Rajasthan Board RBSE Class 11 Hindi अपरा Chapter 2 सूरदासRBSE Class 11 Hindi अपरा Chapter 2 पाठ्यपुस्तक के प्रश्नोत्तरRBSE Class 11 Hindi अपरा Chapter 2 वस्तुनिष्ठ प्रश्न Show प्रश्न 1. प्रश्न 2. RBSE Class 11 Hindi अपरा Chapter 2 अति लघूत्तरात्मक प्रश्न प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. RBSE Class 11 Hindi अपरा Chapter 2 लघूत्तरात्मक प्रश्न प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. RBSE Class 11 Hindi अपरा Chapter 2 निबन्धात्मक प्रश्न प्रश्न 1. जैहों लोटि धरनि पै अबहीं, तेरी गोद न ऐहों। माता भी मनोवैज्ञानिक उपाय से बालहठ का समाधान करती है। वह कन्हैया को नई दुलहिन दिलाने का आश्वासन देती है और उसे मनाने में सफल हो जाती है। कृष्ण और बड़े हो गए हैं और सखाओं के साथ नए-नए बाल षडयंत्र रचने में भी कुशल हो गए हैं। एक ग्वालिन के सूने भवन पर धावा बोला जाता है। गोरस खाने और फैलाने तक ही यह अभियान नहीं रुकता। उस बेचारी के सारे बर्तन भी चूर-चूर कर दिए जाते । हैं। कृष्ण सखाओं सहित रंगे हाथों पकड़े जाते हैं और माता यशोदा के न्यायालय में पेशी होती है। सूर की बाल लीला-सृष्टि में इतने प्रसंग भरे पड़े हैं कि पाठक पग-पग पर गद्-गद्, रोमांचित और रसमग्न होता चलता है। प्रश्न 2. “अविगत गति कछु कहत न आवै। सूर यह तो मानते हैं कि निराकार (निर्गुण) ईश्वर की उपासना में भी परम आनंद का अनुभव होता है लेकिन निर्गुण ईश्वर का रूप, आकृति, गुण, जाति या उसे पाने की युक्ति न होने
से साधक का मन भ्रमित हो जाता है। इसी कारण वह सगुण ईश्वर श्रीकृष्ण की लीलाओं को गान करते हैं – “अपनी दूध छौंड़ि को पीवै खार कूप कौ पानी” श्रीकृष्ण की प्रेमाधारित भक्ति निर्मल और स्वादिष्ट दूध के समान है तथा ज्ञान और योग खारे कुएँ का पानी है। भला ऐसी कौन मूर्ख होगी जो दूध त्याग कर खारा पानी पिए। एक विरह व्यथित प्रेमी की मानसिक दशा से अपरिचित योगी उद्धव उनके व्यंग्य-विनोद के निशाने पर आ जाते हैं। वे उद्धव से व्यंग्य करती हुई कहती हैं – “ऊधो ! कोकिल कूजति कानन। यह ऋतु तो प्रिय-मिलन की ऋतु है। अरे नीरस योगी। तुम क्या जानो कि एक प्रेमी के लिए वसंत क्या होता है। अंत में गोपियाँ खुलकर उद्धव की अज्ञानता पर आक्रमण करने लगती हैं। वे उनसे पूछती हैं – कहँ अबला कहँ दसा दिगंबर सम्मुख करि पहचाने।” स्त्रियाँ सारी मर्यादा और संकोच त्याग कर योगियों की तरह एक लंगोटी या मृग चर्म लपेटकर कैसे रह सकती हैं। इस प्रकार सूरदास जी ने गोपियों के माध्यम से उद्धव को लक्ष्य बनाकर निर्गुण उपासना का खण्डन कराया है। प्रश्न 3. उधर उद्धव का ज्ञान-योग पर उपदेश दिया जाना उनको बहुत अखरता है। वे उद्धव पर व्यंग्य , कटाक्ष और उपहास की बौछार आरम्भ कर देती है। गोपियों का यह व्यवहार कृष्ण के प्रति उनके अनन्य प्रेम का प्रमाण है। योग के नाम पर प्यारे कृष्ण से वियोग कराने आए उद्धव को वह कपटी व्यापारी बताती हैं। उनकी दृष्टि में उद्धव उन्हें छलने आए है, योग रूपी खारा पानी देकर वह उनसे कृष्ण प्रेम रूपी स्वादिष्ट दूध हरण कर लेना चाहते हैं। वह उनके सामने प्रस्ताव रखती हैं “ऊधो जाहु सवार यहाँ ते वेगि गहरु जनि लाऔ। मुँह माग्यो पैहो सूरज प्रभु साहुहि आनि दिखाऔ।” साहू अर्थात् श्रीकृष्ण के दर्शन के लिए वह उद्धव को मुँहमाँगी कीमत देने को तैयार हैं। यह कृष्ण के प्रति उनके अनन्य प्रेम का ही प्रमाण है। उनके लिए ज्ञान और योग से मिलने वाला मोक्ष भी तुच्छ है। कृष्ण की भुवनमोहनी वंशी ध्वनि के सामने मुक्ति कहीं नहीं ठहरती। निर्गुण ईश्वर की आराधना और योग-साधना के विरुद्ध दिए गए उनके वर्ण भी यही सिद्ध करते हैं कि वह अपने और श्रीकृष्ण के बीच किसी तीसरे को आने की अनुमति नहीं दे सकतीं। वे उद्धव से स्पष्ट कह देती हैं कि उनके उपदेशों और विरह के ताप-संताप में तपकर उनके कृष्ण प्रेमी हृदय अब परिपक्व हो चुके हैं और उन्होंने उनको पवित्र प्रेम-जल से भर लिया है। कृष्ण के अतिरिक्त और कोई उन्हें छू भी नहीं पाया है। ये हृदय-घट केवल और केवल उनके हृदय बल्लभ श्रीकृष्ण के लिए सुरक्षित हैं। इस प्रकार स्पष्ट है कि गोपियाँ श्रीकृष्ण की अनन्य प्रेमिकाएँ थीं। प्रश्न 4. RBSE Class 11 Hindi अपरा Chapter 2 अन्य महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तरRBSE Class 11 Hindi अपरा Chapter 2 वस्तुनिष्ठ प्रश्न प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. RBSE Class 11 Hindi अपरा Chapter 2 अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. प्रश्न 6. प्रश्न 7. प्रश्न 8. प्रश्न 9. प्रश्न 10. प्रश्न 11. प्रश्न 12. प्रश्न 13. प्रश्न 14. प्रश्न 15. प्रश्न 16. RBSE Class 11 Hindi अपरा Chapter 2 लघूत्तरात्मक प्रश्न प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न
5. प्रश्न 6. प्रश्न 7. प्रश्न 8. प्रश्न 9. प्रश्न 10. प्रश्न 11. प्रश्न 12. RBSE Class 11 Hindi अपरा Chapter 2 निबंधात्मक प्रश्नोत्तर प्रश्न 1. प्रश्न 2. गाय का दूध नहीं पिएँगे, चोटी नहीं गुथवाएँगे और वह अपने को नंदबाबा का ही बेटा मानेंगे, यशोदा का नहीं। यशोदा हठी पुत्र को मनोवैज्ञानिक उपाय से मनाती है। वह उसे नई दुलहिन दिलाने का आश्वासन देती है और बाल-हठ का समाधान हो जाता है। एक अन्य पद में कृष्ण की मक्खन चुराने और गोपियों को तंग करने की बाल-मनोवृत्ति का वर्णन हुआ है। किसी गोपी का घर सूना देखकर कृष्ण उसमें घुस जाते हैं। जी भरकर मक्खन खाने के पश्चात् उस बेचारी के बर्तन तोड़ डालते हैं। बहुत पुराने मांट के टुकड़े कर देते हैं। अचानक लौटी गोपी कृष्ण का करतब देखकर बड़ी क्षुब्ध होती है और उन्हें पकड़कर माँ यशोदा के न्यायालय में पेश कर देती है। इन पदों में बाल-स्वभाव और बच्चों के उपद्रवों का स्वाभाविक वर्णन हुआ है। बच्चों का रूठना और मनना; गोद में न आने, धरती पर लोटने, दूध न पीने की धमकियाँ देना आदि सूरदास के बाल वर्णन में सूक्ष्म निरीक्षण की विशेषता की ओर संकेत करती है। चुराकर वस्तु खाना, तोड़-फोड़ करना आदि बाल-स्वभाव के अंग हैं। इस प्रकार संकलित पदों में सूरदास के बाल-वर्णन की अनेक विशेषताएँ उपस्थित हैं। प्रश्न 3. उनका कहना है कि वे ऐसी मूर्ख नहीं हैं कि फटकन के बदले अपना सोना दे दें। उनका तर्क है कि उद्धव कोरे ज्ञानी और योगी हैं, उन्हें लोक-व्यवहार का ज्ञान नहीं है। प्रेम और भक्ति से वह अपरिचित हैं। नारी मनोविज्ञान से उनका दूर का भी परिचय नहीं है। अत: उनके उपदेश उनके किसी काम के नहीं हैं। गोपियों को उद्धव के ज्ञानी होने पर भी संशय है। ज्ञानी और विवेकी व्यक्ति किसी को शिक्षा-दीक्षा देते समय उसकी पात्रता का ध्यान रखता है। उद्धव को लोकाचार की साधारण बातें तक ज्ञात नहीं हैं। गोपियों जैसी अशिक्षित, ग्रामीण नारियाँ भला योगियों की तरह अर्धनग्न होकर कैसे साधना कर सकती हैं। इस प्रकार गोपियों ने अपने कृष्ण-प्रेम के पक्ष में तर्क देते हुए उद्धव को निरुत्तर कर दिया है। प्रश्न 4. ‘मेरौ मन अनत कहाँ सुख पावै द्वितीय स्वरूप में वात्सल्य, सखाभाव और माधुर्यपूर्ण रचनाएँ आती हैं। वात्सल्य के तो सूर एकछत्र सम्राट हैं। सखाभाव में वह अपने इष्ट श्रीकृष्ण की सभी लीलाओं के साक्षी हैं और प्रेम-माधुर्यमयी रचनाओं में उनको नारी-हृदय प्राप्त होने की बात पर विश्वास करना पड़ता है। भ्रमरगीत, वियोगी नारी हृदय का विविध धाराओं में प्रवाहित अन्तर्गान है। गोपियों की मार्मिक उक्तियाँ, कृष्ण के प्रति अनन्य प्रेमभाव सूर के भाव-वैभव का प्रत्यक्ष प्रमाण है। कला-पक्ष – काव्यशिल्प की दृष्टि से भी सूर काव्य अभिनन्दनीय है। ब्रजभाषा को एक साहित्यिक.काव्य भाषा का स्वरूप प्रदान करना सूर की अपूर्व देन है। लोकोक्तियाँ और मुहावरों के सहज प्रयोग से भाषा को प्रभावशाली बनाया है। लक्षणा और व्यंजना शब्द-शक्तियों के प्रयोग से भाषा में अर्थ की गहराई आई है। ‘सूर सारावली’ के पद तो सूर की चमत्कारप्रियता के सुन्दर नमूने हैं। विषयानुसार वर्णन शैली की विविधता उपस्थित है। श्रृंगार के संयोग और वियोग दोनों पक्षों का हृदयस्पर्शी स्वरूप उपस्थित है। सूर ने अनुप्रास, यमक, श्लेष, उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, सांगरूपक आदि सभी प्रमुख अलंकारों का प्रयोग किया है। इस प्रकार सूर काव्य भाव और कला दोनों ही दृष्टि से समृद्ध है। सूरदास कवि परिचय जीवन परिचय- साहित्यिक परिचय-सूरदास जी की तीन रचनाएँ मानी जाती हैं-सूरसागर, साहित्य लहरी और सूरसारावली। इनमें सूरसागर से ही सूरदास जी की विश्वप्रसिद्ध पहचान है। सूर ने श्रीकृष्ण की लीलाओं से संबंधित विनय, वात्सल्य और श्रृंगार के पद रचे हैं। शृंगार रस के संयोग और वियोग दोनों पक्षों की हृदयस्पर्शी रचनाएँ सूरसागर में विद्यमान हैं। वात्सल्य रस का तो सूरदास को सम्राट माना जाता है। सूरदास ने ब्रजभाषा को साहित्य की भाषा बनाया। उनकी भाषा जहाँ लोकोक्तियों और मुहावरों से कथन को प्रभावशाली बनाती है वहीं शब्द की लक्षण और व्यंजना शक्ति के प्रयोग से वह अपनी बात को बड़ी गइराई तक पाठक के हृदय में बैठा देते हैं। उनकी रचना शैली गीतिमय मुक्तकों से युक्त है। सूर के काव्य में प्राय: सभी प्रमुख शब्दालंकारों तथा अर्थालंकारों का प्रयोग हुआ है। यहाँ तक कि मानवीकरण अलंकार भी सहज रूप में उपस्थित है। पाठ-परिचय प्रस्तुत संकलन में सूर रचित विनय, बाल वर्णन तथा भ्रमरगीत प्रसंग के श्रृंगारपरक पद रखे गए हैं। विनय से संबंधित पहले पद तथा दूसरे में कवि ने श्रीकृष्ण की लीलाओं का गान करने का कारण स्पष्ट किया है। तीसरे पद में सत्संग का महत्व प्रकाशित किया है तथा चौथे पद में अपने इष्टदेव से अपने उद्धार की प्रार्थना की है। बाल वर्णन से सम्बद्ध पदों में प्रथम पद में बालहठ का रोचक वर्णन है। दूसरे पद में कृष्ण के बाँसुरी-वादन का मनमोहक और व्यापक प्रभाव का वर्णन हुआ है। तीसरे पद में ‘माखन चोर’ कन्हैया की गोपियों को खिझाने वाली करतूतें उजागर हुई हैं। ‘भ्रमर गीत’ प्रसंग से संकलित पदों में सूर ने योगी उद्धव पर व्यंग्यबाण छोड़ती गोपियों की प्रगल्भता का परिचय कराया है। प्रथम पद में गोपियाँ, सहज तर्को द्वारा प्रेममार्ग की तुलना में योग की व्यर्थता सिद्ध कर रही हैं। दूसरे पद में गोपियाँ योगी उद्धव को अपनी वियोग-पीड़ा और विवशता समझाने का यत्न कर रही हैं, तो तीसरे पद में उद्धव को भुलक्कड़ और नासमझे बताते हुए, उन्हें उनके कौतुकी मित्र कृष्ण की शरारत का मारा हुआ बता रही हैं। चौथा पद सांगरूपक (रूपक के सभी अंगों से युक्त) है। इस रूपक में ब्रह्मा को कच्चे घड़े बनाने वाला कुम्हार बनाया गया है। गोपियों के विरह-व्याकुल हृदय ही ये घड़े हैं। योगी उद्धव ने सारे ब्रज को बर्तन पकाने वाला भट्टा (अँवाँ), योग को ईंधन, कृष्ण की स्मृति को आग, दुखभरी साँसों को फेंक बनाकर इन गोपियों के हृदयरूपी घड़ों को पका दिया। विरह की अग्नि में तपाकर इन्हें पक्का (कृष्ण प्रेम में दृढ़) बना दिया है। अंतिम पद में श्रीकृष्ण अपने अभिन्न मित्र उद्धव को अपने मन की बात बता रहे हैं। वह कह रहे हैं कि वह एक पल को भी अपने विगत ब्रज जीवन को नहीं भूल पाते हैं। बेचारे उद्धव अवाक् और चकित होकर मित्र को देखे जा रहे हैं। पद्यांशों की सप्रसंग व्याख्याएँ। विनय- 1. कठिन शब्दार्थ-अनत = अन्यत्र, और कहीं। कमल नैन = कमल जैसे नेत्र वाला। महातम = अंधा, मूर्ख। दुरमति = दुर्बुद्धि, बुद्धिहीन। कूप = कूआँ। खनावै = खुदवाना। मधुकर = मोर। अंबुज = कमल। करील = एक झाड़ी जिस पर ‘टेंटी’ नामक कडुआ फल उत्पन्न होता है। भावै = अच्छा लगना। कामधेनु = एक कल्पित गाय, जो सारी इच्छाएँ पूरी कर देती है। प्रसंग तथासंदर्भ-प्रस्तुत पद हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘अपरा’ में सन्निहित संकलित ‘विनय’ शीर्षक के अन्तर्गत संकलित सूरदास के पदों से उद्धृत है। इस पद में सूरदास ने कृष्ण की भक्ति करने का वर्णन किया है। व्याख्या-मेरे मन को और किसी देवी-देवता की शरण में जाने से सुख नहीं मिल सकता। मेरा मन तो बीच समुद्र में स्थित किसी जहाज पर बैठे पक्षी के समान है। वह पक्षी उस जहाज से उड़कर और कहीं नहीं जा सकता। उसे लौटकर फिर उसी जहाज पर आना पड़ता है। इसी प्रकार मैं भी जानता हूँ कि मुझे लौटकर फिर आपकी ही शरण में आना पड़ेगा। हे प्रभु ! आप ही बताइये कि जो व्यक्ति महातम (अंधा) है, वह कमल जैसे नेत्र वाले आपको छोड़कर और किसी देवता की आराधना क्यों करे ? धन चाहने वाला धन की देवी लक्ष्मी की, बल चाहने वाला बल के देव हनुमान की और विद्या चाहने वाला सरस्वती की आराधना करता है। मैं नेत्रहीन हूँ और आप कमलनयन हैं फिर मैं आपको छोड़ किसी अन्य की शरण क्यों हूँ? जिसके सामने परम पवित्र गंगा बह रही हो, वह प्यास बुझाने के लिए कुआँ खुदवाए तो उसे बुद्धिहीन ही कहा जाएगा, जिसने कमल का मधुर रस चखा है उसे करील के कड़वे फल क्यों अच्छे लगेंगे? मेरे लिए तो आप गंगा और कमल-रस के समान हैं। सूरदास कहते हैं कि हे प्रभु ! जिसे कामधेनु मिली हो, वह उसे त्यागकर भला बकरियाँ दुहने क्यों जाएगा। विशेष- 2. कठिन शब्दार्थ- अविगत = अज्ञात, निराकार। गति = स्वभाव, व्यवहार। अन्तरगत = मन में। भावै = अनुभव होता है। परम = अत्यन्त। स्वाद = आनन्द। अमित = अपार। तोष = संतुष्टि, तृप्ति। उपजावै = उत्पन्न करता है। अगम = पहुँच से बाहर। अगोचर = इन्द्रियों द्वारा जिसका अनुभव या ज्ञान न हो। रेख = आकृति, बनावट। जुगुति = युक्ति, उपाय। बिनु = बिना। निरालंब = असहाय, उपायहीन। चक्रित धावै = भ्रम में पड़ जाता है, चक्कर में पड़ जाता है। विधि = उपाय, प्रकार। अगम = अगम्य, जिसे जाना न जा सके। सगुन-लीला = सगुण या साकार रूप में (श्रीकृष्ण के रूप में) की गई लीलाएँ॥ प्रसंग तथा संदर्भ-प्रस्तुत पद हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘अपरा’ में सन्निहित ‘विनय’ शीर्षक के अन्तर्गत संकलित सूरदास के पदों से उद्धृत है। इस पद में सूरदास ने निराकार रूप में ईश्वर की उपासना या भक्ति को कठिन बताते हुए, उसके सगुण या साकार रूप-श्रीकृष्ण की लीलाओं का वर्णन करना सरल माना है। व्याख्या-‘सूर’ कहते हैं कि निराकार या निर्गुण ईश्वर की भक्ति करना बड़ा कठिन है। उस निराकार का वर्णन कर पाना सम्भव नहीं है। उसकी भक्ति या उपासना का केवल अपने मन में ही अनुभव किया जा सकता है। यह स्थिति वैसी ही है जैसे एक गूंगा व्यक्ति मीठे फल का स्वाद मन में तो अनुभव करता है किन्तु उसे दूसरों को बता नहीं सकता। योगी, संन्यासी या साधक लोग, जो निराकार ईश्वर के आराधक हैं वे बताते हैं कि ईश्वर की निराकार स्वरूप उपासना में निरंतर बड़ा आनन्द मिलता है। आत्मा को परम संतुष्टि का अनुभव होता है, किन्तु वह आनंद और संतोष मन और वाणी की पहुँच से बाहर होता है। उसको वाणी द्वारा वर्णित करना या मन में पूर्ण रूप से समझ पाना सम्भव नहीं है। उस निराकार को केवल वही जान पाता है, जिसने साधना द्वारा उसे प्राप्त कर लिया है तथा अनुभव किया है। उस निराकार ईश्वर का न कोई रूप है न आकृति। वह गुणों से रहित है, उसकी कोई जाति या पहचान भी नहीं बताई जा सकती, उसे पाने या समझने का कोई निश्चित उपाय भी नहीं है। अत: निराकार ईश्वर की उपासना करने वाले सामान्य व्यक्ति का मन भ्रम में पड़ जाता है। ‘सूरदास’ अंत में कहते हैं कि उस निर्गुण या निराकार ईश्वर को सब प्रकार से अगम-ज्ञाने से परे जानकर, वह परमात्मा के सगुण रूप भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं का गान करके, परम आनंद का अनुभव कर रहे हैं॥ विशेष- 3. कठिन शब्दार्थ-छाँड़ि = त्याग दे। हरि विमुख = भगवान की भक्ति में रुचि न लेने वाला। कुबुद्धी = बुरे भाव या विचार। भंग = बाधा। पय = दूध। पान= पिलाना। तजत = त्यागता है। भुजंग = सर्प। कागहि= कौए को। कपूर = एक सुगन्धित पदार्थ। स्वान = कुत्ता। न्हवाए= नहलाने से, स्नान कराने से। गंग = गंगा। खर = गधा। अरगजा = कपूर, केसर तथा चंदन को मिलाकर बना सुगंधित लेप। मरकट = बंदर। भूषण = गहने, आभूषण। अंग = शरीर। गज = हाथी। बहुरि = फिर से। धरै = धारण करता है, डाल लेता है। गहि छंग = धूल स्नान करना, धूल को अपने शरीर पर डालना। पाहन = पत्थर। पतित = पड़ने वाला, चोट करने वाला। बान = बाण, तीर। भेदत = छेदना, पार जाता। रीतौ = खाली, रीता। निषंग = तरकस, बाण रखने का थैला जो पीठ पर कसा जाता है। खल = दुष्ट, भगवत् विरोधी। कारी कामरि = काले रंग का छोटा कम्बल। दूजो = दूसरा, अन्य। . प्रसंग तथा संदर्भ-प्रस्तुत पद हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘अपरा’ में ‘विनय’ शीर्षक के अन्तर्गत संकलित सूरदास के पदों से उद्धृत है। इस पद में सूरदास भगवान की भक्ति में रुचि न लेने वाले दुष्ट लोगों की संगति से बचने का सन्देश दे रहे हैं। व्याख्या-सूर कहते हैं-हे मेरे मन! तू भगवत् चर्चा से दूर रहने वाले और सांसारिक चर्चाओं में लगे रहने वाले लोगों का साथ छोड़ दे। ऐसे लोगों का संग करने से बुरे विचार उत्पन्न होते हैं तथा भगवान की भक्ति में बाधा पड़ती है। ऐसे लोगों को सुधारना असम्भव है। साँप को कितना ही दूध पिलाओ, उसका विष कभी दूर नहीं हो पाता, अपितु और बढ़ता है। इसी प्रकार मांस आदि मलिन वस्तुओं का भक्षण करने वाले कौए को कितना भी सुगंधमय कपूर चुगाओ, वह अपना स्वभाव नहीं छोड़ता। कुत्ते को गंगा में स्नान कराने से वह गंदे स्थान पर बैठना और अपवित्र वस्तुएँ खाना नहीं छोड़ता। गधे का स्वभाव धूल में लोटने का है। उसके शरीर पर कपूर, केसर तथा चंदन से बना अत्यन्त सुगंधित ‘अरगजा’ का कितना भी लेप करो, वह धूल में लोटे बिना नहीं मानेगा। ऐसे ही बंदर का स्वभाव हर वस्तु को तोड़ने-फाड़ने का है, उसे सुन्दर और बहुमूल्य आभूषण पहना देने से क्या वह सुधर जाएगा? नहीं, वह उन आभूषणों को भी छिन्न-भिन्न कर डालेगा। हाथी को धूल से स्नान करना बहुत प्रिय लगता है, उसे नदी में कितना भी मल-मल कर स्नान कराओ, वह बाहर आते ही सँड़ में धूल लेकर अपने अंगों पर डालना आरम्भ कर देता है। पत्थर पर कितने भी बाण चलाए जाएँ, वे उसमें छेद नहीं कर सकते। सारा तरकस भी बाणों से खाली कर दो, तब भी कोई बाण पत्थर को नहीं भेद पाएगा।’सूरदास’ कहते हैं- भक्तजनो ! इसी प्रकार दुष्ट हरि विरोधियों का स्वभाव भी काली कमली के समान होता है। इन पर हरि चर्चा रूपी रंग कभी नहीं चढ़ पाता। अत: ऐसे लोगों की संगति त्याग देना ही बुद्धिमानी है। विशेष- 4. कठिन शब्दार्थ-अब कै= अब की बार। राखि लेहु= रक्षा करके। दुम = वृक्ष। डरिया = डाली। पारधि = चिड़ीमार, पक्षियों का शिकार करने वाला। साधे = धनुष पर चढ़ाए हुए। ताके = उसके। भज्यौ चहत = भागना चाहता। हौं = मैं। ढुक्यो = झपटने को मँडरा रहा। सचान = बाज, एक शिकारी पक्षी। दुहुँ = दोनों। उबारै = बचाए। सुमिरत ही = स्मरण करते ही। अहि= साँप। डस्यौ = डस लिया, काट लिया। सर = बाण। छूट्यौ = छूट गया। संधान = धनुष पर चढ़ा हुआ (बाण)। लग्यौ = जा लगा। प्रसंग तथा संदर्भ-प्रस्तुत पद हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘अपरा’ में ‘विनय’ शीर्षक के अंतर्गत संकलित सूरदास के पदों से उधृत है। इस पद में कवि भगवान के शरणागत रक्षक स्वरूप का परिचय करा रहा है। एक निरीह कबूतर की भगवान ने कैसे प्राण-रक्षा की, इस कथा को कवि ने इस पद में प्रस्तुत किया है। व्याख्या-एक बार एक कबूतर एक वृक्ष की डाल पर बैठा हुआ था। उसने अचानक देखा कि एक चिड़ीमार (पक्षियों का शिकारी) उस पर बाण का निशाना लगाए खड़ा था। प्राण संकट में देखकर कबूतर बहुत घबराया। वह भगवान से प्रार्थना करने लगा। हे प्रभु! इस बार हमारी रक्षा कीजिए। देखिए ! मैं वृक्ष की डाल पर बैठा हूँ। यह शिकारी मुझे बाण का निशाना बनाना चाहता है। मैं बिल्कुल अनाथ हूँ। मेरा इस समय कोई रक्षक नहीं है। मैंने इस वधिक के भय से भागना चाहा तो देखा कि ऊपर आकाश में मँडराता एक बाज मुझ पर झपटना चाहता है। अब तो दोनों ओर से मेरे प्राण संकट में हैं। आपके अतिरिक्त और कौन मेरी रक्षा कर सकता है। जैसे ही कबूतर ने दीन भाव से प्रभु को पुकारा तभी एक सर्प ने उस वधिक के पैर में डस लिया और धनुष पर चढ़ा बाण हाथ से छूट गया। वह बाण जाकर ऊपर मँडरा रहे बाज को जा लगा और वह भी मारा गया। इस प्रकार भगवान की शरण लेते ही कबूतर के दोनों शत्रु नष्ट हो गए। ‘सूर’ ऐसे शरणागत वत्सल भगवान की जय-जयकार करते हैं। विशेष- बाल-लीला 5. कठिन शब्दार्थ-चंद-खिलौना = चंद्रमारूपी खिलौना। लैहौं = लँगा। धरनि = धरती। सुरभी = एक प्रकार की गाय। पय = दूध। बेनी = चोटी। गुहैहौं = गॅथवाऊँगा। वै हौं = होऊँगा। पूत = पुत्र। जनैहौं = बताऊँगी। जसोमति = यशोदा। अवहिं = अभी। वियाहन = विवाह करने। कुटिल = टेढ़ा, कपटी। प्रसंग तथा संदर्भ-प्रस्तुत पद हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘अपरा’ में ‘बाल-लीला’ शीर्षक के अंतर्गत संकलित पदों से उद्धृत है। इस पद में बालक कृष्ण चंद्रमों से खेलने का हठ कर रहे हैं। माता यशोदा उन्हें नई दुलहिन दिलाने का वचन देकर बहला रही हैं। व्याख्या-आकाश में दमक रहे श्वेत चंद्रमा को देख हठी कन्हैया ने उसी से खेलने का हठ कर लिया है। माँ से कह रहे हैं कि वह इस चंद्रमा के खिलौने से ही खेलेंगे। यदि वह यह चन्द्र खिलौना नहीं देंगी तो वह धरती पर लोट जाएँगे और उसकी (माता की) गोद में नहीं आएँगे। न सुरभी गाय का दूध पिएँगे न सिर पर चोटी गॅथवाएँगे। अब हम नंद बाबा के पुत्र हो जाएँगे और अपने को यशोदा का बेटा नहीं कहलवाएँगे। यह सुनकर यशोदा कृष्ण से कहती हैं कि तनिक आगे आकर वह उनकी बात सुनें। यह बात वह बलराम को पता नहीं चलने देंगी। हँसती हुई यशोदा श्रीकृष्ण को समझा रही हैं कि वह उनको (कृष्ण को) नई दुलहिन दिलाएँगी। यह सुनकर कृष्ण माँ से कहते हैं कि वह उनकी सौगंध खाकर कह रहे हैं कि वह अभी विवाह करने जाएँगे। सूरदास भी आनंदित होकर कहते हैं कि वह भी इस विवाह में कपटी बराती बनकर जाएँगे और मंगलकारी गीत गाएँगे। विशेष- 6. कठिन शब्दार्थ-अधर = होंठ (पर)। धरी = रखी। गृह-व्यौहार = परिवार में किया जाने वाला उचित व्यवहार, घर के कार्य। तजे = त्याग दिए, भुला दिए। आरज-पथ = श्रेष्ठ आचरण। संक= शंका, संकोच। पद-रिपु= पैर का शत्रु अर्थात् काँटा। पट = वस्त्र, साड़ी आदि। अटक्यौ = उलझ गया। सम्हारति = सम्हालती, बचाती। उलट न पलट खरी = मुड़कर खड़ी नहीं हुई। पलटकर भी न देखा। सिब-सुत-वाहन = शिव के पुत्र कार्तिकेय को वाहन-मोर। चित= चेतना। हरी = नहीं रहीं। दुरि गए= छिप गए। कीर= तोते। कपोत= कबूतर। मधुप= भौरे। पिक = कोयले। सारँग = सर्प। सुधि बिसरी= सुध-बुध भूल गए, चकित रह गए। उडुपति = चन्द्रमा। विद्म = मॅगी। बिम्ब = बिम्बा नामक लाल फल। खिसाने= खिसिया गए। दामिनि = बिजली। हंस-सुता= यमुना। प्रेम-प्रवाह= प्रेम की धारा। ढरी = मग्न, बहती। प्रसंग तथा संदर्भ-प्रस्तुत पद हमारी पाठ्य पुस्तक ‘अपरा’ में ‘बाल-लीला’ शीर्षक के अंतर्गत संकलित सूरदास के पदों से उधृत है। इस पद में सूरदास ने श्रीकृष्ण की बंशी की ध्वनि के गोपियों पर पड़ने वाले प्रभाव का और गोपियों के अंग-सौन्दर्य का। आलंकारिक वर्णन किया है। व्याख्या-जब श्रीकृष्ण ने होंठों पर बंशी धारण की तो उसकी मनमोहनी ध्वनि ने गोपियों के मन वश में कर लिए। गोपियाँ घर के सभी कामों को और उचित आचरण को भुलाकर बिना किसी संकोच या शंका के कृष्ण से मिलने चल दीं। उनके वस्त्र काँटों में उलझने लगे किन्तु उन्होंने उनको सँभालना तो दूर, पलटकर भी पीछे नहीं देखा। मार्ग में शिव के पुत्र कार्तिकेय के वाहन अर्थात् मोर आकर मिले तो मोर मुकुटधारी कृष्ण के भ्रम ने उनके मन, चेतना और विचारशक्ति का हरण कर लिया। उन गोपियों के अंग-सौन्दर्य को देखकर सारे उपमान लज्जित होने लगे। उनकी नाक देखकर तोते, कंठ देखकर कबूतर, नेत्र देखकर भौंरे, मधुर वाणी से कोयल और काली-काली चोटियों को देखकर सर्प सुधबुध भूल गए, चकित मूंगे, होंठों को देखकर बिम्बाफल खिसिया गए। इन सभी को अपनी सुन्दरता फीकी लगने लगी। गोपियों की शुभ्र दंत पंक्ति को देखकर बिजली डर गई। सारी गोपियाँ आनंद और उत्साह से भरी हुई यहाँ यमुनातट पर श्रीकृष्ण से मिलने जा रही थीं। सूरदास कहते हैं कि प्रेम के प्रवाह में मग्न वे गोपियाँ श्रीकृष्ण से मिलकर जैसे एकाकार हो गईं। विशेष- गए स्याम ग्वालिनि घर सूनै। कठिन शब्दार्थ-सूनै = सूना। डारि = गिराकर। गोरस = दूध-दही, छाछ आदि। बासन = बर्तन (मिट्टी के)। फोरि = तोड़कर। चूनै = चूर-चूर। माट = एक बड़ा मिट्टी का पात्र। टूक = टुकड़े। लरिकन = लड़कों को। छिरकि= छिड़ककर। मही सौं = छाछ या मट्ठे से। दै कूक = कूकते हुए, प्रसन्नतासूचक बोली बोलते। तिहि= उसी। औसर = अवसर, समय। निकसत = निकलते हुए। धरि पाए = पकड़े गए। ढरकाए= फैलाए हुए। भुज= भुजाएँ, हाथ। गाडै करि लीन्हें= कसकर पकड़ लिया। महरि = यशोदा। बसै = रहे। याँ = यहाँ। पति = सम्मान॥ प्रसंग तथा संदर्भ-प्रस्तुत पद हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘अपरा’ में ‘बाललीला’ शीर्षक के अंतर्गत संकलित पदों से उद्धृत है। सूरदास ने इस पद में बालक कृष्ण की लोक-प्रसिद्ध और लोक-प्रियं, ‘माखन-चोरी’ लीला के एक प्रसंग का शब्द-चित्र प्रस्तुत किया है। व्याख्या-कृष्ण अपने सखाओं सहित एक गोपी के सूने घर में जा पहुँचे। वहाँ उन्होंने उसका मक्खन खाया। सारा गोरस (दूध, दही, छाछ आदि) फैला दिया और उसके मिट्टी के सारे बर्तन तोड़कर चूर-चूर कर दिए। घर में एक बहुत पुराना और बड़ा मिट्टी का। बर्तन मांट रखा था। उसको तोड़कर दस टुकड़े कर दिए। इसके बाद घर में सो रहे गोपी के लड़कों पर मट्ठा छिड़ककर हँसते और कोलाहल करते चल दिए। उसी समय गोपी आ पहुँची। उसने घर से निकल रहे कृष्ण को पकड़ लिया। जब उसने घर में जाकर सारे बर्तन टूटे पड़े हुए और दही फैला हुआ देखा तो उसने दोनों हाथों से कृष्ण को पकड़ लिया और उन्हें लेकर यशोदा के सामने जा पहुँची। गोपी यशोदा से कहने लगी कि कृष्ण के नित्य नए उत्पातों के चलते अब इस ब्रज में कोई कैसे रह पाएगा। अब तो ब्रज को छोड़कर कहीं और जाकर बसने पर ही सम्मान बच पाएगा। विशेष- भ्रमर गीत 1. कठिन शब्दार्थ- खेप = बोझ, भार। फाटक = फटकन, कूड़ा। हाटक = सोना। निपट = बिलकुल, पूर्णतः। सुधारी= समझ ली हैं। धुर ही ते = आरम्भ से ही। खोटो खायो = कपट किया है, अनुचित लाभ कमाया है। डहकावै = बहकावे में आए। अज्ञानी = मूर्ख, भोली। खार = खारा। बेगि = शीघ्र। गहरु = देर। जनि लावौ = मत करो। मुँह माँग्यौ = इच्छानुसार। पैहो = पाओगे। साहुहि= साहू या स्वामी को। आनि = लाकर। प्रसंग तथा संदर्भ-प्रस्तुत पद हमारी पाठ्य पुस्तक अपरा में ‘भ्रमरगीत’ शीर्षक के अन्तर्गत संकलित सूरदास के पदों से उद्धृत है। इस पद में गोपियाँ ज्ञान और योग का उपदेश करने आए उद्धव की हँसी उड़ा रही हैं। व्याख्या-गोपियाँ परस्पर कह रही हैं कि उनकी बस्ती में आज एक बड़ा व्यापारी आया हुआ है। इसने गुण ज्ञान और योग आदि वस्तुओं की अपनी खेप (बिक्री की
वस्तुएँ) सीधे ब्रज में लाकर उतारी है। यह व्यापारी बड़ा कपटी है। यह अपने फटकन (कूड़ा-करकट) को सोने के बदले बेचना चाहता है। इसने हम सबको भोली या मूर्ख समझ लिया है। इसने तो लगता है आरम्भ से ही लोगों को ठगा है। तभी तो यह इस भारी बोझ को सिर पर लिए घूम रहा है। पर इस ब्रज में ऐसी मूर्ख कोई नहीं है जो इसके बहकावे में आ जाय। भला अपना दूध (कृष्ण के प्रति प्रेमभाव) को छोड़कर खारे कुएँ के पानी (ज्ञान और योग) को कौन पिएगा। गोपियाँ उद्धव से कहती हैं- उद्धव जी! विशेष- 2. कठिन शब्दार्थ-कोकिल= कोयल। कूजत= कूक, रही, बोल रही। कानन = वैन। भस्म = राख। आनन = मुख। सिंगी = योगियों द्वारा बजाई जाने वाली, सग से बनी तुरही। टेरन= पुकारा। पखानन= पत्थरों या पर्वतों पर। पपीहा = एक पक्षी जो पिउ-घिउ की ध्वनि में बोलता है। मिस= बहाने से। मदन = कामदेव, सौन्दर्य और प्रेम के देवता। हति (हतै) = चोट कर रहा है। निपट = निरी, पूर्णतः। अहीर = गोपी। बाबरी = पागल भोली। जोग = योग की शिक्षा। ज्ञाननि = ज्ञानियों को। कथत = कहते हो, बताते हो। नानी-नानन = पूरे परिवार को, सचाई को। नीके = सुहावने। गानन = गीतों से। मुकुति = मुक्ति, मोक्ष, जन्म और मृत्यु से छुटकारा। पूजति = समान हो सकती है। प्रसंग तथा संदर्भ-प्रस्तुत पद हमारी पाठ्य-पुस्तक अपरा में ‘भ्रमरगीत’ शीर्षक के अन्तर्गत संकलित सूरदास के पदों में से अवतरित है। गोपियाँ उद्धव द्वारा योग साधना किए जाने के उपदेश पर व्यंग्य कर रही है। व्याख्या-गोपियाँ उद्धव से कहती हैं-उद्धव जी ! सुनिए, वन में कोयल कूक रही है। वसंत के आगमन की सूचना दे रही है। वसंत के मादक और प्रेम जगाने वाले वातावरण में कुछ प्रेम की बातें कीजिए। आप तो हमसे कह रहे हैं कि हम अपने मुखों पर योगियों की भाँति राख मल लें। सब कुछ त्याग कर हाथों में सींग की बनी तुरही लेकर, उसे बजाती हुई पर्वतों पर जाकर योग साधना करें। परन्तु यह कामदेव पपीहे की ‘पिउ-पिउ’ के बहाने से हमारे वियोगी हृदयों में प्रेम-जगाने वाले बाण मार रहा है, इसके लिए क्या करें। उद्धव हम तो अपढ़ और बिल्कुल अज्ञानिनी अहीरिने (गोपियाँ) हैं, हम आपके ज्ञान और योग को कैसे समझ पाएँगी? इसे तो आप ज्ञानियों को ही दीजिए। आपके इन योग और ज्ञान के उपदेशों को सुनकर हमें लगता है जैसे कोई मामी के आगे नानी और नाना (ननसाल) की बातें करे। आपके ज्ञान और योग की साधना से हम को मुक्ति या मोक्ष प्राप्त हो सकता है, परन्तु हमें अपने प्रिय श्यामसुंदर की मुरली की मनमोहनी तानों के आगे, आपकी मुक्ति तुच्छ प्रतीत होती है। अत: आपका योग हमारे किसी काम का नहीं है। विशेष- 3. कठिन शब्दार्थ-जाने = जान गई। पठाए = भेजे। बीच = रास्ते में। भुलाने = भूल गए हो। बढ़ = बढ़ा हुआ, बड़ा। विवेक = ज्ञान। अयाने = अज्ञानी। गुनि लेहु = विचार करो, सोचो। अबला = दुर्बल (स्त्रियाँ)। दसा = दशा, स्वरूप। दिगंबर = वस्त्रहीन, नग्न। सम्मुख = सामने (रखकर)। पहिचाने = पहचान, निर्णय। बूझति = पूछती है। निदाने = वास्तव में। नेकहु= तनिक भी। प्रसंग तथा संदर्भ-प्रस्तुत पद हमारी पाठ्य-पुस्तक अपरा में ‘भ्रमरगीत’ नामक शीर्षक के अंतर्गत संकलित सूरदास के पदों से उद्धृत है। इस पद में गोपियाँ, स्त्रियों को योगसाधना का उपदेश करने वाले, उद्धव पर व्यंग्य कर रही हैं। व्याख्या-गोपियाँ उद्धव से कह रही हैं कि वह मथुरा लौट जाएँ क्योंकि उन्होंने उनकी योग्यता को पहचान लिया है। वे कहती हैं। कि कृष्ण ने उनको यहाँ (ब्रज में) नहीं भेजा है। वह तो मार्ग में भटककर वहाँ चले आए हैं। यदि उनको कृष्ण ने भेजा होता तो वह भोले-भाले, कृष्ण-प्रेमी, ब्रजवासियों को योग की शिक्षा नहीं देते। उनको तो इतनी भी समझ नहीं है कि किससे क्या बात कहनी चाहिए। गोपी उद्धव से कहती हैं-उद्धव जी आप चाहे कितने भी महान योगी हैं। पर आपका ज्ञान हमें बड़ा नहीं लगता। हमें तो लगता है कि आप। अभी नौसिखिए हैं। आपको लोक व्यवहार का ज्ञान नहीं है। चलो, आपने हम से जो कुछ योग और ज्ञान संबंधी बातें कहीं, हमने तो आपको प्रिय कृष्ण का मित्र मानते हुए सहन कर लीं किन्तु तनिक आप अपने मन में विचार करके देखिए कि कहाँ तो दुर्बल तन-मन वाली हम स्त्रियाँ और कहाँ आपके योगियों की नग्न रहने की दशा। क्या स्त्रियाँ योगियों की भाँति लँगोटी बाँधकर रह सकती हैं? सच-सच बताइए, आपको हमारी सौगंध है; जब कृष्ण ने आपको ब्रज में भेजा था, तब क्या वह तनिक मुसकराए थे? भाव यह है कि कहीं कृष्ण ने आपके साथ परिहास तो नहीं किया? आपके योग और ज्ञान के अहंकार की हँसी उड़वाने को तो आपके मित्र ने आपको यहाँ नहीं भेज दिया? विशेष- 4. कठिन शब्दार्थ-विधि= विधाता, ब्रह्मा। काँचे= कच्चे। घट= घड़े। आनि= आकार। अवधि= निश्चित किया गया समय। अटा= अटारी। अँवाँ= मिट्टी. के कच्चे बर्तनों को पकाने के लिए ईंधन का ढेर। सुरति= स्मृति, याद। उसास= गहरी दुख भरी साँस। परजारिन= लपटें, तीव्र आग। फिराए = घुमाए (कहीं ‘फिराए’ के स्थान पर सिराए’ पाठ भी है)। सँपूरन= पूर्ण, पककर तैयार। छुवने = छूना। राजुकाज = राजा (कंस) को कार्य। कर लाए= के लिए (सुरक्षित रखे हैं।) प्रसंग तथा संदर्भ-प्रस्तुत पद हमारी पाठ्य पुस्तक अपरा में ‘भ्रमरगीत’ शीर्षक के अंतर्गत संकलित सूरदास के पदों से उद्धृत हैं। इस पद में कवि ने सांगरूपक अलंकार द्वारा, गोपियों के उद्धव के प्रति व्यंग्यमय कथन को प्रस्तुत किया है। व्याख्या-गोपियाँ उद्धव के ब्रज में पधारने पर उन्हें धन्यवाद कह रही हैं। उद्धवजी आप यहाँ आए, तो आपने हम पर बड़ा उपकार किया। विधाता ने जो हमारे हृदय रूपी कच्चे घड़े बनाए थे, आपने आकर उन्हें पका दिया। इन हमारे हृदयरूपी घड़ों को प्रिय कृष्ण ने प्रेम रंग में रँगा था। इन पर अपनी छवियों के अनेक चित्र बनाए थे। कृष्ण-वियोग में निरंतर बहते हमारे आँसुओं से ये गले नहीं, इसका कारण यह है कि हमने इन्हें ‘अवधि’ अर्थात् कृष्ण जो लौटकर आने के समय पर विश्वासरूपी अट्टे में रखा था। आपने यहाँ पधारकर सारे ब्रज को बर्तन पकाने का भट्टा बनाया। योग उपदेशों को ईंधन बनाया और कृष्ण स्मृति रूपी अग्नि से इस भट्टे को सुलगा दिया। हमारी दुख भरी लम्बी साँसों ने फेंक का काम किया और विरह व्यथा ने लपटें बनकर इन कच्चे घड़ों रूपी हमारे हृदय को खूब तपाया। श्रीकृष्ण लौटकर अवश्य आएँगे, इस आशा ने, इन्हें उलट-पलटकर अच्छी तरह पकाया है। अब ये हृदय-घट बनकर पूरी तरह तैयार हो गए हैं और हमने इन्हें प्रेमरूपी जल से भर दिया है। किसी अन्य को हमने इन्हें छूने तक नहीं दिया है। हमारे साँवरे, राज काज से मथुरा गए हैं। हमने इन हृदय-घटों को उन्हीं के लिए सुरक्षित रखा है। भाव यह है कि उद्धव ने तो अपने योग उपदेशों से गोपियों के हृदयों को जितना तपाना (कष्ट पहुँचाना) था तपा लिया। परन्तु वह इनमें ज्ञान और योग रूपी जल नहीं भर पाए। ये हृदय-घट अब भी कृष्ण प्रेम से परिपूर्ण होकर, प्यारे-प्यारे श्यामसुन्दर की प्रतीक्षा कर। रहे हैं। विशेष- 5. कठिन शब्दार्थ-बिसरत = भूलता। हंससुता = यमुना। कगरी = तट। सुरभी = गाएँ। बच्छ = बछड़े। दोहनी = दूध दुहने के बर्तन। खरिक = गायें बाँधे जाने के बाड़े। कुलाहल = कोलाहल, शोर। गहि-गहि= पकड़-पकड़कर। बाहीं = बाँहें। कंचन= सोना, धन। मुक्ताहल = मोती। सुरति = स्मृति। उमगत = उमड़ता है। तनु= शरीर। अनमन= असंख्य, अनगिनती। निबाही = निभाई, सहन कीं। प्रसंग तथा संदर्भ-प्रस्तुत पद हमारी पाठ्य-पुस्तक अपरा में ‘भ्रमरगीत’ शीर्षक के अंतर्गत संकलित सूरदास के पदों में से लिया गया है। इस पद में ब्रज से लौटकर आये उद्धव से श्रीकृष्ण अपने मन की बात कह रहे हैं। व्याख्या-श्रीकृष्ण उद्धव से कहते हैं कि उन्हें ब्रज में बिताए जीवन की यादें भुलाए नहीं भूलर्ती। आज भी उनका मन ब्रज में जाकर रहने को करता रहता है। वहाँ यमुना के वे सुन्दर तट और कुंजों की छाया, वे गाएँ, वे बछड़े दूध, दूहने के बर्तन, गायों को बाँधने के वे बाड़े जहाँ हम गाएँ दुहने जाया करते थे, आज भी मन को खींचती रहती है। हम सभी गोप बालकों को मिलकर हल्ला मचाना और एक दूसरे का हाथ पकड़कर नाचना भुलाए नहीं भूलता। उद्धव यह मथुरा धन-धान्य से पूर्ण नगरी है। यहाँ मुझे सारे राजसी सुख प्राप्त हैं। मणि और मोतियों के आभूषण भी पहनता हूँ, परन्तु जब भी मुझे उस ब्रज-जीवन की स्मृति होती है तो मेरा हृदय ब्रज में पहुँच जाने को उमगने लगता है। ऐसा लगता है मेरा मन ब्रज में ही जा पहुँचा है, मेरे शरीर में नहीं है। वहाँ ब्रज में रहते हुए हमने अनगिनती लीलाएँ की थीं और माता यशोदा तथा नंद बाबा ने उनको प्यार से निभाया था। सूरदास कहते हैं कि इतना कहकर श्रीकृष्ण चुप हो गए। इन सारी बातों को बार-बार कहकर मन में पछताकर रह जाते हैं। क्योंकि आज इन्हें उसी ब्रज से दूर रहना पड़ रहा है। विशेष- RBSE Solutions for Class 11 Hindi |