हिन्दी साहित्य के इतिहास में विद्रोह या प्रतिक्रिया का सिद्धांत बहुत महत्वपूर्ण स्थान रखता है। इसके अनुसार हमारे साहित्य की एक धारा या प्रवृत्ति अपने से पूर्व की धारा या प्रवृत्ति की प्रतिक्रिया का परिणाम होती है। इसी के अनुसार साहित्यिक कालों या युगों का परिवर्तन होता है और नये-नये आंदोलनों का जन्म होता और उनकी मृत्यु भी होती है। इस प्रकार विचार करने पर पता चलता है कि आदिकाल या वीरगाथाकाल या सिद्ध-सामंत काल की अतिशय युद्ध प्रियता एवं श्रृंगारिकता की प्रतिक्रिया स्वरूप भक्ति काल का उदय हुआ जिसमें परमार्थिक सत्ता के प्रति आत्मनिवेदन और पूर्ण समर्पण का साहित्य रचा गया। भक्तिकाल में ऐहिकता की उपेक्षा जब अपनी चरम सीमा पर पहुँची तो रीतिकाल या श्रृँगार काल का आविर्भाव हुआ। इस युग की चरम ऐहिकता और इन्द्रीय लिप्सा तथा जीवन के अन्यान्य प्रश्नों और पक्षों की इसकी उपेक्षा की प्रतिक्रिया स्वरूप आधुनिक काल या भारतेन्दु युग का आरंभ हुआ। इसकी चरम परिणति द्विवेदी युगीन कविता में हुई। इस युग की घनघोर सामाजिकता या सार्वजनिकता की प्रतिक्रिया स्वरूप व्यक्ति स्वतंत्र्य और विद्रोह की भावना से परिपूर्ण छायावादी काव्यांदोलन का उन्मेष हुआ। इस क्रिया-प्रतिक्रिया के सिधांत को आगे भी लागू हुआ समझना चाहिए। इस संबंध में डॉ. नामवर सिंह ने लिखा है-“वस्तुतः ये साहित्यिक आन्दोलन हिन्दी साहित्य की अपनी परम्परा के अंतर्गत क्रिया-प्रतिक्रिया के एक निश्चित अनुक्रम में उत्पन्न और समाप्त हुए........” (देखें-आधुनिक साहित्य की प्रवृतियाँ, पृ.5) आचार्य रामचंद्र शुक्ल भी यह मानते हैं कि “छायावाद का चलन द्विवेदी युग की रूखी इतिवृत्तात्मकता की प्रतिक्रिया के रूप में हुआ था।” (हिन्दी साहित्य का इतिहास, छठा संस्करण पृ.669) इससे पूर्व शुक्ल जी ने इस ‘रूखी इतिवृत्तात्मकता’ की व्याख्या इन शब्दों में की है-“द्वितीय उत्थान (द्विवेदी युग) की कविता में काव्य का स्वरूप खड़ा करने वाले दोनों बातों की कमी दिखाई पड़ती थी-कल्पना का रंग भी बहुत कम या फीका रहता था और हृदय का वेग भी खूब खुलकर व्यंजित नहीं होता था।” (वही, पृ. 647) शुक्ल जी ने तो केवल संकेत भर करके छोड़ दिया परन्तु बाद के समालोचकों ने यह सप्रमाण सिद्ध किया है कि ऊपर गिनाई गयी कमियों का कारण उस युग में व्याप्त सामाजिकता, सामूहिकता या सार्वजनिकता का वह घनघोर आग्रह ही था जिसके सामने व्यक्ति की निजता का कोई मोल नहीं था। छायावाद इसी परिस्थिति के विरुद्ध विद्रोह और व्यक्ति स्वातंत्र्य के समर्थन का महाकाव्य है। इसीलिये इसके प्रतिनिधि कवि “निराला” कली के खिलने को भी क्रांतिकारी परिवर्तनों का प्रतीक मान लेते हैं- टूटें सकल बन्ध कलिके, दिशा-ज्ञान-गात हो बहे गंध। (देखें-‘राग-विराग’ की भूमिका, पृ.19) Show ‘रश्मिरथी’ 1952 ई० में प्रकाशित हुआ था। रश्मिरथी का अर्थ ‘सूर्य का सारथी’ होता है। यह एक प्रसिद्ध ‘खण्डकाव्य’ है। यह खड़ीबोली में लिखा गया है। रश्मिरथी में कर्ण के चरित्र के सभी पक्षों का चित्रण किया गया है। दिनकर ने कर्ण को महा भारतीय कथानक से ऊपर उठाकर उसे नैतिकता और विश्वसनीयता की नई भूमि पर खड़ा करके उसे गौरव से विभूषित किया है। रश्मिरथी में दिनकर जी ने सभी सामाजिक और पारिवारिक संबंधों को नये सिरे से परखा है। रश्मिरथी में कवि ने कर्ण को नायक बनाया है, अर्जुन गौणपात्र है। रश्मिरथी में सात सर्ग है। प्रथम सर्ग: कर्ण का शौर्य प्रदर्शन दूसरा सर्ग: परशुराम के आश्रम वर्णन (आश्रमवास) तीसरा सर्ग: कृष्ण का संदेश चौथा सर्ग: कर्ण के महादान की कथा पाँचवाँ सर्ग: माता कुन्ती की विनती छठा सर्ग: शक्ति प्रदर्शन साँतवा सर्ग: कर्ण के बलिदान की कथा कथावस्तु: रश्मिरथी का अर्थ होता है वह व्यक्ति, जिसका रथ रश्मि अथार्त सूर्य की किरणों का हो। ‘रश्मिरथी’ महाकाव्य काव्य में रश्मिरथी कर्ण का नाम है क्योंकि उसका चरित्र सूर्य के समान प्रकाशमान है। कर्ण महाभारत महाकाव्य का अत्यंत यशस्वी पात्र है। कर्ण का जन्म पाण्डवों की माता कुंती के गर्भ से उस समय हुआ था, जब कुन्ती अविवाहित थी। लोक-लज्जा के भय से बचने के लिए कुन्ती ने अपने नवजात शिशु को एक मंजूषा में बंद कर उसे नदी में बहा दिया था। वह मंजूषा अधिरथ नाम के एक सूत को मिला था। अधिरथ को कोई संतान नहीं थी। इसलिए उन्होंने उस बच्चे का पालन-पोषण अपने पुत्र के जैसा किया। अधिरथ की धर्मपत्नी का नाम राधा था। राधा के द्वारा पालन-पोषण होने के कारण ही कर्ण का एक और नाम ‘राधेय’ भी है। कौरव-पाण्डव दोनों महाराज शान्तनु के कूल में उत्पन्न हुए। शांतनु के कई पीढ़ियों के ऊपर महाराज कुरु हुए थे। इसलिए कौरव-पाण्डव दोनों को कुरुवंशी भी कहते हैं। शांतनु का विवाह गंगा जी के साथ हुआ था, जिनसे देवव्रत का जन्म हुआ। यही देवव्रत भीष्म कहालाए, क्योंकि उन्होंने जवानी में ही आजीवन ब्रह्मचारी रहने के लिए प्रतिज्ञा (भीष्म- प्रतिज्ञा) ले लिया था। महाराज शांतनु ने निषाद-कन्या सत्यवती से विवाह कर लिया, जिनसे उन्हें चित्रांगद और विचित्रवीर्य दो पुत्र हुए। चित्रांगद कुमारावस्था में एक युद्ध में मारे गए थे। विचित्रवीर्य की अम्बिका और अम्बालिका नाम की दो पत्नियाँ थी, किन्तु क्षयरोग होने के कारण विचित्रवीर्य भी निःसंतान ही मरे। ऐसी परिस्थिति में वंश चलाने के लिए सत्यवती ने व्यासजी को आमंत्रित किया। व्यासजी ने नियोग-पद्धति से विचित्रवीर्य की दोनों विधवा पत्नियों को माँ बनने का आशिर्वाद दिया। अम्बिका से धृतराष्ट्र और अम्बालिका से पांडु का जन्म हुआ। मातृ-दोष के कारण धृतराष्ट्र जन्मांध हुए और पांडु पीलिया के रोगी थे। अतएव अम्बिका की प्रेरणा से व्यासजी ने ऊसकी दासी से तीसरा पुत्र का जन्म करवाया जिसका नाम विदुर था। राजा धृतराष्ट्र और महारानी गांधारी के सौ पुत्र हुए। महाराज पांडु की दो पत्नियाँ थी। कुंती और माद्री परन्तु ऋषि से मिले शाप के कारण पांडु अपनी पत्नी के साथ स्त्री-समागम से विरत थे। कुंती ने अपने पति की आज्ञा से तीन पुत्र तीन देवताओं से प्राप्त किये। जैसे कुमारावस्था में कुंती ने सूर्य मंत्र से कर्ण को प्राप्त किया था। उसी प्रकार विवाह के पश्चात उन्होंने धर्मराज से युधिष्ठिर, पवनदेव से भीम, इन्द्रदेव से अर्जुन को प्राप्त किया। माद्री के एक ही गर्भ से दो पुत्र हुए नकुल और सहदेव। ये दोनों भाई भी पांडु के अंश नहीं थे। ये दोनों दो अश्विनी कुमारों के अंश थे। पांडु के मरने पर माद्री सती हो गई थी। पाँचों पुत्रों के लालन-पालन का भार कुन्ती को प्राप्त हुआ। माद्री महाराज शल्य की बहन थी। 1. प्रथम सर्ग
‘जय हो’ जग में जले जहाँ भी, नमन पुनीत अनल को, ऊँच-नीच का भेद न माने, वही श्रेष्ठ ज्ञानी है, तेजस्वी सम्मान खोजते नहीं गोत्र बतला के, जिसके पिता सूर्य थे, माता कुन्ती सती कुमारी, तन से समरशूर, मन से भावुक, स्वभाव से दानी, अलग नगर के कोलाहल
से, अलग पुरी-पुरजन से, नहीं फूलते कुसुम मात्र राजाओं के उपवन में, जलद-पटल में छिपा, किन्तु रवि कब तक रह सकता है? रंग-भूमि में अर्जुन था जब समाँ अनोखा बाँधे, ‘तूने जो-जो किया, उसे मैं भी दिखला सकता हूँ, इस प्रकार कह लगा दिखाने कर्ण कलाएँ रण की, फिरा कर्ण, त्यों ‘साधु-साधु’ कह उठे सकल नर-नारी, द्वन्द्व-युद्ध के लिए पार्थ को फिर उसने ललकारा, ‘क्षत्रिय
है, यह राजपुत्र है, यों ही नहीं लड़ेगा, ‘जाति! हाय री जाति !’ कर्ण का हृदय क्षोभ से डोला, ‘ऊपर सिर पर कनक-छत्र, भीतर काले-के-काले, ‘मस्तक ऊँचा किये, जाति का नाम लिये चलते हो, ‘पूछो मेरी जाति, शक्ति हो तो, मेरे भुजबल से’ ‘अर्जुन बङ़ा वीर क्षत्रिय है, तो आगे वह आवे, कृपाचार्य ने कहा ‘ वृथा तुम क्रुद्ध हुए जाते हो, कर्ण हतप्रभ हुआ तनिक, मन-ही-मन कुछ भरमाया, ‘मूल जानना बड़ा कठिन
है नदियों का, वीरों का, ‘किसने देखा नहीं, कर्ण जब निकल भीड़ से आया, ‘करना क्या अपमान ठीक है इस अनमोल रतन का, ‘अंगदेश का मुकुट कर्ण के मस्तक पर धरता हूँ। कर्ण चकित रह गया सुयोधन की इस परम कृपा से, ‘किया कौन-सा त्याग अनोखा, दिया राज यदि तुझको! ‘भरी सभा के बीच आज तूने जो मान दिया है, घेर खड़े हो गये कर्ण को मुदित, मुग्ध पुरवासी, लगे लोग पूजने कर्ण को कुंकुम और कमल
से, ‘महाराज अंगेश!’ तीर-सा लगा हृदय में जा के, दुर्योधन ने कहा-‘भीम ! झूठे बकबक करते हो, ‘सचमुच ही तो कहा कर्ण ने, तुम्हीं कौन हो, बोलो, कृपाचार्य आ पड़े बीच में, बोले ‘छिः! यह क्या है? रंग-भूमि से चले सभी पुरवासी मोद मनाते, ‘जन्मे नहीं जगत् में अर्जुन! कोई प्रतिबल तेरा, ‘मगर, आज जो कुछ देखा, उससे धीरज हिलता है, ‘सोच रहा हूँ क्या उपाय, मैं इसके साथ
करूँगा, रंग-भूमि से लिये कर्ण को, कौरव शंख बजाते, बड़ी तृप्ति के साथ सूर्य शीतल अस्ताचल पर से, और हाय, रनिवास चला वापस जब राजभवन को, 2. द्वितीय सर्ग शीतल, विरल एक कानन शोभित अधित्यका के ऊपर, आस-पास कुछ कटे हुए पीले धनखेत
सुहाते हैं, हवन-अग्नि बुझ चुकी, गन्ध से वायु, अभी, पर, माती है, बैठे हुए सुखद आतप में मृग रोमन्थन करते हैं, अजिन, दर्भ, पालाश, कमंडलु-एक ओर तप के साधन, श्रद्धा बढ़ती अजिन-दर्भ पर, परशु देख मन डरता है, आयी है वीरता तपोवन
में क्या पुण्य कमाने को? परशु और तप, ये दोनों वीरों के ही होते श्रृंगार, किन्तु, कौन नर तपोनिष्ठ है यहाँ धनुष धरनेवाला? मुख में वेद, पीठ पर तरकस, कर में कठिन कुठार विमल, हाँ-हाँ, वही, कर्ण की जाँघों पर अपना मस्तक धरकर, कर्ण मुग्ध
हो भक्ति-भाव में मग्न हुआ-सा जाता है, ‘वृद्ध देह, तप से कृश काया, उस पर आयुध-सञ्चालन, ‘कहते हैं, ‘ओ वत्स! पुष्टिकर भोग न तू यदि खायेगा, ‘जरा सोच, कितनी कठोरता से मैं तुझे चलाता हूँ, ‘पत्थर-सी हों मांस-पेशियाँ, लोहे-से भुज-दण्ड अभय, ‘ब्राह्मण का है
धर्म त्याग, पर, क्या बालक भी त्यागी हों? खड्ग बड़ा उद्धत होता है, उद्धत होते हैं राजे, ‘सुनता कौन यहाँ ब्राह्मण की, करते सब अपने मन की, ‘रण केवल इसलिए कि राजे और सुखी हों, मानी हों, ‘रण केवल इसलिए कि सत्ता बढ़े, नहीं पत्ता डोले, ‘अब तो है यह दशा कि जो कुछ है, वह राजा का बल है, ‘और कहे भी तो ब्राह्मण की बात कौन सुन पाता है? ‘सिर था जो सारे समाज का, वही अनादर पाता है। ‘जब तक भोगी भूप प्रजाओं के नेता कहलायेंगे, ‘कवि, कोविद, विज्ञान-विशारद, कलाकार, पण्डित, ज्ञानी, ‘तब तक पड़ी आग में धरती, इसी तरह अकुलायेगी, ‘रोक-टोक से नहीं सुनेगा, नृप समाज अविचारी है, ‘रोज कहा करते हैं गुरुवर, ‘खड्ग महाभयकारी है, ‘वीर वही है जो कि शत्रु पर जब भी खड्ग उठाता है, ‘जब-जब मैं शर-चाप उठा कर करतब कुछ दिखलाता हूँ, ‘मैं शंकित था, ब्राह्मा वीरता मेरे साथ मरेगी क्या, ‘जियो, जियो ब्राह्मणकुमार! तुम अक्षय कीर्ति कमाओगे, ‘किन्तु हाय! ‘ब्राह्मणकुमार’ सुन प्रण काँपने लगते हैं, ‘पर मेरा क्या दोष? हाय! मैं और दूसरा क्या करता, ‘हाय, कर्ण, तू क्यों जन्मा था? जन्मा तो क्यों वीर हुआ? ‘नहीं पूछता है कोई तुम व्रती, वीर या दानी हो? ‘मैं कहता हूँ, अगर विधाता नर को मुठ्ठी में भरकर, ‘कौन जन्म लेता किस कुल
में? आकस्मिक ही है यह बात, गुरु को लिए कर्ण चिन्तन में था जब मग्न, अचल बैठा, कर्ण विकल हो उठा, दुष्ट भौरे पर हाथ धरे कैसे, किन्तु, पाँव के हिलते ही गुरुवर की नींद उचट जाती, बैठा रहा अचल आसन से कर्ण बहुत मन को मारे, कर्ण झपट कर
उठा इंगितों में गुरु से आज्ञा लेकर, तनिक लजाकर कहा कर्ण ने, ‘नहीं अधिक पीड़ा मुझको, ‘निश्चल बैठा रहा, सोच, यह कीट स्वयं उड़ जायेगा, परशुराम गंभीर हो गये सोच न जाने क्या मन में, ‘सहनशीलता को अपनाकर ब्राह्मण कभी न जीता है, ‘तेज-पुञ्ज
ब्राह्मण तिल-तिल कर जले, नहीं यह हो सकता, ‘तू अवश्य क्षत्रिय है, पापी! बता, न तो, फल पायेगा, ‘सूत-पूत्र मैं शूद्र कर्ण हूँ, करुणा का अभिलाषी हूँ, ‘बड़ा लोभ था, बनूँ शिष्य मैं कार्त्तवीर्य के जेता का, ‘बता सका मैं नहीं इसी से प्रभो! जाति अपनी छोटी, ‘छल से पाना मान जगत् में किल्विष है, मल ही तो है, ‘करें भस्म ही मुझे देव! सम्मुख है मस्तक नत मेरा, ‘यह तृष्णा, यह विजय-कामना, मुझे छोड़ क्या पायेगी? ‘परशुराम का शिष्य कर्ण, पर, जीवन-दान न माँगेगा, लिपट गया गुरु के चरणों से विकल कर्ण इतना कहकर, ‘अब समझा, किसलिए रात-दिन तू वैसा श्रम करता था, ‘तूने जीत लिया था मुझको निज पवित्रता के बल से, ‘नहीं किया कार्पण्य, दिया
जो कुछ था मेरे पास रतन, ‘सूत-वंश में मिला सूर्य-सा कैसे तेज प्रबल तुझको? पद पर बोला कर्ण, ‘दिया था जिसको आँखों का पानी, परशुराम ने कहा-‘कर्ण! तू बेध नहीं मुझको ऐसे, ‘मान लिया था पुत्र, इसी से, प्राण-दान तो देता हूँ, कर्ण
विकल हो खड़ा हुआ कह, ‘हाय! किया यह क्या गुरुवर? परशुराम ने कहा- ‘कर्ण! यह शाप अटल है, सहन करो, ‘रहा नहीं ब्रह्मास्त्र एक, इससे क्या आता-जाता है? ‘तुम तो स्वयं दीप्त पौरुष हो, कवच और कुण्डल-धारी, ‘अब जाओ, लो विदा वत्स, कुछ कड़ा करो अपने मन को, ‘व्रत का, पर निर्वाह कभी ऐसे भी करना होता है। ‘आह, बुद्धि कहती कि ठीक था, जो कुछ किया, परन्तु हृदय, जाओ, जाओ कर्ण! मुझे बिलकुल असंग हो जाने दो इस प्रकार कह परशुराम ने फिरा लिया आनन अपना, परशुधर के चरण की धूलि लेकर, उन्हें, अपने हृदय की भक्ति देकर, 3. तृतीय सर्ग 1 सच है, विपत्ति जब आती है, मुख से न कभी उफ कहते हैं, है कौन विघ्न ऐसा जग में, गुण बड़े एक से एक प्रखर, पीसा जाता जब इक्षु-दण्ड, वसुधा का नेता कौन हुआ? जब विघ्न सामने आते हैं, वाटिका और वन एक नहीं, कङ्करियाँ जिनकी सेज सुघर, बढ़कर विपत्तियों पर छा जा, वर्षों तक वन में
घूम-घूम, मैत्री की राह बताने को, ‘दो न्याय अगर तो आधा दो, दुर्योधन वह भी
दे ना सका, हरि ने भीषण हुंकार किया, यह देख, गगन मुझमें लय है, ‘उदयाचल
मेरा दीप्त भाल, ‘दृग हों तो दृश्य अकाण्ड देख, ‘शत कोटि विष्णु, ब्रह्मा, महेश, ‘भूलोक, अतल, पाताल देख, ‘अम्बर में कुन्तल-जाल देख, ‘जिह्वा से कढ़ती ज्वाल सघन, ‘बाँधने मुझे तो आया है, ‘हित-वचन नहीं तूने माना, ‘टकरायेंगे नक्षत्र-निकर, ‘भाई पर भाई टूटेंगे, थी सभा सन्न, सब लोग डरे, 2 रथ चला परस्पर बात चली, “मैंने कितना कुछ कहा नहीं? “हे वीर ! तुम्हीं बोलो अकाम, “सोचो क्या दृश्य विकट होगा, “चिंता है, मैं क्या और करूं? “पा तुझे धन्य है दुर्योधन, “क्या अघटनीय घटना कराल? “माँ का सनेह पाया न कभी, “पर कौन दोष इसमें तेरा? “कुन्ती का तू ही तनय ज्येष्ठ, “पद-त्राण भीम पहनायेगा, “आहा ! क्या दृश्य सुभग होगा
! “रण अनायास रुक जायेगा, “कुरुराज्य समर्पण करता हूँ, सुन-सुन कर कर्ण अधीर
हुआ, “जब ध्यान जन्म का धरता हूँ, “सेवती मास दस तक जिसको, “हे कृष्ण आप
चुप ही रहिये, “पत्थर समान उसका हिय था, “माँ का पय भी न पीया मैंने, “मैं
जाती गोत्र से दीन, हीन, “मैं सूत-वंश में पलता था, “पा पाँच तनय फूली-फूली, “क्या पाँच पुत्र हो जाने पर, “कुन्ती जिस भय से भरी रही, “सहसा क्या हाल विचित्र हुआ, “मैं हुआ धनुर्धर जब नामी, “उस समय सुअंक लगा कर के, “हे कृष्ण ! ज़रा यह भी सुनिए, “अपना विकास अवरुद्ध देख, “कुन्ती ने केवल जन्म दिया, “राजा रंक से बना कर के, “है ऋणी कर्ण का रोम-रोम, “सच है मेरी है आस उसे, “रह साथ सदा खेला खाया, “मैं भी कुन्ती का एक तनय, “मैं ही न सहूंगा विषम डंक, “कोई भी कहीं न चूकेगा, “जो आज आप कह रहे आर्य, “लेकिन नौका तट छोड़ चली, “धर्माधिराज का ज्येष्ठ बनूँ, “सिर पर कुलीनता का टीका, “विक्रमी पुरुष लेकिन सिर पर, “कुल-जाति नही साधन मेरा, “लेकिन मैं लौट चलूँगा क्या? “जिस नर की बाह गही मैने, “मित्रता बड़ा अनमोल रतन, “सिर लिए स्कंध पर चलता हूँ, “सम्राट बनेंगे धर्मराज, “कुरूराज्य चाहता मैं कब हूँ? “धनराशि जोगना लक्ष्य नहीं, “वैभव विलास की चाह नहीं, “तुच्छ है, राज्य क्या है केशव? “मुझसे मनुष्य जो होते हैं, “प्रासादों के कनकाभ
शिखर, “होकर सुख-समृद्धि के अधीन, “चाँदनी पुष्प-छाया मे पल, “उड़ते
जो झंझावतों में, “मैं गरुड़ कृष्ण मै पक्षिराज, “संग्राम सिंधु लहराता है, “अब देर नही कीजै केशव, “पर, एक विनय है मधुसूदन, “साम्राज्य न कभी स्वयं लेंगे, “अच्छा अब चला प्रणाम आर्य, रथ से राधेय उतार आया, 4. चतुर्थ सर्ग प्रेमयज्ञ अति कठिन कुण्ड में कौन वीर बलि देगा ? पर जाने क्यों नियम एक अद्भुत जग में चलता है, और, वीर जो किसी प्रतिज्ञा पर आकर अड़ता है, पर, तब भी रेखा प्रकाश की जहाँ कहीं हँसती है, नरता का आदर्श तपस्या के भीतर पलता है, ‘प्रण करना है सहज, कठिन है लेकिन, उसे निभाना, सस्ती कीमत पर बिकती रहती जबतक कुर्बानी, जीवन का अभियान दान-बल से अजस्त्र चलता है, यह न स्वत्व का त्याग, दान तो जीवन का झरना है, ऋतु के बाद फलों का रुकना, डालों का सडना है। सरिता देती वारी कि पाकर उसे सुपूरित घन हो, दिखलाना
कार्पण्य आप, अपने धोखा खाना है, जो नर आत्म-दान से अपना जीवन-घट भरता है, व्रत का अंतिम मोल राम ने दिया, त्याग सीता को, ईसा ने संसार-हेतु शूली पर प्राण गँवा कर, हँसकर लिया मरण ओठों पर, जीवन का व्रत पाला, दान जगत का प्रकृत धर्म है, मनुज व्यर्थ डरता है, वीर कर्ण, विक्रमी, दान का अति अमोघ व्रतधारी, थी विश्रुत यह बात कर्ण गुणवान और ज्ञानी हैं, ‘नाहीं’
सुनी कहां, किसने, कब, इस दानी के मुख से, करते यों सत्कार कि मानों, हम हों नहीं भिखारी, युग-युग जियें कर्ण, दलितों के वे दुख-दैन्य-हरण हैं, और सत्य ही, कर्ण दानहित ही संचय करता था, फहर रही थी मुक्त चतुर्दिक यश की विमल पताका, तब कहते हैं, एक बार हटकर प्रत्यक्ष समर
से, एक दिवस जब छोड़ रहे थे दिनमणि मध्य गगन को, हँसती थीं रश्मियाँ रजत से भर कर वारि विमल को, विहग लता-वीरूध-वितान में तट पर चहक रहे थे, कहा कर्ण ने, “कौन उधर है? बंधु सामने आओ, ‘माँगो माँगो दान, अन्न या वसन, धाम या धन दूँ? ‘पर का दुःख हरण करने में ही अपना सुख माना, ‘अरे कौन हैं भिक्षु यहाँ पर और कौन दाता है? ‘दीनों का संतोष,
भाग्यहीनों की गदगद वाणी, ‘इससे बढ़कर और प्राप्ति क्या जिस पर गर्व करूँ मैं? गिरा गहन सुन चकित और मन-ही-मन-कुछ भरमाया, ‘नहीं फिराते एक बार जो कुछ मुख से कहते हैं, ‘लोग दिव्य शत-शत प्रमाण निष्ठा के बतलाते हैं, ‘ऐसा है तो मनुज-लोक, निश्चय, आदर पाएगा। ‘क्षुद्र पात्र हो मग्न कूप में जितना जल लेता है, कहा कर्ण ने, ‘वृथा भाग्य से आप डरे जाते हैं, ‘महाराज, उद्यम से विधि का अंक उलट जाता है, ‘आगे जिसकी नजर नहीं, वह भला कहाँ जाएगा? ‘मही डोलती और डोलता नभ मे देव-निलय भी, भली-भाँति कस कर दाता को, बोला नीच भिखारी, ‘मैं सब कुछ पा गया प्राप्त कर वचन आपके मुख से, ‘कहीं आप दे सके नहीं, जो कुछ मैं धन
माँगूंगा, ‘है सुकर्म, क्या संकट मे डालना मनस्वी नर को? ‘अतः विदा दें मुझे, खुशी से मैं वापस जाता हूँ।’ ‘भला कौन-सी वस्तु आप मुझ नश्वर से माँगेंगे, ‘या यदि साथ लिया चाहें जीवित, सदेह मुझको ही, ‘वचन माँग कर नहीं माँगना दान बड़ा अद्भुत है, सहम गया सुन शपथ कर्ण की, हृदय विप्र का डोला, ‘यह कुछ मुझको नहीं चाहिए, देव धर्म को बल दें, ‘समझा, तो यह
और न कोई, आप, स्वयं सुरपति हैं, ‘क्षमा कीजिए, इस रहस्य को तुरत न जान सका मैं, ‘केवल गन्ध जिन्हे प्रिय, उनको स्थूल मनुज क्या देगा? ‘अतः आपने जो माँगा है दान वही मैं दूँगा, ‘यह शायद, इसलिए कि अर्जुन जिए, आप सुख लूटे, ‘तनिक सोचिये, वीरों का यह योग्य समर क्या
होगा? ‘यह तो निहत शरभ पर चढ़ आखेटक पद पाना है, ‘देवराज! हम जिसे जीत सकते न बाहु के बल से, ‘और पार्थ यदि बिना लड़े ही जय के लिये विकल है, ‘जीत सकेगा मुझे नहीं वह और किसी विधि रण में, ‘मैं ही था अपवाद, आज वह भी विभेद हरता हूँ, ‘अब ना कहेगा जगत, कर्ण को ईश्वरीय भी बल था, ‘जन्मा जाने कहाँ, पला, पद-दलित सूत के कुल में, ‘और दान जिसके कारण ही हुआ ख्यात मैं जाग में, ‘सबको मिली स्नेह की छाया, नयी-नयी सुविधाएँ, ‘और कहें यदि पूर्व जन्म के पापों का यह फल है। ‘जिससे मिलता नहीं सिद्ध फल मुझे किसी भी व्रत का, ‘जाने क्या मेरी रचना में था उद्देश्य प्रकृति का? ‘फिर कहता हूँ, नहीं व्यर्थ राधेय यहाँ आया है, ‘वह करतब है यह कि शूर जो चाहे कर सकता है, ‘वह करतब है यह कि विश्व ही चाहे रिपु हो जाये, ‘वह करतब है
यह कि युद्ध मे मारो और मरो तुम, ‘देवराज! छल, छद्म, स्वार्थ, कुछ भी न साथ लाया हूँ, ‘मैं उनका आदर्श जिन्हें कुल का गौरव ताडेगा, ‘मैं उनका आदर्श, कहीं जो व्यथा न खोल सकेंगे, ‘मैं उनका आदर्श, किंतु, जो तनिक न घबरायेंगे, ‘श्रम से नही विमुख होंगे, जो दुख से नहीं डरेंगे, ‘भुज को छोड़ न मुझे सहारा किसी और सम्बल का, ‘यह लीजिए कर्ण का जीवन और जीत कुरूपति की, ‘जीवन देकर जय खरीदना, जग मे यही चलन है, ‘देवराज! जीवन में आगे और कीर्ति क्या लूँगा? ‘एक विनय है और, आप लौटें जब अमर भुवन को, ‘दो वीरों ने किंतु, लिया कर, आपस में निपटारा, चकित, भीत चहचहा उठे कुंजो में विहग बिचारे, अपना कृत्य विचार, कर्ण का
करतब देख निराला, ‘पाप हाथ से निकल मनुज के सिर पर जब छाता है, मगर, विशिख जो लगा कर्ण की बलि का आन हृदय में, ‘पुत्र! सत्य तूने पहचाना, मैं ही सुरपति हूँ, ‘क्या कह करूँ प्रबोध? जीभ काँपति, प्राण हिलते हैं, ‘नहीं जानता था कि छद्म इतना संहारक होगा, ‘तेरे माहतेज के आगे मलिन हुआ जाता हूँ, ‘तृण-सा विवश डूबता, उगता, बहता, उतराता हूँ, ‘हाँ, पड़ पुत्र-प्रेम में आया था छल ही करने को, ‘वंदनीय तू कर्ण, देखकर तेज तिग्म अति तेरा, ‘दीख रहा तू मुझे ज्योति के उज्ज्वल शैल अचल-सा, ‘खड़े दीखते जगन्नियता पीछे तुझे गगन में, ‘मही मग्न हो तुझे अंक में लेकर इठलाती है, ‘तू दानी, मैं कुटिल प्रवंचक, तू
पवित्र, मैं पापी, ‘देख न सकता अधिक और मैं कर्ण, रूप यह तेरा, ‘अतः कर्ण! कर कृपा यहाँ से मुझे तुरत जाने दो, कहा कर्ण ने, ‘धन्य हुआ मैं आज सभी कुछ देकर, देवराज बोले कि, ‘कर्ण! यदि धर्म तुझे छोड़ेगा, धर्म नहीं, मैने तुझसे से जो वस्तु हरण कर ली है, ‘तू माँगें कुछ नहीं, किन्तु मुझको अवश्य देना है, ‘एक बार ही मगर, काम तू इससे ले पायेगा, ‘दानवीर! जय हो, महिमा का गान सभी जन गाये, 5. पंचम सर्ग आ गया काल विकराल शान्ति के क्षय का, कल जैसे ही पहली मरीचि फूटेगी, जन-जन स्वजनों के
लिए कुटिल यम होगा, सुध-बुध खो, बैठी हुई समर-चिंतन में, ‘एक ही गोद के लाल, कोख के भाई, दो में जिसका उर फटे, फटूँगी मैं ही, ‘भगवान! सुनेगा कथा कौन यह मेरी? गांधारी महिमामयी, भीष्म गुरुजन हैं, यदि कहूँ युधिष्ठिर से यह मलिन कहानी, लेकिन कैसे उसके सम्मुख जाऊँगी? क्या समाधान होगा दुष्कृति के कर्म का? चिंताकुल उलझी हुई व्यथा में, मन से, उड़ती वितर्क-धागे पर, चंग-सरीखी, दिनमणि पश्चिम की ओर क्षितिज के ऊपर, राधेय सांध्य-पूजन में ध्यान लगाये, मानो, युग-स्वर्णिम-शिखर-मूल में आकर, या दो अर्चियाँ विशाल पुनीत अनल की, सुत की शोभा को देख मोद में फूली, आहट पाकर जब ध्यान कर्ण ने
खोला, “हैं आप कौन ? किसलिए यहाँ आयी हैं ? “सूना, औघट यह घाट, महा भयकारी, सुन गिरा गूढ़ कुन्ती का धीरज छूटा, “राधा का सुत तू नहीं, तनय मेरा है, “जिस तरह तीन पुत्रों को मैंने पाया, “पर, मैं कुमारिका थी, जब तू आया था, “बेटा, धरती पर बड़ी दीन है नारी, “उस पर भी बाल अबोध, काल बचपन का, “संयोग, सूतपत्नी ने तुझको पाला, “पर
एक बात सुन, जो कहने आयी हूँ, “उसमें न पाण्डवों के विरूद्ध हो लड़ तू, “यह विकट दृश्य मुझसे न सहा जायेगा, भागी थी तुझको छोड़ कभी जिस भय
से, “थी चाह पंक मन को प्रक्षालित कर लूँ, बाज़ी तो मैं हार चुकी कब हो ही, “पर पुत्र ! सोच अन्यथा न तू कुछ मन में, “जा भूल द्वेष के ज़हर, क्रोध के विष को, “नेता बन, कर में सूत्र समर का ले तू, “यह नहीं किसी भी छल का आयोजन है, “वह देख, पश्चिमी तट के पास गगन में, रूक पृथा पोंछने लगी अश्रु अंचल से, यह कह दिनेश चट उतर गये अम्बर से, डूबते सूर्य को नमन निवेदित करके, “क्या तुम्हें कर्ण से काम ? सुत है वह तो, “मैं नाम-गोत्र से हीन, दीन, खोटा हूँ “है कथा
जन्म की ज्ञात, न बात बढ़ाओ “सह विविध यातना मनुज जन्म पाता है, “मुख चूम जन्म की क्लान्ति हरण करती है, “उल्टे, मुझको असहाय छोड़ कर जल में, “क्या कोर-कसर तुमने कोई भी की थी ? “अब जब सब-कुछ हो चुका, शेष दो क्षण हैं, “अपना खोया संसार न तुम पाओगी, “उसको सेवा, तुमको सुकीर्ति प्यारी है, “उमड़ी न स्नेह की उज्जवल धार हृदय से, “तुमने जनकर भी नहीं पुत्र कर जाना, “अर्जुन की जननी ! मुझे न कोई दुख है, “आचरण तुम्हारा उचित या कि अनुचित था, “अज्ञातशीलकुलता का विघ्न न माना, “जन्मा लेकर अभिशाप, हुआ
वरदानी, “पर हाय, हुआ ऐसा क्यों वाम विधाता ? “मर गयी नहीं वह स्वयं, मार सुत को ही, “था कौन लोभ, थे अरमान हृदय में, “सम्मान मिले, यश बढ़े वधूमण्डल में, “सो धन्य हुईं तुम देवि ! सभी कुछ पा कर, “उनकी पोथी में भी कुछ लेखा होगा, “फिर उसका होना मग्न अनेक सुखों में, “जग की आँखों से अपना भेद छिपाकर, “पर, हँसते कहीं अदृश्य जगत् के स्वामी, “यदि इस पट पर का चित्र नहीं उज्जवल हो, “पर, हाय, न तुममें भाव धर्म के जागे, “विधि का पहला वरदान मिला जब तुमको, “सुन लो, समाज के प्रमुख
धर्म-ध्वज-धारी, “पर, मैं न प्राण की इस मणि को छोडूँगी, “सोचो, जग होकर कुपित दण्ड क्या देता, “शायद, समाज टूटता वज्र बन तुम पर, “पर, सह विपत्ति की मार अड़ी रहतीं तुम, “भोगतीं राजसुख रह कर नहीं महल में, “मैं बड़े गर्व से चलता शीश उठाये, “पर, अब सब कुछ हो चुका, व्यर्थ रोना है, “छीना था जो सौभाग्य निदारूण होकर, “खोला न गूढ़ जो भेद कभी जीवन में, “पय से वंचित, गोदी से निष्कासित कर, “है वृथा यत्न हे देवि ! मुझे पाने का, “यद्यपि जीवन की कथा कलंकमयी है, “जानें, सहसा तुम सबने क्या पाया है, “मैं खूब समझता हूँ कि नीति यह क्या है, “सिर पर आकर जब हुआ उपस्थित रण है, “अन्यथा, स्नेह की
वेगमयी यह धारा, “केशव पर चिन्ता डाल, अभय हो रहना, “लेकिन, यह होगा नहीं, देवि ! तुम जाओ, “कुरूपति का मेरे रोम-रोम पर ऋण है, “हो चुका धर्म के ऊपर न्यौछावर हूँ, राधेय मौन हो रहा व्यथा निज कह के, अम्बर पर मोती-गुथे चिकुर फैला कर, थी दिशा स्तब्ध, नीरव समस्त अग-जग था, इस सन्नाटे में दो जन सरित-किनारे, क्या कहे और, यह सोच नहीं पाती थी, “पर के प्रसून को नहीं, नहीं पर-धन को, “तब जाती हूँ क्या और सकूँगी कर मैं ? बेटा ! सचमुच ही, बड़ी पापिनी हूँ मैं, “तब भी
मैंने ताड़ना सुनी जो तुझसे, “अब भी मन पर है खिंची अग्नि की रेखा, “वह टुकुर-टुकुर कातर अवलोकन तेरा, “लज्जित होकर तू वृथा वत्स ! रोता है, “धिक्कार, ग्लानि, कुत्सा पछतावे को ही, “पर कदम उठा पायी न ग्लानि में भरकर, “तब किसी तरह हिम्मत समेट कर सारी, “इसलिए शक्तियाँ मन की सभी सँजो कर, “सो बता दिया, बेटा किस माँ का तू है, “कढ़ गयी कलक जो कसक रही थी मन में, “अभिलाष लिये तो बहुत बड़ी आयी थी, “थी विदित वत्स ! तेरी कीर्ति निराली, “फिर भी तू जीता रहे, न अपयश जाने, “ममता जमकर हो गयी शिला जो मन में, “कुरूकुल की रानी नहीं, कुमारी नारी- “इस आत्म-दाह पीड़िता विषण्ण कली को, माँ ने बढ़कर जैसे ही कण्ठ लगाया, पहली वर्षा में मही भींगती जैसे, पर, हाय, स्वत्व मेरा न समय पर लायीं, “की पूर्ण सभी की, सभी तरह अभिलाषा, ‘केवल निमित्त संगर का दुर्योधन है, “विष तरह-तरह का हँसकर पीता आया, “आ गयी घड़ी वह प्रण पूरा करने की, “अर्जुन से लड़ना छोड़ कीर्ति क्या लूँगा ? “तुम दान-दान रट रहीं, किन्तु, क्यों माता, “मैं एक कर्ण अतएव, माँग लेता हूँ, “पर,
अन्य पाण्डवों पर मैं कृपा करूँगा, कुन्ती बोली, “रे हठी, दिया क्या तू ने ? “पाकर न एक को, और एक को खोकर, “जीते जी भी यह समर झेल दुख भारी, “कुरूपति न जीत कर निकला अगर समर से, “पर, कहीं काल का कोप पार्थ पर बीता, “जग में जो भी निर्दलित, प्रताड़ित जन हैं, “सच है कि पाण्डवों को न राज्य का सुख है, “हाँ अगर पाण्डवों की न चली इस रण में, “है अभी उदय का लग्न, दृश्य सुन्दर है, “यश, मान, प्रतिष्ठा, मुकुट नहीं लेने को, “भीषण विपत्ति में उन्हें जननि ! अपनाकर, “पर नहीं, कृष्ण के कर की छाँह जहाँ है, “मैं देख रहा हूँ कुरूक्षेत्र के रण को, “हैं काट रहे हरि आप तिमिर की कारा, “मैं देख रहा हूँ जननि ! कि कल क्या होगा, “बज चुका काल का पटह, भयानक क्षण है, “कुछ भी न बचेगा शेष अन्त में जाकर, “है एक पन्थ कोई जीत या हारे, “निस्सार द्रोह की
क्रिया, व्यर्थ यह रण है, “जीवन-सरिता की बड़ी अनोखी गति है, “फिर लहर, धार, बुद्बुद् की नहीं निशानी, “सो इसी पुण्य-भू कुरूक्षेत्र में कल से, “आपस में हों हम खरे याकि हों खोटे, “लेकिन, चिन्ता यह वृथा, बात जाने दो, “चन्द्रमा-सूर्य तम में जब छिप जाते हैं, हो रहा मौन राधेय चरण को छूकर, 6. षष्ठ सर्ग नरता कहते हैं जिसे, सत्तव है वन्दनीय नर कौन
? विजय-हित आकुल अन्तर की आह मनुज की यह ज़हर ने छोड़ेगा उभार ? इस विस्मय का क्या समाधान ? हाँ, नर के मन का सुधाकुण्ड थोड़ी-सी भी यह सुधा मनुज का पाण्डव यदि पाँच ग्राम “तुम भड़काना चाहते अनल “लो सुखी रहो, सारे पाण्डव शत लक्ष मानवों के सम्मुख “होकर कृतज्ञ आनेवाला युग पर, नहीं,
विश्व का अहित नहीं सबकी पीड़ा के साथ व्यथा द्वापर की कथा बड़ी दारूण, धीमी कितनी गति है ? विकास अनगढ़ पत्थर से लड़ो, लड़ो ये तो साधन के भेद, किन्तु देवत्व अल्प, पशुता अथोर, औ’ जिस प्रकार हम आज बेल- बस, इसी तरह, कहता होगा सो, धर्मयुद्ध छिड़ गया, स्वर्ग हाँ, धर्मक्षेत्र इसलिए कि बन्धन 2 कुरूकुल का दीपित ताज गिरा, रो-धो कर तेज नया चमका, राधेय, किन्तु जिनके कारण, छू भीष्मदेव के चरण युगल, “आज्ञा हो तो अब धनुष धरूँ, “अनुचर के दोष क्षमा करिये, भीष्म ने खोल निज सजल नयन, “मैं रहा रोकता ही क्षण-क्षण, “अब कहो, आज क्या होता है ? “फूटता द्रोह-दव का पावक, “इसलिए, पुत्र ! अब भी
रूककर, “ओ मेरे प्रतिद्वन्दी मानी ! “सो भी इसलिए कि दुर्योधन, “पार्थोपम रथी, धनुर्धारी, “पर हाय, वीरता का सम्बल, “चल सके सुयोधन पर यदि वश, “जा कहो वीर दुर्योधन से, “हे पुरूष सिंह !” कर्ण ने कहा, “जय मिले बिना विश्राम नहीं, “कल तक था पथ शान्ति का सुगम, “हे महाभाग, कुछ दिन जीकर, करने दीजिये स्वव्रत पालन, गांगेय निराशा में भर कर, भीष्म का चरण-वन्दन करके, पाकर प्रसन्न आलोक नया, सेना समग्र हुकांर उठी, सागर-सा गर्जित, क्षुभित घोर, झंझा की घोर झकोर चली, प्लावन का पा दुर्जय प्रहार, सब रथी व्यग्र बिललाते थे, “दे अचिर सैन्य का अभयदान, “बड़वानल, यम या कालपवन, बाणों का अप्रतिहत प्रहार, ‘यह महामत्त मानव-कुञ्जर, ‘अर्जुन ! विलम्ब पातक होगा, केशव का सिंह दहाड़ उठा, एक ही वृम्त के को कुड्मल, एक की
कुक्षि के दो कुमार, अन्धड़ बन कर उन्माद उठा, लेकिन, था कौन, हृदय जिसका, केवल अलात का घूर्णि-चक्र, था किया भीष्म पर पाण्डव ने, अर्जुन-कुमार की कथा, किन्तु सुत के वध की सुन कथा पार्थ का, तब कहते हैं अर्जुन के हित, हाँ, यह भी हुआ कि सात्यकि से, है वृथा धर्म का किसी समय, है धर्म पहुँचना नहीं, धर्म तो इसलिए, ध्येय में नहीं, धर्म तो हो जिसे धर्म से प्रेम कभी संग्राम धर्मगुण का विशेष्य मानेगा यह दंष्ट्री कराल साधना को भूल सिद्धि पर जब उतनी ही पीड़ा हमें नहीं, चलता हो अन्ध ऊध्र्व-लोचन, वासना-वह्नि से जो निकला, फिर क्या विस्मय, कौरव-पाण्डव इस विजय-द्वन्द्व के बीच युद्ध के था कौन, देखकर उन्हें समर में संग्राम-बुभुक्षा से पीडि़त, संघटित या कि उनचास मरूत बाणों पर बाण सपक्ष उड़े, जन-जन के जीवन पर कराल, “है कहाँ पार्थ ? है कहाँ पार्थ
?” “हो छिपा जहाँ भी पार्थ, सुने, पर, चतुर पार्थ-सारथी आज, नटनागर ने इसलिए, युक्ति का “यह देख, कर्ण की विशिख-वृष्टि “यदि इसी भाँति सब लोग फूटे ज्यों वह्निमुखी पर्वत, है कथा, दानवों के कर में लेकिन, अजस्त्र-शर-वृष्टि-निरत, जब किसी तरह भी नहीं रूद्ध, “हे वीर ! विलपते हुए सैन्य का, सुन सहम उठा राधेय, मित्र की रहता आया था मुदित कर्ण वह काल-सर्पिणी की जिह्वा, कर्ण ने भाग्य को ठोंक उसे, पा धमक, धरा धँस उछल पड़ी, सारी सेना थी चीख रही, लेकिन समर को जीत कर, हारी हुई पाण्डव-चमू में हँस रहे भगवान् थे, क्या भाग्य का आघात है ;! मगर, यह कर्ण की जीवन-कथा है, 7. सप्तम सर्ग 1 संभाले शीश पर आलोक-मंडल खगों का स्पर्श से कर पंख-मोचन मगर, नर बुद्धि-मद से चूर होकर, मनुज विभ्राट् ज्ञानी हो चुका है, विभा नर को नहीं भरमायगी यह है ? महाभारत
मही पर चल रहा है, पुरुष की बुद्धि गौरव खो चुकी है, मरे अभिमन्यु अथवा भीष्म टूटें, मगर, पत्थर हुआ मानव- हृदय है, पड़े सबको लिये पाण्डव पतन में, नहीं थोड़े बहुत का मेद मानो, नमन उनको, गये जो स्वर्ग मर कर, जगा लो वह निराशा छोड़ करके, बहुत धुधुआ चुकी, अब आग फूटे, उन्हें पुंजित करो, आकार दो हे ! मही का सूर्य होना चाहता हूँ, भुजा की थाह
पाना चाहता हूँ, ग्रहों को खींच लाना चाहता हूँ, समूचा सिन्धु पीना चाहता हूँ, असंभव कल्पना साकार होगी, चरण का भार लो, सिर पर सँभालो; न कर छल-छद्म से आघात फूलो, अरी, यों भागती कबतक चलोगी ? अभी भी सत्त्व है उद्दाम तुमसे, कहाँ तक शक्ति से वंचित करोगी ? कवच-कुण्डल गया; पर, प्राण तो हैं, समर की सूरता साकार हूँ मैं, तपस्याओ ! उठो, रण में गलो तुम, कहाँ हो पुण्य ? बाँहों में भरो तुम, उगी हों ज्योतियां यदि दान से भी, हृदय से पूजनीया मान करके, समर
में तो हमारा वर्म हो वह, प्रवंचित हूँ, नियति की दृष्टि में दोषी बड़ा हूँ, मगर, राधेय का स्यन्दन नहीं तब भी रुकेगा, बचा कर पाँव धरना, थाहते चलना समर को, प्रकट होना विपद के बीच में प्रतिवीर हो जब, समझ में कुछ न आता, कृष्ण क्या सिखला रहे हैं, यही धर्मिष्ठता ? नय-नीति का पालन यही है ? करें भगवान जो चाहें, उन्हें सब क्वा क्षमा है, डिगाना घर्म क्या इस चार बित्त्रों की मही को ? नहीं राधेय सत्पथ छोड़ कर अघ-ओक लेगा, जगी, वलिदान की पावन शिखाओ, मचे भूडोल प्राणों के महल में, चलें अचलेश, पारावार डोले; अनूठा कर्ण का रण आज होगा, विशिख जब छोड़ कर तरकस चलेगा, बना आनन्द उर में छा रहा है, अहा ! भावस्थ होता जा रहा हूँ, 2 हेषा रथाश्व की, चक्र-रोर,
दन्तावल का वृहित अपार, तालोच्च-तरंगावृत बुभुक्षु-सा लहर उठा संगर-समुद्र, अङगार-वृष्टि पा धधक उठ जिस तरह शुष्क कानन का तृण, भागने लगे नरवीर छोड वह दिशा जिधर भी झुका कर्ण, काटता हुआ रण-विपिन क्षुब्ध, राधेय गरजता था क्षण-क्षण । गरजा अशङक हो कर्ण, ‘शल्य ! देखो कि आज क्या करता हूं, इतने में कुटिल नियति-प्रेरित पड ग़ये सामने धर्मराज, भागे वे रण को छोड, क़र्ण ने झपट दौडक़र गहा ग्रीव, ‘हैं विप्र आप, सेविये धर्म, तरु-तले कहीं, निर्जन वन में, भागे विपन्न हो समर छोड ग्लानि में
निमज्जित धर्मराज, समझे न हाय, कौन्तेय ! कर्ण ने छोड दिये, किसलिए प्राण, कितना पवित्र यह शील ! कर्ण जब तक भी रहा खडा रण में, देखता रहा सब श्लय, किन्तु, जब इसी तरह भागे पवितन, ‘संग्राम विजय तू इसी तरह सन्ध्या तक आज करेगा क्या ? हंसकर बोला राधेय, ‘शल्य, पार्थ की भीति उसको होगी, ‘पर ग्रास छीन अतिशय बुभुक्षु, अपने इन बाणों के मुख से, ‘सब आंख मूंद कर लडते हैं, जय इसी लोक में पाने को, यह देह टूटने वाली है, इस मिट्टी का कब तक प्रमाण ? ये चार फुल हैं मोल किन्हीं कातर नयनों के पानी के, ‘समझोगे नहीं शल्य इसको, यह करतब नादानों का हैं, समझा न, सत्य ही, शल्य इसे, बोला ‘प्रलाप यह बन्द करो, ‘क्या वेगवान हैं अश्व ! देख विधुत् शरमायी जाती है, पार्थ को देख उच्छल-उमंग-पूरित उर-पारावार हुआ, ‘जिस दिन के लिए किये आये, हम दोनों वीर अथक साधन, ‘पर, सावधान, इस मिलन-बिन्दु से अलग नहीं होना होगा, कर्ण का देख यह दर्प पार्थ का, दहक उठा
रविकान्त-हृदय, यह कह अर्जुन ने तान कान तक, धनुष-बाण सन्धान किया, बोला, ‘शाबाश, वीर अर्जुन ! यह खूब गहन सत्कार रहा; ‘अब लो मेरा उपहार, यही यमलोक तुम्हें पहुंचायेगा, संभलें जब तक भगवान्, नचायें इधर-उधर किञ्चित स्यन्दन, पर नहीं, मरण का तट छूकर, हो उठा अचिर अर्जुन प्रबुध्द; इस ओर कर्ण र्मात्तण्ड-सदृश, उस ओर पार्थ अन्तक-समान, है कथा, नयन का लोभ नहीं, संवृत कर सके स्वयं सुरगण, अहा ! यह युग्म दो अद्भुत नरों का, परस्पर हो कहीं यदि एक पाते, मनुज की जाति का पर शाप है यह, नहीं हिलमिल विपिन को प्यार करते, चलेगी यह जहर की क्रान्ति कबतक ? विकृति जो प्राण में अंगार भरती, हलाहल का शमन हम खोजते हैं, किया कुंचित, विवेचन व्यस्त नर का, चल रहा महाभारत का रण, गत्वर, गैरेय, सुघर भूधर-से इतने में शर के कर्ण ने देखा जो अपना निषङग, ‘बस, एक बार कर कृपा धनुष पर चढ शरव्य तक जाने दे, राधेय जरा हंसकर बोला, ‘रे कुटिल! बात क्या कहता है ? ‘तेरी सहायता से जय तो मैं
अनायास पा जाऊंगा, ‘रे अश्वसेन ! तेरे अनेक वंशज हैं छिपे नरों में भी, ‘ऐसा न हो कि इन सांपो में मेरा भी उज्ज्वल नाम चढे । ‘अगला जीवन किसलिए भला, तब हो द्वेषान्ध बिगाडं मैं ? काकोदर को कर विदा कर्ण, फिर बढ़ा समर में गर्जमान, पाण्डव-सेना भयभीत भागती हुई जिधर भी जाती थी; ‘अर्जुन ! देखो, किस तरह कर्ण सारी सेना पर टूट रहा, ‘कैसी करालता ! क्या लाघव !
कितना पौरुष ! कैसा प्रहार ! ‘इस पुरुष-सिंह का समर देख मेरे तो हुए निहाल नयन, औ’ देख चरम वीरता आज तो यही सोचता हूं मन में, ‘यह नहीं देह का बल केवल, अन्तर्नभ के भी विवस्वान्, ‘कर रहा काल-सा घोर समर, जय का अनन्त विश्वास लिये, ‘अर्जुन ! तुम भी अपने समस्त विक्रम-बल का आह्वान करो, दिनमणि पश्चिम की ओर ढले देखते हुए संग्राम घोर, ‘क्या धमकाता है काल ? अरे,
आ जा, मुट्ठी में बन्द करूं । ‘हो शास्त्रों का झन-झन-निनाद, दन्तावल हों चिंग्घार रहे, ‘संहार देह धर खड़ा जहां अपनी पैंजनी बजाता हो, समझ में शल्य की कुछ भी न आया, अगम की राह, पर, सचमुच, अगम है, रहा दीपित सदा शुभ धर्म जिसका, क्षुधा जागी उसी की हाय, भू को, लगाया जोर अश्वों ने न थोडा, ‘बडी राधेय ! अद्भुत बात है यह । ‘निकाले से निकलता ही नहीं है, हँसा राधेय कर कुछ याद मन में, ‘मगर, है ठीक, किस्मत ही फंसे जब, उछलकर कर्ण स्यन्दन से उतर कर, मही
डोली, सलिल-आगार डोला, विपद में कर्ण को यों ग्रस्त पाकर, ‘शरासन तान, बस अवसर यही है, श्रवण कर विश्वगुरु की देशना यह, ‘नरोचित, किन्तु, क्या यह कर्म होगा ? ‘कहूं जो, पाल उसको, धर्म है यह । भला क्यों पार्थ कालाहार होता ? लगा राधेय को शर मारने
वह, विशिख सन्धान में अर्जुन निरत था, नहीं जब पार्थ को देखा सुधरते, ‘नरोचित धर्म से कुछ काम तो लो ! ‘रुको तब तक, चलाना बाण फिर तुम; ‘कलकिंत नाम मत अपना करो तुम, ‘भुवन की जीत मिटती है भुवन में, उपस्थित देख यों न्यायार्थ अरि को, ‘प्रलापी ! ओ उजागर धर्म वाले ! ‘हलाहल भीम को जिस दिन पड़ा था, ‘सभा में द्रौपदी की खींच लाके, ‘नहीं वह और कुछ, सत्कर्म ही था, ‘चले वनवास को तब धर्म था वह, ‘बडे पापी हुए जो ताज मांगा, ‘हमीं धर्मार्थ क्या दहते रहेंगे ? ‘न दी क्या यातना इन कौरवों ने ? ‘किये का जब उपस्थित फल हुआ है, ‘शिथिल कर पार्थ ! किंचित् भी न मन तू । हंसा राधेय, ‘हां अब देर भी क्या ? थके बहुविध स्वयं ललकार करके, शरों से मृत्यु झड़ कर छा रही है, जरा तो पूछिए, वह क्यों डरी है ? जरा बढ़ पीठ पर निज पाणि धरिए, ‘कहा जो आपने, सब कुछ सही है, ‘वृथा है पूछना किसने किया क्या, ‘उन्होंने
कौन-सा अपधर्म छोडा ? ‘शिखण्डी को बनाकर ढाल अर्जुन, ‘हुआ सात्यकि बली का त्राण जैसे, ‘कथा अभिमन्यु की तो बोलते हैं, ‘पतन पर दूर पाण्डव जा चुके है, ‘वृथा है पूछना, था दोष किसका ? जहर की कीच में ही आ गये जब, ‘सुयोधन को मिले जो फल किये
का, ‘अभी पातक बहुत करवायेगी वह, ‘सुयोधन पूत या अपवित्र ही था, ‘नहीं किञ्चित् मलिन अन्तर्गगन है, ‘वधूजन को नहीं रक्षण दिया क्यों ? ‘विजय दिलवाइये केशव! स्वजन को, ‘मही! लै सोंपता हूं आप रथ मैं, ‘महानिर्वाण का क्षण आ रहा
है, नया आलोक-स्यन्दन आ रहा है; ‘रचा मैनें जिसे निज पुण्य-बल से, दया से, दान से, निष्ठा अचल से; ‘अहा!
आलोक-स्यन्दन आन पहुंचा, ‘प्रभा-मण्डल! भरो झंकार, बोलो ! गगन में बध्द कर दीपित नयन को, गिरा मस्तक मही पर छिन्न होकर ! उठी कौन्तेय की जयकार रण में, फिरे आकाश से सुरयान सारे, अनिल मंथर व्यथित-सा डोलता था, मगर, कर भंग इस निस्तब्ध लय को, युधिष्ठिर प्राप्त कर निस्तार भय से, कहा, ‘केशव ! बडा था त्रास मुझको, ‘इसी के त्रास में अन्तर पगा था, ‘बली योध्दा बडा विकराल था वह ! ‘मिला कैसे समय निर्भीत है यह ? उदासी में भरे भगवान् बोले, ‘विजय, क्या जानिये, बसती कहां है ? ‘हुआ जानें नहीं, क्या आज रण में ? ‘समस्या शील की, सचमुच गहन है । ‘मगर, जो हो, मनुज सुवरिष्ठ था वह । ‘हृदय का निष्कपट, पावन क्रिया का, ‘किया किसका नहीं कल्याण उसने ? ‘उगी थी ज्योति जग को तारने को । ‘दया कर शत्रु को भी त्राण देकर, ‘युधिष्ठिर! भूलिये, विकराल था वह, ‘समझ कर द्रोण मन में भक्ति भरिये, सुमित्रानंदन पंत की प्रथम कविता कौन सी है?वीणा (1918, पन्त जी की प्रथम काव्यकृति, इसे कवि ने 'तुतली बोली में एक बालिका का उपहार' कहा है।)
बादल कविता के कवि कौन है?सुमित्रानंदन पंत की लोकप्रिय कविता : बादल
मौन निमंत्रण कविता किसकी है?मौन-निमन्त्रण / सुमित्रानंदन पंत
पल्लव के लेखक का नाम क्या है?सुमित्रानन्दन पन्तपल्लव कविता संग्रह / लेखकnull
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