के तौर पर उनका जो व्यक्तित्व निर्मित होता है, उसमें उनके जीवन

अनुभव, व्यक्तिगत सोच एवं सामाजिक मान्यताएँ भी शामिल रहते हैं और इन सबके साथ

वे अपनी कक्षाओं में शिक्षण कार्य करते हैं। अतः इनकी व्यापक समझ हर शिक्षक को होनी

चाहिए ताकि वह अपनी कक्षा शिक्षण को प्रभावी बनाने में इनका सकारात्मक उपयोग कर

सकें।

     ईगो शब्द का अर्थ अहंकार । ईगो दो प्रकार का होता है। 1. झूठा अहंकार 2. सच्चा

अहंकार । ईगो हमारी सूक्ष्म शरीर का एक अंग हैं—मन, बुद्धि, अहंकार । उसमें झूठा

अहंकार ये है कि मैं अपने आप को ये शरीर मान लूं और इस शरीर के संबंधसा की सारे

चीज को अपना मान लूं – ये झूठा अहंकार है और सच्चा अहंकार-मैं अपने आप को

आत्मा मान लूं और आत्मा का भगवान ईश्वर को मान लूं तो ये सच्चा अहंकार है।

प्रश्न 9. शिक्षक अपनी आत्म-अभिव्यक्ति की समझ किस प्रकार करेंगे ? इसे

अपनी स्वीकार्यता, स्वाभिमान, आत्मविश्वास तथा आत्म-अभिप्रेरणा के संदर्भ में

बताएँ ।

उत्तर–आत्म-अभिव्यक्ति का अर्थ विचारों के प्रकाशन से है। व्यक्तित्व के समायोजन

के लिए मनोवैज्ञानिकों ने आत्म अभिव्यक्ति को मुख्य साधन माना है। इसके द्वारा मनुष्य

अपने मनोभावों को प्रकाशित करता तथा अपनी भावनाओं को रूप देता है।

      शिक्षक अपनी आत्म अभिव्यक्ति की समझ अपने आप को जानकर, अपने आपको

समझकर कर सकते हैं। एक शिक्षक के रूप में हमें यह ज्ञात होना चाहिए कि हमारे

क्या-क्या कर्तव्य हैं ? हमारे कंधों पर कितनी बड़ी जिम्मेदारी है ? वर्तमान युग है आधुनिकता

का, वैज्ञानिकता का, व्यस्तता का, अस्थिरता का, जल्दबाजी का। आज का विद्यार्थी जीवन

भी इन्हीं समस्याओं से ग्रसित है। आज का विद्यार्थी जीवन पहले की तरह सहज, शांत और

धैर्यवान नहीं रह गया है क्योंकि आगे बढ़ना उनकी नियति, मजबूरी बन गई है। वह इसलिए

कि यदि ऐसा नहीं तो जिंदगी की दौड़ में वह पीछे रह जाएगा, तो यह वक्त का तकाजा

है। ऐसे समय में विद्यार्थी जीवन को एक सही, उचित, कल्याणकारी एवं दूरदर्शी दिशा निर्देश

देना एक शिक्षक का पावन कर्तव्य है।

        स्वीकार्यता—स्वीकार्यता निश्चित नियमों या आधारों के अनुकूल व्यक्ति, वस्तु या भाव

अंतर्गृहित करने का भाव है।

      शिक्षक होने के नाते अगर हम अपने कर्तव्यों का पालन सही ढंग से करते है तथा हमारी

जो उद्देश्य है, उनको पूरा करने की प्रति समर्पित रहते है तो निश्चित रूप से समाज में हमारी

स्वीकार्यता सफल होगी।

                स्वाभिमान–स्वाभिमान इंसान के व्यक्तित्व का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। अगर

आपमें स्वाभिमान की भावना है तो यह आपके लिए मानसिक शान्ति प्राप्त करने की चाभी

की भूमिका निभाता है। स्वाभिमान एक ऐसा एहसास है जो काम को समझने और चुनौतियों

को स्वीकार करने से आता है। अगर आपके अंदर स्वाभिमान का भाव जागृत होता है तो

आप सभी को सम्मान और सहजता से स्वीकार करते हैं।

          एक शिक्षक के अंदर स्वाभिमान का होना बहुत जरूरी है। शिक्षक के सामने बहुत

सारी चुनौतियाँ रहती है। उन चुनौतियों से सफलता व धैर्य पूर्वक लड़ने की क्षमता शिक्षक

में ही होती है इन पर विजय के उपरान्त ही स्वाभिमान की भावना जागृत होती है।

            आत्म-विश्वास—आत्म-विश्वास (Self confidence) वस्तुतः एक मानसिक एवं

आध्यात्मिक शक्ति है । आत्मविश्वास से ही विचारों की स्वाधीनता प्राप्त होती है और इसके

कारण ही महान कार्यों के सम्पादन में सरलता और सफलता मिलती है। इसी के द्वारा

आत्मरक्षा होती है। जो व्यक्ति आत्मविश्वास से ओत-प्रोत है, उसे अपने भविष्य के प्रति

किसी प्रकार की चिन्ता नहीं रहती। उसे कोई चिन्ता नहीं सताती । दूसरे व्यक्ति जिन सन्देहों

और शंकाओं से दबे रहते हैं, वह उनसे सदैव मुक्त रहता है। यह प्राणी की आंतरिक भावना

है। इसके बिना जीवन में सफल होना अनिश्चित है।

      आत्म-अभिप्रेरणा—जब हमें किसी वस्तु की आवश्यकता होती है तो हमारे अंदर एक

इच्छा उत्पन्न होती है, इसके फलस्वरूप ऊर्जा उत्पन्न हो जाती है, जो प्रेरक शक्ति को

गतिशील बनाती है । आत्म-अभिप्रेरणा इन इच्छाओं और आन्तरिक प्रेरकों तथा क्रियाशीलता

की सामूहिक शक्ति के फलस्वरूप है। उच्च प्रेरणा हेतु उच्च इच्छा चाहिए जिससे अधिक

ऊर्जा उत्पन्न हो और गतिशीलता उत्पन्न हो । आत्म-अभिप्रेरणा द्वारा व्यवहार को अधिक

दृढ़ किया जा सकता है।

प्रश्न 10. एक शिक्षक को अपने स्वयं के व्यक्तित्व का विश्लेषण करना क्यों

आवश्यक है ? शिक्षा के संदर्भ में इसका क्या महत्व है ?

उत्तर–मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से व्यक्तित्व का अर्थ काफी व्यापक है। व्यक्तित्व,

किसी व्यक्तित्व के संपूर्ण व्यवहार का द्योतक है। साधारणतः व्यक्तित्व का अर्थ व्यक्ति की

शारीरिक सौंदर्य, रंग, रूप, वेश भूषा, शहर शारीरिक बनावट आदि से लगाया जाता है। इन्हीं

लक्षणों के आधार पर हम किसी व्यक्तित्व के व्यक्तित्व का अनुमान लगा लेते हैं। किंतु

यह व्यक्तित्व का एक पहलू मात्र है।

          शिक्षक, शिक्षण प्रक्रिया का एक महत्वपूर्ण अंग है। शिक्षक के बिना शिक्षा की प्रक्रिया

सफल रूप से नहीं चल सकती । शिक्षक की क्रिया और व्यवहार का प्रभाव उसके विद्यार्थियों,

विद्यालय और समाज पर पड़ता है । अतः शिक्षक अपने कार्यों को सफलतापूर्वक एवं उचित

प्रकार से करने के लिए आवश्यक है कि अपने स्वयं के व्यक्तित्व को विभिन्न मापदंडों पर

विश्लेषण करें―

              (क) विषय का पूर्ण ज्ञान-एक कुशल शिक्षक में इस गुण का होना अति आवश्यक

है। शिक्षक को विषय का पूर्ण ज्ञान नहीं होगा तो वह विद्यार्थियों की विषय संबंधी समस्याओं

का समाधान नहीं कर पाएगा जिससे छात्र उसका आदर सम्मान नहीं करेंगे और न ही उसे

आत्म संतुष्टि हो पाएगी।

                 (ख) शिक्षण विधियों का प्रयोग—एक अच्छे शिक्षक में यह गुण होना भी

आवश्यक है कि छात्र उनकी बातों को अच्छी तरह से समझ सके इसके लिए छात्रों के

स्तरानुसार एवं विषय की प्रकृतिनुसार उचित शिक्षण विधि का प्रयोग करना चाहिए।

         (घ) व्यवसाय के प्रति रुचि निष्ठा― एक शिक्षक को अध्ययन व्यवसाय में रुचि

और उसके प्रति निष्ठा होनी चाहिए। उसे केवल अपनी कमाई का साधन ही ना समझे।

         (ङ) मनोविज्ञान का ज्ञान― एक शिक्षक उसी स्थिति में बालकों की समस्याओं का

समाधान कर सकता है जब वह उनसे परिचित हो । समस्याओं के संबंध में जानने के लिए

शिक्षक को मनोविज्ञान का ज्ञान होना आवश्यक है।

(च) समय का पाबंद―अच्छे शिक्षक का एक महत्वपूर्ण गुण उसका समय के प्रति

पाबंद होना है। वह समय पर विद्यालय में जाएं प्रार्थना सभा में उपस्थित हो तथा कालांश

प्रारंभ होते ही कक्षा में जाएं और कालांश समाप्ति के पूर्व क्लास छोड़ें। शिक्षक यदि समय

का पाबंदी नहीं है तो उसके विद्यार्थी भी समय के पाबंद नहीं हो सकते।

(छ) ज्ञान पिपासा–एक अच्छा शिक्षक वही है जिसमें हमेशा सीखने की ललक

बनी रहती है। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि ‘एक अच्छा शिक्षक वही है जो हमेशा

विद्यार्थी बना रहता है’ इससे शिक्षक का खुद का ज्ञान तो बढ़ता ही है साथ ही वह अपने

विद्यार्थियों को भी लाभ दे सकता है।

(ज) छात्रों के प्रति प्रेम व सहानुभूति― एक शिक्षक केवल अध्यापक के प्रति रुचि

रखें यह पर्याप्त नहीं है। उसे अपने विद्यार्थियों में भी रूचि रखनी चाहिए। बच्चों के द्वारा

पूछे गए प्रश्नों का संतोषजनक रूप से उत्तर देना चाहिए उनकी समस्याओं का सहानुभूति

पूर्ण समाधान करना चाहिए इससे बच्चे भी शिक्षक का आदर करेंगे ।

(झ) कुशल वक्ता–एक शिक्षक को अपनी बात को छात्रों तक पहुँचाने के लिए

उसे रुचि पूर्ण, अच्छे स्तर तथा निश्चित अर्थ वाले शब्द का प्रयोग करना चाहिए। साथ ही

प्रभावपूर्ण तरीके से बोलने में उसे झिझकना नहीं चाहिए। अत्यधिक गति से भी नहीं बोलना

चाहिए। दूसरे शब्दों में उसे अपनी बात इस प्रकार से रखनी चाहिए कि बच्चों पर उसका

प्रभाव पड़े और वे उसे सुनने में रुचि ले ।

(ट) धैर्यवान—एक अच्छे शिक्षक में धैर्य का गुण होना आवश्यक है। छात्रों के प्रश्न

पूछने पर उखड़ना नहीं चाहिए । बात-बात में झुंझलाना नहीं चाहिए बल्कि धैर्य के साथ सोच

समझकर उरके प्रश्नों के उत्तर देकर उन्हें संतुष्ट करना चाहिए।

          एक शिक्षक को अपने स्वयं के व्यक्तित्व के विभिन्न मापदंडों पर विश्लेषित करने का

प्रभाव शिक्षा पर पड़ता है क्योंकि शिक्षा का रीढ़ शिक्षक ही है। शिक्षक के बिना शिक्षा की

कल्पना नहीं की जा सकती। क्या अच्छा है क्या बुरा है क्या करना है क्या नहीं करना है

इत्यादि इनका ज्ञान शिक्षक से ही हमें प्राप्त होता है। अतः हम कह सकते हैं कि शिक्षक

के व्यक्तित्व का प्रभाव शिक्षा पर भी पड़ता है।

प्रश्न 11. शिक्षक अस्मिता के विभिन्न आयामों पर चर्चा करें तथा उनमें बदलाव की

समझ विकसित करें।

उत्तर― शिक्षक अस्मिता के तीन प्रमुख आयाम हैं―

(क) व्यक्तिगत–व्यक्तिगत अस्मिता एक अध्यापक के जीवन अनुभवों, मान्यताओं

व मूल्यों के लिए क्रियाकलापों के संदर्भ में निहित होता है। यह शिक्षक के व्यक्तिगत गुणों

व व्यवहारों का प्रत्यक्षीकरण है। शिक्षक का जीवन बेहद साधारण होता है। सभी सफल

व्यक्तित्व के पीछे एक गुरु की भूमिका जरूर रहती है। एक बच्चे को मार्गदर्शन देने के

साथ गुरु उसके व्यक्तित्व से भली-भाँति परिचित कराता है उसके अंदर छिपे गुणों को

निखारने का काम करता है।

            व्यक्तिगत तौर पर एक शिक्षक को बच्चों के साथ मित्रवत व्यवहार करना चाहिए।

शिक्षक को अपने आप को गाइड या फैसिलिटेटर की भूमिका में रखना चाहिए क्योंकि उनके

जीवन का अनुभव है बच्चों के लिए वरदान है। मान्यताओं पर बात करें तो उन्हें ईश्वर रूपी

दूसरा दर्जा प्राप्त है। भारतीय धर्म में तीन ऋणों का उल्लेख मिलता है। यह क्रमशः पित्र

ऋण, ऋषि ऋण और देव ऋण है। कहा जाता है कि इन तीनों ऋणों का सफलता से पूर्ण

करने पर मनुष्य का जीवन सफल हो जाता है। माता पिता की सेवा करने पर पितृ ऋण

से मुक्त हो जाता है। उसी प्रकार ऋषि ऋण से मनुष्य तब मुक्त हो जाता है जब विद्यार्थी

शिक्षा अध्ययन कर अपने माता पिता और शिक्षक को सम्मान देता है। प्राचीन काल में

विद्यार्थी गुरुकुल में शिक्षा प्राप्त करते थे। शिक्षा प्राप्ति के दौरान ही उन्हें शिक्षक के मूल्यों

का पता चल जाता है।

(ख) पेशेवर–पेशेवर अस्मिता अध्यापक के कार्यों को परिलक्षित करता है। इसमें

यह देखा जाता है कि शिक्षक अपने गुणों को पेशेगत रूप में कहाँ तक क्रियान्वित कर सकता

है। इसमें अध्यापन प्रशिक्षण कार्य अनुभव, चिंतन पूर्ण प्रक्रिया आदि आती है।

         हम शिक्षक को एक चिंतनशील, नवाचारी एवं स्वायत्त कार्मिक के रूप में देखते हैं।

इससे हमारे समझ एक पेशेवर के रूप में उसकी छवि उभरती है जो न केवल अपने पेशे

की दृष्टि से आवश्यक ज्ञान तथा कौशल रखता है बल्कि अपनी पेशेवर प्रगति के लिए सतत्

प्रयत्नशील है। साथ ही इस हेतु अपनी स्वायत्तता का उपयोग करने में भी सक्षम है।

              वर्तमान वैश्विक परिप्रेक्ष्य में शिक्षण में शिक्षण व्यवसाय को पेशे की मान्यता दी जाने

लगी है। परंतु भारतीय संदर्भ में इसके बारे में एक अंतहीन बहस की गुंजाइश है अभी भी

बनी हुई है कि क्या शिक्षण कार्य को एक पेशे के रूप में माना जा सकता है ? थोड़ा बहुत

जोखिम उठाकर हम यह कह सकते हैं कि भारतीय परिप्रेक्ष्य में शिक्षक के कार्य अर्थात

शिक्षण व्यवसाय को पैसे के ढांचे में परीक्षित करने के लिए आवश्यक है कि पैसे के मूलभूत

तत्वों की जांच परख की जाए। शिक्षण व्यवसाय को पेशे की कसौटी में परखा जाए।

(ग) सामाजिक― भारतीय समाज शिक्षा और संस्कृति के मामले में प्राचीन काल से

ही बहुत समृद्ध रहा है। भारतीय समाज में जहाँ शिक्षा को शरीर, मन और आत्मा के विकास

का साधन माना गया है, वहीं शिक्षक को समाज के समग्र व्यक्तित्व के विकास का

उत्तरदायित्व सौंपा गया है। भारतीय शिक्षा का इतिहास भारतीय सभ्यता का भी इतिहास है।

भारतीय समाज के विकास और उसमें होने वाले परिवर्तनों की रूपरेखा में हम शिक्षा के स्थान

और उसकी भूमिका को भी निरंतर विकासशील पाते हैं।

        सामाजिक अस्मिता शिक्षक अपने कार्यों के परिणाम स्वरूप स्थापित कर सकता है

शिक्षक का शैक्षिक कार्य जितना अधिक सफल व परिणाम देने वाला होगा उतना ही अस्मिता

सुदृढ़ होंगी । इसमें समाज व समुदाय को अपने विश्वास में लेना पड़ता है।

         शिक्षक अस्मिता के विभिन्न आयामों पर चर्चा के दौरान यह बातें निकाल कर आई

कि शिक्षक को व्यक्तिगत तौर पर उच्च आदर्श स्थापित करने वाला व्यक्तित्व को तराशना

चाहिए। किसी भी देश या समाज के निर्माण में शिक्षा की अहम भूमिका होती है। पेशेवर

रूप में शिक्षक का योगदान किसी भी देश या राष्ट्र के भविष्य का निर्माण करना है। सही

मायनों में कहा जाए तो एक शिक्षक ही अपने विद्यार्थी का जीवन गढ़ता है। यूँ कहा जाए

कि सामाजिक तौरपर शिक्षक ही समाज की आधारशिला है। एक शिक्षक अपने जीवन के

अंत तक मार्गदर्शक की भूमिका अदा करता है और समाज को राह दिखाता रहता है।

प्रश्न 12. शिक्षक को स्वयं के बारे में अपने सहकर्मियों, विद्यार्थियों, समुदाय

आदि की धारणाओं को जानना क्यों आवश्यक है ? उन्हें जानने के क्या तरीके है ?

उत्तर– शिक्षक को स्वयं के बारे में अपने सहकर्मियों, विद्यार्थियों, समुदाय आदि की

धारणाओं को जानना बहुत ही आवश्यक है क्योंकि इंसान के जीवन में शिक्षक का बहुत

महत्व होता है। शिक्षक अर्थात जो जीना सिखा दें, जो यह बताएँ कि जीवन क्या है और

इंसान की उस हजारों सालों की यात्रा के बारे में बताएँ जिससे होकर हम जंगल से यहाँ तक

आए हैं, पशु से इंसान बने हैं। भाषा, साहित्य, इतिहास, विज्ञान, गणित या जिन विषयों को

हम पढ़ते हैं क्या उन्हें इस यात्रा में इंसान ने पैदा नहीं किया है।

        तो शिक्षक वह है जो यह बताएँ कि आज हम जो हैं उससे बेहतर कैसे बन सकते हैं।

शायद इसलिए भारतीय संस्कृति में गुरु या शिक्षक को ईश्वर से भी ऊपर रखा गया है । एक

अच्छा शिक्षक आपके जीवन को हर एक दृष्टिकोण से संवार सकता है लेकिन उसके लिए

जरूरी है कि आपको आपके गुरु का स्नेह मिले।

         एक शिक्षक होने के नाते आप अपने को कितना जानते हैं? आपके साथ काम करने

वाले ऐसा कर्मियों की आपके बारे में क्या राय है ? विद्यालय में आपकी छवि कैसी है ?

विद्यार्थीगण आपको कितना पसंद करते हैं ? जिस समुदाय में आपका विद्यालय है वहाँ के

समुदाय का आपके प्रति कैसा नजरिया है ? एक शिक्षक का यह जानना बहुत ही आवश्यक

है। सबसे पहले शिक्षक होने के नाते सच्चाई ईमानदारी का गुण होना चाहिए। बच्चों को

दी जाने वाली शिक्षा पूरी ईमानदारी के साथ दें। हमेशा अनुशासन प्रिय रहें बच्चों को भी

अनुशासन का पालन कराएँ। बच्चों के द्वारा पूछे गए सवालों का जवाब बिल्कुल सटीक ढंग

से दे, जिससे बच्चों को समझने में आसानी हो । सहकर्मियों से हमेशा मीठे बोल बोले । आप

यह महसूस करेंगे कि आप के मीठे बोल वह प्यार से बात करने के तरीकों से आपकी छवि

सा कर्मियों में काफी अच्छी है। ऐसा करने से आपको भी अच्छा लगेगा। शिक्षक समाज

को मार्गदर्शन प्रदान करता है। विद्यार्थियों का मार्गदर्शन देता है और उन्हें शिक्षा का ज्ञात

कराता है। उन्हें सही और गलत, सच्चाई और ईमानदारी का ज्ञात कराता है। इस प्रकार

से शिक्षा प्रदान करने से समाज में अच्छा संदेश जाता है। शिक्षक की छवि समाज में सर्वोपरि

होती है। इसका अहसास शिक्षक अपने गुण, व्यवहार, बात करने के तरीके, मीठे बोल

इत्यादि से करा सकते हैं व समाज के लिए धीरे-धीरे नजीर बन सकते हैं।

प्रश्न 13. शिक्षक अस्मिता के लिए एक कार्यशाला का आयोजन कर उसके

उद्देश्य व उसमें होने वाले विभिन्न कार्यकलापों की चर्चा करें ?

उत्तर― भारत के पिछले 60 सालों के शैक्षिक यात्रा को देखें तो हमें उसमें तमाम

चुनौतियों के साथ-साथ कई सुधारात्मक प्रयासों की छवि दिखाई देती है। शिक्षा आयोगों और

समितियों के गठन तथा राष्ट्रीय शिक्षा नीति के विकास से लेकर शिक्षा के अधिकार अधिनियम

2009 तक के कई शैक्षिक प्रयोग इन प्रयासों के उदाहरण हैं और आगे भी कई प्रयास जा

रही है।

      शिक्षक अस्मिता के लिए कार्यशाला का आयोजन किया गया। कार्यशाला का उद्देश्य

व शिक्षक की अस्मिता संबंधी विभिन्न कार्यकलापों पर चर्चा की गई।

कार्यशाला का उद्देश्य―

● शिक्षक शिक्षा पर शैक्षणिक गतिविधियों का समन्वय करें।

● पाठ्यक्रम फ्रेमवर्क और मॉडल सिलेबस विकसित करें।

● TEIs शैक्षणिक गतिविधियों के संचालन के लिए दिशा निर्देश तैयार करें।

● शिक्षक शिक्षा के क्षेत्र में आचरण ।

● शिक्षक शिक्षा के क्षेत्र में संसाधन सहायता प्रदान करें।

● शिक्षक शिक्षा के विभिन्न पहलुओं पर डेटा बेस विकसित करें ।

कार्यशाला में शिक्षक अस्मिता संबंधी विभिन्न कार्यकलापों पर चर्चा के दौरान शिक्षक

अस्मिता से संबंधित विवरण में ‘अस्मिता’ से क्या तात्पर्य है, इस सकंल्पना को समझना

आवश्यक है। ‘अस्मिता’ की संकल्पना को विभिन्न विषयों में अलग-अलग ढंग से समझा

गया है। मैं यहाँ ‘अस्मिता’ का अर्थ किसी विषय मूल से नहीं ले रहा बल्कि अस्मिता का

अर्थ शिक्षा के परिदृश्य में देखने का प्रयास कर रहा हूँ, लेकिन यह स्पष्ट करना चाहूंगा कि

‘अस्मिता’ के अर्थ को संपूर्णता में समझना काफी मुश्किल है तथा इसके कई व्याख्या हो

सकती है।

          अस्मिता की संकल्पना को समझने के लिए मूलतः इनके तीन प्रमुख आयामों—

व्यक्तिगत, पेशेवर एवं सामाजिक पर ध्यान दिया गया है। ये तीनों आयाम वस्तुतः अलग

नहीं है, केवल उन्हें समझने के लिए इस प्रकार वर्णित किया गया है। ये तीनों आयाम

वास्तविक रूप में एक-दूसरे से अंतर्संबंधित एवं एक दूसरे से अति प्रभावित होते हैं । इनमें

से किसी भी अस्मिता की संकल्पना हम एकाकी रूप से नहीं कर सकते हैं।

प्रश्न 14. शिक्षक अपने जीवन के वास्तविक लक्ष्यों को प्राप्त करने की दिशा

में अपने योगदान का विश्लेषण किस प्रकार करेंगे ?

उत्तर– शिक्षक समाज में उच्च आदर्श स्थापित करने वाला व्यक्तित्व होता है। किसी

भी देश या समाज के निर्माण में शिक्षा की अहम् भूमिका होती है। कहा जाए तो शिक्षक

ही समाज का आईना होता है।

         हिन्दू धर्म में शिक्षक के लिए कहा गया है कि ‘आचार्य देवो भवः’ यानी कि शिक्षक

या आचार्य ईश्वर के समान होता है। यह दर्जा एक शिक्षक को उसके द्वारा समाज में दिए

गए योगदानों के बदले स्वरूप दिया जाता है।

        शिक्षक का दर्जा समाज में हमेशा से ही पूज्यनीय रहा है। कोई उसे ‘गुरु’ कहता है,

कोई ‘शिक्षक’ कहता है, कोई ‘आचार्य’ कहता है, तो कोई ‘अध्यापक’ या ‘टीचर’ कहता

है। ये सभी शब्द एक ऐसे व्यक्ति को चित्रित करते हैं, जो सभी को ज्ञान देता है, सिखाता

है और जिसका योगदान किसी भी देश या राष्ट्र के भविष्य का निर्माण करना है।

            एक शिक्षक द्वारा दी गई शिक्षा ही शिक्षार्थी के सर्वांगीण विकास का मूल आधार है।

प्राचीनकाल से आजपर्यंत शिक्षा की प्रासंगिकता एवं महत्ता का मानव जीवन में विशेष महत्व

है। शिक्षकों द्वारा प्रारंभ से ही पाठ्यक्रम के साथ ही साथ जीवन मूल्यों की शिक्षा भी दी

जाती है। शिक्षा हमें ज्ञान, विनम्रता, व्यवहारकुशलता और योग्यता प्रदान करती है। शिक्षक

को ईश्वरतुल्य माना जाता है।

           जब शिक्षक अपेक्षाओं के माध्यम से लक्ष्य निर्धारण की बात करते हैं तो दो अहम

पहलुओं को ध्यान में रखने की जरूरत होती है। एक अपेक्षा विद्यार्थियों को स्कूल से होती

है। इसी तरह स्कूल की भी कुछ अपेक्षाएँ विद्यार्थियों से जुड़ी होती हैं। हालांकि उनके बीच

की कड़ी में शिक्षकों सहित आभभावकों को माना जाता है, मगर यह भी सच्चाई है कि इन

सभी की अपेक्षाएँ एक दूसरे से जुड़ी हैं, जिसके जरिये सभी अपना लक्ष्य निर्धारण करते हैं ।

विद्यार्थी जीवन में बच्चों का लक्ष्य स्कूल से अच्छी शिक्षा प्राप्त करना होता है, वहीं स्कूल

में शिक्षकों का लक्ष्य बच्चों को बेहतर शिक्षा प्रदान करना है। स्कूल में आने वाले विद्यार्थियों

से अपेक्षा की जाती है कि वह एकाग्र हों और व्यक्तित्व के विकास के लिए विभिन्न

गतिविधियों में शामिल हों। अनुशासन का भी बच्चों के जीवन में बहुत बड़ा हाथ होता है।

अगर वे अनुशासन को अपने जीवन और नैतिकता को व्यवहार में उतार लेंगे, तो उन्हें जीवन

में आगे बढ़ने से कोई नहीं रोक सकता ।

प्रश्न 15. एक शिक्षक के रूप में आपमें और अन्य शिक्षकों में क्या अंतर है।

और क्यों ? इनका विश्लेषण करें।

उत्तर—आपने अक्सर लोगों को कहते हुए सुना होगा कि कोई भी व्यक्ति कभी भी

संपूर्ण नहीं होता | हर किसी में कुछ कमियाँ होती हैं तो कुछ गुण भी अवश्य होते हैं।

हालांकि हर व्यक्ति में कोई न कोई गुण अवश्य होता है, फिर भी अधिकतर लोग अपने

भीतर छिपे इन गुणों से अनजान होते हैं, जिसके कारण सफलता उनसे दूरी बनाए रखती

है। अब सवाल यह उठता है कि आप अपने गुणों की पहचान किस प्रकार करें। इसके

लिए आपको कुछ तरीके अपनाने की आवश्यकता है। आईए जानते हैं उन्हीं तरीकों के बारे

में―

    सबसे पहले आप खुद से सवाल करें कि ऐसी कौन सी चीज है, जिसे करना न सिर्फ

आपको अच्छा लगता है, बल्कि आप उसे बेहतरीन तरीके से भी करते हैं। जब आपको

जवाब मिल जाएगा तो आप अपने गुण को पहचान पाएंगे।

      अपने गुणों को पहचानने के लिए आपको अपनी कमियों को भी जानना होगा। खूबी

और कमी एक ही सिक्के के दो पहलू होते हैं।

          खुद के गुणों को पहचानने व उसे निखारने के लिए आपको खुद पर विश्वास बनाए

रखना होगा, लोग अपना आत्मविश्वास खो देते हैं, वे अपने गुणों की पहचान कभी नहीं

कर पाते।

         एक शिक्षक होने के नाते मेरी जिम्मेदारी समाज, विद्यालय तथा बच्चों के भविष्य के

प्रति काफी बड़ जाती हैं।

         शिक्षक का कर्तव्य छात्रों को केवल शिक्षित करना ही नहीं है, अपितु उन्हें संस्कारी

भी बनाना है। उनके अंदर केवल शब्द ज्ञान ही नहीं भरना है बल्कि उसे नैतिकता, कर्तव्य

परायणता, सजगता का पाठ पढ़ाना अत्यंत आवश्यक हो गया है। यदि अध्यापक यह कार्य

नहीं करता तो वह सच्चे अर्थों में अध्यापक कहलाने योग्य ही नहीं है। अध्यापक का कार्य

केवल पाठ पढ़ाना ही नहीं होता है, अपितु पाठ को पढ़कर या पढ़ाकर उसमें आई

उद्देश्यात्मकता, नैतिकता अदि को समझाना-सिखाना भी उसी का कर्तव्य होता है। पाठ को

पढ़कर समझने की सार्थकता तभी है जब उस ज्ञान को व्यवहार में भी लेकर आया जाए।

बच्चे अपने प्रथम गुरु अर्थात् अभिभावकों से ही सच बोलना सीखते हैं। जब वे छोटी-छोटी

बात पर माता-पिता को झूठ बोलते देखते हैं तो स्वतः ही वे झूठ बोलने लग जाते हैं। गाँधी

जी ने ‘सत्य के प्रयोग’ पुस्तक में सही बताया है कि, ‘जो कार्य हम स्वयं करते हैं, उस कार्य

को बच्चों को करने से मना कैसे कर सकते हैं। बच्चों पर उसका प्रभाव नहीं पड़ेगा।’

                    एक शिक्षक के रूप में मेरा यह कर्तव्य बन जाता है कि अपने बच्चों को केवल

पुस्तकीय ज्ञान तक ही सीमित न रखे । पुस्तकीय ज्ञान तो मात्र परीक्षा उत्तीर्ण करने का साधन

होता है। अंकों को पाने का एक उपक्रम होता है, लेकिन विभिन्न चीजों से जोड़कर हम

उनके व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास कर सकते हैं। उन्हें अच्छा नागरिक और समाज दर्शक

बनाकर समाज की छोटी से छोटी चीज से जोड़ें। उन्हें हर उस बात, घटना, विचार, भावना

को समझाएँ जिससे उन्हें अपने परिवेश, समाज से जुड़ने और समझने में मदद मिले।

प्रश्न 16. शिक्षक द्वारा रोजाना किए जाने वाले कार्यों को समझने के लिए तथा

उन्हें प्राप्त करने की दिशा में अपने योगदान का वर्णन करें।

उत्तर– एक मूर्तिकार किसी पत्थर को अपने मेहनत व लगन से एक सुंदर सी आकृति

देने का कार्य करता है उसी प्रकार एक शिक्षक का कार्य भी एक मूर्तिकार के तरह ही होता

है। शिक्षक भी रोज रोज अपनी मेहनत व लगन से बच्चों को एक सफल व कामयाब इंसान

बनाने के पीछे लगे रहते है।

         सभी बच्चों के समग्र विकास के लिए, केवल पुस्तकों का अध्ययन ही पर्याप्त नहीं है।

एक बच्चा एक निष्क्रिय बीज के समान होता है। यदि बीज को अनुकूल परिस्थितियाँ मिलेंगी

तभी वह विकसित होगा और एक बड़ा पेड बनेगा। हमारा विद्यालय छात्र-छात्राओं सर्वांगीण

विकास के लिए उनके के लिए अनुकूल परिस्थितियों प्रदान करता है। विद्यालय में हर बच्चे

एक मंच की तरह है जहाँ वह शिक्षकों से दिशा निर्देश प्राप्त करते हैं।

         शिक्षा का केन्द्रीय घटक विद्यार्थी है और उन्हें सही दिशा निर्देशन करने वाला प्रमुख

घटक शिक्षक है। शिक्षा के कई उद्देश्य की पूर्ति इनके माध्यम से होती है। इन्हें प्रशिक्षित

किया जाता है। उनकी सुविधा-असुविधा देखी जाती है। समाज का उनके प्रति कर्तव्य होता

है और उनका भी समाज के प्रति उत्तरदायित्व रहता है। शिक्षक अपने दायित्वों का पूरी तरह

से निर्वाहन करने का कोशिश भी करते है। वह सरकारी सेवक होता है और उसके इस कार्यों

के लिए वेतन भी दिया जाता है। अतः उनका यह जिम्मेदारी होती है कि कम-से-कम वह

जितना वेतन लेता है उसके अपनी तरफ से दे अनुकूल कार्य करता रहे।

        शिक्षक का कार्य व्यवसाय नहीं सेवा है। शिक्षक इसे नौकरी समझे बिना सेवा समझ

कर निभाए। जब इस कार्य को शिक्षक सेवाभाव से देखते हैं तब उनका दायित्व सफलता

की ओर अग्रसर होता है। शिक्षा में शिक्षक ही सामाजिक विकास का सूत्रधार है। समाज

की इच्छा, आकांक्षा, आवश्यकता, अपेक्षा और आदर्श को सफल बनाने का कार्य शिक्षक

ही करते हैं, लेकिन आज भारतीय शिक्षा में शिक्षक के हालात बडे खराब है। इसके लिए

समाज, सरकार, शिक्षा जगत और वह खुद भी जिम्मेदार है।

           एक शिक्षक के द्वारा विद्यालय में जो भी कार्य किये जाते है वो हमेशा विद्यार्थियों के

हित में है या नहीं इसका विश्लेषण बहुत ही जरूरी है। विद्यालयों में, शिक्षक स्वयं भी सक्रिय

शिक्षार्थी बनने की कोशिश करते हैं और अपने कार्याभ्यास पर नियमित रूप से विचार करते

हैं। जो वे करते हैं उसे जांचते हैं। यह जांचते हैं कि प्रत्येक छात्र वास्तव में क्या सीख रहा

है। अपने शिक्षण कौशलों समेत अपने कक्षा कार्यभ्यास को सुधारते और अनुकूलित करते

है।

        शिक्षक द्वारा रोजाना किए जाने वाले कार्य―

● नियमित रूप से विद्यालय आना ।

● नियमित रूप से शिक्षण योजना बनाना और समीक्षा करना।

● पाठ्यपुस्तकों के अलावा अन्य अध्ययन सामग्री का कक्षा शिक्षण प्रक्रिया में प्रयोग करना ।

● नियमित रूप से बच्चों का आकलन करना ।

● बच्चों की शैक्षणिक प्रगति को नियमित रूप से दर्ज करना ।

● बच्चों की शैक्षणिक प्रगति के साक्ष्य या प्रमाण रखना।

● सीखने-सिखाने की प्रक्रिया में बच्चों की भागीदारी सुनिश्चित करना।

● शिक्षण योजना में शिक्षण अधिगम सामग्री का प्रयोग करना ।

● बच्चों की प्रगति से अभिभावकों या एसएमसी सदस्यों को अवगत कराना।

● साथी शिक्षकों से नियमित चर्चा कर सहयोग लेना देना ।

● बच्चों को पर्याप्त कक्षा एवं गृहकार्य देना और उसकी नियमित जांच कर सुधारात्मक

कार्य करना ।

● जाति या जेंडर के आधार पर कक्षा में किसी से भेदभाव नहीं करना ।

● तय कार्यक्रम के अनुसार शिक्षक प्रशिक्षणों में भाग लेना ।

● पुस्तकालय उपयोग के लिए बच्चों को प्रेरित करना या सहयोग करना ।

● विद्यालय की सहशैक्षिक गतिविधियों या आयोजनों में भूमिका ।

प्रश्न 17. आप अपने आप को कैसे विश्लेषित कर सकते हैं ?

उत्तर – खुद के जागरूकता को अपने भीतर के आत्म, अपने स्वयं के मूल्यों और जिन

चीजों में विश्वास होता है, के गहन ज्ञान के साथ क्या करना है लेकिन एक के व्यक्तिगत

व्यवहार और झुकाव भी है यह जानने के लिए कि आप एक व्यक्ति के रूप में कौन हैं,

आपको खुद से अवगत होना शुरू करना चाहिए। यह एक रास्ता है जो खुद को अपने

विश्वासों, अपने दृष्टिकोण, अपने व्यवहार और अपनी प्रतिक्रियाओं को ध्यान में रखते हुए

अपने आप को विश्लेषित करने की हिम्मत देता है।

         किसी व्यक्ति की सोच, अनुभूति एवं व्यवहार का दर्पण होता है “व्यक्तित्व” । कोई

भी व्यक्ति अपने व्यक्तित्व से ही पहचाना और दूसरे व्यक्तियों से अलग किया जाता है।

कार्य करने के ढंग, विभिन्न परिस्थितियों में अभिक्रिया करने के तरीके, शारीरिक हाव-भाव

आदि से किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व का पता चलता है। अपने व्यक्तित्व की वजह से ही

कोई व्यक्ति महान बनता है तो कोई सामान्यतः कोई व्यक्ति विख्यात होता है तो कोई

कुख्यात । हम अपने व्यक्तित्व को जिस सांचे में ढालने की कोशिश करेंगे वह वैसा ही

आकार लेगा। किसी भी व्यक्ति के व्यक्तित्व के बारे में सबसे पहले उसके शारीरिक हाव

भाव से पता चलता है। व्यक्ति के शारीरिक भाषा उसके व्यक्तित्व के विषय में बहुत कुछ

बयां कर देती है

      खुद को बेहतर इंसान बनना कौन नहीं चाहता। हर कोई चाहता है कि वह दुनिया का

सबसे बेहतर इंसान बनें। हालांकि जीवन के उतार-चढ़ाव के कारण ऐसा करना थोड़ा

मुश्किल होता है लेकिन नामुमकिन नहीं। हम स्वयं से प्यार करके और चीजों को अच्छे

प्रबंधन कर लगातार शीर्ष पर पहुँच सकते है। ऐसे कुछ तरीके है जिनकी मदद से खुद को

बेहतरीन इंसान बना सकते हैं।

          व्यक्तित्व के साथ ही शरीर भी हमारे जीवन का सबसे महत्वपूर्ण पहलू है। इसलिए

अपने शरीर की अच्छे से देखभाल करें और स्वस्थ रहें। स्वस्थ शरीर हमेशा हमारी सहायता

करेगा खुद को बेहतर बनाने और शीर्ष पर पहुँचाने में खुद को समझें, पहचाने और सच्चे

आत्म की खोज करें। एक बार यह पता लगाने के बाद की हम जीवन से क्या चाहते हैं,

खुद को बेहतर बनाना आसान हो जाएगा। अगर हम अपने असली रूप से मिल लेगें तो

अपनी खोज करना आसान हो जाएगा। खुद को बेहतर बनाने के लिए सबसे महत्वपूर्ण है

कि नकारात्मक चीजों से बचें और ज्यादा से ज्यादा सकारात्मक रहने की कोशिश करें। चीजों

और लोगों को पहचाने जो हमें नकारात्मक परामर्श देते हैं। हमेशा अपने लक्ष्य के साथ

रहें और ऐसी चीजों से बचें जो आपको सही नहीं लगती। आप स्वयं से उतना ही प्यार करें

जितना कि आप अपने जीवन में किसी को कर सकते हैं। स्वयं से प्यार करने पर आप अपने

सबसे कठिन समय में भी सकारात्मक रहते हैं। ऐसा करने से हम हमेशा घटनाओं को अपने

पक्ष में करने में सफल रहते हैं और हर स्थिति में खुद को बेहतर पाते हैं।

प्रश्न 18. “मैं कौन हूँ” यह जानना क्यों जरूरी है ?

उत्तर—जीवन के हर मोड़ पर लिए जाने वाले छोटे या बड़े फैसलों का आधार हमारे

उद्देश्य के ऊपर निर्भर है, इसलिए यह कहना गलत नहीं होगा कि ‘जहाँ उद्देश्य नहीं, वहाँ

जीवन नहीं । अब प्रश्न यह उठता है कि आखिर हम अपने उद्देश्य को जानें कैसे ? इसके

लिए हमें केवल ‘मैं कौन हूँ’ ? इस विषय में जागरूक बनने की आवश्यकता है । सामान्यतः

हम अपने आप को मनुष्य (शरीर) प्राणी (आत्मा) के रूप में परिभाषित करते हैं। इनमें

से मनुष्य बिंदु के बारे में तो हम अच्छी तरह से वाकिफ हैं। परंतु आत्मा, जो इस शरीर

के भीतर से दुनिया को देख रही है एवं अपनी ऊर्जा से इस शरीर को चला रही है, उसके

बारे में संभवत: बहुत कम लोग सोचते हैं ।

        आत्मा के इस मूलभूत ज्ञान से बेखबर होकर हम अपने परिवार, संस्कृति, दोस्तों एवं

जिस सामाजिक वातावरण से हम जुड़े हुए हैं, उसके द्वारा दी गई पहचान का आवरण पहन

कर जीवन भर खुद को भ्रमित करते रहते हैं। परंतु जब ये सब बातें हमारे जीवन से निकल

जाती हैं, तब हमारा अस्तित्व केवल एक ही रूप में रह जाता है। और वह है ‘आत्मा’,

जो कभी मरती नहीं है, जिसका कभी नाश नहीं होता। जरा कल्पना कीजिए कि पंचमहाभूतों

से बना आपका शरीर धीरे-धीरे गहरे दिव्य प्रकाश में समा कर, उसमें विलीन होकर एक

ज्योति के रूप में परिवर्तित हो रहा है। यही हमारी सच्चाई है। ‘मैं कौन हूं ?’ जब इसका

यथार्थ रहस्य हम जान लेते हैं, तब संदेहों के बादल हट जाते हैं, जिसके परिणामस्वरूप हमारे

भीतर खुद की वास्तविकता की स्पष्टता और स्वच्छता आ जाती है। स्पष्टता की यही शक्ति

मार्गदर्शक बन हमें मानवता के लिए करुणा, दया और सम्भाव के साथ अपना जीवन जीने

के लिए सक्षमता प्रदान करती है। समस्त को प्यार करना फिर हमारे लिए स्वाभाविक और

अपरिहार्य हो जाता है और हम जिस उद्देश्य से इस पृथ्वी पर जन्मे हैं, उसका भी सुंदर एहसास

हमें हो जाता है। किसी ने सच ही कहा है कि ‘मनुष्य का स्वधर्म ही है समस्त को प्यार

देना और खुशियाँ बांटना।’

प्रश्न 19. शिक्षा में अभिप्रेरणा का महत्व बतावें ?

उत्तर― शिक्षा में अभिप्रेरणा का महत्व—बालकों के सीखने की प्रक्रिया अभिप्रेरणा

द्वारा ही आगे बढ़ती है। प्रेरणा द्वारा ही बालकों में शिक्षा के कार्य में रुचि उत्पन्न की जा

सकती है और वह संघर्षशील बनता है। शिक्षा के क्षेत्र में अभिप्रेरणा का महत्व निम्नलिखित

प्रकार से दर्शाया जाता है―

(1) सीखना–सीखने का प्रमुख आधार ‘प्रेरणा’ है। सीखने की क्रिया में परिणाम

का नियम’ एक प्रेरक का कार्य करता है। जिस कार्य को करने से सुख मिलता है। उसे

वह पुनः करता है एवं दुःख होने पर छोड़ देता है। यही परिणाम का नियम है। अतः

माता-पिता व अन्य के द्वारा बालक की प्रशंसा करना, प्रेरणा का संचार करता है।

(2) लक्ष्य की प्राप्ति—प्रत्येक विद्यालय का एक लक्ष्य होता है । इस लक्ष्य की प्राप्ति

में प्रेरणा की मुख्य भूमिका होती है। ये सभी लक्ष्य प्राकृतिक प्रेरकों के द्वारा प्राप्त होते है।

(3) चरित्र निर्माण—चरित्र-निर्माण शिक्षा का श्रेष्ठ गुण है। इससे नैतिकता का संचार

होता है। अच्छे विचार व संस्कार जन्म लेते हैं और उनका निर्माण होता है। अच्छे संस्कार

निर्माण में प्रेरणा का प्रमुख स्थान है।

(4) अवधान― सफल अध्यापक के लिये यह आवश्यक है कि छात्रों का अवधान पाठ

की ओर बना रहे। यह प्रेरणा पर ही निर्भर करता है। प्रेरणा के अभाव में पाठ की ओर

अवधान नहीं रह पाता है।

(5) अध्यापन विधियाँ―शिक्षण में परिस्थिति के अनुरूप अनेक शिक्षण विधियों का

प्रयोग करना पड़ता है। इसी प्रकार प्रयोग की जाने वाली शिक्षण विधि में भी प्रेरणा का प्रमुख

स्थान होता है।

(6) पाठ्यक्रम – बालकों के पाठ्यक्रम निर्माण में भी प्रेरणा का प्रमुख स्थान होता है।

अतः पाठ्यक्रम में ऐसे विषयों को स्थान देना चाहिए जो उसमें प्रेरणा एवं रुचि उत्पन्न कर

सकें तभी सीखने का वातावरण बन पायेगा।

(7) अनुशासन – यदि उचित प्रेरकों का प्रयोग विद्यालय में किया जाय तो अनुशासन

की समस्या पर्याप्त सीमा तक हल हो सकती है।

प्रश्न 20. वर्तमान समय में एक शिक्षक के रूप में ‘शिक्षक की अस्मिता’ को

किस प्रकार देखते हैं ? इन पर अपने विचार प्रस्तुत करें।

उत्तर–वर्तमान समय में शिक्षक की भूमिका अत्यधिक महत्वपूर्ण है। आज शिक्षक

केवल पुस्तक ज्ञान का प्रदाता ना होकर पथ प्रदर्शक भी है। जीवन का मार्गदर्शन करने वाला

है, परंतु अब शिक्षक का दायरा सीमित हो रहा है इसे केवल विद्यालय शिक्षण तक समेट

दिया गया है। प्रशासकीय व्यवस्था में वह अकेले शासकीय कर्मचारी जैसा बन कर रह गया

है जबकि आवश्यकता है उसे व्यापक बनाने की। माना जाता है कि यदि शिक्षक नहीं होता

तो शिक्षण की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। शिक्षण की आधारशिला शिक्षक के द्वारा

ही रखी जाती है। प्राचीनकाल से ही शिक्षक का दर्जा बहुत ही उच्च और अहम रहा है।

वह समाज का आदर्श हेता था शिक्षक के स्वरूप में ईश्वर की कल्पना की गई।

           “गुरु ब्रह्म गुरु विष्णु गुरु देवो महेश्वरः

           गुरु साक्षात पर ब्रह्मा तस्मै श्ररी गुरुवे नमः”

श्लोक में गुरु की तुलना ब्रह्मा से की गई है। जिस प्रकार ब्रह्म को सृष्टि का रचयिता

माना जाता है उसी प्रकार शिष्य के संपूर्ण जीवन के निर्माण की बागडोर शिक्षक के हाथों

में होता है। गुरु का कार्य शिक्षक का जीवन निर्माण होता है। शिक्षक ज्ञान रूपी आहार

देकर शिष्य को जीवन संघर्ष के योग बनाता है। उसका चरित्र निर्माण करता है इसलिए

उनकी तुलना विष्णु से भी की गई। शिष्य के दुर्गुण दूर करने के कारण उसकी बुराइयों के

संहार करने के कारण शिक्षक को महेश भी कहा गया है। शिक्षक समाज के आदर्श को

स्थापित करने वाला व्यक्तित्व होता है। किसी भी देश के समाज के निर्माण में शिक्षक

भूमिका सबसे महत्वपूर्ण है । यदि दूसरे शब्दों में कहें तो शिक्षक समाज का आईना होता

है। छात्र और शिक्षक का संबंध केवल विद्यालयी शिक्षा देने तक सीमित नहीं रहता बल्कि

शिक्षक हर मोड़ पर एक मार्गदर्शक की भूमिका का निर्वाहन करता है। विद्यार्थी में

सकारात्मक सोच विकसित करता है उसे सदा आगे बढ़ने के लिए प्रेरणा देता है और स्वयं

को भी उदाहरण के तौर पर प्रस्तुत करता है।

         एक सफल जीवन यापन हेतु शिक्षक एक अनिवार्य प्रक्रम है। भारत ही एकमात्र ऐसा

राज्य है जहाँ शिष्यों को विद्यालय ज्ञान के साथ उच्च मूल्यों को स्थापित करने वाली नैतिक

व चारित्रिक शिक्षा भी प्रदान की जाती है जो छात्र के सर्वांगीण विकास में सहयोगी होती है।

प्रश्न 21. शिक्षकों को अपने जीवन लक्ष्यों को विकसित करना और उनके

भौतिक भावनात्मक तथा आध्यात्मिक परिप्रेक्ष्यों को समझना क्यों अवश्यक है ? उन्हें

जानने के क्या तरीके हैं ?

उत्तर– किसी भी देश राज्य या समाज को एक बेहतर कल देने की जिम्मेदारी शिक्षक

के कंधों पर होती है। शिक्षक का कार्य काफी जिम्मेदारी भरा होता है क्योंकि किसी भी

विद्यार्थी का भविष्य संवारने की जिम्मेदारी उनकी है। शिक्षक को अपने जीवन लक्ष्य के रूप

में इन्हीं बातों को रखनी चाहिए। विद्यालय को छात्रों के सीखने के उत्कृष्टता केंद्रों में बदलने

के सपने को सच करने के लिए आवश्यक है कि शिक्षक को संपूर्ण कार्य जीवन में अपने

कौशल और ज्ञान का नवीकरण और अद्यतन करने का निजी दायित्व लें, क्योंकि वही इन

सब चीजों का केंद्र बिंदु है । व्यक्तिगत विकास आपके कौशलों और ज्ञान को विकसित करने

आकार देने और सुधार करने की जीवन पर्यंत प्रक्रिया है ताकि विद्यालय की कार्य क्षेत्र में

अधिकतम प्रभावकारिता और सकारात्मक आत्म-अवधारणा का विकास सुनिश्चित किया जा

सके।

     मानव जीवन के दो स्तर है एक बाह्य दूसरा आंतरिक, एक भौतिक दूसरा आत्मिक।

इनमें से जिनकी प्रधानता होती है उसी के अनुसार जीवन का स्वरूप बनता है। भौतिकतावादी

जीवन भौतिक-स्थूल दृष्टिकोण का प्रतिफल है और आध्यात्मिक जीवन मनुष्य की सूक्ष्म

विवेक बुद्धि की प्रेरणा पर अवलंबित है।

       बाहर से देखने में भौतिक और आध्यात्मिक जीवन में कोई विशेष अंतर दिखाई नहीं

पड़ता क्योंकि शरीर के पोषण एवं निकटवर्ती स्वजनों के प्रति कर्तव्य पालन के लिए

गृही-विरक्त सभी को जीवन उपयोगी वस्तुओं का उपार्जन एवं संग्रह करना पड़ता है पर उस

अनिवार्य प्रक्रिया से छुटकारा किसी को भी नहीं मिल सकता । एक श्रेणी के व्यक्ति भौतिक

वस्तुओं के प्रति भावनाएँ रखते हैं, उनसे प्रेरणा प्राप्त करते हैं उनके प्राप्ति से दुखी और सुखी

होते हैं, अपना लक्ष्य इन भौतिक पदार्थों और परिस्थितियों को ही बनाए रहते हैं। ऐसे लोगों

को भौतिकता वादी कहा जाता है। दूसरी श्रेणी के व्यक्ति वह हैं जो भावना को महत्ता देते

हैं वस्तु को उसका उपकरण मानते हैं वस्तुओं की निस्सारता, जड़ता और क्षणभंगुरता को

समझते हुए केवल उसके सदुपयोग की बात सोचते रहते हैं। विश्व-मानव की श्रेय साधना

ही उनका लक्ष्य होता है। जीवन की गतिविधियों का और अपनी कार्य पद्धति का निर्माण

भी इसी आधार पर करते हैं। ऐसे व्यक्तियों को अध्यात्मवादी कहते हैं ।

        शिक्षकों को अपने जीवन लक्ष्यों को विकसित करने के साथ उनके भौतिक भावनात्मक

तथा आध्यात्मिक परिप्रेक्ष्यों को समझने के साथ-साथ उनके जानने के तरीकों को भी समझना

जरूरी है।

प्रश्न 22. शिक्षक अस्मिता के वे महत्वपूर्ण पहलू कौन कौन से हैं जिनकी वे जाने

अनजाने उपेक्षा करते रहते है ? (जबकि उनके व्यक्तित्व और कार्य के निर्धारण में

उन पहलुओं की विशेष भूमिका रहती हैं।)

उत्तर―शिक्षक अस्मिता का अभिप्राय शिक्षक के व्यक्तित्व, स्थिति, समाज में स्थान

व प्रतिष्ठा आदि से हैं। एक शिक्षक की अस्मिता का निर्माण उनके कार्यों के दृष्टिकोण से

महत्वपूर्ण स्थान रखता हैं। शिक्षक अस्मिता तीन महत्वपूर्ण पहलू है जिनकी शिक्षक जाने

अनजाने उपेक्षा करते रहते हैं।

          1. व्यक्तिगत–व्यक्तिगत अस्मिता एक शिक्षक के जीवन अनुभवों, मान्यताओं व

मूल्यों के लिए क्रियाकलापों के संदर्भ में निहित होती है। यह शिक्षक के व्यक्तिगत गुणों

व व्यवहारों का प्रत्यक्षीकरण है।

           एक शिक्षक ही है जो सही मायने में एक इंसान, एक समाज और एक राष्ट्र बनाता

है। यदि चाणक्य अखंड भारत का सपना नहीं देखते तो चन्द्रगुप्त मौर्य जैसा आम आदिवासी

बालक भारत पर राज नहीं करता। यदि कृष्ण गीता उपदेश नहीं देते तो अर्जुन का जीवन

लक्ष्य-रहित रह जाता। शिक्षक होने के नाते शिक्षक को व्यतिगत रूप से काफी परिपक्व

होना जरूरी है क्योंकि उनका अनुसरण विद्यार्थी करते है। ऐसा कोई भी काम नहीं करना

चाहिए जिनका दुष्परिणाम बच्चों पर पड़े।

        2. पेशेवर– प्रोफेशनल (पेशेवर) किसी व्यवसाय का एक ऐसा सदस्य होता है जिसे

विशिष्ट शैक्षणिक प्रशिक्षण के आधार पर चुना जाता है। जो कि अपनी बुद्धि का उपयोग

कर आय कमाते है। जैसे—डॉक्टर, इंजीनियर, चार्टर्ड एकाउण्टेण्ट, वकील आदि। ये

व्यक्ति अपनी सेवा प्रदान कर आय कमाते हैं।

      पारंपरिक रूप से प्रोफेशनल शब्द का मतलब है वह व्यक्ति जिसने किसी व्यावसायिक

क्षेत्र में एक डिग्री प्राप्त की है। प्रोफेशनल शब्द का इस्तेमाल सामान्यतः सफेदपोश स्तर पर

काम करने वाले व्यक्तियों के लिए किया जाता है, या उन व्यक्तियों के लिए

शौकिया तौर पर काम करने वालों के लिए आरक्षित क्षेत्रों में व्यावसायिक तौर पर काम करते

सामान्यतः

        पेशेवर अस्मिता शिक्षक के कार्यों को परिलक्षित करता है। इसमें यह देखा जाता हैं

कि शिक्षक अपने गुणों के पेशेगत रूप में कहा तक क्रियान्वित कर सकता है। आज के

संदर्भ में शिक्षक कार्य सिर्फ और सिर्फ आय के स्रोत बनते जा रहे है। इसकी परवाह किए

बिना की शिक्षण कार्य कितना बड़ा दायित्व वाला काम है।

            3. सामाजिक–शिक्षक समाज में उच्च आदर्श स्थापित करने वाला व्यक्तित्व होता

है। किसी भी देश या समाज के निर्माण में शिक्षा की अहम भूमिका होती है। कहा जाए

तो शिक्षक ही समाज का आईना होता है।

हिन्दू धर्म में शिक्षक के लिए कहा गया है कि ‘आचार्य देवो भवः’ यानी कि शिक्षक

या आचार्य ईश्वर के समान होता है। यह दर्जा एक शिक्षक को उसके द्वारा समाज में दिए

गए योगदानों के बदले स्वरूप दिया जाता है।

          शिक्षक का दर्जा समाज में हमेशा से ही पूज्यनीय रहा है। कोई उसे ‘गुरु’ कहता है,

कोई ‘शिक्षक’ कहता है, कोई ‘आचार्य’ कहता है, तो कोई ‘अध्यापक’ या ‘टीचर’ कहता’

है। ये सभी शब्द एक ऐसे व्यक्ति को चित्रित करते हैं, जो सभी को ज्ञान देता है, सिखाता

है और जिसका योगदान किसी भी देश या राष्ट्र के भविष्य का निर्माण करना है।

          सामाजिक अस्मिता शिक्षक अपने कार्यों के परिणामस्वरूप स्थापित कर सकता है।

शिक्षक का शैक्षिक कार्य जितना अधिक सफल व परिणाम देने वाला होगा उतना ही अस्मिता

सुदृढ़ होगी।

प्रश्न 23. वर्तमान सामाजिक परिदृश्य में शिक्षकों की अस्मिता पर कई सवाल

उठ रहे है। इसके पीछे शिक्षकों के वृत्तिक मान्यताओं में परिवर्तन, सामाजिक

अपेक्षाएँ, स्कूल में शिक्षकों की हकीकत जैसे कई कारक जिम्मेदार है। इस पर अपनी

राय दें ?

उत्तर– वर्तमान सामाजिक परिदृश्य में शिक्षकों की अस्मिता पर कई सवाल उठ रहे

है। इसका मूल कारण अपने कर्तव्यों का सही ढंग से निर्वाहन नहीं करना है। शिक्षकों के

वृतिक मान्यताओं में परिवर्तन भी कारक है। इसलिए शिक्षक को चाहिए कि वृतिक विकास

के माध्यम से अपने अंदर निम्न गुणों को प्रसारित करें। बच्चों को सिखने के अवसर उपलब्ध

कराना एवं ज्ञान का सृजन करना शिक्षकों का प्रमुख दायित्व है। शिक्षा के सामाजिक उद्देश्य

का जन्म शिक्षा के व्यक्तिक उद्देश्य की प्रतिक्रिया के परिणामस्वरूप हुआ है। इस उद्देश्य

के समर्थक व्यक्ति की अपेक्षा समाज को ऊँचा मानते हैं। उनका अटल विश्वास है कि

व्यक्ति स्वभाव से सामाजिक प्राणी है। यदि उसे समाज से पृथक कर दिया जाये । उसका

जीवन रहना कठिन हो जायेगा। प्रत्येक बालक समाज में ही जन्म लेता है तथा समाज में

ही उसका पालन-पोषण होता है। समाज में ही रहते हुए वह बोलना-चलना, पढ़ना-लिखना

तथा दूसरे व्यक्तियों से व्यवहार करना सीखता है। समाज में ही रहते हुए उसकी विभिन्न

आवश्यकतायें पूरी होती हैं तथा विभिन्न विचारों के आदान-प्रदान द्वारा उसके व्यक्तित्व का

विकास होता है समाज की उन्नति से वह जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उन्नति करता है तथा

समाज की हानि से उसे भी क्षति पहुँचती है। इस प्रकार अपने सम्पूर्ण विकास के लिए वह

समाज का ऋणी है । इस ऋण को चुकाना उसका कर्तव्य है। अतः शिक्षा की व्यवस्था ऐसी

होनी चाहिये जिसके द्वारा समाज दिन-प्रतिदिन उन्नति के शिखर पर चढ़ता रहे। दूसरे शब्दों

में, शिक्षा के उद्देश्यों का निर्माण समाज की तत्कालीन आवश्यकताओं के अनुरूप होना

चाहिये । क्षेत्रीय सरकार एक राज्य पर शासन करता है। पुरोहित का एक गाँव यजमान होता

है। एक गाँव का चिंतन, चरित्र और व्यवहार परिस्कृत करने में एक भावनाशील शिक्षक

के बिना एक सभ्य समाज की कल्पना करना बेईमानी है। शिक्षक समाज को स्वरूप देता

है और उसे संवारता है। शिक्षक की योग्यता इतनी ही पर्याप्त ना समझी जाए की वह निर्धारित

पाठ-पुस्तक में से प्रायः पूछे जाने वाले विषयों को पढ़ाकर छात्रों को उत्तीर्ण करा दे और

अपने दायित्वों से छुटकारा पाए, वरन् उसका मूल दायित्व यह होना चाहिए कि जो छात्र उनसे

पढ़कर निकले वो प्रतिभा एवं शालीनता की दृष्टि से ऊँचे स्तर के सिद्ध हो। इसके लिए

पाठ पढ़ा देना पर्याप्त नहीं वरन् निज का जीवन भी इस स्तर का ढालना होगा कि अभिभावक

स्तर की भूमिका निभा सके। इसके लिए उन्हें छात्रों से निजी संपर्क बनाने होंगे और

व्यक्तिगत रूप से यह तथ्य ध्यान में रखने होंगे कि उनमें किस स्तर की प्रवृत्तियों का

अभिवर्धन हो रहा है।

प्रश्न 24. शिक्षक को अपनी अस्मिता के लिए अपनी धारणाओं, चिंतन एवं

व्यवहार को समझना एवं उसमें बदलाव की समझ क्यों आवश्यक है।

उत्तर―शिक्षक को एक उत्सवधर्मी औपचारिकता न समझते हुए आज यह सोचने की

जरूरत है कि शिक्षक होने के क्या मायने और सरोकार होते हैं? क्या हम शिक्षकों को उतना

सम्मान देते हैं, जितना कि समाज में किसी आईएएस, आईपीएस, उद्योगपति, राजनेता,

इंजीनियर, डॉक्टर, वकील, पत्रकार और बैंक अधिकारी को दिया जाता है ? जिस भारतीय

समाज में 20वीं सदी में सर आशुतोष मुखर्जी, एस राधाकृष्णन, वी एस झा, के एन राज,

पी सी महलनोबिस, रामास्वामी मुदलियार, वी के आर वी राव और डी टी लकड़वाला जैसे

शिक्षकों की पूजा होती थी, उसी समाज की हमारी नई पीढ़ी क्रिकेट, फिल्म और टीवी के

कलाकारों, एथलीटों और उद्यमियों को ही अपना आदर्श क्यों समझने लगी है ?

          शिक्षकों के बारे में समाज की धारणा पिछले 50 वर्षों में कैसे बदल गई, यह हमारे

साहित्य और फिल्मों में शिक्षक पात्रों के चरित्र-चित्रण में ही देखा जा सकता है। 20वीं

सदी के लेखकों यथा प्रेमचंद, शरत चंद्र, बंकिम चंद्र, रवींद्रनाथ टैगोर आदि ने अपनी रचनाओं

में शिक्षकों को बहुत सकारात्मक रूप में चित्रित किया था। भारतीय फिल्में भी आजादी से

पहले और बाद के कालखंडों में शिक्षकों को राष्ट्र निर्माता और एक आदर्श नायक के रूप

में दिखाते रहे । फिल्म गंगा-जमुना में जब अभिनेता अभि भट्टाचार्य को इंसाफ की डगर पे,

बच्चों दिखाओं चल के गाना स्कूली बच्चों के साथ गाता हुआ दिखाया गया, तो भारतीय

युवाओं को एक बहुत मूल्यवान संदेश मिला। यह संदेश था कि शिक्षक समाज के लिए एक

जिम्मेदार भावी पीढ़ी तैयार करते हैं, जो हमारे शाश्वत मूल्यों यथा—न्याय, समानता, भाईचारा

और सामाजिक सद्भाव की रखवाली करती है।

            पिछले 50 वर्षों में भारतीय समाज ज्ञान, विद्या, समानता, चरित्र निर्माण, भाईचारा,

सद्भाव और सामाजिक प्रतिबद्धता जैसे मूल्यों के प्रति अपनी निष्ठा लगातार खोता गया है।

इसके विपरीत घनलिप्सा, स्वार्थपरता, चालाकी, अवसरवादिता जैसे नकारात्मक मूल्य हमारे

लोकतांत्रिक समाज पर हावी होते चले गए। इस दौर में शिक्षकों की पेशागत प्रतिबद्धताओं

और योग्यताओं में भी लगातार क्षरण देखा गया। आजादी के बाद के प्रारंभिक दशकों में

शिक्षकों की कार्यदशाएँ और वेतन-भत्ते अन्य पेशों की तुलना में कम थे। पूरे देश में

प्राथमिक, स्कूली एवं कॉलेज यूनिवर्सिटी शिक्षक यूनियनों ने शिक्षकों को लामबंद करके

लगातार आंदोलन किए। शिक्षकों को विधायिकाओं और संसद के लिए भी नामित किया

गया। उनकी आर्थिक स्थिति में जरूर सुधार आया, वहीं दूसरी ओर उन्हें शिक्षा के उन्नयन

से लगातार विमुख होते देखा गया।

       हमारी शिक्षा से जुड़ी समस्याएँ जितनी विराट हैं, उनका पुख्ता समाधान सरकार, शिक्षक

और समाज के संयुक्त एवं दीर्घकालीन प्रयासों से ही संभव है। आज जो चुनौतियाँ भारतीय

शिक्षा में दिख रही हैं, उनके बीज 60 और 70 के दशकों में बोए गए थे। जाहिर है कि

भारतीय समाज और सरकार को शिक्षकों की भूमिका का नए सिरे से मूल्यांकन करना होगा।

शिक्षकों में भी आत्मलोचना की बड़ी जरूरत है। उन्हें नई शिक्षण पद्धतियों, सूचना

औद्योगिक और 21वीं सदी के शिक्षाशास्त्र से सुसज्जित करने की जरूरत है।

प्रश्न 25. शिक्षक को अपने कार्यों तथा जीवन के उद्देश्यों को समझना क्यों आवश्यक है ?

उत्तर– शिक्षा (Education) में शिक्षक की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। शिक्षक का

कार्य मात्र कक्षा में शिक्षक कार्य करने पर ही समाप्त नहीं हो जाता बल्कि छात्रों को उचित

निर्देशन प्रदान करना, विद्यार्थियों की भावनाओं को समझना, विद्यालय में सामाजिक वातावरण

का निर्माण करना, विभिन्न पाठ्य सहगामी क्रियाओं का संचालन करना आदि भी शिक्षक

के महत्वपूर्ण कार्य हैं।

            शिक्षक का सबसे महत्वपूर्ण कार्य शिक्षण का ही होता है। शिक्षक को ईमानदारी,

मेहनत और लगन के साथ इस कार्य को करना चाहिए। किसी भी शिक्षक के आवश्यक

है कि कक्षा में जाने से पूर्व विषय वस्तु और अनुदेशन सामग्री को क्रमवार रूप से व्यवस्थित

करें इसके लिए वह निम्न कार्य कर सकते हैं जैसे―

● संपूर्ण व्यवस्था विश्लेषण

● कार्य विश्लेषण

● प्रविष्ट व्यवहार का अभिज्ञान

● उद्देश्य को सूत्रबद्ध करना

● छात्रों की जरूरत की पहचान करना

● परीक्षण सामग्री निर्माण

 शिक्षक विद्यालय का अभिन्न अंग होता है। विद्यालय में समस्त क्रियाओं की व्यवस्था

और उनका कुशल संचालन केवल प्रधानाध्यापक का ही कर्तव्य नहीं है, अपित विद्यालय

का अभिन्न अंग होने के कारण विद्यालय के प्रत्येक कार्य समय सारणी बनाना, पाठ्य

सहगामी क्रियाओं का आयोजन करना और संचालन करना आदि में प्रधानाध्यापक का पूर्णतः

सहगामी होना एवं उनको सफलता के साथ पूरा करने का शिक्षक का दायित्व है। इस प्रकार

विद्यालय में विभिन्न प्रकार की व्यवस्था बनाए रखने का शिक्षक का महत्वपूर्ण कर्त्तव्य है ।

        एक शिक्षक का जीवन बहुत सारी चुनौतियों से भरा होता है। शिक्षकों का आचरण

समाज और विद्यालय में एक अच्छे व्यक्तित्व वाला होता है। गुरु का स्थान भगवान से भी

उच्च होता है। बच्चे अपने गुरु को बहुत मानते हैं उनका आदर सम्मान करते हैं। बच्चे

अपने शिक्षक का अनुसरण करते हैं। अतः शिक्षक को अपने छवि साफ-सुथरी रखनी

चाहिए । शिक्षक बच्चों के मार्गदर्शक होते हैं। वास्तव में शिक्षण शिक्षक का प्रोफेशन नहीं

मिशन है। यही वजह है कि एक शिक्षक को अपने जीवन के उद्देश्यों को समझना बहुत

ही आवश्यक है।

प्रश्न 26. शिक्षक अस्मिता पर समकालीन परिप्रेक्ष्य में विमर्श करें ?

उत्तर– शिक्षक अस्मिता से संबंधित विवरण में ‘अस्मिता’ से क्या तात्पर्य है, इस

संकल्पना को समझना आवश्यक है। ‘अस्मिता’ की संकल्पना को विभिन्न विषयों में

अलग-अलग ढंग से समझा गया है। मैं यहाँ ‘अस्मिता’ का अर्थ किसी विषय मूल से नहीं

ले रहा बल्कि अस्मिता के अर्थ को शिक्षा के परिदृश्य में देखने का प्रयास कर रहा हूँ। लेकिन

यह स्पष्ट कररना चाहूँगा कि ‘अस्मिता’ के अर्थ को संपूर्णता में समझना काफी मुश्किल

है।

          आज शिक्षा के बदलते स्वरूप और भारतीय शिक्षा प्रणाली को देखते हुए शिक्षक

अस्मिता पर गंभीर विमर्श की जरूरत है और उसके लिए कुछ बुनियादी सवालों से जूझना

होगा। सबसे पहला प्रश्न यह है कि शिक्षा क्या है और वह कौन सा परिवेश है जिसमें

शिक्षा बदल रही है ? शिक्षा के इस बदलते परिवेश में शिक्षकों की नई भूमिका क्या होनी

चाहिए ? देखा जाए तो जैसे ही मनुष्य अपनी प्राकृतिक अवस्था से निकलकर सामाजिक

और राजनीतिक व्यवस्था में संगठित हुआ, शिक्षा उसका अभिन्न अंग बन गई। दूसरे शब्दों

में कहें तो शिक्षा के कारण ही वह पशु समान जीवन से मुक्त हो सका । संस्कृत के पुराने

नीति वचन में विद्या विहीन व्यक्ति को पशु के समसान कहा गया है। प्रारंभिक अवस्था में

जहाँ मानव जाति की सबसे महत्वपूर्ण आवश्यकता भी भूख मिटाना व अपने जीवन की रक्षा

करना था। वही उसकी एक और बड़ी जरूरत थी, ब्रह्मांड या दुनिया के बारे में जानकारी

प्राप्त करना । देखा जाए तो जहाँ ज्ञान साध्य है वहीं शिक्षा उस ज्ञान को प्राप्त करने का

साधन ।

        अब प्रश्न यह उठता है कि किस प्रकार का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए ? कुछ लोगों ने

ज्ञान को जीवन की जरूरत के तौर पर जोड़ कर देखा है जिसे यह इहलौकिक ज्ञान कहा

गया है। वहीं कुछ लोगों ने इसे जीवन के बाद की दुनिया यानी दैवीय सत्ता, स्वर्ग-नरक,

पुनर्जन्म आदि की कल्पना कर परलोक के साथ जोड़कर देखा है और इसी पारलौकिक या

आध्यात्मिक ज्ञान की संज्ञा दी है। इसी के कारण अनेक विषयों का जन्म हुआ। असल में

शिक्षा मुक्ति और आजादी का सशक्त माध्यम है। शिक्षा ऐसी ताकत है जो भय, अधकार,

अज्ञान, अंधविश्वास, घृणा तथा हीन भावना से मुक्त करती है। वह जीवंत है, उर्जा और

उम्मीदों से भरी है। इसमें किसी भी प्रकार का अवसाद या किसी भी तरह की हताशा नहीं

है। शिक्षा में सापेक्षता की भावना निहित है।

        यह जहाँ अपनी तकलीफों के प्रति सचेत करती है वही दूसरों के दुख को अनुभव करने

की क्षमता भी उत्पन्न करती है।

प्रश्न 27. एक शिक्षक होने के नाते अपना सेल्फ पोट्रेट लिखें ?

उत्तर—विश्व चित्रकला के बहुवर्णी इतिहास में कई ऐसे पड़ाव देखने को मिलते हैं,

जहाँ हम चित्रकार की रचनाशीलता को देख कर चमत्कृत होते हैं। अपने परिवेश को, किसी

व्यक्ति या वस्तु को अपने चित्र में हू-ब-हू बना देना कलाकार की निपुणता को तो निश्चय

ही दिखती है, पर यह ‘कला’ नहीं है। ‘रचनाशीलता’ का अर्थ किसी वस्तु या व्यक्ति का,

अपने चित्र में ‘पुनर्रचना’ या अनुकरण नहीं है।

           शिक्षक समाज का दर्पण होता है। एक राष्ट्र को बनाने में एक शिक्षक का जितना

सहयोग है, योगदान है, उतना शायद किसी और का हो ही नहीं सकता। क्योंकि शिक्षक

राष्ट्र को उन्नति के चरम शिखर पर ले जाते हैं। राजनेता, डॉक्टर, इंजीनियर, उद्योगपति,

लेखक, अभिनेता, खिलाड़ी आदि और परोक्ष रूप से इन सबको बनाने वाला कौन हैं ? एक

शिक्षक।

         एक शिक्षक के रूप में यह जानना जरूरी समझता हूँ कि बच्चे क्या सोचते हैं, कैसे

सोचते हैं और उनकी मदद कैसे की जा सकती है ? जब कोई बच्चा स्कूल में आता है तो

कोरा कागज नहीं होता है और न ही वो खाली है जिसे हम अपने ज्ञान से भर दें। बल्कि

वह एक समझ के साथ स्कूल आता है। मुझे ऐसी विधि अपनानी चाहिए जिसमें बच्चों को

सीखने के अवसर अधिक मिले । इसमें मुझे सफलता तभी मिल सकती है जब मैं बच्चों

को समझँ, उनकी रुचि और जरूरत को समझूं। उनके परिवेश, आर्थिक और सामाजिक

स्थिति को ध्यान में रखते हुए उन्हें अधिक से अधिक सीखने के अवसर उपलब्ध करा सकूँ।

साथ ही उनके कौशल और जिज्ञासाओं को समझकर ऐसी गतिविधि तैयार करूं जिन्हें बच्चे

पढ़ाई को बोझ न समझकर खेल-खेल में समझ आधारित शिक्षा ग्रहण करने के अवसर प्राप्त

करे।

    मैं चाहता हूँ कि बच्चों को ऐसे अवसर प्रदान करें जिससे बच्चों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण

पैदा हो। वे किसी भी बात को तर्क की कसौटी पर कसने के बाद ही उसे स्वीकार करें।

वे अपने समाज की मिथ्या, धारणाओं का परित्याग करें। मैं चाहता हूँ कि शिक्षा ऐसी हो

जो अच्छे नागरिक तैयार करें, जो समाज को नए नजरिए से देखें। वे अपने साथियों,

अभिभावकों, अध्यापकों के सामने अपनी जिज्ञासा रखें। उन्हें समझे और तर्क के आधार

पर अपनी समझ बनाएं। वे शिक्षा इसलिए ग्रहण नहीं कर रहे हैं कि उन्हें नौकरी मिले बल्कि

वे शिक्षा इसलिए ग्रहण करे कि उनमें सामाजिक सरोकार का गठन हो। वे कोई भी कार्य

को छोटा या बड़ा न समझे ।

प्रश्न 28. एक शिक्षक के रूप में आप अपने मजबूत एवं कमजोर पक्षों का

प्रोफाइल तैयार करें तथा उनके कारणों पर विचार करें ?

उत्तर– शिक्षक-शिक्षण प्रक्रिया का एक महत्वपूर्ण अंग हैं। शिक्षक के बिना शिक्षा की

पक्रिया सफल रूप से नहीं चल सकती । शिक्षक की क्रिया और व्यवहार का प्रभाव उसके

विद्यार्थियों, विद्यालय और समाज पर पड़ता है। इस दृष्टि से कहा जाता है कि शिक्षक राष्ट्र

का निर्माता होता है। अतः शिक्षक को अपने कार्यों को सफलतापूर्वक एवं उचित ढंग से

करने के लिए आवश्यक है कि उनमें कुछ गुण व विशेषता होनी चाहिए।

शिक्षक का मजबूत पक्ष―

       विभिन्न मनोवैज्ञानिक, दार्शनिक एवम समाजशास्त्रियों ने शिक्षक के मजबूत पक्षों का

वर्णन कई रूपों में महिमा मंडित किया है।

(क) शिक्षक एक दार्शनिक

(ख) शिक्षक एक निर्देशक

(ग) शिक्षक एक मित्र

(घ) शिक्षक एक प्रबंधक

(ङ) शिक्षक एक नेता

(च) शिक्षक एक शोधकर्ता ।

(क) शिक्षक एक दार्शनिक–शिक्षा और दर्शन में काफी गहरा संबंध है। कई

शिक्षाशास्त्री खुद महान दार्शनिक रहे है। एक शिक्षक के रूप में बच्चों में दार्शनिक सोच

को जन्म देना हमारा काम है हमारा काम है। जीवन और जगत के मूलभूत प्रश्नों पर विचार

करना दार्शनिक सोच है।

(ख) शिक्षक एक निर्देशक– शिक्षक समाज में उच्च आदर्श स्थापित करने वाला

व्यक्तित्व होता है। किसी भी देश या समाज के निर्माण में शिक्षा की अहम भूमिका होती

है। शिक्षक ही समाज का आईना होता है। ऐसे में शिक्षक ही समाज में निर्देशक की भूमिका

निभाता है।

(ग) शिक्षक एक मित्र-हर व्यक्ति को जीवन में उसके आत्मविश्वास को बढ़ाने

के लिए एक ऐसे साथी की आवश्यकता पड़ती है जो भावनात्मक रूप से हमारी मदद कर

सके और जब-जब ऐसा कुछ होता है तो हम अपने शिक्षक को ही समीप पाते है।

(घ) शिक्षक एक प्रबंधक―वर्तमान समय में शिक्षक का कार्य केवल पढ़ाना नहीं

है, बल्कि स्कूल का सही प्रबंधन भी है। विद्यालय सुचारू रूप से चले इसकी सारी जिम्मेदारी

शिक्षक की ही है। इसके लिए एक अच्छे शिक्षक के साथ एक अच्छा मैनेजर भी होना

चाहिए।

(ङ) शिक्षक एक नेता―अच्छा शिक्षक एक अच्छा नेता होता है, क्योंकि वर्ग क

में शिक्षक एक नेता के रूप में कार्य करता है। ऐसे में शिक्षकों को नेतृत्व पर बल देना

चाहिए। नेता का काम है नेतृत्व करना जो एक शिक्षक का भी कार्य है। एक ऐसा मार्ग

बनाना जिसमें लोग अपना योगदान देकर कर्तव्य की राह पर आगे बढ़े।

(च) शिक्षक एक शोधकर्ता― एक शिक्षक अपना पूरा जीवन काल, अपना सारा

समय, ऊर्जा और शोध केवल राष्ट्र के निर्माण में लगा देता है। उसके शोध का ही परिणाम

होता है कि एक राष्ट्र विकास के पथ पर अग्रसर होता है। शिक्षक हर समय-शोध करता

रहता है और वह एक शोघार्थी का जीवन यापन करता है। साथ ही साथ वह शोधक का

भी कार्य करता है, क्योंकि किसी भी प्रकार की त्रुटियाँ या दोष निवारण करने वाला शोधक

कहलाता है।

प्रश्न 29. एक व्यक्ति के रूप में अपनी प्रतिभा, क्षमता, धारणाओं एवं विशेषताओं का

विश्लेषण किस प्रकार करेंगे ?

उत्तर― प्रत्येक व्यक्ति में कोई न कोई क्षमता या प्रतिभा अवश्य होती है, पर हो सकता

है कि वह सही समय पर उसे पहचान कर, उसका पूरा सदुपयोग न कर पाए। प्रत्येक व्यक्ति

में कोई न कोई जन्मजात प्रतिभा अवश्य होती है। यदि हम उसे पहचान सकें तो फिर जीवन

में कोई भी आगे बढ़ने में बाधा नहीं बन सकता ।

          कई बार हम इसी भय से कोई नया कार्य नहीं करना चाहते कि कहीं हम असफल

न हो जाएं। यह केवल एक बहाना है, जो आपको किसी भी नए सौदे में सफल नहीं होने

देता । हमें स्वयं से निरंतर पूछते रहना चाहिए कि अपनी प्राकृतिक प्रतिभा के पहचानने से

हमें क्या लाभ या हानि हो सकती है। एक बार जबयह एहसास हो जाए कि प्राकृतिक प्रतिभा

को पहचानने से हमें कोई हानि नहीं होगी तो उसके बाद यह देखना चाहिए कि प्राकृतिक

झुकाव को न पहचान कर हम क्या गंवा रहे हैं। हमें यह भी देखना होगा कि जीवन में दूसरों

पर दोषारोपण करते रहने से कभी कोई हल नहीं मिलता। हमें स्वयं ही अपनी भूलों का

परिणाम भुगतना होता है।

       छिपी प्रतिभा को पहचानने के लिए यह सोचें कि क्या करने से आपको प्राकृतिक रूप

से आनंद व प्रसन्नता प्राप्त होती है। यह प्रबंधन, सार्वजनिक रूप से भाषण देना, किसी भी

काम को लगन से करना, खाना पकाना, अच्छे वस्त्र पहनना, जीवन को व्यवस्थित व सरल

बनाना, सदैव प्रसन्नचित रहना, दूसरों से सहजता से पेश आना या अपना चीयर लीडर बनने

जैसी कोई भी बात हो सकती है।

       प्रतिभा की पहचान का एक तरीका यह भी हो सकता है कि आप नए विचारों को मुक्त

मन से स्वीकारें व उनके लिए अपनी प्रतिक्रिया देखें। जिन कामों को आप पूरी सहजता व

सरलता से करते हैं, उन्हें अनदेखा न करें, उनका मोल जानें। यदि आप किसी काम को

बड़ी आसानी से (जैसे सांस लेना) कर पाते हैं तो इसका अर्थ है कि आप उसमें दक्ष हैं।

इससे आपको अपनी प्रतिभा पहचानने में सहायता मिलेगी। हो सकता है कि आपको यह

बड़ी बात न लगे, पर कोई दूसरा इसे बड़ी उपलब्धि मान सकता है।

          आपको हमेशा अपनी पूरी प्रतिभा को सपनों को साकार करने के लिए प्रयोग में लाना

है। मन ही मन सफलता को घटित होते देखना है । समय-समय पर स्वयं से पूछें कि जीवन

में किन घटनाओं या परिस्थितियों से आप कुठित होते हैं, फिर उन्हें जीवन से घटाने का प्रयास

करें। हो सकता है कि इसमें समय लगे, किंतु यदि ऐसा न किया तो जहाँ हैं, वहीं खड़े रह

जाएंगे। ऐसा करने के बाद ही अपनी क्षमताओं का संपूर्ण उपयोग कर पाएंगे।

       हम सभी कम से कम, अवचेतन तौर पर तो जानते ही हैं कि किस कार्य में श्रेष्ठ प्रदर्शन

दे सकते हैं। वही हमारी वास्तविक प्रतिभा है। हमारी श्रेष्ठ प्रतिभा इतनी प्राकृतिक होती

है कि उसे पहचान पाना थोड़ा कठिन होता है, किन्तु कोई दूसरा हमारे लिए यह कार्य नहीं

कर सकता । हमें स्वयं देखना है कि जो कार्य हमारे लिए बहुत सहज व सरल है, वह

मोल रखता है। हो सकता है कि उसी में हमारी जन्मजात व प्राकृतिक प्रतिभा छिपी हो ।

दुर्भाग्यवश कभी-कभी हम ही दूसरी तरह के कामों में लिप्त होकर, अपनी प्रतिभा को

अनदेखा कर जाते हैं।

       कुछ कार्य ऐसे हैं, जो हमें मुश्किल लगते हैं, पर दूसरोंके लिए आसान होते हैं, जैसे

कम्प्यूटर की साज-संभाल। हम उनकी विशेषज्ञता, कौशल व जानकारी के लिए भुगतान

करते हैं ।

        प्रयत्न यही हो कि हम किसी बंधी-बंधाई लीक पर चलने की बजाए ऐसे वातावरण

को प्रोत्साहित करें, जिसमें हमारी प्राकृतिक प्रतिभा खुल कर सामने आ सके। हम उसके

बल पर समाज या देश की कुछ सेवा कर सकें ।

        हमारे पास किस भी कार्य को उचित रूप से करने का अच्छा व प्रभावी वातावरण होना

चाहिए। वहाँ अच्छे साधन होने के साथ-साथ दूसरों से बेहतर संबंध भी होने चाहिए।

            कुछ काम ऐसे हैं, जिन्हें आप अपनी प्राकृतिक प्रतिभा के बल पर कर पाएंगे, किंतु

कुछ के लिए आपको दूसरों के सहयोग, सहायता व मार्गदर्शन की आवश्यकता होगी । अपनी

पूरी प्रतिभा व क्षमता को बाहर लाने का पूरा प्रयास करें, ताकि अपने चुने गए क्षेत्र में श्रेष्ठ

प्रदर्शन का अवसर हाथ से न निकल जाए।

प्रश्न 30. एक आदर्श शिक्षक की संकल्पना क्या होनी चाहिए ?

                                     अथवा,

एक आदर्श शिक्षक में कौन-कौन से गुण होने चाहिए ?

उत्तर– एक आदर्श शिक्षक में कौन-कौन से गुण होने चाहिए ?

एक आदर्श शिक्षक को निम्न गुणों से लैस होना चाहिए―

(क) शैक्षिक योग्यता—एक अध्यापक में अध्ययन के लिए स्तरानुसार शैक्षिक

योग्यता का होना अनिवार्य है। साथ ही शिक्षक का प्रशिक्षित होना भी आवश्यक है।

(ख) व्यवसाय के प्रति रुचि व निष्ठा― एक शिक्षक को अध्यापन व्यवसाय में रुचि

और उसके प्रति निष्ठा होनी चाहिए। वह उसे अपनी कमाई का साधन मात्र ना समझे।

(ग) विषय का पूर्ण ज्ञान–एक कुशल शिक्षक में इस गुण का होना अति आवश्यक

है। शिक्षक को अगर विषय का पूर्ण ज्ञान नहीं होगा तो वह विद्यार्थियों का विषय संबंधी

समस्याओं का समाधान नहीं कर पाएंगे जिससे छात्र उनका आदर सम्मान नहीं करेंगे और

न हीं उन्हें आत्म संतुष्टि हो पाएंगी।

(घ) शिक्षण विधियों का प्रयोग–एक अच्छा शिक्षक में यह गुण होना भी

आवश्यक हैं कि छात्र उनकी बात को समझ सके। इसके लिए उन्हें छात्रों के स्तर के अनुसार

व विषय के प्रकृति के अनुसार उचित शिक्षण विधि का प्रयोग करना चाहिए।

(ङ) मनोविज्ञान का पूर्ण ज्ञान–एक शिक्षक उसी स्थिति में बालकों कि समस्याओं

का समाधान कर सकते है जब वह उनसे परिचित हो और समस्याओं के सम्बन्ध में जानने

के लिए शिक्षक को मनोविज्ञान का ज्ञान होना आवश्यक है।

(च) समय का पाबंद—अच्छे शिक्षक का महत्वपूर्ण गुण उनका समय के प्रति पाबंद

होना है। वह समय पर स्कूल जाए, प्राथना सभा में उपस्थित हो तथा कालांश प्रारंभ होते

ही कक्षा में जाए और कालांश समाप्ति के पूर्व कक्षा ना छोड़े । शिक्षक अगर समय का पाबंद

नहीं है तो उनके विद्यार्थी भी समय के पाबंद नहीं हो सकते।

(छ) ज्ञान पिपासा–एक अच्छा शिक्षक वहीं है जिनमें हमेशा सीखने की ललक

बनी रहती है दूसरे शब्दों में हम कह सकते है कि ‘एक अच्छा शिक्षक वहीं है जो हमेशा

विद्यार्थी बना रहता है’ इससे शिक्षक का खुद का ज्ञान तो बढ़ता ही है साथ ही वह बच्चों

को लाभ भी दे सकते है।

(ज) छात्रों के प्रति प्रेम व सहानुभूति― एक शिक्षक केवल अध्ययन के प्रति रुचि

रखें यह प्रयाप्त नहीं है। उन्हें अपने बच्चों में भी रुचि रखनी चाहिए। साथ ही बच्चों से

प्रेम व सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार करना चाहिए। विद्यार्थियों के द्वारा पूछे गए सवालों का

संतोषजनक रूप से उत्तर देना चाहिए। उनकी समस्याओं का सहानुभूतिपूर्ण हल करना

चाहिए। इससे विद्यार्थी भी शिक्षक का आदर करेंगे।

(झ) कुशल वक्ता―एक शिक्षक को अपनी बात छात्रों तक पहुँचाने के लिए उन्हें

रुचिपूर्ण, अच्छे स्तर तथा निश्चित अर्थ वाले शब्द का प्रयोग करना चाहिए। साथ ही

प्रवाहपूर्ण तरीके से बोलने में उसे झिझकना नहीं चाहिए। अत्यधिक गति से भी नहीं बोलना

चाहिए। दूसरे शब्दों में उसे अपनी बात इस प्रकार से रखनी चाहिए कि विद्यार्थियो पर उसका

प्रभाव पड़े और सुनने में भी रुचि ले ।

(ट) धैर्यवान—एक अच्छे शिक्षक में घेर्य का होना अनिवार्य है। छात्रों के प्रश्न पूछने

पर उससे उखड़ना नहीं चाहिए। बात-बात में झुंझलाना नहीं चाहिए बल्कि धेर्य के साथ सोच

समझकर उनके प्रश्नों का उत्तर देकर उनको संतुष्ट करना चाहिए।

प्रश्न 31. विद्यालय संस्कृति क्या है और वह सीखने की प्रक्रिया को कैसे प्रभावित करती है ?

उत्तर― विद्यालय संस्कृति को आम तौर पर निम्नलिखित को शामिल करके परिभाषित

किया जा सकता है―

● सामाजिक वातावरण जिसमें एक सुरक्षित और देखभाल करने वाला वातावरण

शामिल है जहाँ सभी विद्यार्थी आमंत्रित और महत्वपूर्ण महसूस करते हैं, विद्यार्थियों

को उनके नैतिक विकास में मदद मिलती है।

● बौद्धिक वातावरण जिसमें हर कक्षा के सभी विद्यार्थियों को उनका सर्वोत्तम कार्य

प्रदर्शन करने और गुणवत्तापूर्ण काम करने के लिए सहयोग और चुनौती दी जाती

है, इसमें एक समृद्ध कड़ी और जुड़कर करने वाली पाठ्यचर्या और इसे पढ़ाने

के लिए योग्य वह शक्तिशाली शिक्षक समूह शामिल है।

● नियम और नीतियाँ जो विद्यालय के सभी सदस्यों को सीखने और व्यवहार के उच्च

मानकों के लिए उत्तरदायी ठहराती है।

● परंपराएँ और दिनचर्याए उन साझा मूल्यों से निर्मित जो विद्यालय के शैक्षणिक और

सामाजिक मानकों का सम्मान और उन्हें सुदृढ़ करती है।

● संरचनाएँ स्टाफ और विद्यार्थियों को समस्याओं का समाधान करने और विद्यालय

के वातावरण और उनके सामान्य जीवन को प्रभावित करने वाले निर्णय लेने में

और उसके लिए साझा उत्तरदायित्व प्रदान करने के लिए।

● विद्यार्थियों के सीखने और चरित्र के विकास में सहायता करने के लिए माता पिता

साथ प्रभावी ढंग से काम करने के तरीके।

● संबंधों और व्यवहार के लिए नियम जो उत्कृष्टता और नैतिक परिपाटी की

व्यावसायिक संस्कृति की रचना करते हैं।

         इन परिभाषा में विद्यालय का संपूर्ण जीवन, शैक्षणिक और सामाजिक शामिल है।

NCF एक दीर्घा विधि, विकासात्मक प्रभाव वाली प्रबुद्ध संस्कृति का निर्माण का उल्लेख

करता है और कहता है कि बच्चे एक सुबह जाग कर यह नहीं जान सक कर यह नहीं जान

सकते हैं कि प्रजातंत्र में कैसे भाग लिया जाए, उसकी रक्षा की जाए और उसे समृद्ध बनाया

जाए, खास तौर पर यदि उन्हें पहले से इसका कोई निजी या दूसरे के माध्यम से भी अनुभव

न हुआ हो, और न ही सीखने के लिए अनुकरणीय व्यक्ति हों। यह विशिष्ट रूप से

निम्नलिखित के महत्व का उल्लेख करता

● पढ़ने की संस्कृति

● नवोन्मेष, उत्सुकता और व्यवहारिक अनुभव की संस्कृति

● विद्यार्थियों की ‘शिक्षार्थियों’ के रूप में पहचान को उजागर करना और ऐसा

वातावरण बनाना जो प्रत्येक विद्यार्थी की क्षमता और रुचि यों को समृद्ध करता है।

● अंतर व्यक्तिगत संबंधों शिक्षकों के दृष्टिकोण को सूचित करने वाले संदेश और

वे नियम और मूल्य जो विद्यालय की संस्कृति का हिस्सा है।

जो विद्यालय एक सकारात्मक साझा संस्कृति का विकास करने और उसे कायम रखने

में सक्षम होता है वह जानता है कि सीखने के लिए प्रभावी वातावरण विकसित करने में

संस्कृति के कौन से पहलू महत्वपूर्ण होते हैं, वह अपने विद्यार्थियों को यह मूल्य जानबूझकर

सौंपता है। सामूहिक जागरूकता और कार्यवाही के माध्यम से विद्यार्थियों के सीखने और

उपलब्धि को बढ़ाने के लिए संस्कृति का सकारात्मक उपयोग किया जा सकता है, चाहे छोटे

कामों के माध्यम से जैसे सार्वजनिक समारोह में उपलब्धियों का उत्सव मनाना या अधिक

बड़े पैमाने की परियोजनाओं से जैसे पाठ्यचर्या के सुधार में योगदान करने के लिए शिक्षकों,

विद्यार्थियों और अन्य हित धारकों के लिए प्रजातांत्रिक प्रक्रियाएँ विकसित करना ।

        यद्यपि वह स्थिर दिखाई देती है, संस्कृति एक गतिशील अंतराल है जो कानूनों, नीतियों

और नेतृत्व के परिवर्तनों से प्रभावित होता है। इसलिए ‘विद्यालय प्रमुख’ का इस बात से

अवगत रहना कि विद्यालय की संस्कृति को क्या चीज प्रभावित करती है या बदलती है, चाहे

जानबूझकर या उसके बिना और यह सुनिश्चित करना जरूरी है कि सीखने और उपलब्धि

के लिए संस्कृति को कभी जोखिम में ना रखा जाए।

स्वयं के विभिन्न आयाम कौन से हैं? - svayan ke vibhinn aayaam kaun se hain?

स्वास्थ्य के कितने आयाम होते हैं?

के अनेक दार्षनिकों, वैज्ञानिकों, मनोवैज्ञानिकों ने स्वास्थ्य के कई प्रकार के आयाम बताये हैं लेकिन इन में मुख्य रूप से तीन ही आयाम सर्वमान्य हैं । शारीरिक, मानसिक और सामाजिक ।

स्वयं का आयाम कौन सा है?

स्वयं के कई आयाम हैं और इसे विभिन्न तरीकों से परिभाषित किया जा सकता है, यह समय-समय पर भिन्न हो सकते हैं। यह व्यक्ति की व्यक्तिगत समझ, व्यक्तिगत विशेषताओं, प्रेरणाओं, कार्यों, विश्वासों और जीवन के अनुभव से आता है।

व्यक्तित्व के विभिन्न आयामों का स्वयं की पहचान पर क्या प्रभाव पड़ता है?

व्यक्तित्व हमारे पूर्वजों, माता-पिता से गुण-अवगुण प्राप्त कर तथा जिस परिवेश में हम रह रहे हैं, इन दोनों से मिलकर बनता है । ये दोनों कारक हमारे जीवन को बहुत प्रभावित करते हैं । 'स्वयं' की समझ विकसित होने के साथ ही हम अपनी पसन्द, नापसन्द, राय, सहमति, सहमति आदि को व्यकत करना शुरू कर देते हैं ।

व्यक्तित्व विकास के विभिन्न आयाम कौन कौन से हैं?

व्यक्तित्व के आयाम.
शारीरिक आयाम- शारीरिक विकास हर व्यक्ति मे अलग-अलग मात्रा मे होता है जो शारीरिक ग्रन्थियों पर निर्भर करता है ा.
मानसिक आयाम-वंशानुक्रम से जो योग्यताएँ प्राप्त होती है उसका मानसिक विकास पर अलग ही प्रभाव दिखाई देता है।.