साहित्य को जिन मूल्यों के लिए जाना पहचाना जाता था, वे मूल्य धीरे-धीरे जमींदोज़ हो रहे हैं. बाजार ने सारे मूल्यों को प्रभावित किया है; ऐसे में किसी साहित्यिक पत्रिका का संपादक यह कहे कि प्रेमचंद दोयम दर्जे के कथाकार थे, यह कोई अचरज की बात नहीं है. किन्तु देखने की बात यह है कि दोयम दर्जे के कथाकार उपन्यासकार होकर भी वे आज भी अपनी कहानियों और उपन्यासों व अपने विचारों में जितने प्रासंगिक हैं उतने दूसरे कथाकार नहीं. यह सच है कि लोकप्रियता लेखक की स्तरीयता का मानक नहीं होती. आज के बेस्ट सेलर
के दौर में जहां हिंदी की नई पौध अपने अर्जित मूल्यों की कहानियां और उपन्यास लिख कर रातोंरात स्टार बनना चाहती है, प्रेमचंद के समय में ऐसी प्रतिस्पर्धा नहीं थी. तथापि अपने दौर के कहानीकारों, उपन्यासकारों के मध्य वे अपनी प्रतिबद्धताओं से पहचाने गए. प्रेमचंद की कहानियां और उपन्यास जिस तरह अपने समय का क्रिटीक रचते हैं, आज के कथाकार या परवर्ती कथाकारों का कथाशिल्प उन्नत हो सकता है पर वे प्रेमचंद पर आच्छादित हो जाएं ऐसा नहीं है. आज जो संपादक उन्हें दोयम दर्जे का कथाकार या लेखक कह रहे हैं वे भी इसी
बाजारवाद की उपज हैं. उन्हें शायद यह नहीं मालूम कि 36 के दौर के प्रेमचंद ने उस दौर में तो तल्ख लिखा ही आज वे होते तो मनुष्य पर चढ़ बैठने वाले बाजारवाद और पूंजीवाद की तगड़ी खबर लेते. Show साहित्य का उद्देश्य साहित्य का प्रयोजन लेखक की प्रगतिशीलता प्रेमचंद उस दौर के लेखक हैं जब सौंदर्य के मानक दूसरे थे. उसमें लेखक का एकांतिक संसार था जिसमें किसी अन्य की आवाजाही न थी. वह अमीरी का पल्ला पकड़े रहने वाला लेखक था धूल धूसरित संसार से अलग. वे कहते हैं, झोपड़े व खंडहर उसके ध्यान के अधिकारी न थे. वह उन पर लिखता तो था पर या तो उन्हें उपहास की दृष्टि से देखता था या गंवई रूप में मान कर त्याज्य समझता था. प्रेमचंद के कमजोर तबके के पात्र भी उनकी तूलिका से मंज कर जीवन और समाज को बेहतरीन संदेश देते हैं. यही वह निबंध है जिसके इन विचारों को प्राय: दुहराया जाता रहा है- ''साहित्यकार का लक्ष्य केवल महफिल सजाना और मनोरंजन का सामान जुटाना नहीं है -उसका दरजा इतना न गिराइये. वह देश भक्ति के और राजनीति के पीछे चलने वाली सचाई भी नहीं, बल्कि उनके आगे मशाल दिखाती हुई चलने
वाली सचाई है.'' (वही, पृष्ठ 15). प्रेमचंद की सार्थकता साहित्य में वे उच्चादर्श के हामी थे. वे मानते थे कि लेखक को आदर्शवादी होना चाहिए. वाल्मीकि, व्यास, सूर, तुलसी, कबीर के साहित्य को वे अपने समय का सच्चा साहित्य मानते थे. क्योंकि ये सभी विलासिता के उपासक न थे. इनके साहित्य से एक दिशा मिलती है मनुष्य को. मनुष्य का परिमार्जन होता है. वे साहित्य को राष्ट्र के उत्थान का कारक मानते हैं. साहित्य को वे बुद्धि और ज्ञान का नहीं, भावों का साधन मानते हैं. जिस रचना का भाव संसार जितना संवलित होगा वह उतना ही सफल और सार्थक साहित्य होगा. उसी में मनुष्य के भावों को परिमार्जित करने की क्षमता होगी. वे साहित्य में यथार्थवाद और आदर्शवाद में सहमेल चाहते थे. माना कि साहित्यकार अपने समय के यथार्थ को देखता और व्यंजित करता है जो विद्रूप भी हो सकता है. कुत्सित भावों का उद्भावक भी हो सकता है, पर वहीं पर कुछ चरित्रों घटनाओं का समावेश कुछ आह्लालादकारी और सहृदय भी हो सकता है. इससे साहित्य में संतुलन पैदा होता है. वे कहते थे कि ''साहित्य का काम केवल पाठक का मन बहलाना नहीं है. वह तो भाटो, मदारियों, विदूषकों और मसखरों का काम है. साहित्यकार का पद इससे कहीं ऊंचा है. वह हमारा पथ प्रदर्शक होता है.'' (साहित्य का उद्देश्य, पृष्ठ 58) वे साहित्य को कला की पूर्ति का माध्यम नहीं मानते थे. प्रेमचंद ने विदेशी साहित्य प्रभूत मात्रा में पढ़ रखा था. इसलिए वे रचना के लिए आवश्यक तत्वों को बारीकी से पहचानते थे. लेखक को किसी रचना के लिए प्रेरक तत्व कहीं से भी मिल सकते हैं. उन्होंने इसके अनेक उदाहरण अपने निबंधों में दिए हैं. 'साइलस मार्नर' की लेखिका जार्ज इलियट का उदाहरण सामने रखते हुए वे कहते हैं कि इसे लिखने की प्रेरणा बचपन में कपड़े का थान लादे फिरते जुलाहे को देख कर हुई. 'स्कारलेट' के लेखक को भी इसे रचने की प्रेरणा एक पुराने मुकदमे की फाइल से मिली. रंगभूमि लिखने की प्रेरणा स्वयं प्रेमचंद को एक अंधे भिखारी को देख कर मिली जो गांव में ही रहता था. उन्होंने अपने निबंधों में कहानी कला के साथ साथ उपन्यास कला पर भी विचार किया है तथा कहानी लिखने व उपन्यास लिखने के आवश्येक पहलुओं पर विचार किया है. उन्होंने अपने निबंधों में अपने अनेक समकालीनों- भुवनेश्वर, अज्ञेय, भारतीय एमए, वीरेश्वर सिंह, राधाकृष्ण, तथा कमला चौधरी आदि पर टिप्पणियां की हैं. पर कहानी या उपन्यास समाज से जुड़े, वह यथार्थ जीवन जगत से टकराए, यह वे जरूर चाहते थे, इसीलिए उन्होंने अज्ञेय के बारे में यह कहने में संकोच नहीं किया कि ''उनकी रचनाओं में आमद नहीं आबुर्द है, पर उसके साथ ही गद्य काव्य का रस है. उन्हें पढ़कर हमें मालूम होता है कि हम ऊंचे उठ रहे हैं ... पर वे जितना कहती हैं उससे ज्यादा छोड़ देती हैं. काश अज्ञेय जी कल्पना लोक से उतर कर यथार्थ के संसार में आते.'' (वहीं, पृष्ठ 99) बहरहाल, प्रेमचंद पर जितनी बातें की जाएं वे कम होंगी. किसी संक्षिप्त लेख के आयतन में प्रेमचंद की खूबियों का बखान नहीं किया जा सकता. उन्होंने समाज को गहरे देखा था तथा उसकी कमजोरियों व खूबियों से वाकिफ थे.
उनकी कहानियां और उपन्यास भारतीय समाज के उस लोक और लोकेल में ले जाते हैं जहां लोक है, लोक प्रपंच है, गांव हैं, गरीबी है, कुछ खराब चरित्रों के बावजूद कुछ अच्छे लोग दुनिया में हैं जिससे यह समाज चल रहा है. प्रेमचंद इस ठहरे हुए समाज को चलने की राह दिखाते हैं. प्रेमचंद की कहानियां कहानियों के गुणसूत्र का बखान स्वयं करती हैं. एक बेहतर दुनिया के निर्माण में प्रेमचंद की कहानियों व उनके उपन्यासों का योगदान कम नहीं क्योंकि वह ऐसा आईना है जिसके जबान है. प्रेमचंद की कहानियां आदर्शोन्मुख यथार्थवाद की
कहानियां होते हुए भी बोलती हैं और कई दफे बहुत तीखा बोलती हैं. प्रेमचंद के समतुल्य रूसी कथाकार तॉलस्तॉय एक बाद 75 की वय के आसपास किसी गांव में इसलिए ग्रामीणों के बीच गए थे कि वे रुसी भाषा सीख सकें. प्रेमचंद ग्रामीणों के बीच ही पले बढ़े इसलिए उन्हें भाषा सीखने का कोई अन्य जतन नहीं खोजना पड़ा. इस दृष्टि से प्रेमचंद की रचनाएं पढ़ कर करोड़ों लोगों ने हिंदी सीखी है यह कहना कोई अत्युक्ति नहीं. प्रेमचंद की इसी विशेषता के कारण बच्चे, नौजवान और बूढ़े सभी उन्हें इसी तरह पढ़ते रहेंगे जिस तरह उन्हें अब
तक पढ़ते आए हैं क्योंकि वे किसी एक पीढ़ी के नहीं, सभी पीढ़ियों के कथाकार हैं. साहित्य का उद्देश्य निबंध किसका है?'साहित्य का उद्देश्य' प्रेमचंद का भाषण है। यह भाषण लखनऊ में आयोजित प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन 1936 ई. में अध्यक्षीय पद दिया गया था । इस भाषण में प्रेमचंद ने साहित्य की अनेक परिभाषाएं दी हैं।
साहित्य का उद्देश्य क्या है?साहित्य हमारे जीवन को स्वाभाविक और स्वाधीन बनाता है, दूसरे शब्दों में उसी की बदौलत मन का संस्कार होता है। यही उसका मुख्य उद्देश्य है।
भारतीय साहित्य का उद्देश्य क्या है?भारतीय ग्रामीण आचायों ने साहित्य या काव्य का उद्देश्य भावनाओं का परिष्कार करके ब्रहमानंद सहोदर आनंद की अनुभूति कराना स्वीकार किया है। अर्थात उनके अनुसार रस प्राप्त करना या मनोरंजन पाना ही साहित्य का उद्देश्य है। रस या मनोरंजन भी तभी पाया जा सकता है जब कि व्यक्ति और समाज का मन-मस्तिष्क सहज एंव स्वस्थ हो।
साहित्य क्या है समझाते हुए विशेषताओं पर प्रकाश डालिए?Sahitya Kya Hai Samjhate Hue Visheshtaon Par Prakash Daliye
भाषा के माध्यम से अपने अंतरंग की अनुभूति, अभिव्यक्ति करानेवाली ललित कला 'काव्य' अथवा 'साहित्य' कहलाती है। वैसे साहित्य शब्द को परिभाषित करना कठिन है। जैसे पानी की आकृति नहीं, जिस साँचे में डालो वह ढ़ल जाता है, उसी तरह का तरल है यह शब्द।
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