प्राचीन काल में शिक्षक और छात्र का संबंध - praacheen kaal mein shikshak aur chhaatr ka sambandh

वैदिक काल (लगभग 1700-900 ई.पू.) से भारत में शिक्षा की शुरुआत मान सकते हैं. ‘वैदिक शिक्षा’ शब्द का प्रयोग इस अवधि में प्रयुक्त शिक्षण पद्धति के अर्थ में किया जाता है. एक व्यापक अर्थ में इस शब्द का प्रयोग उस शिक्षा पद्धति के लिए किया जाता है जो पूर्व वैदिक काल में प्रारंभ हुई और लगभग 550 ई. (गुप्त साम्राज्य के पतन तक) विकसित होती रही. इसे ‘ब्राह्मण शिक्षा-पद्धति’ , ‘शिक्षा की हिंदू प्रणाली’ और शिक्षा की ‘गुरुकुल प्रणाली’ भी कहा जाता है.

जैन और बौद्ध धर्मों ने लगभग 5 वीं शताब्दी ईसा पूर्व से शिक्षा की अपनी प्रणालियां विकसित कीं. वे कुछ अर्थों में वैदिक प्रणाली से अलग हैं, लेकिन कई प्रकार से वैदिक शिक्षा के समान ही हैं.

A. वैदिक शिक्षा:

वैदिक शिक्षा-प्रणाली की ख़ास विशेषता थी गुरुकुल [ शाब्दिक अर्थ शिक्षक का घर ‘] की प्रणाली. छात्रों को शिक्षा के पूरे काल के लिए शिक्षक और उनके परिवार के साथ रहना आवश्यक था. कुछ गुरुकुल एकांत वन-क्षेत्रों में होते थे, लेकिन सिद्धांत एक ही था – विद्यार्थियों को गुरु (शिक्षक) / गुरु और उनके परिवार के साथ रहना होता था. यह प्रणाली लगभग 2500 वर्षों तक यथावत चलती रही. पाठशालाओं तथा शिक्षण संस्थाओं का विकास बहुत बाद में हुआ.

1. शिक्षा का उद्देश्य:

शिक्षा के उद्देश्य का पहला उल्लेख ऋग्वेद के 10 वें मंडल में पाया जाता है. इस मंडल के एक सूक्त में कहा गया है कि विद्या का उद्देश्य वेदों तथा कर्मकांड के ज्ञान के अतिरिक्त समाज में सम्मान प्राप्त करना, सभा-समिति में बोलने में सक्षम होना, उचित-अनुचित का बोध आदि है. इससे प्रतीत होता है की पूर्व वैदिक युग में शिक्षा के उद्देश्य व्यावहारिक थे. बाद में, उपनिषद काल में, ज्ञान का उद्देश्य अधिक सूक्ष्म हो गया. विद्या को दो भागों में बांटा गया – परा विद्या और अपरा विद्या. अपरा विद्या में प्रायः समस्त पुस्तकीय तथा व्यावहारिक ज्ञान आ गया. केवल ब्रह्म विद्या को परा विद्या माना गया. परा विद्या श्रेष्ठ मानी गई क्योंकि उससे मोक्ष प्राप्त होता है. मोक्ष शिक्षा का अंतिम उद्देश्य हो गया. लेकिन यह लक्ष्य आदर्श ही रहा होगा, न की व्यावहारिक, क्योंकि मोक्ष सभी के लिए साध्य नहीं हो सकता. इतिहासकार ए.एस.अल्तेकर ने वैदिक शिक्षा के व्यावहारिक उद्देश्य बताये हैं जो निम्नलिखित हैं.

1) चरित्र निर्माण:

सत्यवादिता , संयम , व्यक्तिगत शील , सफाई , शांत स्वभाव और उदारता आदि अच्हे चरित्र के गुण किसी भी पेशे – पुरोहित , शिक्षक , चिकित्सक , राजसेवक, व्यापारी या सैनिक - के लिए बुनियादी आवश्यकता के रूप में प्राचीन ग्रंथों में निर्धारित किये गए हैं. शिक्षा का उद्देश्य इन गुणों का विकास करना था. मनुस्मृति में कहा गया है कि निर्मल चरित्र का ब्राह्मण सभी वेदों का ज्ञान रखने वाले दुश्चरित्र ब्राह्मण से अच्छा होता है. शिक्षा आरम्भ करने के पूर्व उपनयन संस्कार होता था जिसमें भावी विद्यार्थी को नैतिक आचरण के नियमों का पालन करने का उपदेश दिया जाता था. इसी तरह शिक्षा के समापन पर भी गुरु उपदेश देता था. उदाहरण के लिए तैत्तिरीय उपनिषद से दीक्षांत भाषण एक अंश उद्धृत है :

सच बोलो . धर्म का आचरण करो . वेदों का प्रतिदिन अभ्यास करो... माता को देवतुल्य समझो. पिता को देवतुल्य समझो. गुरु को देवतुल्य समझो. अतिथि को देवतुल्य समझो...”

2) व्यक्तित्व का विकास:

प्रत्येक शिक्षार्थी को आत्मनिर्भरता , आत्म - संयम और जीवन में वर्ण और आश्रम के अनुरूप आचरण करने का कौशल सिखाया जाता था. विद्यार्थी भिक्षा मांगकर और शारीरिक श्रम करके अपना और गुरु के परिवार का भरण-पोषण करते थे. इससे आत्म-निर्भरता उत्पन्न होती थी. संयम विद्यार्थी-जीवन ही नहीं समस्त जीवन का अनिवार्य अंग था और शिक्षा जीवन में इस पर बहुत बल दिया जाता था.. अपने वर्ण [ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र] से सम्बंधित कार्य कुशल ढंग से कर पाने की सामर्थ्य शिक्षा द्वारा दी जाती थी. साथ ही यह भी सिखाया जाता था कि विभिन्न आश्रमों [गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास] में किस तरह आचरण करना होगा. अथर्ववेद के ब्रह्मचर्य सूक्त में कहा गया है की गुरु शिक्षार्थी को दुबारा जन्म देता है, अर्थात उसका मानसिक , नैतिक और आध्यात्मिक कायाकल्प कर देता है.

3) कार्य-क्षमता और नागरिक जिम्मेदारी का विकास:

शिक्षा को गृहस्थ जीवन की भूमिका माना जाता था. गृहस्थ के अतिरिक्त सभी अन्य आश्रमों वाले व्यक्ति अपनी भौतिक आवश्यकताओं के लिए गृहस्थ पर निर्भर होते थे. इस तरह गृहस्थ न केवल अपने परिवार बल्कि अन्य वर्णों का भी पालन करता था. गुरु शिक्षार्थी को समाज में अपनी यह भूमिका निभाने में सक्षम बनाता था. इसके अतिरिक्त समाज को चलाने के लिए आवश्यक राजसेवक, न्यायाधीश, व्यापारी, पुरोहित तथा अन्य कुशल व्यक्ति गुरुकुलों द्वारा ही तैयार किये जाते थे.

4) विरासत और संस्कृति का संरक्षण:

आरम्भ में आर्यों को लिपि का ज्ञान नहीं था. समाज के सामने चुनौती थी की किस तरह मौखिक रूप से पीढ़ी-दर-पीढ़ी वेदों को अपने मूल रूप में सुरक्षित रखा जाय. भारत के प्राचीन गुरुकुलों की यह विलक्षण उपलब्धि थी कि वैदिक साहित्य लगभग दो हजार साल तक मौखिक रूप में जीवित ही नहीं, अक्षुण्ण भी रखा.

वैदिक शिक्षा व्यापक सांस्कृतिक दृष्टि पर बल देती थी. शिक्षित व्यक्ति को साहित्य, कला, संगीत आदि की समझ होनी चाहिए. उसे जीवन के उच्च आदर्शों का ज्ञान भी होना चाहिए. मात्र जीविकोपार्जन शिक्षा का उद्देश्य नहीं है. कालिदास ने कहा है कि जो विद्या का उपयोग केवल कमाई के लिए करते हैं वे विद्या के व्यापारी हैं जिनकी विद्या बिकाऊ माल भर है.

पूर्वजों की परंपरा और संस्कृति की रक्षा शिक्षित व्यक्ति का कर्तव्य था. चूँकि एक ही व्यक्ति विद्या की सभी शाखाओं में निष्णात नहीं हो सकता था, अतः वैदिक ज्ञान की विभिन्न शाखाओं में विशेषज्ञता का विकास हुआ. साथ ही समस्त देश में कुछ ऐसे आधारभूत मूल्यों की स्थापना हुई जो आज भी सांस्कृतिक एकता के आधार हैं.

2. पाठ्यक्रम

समय-क्रम में वैदिक शिक्षा के पाठ्यक्रम में निम्नलिखित विषयों का समावेश हुआ:

(1) चार संहितायें : ऋक, यजु:, साम और अथर्व

(2) ब्राह्मण

(3) आरण्यक

(4) उपनिषद

(5) छ: वेदांग : शिक्षा , कल्प , निरुक्त , व्याकरण, छंद, ज्योतिष

पहले चारों को मिलाकर वेद बनते हैं: ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद. प्रत्येक वेद में एक संहिता और एक या अधिक ब्राह्मण ,आरण्यक तथा उपनिषद हैं . उदाहरण के लिए , ऋग्वेद में ऋक संहिता, दो ब्राह्मण , दो आरण्यक और दो उपनिषद है . संहितायें सबसे प्राचीन हैं. उनमें अधिकतर विभिन्न देवों की प्रार्थनाएं हैं. ब्राह्मण यज्ञ-याग की दृष्टि से वेदों की व्याख्या करने वाले ग्रन्थ हैं. आरण्यक वैदिक यज्ञादि कर्मों के तत्त्व का विचार करते हैं. उपनिषद दर्शन के ग्रन्थ हैं. इन्हें वेदान्त भी कहा जाता है क्योंकि ये ग्रन्थ वेदों के अंत में आते हैं.

वेद:

ऋग्वेद वेदों में प्राचीनतम हैं. इसमें दस मंडल (विभाग) हैं, कुल मिलाकर इसमें 1000 से अधिक सूक्त (प्रार्थनाएं) हैं. प्रत्येक सूक्त में कई ऋचाएं (श्लोक) हैं. पूरे ऋग्वेद में लगभग 10000 ऋचाएं हैं.

सामवेद में ऋग्वेद के ही चुने हुए सूक्त हैं पर उनको गायन के उपयुक्त बनाकर प्रस्तुत किया गया है. सामवेद संगीत पर बल देता है. यजुर्वेद में भी अधिकतर सूक्त ऋग्वेद से लिए गए हैं. इस वेद में यज्ञ-पद्धति पर बल दिया गया है. अथर्ववेद की विशेषता यह है कि उसमें जादू-टोने से सम्बंधित बहुत सी सामग्री पाई जाती है जो संभवतः आर्येतर स्रोतों से आयी है. इसी कारण से अथर्ववेद को बहुत समय तक वेद माना ही नहीं जाता था.

छः वेदांग:

(क) शिक्षा – यह ध्वनि और उच्चारण की विवेचना करने वाला शास्त्र था.

( ख) कल्प – यह यज्ञ अनुष्ठान की पद्धति का शास्त्र था.

(ग) निरुक्त – इस शास्त्र में वैदिक शब्दों की व्युत्पत्ति की व्याख्या की गयी है.

(घ) व्याकरण – इसका अर्थ नाम से ही स्पष्ट है.

(ई) छंद – इसका अर्थ भी नाम से ही स्पष्ट है.

(च) ज्योतिष - वैदिक काल में ज्योतिष का अर्थ मुख्यतः नक्षत्रों और ग्रहों का अध्ययन था. राशि की अवधारणा नहीं थी. फलित ज्योतिष भी नहीं था.

धर्मेतर विषय

वैदिक काल के अंत तक दर्शन , गणित, बीजगणित , ज्यामिति , राजनीति शास्त्र , लोक प्रशासन , युद्ध-कला , तीरंदाजी , तलवारबाजी , ललित कला और चिकित्सा जैसे धर्मनिरपेक्ष विषय पाठ्यक्रम में शामिल हो गए थे. वैदिक काल के बाद कई अन्य विषय शामिल हुए, जैसे:

• षट दर्शन – पूर्व मीमांसा, वेदान्त, सांख्य, योग, न्याय तथा वैशेषिक

• तर्कशास्त्र

• काव्यशास्त्र ,

• साहित्य ,

• इंजीनियरिंग ,

• वास्तुशास्त्र

• चिकित्सा,

• ज्योतिष

इन सभी शास्त्रों की शिक्षा के विषय में विस्तृत जानकारी उपलब्ध नहीं है परन्तु चिकित्साशास्त्र की शिक्षा के बारे में पर्याप्त सामग्री चरक संहिता और सुश्रुत संहिता में उपलब्ध है. इन ग्रंथों के अनुसार यह शिक्षा प्रवीण वैद्यों द्वारा दी जाती थी. पूरा पाठ्यक्रम छः वर्षों में समाप्त होता था. चिकित्सा शास्त्र की आठ शाखाये होती थीं. इस शिक्षा के लिए अलग से उपनयन संस्कार की व्यवस्था थी.

यह अनुमान किया जा सकता है की चिकित्सा की तरह अन्य महत्वपूर्ण लौकिक विषयों की शिक्षा भी इसी प्रकार विशेषज्ञों द्वारा दी जाती होगी.

कृषि, पशुपालन , चिनाई , बढ़ईगीरी , बुनाई , लोहार की कला, कुम्हार का काम, अन्य प्रकार के बर्तन बनाने की कला,हथियार बनाने की कला इत्यादि उपयोगी विद्याएँ शुरुआत में परिवारों में और मास्टर कारीगरों द्वारा सिखायी जाती थीं. कुछ वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन जब संगठित और बड़े पैमाने पर होने लगा तो व्यावसायिक समुदायों ने विशेष कला या शिल्प में युवाओं के प्रशिक्षण की जिम्मेदारी ले ली .

4) शिक्षक

जब लिखित पुस्तकें नहीं थीं तो गुरु ज्ञान का एक मात्र स्रोत था. इसलिए प्राचीन ग्रंथों में गुरु की बड़ी महिमा बताई गई है. आगे अथर्वेद के ब्रह्मचर्य सूक्त का उल्लेख किया गया है जिसके अनुसार गुरु शिष्य को नया जन्म देता है. विद्यार्थी के लिए गुरु की आज्ञा मानना हर स्थिति में अनिवार्य था. परन्तु गुरु को यह महत्व अर्जित करना पड़ता था. गुरु को पाठ्यक्रम में निष्णात होना होता था. इसके लिए उसे स्वयं सतत अध्ययन और मनन करना पड़ता था. गोपथ ब्राह्मण में एक कथा है की एक गुरु शास्त्रार्थ हार गए. उन्होंने तत्काल शिक्षण कार्य बंद कर दिया और तभी पुनः आरम्भ किया जब वह अपने प्रतिद्वंद्वी जितने ही निष्णात हो गए. इससे पता चलता है की शिक्षक को अपनी योग्यता बढाने के लिए सदा प्रयत्नशील रहना पड़ता था. उनसे उच्च और आदर्श आचरण की आशा की जाती थी.

छात्र

वैदिक युग की शुरुआत को छोड़ दें तो बाद में प्रायः शिक्षा तीन उच्च वर्णों के पुरुषों तक सीमित थी. शूद्रों और स्त्रियों का प्रवेश गुरुकुलों में नहीं था. यह कदाचित वैदिक शिक्षा की सबसे बड़ी कमजोरी थी. परन्तु जो छात्र गुरुकुलों में स्थान पाने के अधिकारी थे उनको प्रवेश अवश्य मिलता था चाहे वे कितने ही गरीब हों. कोई तय फीस नहीं होने के कारण हर किसी को प्रवेश मिल सकता था. सभी छात्रों को एक तरह से सादा जीवन जीना पड़ता था, चाहे उनके माता-पिता कितने ही धनी या प्रभुतासंपन्न हों. छात्र को कुछ शारीरिक श्रम करना पड़ता था. गुरुकुल के नियमों का पालन करना होता था. गुरु की आज्ञा माननी होती थी, यद्यपि गौतम ने कहा है की छात्र अनुचित आज्ञा मानने को बाध्य नहीं था. चूँकि छात्र गुरु के परिवार में रहते थे अतः गुरु-शिष्य का सम्बन्ध पिता-पुत्र जैसा होता था.

5) शिक्षण विधि

प्रातिशाख्य (वेदांग ‘शिक्षा’ से सम्बंधित ग्रन्थ ) ग्रंथों में वैदिक शिक्षा पद्धति का विवरण मिलता है. प्रत्येक छात्र को व्यक्तिगत रूप से पढ़ाया जाता था. अर्थात गुरु एक बार में एक छात्र को पढाता था. छात्र को एक दिन में में दो या तीन वैदिक ऋचाएं याद करनी होती थीं. छात्र को गुरु के निर्देश के अनुसार शब्दों का सही उच्चारण करना होता था और ऋचाओं को ठीक उसी ढंग से बोलना या गाना होता था जो परम्परा से चला आता था. अध्यापन मौखिक था . लिपि का विकास होने के बाद भी वैदिक मन्त्रों का मौखिक अध्यापन जारी रहा क्योंकि उच्चारण और गायन की मूल परम्परा को मौखिक रूप में ही पूरी तरह सुरक्षित रखा जा सकता था. याद करके सीखने का तरीका केवल वैदिक संहिताओं के लिए प्रयोग होता था. अन्य विषयों को पढ़ाने के लिए व्याख्यान, प्रश्नोत्तर, शास्त्रार्थ इत्यादि का सहारा लिया जाता था. छात्रों की संख्या कम होती थी ताकि गुरु प्रत्येक छात्र पर पर्याप्त ध्यान दे सके. अल्तेकर ने अनुमान किया है कि एक गुरु के पास बीस से अधिक छात्र नहीं होते होंगे.

अनुशासन

व्यक्तिगत नैतिकता और अच्छे आचरण पर जोर उपनयन से ही आरम्भ हो जाता था. विद्यार्थियों से आत्म - अनुशासन की उम्मीद की जाती थी. आत्मानुशासन शिक्षा का अभिन्न अंग था. शिक्षक के परिवार में रहने के कारण छात्रों को पुत्रवत आचरण करना होता था. गुरु अपने चरित्र और आचरण द्वारा उचित आदर्श छात्रों के समक्ष प्रस्तुत करता था. इन सभी कारणों से दण्ड अनुशासन के लिए आवश्यक नहीं था. फिर भी मानव प्रकृति के अनुसार छात्र कभी कभी अनुशासन भंग करते थे. इस दशा में मनु ने गुरु को सलाह दी है की वह छात्र को समझा बुझाकर सही रास्ते पर लाये. आपस्तम्ब ने कहा है कि गुरु दोषी छात्र को कुछ समय के लिए अपने सामने आने से मना कर सकता है [कक्षा से निष्कासन की तरह]. गौतम ने शारीरिक दण्ड की अनुमति दी है पर यह भी कहा है की अत्यधिक शारीरिक दण्ड देने पर गुरु को राजा द्वारा दण्डित किया जा सकता है.

B. बौद्ध शिक्षा

बौद्धों का सबसे बड़ा योगदान था आधुनिक विश्वविद्यालयों जैसे बड़े शिक्षा संस्थानों की स्थापना जिन्होंने चीन , तिब्बत , कोरिया और दुनिया के कई अन्य हिस्सों के छात्रों को आकर्षित किया. बौद्ध शिक्षा विहारों से आरम्भ हुई थी जिनमें नए भिक्षुओं को धम्म [धर्म अर्थात बौद्ध धर्म] की शिक्षा दी जाती थी. धीरे धीरे बड़े महाविहारों की स्थापना हुई जिनमें उच्च शिक्षा दी जाती थी. प्राथमिक शिक्षा विहारों में दी जाती थी. कालक्रम में भिक्षुओं के अलावा सामान्य बौद्ध मतावलंबी भी इन शिक्षा संस्थानों में प्रवेश पाने लगे.

नालन्दा महाविहार

आधुनिक पटना से लगभग 60 किलोमीटर दक्षिण में स्थित नालंदा प्राचीन भारत में शिक्षा का सबसे बड़ा केंद्र था . 5 वीं शताब्दी ई. तक नालंदा एक बौद्ध विश्वविद्यालय के रूप में प्रसिद्ध हो गया था . इस विश्वविद्यालय में 7 बड़े हॉल और 300 कमरे थे. इसके अतिरिक्त एक विशाल पुस्तकालय था. 7 वीं शताब्दी में ह्वेन त्सांग की यात्रा के समय विश्वविद्यालय में 1500 शिक्षक और 8500 छात्र थे. 1193 में मुस्लिम आक्रमणकारी बख्तियार खिलजी ने नालंदा को नष्ट कर दिया और इमारतों में आग लगा दी.

अन्य विश्वविद्यालय

वल्लभी आधुनिक काठियावाड़( गुजरात ) में और विक्रमशिला बिहार में ( संभवतः भागलपुर जिले में ) दो अन्य महत्वपूर्ण बौद्ध विश्वविद्यालय थे . 6000 शिक्षकों और छात्रों के साथ , वल्लभी नालंदा के बाद सबसे बड़ा संस्थान था. विक्रमशिला तीसरा महत्वपूर्ण संस्थान था. इनमें वल्लभी हीनयान सम्प्रदाय का विश्वविद्यालय था जबकि बाकी दोनों महायान सम्प्रदाय के. [हीनयान और महायान बौद्ध धर्म के दो सम्प्रदाय थे]

बौद्ध शिक्षा का उद्देश्य

बौद्ध धर्म के मूल तत्त्व चार आर्य सत्य हैं जिन्हें गौतम बुद्ध ने स्वयं प्रतिपादित किया था. ये आर्य सत्य हैं:

१) दुःख: जीवन दुःखमय है. जन्म, जरा, मरण, सभी दुःख देने वाले हैं. प्रिय से बिछुड़ना दुःख देता है और अप्रिय से मिलना. जो प्राप्त है उसको खोने का भय दुःख देता है. इस तरह दुःख जीवन का एकमात्र सत्य है.

२) दुःख समुदय: दुःख का कारण अज्ञान और तृष्णा है.

३) दुःख निरोध : दुःख के कारण को हटा देने से दुःख भी हट जाएगा.

४) अष्टांगिक मार्ग: यह आठ ज्ञान और सदाचार के सिद्धांत हैं जिनके द्वारा दुःख के कारणों अर्थात अज्ञान और तृष्णा को समाप्त किया जा सकता है, जैसा भगवान् बुद्ध ने स्वयं किया. इस मार्ग के आठ अंग ये हैं:

• सम्यक दृष्टि – अर्थात चार आर्य सत्यों को हृदयंगम करना.

• सम्यक संकल्प – अर्थात लोभ, मोह, अहंकार आदि से मुक्ति का संकल्प.

• सम्यक वाक् – अर्थात सत्य बोलना और कठोर वाणी का परित्याग.

• सम्यक कर्मान्त – अर्थात सत्य, अहिंसा,ब्रह्मचर्य इत्यादि पांच शीलों का पालन. भिक्षु के लिए शीलों की संख्या दस है.

• सम्यक आजीव – अर्थात जीविका का नैतिक साधन.

• सम्यक व्यायाम – अर्थात अच्छे विचारों को धारण करना और बुरे विचारों को दूर करना.

• सम्यक स्मृति – शरीर, इन्द्रिय और मन के वास्तविक स्वरुप का ध्यान करना और किसी प्रकार की आसक्ति से दूर रहना.

• सम्यक समाधि – अर्थात निर्वाण प्राप्त करने की प्रक्रिया. इसके पहले के सात कदम सम्यक समाधि की तैयारी भर हैं.

बौद्ध शिक्षा का अंतिम उद्देश्य निर्वाण की प्राप्ति है. निर्वाण की स्थिति में आसक्ति, अज्ञान और तृष्णा का विलय हो जाता है और मनुष्य दुःख से मुक्त हो जाता है. बौद्ध धर्म एक व्यावहारिक धर्म है क्योंकि उसका उद्देश्य मानव जीवन के दुःख को दूर करना है. व्यावहारिकता पर बल देने के कारण इस धर्म में आचरण का बड़ा महत्त्व है. बौद्ध शिक्षा का उद्देश्य धर्म के अनुयायियों में नैतिक आचरण का विकास करना है. प्राचीन काल में बौद्ध शिक्षा का एक और उद्देश्य धर्मं प्रचार करने के लिए भिक्षुओं को प्रशिक्षित करना था.

पाठ्यक्रम

a) त्रिपिटक

विनय पिटक, सुत्त पिटक और अभिधम्म पिटक ये तीन बौद्ध धर्म के मूल ग्रन्थ हैं. माना जाता है कि ये बुद्ध के वचनों के संग्रह हैं.

विनय पिटक

यह बौद्ध संघ को चलाने के नियमों का सग्रह है. भिक्षुओं द्वारा किन नियमों का पालन किया जाना चाहिए इसका भी वर्णन है. नियमों के उल्लंघन पर किन उपायों का अवलंबन करना चाहिए इसका निर्देश है.

सुत्त पिटक

यह सूत्रों अर्थात भगवान् बुद्ध के उपदेशों का संग्रह है. यह पिटक पाँच निकायों में बांटा गया है :

• दीर्घ निकाय

• मध्यम निकाय

• संयुक्त निकाय

• अंगुत्तर निकाय

• क्षुद्र निकाय

अभिधम्म पिटक

यह पिटक हीनयान का प्रमुख ग्रन्थ है. इसमें बौद्ध धर्मं के मूलभूत सिद्धांतों की चर्चा है जो भगवान् बुद्ध ने स्वयं स्थापित किये. इनमें प्रमुख प्रतीत्य समुत्पाद का सिद्धांत है जिसके आधार पर बुद्ध द्वारा प्रतिपादित चार आर्य सत्यों की व्याख्या की जाती है.

b) अन्य बौद्ध ग्रंथ

अन्य बौद्ध ग्रंथों में बुद्धघोष का विशुद्धमार्ग और नागसेन का मिलिंद प्रश्न प्रमुख थे. इसके अतिरिक्त परवर्ती काल के बौद्ध दर्शनों के ग्रन्थ भी इस श्रेणी में आते हैं.

c) ब्राह्मण ग्रंथ

बौद्ध विश्वविद्यालयों में वैदिक वांमय की शिक्षा भी दी जाती थी. साथ ही सांख्य आदि छः दर्शनों की शिक्षा भी दी जाती थी.

d) धर्मेतर और उपयोगी विषय

जैसा कि वैदिक शिक्षा के संबंध में बताया गया है, लगभग सभी महत्वपूर्ण धर्मनिरपेक्ष विषयों को भी बौद्ध शिक्षण संस्थानों में सिखाया जाता था. भिक्षुओं को भी कुछ उपयोगी कलाओं की शिक्षा दी जाती थी, जैसे सिलाई और काष्ठ कला.

शिक्षक और विद्यार्थी

शिक्षक सदा ही बौद्ध भिक्षु होते थे . वे विद्वान और सदाचारी होते थे. उनसे आशा की जाती थी की छात्र के मानसिक और नैतिक विकास के लिए सतत प्रयत्नशील रहेंगे. शिक्षक अविवाहित सन्यासी होते थे जो शिक्षण के लिए पूरी तरह समर्पित होते थे. पठन पाठन के समय के बाहर भी शिक्षक छात्रों की शारीरिक, मानसिक और नैतिक आवश्यकताओं का ध्यान रखते थे. बदले में छात्र शिक्षक की आज्ञा का पालन करते थे और उस पर पूर्ण श्रद्धा रखते थे.

बौद्ध शिक्षा ने एक बहुत बड़ा सुधार यह किया कि वर्ण और लिंग का बंधन हटा दिया. स्त्रियों और शूद्रों को शिक्षा का अधिकार दिया.

शिक्षार्थी दो प्रकार के होते थे – भिक्षु और उपासक. भिक्षु आजीवन सन्यासी जीवन बिताने वाले बौद्ध श्रमण होते थे. उपासक बौद्ध धर्म के वे अनुयायी थे जो गृहस्थ जीवन व्यतीत करते थे. भिक्षु छात्रों को शिक्षारम्भ के पूर्व एक संस्कार से गुजरना होता था जिसे ‘पबज्जा’ या प्रब्रज्या कहते थे.

छात्रों को धर्म के सभी नियमों का पालन करना होता था. विशेषतः नैतिक आचरण के नियमों पर बल दिया जाता था. तीन प्रकार के दैहिक, चार प्रकार के वाचिक और तीन प्रकार के मानसिक पापों से बचना होता था. पाप ये थे:

दैहिक पाप: हत्या, चोरी और व्यभिचार

वाचिक पाप: झूठ बोलना, परनिंदा, कठोर वचन और व्यर्थ बोलना.

मानसिक पाप: लालच, नफरत और तत्व-ज्ञान में त्रुटि.

शिक्षण विधि

भगवान् बुद्ध ने पहली बार संस्कृत की अपेक्षा पालि और प्राकृत को स्वीकार किया. बौद्ध धर्म के मूल ग्रन्थ पालि भाषा में हैं. अतः बौद्ध शिक्षा में पालि का प्रयोग अनिवार्य था. प्रारम्भ में बौद्ध शिक्षा में मागधी प्राकृत का भी व्यवहार हुआ जो अपने आप में नयी बात थी. लोकभाषा को संस्कृत से अधिक महत्त्व देने के कारण शिक्षा सर्वसुलभ हुई और साथ ही लोक भाषाओं को बढ़ने का अवसर मिला. परन्तु बाद में महायान सम्प्रदाय ने संस्कृत को अपना लिया.

विहारों और महाविहारों में शिक्षा गुरुकुलों की तरह मौखिक होती थी. व्याख्यान के अलावा प्रश्नोत्तर और शास्त्रार्थ पर बल दिया जाता था. साधारणतः शिक्षकों और छात्रों का अनुपात ऐसा था की एक शिक्षक को पांच या छः छात्रों से अधिक का उत्तरदायित्व नहीं लेना होता था.

अनुशासन

बौद्ध ग्रंथों से अनुशासन के विषय में जानकारी मिलती है. विशेषतः भिक्षुओं से संबंधित अनुशासन का उल्लेख त्रिपिटक में भी मिलता है. शिक्षार्थी स्वेच्छा से नियमों का पालन करते थे. बौद्ध धर्म मूलतः नैतिक आचरण पर आधारित था. अतः अनुशासन दैनिक जीवन का अंग था. परन्तु नियमों का उल्लंघन भी कभी कभी होता था. इसके लिए दोषी शिक्षार्थी को शिक्षक द्वारा अथवा अन्य वरिष्ठ शिक्षार्थियों द्वारा उचित मार्गदर्शन देने का प्रयास किया जाता था. इसका प्रभाव न हो तो उपवास आदि का दण्ड दिया जाता था. एक जातक कथा में शारीरिक दण्ड का भी उल्लेख है.

जैन शिक्षा

१) जैन शिक्षा के उद्देश्य

जैन शिक्षा के उद्देश्य को समझने के लिए जैन धर्म के सिद्धांतों को समझना आवश्यक है. जैन धर्म का निचोड़ त्रिरत्न में है. त्रिरत्न ये हैं:

• सम्यक दृष्टि

• सम्यक ज्ञान

• सम्यक चरित

सम्यक दृष्टि का अर्थ है सत्य के प्रति आस्था. कुछ व्यक्यियों में यह आस्था जन्मजात होती है और कुछ को प्रयास द्वारा अर्जित करनी होती है. सत्य के प्रति निष्ठा का व्यावहारिक रूप जैन धर्म के सिद्धांतों के प्रति निष्ठा है. विना इस निष्ठा के ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता है.

सम्यक ज्ञान का अर्थ है आत्मा और अनात्म का पूर्ण ज्ञान. यह ज्ञान जैन धर्म के सिद्धांतो को जानने और उन पर मनन करने से प्राप्त होता है. ज्ञान का उद्देश्य है आत्मा के वास्तविक स्वरुप का ज्ञान प्राप्त करके कर्म-बंधन से मुक्ति (मोक्ष या कैवल्य) प्राप्त करना. कर्म का बंधन अज्ञान से उत्पन्न होता है जिसके कारण मनुष्य आत्मा और संसार में भेद नहीं कर पाता.

सम्यक आचार में विभिन्न प्रकार के नैतिक आचरण शामिल हैं जिनमें पंच महाव्रत का सर्वाधिक महत्त्व है. ये महाव्रत हैं:

• सत्य

• अहिंसा

• अस्तेय (चोरी न करना)

• अपरिग्रह (संग्रह न करना)

• ब्रह्मचर्य (आत्म-निग्रह)

आचरण के ये सिद्धांत बौद्ध धर्मं में भी स्वीकार किये गए हैं. परन्तु जैन धर्म में इनका पालन कड़ाई से किया जाता है. उदाहरण के लिए अहिंसा का अर्थ न केवल दिखाई देने वाले बल्कि अदृश्य प्राणियों के प्रति हिंसा का सम्पूर्ण त्याग है. जैन सन्यासी अपने मुंह पर कपडा बांधकर रखते हैं ताकि छोटे अदृश्य जीव श्वास द्वारा अन्दर जाकर न मर जांय. जैन गृहस्थ संध्या के बाद भोजन नहीं करते कि कहीं छोटे जंतु उनके भोजन में पड़कर न मर जांय. जैन धर्म में कठोर व्रत-उपवास का भी विधान है. माना जाता है कि इससे मन की शुद्धि होती है और संचित कर्म के बंधन कटते हैं.

इस आधार पर जैन शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य है मोक्ष अर्थात आत्मा के स्वरुप का ज्ञान और कर्म-बंधन से मुक्ति. इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए एक कठोर नैतिक और मानसिक अनुशासन की आवश्यकता है. यह अनुशासन त्रिरत्न की शिक्षा और उनके अनुपालन द्वारा प्राप्त होता है.

पाठ्यक्रम

जैन परम्परा के अनुसार धर्म के सभी चौबीस तीर्थंकरों के उपदेशों का संग्रह प्राचीन काल में उपलब्ध था जो कालक्रम में लुप्त हो गया. केवल चौबीसवें तीर्थंकर महावीर के उपदेश उपलब्ध हैं जिन्हें आगम कहा जाता है. आगमों की संख्या 46 है. ये महावीर के मूल उपदेश माने जाते हैं और जैन साहित्य में सर्वोपरि हैं. इसके बाद वे ग्रन्थ हैं जिन्हें आगम-तुल्य कहा जाता है. तीसरे प्रकार के ग्रन्थ सिद्धांत ग्रन्थ कहे जाते हैं. ये तीनों प्रकार के ग्रन्थ प्राकृत भाषाओं में हैं. बाद में संस्कृत में ग्रन्थ लिखे गए जिनमें सिद्धांत और दर्शन के ग्रन्थ हैं. जैन मुनियों ने धर्मेतर विषयों पर भी ग्रन्थ लिखे. उपर्युक्त समस्त साहित्य जैन पाठ्यक्रम का प्रमुख अंग था.

ब्राह्मण धर्म और बौद्ध धर्म के ग्रंथों को उच्च शिक्षा के पाठ्यक्रम में शामिल किया जाता था. विभिन्न धर्मेतर एवं उपयोगी विषयों की शिक्षा भी दी जाती थी.

अनुमान किया जाता है की छोटे जैन मठों में केवल पढ़ने-लिखने और धर्म की साधारण शिक्षा दी जाती थी जबकि बड़े मठों में उच्च शिक्षा दी जाती थी.

शिक्षण विधि

गुरुकुलों और बौद्ध विहारों की तरह जैन मठों में भी शिक्षण मौखिक होता था. पाठ याद करना, आवृति करना और समय पर उद्धृत करना आवश्यक था. वाद या शास्त्रार्थ पर बल दिया जाता था. जैन शिक्षा में वक्तृता शक्ति के विकास का भी बड़ा महत्त्व था. प्राम्भिक शिक्षा प्रायः प्राकृत में होती थी जबकि उच्च शिक्षा संस्कृत में.

शिक्षक और शिक्षार्थी

शिक्षक जैन सन्यासी होते थे. जैन सन्यासियों को स्पष्ट पदक्रम होता था और उनके पद के अनुसार उनके अधिकार और दायित्व होते थे. शिक्षार्थी जैन श्रमण अथवा जैन धर्म के मानने वाले गृहस्थ परिवारों के सदस्य होटे थे. वर्ण और स्त्री-पुरुष का भेदभाव नहीं था. शिक्षक और शिक्षार्थी दोनों को ही कठोर नीति नियमों और अनुशासन का पालन करना होता था. अपने पद के अनुसार शिक्षकों के अधिकार और कर्तव्य निर्धारित थे. अपने से उच्चपदस्थ सन्यासी का आदेश सदा मानना होता था. इसी तरह शिक्षार्थी को शिक्षक की आज्ञा का पालन करना होता था.

अनुशासन

अनुशासन जैन धर्म का अनिवार्य अंग था और कठोर आत्म-निग्रह पर आधारित था. दण्ड आदि की आवश्यकता प्रायः नहीं थी. परन्तु अनुशासन भंग करने पर दण्ड की व्यवस्था थी. साधारणतः दण्ड के ये रूप व्यवहार में आते थे: पश्चात्ताप, क्षमा याचना, उपवास, और तप.

निष्कर्ष

उपर्युक्त वर्णन से निष्कर्ष निकलता है की स्त्रियों और शूद्रों को शिक्षा देने, शिक्षण में लोक भाषाओं का प्रयोग करने, वेद की प्रामाणिकता को अस्वीकार करने तथा धार्मिक शिक्षा के स्वरुप के कारण बौद्ध एवं जैन शिक्षा पद्धतियाँ वैदिक शिक्षा से भिन्न थीं पर शिक्षा के उद्देश्य, शिक्षण विधि, शिक्षक और शिक्षार्थी के पारस्परिक सम्बन्ध आदि की दृष्टि से वैदिक, बौद्ध और जैन शिक्षा प्रणालियों में विशेष अंतर नहीं था.

वैदिक कालीन शिक्षा को भारतीय शिक्षा का आधार स्तंभ कहा जाता है यह कथन की सार्थकता सिद्ध करिए

स्त्री शिक्षा के बारे मे वैदिक कालमे कैसे विचार थे.

शिक्षक और छात्र के बीच क्या संबंध है?

शिक्षक और छात्रों के बीच मधुर संबंध से ही कोई अच्छा परिणाम सामने आ सकता है जिससे वे अपना तथा विद्यालय का, इस देश का गौरव बढ़ा सकते हैं। इसके छात्रों को विद्यालयीन अनुशासन में रहना चाहिए, गुरुओं का आदर करना चाहिए, उनके अमूल्य परामर्शों पर अमल करना चाहिए, उनके बताए राह पर चलना चाहिए।

प्राचीन काल में शिक्षकों को क्या कहा जाता था?

प्राचीन भारत में गुरु के प्रत्यक्ष निरीक्षण में रहकर विद्योपार्जन श्रेष्ठ माना जाता था। अतएव अधिकांश विद्यार्थी गुरु कुलों में ही रहते थे। गुरु जन अपने घर पर ही विद्यार्थी के आवास-निवास की व्यवस्था करते थे।

प्राचीन काल में अध्यापक शिक्षा कैसे देता था?

प्राचीन भारतीय शिक्षा पद्धति का एक प्रमुख तत्त्व गुरुकुल व्यवस्था रही है। इसमें विद्यार्थी अपने घर से दूर गुरु के घर पर निवास कर शिक्षा प्राप्त करता था। गुरु के समीप रहते हुए विद्यार्थी उसके परिवार का एक सदस्य हो जाता था तथा गुरु उसके साथ पुत्रवत व्यवहार करता था। आत्म-निर्भरता की भावना विकसित होती थी…

प्राचीन काल में शिक्षा का मुख्य उद्देश्य क्या था?

प्राचीन भारतीय शिक्षा के उद्देश्य: ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए मानव जीवन का सर्वांगीण विकास करना, ताकि भावी जीवन में उसका पूर्ण सदुपयोग कर सकें । विद्यार्थियों को गृहस्थ आश्रम में प्रवेश के बाद अनेक प्रकार के कर्तव्य एवं लोककल्याण के उद्देश्य को पूर्ण करना तथा अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष की प्राप्ति शिक्षा का उद्देश्य था