सत्य और अहिंसा डा0 दयानन्द Popular posts from this blog सेवा और समर्पण " सिर भर जाऊ उचित यह मोरा, सबते सेवक धरम कठोरा " - रामचरितमानस , यह चौपाई भरत मिलाप प्रसंग की है ,अयोध्या से प्रस्थान करते हुये भरत कहते
है कि भैया राम नंगे पैर पैदल ही बन चले गये, जिसका कारण स्वयं को मानते हुये, रथ आदि वाहन का त्याग कर सिर के बल यात्रा करना उचित है । अपने पूज्य और आराध्य बड़े भाई राम के दुःख की संवेदना सेवक भरत के शब्दों में जिस मार्मिकता के साथ ध्वनित होती है ,उससे सेवा धर्म की प्रासंगिकता स्वयं स्पष्ट होती है । यहां हम सेवा धर्म के मर्म को हृदयंगम करने का प्रयत्न करेंगे और इसी निमित्त से सेवा सम्बन्धी मुलभूत और यथार्थ चिन्तन आपके समक्ष है ।
जिस कार्य से किसी को सुख मिले उसका नाम सेवा है और सेवा का जन्म जिस भाव से होता है उसे समर्पण कहते है । समर्पण के बिना सेवा का उदय होता ही नहीं । समर्पण कारण है और सेवा उसका कार्य है । सेवा के दो रूप है - स्वयं सेवा तथा लोक सेवा, दोनों ही लोक और परलोक की दृष्टि से सदा सर्वदा कल्याण के हेतु है । सेवा से अंतःकरण और चित्त की शुद्धि होती है जिसस
योग का शाब्दिक अर्थ है जुड़ना या जोड़ना, तथा भोग से तात्पर्य सुख-दुःख का अनुभव या भोजन से है । पश्चिमी दुनियां के लोग तृप्ति के लिये भोजन और भोजन से सुख की प्राप्ति ही मनुष्य का आवश्यक और अंतिम लक्ष्य मानते आये है और इस प्राप्तव्य को प्राप्त करने के लिये उन्होंने जो जीवन विधा चुनी उसके परिणाम के रूपमे वैज्ञानिक उपब्धियो से परिपूर्ण सुविधा सम्पन्न भोगवादी समाज का विकास हुआ । खाओ पियो और मौज करो के सिद्धांत को अंगीकार कर विकास के जिस सोपान पर उक्त समाज खड़ा है वहाँ अवसाद, तनाव,अपराध,घृणा,द्वेष दम्भ,
पाखण्ड, अभिमान, झूठ,और मद तथा मत्सर आदि से आच्छादित अमानवीय वातावरण का निर्माण हुआ ।अंततः आज वह समाज चिर शांति की तलास में पूर्वी जगत विशेष रूप से भारत की ओर आशा भरी दृष्टि से देख रहा है जहां के विद्वान सन्तों ,गुरुओ ने शताब्दियों पूर्व भारतीय वैचारिक चेतना से सम्पूर्ण विश्व को न केवल प्रभावित किया था अपितु भारतीय जीवन दृष्टि और विधा से अभिभूत कर दिया था । जगत गुरु शंकराचार्य, स्वामी विवेकानंद, स्वामी रामतीर्थ और महषि अरविन्द तथा रवीन्द्र नाथ टैगोर ऐसे ही भारतीय चिंतक और मनीषी थे जिन सत्य और अहिंसा क्या है?बड़ी से बड़ी मुश्किलों को भी सत्य और अहिंसा के मार्ग पर चलकर दूर किया जा सकता है कहते हैं सत्य हमेशा जीत जाता है यह बिल्कुल सही है जो व्यक्ति सत्य के मार्ग पर चलता है हमेशा उसकी विजय होती है इसलिए कहा गया है कि सत्यमेव जयते उसी तरह अहिंसा यानी दूसरों को किसी भी तरह से प्रताड़ित ना करना नुकसान ना पहुंचा ना और अहिंसा ना ...
अहिंसा सत्य तक पहुंचने का क्या है?अहिंसा में वह गुण है, जो सत्य तक हमें पहुंचा सकता है। सत्य तक हमें हिंसा नहीं पहुंचा सकती। हिंसा के द्वारा तो सिर्फ पतन ही होता है।
अहिंसा शब्द का क्या अर्थ है?अहिंसा का सामान्य अर्थ है 'हिंसा न करना'। इसका व्यापक अर्थ है - किसी भी प्राणी को तन, मन, कर्म, वचन और वाणी से कोई नुकसान न पहुँचाना। मन में किसी का अहित न सोचना, किसी को कटुवाणी आदि के द्वार भी नुकसान न देना तथा कर्म से भी किसी भी अवस्था में, किसी भी प्राणी कि हिंसा न करना, यह अहिंसा है।
अहिंसा के कौन कौन से रूप है?अहिंसा भी दो प्रकार की होती है-स्थूल और सूक्ष्म। स्थूल हिंसा का आशय है कि किसी को मार डालना, अंग-भंग कर देना, शोषण और अपमानित करना, व्यंग्य व ताने मारना और शस्त्रों का प्रयोग करना आदि। सूक्ष्म हिंसा का आशय है-मन में किसी के प्रति दुर्भाव रखना, घृणा करना, राग-द्वेष रखना और किसी को मानसिक रूप से सताना।
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