छायावादी युग की विशेषताएं क्या है? - chhaayaavaadee yug kee visheshataen kya hai?

आज की पोस्ट में हम छायावाद में छायावादी काव्य की प्रमुख विशेषताएँ(Chayavad ki Visheshta) जानेंगे , जो कि आपको छायावाद पढने से पहले जरुरी हो जाता है

छायावादी काव्य की प्रमुख विशेषताएँ

छायावाद का अर्थ :

छायावाद सामान्य रूप से भावोच्छवास प्रेरित स्वच्छन्द कल्पना-वैभव की वह स्वच्छन्द प्रवृत्ति है जो देश-कालगत वैशिष्ट्य के साथ संसार की सभी जातियों के विभिन्न उत्थानशील युगों की आशा, आकांक्षा में निरंतर व्यक्त होती रही है। स्वच्छन्दता की इस सामान्य भावधारा की विशेष अभिव्यक्ति का नाम हिंदी साहित्य में छायावाद पड़ा। छायावाद नामकरण का श्रेय मुकुटधर पाण्डेय को जाता है

⇒ ’छायावाद’ शब्द के अर्थ को लेकर आलोचना-जगत में काफी विवाद रहा है। इसका कारण यह है कि जहां यथार्थवाद, आदर्शवाद, प्रगतिवाद आदि ऐसे नाम हैं, जिनके आधार पर इन वादों कें अंतर्गत स्वीकृत रचनाओं के बुनियादी स्वरूप को आसानी से समझा जा सकता है, वहीं ’छायावाद’ शब्द किसी ऐसे स्पष्ट अर्थ का बोध नहीं कराता, जिसके आधार पर छायावादी काव्य की विशेषताओं को समझा जा सके।

छायावाद के व्यापक अर्थ में उन्होंने रहस्यवाद को भी समाविष्ट किया है। इधर प्रसाद जी ने छायावाद में स्वानुभूति की विवृत्ति पर बल दिया। लेकिन आज छायावाद और रहस्यवाद दो स्वतंत्र वाद माने जाते हैं। ’छायावाद’ में शैलीगत विशेषताओं के साथ-साथ प्रेम, सौंदर्य आदि भावनाओं को भी स्वीकार किया जाता है, जबकि अव्यक्त निराकर प्रिय के प्रति प्रणय-निवेदन को रहस्यवाद की मूल विशेषता माना जाता है।

छायावादी काव्य की प्रमुख विशेषताएँ – Chayavad ki Visheshta

  • आत्माभिव्यंजना/आत्माभिव्यक्ति की प्रधानता
  • मानवीय सौन्दर्य का बोध
  • मैं शैली / उत्तम पुरुष शैली
  • प्रकृति सम्बंधित बिम्बों की बहुलता
  • रहस्य भावना
  • श्रृंगार भावना
  • मानवतावाद
  • राष्ट्रीयता की भावना
  • मुक्तक छंद का प्रयोग
  • अनुभूति की तीव्रता
  • प्रकृति के रम्य रूपों की रचना
  • वेदना की विवृति
  • स्वछंद कल्पना
  • दार्शनिक चिंतन

यद्यपि प्रसाद ने रहस्यवाद को अध्यात्मवाद और विशेषतः शैव दर्शन के साथ संबद्ध करने का प्रयास किया , किंतु उनकी वह व्याख्या सर्वमान्य न हो सकी। जहां तक भाषा-शैली का प्रश्न है, छायावाद और रहस्यवाद में समानता पायी जाती है।
वस्तुतः छायावादी काव्य स्वच्छंदतावादी कम और पुनरुत्थानवादी अधिक था।

छायावाद की प्रणयानुभूति पर रीतिकालीन श्रृंगार-चित्रण का काफी प्रभाव है। काव्यशास्त्रीय मूल्यों की दृष्टि से भी छायावाद प्राचीन सिद्धांतों, विशेषकर रस-सिद्धांत के, अनुरूप है। और जहां तक दार्शनिक सिद्धांतों का संबंध है, छायावादी काव्य सर्ववाद, कर्मवाद, वेदांत, शैव दर्शन, अद्वैतवाद, भक्ति आदि पुराने सिद्धांतों को ही व्यक्त करता दिखायी देता है।

छायावादी काव्य की अभिव्यंजना-पद्धति भी नवीनता और ताजगी लिये हुए है। द्विवेदीकालीन खङी बोली और छायावादी खङी बोली में बहुत अंतर है। भाषा का विकास का ही अंतरंग तत्व होता है। द्विवेदीयुगीन काव्य बहिर्मुखी था, इसलिए उसकी भाषा में स्थूलता और वर्णनात्मकता अधिक थी। इसके विपरीत छायावादी काव्य में जीवन की सूक्ष्म निभृत स्थितियों को आकार प्राप्त हुआ, इसलिए उसकी शैली में उपचारवक्रता मिलती है, जो मानवीकरण आदि अनेक विशेषताओं के रूप में दिखायी देती है।

⇒ छायावादी कवियों ने प्रधान रूप से प्रणय की अनुभूति को व्यक्त किया है। उनकी कविताओं में प्रणय से संबद्ध विविध मानसिक अवस्थाओं का -आशा, आकुलता, आवेग, तल्लीनता, निराशा, पीङा, अतृप्ति, स्मृति, विषाद आदि का-अभिनव एवं मार्मिक चित्रण मिलता है।

रीतिकालीन काव्य में श्रृंगार की अभिव्यक्ति नायक-नायिका आदि के माध्यम से हुई है, किंतु छायावादी कवियों की अनुभूति की अभिव्यक्ति प्रत्यक्ष है। यहां कवि और पाठक की चेतना के बीच अनुभूति के अतिरिक्त किसी अन्य सत्ता की स्थिति नहीं है। स्वानुभूति को इस भांति चित्रित किया गया है कि सामान्य पाठक सहज ही उसमें तल्लीन हो जाता है।

छायावादी काव्य की चेतना व्यक्तिनिष्ठ और सूक्ष्म होते हुए भी मूर्त उपकरणों द्वारा व्यंजित की गयी है। जैसे ही हम मूर्त उपकरणों का उल्लेख करते हैं, हमारा ध्यान छायावादी चेतना के सौंदर्य-पक्ष की ओर आकृष्ट हो जाता है। जिस प्रकार प्रसाद ने ’संकल्पात्मक अनुभूति’ की व्याख्या करते हुए ’मूल चारुत्व’ की बात की है, उसी प्रकार महादेवी भी सत्य को काव्य का साध्य मानती हैं और सौंदर्य को उसका साधन।

सौंदर्य के स्वरूप पर विचार करते हुए यह स्पष्ट हो जाता है कि उसका प्रधान स्रोत प्रकृति है। इसका यह तात्पर्य नहीं है कि छायावादी कवियों ने मानव के सौंदर्य का चित्रण नहीं किया। नारी के शारीरिक सौंदर्य के अनेक मोहक चित्र प्रणय की कविताओं में बिखरे हुए मिलते हैं। यह सौंदर्य प्रत्यक्ष रूप से नायिका के रूप-वर्णन में भी दिखायी देता है, जैसे प्रसाद-कृत ’आंसू’ तथा ’कामायनी’ में प्रस्तुत किया गया नायिका का सौंदर्य या पंत-कृत ’भावी पत्नी के प्रति’ में व्यक्त नायिका का सौंदर्य और परोक्ष तथा सांकेतिक रूप में भी लक्षित होता है निराला की ’जूही की कली’ में।

इन कवियों की सौंदर्य-भावना ने प्रकृति के विविध दृश्यों को अनेक कोमल-कठोर रूपों में साकार किया है। प्रथम पक्ष के अंतर्गत प्रसाद की ’बीती विभावरी जाग री’, निराला की ’संध्या-सुंदरी’, पंत की ’नौका-विहार’ आदि कविताओं का उल्लेख किया जा सकता है, जबकि ’कामायनी’ का प्रलय-वर्णन, निराला की ’बादल-राग’ कविता तथा पंत की ’परिवर्तन’ जैसी रचनाओं में प्रकृति के कठोर रूपों का चित्रण भी मिलता है। छायावादी काव्य में अनुभूति और सौंदर्य के स्तर पर प्रायः मानव और प्रकृति के भावों और रूपों का तादात्म्य दिखायी देता है।

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छायावादी युग की प्रमुख विशेषताएं क्या है?

ध्वन्यात्मकता, लाक्षणिकता, सौंदर्य, प्रकृति-विधान तथा उपचार वक्रता के साथ स्वानुभूति की विवृत्ति छायावाद की विशेषताएँ हैं।" सुमित्रानंदन पंत छायावाद को पाश्चात्य साहित्य के रोमांटिसिज्म से प्रभावित मानते हैं। महादेवी वर्मा छायावाद का मूल दर्शन सर्वात्मवाद को मानती हैं और प्रकृति को उसका साधन।

छायावादी युग का दूसरा नाम क्या है?

छायावादी युग (1920-1936) प्राय: 'द्विवेदी युग' के बाद के समय को कहा जाता है। बीसवीं सदी का पूर्वार्द्ध छायावादी कवियों का उत्थान काल था। इस युग को जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा, सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' और सुमित्रानंदन पंत जैसे छायावादी प्रकृति उपासक-सौन्दर्य पूजक कवियों का युग कहा जाता है।

छायावादी युग के कवि कौन हैं?

जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”, सुमित्रानंदन पंत और महादेवी वर्मा इस युग के चार प्रमुख कवि हैं। “छायावाद” का केवल पहला अर्थात् मूल अर्थ लेकर तो हिन्दी काव्य क्षेत्र में चलने वाली महादेवी वर्मा ही हैं।

छायावादी युग से आप क्या समझते हैं?

हिन्दी साहित्य के आधुनिक चरण मे द्विवेदी युग के पश्चात हिन्दी काव्य की जो धारा विषय वस्तु की दृष्टि से स्वच्छंद प्रेमभावना, पकृति मे मानवीय क्रिया कलापों तथा भाव-व्यापारों के आरोपण और कला की दृष्टि से लाक्षणिकता प्रधान नवीन अभिव्यंजना-पद्धति को लेकर चली, उसे छायावाद कहा गया।