आधुनिक पर्यावरण आंदोलन की उत्पत्ति की चर्चा कीजिए - aadhunik paryaavaran aandolan kee utpatti kee charcha keejie

पर्यावरण आन्दोलन उत्तर व दक्षिण में समान रूप में दिखे परन्तु उनकी वैचारिकता में थोड़ा अन्तर था। दक्षिण में पारिस्थितिकी के मददे मानवाधिकार, नैतिकता व न्याय के बंटवारे से जुड़े थे (गुहा, 1997 : 18)। उनका आन्दोलन मुख्यतः स्थानीय बचाव से सम्बन्धित था जो राज्य के विरुद्ध था और स्पष्ट रूप से उन्होंने जीविका और अस्तित्व के मुद्दों पर जोर डाला, पर वहीं उत्तर में उनकी उत्पति का संकेत उत्पादन प्रक्रिया के बाहर था। इन सब के बाद स्थानीय प्रश्न महत्त्वपूर्ण न होते हुए पूरे जैव क्षेत्र का प्रश्न उत्तर में महत्त्वपूर्ण बना।

औद्योगिक क्रांति व उसके परिणाम जैसे संसाधनों का बड़ी मात्रा में नष्ट होना, उत्पादन व जनसंख्या का बढ़ना परिणामस्वरूप बीसवीं शताब्दी गवाह है कि पारिस्थिकी चिंतन को लेकर गहरी सतर्कता उठी। सभी क्षेत्रों के लोगों का इकट्ठा होना, जंगलों की बर्बादी व बड़े-बड़े बाँधों और औद्योगिक कचरे के बढ़ावे को रोकना।

यह समझा जाता है कि बुद्धिजीवी के विचारों व नीतियों की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी; मैक नील का विचार था कि पर्यावरण के इतिहास के लिए शक्तिशाली, सफलतापूर्ण नीतियाँ महत्त्वपूर्ण है। अपेक्षाकृत पर्यावरण की स्पष्टता के इस प्रकार ऐतिहासिक तथ्यों से, पहले के आन्दोलनों पर विचार करने की जरूरत है जो पर्यावरणीयता को जानने में मदद करेंगे। सैमुएल. पी. हेज “कनजरवेशन एण्ड गोसपैल ऑफ एफीशेएन्सी‘ (1959) इस ‘प्रकृति’ के दस्तावेज में रूजवेल्ट का पारिस्थिति को लेकर संयुक्त राष्ट्र में चिंता दिखी। इसके अलावा उन्होंने द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात् अमेरिका का पर्यावरण को लेकर व्यवहार पर विचार किया उनका मूल्यावान कार्य “सुन्दरता, स्वास्थ्य और स्थायित्व : यूनाइटेड स्टेट एन्वायरमेन्ट पोलिटिक्स, 1955-85′, हेज ने सावधानीपूर्वक ये देखा कि नये पर्यावरण सुविधाओं का पुनर्निमाण, सौन्दर्य विषयक और स्वास्थ्य को लेकर जो उन्नति हुई वो सब रहन-सहन के स्तर और शिक्षा से सम्बन्धित थे।

एक महत्त्वपूर्ण पुस्तक में “साइलेंट स्प्रिंग” 1962 में मैरीन जैव विज्ञानी रशेल कार्सन के द्वारा लिखी गयी। इस पुस्तक में कीटनाशकों के उपयोग के भयंकर प्रभाव का बताया, सबसे ज्यादा DDT (डाईक्लोरो – डाईफिनाइल – ट्राइक्लोरो-ईथेन)। कीटनाशकों का सबसे ज्यादा प्रयोग संयुक्त राष्ट्र ने किया जिसकी खपत 1947 मिलियन से 1960 में 6.34 मिलियन हो गयी।

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गुहा के अनुसार “इस किताब के परिणाम पहुँच से परे थे’। इस पुस्तक के आने से पर्यावरण को लेकर सतर्क हो गये। नागरिक व सरकार भी नदियों में मछलियों के मारने पर ज्यादा सतर्क हो गयी। अतः पेस्ट कन्ट्रोल पर एक संघीय समिति का निर्माण हुआ |

संयुक्त राष्ट्र ने DDT के प्रयोगों पर प्रतिबंध लगा दिया, हानिकारक रासायनिक तत्त्वों के नियंत्रण के लिए कीटनाशक नियंत्रण एक्ट 1772 में बना और जहरीले पदार्थ के नियंत्रण पर एक्ट 1974 में लगा दिया गया। यूरोप में पर्यावरण को लेकर सतर्कता व्यक्तिगत व संस्थाओं में दिखी। बैरी कोमनर जैसे व्यक्तियों ने तर्क वितर्क कहा प्रदूषण रहित तकनीकियों से पारिस्थिकी या पर्यावरण को बचाया जा सकता है।

रोम ने 1964 में एक रिपोर्ट तैयार की जो “लिमिट्स ऑफ ग्रोथ’ बोली गयी। जिसमें संसाधनों के तीव्र गति से नष्ट होने के परिणामों के बारे में लिखा था। इसके अलावा विकास के लिए एक उदारवादी रास्ते का सुझाव दिया। लोगों की सतर्कता बढ़ी बड़े-बड़े जुलूस निकाले गये। प्रदूषण के खिलाफ और पर्यावरण की चिन्ताएँ अपनी परिकाष्ठा पर पहुँच गयी जो 1970 अप्रैल में ‘पृथ्वी दिवस’ के रूप में मनाया गया। 70 के पूरे दशक में बहुत सी संस्थाओं, क्लबों, संयुक्त राष्ट्र की सोसाइटी द्वारा पर्यावरण को बचाने के लिए पहली बार आन्दोलन उठा।

स्टीफन फोक्स (1985) में बताया इन संस्थाओं में 70वीं से 80वीं शताब्दी के बीच सदस्यों की संख्या में चमत्कारी वृद्धि हुई। एन्ड्रयू जैमीसन के अनुसार युवाओं ने भी बड़ी संख्या में इन आन्दोलनों में भाग लिया। उत्तरी अमेरिका में पर्यावरणवादियों द्वारा कुछ मुद्दों को उठाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका थी जैसे औद्योगिक निस्सरण, जहरीले कचरे, संरक्षात्मक पर्यावरण जैसे मुद्दों ने पर्यावरण संस्थाओं को शुरू करने में सहायता प्रदान की जो संयुक्त राष्ट्र की पर्यावरण नीति का मुख्य भाग थी।

सामाजिक आन्दोलन, संयुक्त राष्ट्र में पर्यावरणवाद में कई विचारों को सम्मिलित किया गया। हॉल ही में नार्वे के दर्शन शास्त्री आर्ने नेसे ने 1972 में ‘गहरे पर्यावरण” का उदाहरण दिया, जिसमें ‘जैव केन्द्रित’ पर जोर डाला और ‘मानव केन्द्रित’ को अस्वीकार कर दिया। (गुहा 2000 : 85)। दूसरी तरफ पर्यावरण आन्दोलन के आयामों की व्याख्या पर्यावरण न्याय आन्दोलन में दिखने लगे जिसमें छोटे मुद्दों को उठाया गया व लोगों की भागीदारी भी बड़ी। जिनमें गरीब लोग व अल्पसंख्यक भी थे (जैसे अफ्रीकन – अमेरिकन)।

लव नहर के लिए “एन्टी टोक्सिक” आन्दोलन एक मुख्य उदाहरण है न्याय आन्दोलन का। “हुकर रसायन कम्पनी” के बड़े-बड़े जहरीले निक्षेप और न्यूयॉर्क में लव कैनाल में जीवों की कमी का कारण था। कैंसर और इत्यादि स्वास्थ्य समस्याएँ उसी जगह जो अफ्रीकन – अमेरिकन का निवास्य क्षेत्र था वहाँ बड़ी मात्रा में दिखी। इसके खिलाफ आन्दोलन लुईस गिब्स ने शुरू किया जो लैव कैनाल की सफाई को लेकर था। जिसमें राष्ट्रीय सहकारी संस्थाओं ने मदद की, द सिटीजन क्लीयरिंग हाऊस फॉर हजारडियस वेस्टस (CCHW), 1980 तक बहुत सी संस्थाओं व समूहों के दबाव के कारण उत्तरी अमेरिका के सरकार ने हजारों लोगों को दूसरे स्थानों पर स्थानान्तरित कर दिया और उसे “प्राकृतिक संकट क्षेत्र” घोषित कर दिया।

यूरोप में भी, औद्योगिकरण को लेकर बुरे परिणामों के लिए सतर्कता उठी और पर्यावरण के लिए कुछ राजनीति कार्यशील पार्टियाँ आयी। न्यूजीलैण्ड में एक “वैल्यू पार्टी” का जन्म 1960 में हुआ जो पहली ‘ग्रीन पार्टी” के रूप में जानी गयी।

दक्षिण में आन्दोलन

सामान्यतः यह विश्वास है कि पर्यावरणवाद एक आन्दोलन की तरह अमीर व औद्योगिक राष्ट्रों से उत्पन्न हुआ है। फिर भी दशक समकालीन कुछ तथ्य गवाह है कि दक्षिण में भी पर्यावरण को लेकर चिन्ताएँ थी। ब्राजील, केन्या, भारत ओर थाइलैण्ड जैसे देशों में भी पर्यावरणवाद की लहरे उठी थीं।

ब्राजील

1960 व 1984 के बीच अन्धाधुंध वनों की कटाई हुई थी, जिससे वनोन्यूलन की एक बड़ी समस्या और आमेजन का एक बड़ा भाग रेगिस्तान में बदल गया था। 1976 में यहाँ एक बड़ा पर्यावरण आन्दोलन हुआ जिसका नाम “चिको“ था। इसका नेतृत्व फ्रांस के चिको मेन्डेस ने किया था जो पेड़ों से रबड़ निकालने वाले समूह के नेता थे। यह आन्दोलन 10 मार्च 1976 में शुरु हुआ। यह आन्दोलन रैंचर्स और लोगर्स के खिलाफ हुआ जिन्होंने दस हजार रबड़ टैपर्स (रबड़ निकालने वाले) को अपने स्थानों से हटा दिया था। इन रैचर्स ने लगभग 6 मिलियन जगह टैपर्स से विकास के नाम पर लेकर उन पर अपना स्थायित्व कर लिया। मेन्डेस का पुरुषों, महिलाओं और बच्चों ने साथ दिया जो हाथ से हाथ मिलाकर एक कड़ी की तरह चलते रहे। दिसम्बर 1988, में चीको मेन्डेस का किसी भू-स्वामित्व द्वारा खून कर दिया गया लेकिन वे अपना प्रभाव छोड़ कर गए।

केन्या में महिला, प्रोफेसर वंगारी मथाई द्वारा एक आन्दोलन शुरु किया जिन्हें हॉल ही में नोबेल पुरस्कार से नवाजा गया है। बहुत से पर्यावरण आन्दोलन इतिहास में उदाहरण हैं। भारत में पर्यावरण को लेकर कुछ महत्त्वपूर्ण आन्दोलन हुए। एक सबसे महत्त्वपूर्ण आन्दोलन “चिपको आन्दोलन” था जो गढ़वाल व कुमायूँ क्षेत्र में 1970 में सुन्दरलाल बहुगुणा व चंडी प्रसाद बट्ट द्वारा शुरु किया गया इसमें पेड़ों की सुरक्षा को लेकर चिन्ताएँ व्यक्त की गईं। लोग इकट्ठे हुए जिसमें गाँव के महिलाओं व पुरुषों ने वहाँ के पेड़ों को अपने गले लगा लिया था। यद्यपि ये आन्दोलन उनके लिए भी था जो बाहर से आये थे व वाणिज्यिक रूप में उनका शोषण कर रहे थे। जिससे पर्यावरण को लेकर एक जागरुकता पैदा हुई। दूसरा मुख्य आन्दोलन मेधा पाटेकर द्वारा ‘नर्मदा बचाओ’ आन्दोलन था जो एक महिला समाजकर्ता थी, एक और बड़ा आन्दोलन नर्मदा नदी पर बाँध बनाने के विरूद्ध था। उसमें सरकारी योजना के अनुसार 30 बड़े, 135 मध्यम, 3000 छोटे बाँध बनाने की योजना थी, नर्मदा नदी व उसकी सहायक नदियों पर जिसका परिणाम यह हुआ लोगों को उनके स्थानों से हटाया गया और उनकी भूमि को बर्बाद कर दिया। 1250 से भी अधिक गाँव तबाही की नोंक पर है।

कई अन्य उदाहरण पर्यावरण को लेकर भारत में हैं। जैसे साइलैण्ट वैली जो एक बाँध बनाने के विरुद्ध आन्दोलन था। यह आन्दोलन 1970 में हुआ और जिसे “केरल शस्त्र साहित्य” का बहुत बड़ा समर्थन मिला था। इस प्रकार भारत में पर्यावरण को लेकर कई आन्दोलन हुए वैसे ही दक्षिण में अपनी सामाजिक सांस्कृतिक को लेकर पर्यावरण आन्दोलन हुए।

पहले के सन्दर्भ में उत्तरी व दक्षिणी पर्यावरण आन्दोलन कुछ तथ्यों से भिन्न थे। अमेरिका में जो पर्यावरण आन्दोलन हुए हैं के अनुसार वे अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए ताकि उनके रहन-सहन का स्तर, उनकी इच्छाओं व उनके आस-पास का वातावरण बेकार न हो जिसमें वो रह रहे हैं। (1982 : 21) वही भारत में जो पर्यावरण आन्दोलन हुए वह दो प्रतियोगी समूह के बीच दिखा किसानों व उद्योगों – दोनों को ही प्राकृतिक संसाधनों की जरूरत थी (गुहहा व गडमिल 1995)। उत्तर में ये आन्दोलन राजनीतिक संगठनों द्वारा जारी थे और दक्षिण में बहुत ही पुराने ढंग से हुए।

वैश्विक पर्यावरण पर वाद विवाद और उत्तर – दक्षिण का विभाजन

70 का दशक दिखाता है कि पर्यावरण का एक प्रतिनिधिक उदाहरण में परिवर्तन होना। पर्यावरण संकट का विचार राजनीतिक स्तर पर बढ़ने लगा। पर्यावरण को लेकर पहला अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन 1972 में स्टाकहोम में यूनाइटेड नेशन्स द्वारा हुआ था इस सम्मेलन में पर्यावरण के मुद्दों पर सहमति दिखाई व 26 सामान्य सिद्धान्तों जिसमें पर्यावरण और विकास को लेकर चिन्ताएँ जाहिर की। बहुत से सम्मेलन हुए जिनमें पर्यावरण की मुख्य समस्या के लिए टिकने वाले विचारों के ढाँचों को अवसर प्रदान किया गया।

1987 में यू.एन.ने विश्व विकास पर एक सम्मेलन किया जिसकी अध्यक्षता नार्वे के प्रधानमंत्री ग्रोटरटीन बुन्डलैण्ड ने की। जिसमें एक रिपोर्ट तैयार की उसका नाम ब्रुन्डलैण्ड रिपोर्ट था। इस रिपोर्ट में वैश्विक उपभोग के तरीकों को बताया व इस बात का खुलासा किया कि पर्यावरण व आर्थिक विकास के बीच के सम्बन्ध को समझना आवश्यक है। इस रिपोर्ट ने “सतत् विकास” की महत्त्वपूर्णता को बताया, जो गरीबी व पर्यावरणवाद का उपचार थी।

“सतत् विकास’ की रिपोर्ट के अनुसार”, ये वर्तमान में उन सभी चीजों को प्रस्तुत करेगा जिनकी हमें जरूरत है बिना भविष्य के संसाधनों को बेकार करे।”

पर्यावरण आंदोलन का क्या महत्व है?

ये आंदोलन आधुनिक विकास के मॉडल की आलोचना ही नहीं करते बल्कि विकल्प भी पेश करते हैं। ऐसा विकल्प जो विकास के साथ- साथ पर्यावरण संरक्षण भी प्रदान करता है लोगों के परम्परागत अधिकारों की रक्षा करता है तथा आम लोगों की विकास प्रक्रिया में भागीदारी सुनिश्चित करता है।

पर्यावरण आंदोलन का कारण क्या है?

हमारी विकास प्रक्रिया ने हजारों लोगों को जल, जंगल और जमीन से बेदखल किया है। विकास प्रक्रिया के इन्ही दूप्रभावों ने आम आदमी को पिछले कुछ समय से एकजुट होने तथा विकास को पर्यावरण संरक्षण आधारित करने के लिए अनेक आंदोलन चलाने को प्रेरित किया है जिन्हें हम पर्यावरण आंदोलन कहते है।

चिपको आन्दोलन क्या है इस आन्दोलन की उपलब्धियों पर प्रकाश डालें?

चिपको आंदोलन वनों का अव्यावहारिक कटान रोकने और वनों पर आश्रित लोगों के वनाधिकारों की रक्षा का आंदोलन था रेणी में 2400 से अधिक पेड़ों को काटा जाना था, इसलिए इस पर वन विभाग और ठेकेदार जान लडाने को तैयार बैठे थे जिसे गौरा देवी जी के नेतृत्व में रेणी गांव की 27 महिलाओं ने प्राणों की बाजी लगाकर असफल कर दिया था।

भारत में कौन सा पर्यावरण आंदोलन सर्वाधिक सफल रहा?

उत्तर का यह चिपको आंदोलन दक्षिण में 'अप्पिको' आंदोलन के रूप में उभरकर सामने आया। अप्पिको कन्नड़ भाषा का शब्द है जो कन्नड़ में चिपको का पर्याय है। पर्यावरण संबंधी जागरुकता का यह आंदोलन अगस्त, 1983 में कर्नाटक के उत्तर कन्नड़ क्षेत्र में शुरू हुआ। यह आंदोलन पूरे जोश से लगातार 38 दिन तक चलता रहा