कुआँ पूजन एक ऐसी रस्म, एक ऐसी परम्परा जो अब धीरे धीरे लुप्त होती जा रही है। आप सोचेंगे कुआँ क्यों पूजना भाई? तो आप बताइए चाँद, सूरज, बरगद, पीपल क्यों पूजते है? क्योंकि ये सब प्रकृति और मानव को आपस मे जोड़ते है। मानव के हृदय में प्रकृति के लिए प्रेम, आदर का भाव जगाना, क्योंकि प्रकृति और मानव दोनो ही एक दूसरे के बिना अधूरे है। कुआँ जिसमे कभी शीतल जल की उपस्थिति लाखो लोगो की प्यास बुझाती थी। कुँए में जल ठहरा रहता है फिर भी शुद्ध रहता है, है ना ये हैरानी की बात। यही बात कुँए को खास बनाती है। आज कुँए नही बचे, तो लोग रस्मो को बोरिंग या हैंड पंप के पास निबटाते है। Show कुआँ पूजन की ऐतिहासिकतामान्यता है कि कृष्ण जन्म के ग्यारहवें दिन माँ यशोदा ने जलवा पूजा की थी। इस दिन को डोल ग्यारस के रूप में भी मनाते है। सोलह संस्कारो की शुरुआत इसके बाद ही होती है, जलवा पूजन अर्थात जल पूजन को ही कुआँ पूजन कहते हैं। कब किया जाता है कुआँ पूजनकुआँ पूजन दो मौकों पर किया जाता है। जब लड़का बारात लेकर निकलता है तब घुड़चढ़ी होती है, घुड़चढ़ी के बाद कुआँ पूजन करके लड़का वहीं से बारात लेकर निकल जाता है। वापस घर नही जाता। कुआँ पूजन पुत्र के पैदा होने पर भी किया जाने लगा है, आजकल के नए युग मे लोग पुत्री के पैदा होने पर भी कुआँ पूजन करने लगे है। विवाह में कुआँ पूजन कैसे किया जाता हैविवाह के समय घुड़चढ़ी के बाद पास के किसी मंदिर में लड़का और लड़के की माँ पूजा करते है। एक सूप में 2 मिट्टी के सकोरे, सींक, चावल, हल्दी, बताशे रखे जाते है। माँ चावल, हल्दी और बताशे से कुँए को पूजती है, उसके बाद दूल्हा कुँए के चारो तरफ सात चक्कर लगाता है मतलब सात परिक्रमा करता है। हर परिक्रमा के एक सींक उठाकर कुँए में डालता है। इसलिए सूप में सात सींक जरूर रखे। उसके बाद माँ नाराज होने का नाटक करती है और कुँए में कूदने की धमकी देता है। दूल्हा हंसते हुए माँ को मनाता है और कहता है माँ गुस्सा मत हो तेरे लिए लाल बहू लाऊंगा। उसके बाद दूल्हा तेल की कटोरी में अपना चेहरा देख बिना पीछे मुड़े बारात लेकर निकल जाता हैं। पुत्र प्राप्ति पर कुआँ पूजनपुत्र प्राप्ति पर कुआँ पूजन किसी परिवार में जच्चा करती है और किसी परिवार में जच्चा की जेठानी। इसमे जच्चा और बच्चे को गुनगुने पानी से नहलाकर नए कपड़े पहनाए जाते
है। बच्चा बुआ के यहाँ से आए हुए कपड़े पहनता है, जच्चा पीले रंग की साड़ी पहनती है। इस रस्म में एक थाली में पान, सुपारी, चावल, कुमकुम, आटा, बताशे, गुड़, अनाज, फल लेकर कोई भी महिला जच्चा के साथ, या जच्चा की जेठानी के साथ चलती है। जच्चा या जच्चा की जेठानी के सर पर खाली कलश होता है, जिसमे चाकू रखा जाता है। उसी थाली में पुत्र होने पर जो गोबर से बने सतीये पूजे गए थे वो भी रखे जाते है। लड़का होने पर कुआं पूजन का क्या मतलब है?कुआँ पूजन की ऐतिहासिकता
मान्यता है कि कृष्ण जन्म के ग्यारहवें दिन माँ यशोदा ने जलवा पूजा की थी। इस दिन को डोल ग्यारस के रूप में भी मनाते है। सोलह संस्कारो की शुरुआत इसके बाद ही होती है, जलवा पूजन अर्थात जल पूजन को ही कुआँ पूजन कहते हैं।
कुआ पूजन का अर्थ क्या है?कुआं पूजन की परंपरा श्रीकृष्ण के जन्म से जुड़ी हुई है. कहा जाता है कि कृष्ण के जन्म के ग्यारहवें दिन माता यशोदा ने जलवा पूजा की थी. इस दिन को डोल ग्यारस के रूप में भी जाना जाता है. जलवा पूजन को ही जल यानी कुआं पूजा कहते हैं.
कुआं पूजन कब करें?* जलवा (कुआँ पूजन) सोम, बुध, गुरुवार को जलवा पूजन करना हितकर है। चैत्र, पौष, अधिक मास, मलमास व तारा डूबने पर यह काम नहीं करें। * ग्रह शांति अश्विनी, अश्लेषा, मघा, ज्येष्ठा, मूल एवं रेवती, मूल संज्ञक नक्षत्र में यदि किसी बालक का जन्म हो, तो 27 दिन बाद जब वह नक्षत्र आए तो ग्रहशांति कराएँ।
राजस्थान में कुआं पूजन को क्या कहते हैं?बच्चे के जन्म के कुछ दिनों पश्चात (सवा माह बाद) पनघट पूजन या कुआँ पूजन की रस्म की जाती है इसे जलमा पूजन भी कहते हैं।
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