श्री कृष्ण के अनुसार धर्म क्या है? - shree krshn ke anusaar dharm kya hai?

कौरवों से नहीं बल्कि इन दो मनुष्यों पर अधिक क्रोधित थे श्रीकृष्ण, पल भर के लिए युद्ध रोककर दिया था धर्म का ज्ञान

‘महाभारत’ को हिन्दू धर्म में महाकाव्य माना जाता है. महाभारत की अनगिनत कहानियों से और इसके पात्रों से हम आधुनिक युग में भी प्रेरणा ले सकते हैं. धर्म युद्ध पर आधारित इस काव्य से हम बहुत कुछ सीख सकते हैं. जैसा कि हम सभी जानते हैं कि महाभारत के युद्ध में श्रीकृष्ण ने पाडंवों का साथ दिया था जिसका कारण था कि पांडु पुत्र किसी वस्तु या राज-काज के लालच में नहीं बल्कि उनके लिए ये धर्मयुद्ध था. लेकिन क्या आप जानते हैं कि कौरवों द्वारा पाडंवों के साथ अनगिनत अन्याय करने के बाद भी श्रीकृष्ण कौरवों से उतने क्रोधित नहीं थे जितना क्रोध उन्हें गुरू द्रोणाचार्य और भीष्म पितामहा पर था. इसका कारण था कि कौरव तो प्रकृति से ही दुष्ट थे.

श्री कृष्ण के अनुसार धर्म क्या है? - shree krshn ke anusaar dharm kya hai?

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उन्हें सत्य और धर्म का ज्ञान नहीं था इसलिए वो भोग विलास और सांसरिक वस्तुओं के पीछे भागते थे. लेकिन गुरू द्रोणाचार्य और भीष्म पितामहा दोनों को कई वेदों और पुराणों का ज्ञान था. ऐसे में धर्म का ज्ञान भली-भांति होते हुए भी वो मौन रहे और उन्होंने व्यक्तिगत कारणों से राजधर्म को अनदेखा किया. कुरुक्षेत्र के युद्ध के दौरान श्रीकृष्ण ने क्षणभर के लिए पूरी सृष्टि को रोक दिया था. समय वहीं रूक गया था. इस दौरान जो भी जीव जिस भी स्थिति में था वो वहीं रूक गया था. केवल श्रीकृष्ण और गुरू द्रोण गतिमान थे. अपने समीप श्रीकृष्ण को आते देख गुरू द्रोण समझ गए कि अवश्य ही उनसे कोई बहुत बड़ी गलती हुई है, जिसके कारण श्रीकृष्ण ने अपनी दिव्य शक्ति से सबकुछ रोक दिया है. श्रीकृष्ण ने गुरू द्रोण का अभिवादन करते हुए कहा ‘आपका जीवन सदैव ही दूसरों के लिए प्रेरणास्रोत रहा है.

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लेकिन जब धर्म को चुनने का समय आया तो आपने पुत्र मोह में पड़कर धर्म नहीं बल्कि चरित्रों (लोगों) का चुनाव किया. आपने अपने शिष्यों को कुशल शिक्षा तो दी लेकिन चरित्र और धर्म का ज्ञान नहीं दिया. आपने उन्हें कुशल योद्धा बनाने की दिशा में अपना शत- प्रतिशत दिया लेकिन उन्हें उत्तम मनुष्य बनाने के विषय में विचार तक नहीं किया. उन्हें धर्म का ज्ञान नहीं दिया. जिस कारण उनके लिए युद्ध का अर्थ केवल विजय-पराजय तक ही सीमित है.’ इस तरह गुरू द्रोण को अपने भूल का अनुभव हुआ. इसके अलावा श्रीकृष्ण ने भीष्म को भी धर्म का ज्ञान दिया. उन्होंने भीष्म से कहा ‘आपको सभी आपके नाम से अधिक ‘पितामहा’ की उपाधि से जानते हैं लेकिन आपने अपनी व्यक्तिगत प्रतिज्ञा के लिए राजकाज ही नहीं बल्कि धर्म का भी त्याग कर दिया.

श्री कृष्ण के अनुसार धर्म क्या है? - shree krshn ke anusaar dharm kya hai?

जिस समय आपकी प्रजा को आपकी आवश्यकता थी उस समय आपने अपनी प्रतिज्ञा को सबसे ऊपर रखा. धर्म उन सभी प्रतिज्ञा से बढ़कर है अर्थात यदि धर्म और न्याय की स्थापना और रक्षा के लिए व्यक्तिगत हितों या प्रतिज्ञा को तोड़ भी दिया जाए तो उसे गलत नहीं कहा जा सकता. यदि आपने प्रथम दिन से ही न्याय और धर्म के लिए आवाज उठाई होती तो आज कुरुक्षेत्र का युद्ध नहीं होता. किंतु धर्म-अधर्म, न्याय-अन्याय का ज्ञान होते हुए भी आपने मौन रहना स्वीकार किया. श्रीकृष्ण की बात सुनकर भीष्म को अपराधबोध होने लगा और वो कृष्ण से अपने पाप के लिए क्षमा मांगने लगे. इस तरह श्रीकृष्ण ने दोनों को धर्म का ज्ञान कुरुक्षेत्र की धर्म भूमि पर दिया…Next

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किस धर्म की शरण में जाएँ?

प्रश्नकर्ता: सभी धर्म कहते हैं कि, ‘मेरी शरण में आओ’, तो जीव किसकी शरण में जाए?

दादाश्री: सभी धर्मों का तत्व क्या है? तब कहते हैं कि, ‘स्वयं ही शुद्धात्मा है’, यह जानना। शुद्धात्मा ही कृष्ण है, शुद्धात्मा ही महावीर है, शुद्धात्मा ही भगवान है। ‘सभी धर्मों को छोड़ दो और मेरी शरण में आओ’ ऐसा कहते हैं। अर्थात यह कहना चाहते हैं कि, ‘तू यह देह-धर्म को छोड़ दे, मनोधर्म को छोड़ दे, इन्द्रिय-धर्म सब छोड़ दे और स्वयं के स्वाभाविक धर्म में आ जा, आत्म्धर्म में आ जा’। और लोगों ने इसे गलत तरह से समझा। ‘मेरी शरण’ मतलब कि कृष्ण भगवान की शरण, ऐसा समझा। और कृष्ण किसे समझते हैं? मुरलीवाले को। अब यदि कोई शरीर पर लगाने वाली दवा को पी जाए, तो उसमे डॉक्टर का क्या दोष? ऐसे ही पी गए हैं और इसलिए भटक रहे हैं। 

Reference: दादावाणी दिसंबर 2002 (Page #26 - Paragraph #5 to #7)

योगेश्वर श्री कृष्ण

प्रश्नकर्ता: स्वधर्म यानी क्या है? अपने वैष्णवों में कहते हैं न कि स्वधर्म में रहो और परधर्म में मत जाना!

दादाश्री: अपने लोग स्वधर्म शब्द को समझे ही नहीं! वैष्णव धर्म वह स्वधर्म है और शैव या जैन या अन्य कोई धर्म, वे परधर्म हैं, ऐसा समझ बैठे हैं। कृष्ण भगवान ने कहा है कि, ‘परधर्म भयावह,’ इससे लोग ऐसा समझे कि वैष्णव धर्म के अलावा अन्य किसी भी धर्म का पालन करेंगे तो भय है। इस तरह हर एक धर्मवाले ऐसा ही कहते हैं कि परधर्म यानी कि दूसरे धर्म में भय है, लेकिन कोई स्वधर्म या परधर्म को समझा ही नहीं। परधर्म मतलब देह का धर्म और स्वधर्म मतलब आत्मा का स्वयं का धर्म। इस देह को नहलाते हो, धुलाते हो, एकादशी करवाते हो, वे सभी देहधर्म हैं, परधर्म हैं, इसमें आत्मा का एक भी धर्म नहीं है, स्वधर्म नहीं है। यह आत्मा ही अपना स्वरूप है। कृष्ण भगवान ने कहा है कि, ‘स्वरूप के धर्म का पालन करना, वह स्वधर्म है। और ये एकादशी करते हैं या अन्य कुछ करते हैं, वह तो पराया धर्म है, उसमें स्वरूप नहीं है।’

‘खुद का आत्मा ही कृष्ण है’ ऐसा समझ में आए, उसकी पहचान हो जाए, तभी स्वधर्म का पालन किया जा सकता है। जिसे अंदरवाले कृष्ण की पहचान हो गई, वही सच्चा वैष्णव कहलाता है। आज तो कोई भी सच्चा वैष्णव नहीं बन पाया है! ‘वैष्णव जन तो तेने रे कहीए...’ उस परिभाषा के अनुसार भी, एक भी वैष्णव नहीं हुआ है!

Reference: Book Name: आप्तवाणी 2 (Page #372 - Paragraph #1 to #3)

‘वस्तु स्व-गुणधर्म में परिणामित हो, वह धर्म है।’  -दादाश्री

साइन्टिफिक तरीके से यदि समझें तो जैसे सोना सोने के गुणधर्म में हो, तभी वह सोना कहलाता है, पीतल को बफिंग करके रखें तो वह कभी भी सोना नहीं बन सकता। वैसे ही वस्तु जब खुद के स्व-गुणधर्म में, स्व-स्वभाव में परिणामित होती है, तब वह वस्तु उसके गुणधर्म में है, वस्तु खुद के धर्म में है, ऐसा कहा जा सकता है और वस्तु उसके गुणधर्म से कभी भी भिन्न नहीं हो सकती। आत्मा जब खुद के गुणधर्म में ही रहे, खुद के स्वभाव में आकर स्व-स्वभाव में ही स्थित हो जाए, तब आत्मा आत्मधर्म में है, ऐसा कहा जा सकता है। इसे ही सर्वज्ञ भगवान ने स्वधर्म, आत्मधर्म, रियल धर्म कहा है।

Reference: Book Excerpt: आप्तवाणी 2 (Page #11 - Paragraph #2 & #3)

गीता में धर्म के बारे में क्या लिखा है?

इस प्रकार धर्म का तात्पर्य यह है कि वह जो किसी वस्तु का अस्तित्व प्रकट करता है । जैसे सूर्य का धर्म प्रकाश है अग्नि का धर्म उष्णता है । धर्म का अर्थ केवल साधुता या नैतिकता नहीं है वरन अपने सच्चे स्वरूप को पहचान उसी के अनुरूप कार्य करना है ।

कृष्ण के अनुसार धर्म का क्या अर्थ है?

श्रीकृष्ण जी की दृष्टि से धर्म का अर्थ है आत्मा (धारण करने वाला) और क्षेत्र का अर्थ है शरीर।

गीता के अनुसार सबसे बड़ा पाप क्या है?

"जीव हत्या" सबसे बड़ा पाप हैं , अनावश्यक हरे पेड़ों को काटना भी पाप हैं।

गीता में ईश्वर को क्या कहा गया है?

31वें श्लोक में भी 'परमात्माऽयमव्यय:' शब्दों के द्वारा इसी पुरुष को ही अविनाशी परमात्मा कह दिया है। बेशक पंदरहवें अध्याय के 17-18 श्लोकों में परमात्मा, उत्तम पुरुष, पुरुषोत्तम तथा ईश्वर शब्दों से ऐसे ही ईश्वर का उल्लेख आया है जो प्रकृति एवं पुरुष के ऊपर - दोनों से निराला और उत्तम - बताया गया है।