सत्य को हिंदी में क्या बोलते हैं? - saty ko hindee mein kya bolate hain?

Satya is a Sanskrit word loosely translated as truth, essence. It also refers to a virtue in Indian religions, referring to being truthful in one's thought, speech and action. In Yoga, satya is one of five yamas, the virtuous restraint from falsehood and distortion of reality in one's expressions and actions.

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सत्य का अंग्रेजी मतलब

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"सत्य" के बारे में

सत्य का अर्थ अंग्रेजी में, सत्य का इंगलिश अर्थ, सत्य का उच्चारण और उदाहरण वाक्य। सत्य का हिन्दी मीनिंग, सत्य का हिन्दी अर्थ, सत्य का हिन्दी अनुवाद, satya का हिन्दी मीनिंग, satya का हिन्दी अर्थ।

सत्य इस संसार में बड़ी शक्ति है. सत्य के बारे में व्यवहारिक बात यह है कि सत्य परेशान हो सकता है किन्तु पराजित नहीं. भारत में कई सत्यवादी विभूतियाँ हुईं जिनकी दुहाई आज भी दी जाती हैं जैसे राजा हरिश्चन्द्र, सत्यवीर तेजाजी महाराज आदि. इन्होने अपने जीवन में यह संकल्प कर लिया था कि भले ही जो कुछ हो जाए वे सत्य की राह को नहीं छोड़ेंगे।

सत्य का शाब्दिक अर्थ होता है सते हितम् यानि सभी का कल्याण। इस कल्याण की भावना को हृदय में बसाकर ही व्यक्ति सत्य बोल सकता है. एक सत्यवादी व्यक्ति की पहचान यह है कि वह वर्तमान, भत अथवा भविष्य के विषय में विचार किये बिना अपनी बात पर दृढ़ रहता है. मानव स्वभाव में सत्य के प्रति आगाध श्रद्धा एवं झूठ के प्रति घृणा वो के भाव आते हैं।

सत्य के विभिन्न सिद्धान्त[संपादित करें]

न्याय दर्शन में प्रमुख रूप में प्रत्येक निर्णय और अनुमान पर विचार होता है। इनमें निर्णय का स्थान केंद्रीय है। निर्णय का शाब्दिक प्रकाशन वाक्य है। जब हम किसी वाक्य को सुनते हैं, तो उसे स्वीकार करते हैं या अस्वीकार करते हैं; स्वीकार और अस्वीकार में निश्चय न कर सकने की अवस्था संदेह कहलाती है। प्रत्येक निर्णय सत्य होने का दावा करता है। जब हम इसे स्वीकार करते हैं तो इसके दावे को सत्य मानते हैं; अस्वीकार करने में उसे असत्य कहते हैं। विश्वास हमारी साधारण मानसिक अवस्था है। जब किसी विश्वास में त्रुटि दिखाई देती है, तो इस स्थान पर किसी अन्य विश्वास तक जाने की मानसिक क्रिया ही चिंतन है। विश्वास, सत्य हो अथवा असत्य, क्रिया का आधार है, यही जीवन में इसे महत्वपूर्ण बनाता है। न्याय का काम निर्णय या वाक्य के सत्यासत्य की जाँच करना है; इसके लिए यह बात असंगत है कि कोई इसे वास्तव में सत्य मानता है या नहीं।

सत्य के संबंध में दो प्रश्न विचार के योग्य हैं - किसी निर्णय या वाक्य को सत्य कहने में हमारा अभिप्राय क्या होता है।

सत्य और असत्य में भेद करने का मापक साधन क्या है? हमारे ज्ञान के विषयों में प्रमुख ये हैं - हमारी अपनी चेतना अवस्थाएँ, प्राकृतिक पदार्थ, तथा चेतना के अन्य केंद्र, या दूसरों के मन।

मैं कहता हूँ कि मुझे दांत में दर्द हो रहा है। इसका अर्थ क्या है? मेरा अनुभव एक धारा है जिसमें निरंतर गति होती रहती है। मैं कहता हूँ कि धारा का जो भाग वर्तमान में ज्ञात है, दु:ख की अनुभूति उसमें प्रमुख पक्ष है। मेरे लिए यह स्पष्ट अनुभव है और मैं इसमें संदेह कर ही नहीं सकता। मेरे लिए इसे जाँचने को दूसरा मापक न है, न हो सकता है। स्पष्ट बोध से अधिक अधिकार किसी अन्य अनुभव का नहीं।

अनुरूपता का सिद्धान्त (Correspondence theory)[संपादित करें]

अन्य चेतनों का हमें स्पष्ट बोध नहीं हो सकता। कुछ लोग कहते हैं कि अनुरूपता के आधार पर हम उनके अस्तित्व में विश्वास करते हैं। परंतु ऐसा अनुमान करने की योग्यता प्राप्त होने से पहले ही बच्चा ऐसा विश्वास करता है। संभवत: वह सभी पदार्थों को अपने नमूने का समझता है और पीछे कुछ वस्तुओं को अपने असमान पाकर अचेतन समझने लगता है।

निर्णायों के सत्य असत्य का प्रश्न प्राय: प्राकृतिक तथ्यों के संबंध में उठता है। मैं कहता हूँ "मेज पर पुस्तक पड़ी है" इस वाक्य के यथार्थ होने का अर्थ क्या है?

मैं ख्याल करता हूँ कि मुझसे अलग, बाहर, मेज और पुस्तक विद्यमान हैं और उनमें एक विशेष संबंध है। यदि स्थिति वास्तव में ऐसी ही है तो मेरा वाक्य सत्य है; ऐसा न होने की हालत में असत्य है। यह "सत्य का अनुरूपता सिद्धांत" है।

अनुरूपता का सिद्धांत वस्तुवाद से गठित है और सर्वमान्य सा है। भारत के दर्शन में प्रत्यक्ष को प्रथम प्रमाण का पद दिया गया है। प्रत्यक्ष "इंद्रिय और उसके विषय के सामीप्य का फल है"। यह सामीप्य दो प्रकार से हो सकता है : या तो पदार्थ इंद्रिय के पास आए, या मन इंद्रिय द्वार से गुजरकर पदार्थ तक पहुँचे। दूसरी घटना घटती है और मन विषय का रूप ग्रहण करता है। यह अनुरूपता सिद्धांत का स्पष्ट समर्थन है।

अनुरूपता सिद्धांत के अनुसार हम अपने विचार और बाह्य स्थिति में समानता देखते हैं। अपने विचारों का तो हमें स्पष्ट बोध होता है, पर बाहर की स्थिति को हम कैसे जानते हैं? हम दो विचारों को साथ रखकर उनकी समानता असमानता की बाबत कह सकते हैं, परंतु बाह्य पदार्थ तो हमारी चेतना में प्रविष्ट ही नहीं हो सकता। उसकी तुलना किसी विचार से कैसे करेंगे? अनुरूपतावाद में यह मान लिया जाता है कि बाह्य स्थिति का ज्ञान हमें पहले से ही है। यदि पहले ही ऐसा ज्ञान हो तो निर्णय के सत्य असत्य होने का प्रश्न ही नहीं उठता। हमारी स्थिति ऐसे मनुष्य की स्थिति है जिसने ताजमहल के चित्र देखे हैं, परंतु ताजमहल को नहीं देखा और जानना चाहता है कि वे चित्र ताजमहल को वास्तविक रूप में दिखाते हैं या नहीं।

अविरोध का सिद्धान्त (Coherence theory of truth)[संपादित करें]

अध्यात्मवाद कहता है कि वस्तुवाद के पास इस आपत्ति से बचने का कोई साधन नहीं। सत्य के मापक की खोज स्वयं अनुभव में करनी चाहिए। अनुभव में "आंतरिक अविरोध" सत्य की कसौटी है। अपने पिछले दृष्टांत को फिर लें। "पुस्तक मेज पर पड़ी है", मैं यह कैसे जानता हूँ? आंख ऐसा बताती है। यह एक अनुभव है। परंतु आँख कभी कभी धोखा भी दे देती है। मैं हाथ से पुस्तक और मेज को छूता हूँ। यह दूसरा अनुभव पहले अनुभव की पुष्टि करता है। हाथ से खटकाता हूँ तो जो शब्द सुनाई देता है, वह पुस्तक और मेज से निकला प्रतीत होता है। तीसरा अनुभव पहले दोनों अनुभवों की पुष्टि करता है दूसरे भी पुस्तक को मेज पर पड़ा देखते हैं। अनुरूपता सत्य का चिह्न है, परंतु यह अनुरूपता विचार और बाह्य पदार्थ के दरमियान नहीं, अनुभव के विविध भागों के दरमियान होती है। आकर्षणनियम के अनुसार प्रत्येक पदार्थ अन्य पदार्थों से आकृष्ट होता है और उन्हें खींचता भी है। इसी तरह सत्य ज्ञान के सभी भाग एक दूसरे पर आश्रित हैं। जो निर्णय इस तरह शेष अनुभव से युक्त हो सकता है, वह सत्य है; जिसमें यह योग्यता नहीं वह असत्य है।

इस विवरण से ऐसा लगता है कि सत्य अनेक सत्य वाक्यों का समुदाय है और इस समुदाय में प्रत्येक सत्य की अपनी स्वतंत्र स्थिति है। अविरोधवाद इस विचार को स्वीकार नहीं करता। सत्य समुदाय नहीं अपितु समग्र है जिसका तत्व आंशिक सत्यों के रूप को निश्चित करता है। वास्तव में सत्य एक ही है, बहुवचन में सत्यों का वर्णन करना अनुचित है। समूह में कुछ एकांग अलग हो जाए तो दूसरों की स्थिति में भेद नहीं पड़ता। ईंटों के ढेर में से कोई चार ईंटें उठा ले जाए, तो बाकी ईंटों को इसमें आपत्ति नहीं होती। शरीर के एक अंग पर चोट लगे, तो सारा शरीर दुखी होता है। आंशिक सत्यों में हर एक अंश समग्र को किसी पक्ष में दरसाता है और इस विषय में सभी अंशों का मूल्य एक नहीं होता। अविरोधवाद के अनुसार सत्यों में परिमाण का भेद होता है।

जिन वाक्यों को हम सत्य कहते हैं, वे दो प्रकार के होते हैं- वैज्ञानिक नियम संबंधी और तथ्य संबंधी। "दो और दो चार होते हैं," यदि किसी त्रिकोण के भुज बराबर हों, तो उसके कोण भी बराबर होंगे। - यह वाक्य हर कहीं और सदा सत्य हैं; देश और काल का भेद उनके सत्य होने से असंगत है। "भारत 1947 ई. में स्वाधीन हुआ।" 1947 ई. से पहले यह वाक्य कहा ही नहीं जा सकता था, परंतु अब यह भी सदा के लिए सत्य है।

सत्य का तीसरा सिद्धांत "व्यवहारवाद" या "प्रैग्मेटिज्म" के नाम से प्रसिद्ध है। अपने आधुनिक रूप में यह अमरीका की देन है। वास्तव में व्यवहारवाद कोई सिद्धांत नहीं, एक मनोवृत्ति है जो सामान्य से विशेष को, स्थिरता से परिवर्तन को, चिंतन से क्रिया को अधिक महत्व देती है। इस विचार के प्रसार में चाल्र्स पीअर्स, विलियम जेम्स और जान डियूई का विशेष भाग है। पीअर्स नैयामिक था, जेम्स मनोवैज्ञानिक था, डियूई की अभिरुचि नीति और राजनीति में थी। पीअर्स ने प्रत्ययों के "अर्थ" को स्पष्ट करने में व्यवहारवाद की विधि का प्रयोग किया, जेम्स ने "सत्य का स्वरूप निर्णीत करने में इसे बर्ता, डियूई ने "भद्र" पर इसे लागू किया। इस तरह वे न्याय, सौंदर्यशास्त्र और नीति को अनुभववाद के निकट ले आए।

पीअर्स ने नए विचार को "प्रैग्मेटिस्म" का नाम दिया। उसकी दृढ़ धारणा थी कि दर्शन को विज्ञान के दृष्टिकोण और उसकी विधि को अपनाना चाहिए। दर्शन के लिए सत्य ज्ञान निरपेक्ष या समग्र का दोषरहित ज्ञान है; विज्ञान की दृष्टि में ऐसा ज्ञान मानव बुद्धि के लिए अप्राप्य है। हमे सापेक्ष ज्ञान से संतुष्ट होना चाहिए, यही हमारे लिए काम की वस्तु है। दर्शन का प्रमुख काम स्वीकृत मान्यताओं को सिद्ध करना रहा है, विज्ञान के लिए आविष्कार प्रमुख है। नवीन वैज्ञानिक विधि में आगमन और निगमन दोनों का समन्वय होता है। कुछ उदाहरणों की नींव पर प्रतिज्ञा की जाती है, उसे सत्य मानकर निष्कर्ष निकाले जाते हैं और अंत में देखा जाता है कि अनुभव इनकी पुष्टि करता है या नहीं। किसी प्रतिज्ञा की ऐसी पुष्टि ही उसकीसत्यता है। प्रत्येक सत्य की स्थिति सामयिक प्रतिज्ञा की स्थिति है। प्राकृतिक नियम भी स्थायी नहीं, वे भी विकासाधीन हैं। आकर्षणयिम का क्षेत्र अब पहले से अधिक विस्तृत है और भविष्य में वर्तमान से भी अधिक विस्तृत हो जाएगा। नियम भी आदतों की तरह पुष्ट होते जाते हैं।

जेम्स ने अमूर्त सत्य को नहीं, अपितु विशेष विश्वासों के सत्य को अपने विवेचन का विषय बनाया। उसके विचारानुसार सत्य कोई स्थायी वस्तु नहीं जिसे देखना ही हमारा काम है, यह तो क्रिया में बनता है। अपनी पुस्तक "व्यवहारवाद" में वह कहता है-

"व्यवहारवाद, मूल रूप में, उन दार्शनिक विवादों को मिटाने का नियम है जो इसके बिना अंतरहित होते। जगत् एक है या अनेक? स्वाधीन है या पराधीन? प्राकृतिक है या आध्यात्मिक? ये विचार ऐसे हैं जिनमें एक या दूसरा सत्य या असत्य हो सकता है और ऐसे विचारों पर विवादों का कोई अंत नहीं। व्यवहारवाद की विधि इन विषयों के संबंध में यह है कि हम प्रत्येक प्रत्यय का समाधान इसके व्यावहारिक परिणामों के परीक्षण से करें। यदि कोई प्रत्यय दूसरे प्रत्यय के स्थान में सत्य होता, तो इससे किसी मनुष्य के लिए व्यावहारिक भेद क्या पड़ता? यदि कोई व्यावहारिक भेद दिखाई न दे तो व्यवहार में दोनों पक्षांतर एक ही हैं और सारा विवाद व्यर्थ है। जब कोई विवाद गंभीर हो तो हमें यह दिखाई के योग्य होना चाहिए कि दोनों पक्षों में एक या दूसरे के सत्य होने पर कोई व्यावहारिक भेद होता है"।

जेम्स से बहुत पहले इसी भाव को प्रकट करते हुए रामानुज ने कहा था-"व्यवहार योग्यता सत्यम्"।

व्यवहारवाद ज्ञानमीमांसा में उपयोगितावाद है : "जो कुछ विश्वास के संबंध में अपने आपको मूल्यवान् सिद्ध करता है, वह सत्य है। व्यवहारवाद बिना झिझक के यह मान लेता है कि जो विश्वास एक के लिए सत्य है, वह दूसरे के लिए असत्य हो सकता है।

ऊपर कहा गया है कि व्यवहारवाद सामान्य से विशेष को और स्थिरता से परिवर्तन को अधिक महत्व देता है। डियूई की शिक्षा में हम इसे स्पष्ट देखते हैं।

राजनीति में राजतंत्र, शिष्टजनतंत्र और प्रजातंत्र शासनों में भेद किया जाता है। राजतंत्र और शिष्टजनतंत्र अधिक सफल हों, तो भी प्रजातंत्र उनसे अच्छा है, क्योंकि यह व्यक्ति के मूल्य को स्वीकार करता है। नीति में कुछ नियमपालन को और कुछ श्रेय की सिद्धि को लक्ष्य बताते हैं। डियूई के अनुसार दोनों वर्ग एक ही भ्रांति में पड़े हैं; वे विशेष को उचित महत्व नहीं देते। नीति को एक नहीं अनेक नियमों को, एक नहीं अनेक साध्यों को स्वीकार करना चाहिए। उद्देश्य हर हालत में वर्तमान कठिनाई को दूर करना होता है; जो क्रिया इसमें अधिक से अधिक सहायक हो, वही उस स्थिति में सर्वश्रेष्ठ है। कोई मनुष्य कहीं भी स्थित हो, वह अच्छा मनुष्य है यदि वह आगे बढ़ रहा है, बुरा मनुष्य है यदि पीछे हट रहा है। जीवन का एकमात्र लक्ष्य उत्थान या वृद्धि है; पूर्णता नहीं, अपितु पूर्णता की ओर निरंतर गति है।

यह गति ही शिक्षा है, नैतिक जीवन और शिक्षा एक ही वस्तु है। प्रचलित विचार के अनुसार शिक्षाकाल तैयारी का समय है; यह व्यक्ति को पराधीनता से विमुक्त करके स्वाधीन बना देता है। यदि ऐसा ही है, तो शिक्षाकाल की समाप्ति पर शिक्षा की आवश्यकता भी नहीं रहती। डियूई कहता है कि वृद्धि का यत्न तो जीवन के अंत तक जारी रहना चाहिए, सारा जीवन ही शिक्षाकाल है। जो कुछ स्कूलों कालेजों में पढ़ाया जाता है, उसमें साहित्य और भाषाओं के ज्ञान की अपेक्षा विज्ञान को अधिक महत्व मिलना चाहिए। विज्ञान में भी जो भाग पुस्तकों से प्राप्त होता है, उससे अधिक मूल्य उस भाग का है जो विद्यार्थी अपनी क्रिया से सीखता है। मनुष्य का दिमाग का नहीं, क्रिया का अस्त्र है।

वास्तव में अनुरूपतावाद, अविरोधवाद और व्यवहारवाद एक ही प्रश्न का उत्तर नहीं। दो प्रश्न उत्तर की माँग करते हैं - सत्य से क्या अभिप्रेत है? सत्य और असत्य में भेद करने की कसौटी क्या है? अनुरूपतावाद पहले प्रश्न का उत्तर देता है; अविरोधवाद और व्यवहारवाद दूसरे प्रश्न का उत्तर देते हैं। जेम्स ने कहा है कि व्यवहार की दृष्टि में जब कोई विश्वास सत्य सिद्ध होता है, तो उसके लिए आवश्यक है कि वह उसी प्रकार के सत्यों से युक्त हो सके। यह धारणा व्यवहार को अविरोधवाद के निकट ले आती है। तीनों विचार एक दूसरे के विरुद्ध नहीं, एक दूसरे के पूरक हैं।