साहित्य का उद्देश्य निबंध के विचार पक्ष पर प्रकाश डालिए - saahity ka uddeshy nibandh ke vichaar paksh par prakaash daalie

साहित्य को जिन मूल्यों के लिए जाना पहचाना जाता था, वे मूल्य धीरे-धीरे जमींदोज़ हो रहे हैं. बाजार ने सारे मूल्यों को प्रभावित किया है; ऐसे में किसी साहित्यिक पत्रिका का संपादक यह कहे कि प्रेमचंद दोयम दर्जे के कथाकार थे, यह कोई अचरज की बात नहीं है. किन्तु देखने की बात यह है कि दोयम दर्जे के कथाकार उपन्यासकार होकर भी वे आज भी अपनी कहानियों और उपन्यासों व अपने विचारों में जितने प्रासंगिक हैं उतने दूसरे कथाकार नहीं. यह सच है कि लोकप्रियता लेखक की स्तरीयता का मानक नहीं होती. आज के बेस्ट सेलर के दौर में जहां हिंदी की नई पौध अपने अर्जित मूल्यों की कहानियां और उपन्यास लिख कर रातोंरात स्टार बनना चाहती है, प्रेमचंद के समय में ऐसी प्रतिस्पर्धा नहीं थी. तथापि अपने दौर के कहानीकारों, उपन्यासकारों के मध्य वे अपनी प्रतिबद्धताओं से पहचाने गए. प्रेमचंद की कहानियां और उपन्यास जिस तरह अपने समय का क्रिटीक रचते हैं, आज के कथाकार या परवर्ती कथाकारों का कथाशिल्प उन्नत हो सकता है पर वे प्रेमचंद पर आच्छादित हो जाएं ऐसा नहीं है. आज जो संपादक उन्हें दोयम दर्जे का कथाकार या लेखक कह रहे हैं वे भी इसी बाजारवाद की उपज हैं. उन्हें शायद यह नहीं मालूम कि 36 के दौर के प्रेमचंद ने उस दौर में तो तल्ख लिखा ही आज वे होते तो मनुष्य पर चढ़ बैठने वाले बाजारवाद और पूंजीवाद की तगड़ी खबर लेते.
प्रेमचंद के समय लिखने की एक वजह थी. याद रहे, प्रेमचंद के परवर्ती रचनाकार धूमिल की एक कविता कहती है्-
असल बात तो यह है कि जिन्दा रहने के पीछे
अगर सही तर्क नहीं है
तो रामनामी बेचकर या रण्डियों की
दलाली करके रोजी कमाने में
कोई फर्क नहीं है.
यही वजह लिखने के पीछे भी मायने रखती है. प्रेमचंद आदर्शवादी यथार्थवाद के स्वप्नद्रष्टा थे. समाज खराब था, लोग खराब थे पर सिस्टम में कहीं बेहतरी के आसार भी थे. वे सिस्टम पर चोट करने वाले लेखक थे. सामंतों पर चोट करने वाले लेखक थे. उनके यहां गरीबों की सुनवाई थी. उनकी कहानियों और उपन्यासों का जो ताना बाना है उसे देखें तो उस दौर का समाज निर्ममता से प्रतिबिम्बित होता है. उन्होंने लेखनी उठाई ही इसलिए कि उन्हें कुछ कहना है. आसपास के चरित्रों का उनसे ज्यादा द्रष्टा कौन था. निर्मला, सेवासदन, गोदान, गबन और कर्मभूमि जैसे उपन्यासों के जरिए उन्होंने उस दौर के समूचे समाज का खाका खींच दिया था तो कहानियों के तो वे जादूगर थे. उनमें सीख भी थी, समाज की आलोचना भी तथा खल से खल और सज्जन से सज्जन चरित्रों की पहचान भी थी. इसीलिए उनके साहित्य का अपना समाजशास्त्र था. उसमें प्रबोधन भी है और सावधानियां भी.
प्रेमचंद कहने के लिए उपन्यास सम्राट थे, कथा सम्राट थे, पर उनके भीतर एक सुचिंतित विचारक भी मौजूद था. प्रगतिशील लेखक संघ के अधिवेशन में दिए गए उनके भाषण की चर्चा आज आठ दशकों बाद भी उसी प्रासंगिकता के साथ होती है. साहित्य क्या है, क्यों है, किसके लिए है, किसके बारे में है, ये सारे प्रश्न उनके सम्मुख भी रहे हैं. साहित्य का प्रयोजन कोई आज का विषय नहीं है. यह हर समय साहित्यकार के सम्मुख रहा है. जब मम्मट या विश्वनाथ काव्य प्रकाश या साहित्य दर्पण में काव्य के प्रयोजन और हेतु पर बात कर रहे थे तो वह कोई साहित्‍य के प्रयोजन से भिन्न विषय न था. तब काव्य के प्रयोजन ही साहित्य के प्रयोजन थे. प्रयोजनच्युत साहित्य न तब न अब कोई अर्थ रखता है. सदियों से जो साहित्य विभिन्न विधाओं-शैलियों में लिखा जा रहा है उसके पीछे कोई न कोई प्रयोजन है. प्रेमचंद इस समस्या से वाकिफ थे कि हर लेखक को लिखने के पहले यह सोचना चाहिए कि आखिर वह क्यों लिख रहा है. तुलसी ने जब कहा कि 'कवि न होऊँ नहि बचन प्रबीनू' तो ऐसा होते हुए भी उन्होंने रामचरित मानस लिखने का संकल्प क्यों ठाना. पहली बात तो यह कि यह साहित्यकार की विनम्रता है कि उसके लिए लिखना जैसे आराधना करना है. और नहीं तो कम से कम सरस्वती के दरबार में तो मत्था टेकना ही है, उसके देवीरूप पर नहीं बल्कि वैदुष्य के एक प्रतीक रूप में उसे साक्षी मान कर कि जो कुछ लिखना है वह मानव के कल्याण के लिए हो. मानव कल्याण के लिए तो हर प्राणी चिंतित होता है पर हर आदमी लेखक कवि नहीं होता.अपने भावों और कल्पनाओं को रचना का विन्यास नहीं दे सकता. यह कवि या लेखक ही है जो किसी भी भाव दृश्य  या अनुभूति को रचना के कलेवर में बदल सकता है. हर कोई नहीं. यह किसी भी लेखक या कवि का कार्यभार है कि वह मनुष्यता के प्रति प्रतिबद्ध हो. अपने पाठक के प्रति प्रतिश्रुत हो.
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साहित्‍य का उद्देश्‍य
साहित्य का उद्देश्य पुस्तक में प्रेमचंद ने साहित्य और अन्य आनुषंगिक विधाओं से जुड़े मुद्दों पर अपनी स्पष्ट बातें कही हैं. उन्‍होंने मानव मन और समाज के बहुत सी प्रवृत्तियों पर कहानी व उपन्यास लिखे कि उनके आधार पर उस वक्त के समाज की अधिरचना और मनुष्य की मनोरचना को केवल उनकी कहानियों व उपन्यासों से समझा जा सकता है. साहित्य का उद्देश्य, जीवन में जीवन में साहित्य का स्थान, साहित्य में बुद्धिवाद, साहित्य में समालोचना, साहित्य और मनोविज्ञान, फिल्म और साहित्य, सिनेमा और जीवन, साहित्य की नयी प्रकृति, ग्राम्य गीतों में समाज चित्र, साहित्यिक उदासीनता, साहित्य में ऊंचे विचार, संग्राम में साहित्य व साहित्य का आधार आदि विषयों पर उन्होंने समय समय पर अपने विचार व्यक्‍त किए हैं, जिसकी रोशनी में साहित्य‍ के विभिन्न पहलुओं के बारे में उनके मंतव्य को जाना जा सकता है.
आज साहित्य की जिस सामाजिक उपयोगिता की बात की जाती है, प्रेमचंद ने उसे बहुत पहले ही पहचान लिया था तथा उसे साहित्य का ध्येय माना भी. समाजशास्त्रियों ने साहित्य को भले ही समाजशास्त्र को समझने के एक प्रमुख आधार के रूप में माने-जाने की मान्य‍ता न दी हो पर अनेक समाजशास्त्रियों, जिसमें पीसी जोशी भी आते हैं, ने माना है कि किसी कहानी उपन्यास आदि को पढ़ कर समाज की प्रवृत्तियों को बहुत गहरे जाना-पहचाना जा सकता है. साहित्य यदि समाज का दर्पण है तो समाज का चेहरा बखूबी साहित्य में प्रतिबिम्बित होगा. प्रेमचंद जिस समाज के लेखक थे, उसके स्वभाव, स्व- भाव और मिजाज से परिचित थे, उसके संस्कारों, प्रवृत्तियों और क्रिया कलापों से परिचित थे. वे किसानों की दशा से परिचित थे तो सामंतों के अहंकार, गरीबों की विवशताओं और स्त्रियों की पराधीनता से अवगत थे, बच्चों के मनोविज्ञान से अवगत थे. कौन बच्चा होगा जो मेले से चिमटा खरीद कर शान से इतराता हुआ घर आएगा. पर मेले-ठेले के बीच भी अपनी इच्छाओं को परे रख जब उनकी कहानी का हामिद मेले से अपनी बूढी मां के लिए चिमटा लेकर आता है, तो यह समाज से हामिद जैसा चरित्र उभारना भी उनके साहित्य का उद्देश्य ही कहा जाएगा कि जहां बच्चे अपनी पसंद को प्राथमिकता देते हैं- कृष्ण तक यशोदा को जैहों लोटि धरनि पर अबहीं कह कर रूठने पर आमादा हो उठते हैं वहीं हामिद जैसे एक गरीब बालक के मन में मां के लिए करुणा उपजा कर साहित्य को जैसे एक दीक्षा भूमि बना दिया है जिससे कि हर बच्चा जो इस कहानी को पढ़े वह अपनी मां के प्रति करुण हो, उसकी ममता को समझे और उसकी जरूरतों का भी ख्याल रखे.  
हम कह यह सकते हैं कि बाल मनोविज्ञान तो यह कहता है कि हामिद अपनी पसंद की ही चीज खरीदता, शायद ऐसा 99 प्रतिशत बच्चे करते; फिर हामिद से ऐसा प्रेमचंद ने क्यों करवाया. यही तो लेखक की भूमिका फोकस में आती है. वह अपनी पसंद की चीज के साथ आता तो कोई कहानी ही न बनती, बस एक वृत्तांत बन कर रह जाती. किसी राजा रानी की सुखद कहानी की तरह. चिमटा खरीदने के पीछे कितने असमंजस रहे होंगे बालक के मन में. तमाम बार मन में आया होगा कि कुछ और खरीदें. मेले की चकाचौंध में बाल मन तो हठ करता है अपने मन की चीज खरीदने के लिए पर बच्चा हामिद चिमटा खरीदता है. यह शत-प्रतिशत प्रेमचंद का नायक है. कहानी सोद्देश्य होनी चाहिए और जैसा कि हम सब जानते हैं वे एक आदर्शवादी लेखक थे. तमाम बुराइयों से घिरे समाज में रहते हुए भी वे कहानी या उपन्यास में एक आदर्शवाद बुन लेते थे. यह एक कथाकार का समाज के प्रति एक सकारात्मपक दृष्टिकोण है जिसे भूला नहीं जा सकता. उन्होंने कहानी कला पर बात करते हुए मानसिक द्वंद्व, मनोविज्ञान की बातों को महत्व दिया है. सबसे ज्यादा मानव की सहज प्रवृत्ति को पकड़ा है. हामिद के मन में द्वंद्व हुआ होगा, वह घर से सोच कर नहीं चला था कि चिमटा खरीद कर लौटेगा, पर मेले के बीच घूमते टहलते हुए बाल मन में जो द्वंद्व पैदा हुए उसका एक अकाट्य समाधान प्रेमचंद के लेखन ने बालक को सुझाया और उसने अन्य आकर्षक वस्तुओं खेल खिलौनों के स्थान पर जिसे प्राय: बच्चे ले रहे थे, चिमटे का चयन किया. यह कहानी का चरम रूप है. बिना बताए या उपदेश दिए प्रेमचंद ने अपने लेखन का उद्देश्य भी बता दिया और सरोकार भी- हामिद के बहाने से. लेखकीय सरोकार यही होते हैं जो किसी न किसी हेतु से परिचालित होते हैं. प्रेमचंद भी हुए है.
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साहित्य का प्रयोजन
प्रेमचंद साहित्य को प्रयोजनीय मानते हैं. उनकी किस्सागोई की कला अद्भुत थी. बच्चों से लेकर बड़ों तक के मनोविज्ञान को छूती हुई कहानियां आज भी विपुल पठन-पाठन का अंग बनी हुई हैं तो उनके उपन्यासों को अपार लोकप्रियता मिली, अपार पाठक समूह मिला. उनके लिए कोई भी कला या रचना उपयोगिता की कसौटी पर तुलती है. वे कहते हैं, मैं और चीजों की तरह कला को भी उपयोगिता की तुला पर तौलता हूं. वे कहते हैं कि बेशक कला आनंद का विषय है जिसमें आध्यात्मिक आनंद भी शामिल है, पर कोई आध्यात्मिक आनंद भी नहीं जो अपनी उपयोगिता का पहलू न रखता हो. (साहित्य का उद्देश्य, पृष्ठ 12) उनके लिए किसी भी रचना को जीवन सचाइयों का दर्पण होना चाहिए. बल्कि साहित्य का उद्देश्य वे यह मानते हैं कि साहित्य की सर्वोत्तम परिभाषा जीवन की आलोचना है. साहित्य का कोई भी रूप हो उसे जीवन की आलोचना या व्याख्या होना चाहिए. वे साहित्य को नीतिशास्त्र और साहित्य शास्त्री की कसौटी के समतुल्य आंकते हुए कहते हैं, नीति शास्त्र तर्कों से मन व बुद्धि पर प्रभाव डालता है जबकि साहित्य भावों के माध्यम से प्रभावित करता है. उनके लिए साहित्य की सामाजिक उपयोगिता यह है कि जो साहित्य न सुरुचि पैदा करे, न आध्यात्मिक व मानसिक तृप्ति दे, न सौंदर्य प्रेम जाग्रत करे, न कठिनाइयों पर विजय प्राप्ति करने के लिए मन में दृढ़ता का संकल्प पैदा करे, वह साहित्य कहलाने का अधिकारी नहीं. यह तो हमारे राष्ट्रकवि ने भी कहा था कविता के लिए. केवल मनोरंजन न कवि का कर्म होना चाहिए.
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लेखक की प्रगतिशीलता
आज प्रगतिशीलता को लेखक के लिए एक पहचान के रूप में रेखांकित किया जाता है. प्रेमचंद प्रगतिशील साहित्य के पक्ष में होते हुए भी यह मानते थे कि प्रगतिशील लेखक संघ यह नाम ही गलत है, क्योंकि लेखक तो स्वत: ही प्रगतिशील होता है. बिना इस गुण के वह लेखक हो ही नहीं सकता. वह देश-दुनिया में जो कमी देखता है उसके प्रति निरंतर बेचैन होता है. उसे बदलने की छटपटाहट उसके भीतर होती है. प्रेमचंद के समय में भी संसार में, देश में, समाज में बड़ा नैराश्य था. धर्म, जाति, वर्ण की जकड़बंदी, सामंती प्रवृत्तियों की जकड़बंदी खूब थी. उनकी कहानियां और उपन्यास इन प्रवृत्तियों का केवल वर्णन ही नहीं करते बल्कि उनसे लोहा लेते हैं. तभी वे कहते हैं आज प्रेम कहानियों का कोई महत्व नहीं है क्योंकि उससे समाज में कोई हरकत नहीं पैदा होती. वे कहते हैं हमें उस कला की आवश्यकता है जिसमें कर्म का संदेश हो. यानी हर कला को उपयोगिता की तराजू पर वे तौलते हैं. इस बहाने वे लेखक के कार्यभार को भी समझाते चलते हैं.

प्रेमचंद उस दौर के लेखक हैं जब सौंदर्य के मानक दूसरे थे. उसमें लेखक का एकांतिक संसार था जिसमें किसी अन्य की आवाजाही न थी. वह अमीरी का पल्ला पकड़े रहने वाला लेखक था धूल धूसरित संसार से अलग. वे कहते हैं, झोपड़े व खंडहर उसके ध्या‍न के अधिकारी न थे. वह उन पर लिखता तो था पर या तो उन्हें उपहास की दृष्टि से देखता था या गंवई रूप में मान कर त्याज्य समझता था. प्रेमचंद के कमजोर तबके के पात्र भी उनकी तूलिका से मंज कर जीवन और समाज को बेहतरीन संदेश देते हैं. यही वह निबंध है जिसके इन विचारों को प्राय: दुहराया जाता रहा है-

''साहित्यकार का लक्ष्य केवल महफिल सजाना और मनोरंजन का सामान जुटाना नहीं है -उसका दरजा इतना न गिराइये. वह देश भक्ति के और राजनीति के पीछे चलने वाली सचाई भी नहीं, बल्कि उनके आगे मशाल दिखाती हुई चलने वाली सचाई है.'' (वही, पृष्ठ 15).
वे कहते थे, ''जिन्हें धन वैभव प्यारा है, साहित्य मंदिर में उनके लिए स्थान नहीं है. यहां तो उन उपासकों की आवश्यकता है, जिन्होंने सेवा को ही अपने जीवन की सार्थकता मान लिया हो.'' प्रगतिशील लेखक संघ के अधिवेशन में दिए गए इस भाषण का महत्व हिंदी समाज में इसलिए है कि यही प्रेमचंद को समझने की कुंजी है. उनके कहे ये शब्द आज भी मंद नहीं पड़े हैं जो किसी भी लेखक की लेखकीय सार्थकता के लिए मार्गदर्शी बिन्दु हैं- ''हमारी कसौटी पर वही साहित्य खरा उतरेगा जिसमें उच्च चिंतन हो, स्वा‍धीनता का भाव हो, सौंदर्य का सार हो, सृजन की आत्मा हो, जीवन की सचाइयों का प्रकाश हो, ...जो हममें गति और बेचैनी पैदा करे, सुलाए नहीं, क्योंकि अब और ज्यादा सोना मृत्यु का लक्षण है.'' (वही, पृष्ठ 19)
याद रहे ये शब्द 1936 में कहे गए थे और मुझे नहीं लगता एक सच्चे साहित्य की इस परिभाषा की कोई ईंट आज हम खिसका सकते हैं. बल्कि आज तो धर्म, जाति व वर्ण की संकीर्णताएं और खुल कर मनुष्य जाति को चपेट में ले रही हैं तब आज से आठ दशक पहले कहे गए ये शब्द आज भी उतने ही प्रासंगिक और सार्थक हैं.
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प्रेमचंद की सार्थकता
प्रेमचंद की सार्थकता इस बात में भी है कि वे आज भी पुराने नहीं पड़े. कविता में उलझते तो शायद वे मुक्तिबोध की लाइन अपनाते क्योंकि महज कल्पनाओं से खेलना उनकी कहानी या उपन्यास का भी स्वभाव नहीं है. वे प्रसाद की तरह गहरे तात्विक व आध्यात्मिक चिंतन के लेखक भी नहीं है बल्कि यथार्थ जीवन का क्रिटीक उनके यहां समाज और व्यक्ति के अपने मनोविज्ञान से छन कर पैदा होता है. उन्हें यह मानने में कोई कठिनाई नहीं है कि साहित्य का आधार जीवन है. वे जीवन की सुंदरता विलासिता में नहीं, कर्मठता और ईमानदारी में देखते थे. वे चाहते थे कि लेखक अंत:पुर और महलों की कहानियां न लिखें बल्कि उनका ध्यान झोंपड़ों पर भी जाए. गांव और कस्बे के लोग उनकी कहानियों में आएं. उनकी कहानी कला, मनुष्यता को संवारने की कला थी. वे कहते थे कि वीभत्स में भले ही कोई आनंद न हो, पर रस तो है. वीभत्स में भी सौंदर्य है खास तौर पर लेखन में. उसके अनेक उदाहरण उन्होंने दिए हैं कि लेखक या साहित्य वीभत्स में भी अपना सौंदर्य और प्रयोजन खोज लेता है. इसमें वे भारतेंदु के श्मशान वर्णन का जिक्र करते हैं जो सत्य का साक्षात्कार कराता है इसलिए सुंदर है. उनका मानना है कि ''साहित्य हर रस में सौंदर्य खोज लेता है. जीवन और साहित्य‍ के संबंधों की तहें खोलते हुए वे कहते हैं कि जीवन केवल जीना, खाना, सोना और मर जाना नहीं है. यह तो पशुओं का जीवन हुआ. पर जो वृत्तियां समाज या प्रकृति से मेल जोल में बाधक हों वह मनुष्य के लिए शुभ नहीं हैं. मानवीय अवगुण पर संयम रख कर ही जीवन को मंगलमय बनाया जा सकता है.''

साहित्य में वे उच्चादर्श के हामी थे. वे मानते थे कि लेखक को आदर्शवादी होना चाहिए. वाल्मीकि, व्यास, सूर, तुलसी, कबीर के साहित्य को वे अपने समय का सच्चा साहित्य मानते थे. क्योंकि ये सभी विलासिता के उपासक न थे. इनके साहित्य से एक दिशा मिलती है मनुष्य को. मनुष्य का परिमार्जन होता है. वे साहित्य को राष्ट्र के उत्थान का कारक मानते हैं. साहित्य को वे बुद्धि और ज्ञान का नहीं, भावों का साधन मानते हैं. जिस रचना का भाव संसार जितना संवलित होगा वह उतना ही सफल और सार्थक साहित्य होगा. उसी में मनुष्य  के भावों को परिमार्जित करने की क्षमता होगी. वे साहित्य में यथार्थवाद और आदर्शवाद में सहमेल चाहते थे. माना कि साहित्यकार अपने समय के यथार्थ को देखता और व्यंजित करता है जो विद्रूप भी हो सकता है. कुत्सित भावों का उद्भावक भी हो सकता है, पर वहीं पर कुछ चरित्रों घटनाओं का समावेश कुछ आह्लालादकारी और सहृदय भी हो सकता है. इससे साहित्य में संतुलन पैदा होता है. वे कहते थे कि ''साहित्य का काम केवल पाठक का मन बहलाना नहीं है. वह तो भाटो, मदारियों, विदूषकों और मसखरों का काम है. साहित्यकार का पद इससे कहीं ऊंचा है. वह हमारा पथ प्रदर्शक होता है.'' (साहित्य का उद्देश्य, पृष्ठ 58) वे साहित्य को कला की पूर्ति का माध्यम नहीं मानते थे.

प्रेमचंद ने विदेशी साहित्य प्रभूत मात्रा में पढ़ रखा था. इसलिए वे रचना के लिए आवश्यक तत्वों को बारीकी से पहचानते थे. लेखक को किसी रचना के लिए प्रेरक तत्व कहीं से भी मिल सकते हैं. उन्होंने इसके अनेक उदाहरण अपने निबंधों में दिए हैं. 'साइलस मार्नर' की लेखिका जार्ज इलियट का उदाहरण सामने रखते हुए वे कहते हैं कि इसे लिखने की प्रेरणा बचपन में कपड़े का थान लादे फिरते जुलाहे को देख कर हुई. 'स्कारलेट' के लेखक को भी इसे रचने की प्रेरणा एक पुराने मुकदमे की फाइल से मिली. रंगभूमि लिखने की प्रेरणा स्‍वयं प्रेमचंद को एक अंधे भिखारी को देख कर मिली जो गांव में ही रहता था. उन्होंने अपने निबंधों में कहानी कला के साथ साथ उपन्यास कला पर भी विचार किया है तथा कहानी लिखने व उपन्यास लिखने के आवश्येक पहलुओं पर विचार किया है. उन्होंने अपने निबंधों में अपने अनेक समकालीनों- भुवनेश्वर, अज्ञेय, भारतीय एमए, वीरेश्वर सिंह, राधाकृष्ण, तथा कमला चौधरी आदि  पर टिप्पणियां की हैं. पर कहानी या उपन्यास समाज से जुड़े, वह यथार्थ जीवन जगत से टकराए, यह वे जरूर चाहते थे, इसीलिए उन्होंने अज्ञेय के बारे में यह कहने में संकोच नहीं किया कि ''उनकी रचनाओं में आमद नहीं आबुर्द है, पर उसके साथ ही गद्य काव्य का रस है. उन्हें पढ़कर हमें मालूम होता है कि हम ऊंचे उठ रहे हैं ... पर वे जितना कहती हैं उससे ज्यादा छोड़ देती हैं. काश अज्ञेय जी कल्पना लोक से उतर कर यथार्थ के संसार में आते.'' (वहीं, पृष्ठ 99)

बहरहाल, प्रेमचंद पर जितनी बातें की जाएं वे कम होंगी. किसी संक्षिप्त लेख के आयतन में प्रेमचंद की खूबियों का बखान नहीं किया जा सकता. उन्होंने समाज को गहरे देखा था तथा उसकी कमजोरियों व खूबियों से वाकिफ थे. उनकी कहानियां और उपन्या‍स भारतीय समाज के उस लोक और लोकेल में ले जाते हैं जहां लोक है, लोक प्रपंच है, गांव हैं, गरीबी है, कुछ खराब चरित्रों के बावजूद कुछ अच्छे लोग दुनिया में हैं जिससे यह समाज चल रहा है. प्रेमचंद इस ठहरे हुए समाज को चलने की राह दिखाते हैं. प्रेमचंद की कहानियां कहानियों के गुणसूत्र का बखान स्वयं करती हैं. एक बेहतर दुनिया के निर्माण में प्रेमचंद की कहानियों व उनके उपन्यासों का योगदान कम नहीं क्योंकि वह ऐसा आईना है जिसके जबान है. प्रेमचंद की कहानियां आदर्शोन्मुख यथार्थवाद की कहानियां होते हुए भी बोलती हैं और कई दफे बहुत तीखा बोलती हैं. प्रेमचंद के समतुल्य रूसी कथाकार तॉलस्तॉय एक बाद 75 की वय के आसपास किसी गांव में इसलिए ग्रामीणों के बीच गए थे कि वे रुसी भाषा सीख सकें. प्रेमचंद ग्रामीणों के बीच ही पले बढ़े इसलिए उन्हें भाषा सीखने का कोई अन्य जतन नहीं खोजना पड़ा. इस दृष्टि से प्रेमचंद की रचनाएं पढ़ कर करोड़ों लोगों ने हिंदी सीखी है यह कहना कोई अत्युक्ति नहीं.  प्रेमचंद की इसी विशेषता के कारण बच्चे, नौजवान और बूढ़े सभी उन्हें इसी तरह पढ़ते रहेंगे जिस तरह उन्हें अब तक पढ़ते आए हैं क्योंकि वे किसी एक पीढ़ी के नहीं, सभी पीढ़ियों के कथाकार हैं.
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# डॉ ओम निश्चल हिंदी के सुधी आलोचक कवि एवं भाषाविद हैं. आपकी शब्दों से गपशप, भाषा की खादी, शब्द सक्रिय हैं, खुली हथेली और तुलसीगंध, कविता के वरिष्ठ नागरिक, कुंवर नारायण: कविता की सगुण इकाई, समकालीन हिंदी कविता: ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य व कुंवर नारायण पर संपादित कृतियों 'अन्वय' एवं 'अन्विति' सहित अनेक आलोचनात्मक कृतियां प्रकाशित हो चुकी हैं. आप हिंदी अकादेमी के युवा कविता पुरस्कार एवं आलोचना के लिए उप्र हिंदी संस्थान के आचार्य रामचंद शुक्ल आलोचना पुरस्कार, जश्ने अदब द्वारा शाने हिंदी खिताब व कोलकाता के विचार मंच द्वारा प्रोफेसर कल्या‍णमल लोढ़ा साहित्य सम्मान से सम्मानित हो चुके हैं.  
संपर्कः जी-1/506 ए, उत्तम नगर, नई दिल्ली- 110059, फोन: 9810042770, मेल:

साहित्य का उद्देश्य निबंध किसका है?

'साहित्य का उद्देश्य' प्रेमचंद का भाषण है। यह भाषण लखनऊ में आयोजित प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन 1936 ई. में अध्यक्षीय पद दिया गया था । इस भाषण में प्रेमचंद ने साहित्य की अनेक परिभाषाएं दी हैं।

साहित्य का उद्देश्य क्या है?

साहित्य हमारे जीवन को स्वाभाविक और स्वाधीन बनाता है, दूसरे शब्दों में उसी की बदौलत मन का संस्कार होता है। यही उसका मुख्य उद्देश्य है।

भारतीय साहित्य का उद्देश्य क्या है?

भारतीय ग्रामीण आचायों ने साहित्य या काव्य का उद्देश्य भावनाओं का परिष्कार करके ब्रहमानंद सहोदर आनंद की अनुभूति कराना स्वीकार किया है। अर्थात उनके अनुसार रस प्राप्त करना या मनोरंजन पाना ही साहित्य का उद्देश्य है। रस या मनोरंजन भी तभी पाया जा सकता है जब कि व्यक्ति और समाज का मन-मस्तिष्क सहज एंव स्वस्थ हो।

साहित्य क्या है समझाते हुए विशेषताओं पर प्रकाश डालिए?

Sahitya Kya Hai Samjhate Hue Visheshtaon Par Prakash Daliye भाषा के माध्यम से अपने अंतरंग की अनुभूति, अभिव्यक्ति करानेवाली ललित कला 'काव्य' अथवा 'साहित्य' कहलाती है। वैसे साहित्य शब्द को परिभाषित करना कठिन है। जैसे पानी की आकृति नहीं, जिस साँचे में डालो वह ढ़ल जाता है, उसी तरह का तरल है यह शब्द।