कैसे लोगों की मित्रता से हमें सावधान रहना चाहिए और क्यों? - kaise logon kee mitrata se hamen saavadhaan rahana chaahie aur kyon?

UP Board Solution Class 10th Hindi Chapter 1 मित्रता (गद्य खंड)

कैसे लोगों की मित्रता से हमें सावधान रहना चाहिए और क्यों? - kaise logon kee mitrata se hamen saavadhaan rahana chaahie aur kyon?


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नमस्कार दोस्तों स्वागत है आपका हमारी वेबसाइट   Bandana classes.com  पर । आज की पोस्ट में हम आपको UP Board के Class 10th Hindi Chapter 1 मित्रता पाठ के सभी गद्यांशों के रेखांकित अंशों की सन्दर्भ सहित व्याख्या बताएंगे तो आपको इस पोस्ट को पूरा पढ़ना है और अंत तक पढ़ना है।

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मित्रता पाठ के सभी गद्यांशों के रेखांकित अंशों की सन्दर्भ सहित व्याख्या

सभी गद्यांशों की सन्दर्भ सहित व्याख्या

मित्रता – आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जी

1.हम लोग ऐसे समय में समाज में प्रवेश करके अपना कार्य आरम्भ करते हैं, जबकि हमारा चित्त कोमल और हर तरह का संस्कार ग्रहण करने योग्य रहता है। हमारे भाव अपरिमार्जित और हमारी प्रवृत्ति अपरिपक्व रहती है। हम लोग कच्ची मिट्टी की मूर्ति के समान रहते हैं, जिसे जो जिस रूप का चाहे उस रूप का करे-चाहे राक्षस बनावे, चाहे देवता। ऐसे लोगों का साथ करना हमारे लिए बुरा है, जो हमसे अधिक दृढ़ संकल्प के हैं; क्योंकि हमें उनकी हर एक बात बिना विरोध के मान लेनी पड़ती है। पर ऐसे लोगों का साथ करना और बुरा है, जो हमारी ही बात को ऊपर रखते हैं; क्योंकि ऐसी दशा में न तो हमारे ऊपर कोई दबाव रहता है और न हमारे लिए कोई सहारा रहता है। 

प्रश्न(क) उपरोक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए। 

(ख) गद्यांश के रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।

(ग) लेखक के अनुसार, हमें किन लोगों की संगति में नहीं रहना चाहिए?

उत्तर

(क) सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के 'गद्य खण्ड' में संकलित 'मित्रता' नामक पाठ से लिया गया है। इसके लेखक 'आचार्य रामचन्द्र शुक्ल' हैं।

(ख) रेखांकित अंश की व्याख्या आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जी कहते हैं कि जब हम किशोरावस्था के पश्चात् युवावस्था में प्रवेश करने पर घर की सीमाओं से बाहर निकलकर समाज में कार्य करना आरम्भ करते हैं, तब हमें संसार व समाज के लोगों के साथ रहने का अनुभव बिल्कुल नहीं होता, हमें दुनियादारी की बिल्कुल समझ नहीं होती। उस समय हमारा मन बहुत कोमल होता है, जो किसी प्रकार के अच्छे या बुरे संस्कार ग्रहण करने के योग्य होता है। हमारी बुद्धि इतनी विकसित नहीं होती कि उसे उचित-अनुचित का ज्ञान हो पाए। उस समय हमारी बुद्धि कच्ची मिट्टी की मूर्ति के समान होती है, जिस पर अच्छी या बुरी किसी बात का प्रभाव बहुत जल्दी पड़ता है। उस समय हम जैसे स्वभाव के लोगों के सम्पर्क में आते हैं उनके विचारों का हमारे मन पर वैसा ही प्रभाव पड़ता है। यदि किसी सुयोग्य व्यक्ति के सम्पर्क में हम आ जाते हैं, तो हम में देवताओं जैसे अच्छे गुण व संस्कार आ जाते हैं। यदि किसी दुश्चरित्र व दुष्ट व्यक्ति का साथ मिल जाता है, तो उसके सम्पर्क में रहकर हम भी दुर्गुण, बुरे संस्कार व घृणित कार्य करने वाले बनकर समाज में अपमानित होते हैं।

ऐसे समय में ही हमें एक सच्चे मित्र की आवश्यकता होती है, जो हमें सही मार्ग दिखाकर हमारे चरित्र व व्यक्तित्व को निखार दे। शुक्ल जी कहते हैं कि हम यदि ऐसे लोगों की संगति में रहने लग जाते हैं, जिनकी इच्छाशक्ति हमसे प्रबल होती है तथा वह अधिक दृढ़ निश्चय वाले होते हैं, तब हम उनके सामने कुछ भी बोल नहीं पाते और हमें उन्हीं के विचारों व आदर्शों पर चुपचाप चलना पड़ता है। उनकी अच्छी व बुरी सभी बातों को हमें बिना विरोध के मानना पड़ता है फलस्वरूप हम कमजोर पड़ते जाते हैं तथा हमारी सोचने-समझने की शक्ति व कार्यक्षमता घटती जाती है।

(ग) लेखक के अनुसार, हमें दो प्रकार के लोगों की संगति में नहीं रहना चाहिए, एक तो वे व्यक्ति जो हमसे अधिक दृढ़ संकल्पी हैं, क्योंकि हम उनकी प्रत्येक सलाह को बिना सोचे-समझे मान लेते हैं, इससे हमारा व्यक्तित्व दब जाता है। दूसरे, हमें उन लोगों के साथ भी नहीं रहना चाहिए, जो हमारी बात का विरोध किए बिना स्वीकार कर लेते हैं। ऐसे लोग हमारे व्यावहारिक जीवन को बिल्कुल भी प्रभावित नहीं कर सकते और अपने गुणों से हमें लाभान्वित भी नहीं कर सकते।

2.हँसमुख चेहरा, बातचीत का ढंग, थोड़ी चतुराई या साहस—ये ही दो-चार बातें किसी में देखकर लोग झटपट उसे अपना मित्र बना लेते हैं। हम लोग यह नहीं सोचते कि मैत्री का उद्देश्य क्या है? क्या जीवन के व्यवहार में उसका कुछ मूल्य भी है। यह बात हमें नहीं सूझती कि यह एक ऐसा साधन है, जिससे आत्मशिक्षा का कार्य बहुत सुगम हो जाता है। एक प्राचीन का वचन-विश्वासपात्र मित्र से बड़ी रक्षा रहती है, जिसे ऐसा मित्र मिल जाए उसे समझना चाहिए कि खज़ाना मिल गया।

प्रश्न

(क) उपरोक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।

(ख) गद्यांश के रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।

 (ग) सामान्यतः लोग व्यक्ति में क्या देखकर मित्रता कर लेते हैं?

उत्तर

(क) सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के 'गद्य खण्ड' में संकलित 'मित्रता' नामक पाठ से लिया गया है। इसके लेखक 'आचार्य रामचन्द्र शुक्ल' हैं।

(ख) रेखांकित अंश की व्याख्या – शुक्ल जी कहते हैं कि मित्र बनाते समय हम इस बात पर विचार नहीं करते कि जिसे हम मित्र बना रहे हैं, उसकी संगति में रहकर क्या हम अपने जीवन के लक्ष्यों को प्राप्त कर सकते हैं या नहीं। क्या उस व्यक्ति में वे सभी गुण विद्यमान हैं, जिनकी हमारे जीवन के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए आवश्यकता है।

यदि हमें जीवन में सच्चा मित्र मिल जाता है तो हमें एक ऐसा साधन मिल जाता है, जो आत्मशिक्षा प्राप्त करने में हमारा सहायक हो सकता है तथा हमें जीवन के उच्च लक्ष्यों को प्राप्त करने में हमारी सहायता कर सकता है। एक प्राचीन विद्वान् का भी यही मत है कि एक सच्चा व अच्छा विश्वास के योग्य मित्र बहुत भाग्य से ही प्राप्त होता है। वह हर समय हमारी रक्षा करता है, हमारा मार्गदर्शन करता है, हमें हर बुराई से बचाता है। जिस व्यक्ति को ऐसा मित्र प्राप्त हो जाए, उसे यह समझना चाहिए कि मानो उसे संसार का कोई बड़ा खजाना मिल गया हो अर्थात् कोई बहुमूल्य निधि प्राप्त हो गई हो।

(ग) सामान्य रूप से व्यक्ति किसी का हँसमुख-सा चेहरा, उसका बातचीत करने का आकर्षक ढंग, उसकी चतुराई और उसका साहस देखकर सोचते हैं कि यही व्यक्ति मित्र बनाने के योग्य है और वे उसे ही अपना मित्र बना लेते हैं।

3.विश्वासपात्र मित्र जीवन की एक औषध है। हमें अपने मित्रों से यह आशा रखनी चाहिए कि वे उत्तम संकल्पों में हमें दृढ़ करेंगे, दोषों और त्रुटियों से हमें बचाएँगे, हमारे सत्य, पवित्रता और मर्यादा के प्रेम को पुष्ट करेंगे, जब हम कुमार्ग पर पैर रखेंगे, तब वे हमें सचेत करेंगे, जब हम हतोत्साहित होंगे, तब हमें उत्साहित करेंगे। सारांश यह है कि वे हमें उत्तमतापूर्वक जीवन निर्वाह करने में हर तरह से सहायता देंगे। सच्ची मित्रता में उत्तम-से-उत्तम वैद्य की-सी निपुणता और परख होती है, अच्छी-से-अच्छी माता की-सी धैर्य और कोमलता होती है। ऐसी ही मित्रता करने का प्रयत्न प्रत्येक पुरुष को करना चाहिए।

प्रश्न

(क) उपरोक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।

(ख) गद्यांश के रेखांकित अंशों की व्याख्या कीजिए।

(ग) (i) व्यक्ति को अपने मित्र से क्या उम्मीद करनी चाहिए? अथवा हमें अपने मित्रों से कौन-सी आशा रखनी चाहिए?

 (ii) एक सच्चा मित्र किसे कहा गया है?

(घ) लेखक ने सच्ची मित्र की तुलना किससे की है?

उत्तर

(क) सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के 'गद्य खण्ड' में संकलित 'मित्रता' नामक पाठ से लिया गया है। इसके लेखक 'आचार्य रामचन्द्र शुक्ल' हैं।

(ख) रेखांकित अंश की व्याख्या

आचार्य शुक्ल जी कहते हैं कि विश्वासपात्र मित्र दवा के समान होता है। जिस प्रकार अच्छी दवा लेने से व्यक्ति का रोग दूर हो जाता है, उसी प्रकार विश्वासपात्र मित्र हमारे जीवन में आकर हमारे बुरे संस्कार व दुर्गुणरूपी रोगों से हमें मुक्ति दिलवाता है। हमें अपने मित्रों से यह आशा रखनी चाहिए कि वे हमें दोषों, अवगुणों व बुराइयों से बचाएँ और हमारे विचारों व संकल्पों को मजबूत बनाने में हमारी सहायता करें। हमारे हृदय में अच्छे विचारों को उत्पन्न करें तथा हमें हर प्रकार की बुराइयों से बचाते रहें। हमारे मन में सत्य, मर्यादा व पवित्रता के प्रति प्रेम विकसित करें। यदि हम किसी कारणवश या लोभवश किसी गलत मार्ग पर चल पड़े हैं, तब वे हमारा मार्गदर्शन करके हमें गलत मार्ग पर चलने से बचाएँ। यदि हम निराश व हताश हो जाएँ तो वह हमें सही मार्ग पर चलने के लिए प्रोत्साहित करें। तात्पर्य यह है कि वे हमें हर प्रकार से उत्तम जीवन जीने के लिए प्रेरित करें।

लेखक सच्चे मित्र के गुण बताते हुआ कहता है कि सच्चा मित्र एक कुशल वैद्य के समान होता है। जिस प्रकार एक उत्तम वैद्य रोगी की नब्ज़ देखकर ही उसके रोग का पता लगा लेता है, उसी प्रकार एक सच्चा मित्र भी मित्र के हाव-भाव व उसके लक्षणों को देखकर उसके गुण-दोषों की परख कर लेता है तथा उसका सही मार्गदर्शन करके उसको भटकने से बचा लेता है। जिस प्रकार एक अच्छी माता पुत्र के सभी कष्टों को धैर्य से स्वयं सहन करके अपने पुत्र को सभी मुसीबतों से बचाती है तथा कोमलता से उसे समझा-बुझाकर सही मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करती है, ठीक उसी प्रकार के मित्र की खोज मनुष्य को करनी चाहिए, जिसमें एक अच्छे वैद्य की परख तथा अच्छी माँ जैसा धैर्य व कोमलता हो। तभी मानव का जीवन दिनों-दिन उन्नति को प्राप्त करेगा।

(ग) (i) व्यक्ति को अपने मित्रों से यह उम्मीद करनी चाहिए कि वे उसे संकल्पवान बनाएँगे, अच्छे कार्य करने के लिए प्रेरित करेंगे, मन में अच्छे विचार उत्पन्न करेंगे, बुराइयों और गलतियों से बचाकर मानवीय गुण प्रगाढ़ करने तथा अच्छे मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करेंगे। वे हमें उत्साहित भी करेंगे।

(ii) एक सच्चा मित्र उसे कहा गया है, जो उत्तम वैद्य के समान हमारे दुर्गुणों को पहचान कर हमें उनसे मुक्ति दिलाए। उसमें अच्छी माता जैसा धैर्य हो तथा जो किसी भी स्थिति में कोमलता न छोड़े।

(घ) 'मित्रता' पाठ के आधार पर विश्वासपात्र मित्र की तुलना औषधि अर्थात् दवा से की गई है। जिस प्रकार अच्छी औषधि रोगी का रोग दूर करती है, ठीक उसी प्रकार विश्वासपात्र मित्र हमारे बुरे संस्कारों व दुर्गुणरूपी रोगों से हमें मुक्ति दिलाता है।

3.सुन्दर प्रतिमा, मनभावनी चाल और स्वच्छन्द प्रकृति ये ही दो-चार बातें देखकर मित्रता की जाती है, पर जीवन-संग्राम में साथ देने वाले मित्रों में इनसे कुछ अधिक बातें होनी चाहिए। मित्र केवल उसे नहीं कहते, जिसके गुणों की तो हम प्रशंसा करें, पर जिससे हम स्नेह न कर सकें, जिससे अपने छोटे-मोटे काम तो हम निकालते जाएँ, पर भीतर-ही-भीतर घृणा करते रहें? मित्र सच्चे पथ-प्रदर्शक के समान होना चाहिए, जिस पर हम पूरा विश्वास कर सकें, भाई के समान होना चाहिए, जिसे हम अपना प्रीति-पात्र बना सकें; हमारे और हमारे मित्र के बीच सच्ची सहानुभूति होनी चाहिए—ऐसी सहानुभूति, जिससे एक के हानि-लाभ को दूसरा अपना हानि-लाभ समझे। मित्रता के लिए यह आवश्यक नहीं है कि दो मित्र एक ही प्रकार के कार्य करते हों या एक ही रुचि के हों। इसी प्रकार प्रकृति और आचरण की समानता भी आवश्यक या वांछनीय नहीं है। दो भिन्न प्रकृति के मनुष्यों में बराबर प्रीति और मित्रता रही है। 

प्रश्न

(क) उपरोक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।

(ख) गद्यांश के रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।

 (ग) लेखक ने अच्छे मित्र की क्या विशेषताएँ बताई हैं? 

(घ) हमारे और हमारे मित्र के बीच कैसी सहानुभूति होनी चाहिए?

उत्तर

(क) सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के 'गद्य खण्ड' में संकलित 'मित्रता' नामक पाठ से लिया गया है। इसके लेखक 'आचार्य रामचन्द्र शुक्ल' हैं।

(ख) रेखांकित अंश की व्याख्या शुक्ल जी के अनुसार, सच्चा मित्र वह नहीं हो सकता, जिसके गुणों व कार्यों की हम प्रशंसा तो करते हैं, लेकिन अपने मन से उसे प्रेम नहीं करते। सच्चे मित्र को हृदय प्रेम करना आवश्यक हो जाता है। यदि कोई ऐसा व्यक्ति है, जिससे हम अपने छोटे-मोटे काम तो निकलवाते रहते हैं, किन्तु हृदय में कहीं उसके लिए घृणा का भाव समाया हो, तो उसे हम अपना मित्र नहीं कह सकते उसे तो हमने केवल अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए मित्र बनाया था। वह हमारा सच्चा शुभ चिन्तक नहीं हो सकता। शुक्ल जी कहते हैं कि मित्र के प्रति हमारे हृदय में सच्चा व निष्कपट प्रेम होना चाहिए तथा मित्र भी हमारा सच्चा मार्गदर्शक होना चाहिए, जिस पर हम पूर्ण रूप से विश्वास कर सकें। दोनों मित्रों में परस्पर सहानुभूति हो तथा भाई के समान निःस्वार्थ प्रेम हो। एक-दूसरे की बात को सहन करने की शक्ति हो। मित्रता में दोनों मित्रों में ऐसे गुण होने चाहिए कि वे एक-दूसरे के लाभ-हानि को अपना ही लाभ-हानि समझें और एक-दूसरे के सुख-दुःख को अपना ही सुख-दुःख मानकर उसकी सहायता को सदैव तत्पर रहें। आचार्य शुक्ल जी कहते हैं कि सच्ची मित्रता के लिए यह आवश्यक नहीं है कि दो मित्र एक-सा कार्य करते हों, समान हैं रुचि के हों। इसी प्रकार समान प्रकृति और समान आचरण भी सच्ची मित्रता के लिए आवश्यक नहीं है। भिन्न-भिन्न प्रकृति व आचरण वाले व्यक्ति भी आपस में मित्र हो सकते हैं।

(ग) लेखक ने अच्छे मित्र की निम्नलिखित विशेषताएँ बताई हैं

 (i) अच्छा मित्र ऐसा होना चाहिए, जो व्यक्ति को सच्चे पथ-प्रदर्शक की भाँति सही मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करे।

(ii) अच्छा मित्र वह होता है, जिससे हम प्रेम करते हैं। 

(iii) अच्छा मित्र वैद्य के समान हितकारी होता है, जो हमारे दुर्गुणों को पहचानकर हमें उनसे मुक्ति दिलाता है। 

(iv) अच्छे मित्र में अपने मित्र के प्रति सच्ची सहानुभूति होती है।

(v) अच्छा मित्र विश्वसनीय होता है।

(घ) हमारे और हमारे मित्र के बीच सच्ची सहानुभूति होनी चाहिए। यह सहानुभूति ऐसी होनी चाहिए कि दोनों मित्र एक-दूसरे के लाभ-हानि को अपना ही लाभ-हानि समझें और एक-दूसरे के सुख-दुःख को अपना ही सुख-दुःख मानकर उसकी सहायता करने के लिए हमेशा तैयार रहें।

5.इसी प्रकार प्रकृति और आचरण की समानता भी आवश्यक या वांछनीय नहीं है। दो भिन्न प्रकृति के मनुष्यों में बराबर प्रीति और मित्रता रही है। राम धीर और शान्त प्रकृति के थे, लक्ष्मण उग्र और उद्धत स्वभाव के थे, पर दोनों भाइयों में अत्यन्त प्रगाढ़ स्नेह था। उदार तथा उच्चाशय कर्ण और लोभी दुर्योधन के स्वभावों में कुछ विशेष समानता न थी, पर उन दोनों की मित्रता खूब निभी। यह कोई बात नहीं कि एक ही स्वभाव और रुचि के लोगों में ही मित्रता हो सकती है। समाज में विभिन्नता देखकर लोग एक-दूसरे की ओर आकर्षित होते हैं, जो गुण हम में नहीं हैं, हम चाहते हैं कि कोई ऐसा मित्र मिले, जिसमें वे गुण हों। चिन्ताशील मनुष्य प्रफुल्लित चित्त का साथ ढूँढता है, निर्बल बली का, धीर उत्साही का। उच्च आकांक्षा वाला चन्द्रगुप्त युक्ति और उपाय के लिए चाणक्य का मुँह ताकता था। नीति-विशारद अकबर मन बहलाने के लिए बीरबल की ओर देखता था।

प्रश्न

(क) उपरोक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।

(ख) गद्यांश के रेखांकित अंशों की व्याख्या कीजिए।

(ग) लेखक के अनुसार, समाज में विभिन्नता देखकर लोग एक-दूसरे की ओर क्यों आकर्षित होते हैं?

अथवा

 क्या देखकर लोग एक-दूसरे की ओर आकर्षित होते हैं? सोदाहरण समझाइए।

उत्तर

(क) सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के 'गद्य खण्ड' में संकलित 'मित्रता' नामक पाठ से लिया गया है। इसके लेखक 'आचार्य रामचन्द्र शुक्ल' हैं।

(ख) रेखांकित अंशों की व्याख्या

शुक्ल जी का कहना है कि दो व्यक्तियों में मित्रता के लिए यह बात महत्त्वपूर्ण नहीं होती है कि उनका स्वभाव भी एक-सा हो। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि वे एक-दूसरे से कितनी सहानुभूति रखते हैं। यदि वे परस्पर सहानुभूति रखते हैं, तो विपरीत स्वभाव वालों में मित्रता कायम रहती है। यह मित्रता लम्बे समय तक चलती भी है और सच्ची सिद्ध भी होती है। श्रीराम-लक्ष्मण व कर्ण-दुर्योधन की मित्रता सच्ची मित्रता के साक्षात् उदाहरण हैं। श्रीराम कितने धीर-गम्भीर स्वभाव के थे और। लक्ष्मण कितने चंचल, उग्र व उद्धत स्वभाव के थे, लेकिन स्वभाव की भिन्नता होने पर भी उनमें घनिष्ठ स्नेह था। इसी प्रकार से कर्ण वीर, साहसी होने के साथ-साथ उच्च विचारों वाले, गम्भीर व दानी स्वभाव के थे, जबकि दुर्योधन स्वार्थी व लोभी था, फिर भी उन दोनों की मित्रता जीवन के अन्तिम क्षणों तक भी अटूट रही।

लेखक कहता है कि यह ज़रूरी नहीं है कि दो व्यक्तियों में मित्रता होने के लिए उनके स्वभाव और रुचियाँ एक-सी ही हों। मित्रता तो विपरीत स्वभाव और रुचियों वाले व्यक्तियों में भी हो सकती है। किसी व्यक्ति में जो गुण नहीं होता है, उसी गुण को दूसरे व्यक्ति में देखकर उससे आकर्षित होकर वह दोस्ती कर लेता है। इससे उस व्यक्ति के गुण की कमी की पूर्ति मित्रता के माध्यम से हो जाती है। व्यक्ति को ऐसे ही परस्पर विपरीत गुणों वाले व्यक्ति की तलाश रहती है। चिन्ताग्रस्त लोग प्रसन्नचित्त व्यक्ति से, कमज़ोर व्यक्ति बलवान से, धैर्यवान व्यक्ति उत्साही व्यक्ति से मित्रता इसलिए करना चाहता है, ताकि उसकी अपनी कमियाँ पूरी हो जाएँ।

(ग) लेखक के अनुसार, समाज में लोग विभिन्नता देखकर एक-दूसरे की ओर इसलिए आकर्षित होते हैं ताकि उनसे वे उन गुणों का लाभ उठा सकें, जिन गुणों की कमी वे अपने अन्दर महसूस करते हैं; जैसे-निर्बल व्यक्ति बलवान से, धैर्यवान व्यक्ति उत्साही व्यक्ति से मित्रता करना चाहता है।

अथवा

लोग विपरीत गुणों को देखकर एक-दूसरे की ओर आकर्षित होते हैं अर्थात् जो गुण वे अपने अन्दर नहीं पाते हैं, उसकी पूर्ति के लिए वे ऐसे व्यक्ति से दोस्ती करते हैं, जिसमें वे गुण हों। उदाहरणार्थ- चन्द्रगुप्त के पास उच्च आकांक्षा थी, पर उसे पूरा करने के लिए आवश्यक विपरीत गुण वाले अर्थात् युक्ति और उपाय सम्पन्न चाणक्य से उसने मित्रता की।

6.मित्र का कर्त्तव्य इस प्रकार बताया गया है—उच्च और महान् कार्य में इस प्रकार सहायता देना, मन बढ़ाना और साहस दिलाना कि तुम अपनी निज की सामर्थ्य से बाहर काम कर जाओ। यह कर्त्तव्य उसी से पूरा होगा, जो दृढ़-चित्त और सत्य-संकल्प का हो। इससे हमें ऐसे ही मित्रों की खोज में रहना चाहिए, जिनमें हम से अधिक आत्मबल हो। हमें उनका पल्ला उसी तरह पकड़ना चाहिए, जिस तरह सुग्रीव ने राम का पल्ला पकड़ा था। मित्र हों तो प्रतिष्ठित और शुद्ध हृदय के हों, मृदुल और पुरुषार्थी हों, शिष्ट और सत्यनिष्ठ हों, जिससे हम अपने को उनके भरोसे पर छोड़ सकें और यह विश्वास कर सकें कि उनसे किसी प्रकार का धोखा नहीं होगा।

प्रश्न

(क) उपरोक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।

(ख) गद्यांश के रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।

(ग) मित्र का कर्त्तव्य स्पष्ट कीजिए। अथवा अच्छे मित्र का क्या कर्त्तव्य होना चाहिए? अथवा मित्र का कर्त्तव्य कैसा होना चाहिए?

उत्तर

(क) सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के 'गद्य खण्ड' में संकलित 'मित्रता' नामक पाठ से लिया गया है। इसके लेखक 'आचार्य रामचन्द्र शुक्ल' हैं।

(ख) रेखांकित अंश की व्याख्या – शुक्ल जी कहते हैं कि सहायता करना, उत्साहित करना व मनोबल बढ़ाने का कार्य वही व्यक्ति कर सकता है, स्वयं भी दृढ़ इच्छाशक्ति वाला, परिश्रमी तथा सत्य संकल्पों वाला हो। अतः मित्र बनाते समय हमें ऐसे ही व्यक्ति को ढूँढना चाहिए, जो हम भी अधिक साहसी, परिश्रमी, दृढ़ इच्छाशक्ति वाला व उच्च आत्मबल से वाला हो। यदि सौभाग्य से ऐसा मित्र मिल जाता है, तो फिर हमें उसका साथ नहीं छोड़ना चाहिए; जैसे-वानर-राज सुग्रीव ने श्रीराम की आत्मशक्ति, ओज व बल का विश्वास हो जाने पर ही उनका आश्रय ग्रहण किया और फिर कभी उनका साथ नहीं छोड़ा। श्रीराम की शक्ति के बल पर ही वह अपनी पत्नी व अपने राज्य को पुनः प्राप्त कर सके। श्रीराम जैसा मित्र पाकर तो सुग्रीव धन्य हो गया था।

मित्र का चयन करते समय यह भी ध्यान रखना चाहिए कि मित्र ऐसा जिसकी समाज में प्रतिष्ठा व सम्मान हो, जो निश्छल व निष्कपट हृदय का हो, स्वभाव से मृदुल हो, परिश्रमी हो, सभ्य आचरण वाला हो, सत्यनिष्ठ हो अर्थात् सत्य का आचरण करने वाला हो। ऐसे व्यक्ति पर हम यह विश्वास कर सकते हैं कि हमें उससे किसी प्रकार का धोखा नहीं मिलेगा।

 (ग) सच्चे मित्र का कर्त्तव्य है कि वह अपने मित्र को निम्नलिखित गुणों से अवगत कराए शिष्ट आचरण करने की सीख दे।सत्यनिष्ठ बनने की प्रेरणा दे। • आलस्य छोड़ उद्यमी बनने में सहयोग दे।बुरे मार्ग से हटाकर अच्छे मार्ग पर ले जाए।

7.जिनकी आत्मा अपने इन्द्रिय-विषयों में ही लिप्त है: जिनका हृदय नीचाशयों और कुत्सित विचारों से कलुषित है, ऐसे नाशोन्मुख प्राणियों को दिन-प्रतिदिन अन्धकार में पतित होते देख कौन ऐसा होगा, जो तरस न खाएगा?-उसे ऐसे प्राणियों का साथ नहीं करना चाहिए।

प्रश्न

(क) उपरोक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।

(ख) गद्यांश के रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।

(ग) उपरोक्त गद्यांश का साहित्यिक सौन्दर्य स्पष्ट कीजिए। 

अथवा 

कौन-से लोग फूल-पत्तियों में सौन्दर्य का, झरने में संगीत का, सागर-तरंगों में रहस्यों का आभास नहीं कर पाते हैं?

उत्तर

(क)सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के 'गद्य खण्ड' में संकलित 'मित्रता' नामक पाठ से लिया गया है। इसके लेखक 'आचार्य रामचन्द्र शुक्ल' हैं।

(ख) रेखांकित अंश की व्याख्या – शुक्ल जी कहते हैं कि जो लोग केवल विषय-वासनाओं में फँसे हैं तथा इन्द्रिय-सुख को ही सर्वोपरि मानकर उसी की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील रहते हैं, जिनका हृदय गन्दे व घृणित विचारों से सदैव युक्त रहता है, ऐसे लोग दिन-प्रतिदिन अपने बुरे विचारों व बुरे आचरण के कारण विनाश की ओर ही अग्रसर होते हैं तथा अवनति व अज्ञान के दल-दल में फँसकर नष्ट हो जाते हैं, जिन्हें देखकर सभी को उन पर दया आती है। ऐसे विनाश व पतन की ओर जाने वाले लोगों के साथ कभी भी मित्रता नहीं करनी चाहिए, क्योंकि वे अपने गन्दे विचारों से दूसरों को केवल मार्ग से भटका ही सकते हैं। ऐसे भ्रष्ट आचरण वाले व्यक्ति का साथ नहीं करना चाहिए।

(ग) गद्यांश का साहित्यिक सौन्दर्य

• भाषा तत्सम शब्दावलीयुक्त, सुबोध व साहित्यिक हिन्दी है।वर्णनात्मक शैली का प्रयोग हुआ है।

शब्द चयन उपयुक्त तथा भावाभिव्यक्ति में सक्षम है। प्रस्तुत गद्यांश में बुरे विचार रखने वाले पतनोन्मुख लोगों से मित्रता न करने का सन्देश निहित है।

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अथवा

8.जो लोग इन्द्रियों के सुख की कामना करते हुए, उनकी पूर्ति के लिए सतत प्रयासरत रहते हैं, ऐसे लोग भोग-विलास की संलिप्तता के कारण फूल-पत्तियों की सुन्दरता का, झरने के मधुर संगीत का और सागर की लहरों में छिपे रहस्य का आनन्द नहीं उठा पाते हैं। वे प्रकृति के निकट रहकर भी उसके आकर्षण एवं सौन्दर्य से वंचित रह जाते हैं।

8) कुसंग का ज्वर सबसे भयानक होता है। यह केवल नीति और सद्वृत्ति का ही नाश नहीं करता, बल्कि बुद्धि का भी क्षय करता है। किसी युवा पुरुष की संगति यदि बुरी होगी तो वह उसके पैरों में बँधी चक्की के समान होगी, जो उसे दिन-प्रतिदिन अवनति के गड्ढे में गिराती जाएगी और यदि अच्छी होगी तो सहारा देने वाली बाहु के समान होगी जो उसे निरन्तर उन्नति की ओर उठाती जाएगी।

प्रश्न

(क) उपरोक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।

(ख) गद्यांश के रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।

 (ग) (i) युवा पुरुष की संगति के बारे में क्या कहा गया है? 

(ii) अच्छी संगति के लाभों का वर्णन कीजिए। 

(iii) कुसंग का क्या प्रभाव होता है?

अथवा

 कुसंग का प्रभाव व्यक्ति के जीवन पर किस प्रकार पड़ता है?

(घ) गद्यांश का साहित्यिक सौन्दर्य स्पष्ट कीजिए।

(ङ) कुसंग और अच्छी संगति में क्या अन्तर है?

उत्तर

(क) सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के 'गद्य खण्ड' में संकलित 'मित्रता' नामक पाठ से लिया गया है। इसके लेखक 'आचार्य रामचन्द्र शुक्ल' हैं।

(ख) रेखांकित अंश की व्याख्या – आचार्य शुक्ल जी कहते हैं कि मानव जीवन पर संगति का प्रभाव सबसे अधिक पड़ता है। बुरे और दुष्ट लोगों की संगति घातक बुखार की तरह हानिकारक होती है। जिस प्रकार भयानक ज्वर व्यक्ति की सम्पूर्ण शक्ति व स्वास्थ्य को नष्ट कर देता है तथा कभी-कभी रोगी के प्राण भी ले लेता है, उसी प्रकार बुरी संगति में पड़े हुए व्यक्ति की बुद्धि, विवेक, सदाचार, नैतिकता व सभी सद्गुण नष्ट हो जाते हैं तथा वह उचित-अनुचित व अच्छे-बुरे का विवेक भी खो देता है। मानव जीवन में युवावस्था सबसे महत्त्वपूर्ण अवस्था होती है। कुसंगति किसी भी युवा पुरुष की सारी उन्नति व प्रगति को उसी प्रकार बाधित करती है, जिस प्रकार किसी व्यक्ति के पैर में बंधा हुआ भारी पत्थर उसको आगे नहीं बढ़ने देता, बल्कि उसकी गति को अवरुद्ध करता है। उसी प्रकार कुसंगति भी हमारे विकास व उन्नति के मार्ग को अवरुद्ध करके अवनति व पतन की ओर धकेल देती है तथा दिन-प्रतिदिन विनाश की ओर अग्रसर करती है। दूसरी ओर, यदि युवा व्यक्ति की संगति अच्छी होगी तो वह उसको सहारा देने वाली बाहु (हाथ) के समान होगी, जो अवनति के गर्त में गिरने वाले व्यक्ति की भुजा पकड़कर उठा देती है तथा सहारा देकर खड़ा कर देती है और उन्नति के मार्ग पर अग्रसर कर देती है।

(ग) 

(i) युवा पुरुष यदि बुरी संगति करता है, तो विकास की अपेक्षा उसका विनाश होना तय है। यदि वह अच्छी संगति करेगा, तो उन्नति के पथ पर आगे बढ़ता जाएगा।

(ii) अच्छी संगति के लाभ निम्नलिखित हैं

• व्यक्ति को पतन से बचाती है।

 • मानवीय गुणों का विकास करती है।व्यक्ति को समाज में प्रतिष्ठा दिलाती है। जीवन की रक्षा करने वाली औषधि (दवा) के समान होती है। 

(iii) कुसंग/कुसंगति का व्यक्ति के जीवन पर निम्नलिखित प्रकार से प्रभाव पड़ता है 

• व्यक्ति पतन के गड्ढे में गिर जाता है।

. व्यक्ति का सदाचार नष्ट हो जाता है। वह दुराचार करने लगता है। व्यक्ति की बुद्धि व विवेक का नाश हो जाता है।

(घ) गद्यांश का साहित्यिक सौन्दर्य

• भाषा तत्सम शब्दावलीयुक्त खड़ी बोली है।

भाषा सरल, सुबोध और प्रवाहमयी है।

 प्रस्तुत गद्यांश में व्याख्यात्मक गद्य शैली है।

• शब्द चयन भावानुकूल तथा भावाभिव्यक्ति में सक्षम है। कुसंगति और अच्छी संगति में अन्तर स्पष्ट किया गया है।

(ङ) कुसंग/कुसंगति हमारे विकास व उन्नति के मार्ग को अवरुद्ध करके अवनति व पतन की ओर धकेल देती है तथा दिन-प्रतिदिन विनाश की ओर अग्रसर करती है, जबकि अच्छी संगति सहारा देने वाले हाथ के समान होती है जो अवनति के गर्त में गिरने वाले व्यक्ति की भुजा पकड़कर उठा देती है और सहारा देकर खड़ा कर देती है, साथ ही उन्नति के मार्ग पर अग्रसर कर देती है।

9.बहुत-से लोग तो इसे अपना बड़ा भारी दुर्भाग्य समझते, पर वह अच्छी तरह जानता था कि वहाँ वह बुरे लोगों की संगति में पड़ता, जो उसकी आध्यात्मिक उन्नति में बाधक होती। बहुत से लोग ऐसे होते हैं जिनके घड़ीभर के साथ से भी बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है; क्योंकि उतने ही बीच में ऐसी-ऐसी बातें कही जाती हैं जो कानों में न पड़नी चाहिए,चित्त पर ऐसे प्रभाव पड़ते हैं, जिनसे उसकी पवित्रता का नाश होता है। बुराई अटल भाव धारण करके बैठती है। बुरी बातें हमारी धारणा में बहुत दिनों तक टिकती हैं। इस बात को प्रायः सभी लोग जानते हैं कि भद्दे व फूहड़ गीत जितनी जल्दी ध्यान पर चढ़ते हैं, उतनी जल्दी कोई गम्भीर या अच्छी बात नहीं।

प्रश्न

(क) उपरोक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।

(ख) गद्यांश के रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।

(ग) 'बहुत से लोग इसे अपना दुर्भाग्य समझते।' यहाँ पर 'इसे' शब्द द्वारा किस प्रसंग की ओर संकेत किया गया है?

(घ) आध्यात्मिक उन्नति के लिए क्या आवश्यक है? (ङ) बुराई की प्रकृति कैसी होती है?

(च) व्यक्ति पर बुरी बात का प्रभाव जल्दी होता है, इसे उदाहरण के द्वारा स्पष्ट कीजिए।

उत्तर

(क) सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के 'गद्य खण्ड' में संकलित 'मित्रता' नामक पाठ से लिया गया है। इसके लेखक 'आचार्य रामचन्द्र शुक्ल' हैं।

(ख) रेखांकित अंश की व्याख्या – आचार्य शुक्ल जी कहते हैं कि मानव मन पर बुरी बातों का प्रभाव बहुत जल्दी पड़ता है। बुरी संगति सदैव व्यक्ति की उन्नति में बाधक होती है। समाज में अनेक ऐसे लोग होते हैं, जिनका कुछ देर का साथ भी व्यक्ति की बुद्धि को भ्रष्ट कर देता है, क्योंकि अच्छी बातों की अपेक्षा बुरी बातों का प्रभाव बहुत जल्दी पड़ता है और अधिक देर तक रहता है। कुछ लोग थोड़ी ही देर में ऐसी-ऐसी घिनौनी बातें कह डालते हैं, जो सामान्य व्यक्ति के कहने या सुनने योग्य नहीं होतीं। उनकी बातें सामान्य व्यक्ति की बुद्धि को भी भ्रष्ट कर देती हैं और मन की पवित्रता को भी नष्ट कर देती हैं तथा हमारे मन में भी बुरे विचार पनपने लगते हैं। यह मानव मन का स्वभाव है कि बुरी बातों का प्रभाव, अच्छी बातों की अपेक्षा जल्दी होता है।

(ग) 'इसे' शब्द द्वारा उस प्रसंग की ओर संकेत किया गया है, जब इंग्लैण्ड के एक विद्वान् को युवावस्था में राजदरबारियों में स्थान प्राप्त नहीं हुआ तब उसने इस प्रकार का स्थान न मिलना अपना दुर्भाग्य नहीं माना, पर दूसरे लोग इसे दुर्भाग्य मानते थे।

(घ) आध्यात्मिक उन्नति के लिए मन में पवित्र विचारों का होना बहुत आवश्यक है। ये विचार चिरस्थायी होने चाहिए। (ङ) बुराई की प्रकृति बुरी होती है। वह हमारी धारणा में जल्दी बैठती है और लम्बे समय तक हमारा पीछा नहीं छोड़ती है।

(च) बुराई का प्रभाव व्यक्ति पर जल्दी होता है, इसका उदाहरण यह है कि भद्दे और फूहड़ (मूर्खतापूर्ण) गीत जितनी सरलता से हमारे मनोमस्तिष्क में जगह बना लेते हैं, उतनी सरलता से गम्भीर और अच्छी बाते हमारे मस्तिष्क में जगह नहीं बना पाती है।

10 . सावधान रहो, ऐसा न हो कि पहले-पहल तुम इसे एक बहुत सामान्य बात समझो और सोचो कि एक बार ऐसा हुआ, फिर ऐसा न होगा अथवा तुम्हारे चरित्र-बल का ऐसा प्रभाव पड़ेगा कि ऐसी बातें बढ़ने वाले आगे चलकर आप सुधर जाएँगे। नहीं, ऐसा नहीं होगा। जब एक बार मनुष्य अपना पैर कीचड़ में डाल देता है, तब फिर यह नहीं देखता है कि वह कहाँ और कैसी जगह पैर रखता है। धीरे-धीरे उन बुरी बातों में अभ्यस्त होते-होते तुम्हारी घृणा कम हो जाएगी। पीछे तुम्हें उनसे चिढ़ न मालूम होगी; क्योंकि तुम यह सोचने लगोगे कि चिढ़ने की बात ही क्या है! तुम्हारा विवेक कुण्ठित हो जाएगा और तुम्हें भले-बुरे की पहचान नहीं रह जाएगी।अन्त में होते-होते तुम भी बुराई के भक्त बन जाओगे। अतः हृदय को उज्ज्वल और निष्कलंक रखने का सबसे अच्छा उपाय यही है कि बुरी संगत की छूत से बचो।

प्रश्न

(क) उपरोक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।

(ख) गद्यांश के रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।

(ग) विवेक कुण्ठित हो जाने से मनुष्य पर क्या प्रभाव पड़ता है? अथवा बुरी बातों का मनुष्य पर क्या प्रभाव पड़ता है?

(घ) लेखक ने हृदय को उज्ज्वल और निष्कलंक रखने का क्या उपाय सुझाया है? 

अथवा 

हृदय को उज्ज्वल और निष्कलंक रखने का सबसे अच्छा उपाय क्या है?

(ङ) लेखक ने उपरोक्त गद्यांश में क्या सन्देश दिया है?

उत्तर

(क) सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के 'गद्य खण्ड' में संकलित 'मित्रता' नामक पाठ से लिया गया है। इसके लेखक 'आचार्य रामचन्द्र शुक्ल' हैं।

(ख) रेखांकित अंश की व्याख्या शुक्ल जी कहते हैं कि जब मनुष्य बुराई के मार्ग पर चलने लगता है, तो उसे बुरे कार्यों में भी कोई बुराई नज़र नहीं आती, क्योंकि मनुष्य एक बार बुराई के मार्ग पर कदम बढ़ा देता है, तो आगे बढ़ता ही जाता है, परन्तु ऐसा नहीं करना चाहिए धीरे-धीरे जब तुम उनकी बातों के आदी हो जाओगे और तुम्हें वह बातें गलत व बुरी नहीं लगेंगी। फिर तुम उससे चिढ़ना भी बन्द कर दोगे। ऐसा करने से तुम्हारी सोचने-समझने की शक्ति धीरे-धीरे कम होती जाएगी, बुद्धि मन्द हो जाएगी और तुम्हें अच्छे-बुरे व नैतिक-अनैतिक कार्यों की समझ न रहेगी। अन्त में धीरे-धीरे तुम भी बुराइयों के दास बन जाओगे।

अतः अपने आपको इन बुराइयों से बचाने का सबसे सरल उपाय यह है कि बुरी संगति का हर प्रकार से त्याग कर दो, तभी तुम्हारा जीवन उज्ज्वल और कलंकरहित हो पाएगा। अतः हमें अपने हृदय को सहज एवं निर्मल तथा निष्कलंक रखने के लिए बुरी संगत से दूर रहना चाहिए। 

(ग) विवेक कुण्ठित हो जाने से मनुष्य पर निम्न प्रभाव पड़ते हैं

● व्यक्ति का विवेक नष्ट होता जाता है और वह बुराइयों के जाल में फँसता चला जाता है।

धीरे-धीरे वह बुराइयों के प्रति आकर्षित होने लगता व्यक्ति को बुराइयों में ही अच्छाइयाँ दिखती हैं। वह बुराइयों को बुरा नहीं मानता। बुरी बातें व्यक्ति को अपने जाल में इस प्रकार फँसाती हैं कि व्यक्ति चाहकर भी उन्हें छोड़ नहीं पाता है। बुरी बातों का व्यक्ति पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।

(घ) लेखक हृदय को उज्ज्वल और निष्कलंक रखने का सबसे अच्छा उपाय यह बताया है कि मनुष्य को सदैव बुरी संगत से दूर रहना चाहिए। बुरी संगत छूत का एक रोग है और इस रोग से सदैव बचने का प्रयास करना चाहिए।

(ङ) लेखक ने उपरोक्त गद्यांश में मनुष्य को कुसंगति से बचने का सन्देश दिया है। कुसंगति एक ऐसा रोग है, जो मनुष्य के जीवन को पूर्णतः नष्ट कर देता है, इसलिए हमें सदैव इस कुसंगति से बचना चाहिए।


कैसे मित्र से हमें सावधान रहना चाहिए?

प्रशंसा करने वाले मित्र से सावधान रहें गलत कामों पर भी जो प्रशंसा करे या हमेशा प्रशंसा करे. ऐसे मित्र से सावधान रहना चाहिए. ऐसे मित्र कभी भी साथ छोड़ सकते हैं. बेहतर यही है कि ऐसे लोगों से जितनी जल्दी हो दूरी बना लेनी चाहिए.

मित्र बनाने से पूर्व हमें किन बातों का और क्यों ध्यान रखना चाहिए?

मित्र बनाते समय रखें ध्यान क्योंकि मित्र ही होता है जो हमारे बारे में अच्छी और बुरी हर बात से भलिभांति परिचित होता है। अगर आप सही मित्र नहीं बनाएंगे तो समय आने पर वह आपको धोखा दे सकता है, जिससे आपको बहुत बड़ी हानि हो सकती है। इसलिए मित्र बनाते समय सतर्कता बरतना आवश्यक होता है। कुमित्र पर कभी विश्वास नहीं करना चाहिए

मित्रता से आप क्या समझते हैं?

मित्रता, मैत्री या दोस्ती दो या अधिक व्यक्तियों के बीच पारस्परिक लगाव का संबंध है। जब दो दिल एक-दूसरे के प्रति सच्ची आत्मीयता से भरे होते हैं, तब उस सम्बन्ध को मित्रता कहते हैं।

मित्र क्यों होना चाहिए?

विश्वासपात्र मित्र भाग्यशाली लोगों को ही प्राप्त होता है; क्योंकि ऐसा मित्र जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में रक्षा करता है। जिस व्यक्ति को ऐसा मित्र मिल जाए उसे समझना चाहिए कि उसे कोई बड़ा संचित धन मिल गया है।