अच्छे राजा के क्या गुण होते हैं? - achchhe raaja ke kya gun hote hain?

हम कहावतों मे भी बोलते है कि जंगल का भी एक राजा होता है। हाँ भले उनके नियम शक्ति आधारित होता है लेकिन राजा अथवा शासक होना बहुत आवश्यक है। और खासकर जब हम बात करें मानव समाज कि यहाँ शासक के तात्पर्य उस सत्ता से है जो सम्पूर्ण समाज को एक रूप में बांध कर रखे और उनके मध्य न्याय, समता, अधिकार की एक रूपता बना कर रखे।

आज के इस लेख मे हम बात करेंगे इसी शासक की कि इसकी क्या जिम्मेदारियाँ इसके क्या लक्षण होने चाहिए और इसे हम कुछ पुरातन सनातन कथा प्रसंगों के जरिये जानने का प्रयास करेंगे। जो कथा प्रसंग हम बचपन से अपने किताबों अपने घर के बड़े सदस्यों इत्यादि से सुनते आए है।

सबसे पहले बात करें की एक शासक की क्या आवश्यकता होती है। तो हम देखते है मूलतः मानव किसी समाज मे रहता है और उसका सम्पूर्ण जीवन उसी समाज पर निर्भर रहता है। सभी प्राणी एक दूसरे पर आश्रित रहते है तो इन सभी के मध्य एक सूत्र बना कर रखने के लिए एक मुखिया की आवश्यकता होती है। अब फिर चाहे वो किसी घर का मुखिया हो या फिर किसी गाँव का या फिर किसी राज्य का। साथ ही साथ उस मुखिया अथवा शासक का काम है नीति और नियमों के आधार पर उनके मध्य समरसता बना कर रखे। जिससे समाज सुचारु ढंग से चलता रहे।

ऊपर के कथन को पढ़कर बहुत लोग बोलेंगे कि आज के इस आधुनिक काल में लगभग सभी प्रान्तों और देशों मे लोकतन्त्र है तो फिर यहाँ शासक की क्या परिभाषा होगी तो हमारे द्वारा चुने गए हमारे प्रतिनिधि जो हमतरे संविधान के अनुसार हमारे समाज का सुचारु संचालन करें वही शासक कहलाएंगे।

अब हम बात करेंगे कि एक शासक के क्या लक्षण अथवा गुण होने चाहिए। और इन गुणों की व्याख्या करते हुए हम कुछ पुरातन प्रसंगों का भी उल्लेख करेंगे।

तो एक शासक का सबसे पहला गुण होना चाहिए उसे अपने आश्रितों के हित को सर्वोपरि रखना चाहिए जब कभी भी बात उसे स्वयं और अपने जन के हित की बात करनी हो तो अपने जन के हितों को प्राथमिकता देनी चाहिए। और इस कथन को सिद्ध करने के लिए हम राजा शिबी की प्रसंग देखेंगे जब एक कबूतर उड़ते हुए राजा शिबी की शरण मे आता है जैस्पर एक बाज हमला करना चाहता है तो राजा शिबी शरण मे आए दोनों पक्षियों के हित का सोचते हुए अपने शरीर का मांस उस बाज को देते है जिससे उसकी भूख एमआईटी जाती है। तथा उस कबूतर की जान भी बच जाती है।

यहाँ बाज और कबूतर चूंकि पक्षी है लेकिन राजा के महल मे आए अतः उनके अधिकार क्षेत्र मे होने के कारण उन्हे राजा ने अपने नागरिक के रूप मे माना और उनके हितों की रखशा की।

दूसरा सबसे प्रमुख लक्षण एक शासक को अपने राज्य या फिर पर राज्य के विद्वान को आदर प्रदान करना चाहिए। अगर हम किसी राज्य के संचालन की बात करे तो उसके अच्छे से संचालन के लिए उसे जन के हित का ध्यान रखना और कुछ प्रमुख नीति और विधानों का निर्माण करना अति आवश्यक है और नीति और विधानों का निर्माण किसी विद्वान अथवा विशिष्ट जन के अनुशरण से ही हो सकता है। एक राजा के पास प्रबुद्ध जनों का समूह अवश्य होना चाहिए और इसके लिए उसे अपने पास आने वाले ज्ञानी जन को मान सत्कार और आदतर करना आवश्यक है।

उदाहरण के रूप मे यदि बात रामायण के प्रसंग की करे तो राजा दशरथ ने महर्षि विश्वामित्र के द्वारा राम और लक्ष्मण को उनके साथ भेजने की बात पर सहमति मान ली क्योंकि उन्होने अपने आचरण के अनुसार एक विद्वान ज्ञानी पुरुष की बात को नकारना उचित नहीं समझा। वहीं दूसरी तरफ रावण ने अपने ज्ञानी भाई और अन्य विद्वानो के समझाने के बाद भी उसने उनकी बात नहीं मानी और और भगवान राम से पराजित हो गया।

तीसरा सबसे प्रमुख गुण अथवा लक्षण किसी शासक मे अभिमान बिलकुल भी नहीं होना चखिए एक शासक ओ बहुत ही शांत शालिन होना चाहिए जिससे कारण वो सभी की बात को सुनने का लक्षण ग्रहण कर सके उसके अंदर सभी के प्रति समान भावनात्मक लगाव होना चाहिए जिससे वो दूसरों के दुख दर्द को समझ सके।

उदाहरण के रूप मे अगर आप महाभारत के प्रसंग को लो तो दुरयोद्धा जिसे स्वयं भगवान श्री कृष्ण समझने जाते है। फिर भी अहंकार वश दुर्योधन किसी भी बात नहीं सुनता और पाँच गाँव देने के बजाय सम्पूर्ण साम्राज्य गवा देता है।

उपरोक्त लेख लिखने का उद्देश्य केवल यही है कि आज के समय मे एक शासक जिसे लोगो के हित की बात करनी चाहिए। वो अपने हित की ही सोचते है। जन सेवा की भावना नाम मात्र भी लोगो मे देखने को नहीं मिलता है। एक समाज के सुचारु संचालन मे जो आवश्यक होना चाहिए वो एक भी गुण इनमे देखने को नहीं मिलता है। उपरोक्त के अलावा वो सभी आचरण और व्यवहार किसी शासक के लिए अति आवश्यक है जिससे समाज का सुचारु और सौहार्द पूर्ण संचालन हो।

कौटिल्य ने राज्य रूपी शरीर में राजा को सबसे ऊँचा स्थान प्रदान किया है। उसने राजा की सत्ता को समुदाय के सभी कार्यों की एकमात्र आधारशिला समझा है। उसकी समृद्धि से ही राज्य की समृद्धि सम्भव है। उसके गुणों से राज्य के अन्य तत्व भी प्रभावित होते हैं।

कौटिल्य के अनुसार राजा ही राज्य में सर्वशक्तिमान है। राजनीति की सफलता या असफलता तथा राज्य का भविष्य राजा की शक्ति और नीति पर निर्भर है। यद्यपि कौटिल्य गणतन्त्र और अन्य प्रकार के शासनों से परिचित है, परन्तु चूँकि वह राजतन्त्र को ही सर्वोच्च मानता है इसलिए उसने अर्थशास्त्र की रचना केवल राजा के हित के लिए ही की है। बी० पी० सिन्हा के अनुसार, “कौटिल्य की प्रणाली में राजा शासन की धुरी है और शासन संचालन में सक्रिय रूप से भाग लेने और शासन को गति प्रदान करने में राजा का एकमात्र स्थान है ।” स्वयं कौटिल्य के शब्दों में, “यदि राजा सम्पन्न हो तो उसकी समृद्धि से प्रजा भी सम्पन्न होती है। राजा का जो शील हो, वह शील प्रजा का भी होता है। यदि राजा उद्यमी और उत्थानशील होता है तो प्रजा में भी गुण आ जाते हैं, यदि राजा प्रमादी हो, तो प्रजा भी वैसी ही हो जाती है। अतः राज्य में कुटस्थानीय (केन्द्रपूत) राजा ही है ।”

राजा के गुण

कौटिल्य ने राजा के आवश्यक गुणों पर बहुत बल दिया है। वह अपने राजा को केवल सत्ता उपयोग करने वाले व्यक्ति के रूप में नहीं देखता। वह उसे राजर्षि बनाना चाहता है। उसके अनुसार राजा को कुलीन, धर्म की मर्यादा चाहने वाला, कृतज्ञ, दृढनिश्चयी, विचारशील, सत्यवादी, वृद्धों प्रति आदरशील है, विवेकपूर्ण, दूरदर्शी, उत्साही तथा युद्ध में चतुर होना चाहिए। उसे क्रोध, मद, लोभ, भय आदि से दूर रहना चाहिए। विपत्ति के समय प्रजा का निर्वाह करने और शत्रु की दुर्बलता पहचानने की आवश्यक योग्यता भी होनी चाहिए। उसमें नियमानुसार राजकोष में वृद्धि करने की योग्यता होनी चाहिए। राजा को कभी भी वृद्ध, अपंग तथा दीन-हीन की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए।

राजा के लिए शिक्षा

कौटिल्य इस तथ्य से परिचित है कि उपर्युक्त सभी गुणों से युक्त व्यक्ति सरलता से नहीं मिल सकता। उसके अनुसार इनमें से कुछ गुण तो स्वाभाविक होते हैं और कुछ अभ्यास से प्राप्त किये जा सकते हैं। मनुष्य के स्वभाव और चरित्र पर वंश-परम्परा का प्रभाव होता है किन्तु अभ्यास से उसमें कुछ परिवर्तन सम्भव हो सकता है। अभ्यास से प्राप्त गुण अधिक महत्वपूर्ण होते हैं। इसीलिए कौटिल्य ने राजा की शिक्षा पर अत्यधिक बल दिया है। उसके अनुसार, “जिस प्रकार घुन लगी हुई लकड़ी जल्दी नष्ट हो जाती है, उसी प्रकार जिस राजकुल के राजकुमार शिक्षित नहीं होते वह राजकुल बिना किसी युद्ध आदि के स्वयं ही नष्ट हो जाता है ।”

अच्छी शिक्षा प्राप्त किया हुआ राजा सम्पूर्ण प्राणियों के हित में रत रहते हुए और अपनी प्रजा का संरक्षण करते हुए चिरकाल

तक निष्कटंक हो पृथ्वी का उपभोग करता है। कौटिल्य ने राजा की जिन आवश्यक विद्याओं का उल्लेख किया है वे हैं- दण्ड-नीति, राज्य शासन, सैन्य विद्या, मानवशास्त्र, इतिहास, धर्मशास्त्र और अर्थशास्त्र।

राजपुत्र को अपने आचार्य से भिन्न-भिन्न विद्याएँ प्राप्त करनी चाहिए। मुण्डन संस्कार के पश्चात् अक्षराभ्यास तथा गिनती आदि का विधिपूर्वक अभ्यास करना चाहिए। थोड़ा बड़ा होने पर विभिन्न विभागों के दक्ष और योग्य व्यक्तियों से युवराज को भिन्न-भिन्न प्रकार की विद्या सीखनी चाहिए। अपने विद्यार्थी जीवन में राजपुत्र को ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए।

यह भी आवश्यक है कि राजा अपनी इन्द्रियों को वश में रख सके। “अवशेन्द्रिय पश्वातुरन्तोऽपि राजा सद्यो विनश्यति” -इन्द्रियों को वश में न रखने वाले, चक्रवर्ती राजा का भी शीघ्र ही सर्वनाश हो जाता है। कौटिल्य नहीं चाहता कि विलासपूर्ण महलों के ऐश्वर्य में पड़ा हुआ राजा चरित्रहीन या पतित हो जाये जो राजा अपनी इन्द्रियों को वश में नहीं रख सकता वह अपनी प्रजा का घातक हो सकता है। कौटिल्य के अनुसार इन्द्रियों पर विजय ही विद्या और विनय के हेतु हैं। वह लिखता है “कर्ण, त्वचा, चक्षु, रसना और प्राण इन्द्रियों को शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध आदि विषयों में प्रवृत्त न होने देने को इन्द्रिय विजय कहते हैं।”

कौटिल्य का आदर्श राजा इन्द्रियों को अपने वश में रखता है, इसका अर्थ यह नहीं कि कौटिल्य चरम वैराग्य के पक्ष में है। वह तो राजा को अर्थ, धर्म, काम तीनों के ही उचित रूप से उपभोग की आज्ञा देता है। वह केवल इनकी अति होने के विरुद्ध है। कौटिल्य चाहता है कि राजा अपनी इन्द्रियों को वश में रखते हुए परस्त्री, पर-द्रव्य आदि से दूर रहे, अधर्म और अनर्थ उसके पास तक न फटकें ।

राजा के कर्त्तव्य

राजा के कर्तव्यों का वर्णन करते हुए कौटिल्य ने लिखा है- “प्रजा के सुख में राजा का सुख है, प्रजा के हित में राजा का हित है। राजा के लिए प्रजा के सुख से भिन्न अपना सुख नहीं है, प्रजा के सुख में ही उसका सुख है ।” उसके अनुसार, “राजा और प्रजा में पिता और पुत्र का सम्बन्ध होना चाहिए।” जैसे पिता पुत्र का ध्यान रखता है, वैसे ही राजा के द्वारा प्रजा का ध्यान रखा जाना चाहिए। इस सामान्य धारणा के प्रतिपादन के साथ-साथ कौटिल्य राजा के कर्तव्यों का विशद् विवेचन भी करता है। उसके अनुसार राजा के मुख्य कर्त्तव्य निम्नलिखित हैं :

  1. वर्णाश्रम धर्म को बनाये रखना– राजा का एक प्रमुख कर्त्तव्य वर्णाश्रम धर्म को बनाये रखना और सभी प्राणियों को अपने धर्म से विचलित न होने देना है क्योंकि “जिस राजा की प्रजा आर्य मर्यादा के आधार पर व्यवस्थित रहती है, जो वर्ण और आश्रम के नियमों का पालन करती है और जो त्रयी (तीन वेद) द्वारा निहित विधान से रक्षित रहती है, वह प्रजा सदैव प्रसन्न रहती है और उसका कभी नाश नहीं होता।”
  2. दण्ड की व्यवस्था करना– राजा का दूसराअ महत्वपूर्ण कार्य दण्ड की व्यवस्था करना है क्योंकि दण्ड “अपर्याप्त वस्तु को प्राप्त कराता है, उसकी रक्षा करता है, रक्षित वस्तु को बढ़ाता है और बढ़ी हुई वस्तु का उपयोग करता है।” समाज और सामाजिक व्यवहार दण्ड पर ही निर्भर करते हैं, इसलिए दण्ड की व्यवस्था महत्वपूर्ण है। किन्तु इस सम्बन्ध में स्वामी को इसका ध्यान रखना चाहिए कि दण्ड न तो आवश्यकता और औचित्य से अधिक हो और न ही कम। यथोचित दण्ड देने वाला राजा ही पूज्य होता है और केवल समुचित दण्ड ही प्रजा को धर्म, अर्थ तथा काम से परिपूर्ण करता है। “यदि काम, क्रोध या अज्ञानवश दण्ड दिया जाय, तो जनसाधारण की कौन कहे, वानप्रस्थ और संन्यासी तक क्षुब्ध हो जाते हैं। यदि दण्ड का उचित प्रयोग नहीं होता, तो बलवान मनुष्य निर्बलों को वैसे ही खा जाते हैं, जैसे बड़ी मछली छोटी को।”
  3. आय–व्यय सम्बन्धी– राजा को आय व्यय का पूरा हिसाब और प्रबन्ध रखना चाहिए। उसे यह कार्य समाहर्ता के द्वारा करना चाहिए।
  4. नियुक्ति सम्बन्धी– राजा अमात्य, सेनापति और प्रमुख कर्मचारियों की नियुक्ति करता है, सभी कर्मचारियों के कार्यों का निरीक्षण करता है और श्रेष्ठ कार्य करने वाले कर्मचारियों की पदोन्नति करता है।
  5. लोकहित और सामाजिक कल्याण सम्बन्धी– कौटिल्य ने राजा को लोकहित और सामाजिक कल्याण के भी कार्य सौंपे हैं। इनके अन्तर्गत राजा दान देगा और अनाथ, वृद्ध तथा असहाय लोगों के पालन-पोषण की व्यवस्था करेगा। असहाय, गर्भवती स्त्रियों की उचित व्यवस्था करेगा और उनके बच्चों का भरण पोषण करेगा। जो किसान खेती न करके जमीन परती छोड़ देते हों, उनसे जमीन लेकर वह दूसरे किसानों को देगा। उसके अन्य कर्त्तव्य कृषि के लिए बाँध बनना, जलमार्ग, स्थलमार्ग, बाजार और जलाशय बनाना, दुर्भिक्ष के समय जनता की सहायता करना और उन्हें बीज देना है। आवश्यक होने पर उसे धनवानों से अधिक कर लगाकर धन को गरीबों में बाँट देना चाहिए।

कौटिल्य के अनुसार खदानें, वस्तुओं का निर्माण, जंगलों में इमारती लकड़ी और हाथियों को प्राप्त करना तथा अच्छी नस्ल के जानवरों को पैदा करने का प्रबन्ध भी राज्य के द्वारा ही किया जाना चाहिए। राजा के लोकहित और समाज कल्याण सम्बन्धी इन कार्यों के उल्लेख में कौटिल्य की दूरदर्शिता ही झलकती है।

एक अच्छे राजा में कौन कौन से गुण होते हैं?

Answer.
जो भगवान् में विश्वास रखता हो।.
राजा ऐसा होना चाहिए जो प्रजा के हित के लिए हमेशा सत्य बोले और सत्य को स्वीकार करने की हिम्मत भी रखे।.
आदर्श राजा वह है, जिसे कभी क्रोध न आये और अगर आये तो अपने ऊपर आये।.
आदर्श राजा वह है, जो दूर द्रष्टि रखता हो।.
राज्य कोष से एक भी पैसा अपने पास न रखे।.

राजा के कितने गुण होते हैं?

उसके अनुसार राजा को कुलीन, धर्म की मर्यादा चाहने वाला, कृतज्ञ, दृढनिश्चयी, विचारशील, सत्यवादी, वृद्धों प्रति आदरशील है, विवेकपूर्ण, दूरदर्शी, उत्साही तथा युद्ध में चतुर होना चाहिए। उसे क्रोध, मद, लोभ, भय आदि से दूर रहना चाहिए।

भीष्म ने राजा के कितने गुणों का वर्णन किया?

भीष्म पितामह ने युधिष्ठर से कहा कि राजा को इन 36 गुणों के बारे में जानना चाहिए. इन गुणों को अपना कर ही राजा श्रेष्ठ और प्रतापी बन सकता है. आइए जानते हैं इन गुणों के बारे में. 1- शूरवीर बने, किंतु बढ़चढ़कर बातें न बनाए.

राजा का नाम क्या था?

Raja name meaning in hindi and Religion.