नाटक लिखते समय नाटककार को मूल रूप से किस बात का ध्यान रखना - naatak likhate samay naatakakaar ko mool roop se kis baat ka dhyaan rakhana

समय का बंधन सभी के लिए आवश्यक है। नाटक लिखने के लिए ‘समय के बंधन’ का औचित्य स्थापित कीजिए।

‘समय का बंधन’ नाटक की रचना प्रक्रिया पर पूरा प्रभाव डालता है। इसीलिए यह निश्चित किया जाता है कि नाटक निर्धारित समय सीमा के भीतर पूरा होना चाहिए। नाटक को वर्तमान काल में ही संयोजित करना होता है भले ही वह भतूकाल या भविष्यकाल की रचनाओं पर आधारित हों। काल चाहे कोई भी हो उसे एक विशेष समय में, एक विशेष स्थान पर वर्तमान काल में ही घटित होना होता है। साहित्य की अन्य विधाओं, कहानी, उपन्यास या कविता को पढ़ते या सुनते हुए हम बीच में रूक सकते हैं और कुछ समय बाद वहीं से शरूु कर सकते हैं परंतु नाटक के साथ ऐसा करना संभव नहीं है नाटककार को इस बात का ध्यान भी रखना होता है कि दर्शक कितनी देर तक किसी घटना को घटित होते हुए देख सकते हैं। नाटककार से अपेक्षा की जाती है कि नाटक के प्रत्येक अंक की अवधि कम से कम 48 मिनट की हो यही समय का बंधन कहलाता है।

अभिव्यक्ति और माध्यम (कविता-काहानी-नाटक) पत्रकारिता के विविध आयाम

प्रश्न – कविता क्या है ?

उत्तर – कविता के मूल में संवेदना है, राग तत्व है। यह संवेदना, संपूर्ण सृष्टि  से जोड़ने और उसे अपना लेने का बोध है।

प्रश्न – कविता कैसे बनती है ?

उत्तर -कविता एक ऐसी कला है जिसमें किसी बाह्य उपकरण की मदद नहीं ली जा सकती है। वह भाषा के उपकरणों के माध्यम से विभिन्न विषयों एवं दैनिक जीवन से सामग्री जुटाती है। वह अपनी इच्छानुसार शब्दों को जुटाती है और उसे लय से गठित करती है।  शब्दों का खेल, परिवेश के अनुसार शब्द चयन, लय, तुक, वाक्य संरचना, यति-गति, बिंब, संक्षिप्तता के साथ-साथ विभिन्न अर्थ स्तर आदि से कविता बनती है।

प्रश्न – कविता में शब्दों का चयन कैसे किया जाता है ? कविता में शब्दों का क्या महत्त्व है ?

उत्तर – कविता की अनजानी दुनिया का सबसे पहला उपकरण है – शब्द। दरअसल रचनात्मकता सबके अंदर होती है। तुकबंदी के प्रयास में    धीरे-धीरे उनकी रचनात्मकता आकार लेने लगती है। इस प्रयास केद्वारा नए आयाम खुलते हैं। शब्दों का यह खेल धीरे-धीरे ऐसी  दुनिया में ले जाता है, जहां रिद्म है, लय है और एक व्यवस्था है।

प्रश्न – वाक्य संरचना का कविता में क्या महत्त्व है ?

उत्तर – कविता में शब्दों के पर्याय नहीं होते। कविता में प्रयुक्त शब्द एक विशेष अर्थ रखते हैं। उन्हें किसी अन्य पर्यायवाची द्वारा बदल दिए जाने पर उसके अर्थ और मूल संवेदन पर प्रभाव पड़ता है।इसीलिए वाक्य संरचना का विशेष ध्यान रखना पड़ता है।

प्रश्न – बिंब और छंद (आंतरिक लय) का कविता लेखन में क्या महत्त्व है ?

उत्तर – बिंब और छंद (आंतरिक लय) कविता को इद्रियों से पकड़ने में सहायक होते हैं। बाह्य संवेदनाएँ मन के स्तर पर बिंब के रूप में बदल  जाती हैं। कुछ विशेष शब्दों को सुनकर अनायास मन के भीतर कुछ चित्र कौंध जाते हैं। ये स्मृति चित्र ही शब्दों के सहारे कविता का  बिंब निर्मित करते हैं।

प्रश्न – सुमित्रानंदन पंत ने कविता के लिए चित्र-भाषा की आवश्यकता पर क्यों बल दिया है ?

उत्तर – सुमित्रानंदन पंत ने कविता के लिए चित्र-भाषा की आवश्यकता पर बल दिया है क्योंकि चित्र या बिंबों का प्रभाव मन पर अधिक  पड़ता है। दृश्य बिंब अधिक बोधगम्य होते हैं क्योंकि देखी हुई हर चीज़ हमें प्रभावित करती है। कविता ऐसी चीज़ है जिसे पाँच   इद्रियों रूपी उँगलियों से पकड़ा जाता है। जिस कवि की जितनी बड़ी ऐंद्रिक पकड़ होती है, वह उतनी ही प्रभावशाली कविता रचने में समर्थ हो पात अहै।

प्रश्न – कविता के सारे घटक किससे परिचालित होते हैं ?

उत्तर – कविता के सारे घटक परिवेश और संदर्भ से परिचालित होते हैं। कविता की भाषा, संरचना, बिंब, छंद सब उसी के इर्द-गिर्द घूमते हैं। परिवेश के साथ-साथ कविता के सारे घटक भाव तत्त्व से परिचालित होते हैं। कवि की वैयक्तिक सोच, दृष्टि और दुनिया को देखने का  नज़रिया कविता की भाव सम्पदा बनती है।कवि की इस वैयक्तिकता में सामाजिकता मिली होती है हवा में सुगंध की तरह।

प्रश्न – कविता की क्या विशेषताएँ होती हैं ?

उत्तर – निम्नलिखित विशेषताएँ होती हैं –

१. कविता भाषा में होती है। भाषा शब्दों से बनती है। शब्दों का एक विन्यास होता है जिसे वाक्य कहा जाता है। अत: भाषा सहज एवं प्रचलित हो पर संरचना ऐसी कि पाठक को नई लगे। कविता में संकेतों का बड़ा महत्त्व होता है। वाक्य गठन की जो विशिष्ट प्रणालियाँ होती हैं, उन्हें शैली कहाजाता है।

२. कविता में आंतरिक लय का निर्वाह करने हेतु छंद अनुशासन का ज्ञान ज़रूरी है। कविता छंद और मुक्त छंद दोनों में होती है।

३. कविता समय विशेषा की उपज होती है। अत: किसी समय विशेष की प्रचलित प्रवृत्तियों की ठीक-ठाक जानकारी भी कविता की दुनिया में प्रवेश के लिए ज़रूरी है।

४. कम से कम शब्दों में अपनी बात कह देना अच्छी कविता की निशानी मानी जाती है।

५. चीज़ों को देखने की नवीन दृष्टि या नए पहचानने और प्रस्तुत करने की कला न हो तो कविता लेखन संभव नहीं।

६. उचित शब्दों का चयन, उसका गठन और भावानुसार लयात्मक अनुशासन कविता रचना के लिए आवश्यक होते हैं।

नाटक रेडियो नाटक

प्रश्न – नाटक साहित्य की अन्य विधाओं से कैसे अलग होता है ?

उत्तर – हमारी भारतीय परंपरा में नाटक को दृश्य काव्य की संज्ञा दी गई है। जहाँ से नाटक अपनी निजी एवं विशेष प्रकृति ग्रहण करता है – वह है उसका लिल्खित रूपसे दृश्यता की ओर अग्रसर होना। जहाँ साहित्य की अन्य विधाएँ अपने लिखित रूप में ही एक निश्चित और अंतिम रूप को प्राप्त कर लेती हैं, वहीं नाटक अपने लिखित रूप से एकआयामी ही होता है। जब उस नाटक का मंचन हमारे सामने आता है तब जाकर उसमें संपूर्णता आती है।

प्रश्न – नाटक लिखते समय नाटककार को उसकी मूल विशेषता ‘ समय का बंधन ’ का ध्यान क्यों रखना पड़ता है ?

उत्तर – समय का यह बंधन नाटक की रचना पर अपना पूरा असर डालता है, इसीलिए एक नाटक को शुरु से लेकर अंत तक एक निश्चित समय-सीमा के भीतर पूरा करना होता है। एक नाटककार को यह सोचना भी ज़रूरी है कि दर्शक कितनी देर किसी कहानी को अपने सामने घटित होते देख सकते हैं। साथ ही नाटक में हर एक चरित्र का पूरा विकास होना भीज़रूरी है; इसीलिए नाटक में समय का ध्यान रखना ज़रूरी हो जाता है। भरत मुनि के नात्र्यशास्त्र के अनुसार नाटक में तीन अंक होते है और हर एक अंक कम से कम 48 मिनट का होना चाहिए।

प्रश्न – नाटक के मंच-निर्देश हमेशा वर्तमान काल में ही क्यों लिखे जाते हैं ?

उत्तर – नाटककार अगर अपनी रचना को भूतकाल से अथवा किसी और लेखक की  रचना को भविष्य काल से उठाए, इन दोनों ही स्थितियों में उसे नाटक को वर्तमान काल में ही संयोजित करना होता है। चाहे काल कोई भी हो उसे एक विशेष समय में, एक विशेष स्थान पर वर्तमान काल में ही घटित होना होता है।

प्रश्न – नाटक के कौन-कौन से तत्त्व हैं ?

उत्तर – समय का बंधन, शब्द, कथ्य, संवाद, चरित्रों का विकास, शिल्प और संरचना, उद्देश्य आदि  नाटक के तत्त्व माने गए हैं।

प्रश्न – नाटक के लिए ‘ शब्द ’ का क्या महत्त्व होता है ?

उत्तर – साहित्य की दो विधाओं कविता और नाटक के लिए शब्द का विशेष महत्त्व है। नाटक की दुनिया में शब्द अपनी एक नई, निजी और अलग अस्मिता ग्रहण करता है। कविता में शब्द बिंब और प्रतीक में बदलने की क्षमता भी रखते हैं। इसी कारण साहित्य की सभी विधाओं में कविता ही नाटक के सबसे ज़्यादा निकट जान पड़ती है। इसी आधार पर कहा जाता है कि एक सफल नाटककार भी हो सकता है।

प्रशन – एक नाटककार को कैसी भाषा अपनानी पड़ती है ?

उत्तर – नाटककार के लिए ज़रूरी है कि वह अधिअक से अधिक संक्षिप्त और सांकेतिक भाषा का प्रयोग करे जो अपने आप में वर्णित न होकर क्रियात्मक अधिक हो, उन शब्दों में दृश्य बनाने की क्षमता भरपूर हो और वह अपने शाब्दिक अर्थ से ज़्यादा व्यंजना की ओर ले जाए। एक अच्छा नाटक वही होता है जो लिखे या बोले गए शब्दों से ज़्यादा वह ध्वनित करे जो लिखा या बोला नहीं जा रहा। नाटक का एक मौन, अंधकार या ध्वनि-प्रभाव कहानी या उपन्यास के बीस-पच्चीस पृष्ठों के बराबरी कर सकता है।

प्रश्न – एक नाटक के लिए ‘ कथ्य ’ कितना ज़रूरी होता है ?

उत्तर – पहले कहानी  के रूप को किसी शिल्प, फ़ॉर्म अथवा संरचना के भीतर पिरोना होता है। नाटक को मंच पर मंचित होना है। अत: एक नाटककार को एक कुशल संपादक भी होना चाहिए ताकि मंचन हेतु घटनाओं, स्थितियों अथवा दृश्यों का चुनाव कर उसे क्रमवार इस तरह रखे कि शून्य से शिखर तक विकास की दिशा में आगे बढ़ें।

प्रश्न – ‘ संवाद ’ को नाटक का सबसे ज़रूरी और सशक्त माध्यम क्यों माना जाता है ?

उत्तर – नाटक के लिए तनाव, उत्सुकता, रहस्य, रोमांच और अंत में उपसंहार जैसे तत्त्व अनिवार्य हैं। इसके लिए विरोधी विचारधाराओं का संवद ज़रूरी होता है। संवादों का अपने आप में वर्णित या चित्रित न होकर क्रियात्मक होना, दृश्यात्मक होना और लिखे तथा बोले जाने संवादों से भी ज़्यादा उन संवादों के पीछे निहित अनलिखे एवं अनकहे संवादों की ओर ले जाना नाटक को सफल बनाते हैं। संवाद जितने ज़्यादा सहज और स्वाभाविक होंगे उतना ही दर्शक के मर्म को छू पाएँगे। संवाद चाहे कितने भी क्लिष्ट भाषा में क्यों न लिखे गए हों, स्थिति तथा परिवेश की माँग के अनुसार तदि वे स्वाभाविक जान पड़ते हैं तो उनके दर्शकों तक संप्रेषित होने में कोई मुश्किल नहीं होगी।

प्रश्न – रंगमंच प्रतिरोध का सबसे सशक्त माध्यम है – क्यों कहा गया है ?

उत्तर – नाटक स्वयं में एक जीवंत माध्यम है। कोई भी दो चरित्र जब भी आपस में मिलते हैं तो विचारधाराओं के आदान-प्रदान में तकराहट पैदा होना स्वाभाविक है। वह कभे एभी यथास्थिति को स्वीकार कर ही नहीं सकता। इस कारण उसमें अस्वीकार की स्थिति भी बराबर बनी रहती है।  जिस नाटक मेम इस तरह की असंतुष्टि, छटपटाहट, प्रतिरोध और अस्वीकार जैसे नकारात्मक तत्त्वों की जितनी ज़्यादा उपस्थिति होगी वह उतना ही गहरा और सशक्त नाटक साबित होगा।

प्रश्न – नाटकों में चरित्रों का विकास किस प्रकर किया जाना चाहिए ?

उत्तर – नाटक में जो चरित्र प्रस्तुत किए जाएँ वे सपाट, सतही और टाइप्ड न हों। वे स्थितियों के अनुसार अपनी क्रियाओं-प्रतिक्रियाओं को व्यक्त करते चलें।

प्रश्न – शिल्प और संरचना के आधार पर नाटक कितने प्रकार के हैं ?

उत्तर – शिल्प और संरचना के आधार पर ही नाटककार अपने कथ्य को व्यंजित करता है । इस आधार पर नाटक के कई प्रकार हैं। जैसे – शास्त्रीय नाटकलोकनाटक (लिखित नहीं मौखिक रचना प्रक्रिया के माध्यम से घटित होता है), पारसी नाटक ( शेरो-शायरी, गीत-संगीत और अरिरंजित संवादों पर आधारित), यथार्थवादी नाटक आदि।

प्रश्न- नाटक में स्वीकार और अस्वीकार की अवधारणा से क्या तात्पर्य है?

उत्तर- नाटक में स्वीकार से ज्यादा अस्वीकार का महत्व है| नाटक में स्वीकार तत्व के या जाने से नाटक सशक्त हो जाता है| कोई भी दो चरित्र जब आपस में मिलते हैं तो विचारों के आदान-प्रदान में टकराहट पैदा होना स्वाभाविक है| रंगमंच में कभी भी यथास्थिति को स्वीकार नहीं किया जाता है|

कहानी

प्रश्न 2. कहानी का नाट्य रूपांतरण कैसे करें ?

उत्तर-कहानी को नाटक में रूपांतरित करने के लिए अनेक महत्त्वपूर्ण बातों का ध्यान रखना आवश्यक है जो इस प्रकार है-

1. कहानी की कथावस्तु को समय और स्थान के आधार पर विभाजित किया जाता है।

2. कहानी में घटित विभिन्न घटनाओं के आधार पर दृश्यों का निर्माण किया जाता है।

3. कथावस्तु से संबंधित वातावरण की व्यवस्था की जाती है।

4: ध्वनि और प्रकाश व्यवस्था का ध्यान रखा जाता है।

5. कथावस्तु के अनुरूप मंच सज्जा और संगीत का निर्माण किया जाता है।

6. पात्रों के द्वंद्व को अभिनय के अनुरूप परिवर्तित किया जाता है।

7. संवादों को अभिनय के अनुरूप स्वरूप प्रदान किया जाता है।

8. कथानक को अभिनय के अनुरूप स्वरूप प्रदान किया जाता है

प्रश्न – कहानी क्या है ?

उत्तर – किसी घटना, पात्र या समय का क्रमबद्ध ब्योरा जिसमें परिवेश हो, द्वंद्वात्मकता हो, कथा का क्रमिक विकास हो, चरम उत्कर्ष का बिंदु हो, उसे कहानी कहा जाता है। कहानी हमारी जीवन से इतनी निकट या उसका अविभाज्य हिस्सा है कि हर आदमी किसी न किसी रूप में कहानी सुनता या सुनाता है।

प्रश्न – कहानी कला कितनी पुरानी है ? उसका क्या इतिहास है ?

उत्तर – कहानी का इतिहास उतना ही पुराना है जितना मानव इतिहास क्योंकि कहानी मानव स्वभाव और प्रकृति का हिस्सा है। धीरे-धीरे कहानी कहने की आदिम कला का विकास होने लगा। कथावाचक कहानियाँ सुनाते थे। किसी घटना-युद्ध, प्रेम, प्रतिशोध के किस्से सुनाए जाते थे। मानव स्वभाव का एक गुण कल्पना भी है। सच्ची घटनाओं पर कथा-कहानी सुनाते-सुनाते उसमें कल्पना का भी सम्मिश्रण होने लगा। प्राचीन काल में संचार का कोई और माध्यम न होने के कारण मौखिक कहानियों का लोकप्रियता बढ़ी थी। धर्म प्रचारकों ने भी अपने सिद्धांत और विचार लोगों तक पहुँचाने के लिए कहानी का ही सहारा लिया। इस तरह कहानी के साथ उद्देश्य का भी सम्मिश्रण हो गया।

प्रश्न – कहानी कौन-कौन से तत्त्व हैं ?

उत्तर – कहानी के निम्न तत्त्व हैं – कथानक, देशकाल और पर्यावरण, पात्र, संवाद, चरम उत्कर्ष एवं उद्देश्य।

प्रश्न – कथानक को कहानी का केन्द्रीय बिंदु क्यों कहा जाता है ?

उत्तर – कहानी का वह संक्षिप्त रूप जिसमें प्रारंभ से अंत तक कहानी की सभी घटनाओं और पात्रों का उल्लेख किया गया हो, कथानक कहलाता है। कथानक कहानी की प्रारंभिक नक्शा होता है। कहानी का कथानक आमतौर पे कहानीकार के मन में किसी घटना, जानकारी, अनुभव या कल्पना के कारण आता है। इसके बाद कथाकार उसे विस्तार देने में जुट जाता है। द्वंद्व के तत्त्व कथानक को आगे ही नहीं बढ़ाते बल्कि उसे रोचक भी बनाए रखते हैं। कथानक की पूर्णता की यह शर्त होती है कि कहानी नातकीय ढंग से अपने उद्देश्य को पूरा करने बाद समाप्त हो।

प्रश्न – कहानी में पात्रों का चरित्र-चित्रण कैसे किया जाता है ?

उत्तर – कहानी में पात्रों का चरित्र-चित्रण उनके क्रिया-कलापों, संवादों तथा दूसरे पात्रों द्वारा बोले गए संवादों के माध्यम से ही प्रभावशाली होता है। पात्रों का चरित्र-चित्रण पात्रों की अभिरुचियों के माध्यम से भी होता है।

प्रश्न –कहानी मे संवादों का कितना महत्त्व है ?

उत्तर – संवाद ही कहानी को स्थापित, विकसित और कहानी को गति देते हैं, आगे बढ़ाते हैं। जो घटना या प्रतिक्रिया कहानीकार होती हुई नहीं दिखा सकता, उसे संवादों के माध्यम से सामने लाता है। संवाद पात्रों के स्वभाव और पूरी पृष्ठभूमि के अनुकूल हों। वह उसके विश्वासों, आदर्शों तथा स्थितियों के भी अनुकूल होना चाहिए।

प्रश्न – कहानीकार को चरम उत्कर्ष या क्लाइमेक्स की ओर विशेष ध्यान क्यों देना चाहिए ?

उत्तर – कहानी का चरम उत्कर्ष ही कहानी के महत्‍ उद्देश्य को सामने लाने में मदद करता है। अत: यह जितना स्पष्ट, संक्षिप्त और रोचक होगा, उद्देश्य उतना खिलकर सामने आएगा और पाठक के मन पर प्रभाव भी डालेगा। क्लाइमेक्स ऐसा हो कि पाठक स्वयं लेखक के उद्देश्य के बारे में सोचने पर मज़बूर हो जाए और उसे लगे कि कहानीकार ने उसे यह स्वतंत्रता दी है कि वह स्वयं अंतिम निर्णय करे।

रेडियो नाटक रेडियो नाटक

प्रश्न 1 दृश्य श्रव्य माध्यमों की तुलना में श्रव्य माध्यम की क्या सीमाएं हैं? इन सीमाओं को किस तरह पूरा किया जा सकता है?

उत्तर– विशेष रवि माध्यमों की तुलना में श्रव्य माध्यम किया नहीं सीमाएं हैं जो इस प्रकार है—

  1. दृश्य श्रव्य माध्यम में हम नाटक को अपनी आंखों से देख भी सकते हैं और पात्रों के संवादों को सुन भी सकते हैं किंतु श्रव्य माध्यम में हम केवल सुन सकते हैं उसे देख नहीं सकते।
  2. दृश्य श्रव्य माध्यम में हम पत्रों के हाव भाव देखकर उनकी दशा का अनुमान लगा सकते हैं किंतु श्रव्य माध्यम में हम ऐसा कुछ भी नहीं कर सकते।
  3. दृश्य श्रव्य माध्यम में मनचला पात्रों के वस्त्रों की शोभा और उनके सौंदर्य को देख सकते हैं किंतु श्रव्य माध्यम में हम इनकी केवल कल्पना कर सकते हैं।
  4. दृश्य श्रव्य माध्यम में किसी भी दृश्य तथा वातावरण को देखकर आनंद उठा सकते हैं किंतु श्रव्य माध्यम में पत्ते की स्थिति को केवल ध्वनियों के माध्यम से ही समझ सकते हैं; जैसे जंगल का दृश्य प्रस्तुत करना हो तो जंगली जानवरों की आवाज तथा डरावना संगीत दिया जाता है।
  5. दृश्यम माध्यमों में श्रव्य माध्यमों की तुलना में वातावरण की सृष्टि पात्रों के संवादों सीखी जाती है। समय की सूचना तथा पात्रों के चरित्र का उद्घाटन भी संवादों के माध्यम से ही होता है।

श्रव्य माध्यम कि इन सीमाओं को ध्वनि माध्यम से ही पूरा किया जा सकता है।

प्रश्न 2 विजय कुछ दृश्य दिए गए हैं।रेडियो नाटक में इन दृश्यों को किस किस तरह से प्रस्तुत करेंगे। विवरण कीजिए।

(क) घनी अंधेरी रात

(ख) सुबह का समय

(ग) बच्चों की खुशी

(घ) नदी का किनारा

(ॾ) वर्षा का दिन

उत्तर–

(क) घनी अंधेरी रात–सांय-सांय की आवाज, बीच-बीच में चौकीदार की सीटी और लाठी की आवाज, जागते रहो का स्वर, किसी का स्वर कितनी घनी रात है हाथ को हाथ नहीं सूझ रहा।

(ख) सुबह का समय-चिड़ियों के चहचहाने की आवाज, मुर्गे की बांग का स्वर, प्रभाती गाते हुए किसी का स्वर।

(ग) बच्चों की खुशी- बच्चों के शोर-गुल का स्वर, किलकारियां, मिली जुली अनेक हंसी की ध्वनियां।

(घ) नदी का किनारा- किनारे से टकराते हुए पानी की आवाज, हवा का स्वर, पक्षियों का कलरव।

(ॾ) वर्षा का दिन- लगातार वर्षा होने की आवाज, किसी का किसी को कहना’बाहर छतरी लेकर जाना’ दूसरा स्वर लगता है आज वर्षा ने रुकना ही नहीं है।

प्रश्न 3 रेडियो नाटक लेखन का प्रारूप बनाइए और अपनी पुस्तक को किसी कहानी के एक अंश को रेडियो नाटक में रूपांतरित कीजिए।

उत्तर— ईदगाह कहानी में एक दृश्य ऐसा है कि ईद के मेले पर जाने के लिए सब बच्चे तैयार होकर हामिद को बुलाने उसके घर आते हैं। हामिद भी मेले में जाने के लिए तैयार है।  बच्चों के बुलाने पर भी हामिद की दादी हामिद को मेले पर जाने से पहले कुछ समझाने लगती है। रेडियो नाटक इस दृश्य का लेखन कुछ इस प्रकार से होगा–

(बहुत सारे बच्चों का शोर, मिली-जुली आवाजें, पदचाप का स्वर, दरवाजा खटखटाने की आवाज)

एक स्वर-हामिद! ओ हामिद! मेले नहीं चलना है क्या!

हामिद- (दूर से आती हुई आवाज) आ रहा हूं।

(तेज कदमों की आवाज)

दादी-रुको, हामिद।

हामिद- (जोर से) क्या है?

दादी- (धीरे से) मेले में ध्यान से चलना। और……

हामिद- (बीच में ही रोककर बोलता है) मुझे पता है।

दादी- फिर भी बेटे अपना ख्याल रखना और गंदी चीजें ना खाना।

(बाहर से बच्चों का शोर तीव्र हो जाता है) ( दरवाजा खोलने की आवाज)

हामिद- चलो, आ गया हूं!

(धीरे धीरे शोर कम होता जाता है और पदचाप भी धीमी हो जाती हैं।)

नाटक लिखते समय नाटककार को मूल रूप से किस बात का ध्यान रखना - naatak likhate samay naatakakaar ko mool roop se kis baat ka dhyaan rakhana

नाटक लिखते समय नाटककार को उसकी मूल विशेषता समय का बंधन का ध्यान क्यों रखना पड़ता है?

नाटककार को समय प्रबंधन का विशेष ध्यान रखना चाहिए। किसी भी दर्शक के पास समय व्यर्थ करने का आग्रह नहीं होता। अतः वह एक नाटक को देखने अथवा उसे अनुभव करने के लिए बैठता है, ज्यादा अधिक समय लगने से नाटक में बोरियत होती है। अतः नाटक में समय का बंधन आवश्यक है।

नाटककार को नाटक लिखते समय सबसे पहले किसका चुनाव करना पड़ता है?

यह नाटककार को तय करना है कि वह इनमें से किसी एक तरह के शिल्प का चुनाव करे, अलग-अलग विकल्पों के मिश्रण से अपनी एक नयी शैली तैयार करे अथवा इन सबको छोड़कर बिलकुल एक नया शिल्प लेकर प्रस्तुत हो। प्रायः कहा जाता है कि कथ्य अपना शिल्प स्वयं निर्धारित कर लेता है और यही सही स्थिति है।

नाटक लेखन के लिए आवश्यक तत्व कौन कौन से हैं?

नाटक के तत्व.
कथावस्तु.
पात्र या चरित्र चित्रण.
देशकाल या परिवेश.
संवाद और भाषा.
अभिनेता.
उद्देश्य.

नाटक में संवादों को लिखते समय क्या सावधानियां बरतनी चाहिए?

संवाद लेखन करते समय निम्नलिखित बातों पर ध्यान देना चाहिए पात्रों की बातचीत में विचारों का प्रवाह हो, स्वाभाविकता तथा संवादों में संबद्धता हो। व्याकरण की दृष्टि से गलतियां न हों। उचित विराम चिन्हों का भली-भांति प्रयोग किया गया हो। किसी भी मुहावरे, लोकोक्ति, कहावत का सही जगह पर प्रयोग किया गया हो।