तत्सत इस पाठ में भयानक जंतु का नाम क्या था *? - tatsat is paath mein bhayaanak jantu ka naam kya tha *?

विषयसूची

  • 1 भयानक जंतु का नाम क्या है?
  • 2 बड़े दादा की छाँह में कौन कौन बैठे थे?
  • 3 बडे दादा के अनुसार आदमी कैसे होते है?
  • 4 तत्सत कहानी में साॅंप किसका प्रतीक बनकर आया है *?
  • 5 तत्सत का मतलब क्या है?

भयानक जंतु का नाम क्या है?

इसे सुनेंरोकें”डायनासोर” शब्द को 1842 में सर रिचर्ड ओवेन ने गढ़ा था और इसके लिए उन्होंने ग्रीक शब्द δεινός (डीनोस) “भयानक, शक्तिशाली, चमत्कारिक” + σαῦρος (सॉरॉस) “छिपकली” को प्रयोग किया था।

ये लोग इतने ही ओछे रहते हैं ऊँचे नहीं उठते क्यों दादा प्रस्तुत कथन किसने कहा है शीशम बबूल बरगद घास?

इसे सुनेंरोकेंतत्सत् | जैनेन्द्र की कहानी | Tatsat – Hindi story by Jainendra.

बड़े दादा की छाँह में कौन कौन बैठे थे?

इसे सुनेंरोकेंएक ने कहा, आह, कैसा भयानक जंगल है। दूसरे ने कहा, और कितना घना! इसी तरह कुछ देर बात करके और विश्राम करके वे शिकारी आगे बढ़ गए। उनके चले जाने पर पास के शीशम के पेड़ ने बड़ से कहा, बड़ दादा, अभी तुम्हारी छाँह में ये कौन थे?

तत्सत कहानी की विधा कौन सी है?

इसे सुनेंरोकेंतत्सत विधा-परिचय : गद्य साहित्य की सबसे प्रिय तथा रोचक विधा ‘कहानी’ को माना जाता है। जीवन का यथार्थ और मानवीय संवेदनाओं का चित्रण कहानी में होता है। मनोरंजन के साथ-साथ, जीवन में व्याप्त कुप्रथा, गलत रूढ़ियाँ तथा आडंबरों (ostentatious) का पर्दाफाश करते हुए एक नए समाज की स्थापना करना यह उसका हेतु है।

बडे दादा के अनुसार आदमी कैसे होते है?

इसे सुनेंरोकेंबड़दादा के अनुसार आदमी में जड़ें नहीं होती। बड़दादा के अनुसार आदमी में तना ही तना है अर्थात वे अपने-अपने तने की दो शाखाओं पर ही चलते चले जाते हैं। बड़ दादा ने आदमी की तुलना एक वृक्ष से की है, इसीलिए ऐसा कहा। बड़दादा के अनुसार आदमी एक ऐसा पत्ता हीन, जड़हीन वृक्ष है, जो केवल तनों के सहारे टिका है।

तत्सत इस पाठ के लेखक कौन है?

इसे सुनेंरोकेंतत्सत’ पाठ के लेखक जैनेंद्र हैं.

तत्सत कहानी में साॅंप किसका प्रतीक बनकर आया है *?

इसे सुनेंरोकेंसाँप किसका प्रतीक है? साँप मुख्य रूप से कायरता का प्रतीक है क्योंकि इतनी बड़ी धरती व उसकी गुफा के आसपास सुंदर वातावरण होने पर भी उसके मन में किसी प्रकार की कोई चाह नहीं, जीवन का कोई लक्ष्य नहीं। अपने द्वारा ही बनाए गए सीमित दायरे में रहकर परतंत्रता का जीवन जीने पर भी अपने आपको सुखी व खुश मानता है।

तत्सत किसकी रचना है?

तत्सत का मतलब क्या है?

इसे सुनेंरोकेंतत्सत शब्द का शाब्दिक अर्थ है, शाश्वत सत्य अर्थात वह शाश्वत सत्य ही तत्सत है।

तत्सत निबंध में बड़ दादा किसका प्रतीक है *?

इसे सुनेंरोकेंबड़ की शाखाओं से जड़ें निकलकर हवा में लटकती हैं तथा बढ़ती हुई धरती में घुस जाती हैं। इसकी विशालता के कारण इसकी छाया में अनगिनत पशु-पक्षी, जीव-जंतु आश्रय लेते हैं। यह सभी से प्रेम करते हैं। वन में सभी उसे बड़ दादा के नाम से पुकारते हैं।

एक गहन वन में दो शिकारी पहुँचे। वे पुराने शिकारी थे। शिकार की टोह में दूर-दूर घूम रहे थे, लेकिन ऐसा घना जंगल उन्हें नहीं मिला था। देखते ही जी में दहशत होती थी। वहाँ एक बड़े पेड़ की छाँह में उन्होंने वास किया और आपस में बातें करने लगे।

एक ने कहा, “आह, कैसा भयानक जंगल है।”

दूसरे ने कहा, “और कितना घना!”

इसी तरह कुछ देर बात करके और विश्राम करके वे शिकारी आगे बढ़ गए।

उनके चले जाने पर पास के शीशम के पेड़ ने बड़ से कहा, “बड़ दादा, अभी तुम्हारी छाँह में ये कौन थे? वे गए?”

बड़ ने कहा, “हाँ गए। तुम उन्हें नहीं जानते हो?”

शीशम ने कहा, “नहीं, वे बड़े अजब मालूम होते थे। कौन थे, दादा?”

दादा ने कहा, “जब छोटा था, तब इन्हें देखा था। इन्हें आदमी कहते हैं। इनमें पत्ते नहीं होते, तना ही तना है। देखा, वे चलते कैसे हैं? अपने तने की दो शाखों पर ही चलते चले जाते हैं।”

शीशम – “ये लोग इतने ही ओछे रहते हैं, ऊँचे नहीं उठते, क्यों दादा?”

बड़ दादा ने कहा, “हमारी-तुम्हारी तरह इनमें जड़ें नहीं होतीं। बढ़ें तो काहे पर? इससे वे इधर-उधर चलते रहते हैं, ऊपर की ओर बढ़ना उन्हें नहीं आता। बिना जड़, न जाने वे जीते किस तरह हैं!”

इतने में बबूल, जिसमें हवा साफ़ छनकर निकल जाती थी, रुकती नहीं थी और जिसके तन पर काँटे थे, बोला, “दादा, ओ दादा, तुमने बहुत दिन देखे हैं। बताओ कि किसी वन को भी देखा है? ये आदमी किसी भयानक वन की बात कर रहे थे। तुमने उस भयावने वन को देखा है?”

शीशम ने कहा, “दादा, हाँ, सुना तो मैंने भी था। वह वन क्या होता है?”

बड़ दादा ने कहा, “सच पूछो तो भाई, इतनी उमर हुई, उस भयावने वन को तो मैंने भी नहीं देखा। सभी जानवर मैंने देखे हैं। शेर, चीता, भालू, हाथी, भेड़िया। पर वन नाम के जानवर को मैंने अब तक नहीं देखा।”

एक ने कहा, “मालूम होता है, वह शेर-चीतों से भी डरावना होता है।”

दादा ने कहा, “डरावना जाने तुम किसे कहते हो? हमारी तो सबसे प्रीति है।”

बबूल ने कहा, “दादा प्रीति की बात नहीं हैं। मैं तो अपने पास काँटे रखता हूँ। पर वे आदमी वन को भयावना बताते थे। ज़रूर वह शेर-चीतों से बढ़कर होगा।”

दादा, “सो तो होता ही होगा। आदमी एक टूटी-सी टहनी से आग की लपट छोड़कर शेर-चीतों को मार देता है। उन्हें ऐसे करते अपने सामने हमने देखा है। पर वन की लाश हमने नहीं देखी। वह ज़रूर कोई बड़ा ख़ौफ़नाक जीव होगा।”

इसी तरह उनमें बातें होने लगीं। वन को उनमें में कोई नहीं जानता था। आस-पास के और पेड़ साल, सेमर, सिरस उस बात-चीत में हिस्सा लेने लगे। वन को कोई मानना नहीं चाहता था। किसी को उसका कुछ पता नहीं था। पर अज्ञात भाव से उसका डर सबको था। इतने में पास ही जो बाँस खड़ा था और जो ज़रा हवा चलने पर खड़-खड़ सन्-सन् करने लगता था, उसने अपनी जगह से ही सीटी-सी आवाज़ देकर कहा, “मुझे बताओ, मुझे बताओ, क्या बात है। मैं पोला हूँ। मैं बहुत जानता हूँ।”

बड़ दादा ने गम्भीर वाणी से कहा, “तुम तीखा बोलते हो। बात यह है कि बताओ तुमने वन देखा है? हम लोग सब उसको जानना चाहते हैं।”

बाँस ने रीती आवाज़ से कहा, “मालूम होता है, हवा मेरे भीतर के रिक्त में वन-वन-वन ही कहती हुई घूमती रहती है। पर ठहरती नहीं। हर घड़ी सुनता हूँ, वन है, वन है। पर मैं उसे जानता नहीं हूँ। क्या वह किसी को दीखा है?”

बड़ दादा ने कहा, “बिना जाने फिर तुम इतना तेज़ क्यों बोलते हो?”

बाँस ने सन्-मन् की ध्वनि में कहा, “मेरे अंदर हवा इधर से उधर बहती रहती है, मैं खोखला जो हूँ। मैं बोलता नहीं, बजता हूँ। वही मुझमें बोलती है।”

बड़ ने कहा, “वंश बाबू, तुम घने नहीं हो, सीधे ही सीधे हो। कुछ भरे होते तो झुकना जानते। लम्बाई में सब कुछ नहीं है।”

वंश बाबू ने तीव्रता से खड़-खड़ सन्-सन् किया कि ऐसा अपमान वह नहीं सहेंगे। देखो, वह कितने ऊँचे हैं!

बड़ दादा ने उधर से आँख हटाकर फिर और लोगों से कहा कि हम सबको घास से इस विषय में पूछना चाहिए। उसकी पहुँच सब कहीं है। वह कितनी व्याप्त है। और ऐसी बिछी रहती है कि किसी को उससे शिकायत नहीं होगी।

तब सबने घास में पूछा, “घास री घास, तू वन को जानती है?”

घास ने कहा, “नहीं तो दादा, मैं उन्हें नहीं जानती। लोगों की जड़ों को ही मैं जानती हूँ। उनके फल मुझसे ऊँचे रहते हैं। पदतल के स्पर्श से सबका परिचय मुझे मिलता है। जब मेरे सिर पर चोट ज़्यादा पड़ती है, समझती हूँ यह ताक़त का प्रमाण है। धीमे क़दम से मालूम होता है, यह कोई दुखियारा जा रहा है। दुख से मेरी बहुत बनती है, दादा! मैं उसी को चाहती हुई यहाँ से वहाँ तक बिछी रहती हूँ। सभी कुछ मेरे ऊपर से निकलता है। पर वन को मैंने अलग करके कभी नहीं पहचाना।”

दादा ने कहा, “तुम कुछ नहीं बतला सकतीं?”

घास ने कहा, “मैं बेचारी क्या बतला सकती हूँ, दादा!”

तब बड़ी कठिनाई हुई। बुद्धिमती घास ने जवाब दे दिया। वाग्मी वंश बाबू भी कुछ न बता सके। और बड़ दादा स्वयं अत्यंत जिज्ञासु थे। किसी के समझ में नहीं आया कि वन नाम के भयानक जंतु को कहाँ से कैसे जाना जाए।

इतने में पशुराज सिंह वहाँ आए। पैने दाँत थे, बालों से गर्दन शोभित थी, पूँछ उठी थी : धीमी गर्वीली गति से वह वहाँ आए और किलक-किलककर बहते जाते हुए निकट एक चश्मे में से पानी पीने लगे।

बड़ दादा ने पुकारकर कहा, “ओ सिंह भाई, तुम बड़े पराक्रमी हो, जाने कहाँ-कहाँ छापा मारते हो। एक बात तो बताओ, भाई?”

शेर ने पानी पीकर गर्व से ऊपर को देखा। दहाड़कर कहा, “कहो, क्या कहते हो?”

बड़ दादा ने कहा, “हमने सुना है कि कोई वन होता है, जो यहाँ आस-पास है और बड़ा भयानक है। हम तो समझते थे कि तुम सबको जीत चुके हो। उस वन से कभी तुम्हारा मुक़ाबला हुआ है? बताओ वह कैसा होता है?”

शेर ने दहाड़कर कहा, “लाओ सामने वह वन, जो अभी मैं उसे फाड़-चीरकर न रख दूँ। मेरे सामने वह भला क्यों हो सकता है!”

बड़ दादा ने कहा, “तो वन से कभी तुम्हारा सामना नहीं हुआ?”

शेर ने कहा, “सामना होता, तो क्या वह जीता बच सकता था। मैं अभी दहाड़ देता हूँ। हो अगर कोई वन, तो आए वह सामने। खुली चुनौती है। या वह है या मैं हूँ।”

ऐसा कहकर उस वीर सिंह ने वह तुमुल घोर गर्जन किया कि दिशाएँ काँपने लगीं। बड़ दादा के देह के पत्र खड़-खड़ करने लगे। उनके शरीर के कोटर में वास करते हुए शावक चीं-चीं कर उठे। चहुँओर जैसे आतंक भर गया पर वह गर्जन गूँज कर रह गई। हुंकार का उत्तर कोई नहीं आया।

सिंह ने उस समय गर्व से कहा, “तुमने यह कैसे जाना कि कोई वन है और वह आस-पास रहता है। जब मैं हूँ, आप सब निर्भय रहिए कि वन कोई नहीं है, कहीं नहीं है। मैं हूँ, तब किसी और का खटका आपको नहीं रखना चाहिए।”

बड़ दादा ने कहा, “आपकी बात सही है। मुझे यहाँ सदियाँ हो गई हैं। वन होता तो दीखता अवश्य। फिर आप हो, तब कोई और क्या होगा। पर वे दो शाखा पर चलनेवाले जीव जो आदमी होते हैं, वे ही यहाँ मेरी छाँह में बैठकर उस वन की बात कर रहे थे। ऐसा मालूम होता है कि ये बे-जड़ के आदमी हमसे ज़्यादा जानते हैं।”

सिंह ने कहा, “आदमी को मैं ख़ूब जानता हूँ। मैं उसे खाना पसंद करता हूँ। उसका माँस मुलायम होता है; लेकिन वह चालाक जीव है। उसको मुँह मारकर खा डालो, तब तो वह अच्छा है, नहीं तो उसका भरोसा नहीं करना चाहिए। उसकी बात-बात में धोखा है।”

बड़ दादा तो चुप रहे, लेकिन औरों ने कहा कि सिंहराज, तुम्हारे भय से बहुत-से जंतु छिपकर रहते हैं। वे मुँह नहीं दिखाते। वन भी शायद छिपकर रहता हो। तुम्हारा दबदबा कोई कम तो नहीं है। इससे जो साँप धरती में मुँह गाड़कर रहते हैं, ऐसी भेद की बातें उनसे पूछनी चाहिए। रहस्य कोई जानता होगा, तो अँधेरे में मुँह गाड़कर रहने वाला साँप जैसा जानवर ही जानता होगा। हम पेड़ तो उजाले में सिर उठाए खड़े रहते हैं। इसलिए हम बेचारे क्या जानें।

शेर ने कहा कि जो मैं कहता हूँ, वही सच है। उसमें शक करने की हिम्मत ठीक नहीं है। जब तक मैं हूँ, कोई डर न करो। कैसा साँप और जैसा कुछ और। क्या कोई मुझसे ज़्यादा जानता है?

बड़ दादा यह सुनते हुए अपनी दाढ़ी की जटाएँ नीचे लटकाए बैठे रह गए, कुछ नहीं बोले। औरों ने भी कुछ नहीं कहा। बबूल के काँटे ज़रूर उस वक़्त तनकर कुछ उठ आए थे। लेकिन फिर भी बबूल ने धीरज नहीं छोड़ा और मुँह नहीं खोला।

अंत में जम्हाई लेकर मंथर गति से सिंह वहाँ से चले गए।

भाग्य की बात कि साँझ का झुटपुटा होते-होते चुप-चुप घास में से जाते हुए दीख गए चमकीली देह के नागराज। बबूल की निगाह तीखी थी। झट से बोला, “दादा! ओ बड़ दादा, वह जा रहे हैं सर्पराज। ज्ञानी जीव हैं। मेरा तो मुँह उनके सामने कैसे खुल सकता है। आप पूछो तो ज़रा कि वन का ठौर-ठिकाना क्या उन्होंने देखा है?”

बड़ दादा शाम से ही मौन हो रहते हैं। वह उनकी पुरानी आदत है। बोले, “संध्या आ रही है। इस समय वाचालता नहीं चाहिए।”

बबूल झक्की ठहरे। बोले, “बड़ दादा, साँप धरती से इतना चिपककर रहते हैं कि सौभाग्य से हमारी आँखें उन पर पड़ती हैं। और यह सर्प अतिशय श्याम हैं, इससे उतने ही ज्ञानी होंगे। वर्ण देखिए न, कैसा चमकता है। अवसर खोना नहीं चाहिए। इनसे कुछ रहस्य पा लेना चाहिए।”

बड़ दादा ने तब गम्भीर वाणी से साँप को रोककर पूछा कि हे नाग, हमें बताओ कि वन का वास कहाँ है और वह स्वयं क्या है?

साँप ने साश्चर्य कहा, “किसका वास? वह कौन जन्तु है? और उसका वास पाताल तक तो कहीं है नहीं।”

बड़ दादा ने कहा कि हम कोई उसके सम्बन्ध में कुछ नहीं जानते। तुमसे जानने की आशा रखते हैं। जहाँ ज़रा छिद्र हो, वहाँ तुम्हारा प्रवेश है। कोई टेढ़ा-मेढ़ापन तुमसे बाहर नहीं है। इससे तुमसे पूछा है।

साँप ने कहा, “मैं धरती के सारे गर्त जानता हूँ, भीतर दूर तक पैठकर उसी के अंतर्भेद को पहचानने में लगा रहा हूँ। वहाँ ज्ञान की खान है। तुमको अब क्या बताऊँ। तुम नहीं समझोगे। तुम्हारा वन, लेकिन कोई गहराई की सचाई नहीं जान पड़ती। वह कोई बनावटी सतह की चीज़ है। मेरा वैसा ऊपरी और उथली बातों से वास्ता नहीं रहता।”

बड़ दादा ने कहना चाहा कि तो वह…

साँप ने कहा, “वह फ़र्ज़ी है।” यह कहकर वह आगे बढ़ गए।

मतलब यह है कि सब जीव-जंतु और पेड़-पौधे आपस में मिले और पूछताछ करने लगे कि वन को कौन जानता है और वह कहाँ है, क्या है? उनमें सबको ही अपना-अपना ज्ञान था। अज्ञानी, कोई नहीं था। पर उस वन का जानकार कोई नहीं था। एक नहीं जाने, दो नहीं जानें, दस-बीस नहीं जानें, लेकिन जिसको कोई नहीं जानता, ऐसी भी भला कोई चीज़ कभी हुई है या हो सकती है? इसलिए उन जंगली जंतुओं में और वनस्पतियों में ख़ूब चर्चा हुई, ऐसी चर्चा हुई कि विद्याओं पर विद्याएँ उसमें से प्रस्तुत हो गईं। अंत में तय पाया कि दो टाँगोंवाला आदमी ईमानदार जीव नहीं है। उसने तभी वन की बात बनाकर कह दी है। वन बन गया है। सच में वह नहीं है।

उस निश्चय के समय बड़ दादा ने कहा कि भाइयो, उन आदमियों को फिर आने दो। इस बार साफ़-साफ़ उनसे पूछना है कि बताएँ, वन क्या है। बताएँ तो बताएँ, नहीं तो ख़ामख़ाह झूठ बोलना छोड़ दें। लेकिन उनसे पूछने से पहले उस वन से दुश्मनी ठानना हमारे लिए ठीक नहीं है। वह भयावना बताते हैं। जाने वह और क्यो हो?

लेकिन बड़ दादा की वहाँ विशेष चली नहीं। जवानों ने कहा कि ये बूढ़े हैं, इनके मन में तो डर बैठा है। और जंगल के न होने का फ़ैसला पास हो गया।

एक रोज़ आफ़त के मारे फिर वे शिकारी उस जगह आए। उनका आना था कि जंगल जाग उठा। बहुत-से जीव-जंतु, झाड़ी-पेड़ तरह-तरह की बोली बोलकर अपना विरोध दरसाने लगे। वे मानो उन आदमियों की भर्त्सना कर रहे थे। आदमी बेचारों को अपनी जान का संकट मालूम होने लगा। उन्होंने अपनी बन्दूक़ें सम्भालीं। इस टूटी-सी टहनी को, जो आग उगलती है, वह बड़ दादा पहचानते थे। उन्होंने बीच में पड़कर कहा, “अरे तुम लोग अधीर क्यों होते हो? इन आदमियों के ख़त्म हो जाने से हमारा-तुम्हारा फ़ैसला निर्भ्रम कहलाएगा। ज़रा तो ठहरो। ग़ुस्से से कहीं ज्ञान हासिल होता है? ठहरो इन आदमियों से उस सवाल पर मैं ख़ुद निपटारा किए लेता हूँ।” यह कहकर बड़ दादा आदमियों से मुख़ातिब होकर बोले, “भाई आदमियो, तुम भी पोली चीज़ों का नीचा मुँह करके रखो जिनमें तुम आग भरकर लाते हो। डरो मत। अब यह बताओ कि वह जंगल क्या है, जिसकी तुम बात किया करते हो? बताओ, वह कहाँ है?”

आदमियों ने अभय पाकर अपनी बन्दूक़ें नीची कर लीं और कहा, “यह जंगल ही तो है, जहाँ हम सब हैं।”

उनका इतना कहना था कि चींची-कींकीं, सवाल पर सवाल होने लगे।

“जंगल यहाँ कहाँ है! कहीं नहीं है।”

“तुम हो। मैं हूँ। यह है। वह है। जंगल फिर हो कहाँ सकता है?”

“तुम झूठे हो।”

“धोखेबाज़।”

“स्वार्थी!”

“ख़त्म करो इनको।”

आदमी यह देखकर डर गए। बन्दूक़ें सम्भालना चाहते थे कि बड़ दादा ने मामला सम्भाला और पूछा, “सुनो आदमियो, तुम झूठे साबित होंगे, तभी तुम्हें मारा जाएगा। क्या यह आगफेंकनी लिए फिरते हो। तुम्हारी बोटी का पता न मिलेगा। और अगर झूठे नहीं हो, तो बताओ जंगल कहाँ है?”

उन दोनों आदमियों में से प्रमुख ने विस्मय से और भय से कहा, “हम सब जहाँ हैं, वही तो जंगल है।”

बबूल ने अपने काँटे खड़े करके कहा, “बको मत, वह सेमर है, वह सिरस है, साल है, वह घास है। वह हमारे सिंहराज हैं। वह पानी है। वह धरती है। तुम जिनकी छाँह में हो, वह हमारे बड़ दादा हैं। तब तुम्हारा जंगल कहाँ है, दिखाते क्यों नहीं? तुम हमको धोखा नहीं दे सकते।”

प्रमुख पुरुष ने कहा, “यह सब कुछ ही जंगल है।”

इस पर ग़ुस्से से भरे हुए कई वनचरों ने कहा, “बात से बचो नहीं। ठीक बताओ, नहीं तो तुम्हारी ख़ैर नहीं है।”

अब आदमी क्या कहें, परिस्थिति देखकर वे बेचारे जान से निराश होने लगे। अपनी मानवी बोली में—अब तक प्राकृतिक बोली में बोल रहे थे—एक ने कहा, “यार, यह क्यों नहीं कह देते कि जंगल नहीं है। देखते नहीं, किनसे पाला पड़ा है!”

दूसरे ने कहा, “मुझसे तो कहा नहीं जाएगा।”

“तो क्या मरोगे?”

“सदा कौन जिया है? इससे इन भोले प्राणियों को भुलावे में कैसे रखूँ?”

यह कहकर प्रमुख पुरुष ने सबसे कहा, “भाइयो, जंगल कहीं दूर या बाहर नहीं है। आप लोग सभी वह हो।”

इस पर फिर गोलियों-से सवालों की बौछार उन पर पड़ने लगी।

“क्या कहा? मैं जंगल हूँ? तब बबूल कौन है?”

“झूठ! क्या मैं यह मानूँ कि मैं बाँस नहीं, जंगल हूँ? मेरा रोम-रोम कहता है, मैं बाँस हूँ।”

“और मैं घास।”

“और मैं शेर।”

“और मैं साँप।”

इस भाँति ऐसा शोर मचा कि उन बेचारे आदमियों की अक़्ल गुम होने को आ गई। बड़ दादा न हों, तो आदमियों का काम वहाँ तमाम था।

उस समय आदमी और बड़ दादा में कुछ ऐसी धीमी-धीमी बातचीत हुई कि वह कोई सुन नहीं सका। बातचीत के बाद वह पुरुष उस विशाल बड़ के वृक्ष के ऊपर चढ़ता दिखायी दिया। चढ़ते-चढ़ते वह उसकी सबसे ऊपर की फुनगी तक पहुँच गया। वहाँ दो नए-नए पत्तों की जोड़ी खुले आसमान की तरफ़ मुस्कराती हुई देख रही थी। आदमी ने उन दोनों को बड़े प्रेम से पुचकारा। पुचकारते समय ऐसा मालूम हुआ, जैसे मंत्ररूप में उन्हें कुछ संदेश भी दिया है।

वन के प्राणी यह सब-कुछ स्तब्ध भाव से देख रहे थे। उन्हें कुछ समझ में न आ रहा था।

देखते-देखते पत्तों की वह जोड़ी उद्ग्रीव हुई। मानो उसमें चैतन्य भर आया। उन्होंने अपने आस-पास और नीचे देखा। जाने उन्हें क्या दिखा कि वे काँपने लगे। उनके तन में लालिमा व्याप गई। कुछ क्षण बाद मानो वे एक चमक से चमक आए। जैसे उन्होंने खंड को कुल में देख लिया। देख लिया कि कुल है, खंड कहाँ है।

वह आदमी अब नीचे उतर आया था और अन्य वनचरों के समकक्ष खड़ा था। बड़ दादा ऐसे स्थिर-शांत थे, मानो योगमग्न हों कि सहसा उनकी समाधि टूटी। वे जागे। मानो उन्हें अपने चरमशीर्ष से, अभ्यंतराभ्यंतर में से, तभी कोई अनुभुति प्राप्त हुई हो।

उस समय सब ओर सप्रश्न मौन व्याप्त था। उसे भंग करते हुए बड़ दादा ने कहा—

“वह है!”

कहकर वह चुप हो गए। साथियों ने दादा को सम्बोधित करते हुए कहा, “दादा, दादा!”

दादा ने इतना ही कहा—

“वह है, वह है?”

“कहाँ है? कहाँ है?”

“सब कहीं है। सब कहीं है।

“और हम?”

“हम नहीं, वह है।”

जैनेन्द्र कुमार की कहानी 'पाजेब'

Book by Jainendra Kumar:

तत्सत गद्य में भयानक जंतु का नाम क्या है?

शेर, चीता, भालू, हाथी, भेड़िया।

तत्सत कहानी में दो शिकारी कौन से पेड़ की छांव में बैठे थे?

वे पुराने शिकारी थे। शिकार की टोह में दूर-दूर घूम रहे थे, लेकिन ऐसा घना जंगल उन्हें नहीं मिला था। देखते ही जी में दहशत होती थी। वहाँ एक बड़े पेड़ की छाँह में उन्होंने वास किया और आपस में बातें करने लगे।

तत्सत पाठ में आदमियों ने अभय पाकर क्या नीची कर दी?

(i) आदमी ओछे रहते हैं, ऊँचे नहीं उठते …………………………………………….

तत्सत कहानी में शेर किसका प्रतीक बनकर आया है?

कहानी में लेखक ने शेर को सत्ता का प्रतीक बताया है। यह सत्ता आम जनता को धोखा देकर तथा विभिन्न प्रकार के लालच देकर अपनी अँगुलियों पर नचाने का प्रयास करती है।