NCERT Solutions for Class 12 Hindi Core – जनसंचार माध्यम और लेखन – पत्रकारीय लेखन के विभिन्न रूप और लेखन प्रक्रिया एक अच्छा पत्रकार कैसे बनें? Show फ़ीचर-लेखन में उलटा पिरामिड की बजाय फ़ीचर की शुरुआत कहीं से भी हो सकती है। जबकि विशेष रिपोर्ट के लेखन में तथ्यों की खोज और विश्लेषण पर जोर दिया जाता है। समाचार-पत्रों में विचारपरक लेखन के तहत लेख, टिप्पणियों और संपादकीय लेखन में भी विचारों और विश्लेषण पर जोर होता है। अच्छे लेखन में ध्यान देने योग्य बातें
पत्रकारीय लेखन क्या है? अखबार पाठकों को सूचना देने, उन्हें जागरूक और शिक्षित बनाने तथा उनका मनोरंजन करने का दायित्व निभाते हैं। लोकतांत्रिक समाजों में वे एक पहरेदार, शिक्षक और जनमत-निर्माता के तौर पर बहुत महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। अपने पाठकों के लिए वे बाहरी दुनिया में खुलने वाली ऐसी खिड़की हैं, जिनके जरिये असंख्य पाठक हर रोज सुबह देश-दुनिया और अपने पास-पड़ोस की घटनाओं, समस्याओं, मुद्दों तथा विचारों से अवगत होते हैं। अखबार या अन्य समाचार माध्यमों में काम करने वाले पत्रकार अपने पाठकों, दर्शकों और श्रोताओं तक सूचनाएँ पहुँचाने के लिए लेखन के विभिन्न रूपों का इस्तेमाल करते हैं। इसे ही पत्रकारीय लेखन कहते हैं। पत्रकार तीन प्रकार के होते हैं- 1. पूर्णकालिक
साहित्यिक और पत्रकारीय लेखन में अंतर
पत्रकारीय लेखन के स्मरणीय तथ्य पत्रकारीय लेखन करने वाले विशाल जन-समुदाय के लिए लिखते हैं, जिसमें पाठकों का दायरा और ज्ञान का स्तर विस्तृत होता है। इसके पाठक मजदूर से विद्वान तक होते हैं, अत: उसकी लेखन-शैली और भाषा-
समाचार कैसे लिखा जाता है? पत्रकारीय लेखन का सबसे जाना-पहचाना रूप समाचार-लेखन है। आमतौर पर समाचार-पत्रों में समाचार पूर्णकालिक और अंशकालिक पत्रकार लिखते हैं, जिन्हें संवाददाता या रिपोर्टर भी कहते हैं। समाचार-लेखन की विशेष शैली उलटा पिरामिड शैली हालाँकि इस शैली का प्रयोग 19वीं सदी के मध्य से ही शुरू हो गया था लेकिन इसका विकास अमेरिका में दौरान हुआ। उस समय संवाददाताओं को अपनी खबरें टेलीग्राफ़ संदेशों के ज् यूँ महँगी, अनियमित और दुर्लभ थीं। कई बार तकनीकी कारणों से सेवा ठप्प हो किसी घटना की खबर कहानी की तरह विस्तार से लिखने की बजाय संक्षेप में पिरामिड शैली का विकास हुआ और धीरे-धीरे लेखन और संपादन की सुविधा के की मानक (स्टैंडर्ड) शैली बन गई। समाचार – लेखन और छह ककार किसी समाचार को लिखते हुए जिन छह सवालों का जवाब देने की कोशिश की जाती है, वे हैं-
इस क्या, किसके (या कौन), कब, कहाँ, कैसे और क्यों को ही छह ककारों के रूप में जाना जाता है। उदाहरणतया 26 जून, 2015 के ‘हिंदुस्तान’ दैनिक में प्रकाशित समाचार पर ध्यान दीजिए- 23 अगस्त को देश भर के लखों केंद्रों पर नव साक्षरों की परीक्षा होगी, जिसमें एक करोड़ से ज्यादा लोगों के बैठने की संभावना हैदेश मैं होगी दूनिया की सबसे बड़ी परीक्षाक्या – दुनिया की सबसे बड़ी परीक्षा किसकी – नवसाक्षरों की कब – 23 अगस्त, 2015 को कहाँ – देशभर के लाखों केंद्रों परसमाचार का इंट्रो-मानव संसाधन विकास मंत्रालय अगले महीने 23 अगस्त, 2014 को दुनिया की सबसे बड़ी परीक्षा कराने जा रहा है। इसमें एक करोड़ से ज्यादा नवसाक्षर परीक्षार्थियों के हिस्सा लेने की संभावना है। परीक्षा देश के 26 राज्यों के 410 जिलों में दो लाख सै ज्यादा केंद्रों पर होगी।कैसे – मानव संसाधन विकास मंत्रालय, राज्य के शिक्षा विभाग तथा मुक्त बिदूयालयी संस्थान के सहयोग से क्यों – अधिकाधिक लोगों को साक्षर बनानासमाचार की बाँडी-साक्षरता अभियान में पढ़ रहे लोग परीक्षा में शामिल होंगे : मंत्रालय ‘साक्षर भारत अभियान’ के तहत पढ़ रहे छात्र-छात्राओं के लिए इस परीक्षा का आयोजन कर रहा है। स्कूल न जा पाने वाले 16 साल सै लेकर किसी भी आयु तक के वे लोग इसमें भाग लेंगे जो साक्षर भारत अभियान’ शिक्षा ले रहे हैं। इसे अंजाम देने में मानव संसाधन विकास मंत्रालय के अलावा राज्यों के शिक्षा महकमे, प्रौढ़ शिक्षा विभाग और राष्ट्रीय मुक्त विदूयालयी संस्थान के कार्मिक एवं स्वंयसेवक भी जुटेंगे।उदूधरपा/स्त्रोत-संवाददाता , हिंदुस्तान, नई दिल्ली। 150 अंकों का प्रश्न-पत्र : करीब 13 भाषाओ में 150 अच्छे का प्रश्न-पत्र होता हे। इसमें लिखने, अक्षर या शब्द पहचानने और गणित के छोटे-छोटे सवाल होते हैं। 60 फीसदी से ज्यादा अंक लाने वालों को ए ग्रेड, 40 फ्रीसदी रनै ज्यादा अंक लाने वालों को बी ग्रेड दिया जाता है। सी ग्रेड वाले फेल माने जाते हैं, उन्हें दुबारा परीक्षा देनी होती है। परीक्षार्थियों में होंगी 70 फीसदी महिलाएँ: मत्रालय के अनुसार यह कार्यक्रम उन जिलों में चल रहा है, जहाँ महिलाओँ की साक्षरता दर 50 फीसदी से कम है, इसलिए इसमें ‘ज्यादातर महिलाएं होती हैं। यह कार्यक्रम 2010 से शुरू हुआ था और तब से पाँच करोड़ लोग साक्षर हो चुके हैं।
उपर्युक्त समाचार के पहले पैराग्राफ़ यानी मुखड़े (इंट्रो) में चार ककारों-क्या, कौन, कब और कहाँ-के बाबत जानकारी दी गई है जबकि उसके बाद के तीन पैराग्राफ़ में दो अन्य ककारों-कैसे और क्यों-के माध्यम से परीक्षा के आयोजन के कारणों पर प्रकाश डाला गया है। अधिकांश समाचार इसी शैली में लिखे जाते हैं। लेकिन कभी-कभी अपने महत्व के कारण ‘कैसे” या ‘क्यों’ भी समाचार के मुखड़े में आ सकते हैं। एक और बात याद रखने की है कि समाचार में सूचना के स्रोत यानी जिससे जानकारी मिली है, उसको भी अवश्य उद्धृत करना चाहिए। समाचार-लेखन के कुछ अन्य उदाहरण आठ मिनट में आठ कारों की बैटरी चोरी नई दिल्ली, वरिष्ठ सवाददाता। इलाके में रहने वाले शैलेंद्र नारंग ने बताया कि चोर उनकी मारुति वैन से बैटरी चोरी कर ले गए। उन्होंने बताया कि उनके मुताबिक उनकी गली से आठ कारों की बैटरिया चोरी की गई। यहाँ रहने वाले राधेश्याम ने बताया कि एक साल के भीतर यह तीसरी घटना है जब उनकी कार से बैटरी निकाल ली गई। लोगों ने बताया कि ये लोग सिर्फ़ मारुति की गाड़ियों को निशाना बनाते हैं। यह पूरी घटना गुरुरामदास नगर में रहने वाले बृजेश कौशिक के घर के बाहर लगे सीसीटीवी में कैद हो गई है। सीसीटीवी फुटेज देखने पर पता चला कि सुबह चार बजे दो संदिग्ध व्यक्ति सफेद रंग की एक्टिवा से पूरी गली का जायजा लेते हैं और फिर वापस चले जाते हैं। पाँच मिनट बाद वे वापस आते हैं और राजकिशन जैन की गाड़ी को निशाना हैं। सफेद कुर्ता-पाजामा और सफेद जालीदार टोपी पहने तकरीबन 27-28 वर्षीय युवक फुर्ती से कार का बोनट खोल देता है और जेब से औजार निकालकर बैटरी चुरा लेता है। ऐसा करने में उसे करीब एक मिनट का समय लगता है। गैस सिलेंडर में रिफ़िलिंग से धमाका, छत उड़ी नोएडा, प्रमुख सवाददाता। इस घटना में कोई हताहत नहीं हुआ है, लेकिन पड़ोस की बिजली की एक दुकान का सारा सामान जल गया है। दुकानदार ने एफ़आईआर दर्ज कराने के साथ ही प्रशासन ने भी रिफ़िलिंग करने वाले के खिलाफ़ रिपोर्ट दर्ज कराई है। सोनू भारद्वाज की गैस रिफ़िलिंग की दुकान में बुधवार सुबह 11 बजे पाँच किलो के सिलेंडर में रिफ़िलिंग के दौरान बर्नर की जाँच करते हुए आग लग गई। सोनू आग लगते ही मौके से भाग गया। देखते-ही-देखते चार सिलेंडरों में धमाके हुए और दुकान की छत उड़ गई। सूचना पर पुलिस और दमकल की गाड़ियाँ मौके पर पहुँचीं। दमकल की चार गाड़ियों ने सोनू की दुकान तथा देवेंद्र की बिजली के सामान की दुकान में लगी आग को बुझाया। फीचर क्या है? समकालीन घटना या किसी भी क्षेत्र विशेष की विशिष्ट जानकारी के सचित्र तथा मोहक विवरण को फ़ीचर कहा जाता है। इसमें तथ्यों को मनोरंजक ढंग से प्रस्तुत किया जाता है। इसके संवादों में गहराई होती है। यह सुव्यवस्थित, सृजनात्मक व अद्धि न है जिक उद्देश्य पाठकों को स्चना ने तथा उह शतकने के साथ मुष्यरूप सेउक मोजना करना होता है। फ़ीचर में विस्तार की अपेक्षा होती है। इसकी अपनी एक अलग शैली होती है। एक विषय पर लिखा गया फ़ीचर प्रस्तुति विविधता के कारण अलग अंदाज प्रस्तुत करता है। इसमें भूत, वर्तमान तथा भविष्य का समावेश हो सकता है। इसमें तथ्य, कथन व कल्पना का उपयोग किया जा सकता है। फ़ीचर में आँकड़े, फोटो, कार्टून, चार्ट, नक्शे आदि का उपयोग उसे रोचक बना देता है। फीचर व समाचार में अंतर.
फ़ीचर के प्रकार
फीचर-लेखन संबंधी मुख्य बातें
उदाहरण बार-बार एक ही शब्द दोहराने की आदत आपको मुश्किल में भी डाल सकती है। खुद पर विश्वास और दृढ़ निश्चय हो तो आप इससे छुटकारा पाने में सफल हो सकते हैं। तकिया कलाम यानी सखुन तकिया। सोते समय सिर को आराम देने के लिए जैसे तकिया का सहारा लिया जाता है, उसी प्रकार अपने कथन या उक्ति को जोर देने के लिए ‘आपकी कृपा …….आपकी कृपा’, ‘यानी कि ………..यानी कि’, ‘है ना ’ है ना’ शब्द विशेष का सहारा लिया जाता है। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि तकिया कलाम हकलाने या तुतलाने जैसा ही एक रोग है। कुछ लोग निश्चित अवस्था तक सुधर जाते हैं और जो नहीं सुधरते, वे उसके रोगी हो जाते हैं। लंदन के मनोवैज्ञानिक डॉ० बुच मानते हैं कि तकिया कलाम एक प्रकार का इ०सी०ए० है, यानी एक्स्ट्रा केरिक्यूलर एक्शन है। इस इस कुक करता होता हैऔ वाक्टुता बात है तिकया कहामक बेल प्रयोग सायक बाद व बारता करना भी है। दृढ़ निश्चय से निजात तकिया कलाम के इस्तेमाल से आपको कई बार विपरीत और हास्यास्पद परिस्थितियों का भी सामना करना पड़ सकता है, इसलिए बेहतर होगा कि दूसरों के टोकने या खुद मजाक बनने से पहले आप खुद अपने स्वभाव को बदल लें। 2. बिना प्यास के भी पिएँ पानी सर्दी के मौसम में वैसे तो सब कुछ हजम हो जाता है, इसलिए जो मर्जी खाएँ। इसके अलावा सर्दी के मौसम में पानी पीना शरीर के लिए बहुत जरूरी होता है। गर्मी के दिनों में तो बार-बार प्यास लगने पर व्यक्ति पर्याप्त मात्रा में पानी पी लेता है, लेकिन सर्दी के मौसम में वह इस चीज को नजरअंदाज कर देता है। ऐसा नहीं होना चाहिए क्योंकि मौसम चाहे सर्दी का हो या फिर गर्मी का, शरीर को पानी की जरूरत होती है। जब तक शरीर को पानी पर्याप्त मात्रा में नहीं मिलेगा, तब तक शरीर का विकास भी सही तरीके से नहीं हो पाएगा। माना कि सर्दी में प्यास नहीं लगती, लेकिन हमें बिना प्यास के भी पानी पीना चाहिए। पानी पीने से एक तो शरीर की अंदर से सफ़ाई होती रहती है। इसके अलावा पथरी की शिकायत भी अधिक पानी पीने से दूर हो जाती है। पानी पीने से शरीर की पाचन-शक्ति भी सही बनी रहती है तथा पाचन-रसों का स्राव भी जरूरत के अनुसार होता रहता है। बिना पानी के शरीर अंदर से सूखा हो जाता है, जिससे शारीरिक क्रियाओं में व्यवधान उत्पन्न हो जाता है। विज्ञान में पानी को हाइड्रोजन तथा ऑक्सीजन का मिश्रण माना गया है और अॉक्सीजन हमारे जीवन के लिए सबसे जरूरी गैस है। इसी वजह से पानी को भी शरीर के लिए जरूरी माना गया है, चाहे सर्दी हो या फिर गर्मी। 3. अच्छे काम पर बच्चों को करें एप्रिशिएट हर कोई गलतियों से सबक लेता है। जब गलती ही अच्छे कार्य के लिए प्रेरित करती है तो बच्चों को भी गलती करने पर दुबारा अच्छे कार्य के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए। अच्छा काम करने पर बच्चों को यानी प्रोत्साहित करना जरूरी है, जब हम बच्चों को प्रोत्साहित करेंगे तो वे आगे भी बेहतर करने को उत्सुक होंगे। लोकनायक जयप्रकाश अस्पताल के चाइल्ड स्पेशलिस्ट डॉ० तनुज के मुताबिक आम तौर पर दो वर्ष के बच्चे का 90 प्रतिशत दिमाग सीखने-समझने के लिए तैयार हो जाता है और पाँच वर्ष तक वह पूर्ण रूप से सीखने, बोलने लायक हो जाता है। यही वह उम्र होती है, जब बच्चा तेजी से सीखता है। ऐसे में माहौल भी इस तरह का हो कि बच्चा अच्छा सीखे। गलती करने पर यदि प्यार से समझाया जाए तो वह उसे समझेगा। उसे गलत करने पर टोकना जरूरी हो जाता है। वरना वह गलती को दोहराता रहेगा। बच्चों को बेहतर करने के लिए प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए। डॉ० तनुज कहते हैं कि बच्चों को यह नहीं पता होता कि वे जो कर रहे हैं, वह सही है या गलत। उसे बताया जाए कि जो उसने किया है, वह गलत है, क्योंकि जब तक बच्चों को बताया नहीं जाएगा, उन्हें गलती के बारे में पता नहीं चलेगा। यदि एक बार उसकी गलती के विषय में उसे बताते हैं तो वह दुबारा वही गलती नहीं करेगा। बच्चों के साथ हमारा व्यवहार वैसा ही हो, जैसा हम खुद के लिए अपेक्षा करते हैं। बच्चों को प्यार-दुलार की ज्यादा जरूरत होती है। 4. बच्चों में आत्मविश्वास सफलता के लिए आत्मविश्वास बहुत जरूरी है। आत्मविश्वास से भरपूर बच्चे किसी भी मुश्किल का सामना बड़ी आसानी से कर लेते हैं, लेकिन ज्यादातर बच्चों में आत्मविश्वास की कमी होती है। ऐसे बच्चे अपने कामों के लिए अपने मम्मी-पापा पर ही निर्भर रहते हैं। हर कदम बढ़ाने के लिए उन्हें मम्मी-पापा के सहारे की जरूरत होती है। बड़े होने पर ऐसे बच्चों को बहुत परेशानियों का सामना करना पड़ता है। लेकिन अगर शुरुआत से ही ध्यान दिया जाए तो बच्चों को आत्मविश्वासी बनाया जा सकता है। छोटे-छोटे फैसले खुद करने दें विकसित करें आत्मविश्वास की भावना दें खुलकर जीने की आजादी 5. बस्ते का बढ़ता बोझ आज जिस किसी भी गली, मोहल्ले या चौराहे पर सुबह के समय देखिए, हर जगह छोटे-छोटे बच्चों के कंधों पर भारी बस्ते लदे हुए दिखाई देते हैं। कुछ बच्चों से बड़ा तो उनका बस्ता ही होता है। यह दृश्य देखकर आज की शिक्षा-व्यवस्था की प्रासंगिकता पर प्रश्नचिहन लग जाता है। क्या शिक्षा-नीति के सूत्रधार बच्चों को किताबों के बोझ से लाद देना चाहते हैं। वस्तुत: इस मामले पर खोजबीन की जाए तो इसके लिए समाज अधिक जिम्मेदार है। सरकारी स्कूलों में छोटी कक्षाओं में बहुत कम पुस्तकें होती हैं, परंतु निजी स्कूलों में बच्चों के सर्वागीण विकास के नाम पर बच्चों व उनके माता-पिता का शोषण किया जाता है। स्कूल गैर-जरूरी विषयों की पुस्तकें भी लगा देते हैं, ताकि वे अभिभावकों को यह बता सकें कि वे बच्चे को हर विषय में पारंगत कर रहे हैं, जिससे भविष्य में वह हर क्षेत्र में कमाल दिखाने में समर्थ होगा। अभिभावक भी सुपरिणाम की चाह में यह बोझ झेल लेते हैं, परंतु इसके कारण बच्चे का बचपन समाप्त हो जाता है। वह हर समय पुस्तकों के ढेर में दबा रहता है। खेलने का समय उसे नहीं दिया जाता। अधिक बोझ के कारण उसका शारीरिक विकास भी कम होता है। छोटे-छोटे बच्चों के नाजुक कंधों पर लदे भारी-भारी बस्ते उनकी बेबसी को ही प्रकट करते हैं। इस अनचाहे बोझ का वजन विद्यार्थियों पर दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है जो किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है। 6. महानगर की ओर पलायन की समस्या महानगर सपनों की तरह है। मनुष्य को ऐसा लगता है मानो स्वर्ग वहीं है। हर व्यक्ति ऐसे स्वर्ग की ओर खिचा चला आता है। चमक-दमक, आकाश छूती इमारतें, मनोरंजन आदि सब कुछ पा लेने की चाह में गाँव का सुदामा भी लालायित होकर चल पड़ता है, महानगर की ओर। आज महानगरों में भीड़ बढ़ रही है। हर ट्रेन, बस में आप यह देख सकते हैं। गाँव यहाँ तक कि कस्बे का व्यक्ति भी अपनी दरिद्रता समाप्त करने के ख्वाब लिए महानगरों की तरफ चल पड़ता है। शिक्षा प्राप्त करने के बाद रोजगार के अधिकांश अवसर महानगरों में ही मिलते हैं। इस कारण गाँव व कस्बे से शिक्षित व्यक्ति शहरों की तरफ भाग रहा है। इस भाग-दौड़ में वह अपनों का साथ भी छोड़ने को तैयार हो जाता है। दूसरे, अच्छी चिकित्सा सुविधा, परिवहन के साधन, मनोरंजन के अनेक तरीके, बिजली-पानी की कमी न होना आदि अनेक आकर्षण महानगर की ओर पलायन को बढ़ा रहे हैं, जिससे महानगरों की व्यवस्था चरमराने लगी है। यहाँ के साधन भी भीड़ के सामने बौने हो जाते हैं। महानगरों का जीवन एक ओर आकर्षित करता है तो दूसरी ओर यह अभिशाप से कम नहीं है। सरकार को चाहिए कि वह कस्बों व गाँवों के विकास पर भी ध्यान दे। इन क्षेत्रों में शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवहन, रोजगार आदि की सुविधा होने पर महानगरों की ओर पलायन रुक सकता है। 7. फुटपाथ पर सोते लोग महानगरों में सुबह सैर पर निकलिए, एक तरफ आप स्वास्थ्य-लाभ करेंगे तो दूसरी तरफ आपको फुटपाथ पर सोते हुए लोग नजर आएँगे। महानगर को विकास का आधार-स्तंभ माना जाता है, लेकिन वहीं पर मानव-मानव के बीच इतना अंतर है। यहाँ पर दो तरह के लोग हैं-एक उच्च वर्ग, जिसके पास उद्योग, सत्ता, धन है, जिससे वह हर सुख भोगता है। उसके पास बड़े-बड़े भवन हैं और यह वर्ग महानगर के जीवन-चक्र पर प्रभावी है। दूसरा वर्ग वह है जो अमीर बनने की चाह में गाँव छोड़कर आता है तथा यहाँ आकर फुटपाथ पर सोने के लिए मजबूर हो जाता है। इसका कारण उसकी सीमित आर्थिक क्षमता है। महँगाई, गरीबी आदि के कारण इन लोगों को भोजन भी मुश्किल से नसीब होता है। घर इनके लिए एक सपना होता है। इस सपने को पूरा करने के चक्कर में यह वर्ग अकसर छला जाता है। सरकारी नीतियाँ भी इस विषमता के लिए दोषी हैं। सरकार की तमाम योजनाएँ भ्रष्टाचार के मुँह में चली जाती हैं और गरीब सुविधाओं की बाट जोहता रहता है। वह गरीबी में पैदा होता है, गरीबी में पलता-बढ़ता है और गरीबी में ही मर जाता है। वह जीते-जी रूखी-सूखी खाकर पेट की आग जैसे-तैसे बुझा लेता है और फटे-पुराने कपड़ों से तन ढँक लेता है, पर उसके सिर पर छत नसीब नहीं हो पाती और वह फुटपाथ, पार्क या अन्य खुली जगहों पर सोने को विवश रहता है। 8. ‘आतंकवाद की समस्या’ या ‘आतंकवाद का धिनौना चेहरा’ सुबह अखबार खोलिए-कश्मीर में चार मरे, मुंबई में बम फटा-दो मरे, ट्रेन में विस्फोट। इन खबरों से भारत का आदमी सुबह-सुबह साक्षात्कार करता है। उसे लगता है कि देश में कहीं शांति नहीं है। न चाहते हुए भी वह आतंक के फ़ोबिया से ग्रस्त हो जाता है। आतंकवाद एक विश्वव्यापी समस्या बन गया है। यह क्रूरतापूर्ण नरसंहार का एक रूप है। आतंकवाद मुख्यत: 20वीं सदी की देन है तथा इसके उदय के अनेक कारण हैं। कहीं यह एक वर्ग द्वारा दूसरे वर्ग के शोषण का परिणाम है तो कहीं यह विदेशी राष्ट्रों की करतूत है। कुछ विकसित देश धर्म के नाम पर अविकसित देशों में लड़ाई करवाते हैं। आतंकवाद की जड़ में अशिक्षा, बेरोजगारी, पिछड़ापन है। सरकार का ध्यान ऐसे क्षेत्रों की तरफ तभी जाता है, जब वहाँ हिंसक घटनाएँ शुरू हो जाती हैं। देश के कुछ राजनीतिक दल भी अपनी सत्ता बनाए रखने के लिए आतंक के नाम पर दंगे करवाते रहते हैं। इस समस्या को सामूहिक प्रयासों से ही समाप्त किया जा सकता है। आतंकवादी भय का माहौल पैदा करके अपने उद्देश्यों में सफल होते हैं। जनता को चाहिए कि वह ऐसे तत्वों का डटकर मुकाबला करे। आतंक से जुड़े व्यक्तियों के खिलाफ़ सख्त कानूनी कार्रवाई करनी चाहिए। सरकार को भी आतंक-प्रभावित क्षेत्रों में विकास-योजनाएँ शुरू करनी चाहिए ताकि इन क्षेत्रों के युवक गरीबी के कारण गलत हाथों का खिलौना न बनें। 9. चुनावी वायदे “अगर हम जीते तो बेरोजगारी भत्ता दो हजार रुपये होगा।” जब भी चुनाव आते हैं तो ऐसे नारों से दीवारें रैंग दी जाती हैं। अखबार हो, टी०वी० हो, रेडियो हो या अन्य कोई साधन, हर जगह मतदाताओं को अपनी तरफ खींचने के लिए चुनावी वायदे किए जाते हैं। भारत एक लोकतांत्रिक देश है। यहाँ हर पाँच वर्ष बाद चुनाव होते हैं तथा सरकार चुनने का कार्य संपन्न किया जाता है। चुनावी बिगुल बजते ही हर राजनीतिक दल अपनी नीतियों की घोषणा करता है। वह जनता को अनेक लोकलुभावने नारे देता है। जगह-जगह रैलियाँ की जाती हैं। भाड़े की भीड़ से जनता को दिखाया जाता है कि उनके साथ जनसमर्थन बहुत ज्यादा है। उन्हें अपने-अपने क्षेत्र की समस्याओं का पता होता है। चुनाव-प्रचार के दौरान वे इन्हीं समस्याओं को मुद्दा बनाते हैं तथा सत्ता में आने के बाद इन्हें सुलझाने का वायदा करते हैं। चुनाव होने के बाद नेताओं को न जनता की याद आती है और न ही अपने वायदे की। फिर वे अपने कल्याण में जुट जाते हैं। वस्तुत: चुनावी वायदे कागज के फूलों के समान हैं जो कभी खुशबू नहीं देते। ये केवल चुनाव जीतने के लिए किए जाते हैं। इनका वास्तविकता से कोई संबंध नहीं होता। अत: जनता को नेताओं के वायदों पर यकीन नहीं करना चाहिए और विवेक तथा देशहित के मद्देनजर अपने मत का प्रयोग करना चाहिए। 10. वैलेंटाइन डे : शहरी युवाओं का त्योहार फरवरी माह की शुरुआत में ही मीडिया एक नए त्योहार को मनाने की तैयारी शुरू कर देता है। कंपनियाँ अपने उत्पादों में इस त्योहार के नाम पर छूट देनी शुरू कर देती हैं। यह सब प्रेम के नाम पर होता है। जी हाँ, यह त्योहार है-वैलेंटाइन डे। यह 14 फरवरी को मनाया जाता है। वैसे तो भारत में अनेक त्योहार मनाए जाते हैं; जैसे-होली, दीवाली, दशहरा, वैशाखी आदि। इन सबके पीछे पौराणिक, धार्मिक व आर्थिक आधार होते हैं, परंतु वैलेंटाइन डे पूर्णत: विदेशी है। इसका भारतीय मिट्टी से कोई लेना-देना नहीं है। मीडिया के प्रचार-प्रसार से यह कभी नहीं सोचना चाहिए कि यह भारत के गाँव-गाँव में मनाया जाने वाला त्योहार है। वस्तुत: यह शहरी त्योहार है। यहाँ के युवा इस दिन अपने प्यार का इजहार करते हैं। इस दिन युवा लड़के-लड़कियाँ अपने दोस्तों तथा प्रेमियों को कुछ-न-कुछ उपहार देकर अपने प्रेम का इजहार करते हैं। इस दिन के लिए बाजारों में तरह-तरह के उपहार व ग्रीटिंग कार्डस की भरमार देखी जा सकती है। कुछ लोग इसे ‘फ्रेंडशिप डे’ भी कहते हैं। इस दिन युवा अपने मन की इच्छाएँ व्यक्त करने के लिए आतुर होता है। वैसे इस दिन अनेक आपराधिक घटनाएँ भी घटती हैं। अपने प्रेमी से उचित जवाब न मिलने पर तेजाब डालने या आत्महत्या करने जैसी खबरें अकसर सुनाई देती हैं। वैसे समाज में उन्हीं त्योहारों को मनाना चाहिए जो देश की मिट्टी तथा संस्कृति से जुड़े हों। 11. जंक फूड की समस्या भोजन का स्वाद और स्वास्थ्य से सीधा संबंध है। स्वादिष्ट भोजन देखते ही हमारी लार टपकने लगती है और हम अपने आपको रोक नहीं पाते। कई बार तो हम बिना भूख के भी खाने के लिए उतावले ही बैठते हैं। ऐसी स्थिति आने पर यह समझना चाहिए कि हम जाने-अनजाने व्यसन या भोजन के लालच का शिकार हो रहे हैं। आज इस उपभोक्तावादी युग में चारों ओर वातावरण ऐसा बना दिया गया है कि हम ललचाए बिना रह ही नहीं सकते। दुकानों पर टैंगे स्वादिष्ट चटपटे और कुरकुरे व्यंजन तथा खाद्य वस्तुएँ देखकर हमारे मुँह में पानी आना स्वाभाविक ही है। हमारी भूख-प्यास को बढ़ाने में अभिनेत्रियों का योगदान भी कम नहीं है, जब वे यह कहती हुई ‘टेढ़ा है पर मेरा है’-कुरकुरे हमारी ओर बढ़ाती प्रतीत होती हैं; इसके अलावा सेवन अप, लिम्का, कोकाकोला आदि विज्ञापन हमें घर के भोजन से दूर करके अपनी ओर आकर्षित करते हैं; पिज्जा, बर्गर, नूडल, चाउमीन आदि के विज्ञापन हमारी भूख बढ़ा देते हैं तो हम उन्हें खरीदने के लिए बाध्य हो जाते हैं। अब तो विज्ञापन में बच्चे भी कहते दिखते हैं-‘खाने से डरता है क्या?” यह सुनकर जंक फूड के प्रति हमारी झिझक दूर होती है और हम उनके नफ़े-नुकसान पर विचार किए बिना उनको अपने नाश्ते और भोजन के अलावा समय-असमय खाना शुरू कर देते हैं। जंक फूड के प्रति बच्चों और युवाओं की दीवानगी देखने लायक होती है। आप कहीं भी चले जाइए, चप्पे-चप्पे पर बर्गर, हॉट डॉग, सैंडविच, पैटीज, नूडल्स, कोल्ड ड्रिक, समोसे, चाउमीन, ढोकले आदि मिल जाएँगे। इनमें छिपी उच्च कैलोरी की मात्रा बच्चों में मोटापा और आलस्य बढ़ाते हैं। डॉक्टर इन्हें स्वास्थ्य के लिए विष बताते हैं। योगगुरु रामदेव जैसे लोग इनका विरोध करते हैं, पर लोगों की समझ में यह बात आए तब न। मोटापा, मधुमेह, रक्तचाप हृदयाघात जैसी बीमारियों से यदि बचना है तो जंक फूड से तौबा करना ही पड़ेगा। 12. घरों में बढ़ती चोरी, हत्या आदि की घटनाओं पर फीचर निरंतर बढ़ती जनसंख्या ने अनेक समस्याओं को जन्म दिया है। इनमें से एक है-समाज में अवांछित घटनाओं में वृद्ध। खाली-ठाली बैठे लोग अपनी जरूरतें पूरी करने के लिए अनैतिक कार्यों में संलिप्त हो जाते हैं। इसी का परिणाम है-गाँव, शहर और महानगरों में चोरी, हत्या की घटनाओं में अप्रत्याशित वृद्ध। महानगरों में ये घटनाएँ होनी आम बात हो गई हैं। शहरों में लोगों का एकल परिवार और वृद्धावस्था में अपनों से अलग रहने को विवश वृद्ध दंपति प्राय: इन घटनाओं का शिकार बनते रहते हैं। शहरों की बढ़ती जनसंख्या के कारण कानून-व्यवस्था उतनी चुस्त-दुरुस्त नहीं रह पाती, जितनी होनी चाहिए। इसका अनुचित फ़ायदा चोर-उचक्के, डकैत आदि उठाते हैं और चोरी-डकैती की घटनाओं को अंजाम देते हैं। इन घटनाओं का विरोध करने वालों को ये मार-पीटकर घायल कर देते हैं और हत्या तक कर देते हैं। इनके शिकार शहर के बड़े-बड़े व्यापारी और धनाढ्य लोग बनते हैं। उनके बच्चों का अपहरण करके फिरौती राशि की माँग करना तथा उसकी पूर्ति न होने पर हत्या कर देना आम बात है। यद्यपि यहाँ पुलिस की तैनाती गाँवों की अपेक्षा अधिक होती है, पर पुलिस की निष्क्रियता देखकर लगता है कि अपराधियों और पुलिस में कोई साठ-गाँठ हो क्योंकि डकैत और हत्यारे अपना काम करके आसानी से चले जाते हैं। यद्यपि कुछ घटनाओं में पुलिस सफलता प्राप्त करती है, पर उनका प्रतिशत ‘न’ के बराबर है। इसके लिए सख्त कानून बनाकर उन्हें दृढ़ इच्छा शक्ति के साथ लागू करवाकर पूरी निष्ठा और ईमानदारी से पालन करवाया जाना चाहिए। अन्य हल प्रश्न अति लघूत्तरात्मक प्रश्न प्रश्न 1:
प्रश्न 2: प्रश्न 3: प्रश्न 4: प्रश्न 5: प्रश्न 6: प्रश्न 7: प्रश्न 8: प्रश्न 9: प्रश्न 10:
प्रश्न 11:
प्रश्न 12: प्रश्न 13: प्रश्न 14: प्रश्न 15: प्रश्न 16: प्रश्न 17: प्रश्न 18: प्रश्न 19: प्रश्न 20: प्रश्न 21:
प्रश्न 22: प्रश्न 23: प्रश्न 24: प्रश्न 25: प्रश्न 26: स्वयं करें निम्नलिखित में से किसी एक विषय पर लगभग 150 शब्दों में फीचर लिखिए
रिपोर्ट रिपोर्ट समाचार-पत्र, रेडियो और टेलीविजन की एक विशेष विधा है। इसके माध्यम से किसी घटना, समारोह या आँखों-देखे किसी अन्य कार्यक्रम की रिपोर्ट प्रस्तुत की जाती है। चूँकि दूरदर्शन दृश्य एवं श्रव्य दोनों ही उद्देश्य पूरा करने वाला माध्यम है, अत: इसके लिए आँखों-देखी घटना की रिपोर्ट तैयार की जाती है जबकि रेडियो के लिए केवल सुनने योग्य रिपोर्ट तैयार करने से काम चल जाता है। कभी संचालक द्वारा दी जा रही कार्यवाही का विवरण देखकर ही उसे रिपोर्ट का आधार बनाकर रिपोर्ट तैयार कर ली जाती है। रिपोर्ट की विशेषताएँ-
रिपोर्ट के कुछ उदाहरण प्रश्न 1: खुलासा : मुबई पर हमले के सबध में रिपोर्ट पेश कमजोर थे हम मुंबई आतंकी हमले की जाँच करने वाली प्रधान समिति ने मुंबई के तत्कालीन पुलिस कमिश्नर हसन गफूर की गंभीर चूक पाई है। समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि गफूर आतंकी हमले के दौरान शहर में फैली युद्ध जैसी स्थिति से निपटने में नाकाम रहे। रिपोर्ट में राज्य व शहर के आला अधिकारियों पर हमले के दौरान सामान्य कार्य-प्रणाली (एसओपी) का पालन न करने का आरोप लगाया गया है। इसमें पुलिस फ़ोर्स के तत्काल उन्नयन व लगातार समीक्षा के सुझाव भी दिए गए हैं। छह माह पहले महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण की सौंपी जा चुकी इस रिपोर्ट का मराठी अनुवाद गृहमंत्री आर०आर० पाटिल ने सोमवार को विधान सभा के पटल पर रखा। इस रिपोर्ट में दिए गए तथ्यों की जानकारी स्वयं पाटिल ने सदन को दी। इस रिपोर्ट को पूर्व गवर्नर आरडी प्रधान की अध्यक्षता में गठित दो-सदस्यीय समिति ने तैयार किया था। पाटिल ने सदन को बताया कि मुख्यमंत्री को मिलाकर गठित 16-सदस्यीय दल इस रिपोर्ट के सभी पहलुओं का अध्ययन करेगा। साथ ही मीडिया में इसके लीक होने की भी जाँच की जाएगी। उन्होंने स्वीकार किया कि महाराष्ट्र सरकार को दी गई रिपार्ट और लीक हुई रिपोर्ट एक जैसी थी। विधान सभा में विपक्ष के नेता एकाथ खडसे ने रिपोर्ट के मीडिया में लीक होने की सीबीआई जाँच की माँग की। उन्होंने इस मामले में सरकार पर लापरवाही बरतने का। विशेष रिपोर्ट के प्रकार
विशेष रिपोर्ट का उदाहरण पानी का संकट कुएँ भले ही अतीत की चीज हो गए हैं, लेकिन फिलहाल वे हमारे भविष्य के अंदेशे को बता रहे हैं। देश में चार हजार कुओं पर किए गए अध्ययन से यह साबित हुआ कि सात साल में देश के भूजल में 54 फ़ीसदी की कमी हो गई है और 22 शहर गंभीर जल-आपूर्ति संकट से गुजर रहे हैं। नासा के 2003 से 2013 तक के अध्ययन पर आधारित हाल के आँकड़ों के अनुसार सिंधु बेसिन जल-स्तर -4.263 मिलीमीटर प्रतिवर्ष और गंगा-ब्रहमपुत्र बेसिन में जल-स्तर -19,564 मिलीमीटर प्रतिवर्ष की दर से कम हो रहा है। नासा के उपग्रहों की हाल में जारी तस्वीरों ने भारत की चिंता बढ़ा दी है। इनके मुताबिक भारत-पाकिस्तान में सिंधु नदी के बेसिन क्षेत्र यानी उत्तर-पश्चिम भारत में भूजल तेजी से कम हो रहा है। उसने अपने उपग्रहों की तस्वीरों के आधार पर एक अध्ययन 2009 में भी जारी किया था, जिसमें बताया गया था कि सिंचाई के कारण उत्तर भारत के हरियाणा, पंजाब, राजस्थान और दिल्ली में 108 क्यूबिक किलोमीटर भूजल खत्म हो गया है। ये आँकड़े 2002 से 2008 के बीच के थे। तब से निश्चित रूप से यह संकट अब और गंभीर हुआ है। नासा के जुड़वाँ उपग्रहों ग्रेविटी रिकवरी और क्लाइमेट एक्सपेरिमेंट (ग्रेस) ने पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र में कुछ परिवर्तन महसूस किए। इनकी वजह जल-वितरण के तरीके में छिपी मिली। इसमें भूजल भी शामिल है। नासा ने पाया कि उत्तर भारत में भूजल तेजी से खत्म हो रहा है। मैट रोडेल की अगुवाई में हुए अध्ययन के मुताबिक उत्तर भारत कृषि उत्पादकता बढ़ाने के लिए सिंचाई पर निर्भर हो गया है। यदि भूजल के संतुलित उपयोग के कदम नहीं उठाए गए तो क्षेत्र के 11 करोड़ से ज्यादा लोगों को इसके दुष्परिणाम भुगतने पड़ेंगे। कृषि पैदावार में कमी आएगी और पीने योग्य पानी की किल्लत बढ़ेगी। संकट उतना जल का नहीं है, जितना जल-नीतियों का खड़ा किया हुआ है। भूजल स्रोतों का अंधाधुध दोहन हो रहा है। देश के राजनीतिज्ञ बड़े वोट बैंक को खुश रखने के लिए ट्यूबवेल जैसे उपकरणों और बिजली जरूरतों पर बड़े पैमाने पर सब्सिडी दे रहे हैं। हरित क्रांति की शुरुआत से ही मिली इस छूट के कारण भारत में भूजल सिंचाई बहुत तेजी के साथ बढ़ी है। जब बरसात पर्याप्त नहीं होती तो यह निर्भरता और बढ़ जाती है। जुलाई 2012 में भारत की कुल जनसंख्या का आधा यानी 67 करोड़ (दुनिया की आबादी का 10 प्रतिशत) लोगों को ग्रिड फेल होने की वजह से बिजली संकट से जूझना पड़ा था। विशेषज्ञों ने इसकी वजह उत्तर भारत में सूखे को ठहराया था। दरअसल कम वर्षा के कारण जल की कमी थी। किसानों ने फसल सींचने के लिए जरूरत से ज्यादा बिजली का उपयोग किया और ग्रिड फेल हो गई। – कुछ क्षेत्रों में पानी की माँग-आपूर्ति की स्थिति में असंतुलन है। शहरी क्षेत्रों में माँग 135 लीटर प्रति व्यक्ति प्रतिदिन । (एलपीसीडी) है, जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में वह माँग इसकी एक-तिहाई यानी 40 एलपीसीडी है। संयुक्त राष्ट्र का अनुमान है कि 2050 तक शहरी भारत की आबादी कुल जनसंख्या का 50 प्रतिशत बढ़ जाएगी। यानी जल की कमी वाले क्षेत्रों में 84 करोड़ लोग निवास कर रहे होंगे। अभी यह संख्या 32 करोड़ है। जल के कारण कई राज्यों में आपसी विवाद देखने को मिल चुके हैं। इनके और बढ़ने की संभावना है। नासा ने इस बात के लिए चेताया है कि भूजल का दोहन नियंत्रित नहीं किया गया तो संकट और गंभीर हो जाएगा। आज देश में 55 प्रतिशत भूजल-स्रोतों का उपयोग हो रहा है। सतह का जल हमें नदियों से मिलता है। बाँधों के जरिये इसका अंधाधुंध इस्तेमाल हो रहा है। इन बाँधों के कारण कुछ नदियों का जल-प्रवाह प्रभावित हुआ है। देश की खेती में 60 प्रतिशत भूजल लग रहा है। कुल मिलाकर 80 फीसदी पानी खेती में जा रहा है। इसके अलावा शहरों में 30 फीसदी और गाँवों में 70 फीसदी आपूर्ति भूजल से ही होती है। भारत में कुछ विशाल नदियाँ हैं। इन नदियों के एक बड़े हिस्से का उपयोग प्राकृतिक कारणों से नहीं हो पाता। ब्रहमपुत्र । जल उपयोग के हिसाब से सबसे ज्यादा संभावना वाली नदी है, लेकिन इसका हम महज चार प्रतिशत ही उपयोग कर सकते हैं। वास्तव में यह नदी दुर्गम पर्वतीय क्षेत्रों से बहती है, जिससे इसके पानी का समुचित उपयोग नहीं हो पाता। भारत में नदियों के 1900 अरब क्यूबिक मीटर जल उपयोग की संभावना है, लेकिन उपयोग 700 अरब क्यूबिक मीटर ७ ही हो पाता है। बाँधों के कारण सतह के जल पर भी असर पड़ा है। अन्य हल प्रश्न अति लघूत्तरात्मक प्रश्न प्रश्न 1: प्रश्न 2: प्रश्न 3: प्रश्न 4: प्रश्न 5: प्रश्न 6: प्रश्न 7: प्रश्न 8: प्रश्न 9: प्रश्न 10: प्रश्न 11: प्रश्न 12: प्रश्न 13: प्रश्न 14:
विवरणात्मक रिपोर्ट की परिभाषा दीजिए। रिपोर्ट और रिपोर्ताज में कोई दो मुख्य अंतर लिखिए। विशेष रिपोर्ट को किस शैली में लिखा जाता है? आलेख किसी एक विषय पर विचार प्रधान एवं गद्य प्रधान अभिव्यक्ति को ‘आलेख’ कहा जाता है। आलेख वस्तुत: एक प्रकार के लेख होते हैं जो अधिकतर संपादकीय पृष्ठ पर ही प्रकाशित होते हैं। इनका संपादकीय से कोई संबंध नहीं होता। ये लेख किसी भी क्षेत्र से संबंधित हो सकते हैं, जैसे-खेल, समाज, राजनीति, अर्थ, फिल्म आदि। इनमें सूचनाओं का होना अनिवार्य है। आलेख के मुख्य अंग आलेख के मुख्य अंग हैं-भूमिका, विषय का प्रतिपादन, तुलनात्मक चर्चा व निष्कर्ष। सर्वप्रथम, शीर्षक के अनुकूल भूमिका लिखी जाती है। यह बहुत लंबी न होकर संक्षेप में होनी चाहिए। विषय के प्रतिपादन में विषय का वर्गीकरण, आकार, रूप व क्षेत्र आते हैं। इसमें विषय का क्रमिक विकास किया जाता है। विषय में तारतम्यता व क्रमबद्धता अवश्य होनी चाहिए। तुलनात्मक चर्चा में विषयवस्तु का तुलनात्मक विश्लेषण किया जाता है और अंत में, विषय का निष्कर्ष प्रस्तुत किया जाता है। आलेख रचना के संबंध में प्रमुख बातें
आलेख के कुछ उदाहरण 1. एक अच्छा स्कूल स्कूल ऐसी जगह होना चाहिए जहाँ सीखने के लिए उचित माहौल बन सके। स्कूल के बुनियादी ढाँचे के अलावा इसके वैल्यू सिस्टम समेत हमें इसके वातावरण पर फिर से गौर करना होगा। हमें बच्चों को दखलंदाजी से मुक्त और रोचक माहौल देने की आवश्यकता है। हमें ऐसे तत्वों को पहचानकर दूर करना होगा, जो बच्चों के शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक विकास में बाधक हैं। अनुशासन के लिहाज से यही बेहतर है कि ऐसे नियम-कायदों को, जिन्हें बच्चे सजा की तरह समझे, जबरन लादने की बजाय नियमों को तय करने में उनकी भागीदारी भी हो। हमें उन्हें सशक्त बनाना होगा और स्कूली प्रक्रिया में उनकी भागीदारी सुनिश्चित करनी होगी। क्लास रूम में लोकतांत्रिक व्यवस्था नजर आए, जहाँ बच्चों के साथ इंटरएक्शन संवादात्मक हो, शिक्षात्मक नहीं; जहाँ सभी बच्चों के साथ समान व्यवहार किया जाए। आपसी संपर्क, संवाद और अनुभव पर आधारित शिक्षा संबंधी प्रविधियाँ अधिक प्रभावशाली होंगी। अवधारणाओं को सिखाने पर ध्यान देना चाहिए। मेरे विचार से यह बेहद जरूरी है कि हम शिक्षा को व्यापक सामाजिक संदर्भों के हिसाब से देखें। शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जिससे बच्चे अपने ज्ञान को बाहरी दुनिया के साथ जोड़ सकें। ज्ञान वास्तविक अनुभवों से आता है और यदि क्लास रूम के क्रियाकलापों को वास्तविकता से नहीं जोड़ा जाता तो शिक्षा हमारे बच्चों के लिए महज शब्दों और पाठों का खेल ही बनी रहेगी। आज हम एक समाज के तौर पर बेहतर स्थिति में हैं और बदलाव के लिहाज से महत्वपूर्ण कदम उठा सकते हैं। देश में कई स्कूल और संस्थान यह दर्शा रहे हैं कि वस्तुत: हम पुराने तौर-तरीकों से निजात पाकर बेहतर शिक्षा के लिए प्रयास कर सकते हैं। जयपुर का दिगंतर द्वारा संचालित बंध्याली स्कूल, बंगलूरू का सेंटर फ़ॉर लर्निग या बर्दवान में विक्रमशिला का विद्या स्कूल जैसे कुछ शिक्षालय ऐसी शिक्षा के लिए जाने जाते हैं, जैसी हम चाहते हैं। एकलव्य, दिगंतर और विद्या भवन जैसे सामाजिक संस्थान और आई डिस्कवरी तथा ईजेड विद्या जैसे कुछ सामाजिक उपक्रम पूरे देश में चलाए जा रहे इस सतत आंदोलन का एक हिस्सा हैं। इन सबके प्रभाव मुख्यधारा की स्कूलिंग पर नजर आने लगे हैं। 2. भारतीय कृषि की चुनीती ऐसे समय में, जब खाद्य पदार्थों की कीमतें आसमान छू रही हैं और दुनिया में भुखमरी अपने पैर पसार रही है, जलवायु-परिवर्तन से संबंधित विशेषज्ञ आगाह कर रहे हैं कि आने वाले वक्त में हमें और भी भयावह स्थिति का सामना करना पड़ेगा। दिनों-दिन बढ़ते वैश्विक तापमान की वजह से भारत की कृषि-क्षमता में लगातार गिरावट आती जा रही है। एक अनुमान के मुताबिक इस क्षमता में 40 फ़ीसदी तक की कमी हो सकती है। (ग्लोबल वार्मिग एंड एग्रीकल्चर, विलियम क्लाइन)। कृषि के लिए पानी और ऊर्जा या बिजली दोनों ही बहुत अह तत्व हैं, लेकिन बढ़ते तापमान की वजह से दोनों की उपलब्धता मुश्किल होती जा रही है। तापमान बढ़ने के साथ ही देश के एक बड़े हिस्से में सूखे और जल संकट की समस्या भी बद से बदतर होती जा रही है। एक तरफ वैश्विक तापमान से निपटने के लिए जीवाश्म ईंधन के इस्तेमाल पर ब्रेक लगाने की जरूरत महसूस की जा रही है। वहीं दूसरी ओर कृषि-कार्य के लिए पानी की आपूर्ति के वास्ते बिजली की आवश्यकता भी दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। खाद्य सुरक्षा, पानी और बिजली के बीच यह संबंध जलवायु-परिवर्तन की वजह से कहीं ज्यादा उभरकर सामने आया है। एक अनुमान के मुताबिक अगले दशक में भारतीय कृषि की बिजली की जरूरत बढ़कर दुगुनी हो जाने की संभावना है। यदि निकट भविष्य में भारत को कार्बन उत्सर्जन में कटौती करने के समझौते को स्वीकारने के लिए बाध्य होना पड़ता है तो सबसे बड़ा सवाल यही उठेगा कि फिर आखिर भारतीय कृषि की यह माँग कैसे पूरी की जा सकेगी। 3. मनोरंजन का नया बॉस ‘रियलिटी शो’ किस चिड़िया का नाम है, इस दशक से पहले हिंदुस्तान में शायद ही कोई इस बात से वाकिफ़ था। लेकिन इस पूरे दशक में छोटे पर्दे और रियलिटी शो का मानो चोली-दामन का साथ हो गया। इन रियलिटी शो के जरिये आम लोगों की प्रतिभा सामने आई और हिंदुस्तानी दर्शकों को अहसास हुआ कि छोटा पर्दा बड़े सितारे तैयार कर सकता है और कुछ लोगों की किस्मत भी बदल सकता है। छोटे पर्दे को रियलिटी शो ने इस दशक में वह ताकत दी कि यह बड़े पर्दे के सितारों को अपने फलक तक खींच लाया। बॉलीवुड के इतिहास के सबसे बड़े सितारे अमिताभ बच्चन हों या शाहरुख खान, सलमान खान, गोविंदा, अक्षय कुमार, माधुरी दीक्षित, शिल्पा शेट्टी और अरशद वारसी, एक के बाद एक सितारों को यहाँ पनाह मिली। गेम शो हो या डांस शो, गीत हों या एक घर में रहकर एक-दूसरे की टाँग खींचने वाले शो या फिर एमटीवी रोडीज जैसे बिगडैल युवाओं के शो, दर्शकों ने हरेक को पूरी तवज्जो दी। 4. हस्ती मिटती नहीं हमारी ………… वर्ष 2000 के बाद का दशक समाप्त हो चुका है। अगला दशक प्रारंभ हो चुका है। सन 2001 में जॉर्ज डब्ल्यू० बुश के दुनिया के सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था और सामरिक ताकत की कमान सँभालने के बाद से बराक ओबामा के द्रवितीय कार्यकाल तक बहुत कुछ बदल चुका है। बुश के पर्दे पर उभरने के समय जहाँ अमेरिका ही दुनिया के रंगमंच पर प्रमुख भूमिका में था, वहाँ अब ओबामा के दौर में चीन और भारत भी बेहद अह भूमिका में नजर आने लगे हैं। शीतयुद्ध के बाद बनी एकध्रुवीय दुनिया ने भला ऐसी अँगड़ाई क्यों ली? इस सवाल के जवाब में कुछ लोग बुश की नीतियों को दोषी ठहराते हैं तो कुछ लोग चीन और भारत की नीतियों और प्रतिभाओं को इस चमत्कार का श्रेय देते हैं। छाछ भी फ्रैंक-फूंक कर पीने की तर्ज पर खुद ओबामा दोनों ही कारणों का अपने भाषणों और नीतियों में उल्लेख करते नजर आ रहे हैं। मगर एक बात पर तो शायद सभी एक मत हैं कि दुनिया की इस बदलती तस्वीर के पीछे का असल कलाकार तो आर्थिक मंदी ही है। बीते दशक की शुरुआत में जहाँ सब कुछ हरा-हरा नजर आ रहा था, वहीं दबे पाँव आई मंदी ने मानो सब कुछ उलट-पुलट कर दिया। जाहिर है, ऐसे खतरनाक भूचाल के बाद अगर अमेरिका और यूरोप जैसे महारथी औधे मुँह गिर पड़े हों और भारत फिर भी मतवाली चाल से चलता चला जा रहा हो तो फिर क्यों न दुनिया इस चमत्कार को नमस्कार करे। 5. कॉमनवेल्थ गेम्स कॉमनवेल्थ गेम्स का सबसे पहला प्रस्ताव दिया था, वर्ष 1891 में ब्रिटिश नागरिक एस्ले कूपर ने। उन्होंने ही एक स्थानीय समाचार-पत्र में इस खेल प्रतियोगिता का प्रारंभिक प्रारूप पेश किया था। इसके अनुसार, यदि कॉमनवेल्थ के सदस्य देश प्रत्येक चार वर्ष के अंतराल पर इस तरह की खेल प्रतियोगिताओं का आयोजन करें, तो यह उनकी गुडविल तो बढ़ाएगा ही, आपसी एकजुटता में भी खूब इजाफ़ा होगा। फिर क्या था, ब्रिटिश साम्राज्य को कूपर का यह प्रस्ताव बेहद पसंद आया और उसके साथ ही शुरू हो गया खेलों का यह महोत्सव। पहली बार कॉमनवेल्थ गेम्स आयोजित करने की कोशिश हुई वर्ष 1911 में। यह अवसर था किंग जॉर्ज पंचम के राज्याभिषेक का। यह एक बड़ा उत्सव था, जिसमें अन्य सांस्कृतिक आयोजनों के अलावा, इंटर एंपायर चैंपियनशिप भी संपन्न हुई। इसमें ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, साउथ अफ्रीका और यूके की टीमें शामिल हुई थीं। इसमें विजेता टीम थी-कनाडा, जिसे दो फीट और छह इंच की सिल्वर ट्रॉफ़ी से नवाजा गया था। काफी समय तक कॉमनवेल्थ गेम्स के शुरुआती प्रारूप में कोई बदलाव नहीं हुआ। वर्ष 1928 में जब एम्सटर्डम ओलंपिक आयोजन हुआ तो फिर ब्रिटिश साम्राज्य ने इसे शुरू करने का निर्णय लिया और हैमिल्टन, ओटेरिया, कनाडा में शुरू हुए पहले कॉमनवेल्थ गेम्स। हालाँकि इसका नाम उस समय था ब्रिटिश एंपायर गेम्स। इसमें ग्यारह देशों ने हिस्सा लिया था। ब्रिटिश एंपायर गेम्स की सफलता कॉमनवेल्थ गेम्स को नियमित बनाने के लिहाज से एक बड़ी प्रेरणा थी। वर्ष 1930 से ही यह प्रत्येक चार वर्षों के अंतराल पर आयोजित होने लगा। वर्ष 1930 से 1950 तक यह ब्रिटिश एंपायर गेम्स के नाम से ही जाना जाता था। फिर वर्ष 1966 से 1974 तक इसे ब्रिटिश कॉमनवेल्थ गेम्स के रूप में जाना जाने लगा। इसके चार वर्ष बाद यानी वर्ष 1978 से यह कॉमनवेल्थ गेम्स बन गया। 6. बढ़ती आबादी-देश की बरबादी आधुनिक भारत में जनसंख्या बड़ी तेजी से बढ़ रही है। देश के विभाजन के समय यहाँ लगभग 42 करोड़ आबादी थी, परंतु आज यह एक अरब से अधिक है। हर वर्ष यहाँ एक आस्ट्रेलिया जुड़ रहा है। भारत के मामले में यह स्थिति अधिक भयावह है। यहाँ साधन सीमित हैं। जनसंख्या के कारण अनेक समस्याएँ उत्पन्न हो रही हैं। देश में बेरोजगारी बढ़ती जा रही है। हर वर्ष लाखों पढ़े-लिखे लोग रोजगार की लाइन में बढ़ रहे हैं। खाद्यान्नों के मामले में उत्पादन बढ़ने के बावजूद देश का एक बड़ा हिस्सा भूखा सोता है। स्वास्थ्य सेवाएँ बुरी तरह चरमरा गई हैं। यातायात के साधन भी बोझ ढो रहे हैं। कितनी ही ट्रेनें चलाई जाएँ या बसों की संख्या बढ़ाई जाए, हर जगह भीड़ ही भीड़ दिखाई देती है। आवास की कमी हो गई है। इसका परिणाम यह हुआ कि लोगों ने फुटपाथों व खाली जगह पर कब्जे कर लिए हैं। आने वाले समय में यह स्थिति और बिगड़ेगी। जनसंख्या बढ़ने से देश में अपराध भी बढ़ रहे हैं क्योंकि जीवन-निर्वाह में सफल न होने पर युवा अपराधियों के हाथों का खिलौना बन रहे हैं। देश के विकास के कितने ही दावे किए जाएँ, सच्चाई यह है कि आम लोगों का जीवन-स्तर बेहद गिरा हुआ है। आबादी को रोकने के लिए सामूहिक प्रयास किए जाने चाहिए। सरकार को भी सख्त कानून बनाने होंगे तथा आम व्यक्ति को भी इस दिशा में स्वयं पहल करनी होगी। यदि जनसंख्या पर नियंत्रण नहीं किया गया तो हम कभी भी विकसित देशों की श्रेणी में नहीं खड़े हो पाएँगे। 7. अॉखों-देखा जल-प्रलय प्रकृति का सौंदर्य जितना मोहक होता है, उसका विनाशकारी रूप उतना ही भयावह होता है। प्रकृति जब कृद्ध होती है तो वह कई रूपों में बदला लेती है। इन्हीं में से एक है जल प्रलय। प्रकृति का यह रूप गतवर्ष जम्मू-कश्मीर में आई बाढ़ के रूप में देखने को मिला, जिससे जनजीवन बुरी तरह प्रभावित हुआ। आकाश से गिरती वर्षा की जो बूंदें तन-मन को शीतलता पहुँचा रही थीं, और मौसम को सुहावना बना रही थीं, उन्हीं बूंदों ने जब वर्षा का रूप ले लिया और कई घंटे तक अपने अविरल रूप में बरसती रहीं तो मन में शंकाएँ पनपना स्वाभाविक था। देखते-ही-देखते वर्षा का पानी नालियों की सीमा लाँघकर सड़कों पर जमा होने लगा। हरे-भरे मैदान पानी में डूबने लगे। देखते-ही-देखते पानी घरों और दुकानों में घुसने लगा। अब लोगों के चेहरे पर भय और चिंता की रेखाएँ स्पष्ट दिखने लगी थीं। वे अपना सामान बाँधने और सुरक्षित स्थान पर जाने की तैयारी करने लगे। इधर वर्षा रुकने का नाम नहीं ले रही थी। लोगों की कठिनाई कम होने का नाम नहीं ले रही थी। वे अपना सामान उठाए कमर भर पानी भरे रास्ते से सुरक्षित स्थान की ओर जाने लगे। बाढ़ अपना कहर ढाने पर तुली थी। लगता था इस जल-प्रलय में सब कुछ डूब जाएगा। हमारे होटल के कमरे की एक मंजिल पानी में डूब चुकी थी। तीसरे दिन जब बरसात पूरी तरह रुकी तब लोगों की जान में जान आई। अब तक राहत एजेंसियों और सेना बचाव कार्य में जुट चुकी थीं। हेलीकॉप्टरों द्वारा भेाजन और अन्य जीवनोपयोगी वस्तुएँ लोगों तक पहुँचाकर उनके घाव पर मरहम लगाने का कार्य किया जा रहा था। इस जल-प्रलय की छवि मेरे मनोमस्तिष्क पर अब भी अंकित है। अन्य हल प्रश्न अति लघूत्तरात्मक प्रश्न प्रश्न 1: प्रश्न 2: प्रश्न 3:
प्रश्न 4: प्रश्न 5: प्रश्न 6:
स्वयं करें
विचारपरक लेखन अखबारों में समाचार और फ़ीचर के अलावा विचारपरक सामग्री का भी प्रकाशन होता है। कई अखबारों की पहचान उनके वैचारिक रुझान से होती है। एक तरह से अखबारों में प्रकाशित होने वाले विचारपूर्ण लेखन से उस अखबार की छवि बनती है। अखबारों में संपादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित होने वाले संपादकीय अग्रलेख, लेख और टिप्पणियाँ इसी विचारपरक पत्रकारीय लेखन की श्रेणी में आते हैं। इसके अलावा, विभिन्न विषयों के विशेषज्ञों या वरिष्ठ पत्रकारों के स्तंभ (कॉलम) भी विचारपरक लेखन के तहत आते हैं। कुछ अखबारों में संपादकीय पृष्ठ के सामने ऑप-एड पृष्ठ पर भी विचारपरक लेख, टिप्पणियाँ और स्तंभ प्रकाशित होते हैं। संपादकीय लेखन संपादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित होने वाले संपादकीय को उस अखबार की आवाज माना जाता है। संपादकीय के जरिये अखबार किसी घटना, समस्या या मुद्दे के प्रति अपनी राय प्रकट करते हैं। संपादकीय किसी व्यक्ति-विशेष का विचार नहीं होता, इसलिए उसे किसी के नाम के साथ नहीं छापा जाता। संपादकीय लिखने का दायित्व उस अखबार में काम करने वाले संपादक और उनके सहयोगियों पर होता है। आमतौर पर अखबारों में सहायक संपादक ही संपादकीय लिखते हैं। कोई बाहर का लेखक या पत्रकार संपादकीय नहीं लिख सकता। हिंदी के अखबारों में कुछ में तीन, कुछ में दो और कुछ में केवल एक ही संपादकीय प्रकाशित होता है। संपादकीय का एक उदाहरण प्रस्तुत है- विश्व योग दिवस के बाद भारत की पहल पर रविवार को आयोजित प्रथम विश्व योग दिवस को आने वाले दौर में योग की ग्लोबल पॉप्युलैरिटी की बानगी के तौर पर देखा जा सकता है। लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि यहाँ से आगे योग को लेकर भारत की जिम्मेदारी बहुत बढ़ गई है। मन को स्थिर और शरीर को चपल बनाने वाले इस विज्ञान को दुनिया के अलग-अलग देशों में अलग-अलग तरह आजमाया जाता रहा है। स्वयं भारत में भी विभिन्न संस्थान और आचार्य इसे अपने-अपने ढंग से बरतते हैं। मानक स्वरूप जैसी कोई चीज योग पर लागू नहीं होती। लेकिन बाहरी भिन्नताओं को छोड़ दें तो अपनी अंतर्वस्तु में योग एक दर्शन और जीवन-पद्धति है, जो समय बीतने के साथ कसरतों के जंगल में गुम होती जा रही है। दुनिया को योग की इस मूल आत्मा से परिचित कराने का काम भारत का है। जहाँ तक सवाल इसके बाहरी रूप का है तो पिछले पंद्रह-बीस वर्षों में दुनिया के कई देशों में योग का खासा बड़ा बाजार बन चुका है। हर साल 21 जून को विश्व योग दिवस की तरह मनाने को लेकर संयुक्त राष्ट्र संघ में शामिल 177 देशों की सहमति इस स्वत:स्फूर्त प्रक्रिया पर मोहर लगाने जैसी ही थी। विश्व की अनेक स्वास्थ्य संस्थाएँ अब योग पर गंभीरता से विचार कर रही हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन तो बाकायदा शोध ही करा रहा है कि योग को युनिवर्सल हेल्थ केयर के लिए कैसे इस्तेमाल किया जाए। दरअसल, लोगों की जीवनचर्या अभी उनसे बहुत ज्यादा समर्पण की माँग करने लगी है। बहुत सारी शारीरिक और मानसिक बीमारियों को लाइफ़स्टाइल डिजीज के थैले में डाल देना आसान है, लेकिन इनसे बचने या निपटने के नाम पर अस्पतालों के लंबे-लंबे बिल के सिवाय लोगों के हाथ कुछ भी नहीं आता। योग में इस खालीपन को भरने की भरपूर क्षमता है। लेकिन यह काम वह तभी कर पाएगा, जब इसे खुद ही मार्केटिंग फ़डों का शिकार होने से बचाया जाए। योग-भूमि होने के नाते भारत की यह जिम्मेदारी बनती है कि वह योग को खतरनाक बिकाऊ चीज बनने से रोके। दुर्भाग्यवश, भारत में पहले विश्व योग दिवस का आयोजन एक आक्रामक ब्रैडिंग एक्सरसाइज जैसा ही बनकर रह गया, जिसमें एक वर्चस्ववादी राजनीति की गंध भी शामिल थी। उम्मीद करें कि आने वाले दिनों में हमारा समाज, खासकर हमारा राजनीतिक वर्ग, भारत की इस प्राचीन धरोहर को लेकर ज्यादा गंभीर होगा। धंधे के टर्म में बात करें तो अच्छी ब्रैडिंग होने पर भारत में योग टूरिज्म के अवसर बढ़ेंगे। हमारे योग ट्रेनरों को भी देश से बाहर काम करने के मौके मिलेंगे। लेकिन यह सब तो तब होगा, जब हमारे पास सिखाने को कुछ अलग, कुछ खास होगा। सरकार अगर सोचती है कि एक प्राचीन ज्ञान को पुनर्जीवित करने का काम एक दिन का प्रदर्शन आयोजित करके या फिर पाँचवी कक्षा तक योग को अनिवार्य बनाने जैसे उपायों के जरिये संपन्न कर लिया जाएगा तो उसको इस मामले में सबसे पहले अपनी ही समझ दुरुस्त करनी चाहिए। स्तंभ-लेखन स्तंभ-लेखन भी विचारपरक लेखन का एक प्रमुख रूप है। कुछ महत्वपूर्ण लेखक अपने खास वैचारिक रुझान के लिए जाने जाते हैं। उनकी अपनी एक लेखन-शैली भी विकसित हो जाती है। ऐसे लेखकों की लोकप्रियता को देखकर अखबार उन्हें एक नियमित स्तंभ लिखने का जिम्मा दे देते हैं। स्तंभ का विषय चुनने और उसमें अपने विचार व्यक्त करने की स्तंभ लेखक को पूरी छूट होती है। स्तंभ में लेखक के विचार अभिव्यक्त होते हैं। यही कारण है कि स्तंभ अपने लेखकों के नाम पर जाने और पसंद किए जाते हैं। कुछ स्तंभ इतने लोकप्रिय होते हैं कि अखबार उनके कारण भी पहचाने जाते हैं। स्तंभ-लेखन का एक उदाहरण पलट सकते हैं पश्चिम एशिया के समीकरण महद्र राजा जैन (वरिष्ठ हिंदी लेखक) वर्तमान में सऊदी अरब और इजरायल, दोनों ही देश ईरान को अपना एक बड़ा दुश्मन मानते हैं, और इसी कारण अपने तमाम मतभेद भुलाकर ये पास आ रहे हैं। इन दोनों देशों में से कोई भी यह पसंद नहीं करेगा कि ईरान के पास एटम बम हो, लेकिन दोनों में से कोई भी उस वार्ता में भाग नहीं ले रहा, जो ईरान और संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के पाँच स्थायी सदस्य देशों के बीच हो रही है। इस वार्ता के पीछे की सोच यह है कि ईरान को अपने परमाणु हथियार कार्यक्रम को रोकने के लिए राजी कर लिया जाए और इसके बदले में उसके खिलाफ़ अभी जो आर्थिक प्रतिबंध लगाए गए हैं, उनको हटा लिया जाए। इजरायल और सऊदी अरब, दोनों को ही डर है कि इस वार्ता से ईरान को भले ही परमाणु हथियारों से दूर ले जाया जाए, पर प्रतिबंध हटने से ईरान की स्थिति पहले से भी अधिक मजबूत हो जाएगी। इजरायल को डर है कि इसके बाद ईरान फिलस्तीनियों को और अधिक हथियार तथा आर्थिक सहायता देने के साथ ही लेबनान में हिज्बुल्ला की शक्ति भी बढ़ाएगा। दूसरी ओर, सऊदी अरब के लिए शिया ईरान की बढ़ती शक्ति अरब जगत में उसके सुन्नी आधिपत्य को सीधी चुनौती होगी। सऊदी अरब और ईरान यमन में अभी एक तरह से आपसी युद्ध ही लड़ रहे हैं। सऊदी अरब तो खुलेआम कहता है कि ईरान में हुकूमत बदलनी चाहिए। उसने ऐसे कुर्दिस्तान को भी सहायता देने का वादा किया है, जिसमें तुर्की और इराक के कुर्दिश क्षेत्रों के साथ ही ईरान का भी कुछ भाग होगा। जहाँ तक इजरायल और सऊदी अरब के बीच की दोस्ती की बात है, तो इस संबंध में अभी और कुछ कहना बहुत जल्दी होगी। वैसे भी सऊदी अरब ने न तो पहले कभी इजरायल को मान्यता दी है और न ही अभी वह इजरायल का अस्तित्व मानता है। दूसरी ओर, इजरायल की नेतन्याहू सरकार ने भी ऐसा कोई संकेत नहीं दिया है कि फिलस्तीनियों के साथ शांति का सऊदी अरब ने जो प्रस्ताव रखा है, उस पर वह सहमत है। साल 1981 में सऊदी अरब के शाह फहद ने अप्रत्यक्ष रूप से इजरायल के अस्तित्व को मान्यता दी थी और साल 1991 की मैड्रिक कॉन्फ्रेंस के बाद दोनों देश क्षेत्रीय समस्याओं पर विचार करने के लिए बराबर मिलते रहे थे। यह सिलसिला अब आगे भी बढ़ सकता है। इसलिए जो लोग अब भी यह मानते हैं कि अरब देशों की नाराजगी की कीमत पर भारत को इजरायल को बहुत महत्व नहीं देना चाहिए, उन्हें अब तो अपनी सोच बदल लेनी चाहिए। संपादक के नाम पत्र संपादक के नाम पत्रों के कुछ उदाहरण 1. सबके लिए 19 जनवरी का संपादकीय ‘सिर पर एक छत’ पढ़ा। असल में, आर्थिक उदारीकरण के बाद हमारे यहाँ रीयल एस्टेट क्षेत्र में जो भारी उछाल आया, वह मध्य और उच्च-मध्य वर्ग तक सीमित था। बेशक यह फैसला सरकार की आर्थिक सेहत के अनुकूल नहीं है, आगे ब्याज-दर बढ़ने की स्थिति में उस पर सब्सिडी का बाझ और भी बढ़ सकता है। लेकिन आर्थिक तरक्की कर रहे देश की छवि के लिए ठीक नहीं कि सभी नागरिकों के सिर पर छत न हो। 2. पहचान का मसला संपादकीय ‘नेपाल का संविधान’ पढ़ा। नेपाल का समाज बेहद ध्रुवीकृत है, और पहचान का मसला बड़ा मुद्दा है। ऐसे में प्रस्तावित राज्यों का नामकरण और सीमांकन उतना आसान भी नहीं है, जितना महसूस हो रहा है। ठीक है कि संघीय आयोग प्रस्तावित आठ राज्यों के नाम और उनकी सीमा-रेखा तय करेगा। लेकिन एक विभाजित समाज में ये काम भविष्य भरोसे नहीं छोड़ना चाहिए। फिर उस नजरिये को कैसे बदलेंगे, जो प्रस्तावित संघीय व्यवस्था को ७ अपने-अपने हिसाब से देख रहा है? 3. व्यवस्था की विफलता संपादकीय ‘कैरियर पर कुठाराघात’ (16 जून) पढ़ा। असल सवाल परीक्षा की पवित्रता और विश्वसनीयता है। अनुचित तरीकों से लाभान्वित होने वाला हर परीक्षार्थी किसी-न-किसी वास्तविक हकदार का हक मारेगा, जो परीक्षा-व्यवस्था की विफलता भी है और एक गंभीर अपराध भी। इस तथ्य को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि खुद परीक्षार्थियों ने भी परीक्षा रद्द करवाने के लिए सुप्रीम कोर्ट में याचिकाएँ दायर कीं। इसीलिए सुप्रीम कोर्ट ने सीबीएसई के तकों को दरकिनार करते हुए फिर से परीक्षा आयोजित करने के निर्देश दिए हैं। 4. भविष्य का सवाल यह लाखों छात्रों के भविष्य का सवाल है। इसलिए पेपर लीक होने के पीछे जो भी लोग हों, उनको ऐसी सजा दी जानी चाहिए, जिससे भविष्य में कोई ऐसा करने की सोचे भी नहीं। पर हमारे देश में अकसर यह नहीं हो पाता, इसलिए बार-बार इस तरह की घटनाएँ सामने आती रहती हैं। यूपीएससी में इस तरह के मामले इसलिए सामने नहीं आते क्योंकि यूपीएससी में किसी को सदस्य बनाने से पहले इस बात का विशेष ध्यान रखा जाता है कि पिछली सर्विस के दौरान उस व्यक्ति की साख कैसी रही है। वह कितना न्यायप्रिय, ईमानदार और सक्षम अधिकारी रहा है। परीक्षा से जुड़े दूसरे आयोगों में भी ऐसी ही व्यवस्था होनी चाहिए। -विवेक तन्जा,%पालक 5. अतिम पत्र आप सरकार के विज्ञापन पर भड़कीं बीजेपी-कांग्रेस, कोर्ट जाने की धमकी दी : खबर। सरकार चाहे किसी भी पार्टी की हो, उनके अच्छे काम तो बस विज्ञापन में ही दिखाई देते हैं साक्षात्कार (इंटरव्यू) सफल और अच्छा साक्षात्कार कैसे लें?
साक्षात्कार का उदाहरण तीन दशक से भी अधिक समय से बॉलीवुड में सक्रिय 57-वर्षीय अनिल कपूर आज भी 35 वर्ष के नजर आते हैं, लेकिन किरदारों के चुनाव में वे अपनी उम्र को भी ध्यान में रखते हैं। वे बॉलीवुड-हॉलीवुड में पूरी तरह से सक्रिय हैं। हाल ही में रिलीज जोया अख्तर निर्देशित फिल्म ‘दिल धड़कने दो’ में उनके द्वारा निभाए गए किरदार कमल मेहरा की सभी तारीफ़ कर रहे हैं। ऐसा लग रहा है कि लंबे समय बाद इंडस्ट्री को एक नया ‘पिता’ मिला है, जो फ़िल्म के हीरो को भी टक्कर दे सकता है।
पाठ्यपुस्तक से हल प्रश्न प्रश्न 1: (क) सबसे महत्त्वपूर्ण तथ्य या सूचना को सबसे ऊपर रखना और उसके बाद घटते हुए महत्त्वक्रम में सूचनाएँ देना………………… उत्तर – (क) उलटा पिरामिड प्रश्न 2: शांति का संदेश लेकर आए फ़ज़लुर्रहमान पाकिस्तान में विपक्ष के नेता मौलाना फ़ज़लुर्रहमान ने अपनी भारत-यात्रा के दौरान कहा कि वे शांति व भाईचारे का संदेश लेकर आए हैं। यहॉ दारूलउलुश्नम पहूँचने पर पत्रकार सम्मेलन को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा कि दोनों देशों के संबंधो में निरंतर सुधार हो रहा है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से गत सप्ताह नई दिल्ली में हुई वार्ता के संदर्भ में एक प्रश्न के उतार में उन्होंने कहा कि पाकिस्तानी सरकार ने कश्मीर समस्या के समाधान के लिए 9 प्रस्ताव दिए हैं। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने उन पर विचार करने का आश्वासन दिया है। कश्मीर समस्या के संबंध में मौलाना साहब ने आशावादी रवैया अपनाते हुए कहा कि 50 वर्षों की इतनी बड़ी जटिल समस्या का एक-दो वार्ता में हल होना संभव नहीं है। लेकिन इस समस्या का समाधान अवश्य निकलेगा। प्रधानमंत्री के प्रस्तावित पाकिस्तान दौरे की बाबत उनका कहना था कि निकट भविष्य में यह संभव है और हम लोग उनका ऐतिहासिक स्वागत करेंगे। उन्होंने कहा कि दोनों देशी के रिश्ते बहुत मज़बूत हुए हैं और प्रथम बार सीमाएँ खुली हैं, व्यापार बढ़ा है तथा बसों का आवागमन आरभ हुआ है। (क) दिए गए समाचार में से ककार ढूंढ़कर लिखिए। उत्तर – (क) क्या – शांति का संदेश। (ख)
(ग) यह समाचार उलटा पिरामिड शैली में है क्योंकि इसमें इंट्रो पहले, बॉडी मध्य में और समापन सबसे अंत में है। प्रश्न 3: (के) सूचनाओं का केंद्र/मुख्य आकर्षण उत्तर – हिंदुस्ताननवभारत टाइम्सपंजाब केसरी(क) सूचनाएँ आकर्षक एवं विस्तृत हैं।(क) सूचनाएँ आकर्षक एवं जिज्ञासापूर्ण हैं।(क) सूचनाएँ सामान्यतया ठीक हैं।(ख) समाचार प्रारंभ के सात-आठ पृष्ठों पर होते हैं।(ख) समाचार पहले, दूसरे, तीसरे और चौथे पृष्ठों यर अधिक हैं।(ख) पहले तीन-चार पृष्ठों पर समाचार हैं।(ग) समाचार प्रस्तुति का ढंग रोचक, आकर्षक एवं प्रभावशाली है।(ग) समाचार प्रस्तुति का ढंग आकर्षक एवं प्रभावी है।(ग) समाचार प्रस्तुति का ढंग साधारण है।(घ) समाचार की भाषा सरल, सहज तथा स्तरीय है।(घ) भाया सरल, सुबोध एवं स्तरीय है।(घ) भाषा अच्छी है।प्रश्न 4: सफाई की दुर्व्यवस्थर-सफाईं का नाम लेते ही जगह-जगह पहुँ कूड़े के ढेर, गंदे पानी से भरी नालियाँ, कूडेदान के बाहर तक सड़क पर बिखरा कूड़ा और उनमें मुँह मारते जानवरों का दृश्य साकार हो उठता है। कुछ एसा दृश्य उतारी दिल्ली को पुनर्वास कॉलोनियों में देखा जा सकता हैं। यूँ तो उत्तारी दिल्ली नगर निगम साफ़-सफाई के बड़े-बड़े दावे करता है, पर हल्की-सी बारिश होते ही उसके दावों की पोल खुल जाती है। वर्षा होते ही सड़कों पर पानी का भरना, उनमें कूड़ा-करकट तैरना सांगा को नाक बंद करके जाने के लिए मज़बूर करता है। ऐसा गंदगीपूर्ण दृश्य देखकर इसे देश को राजधानी का हिस्सा कहने में संकोच होने लगता है। नगर निगम के अध्यक्ष और अधिकारी सफाई-कार्यों का बजट कहीं और खर्च करके तथा सफाई के लिए किए गए कार्यों के झूठे आँकड़े प्रस्तुत करके जनता को धोखा देन का प्रयास करते हैं। उनके इस कृत्य से दिल्ली की आधी से अधिक आबादी साफ हवा-यानी के लिए तरसने को मज़बूर है। समाचार कितने प्रकार हैं?समाचार के प्रकार. स्थानीय समाचार संचार क्रांति के बाद परिवहन के विकास के साथ ही समाचार पत्रो द्वारा एक ही साथ क संस्करणो का प्रकाशन हो रहा है। ... . प्रादेशिक या क्षेत्रीय समाचार ... . राष्ट्रीय समाचार ... . अंतर्राष्ट्रीय समाचार ... . विशिष्ट समाचार ... . व्यापी समाचार ... . डायरी समाचार ... . सनसनीखेज समाचार. समाचार लेखन के 6 प्रकार कौन कौन से हैं?क्या, कब, कौन, कहाँ, क्यों और कैसे इन छः 'ककारों' के ऊपर ही पूरे समाचार का स्वरूप टिका होता है।
समाचार लेखन के कितने प्रकार होते हैं Class 11?समाचार लेखन के पाँच प्रमुख प्रकार हैं:. समाचार,. समीक्षाएँ. फीचर लेखन. समाचार लेखन के प्रकार कौन कौन से हैं?प्रायः विभिन्न आलोचकों ने समाचार लेखन के तीन ही भाग माने हैं आमुख, समाचार की - शेष रचना और शीर्षक समाचार लेखन की यह प्रकृति माध्यमों के आधार पर भी परिवर्तित होती हैं। यही नहीं एक ही माध्यम के विभिन्न प्रकार के समाचारों के लेखन में शीर्षक, आमुख, आकार और भाषा संबंधी परिवर्तन दिखाई देता है।
|