रीतिकाल को कितने भागों में विभाजित किया गया है? - reetikaal ko kitane bhaagon mein vibhaajit kiya gaya hai?

मिश्रबंधुओं ने 'मिश्रबंधु विनोद' में हिंदी साहित्य के इतिहास को तीन भागों में विभाजित किया : आदि,मध्य और आधुनिक।आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने मध्य काल को दो भागों में विभक्त किया : 'पूर्वमध्यकाल', जिसे भक्तिकाल की संज्ञा दी गई और 'उत्तर मध्यकाल', जिसे रीतिकाल कहा गया।शुक्ल जी ने आदिकाल का आरम्भ चिंतामणि (संवत 1700)से माना है।कुछ आलोचक इसकी गणना आचार्य केशव से करते हैं, तब रीतिकाल का आरम्भ 50 वर्ष और पीछे चला जाता है।रीतिकाल का नाम आचार्य शुक्ल जी का ही दिया हुआ है।शुक्ल जी ने यह नामकरण इस काल की प्रवृत्तियों और मानव-मनोविज्ञान के आधार पर किया ।


संवत 1700 से संवत 1900 तक रीति-पद्धति पर विशेष जोर रहा। इस काल के प्रत्येक कवि ने रीति के साँचे में ढ़लकर रचना लिखी।डॉ. भगीरथ मिश्र के शब्दों में "उसे रस,अलंकार,नायिकाभेद,ध्वनि आदि के वर्णन के सहारे ही अपनी कवित्व-प्रतिभा दिखाना आवश्यक था।इस युग में उदाहरणों पर विवाद होते थे,इस बात पर कि उसमें कौन कौन-सा अलंकार है? कौन सी शब्द-शक्ति है?काव्यों की टीकाओं और व्याख्याओं में काव्य-सौंदर्य को स्पष्ट करने के लिए भी उसके भीतर अलंकार,रस,नायिकाभेद को भी स्पष्ट किया जाता था।अत: यह युग रीति-पद्धति का युग था।" 


आचार्य शुक्ल ने इसे रीति-ग्रंथों की प्रचुरता के कारण ही रीतिकाल का नाम दिया।संस्कृत की तरह हिंदी में 'रीति' का अर्थ विशिष्ट 'पदरचना' नहीं है।रीतिकवि अथवा रीतिग्रंथ में प्रयुक्त रीति शब्द का अर्थ काव्य-शास्त्र से समझना चाहिए।संक्षेप में सभी काव्य-सिद्धांतों के आधार पर काव्यांगों के लक्षण सहित या उनके आधार पर लिखे गए उदाहरणों के आधार पर लिखे गए ग्रंथों को रीतिग्रंथ कहा जाता है।


बाबू श्यामसुंदर दास ने भी हिंदी साहित्य के उत्तर-मध्यकाल में शृंगार रस की प्रचुरता एवं रीतिमुक्त कवियों का महत्त्व स्वीकार करते हुए इसका नामकरण रीतिकाल ही उचित समझा।


मिश्रबंधुओं ने इसे 'अलंकृतकाल' कहा, किंतु उनका अभिप्राय: अलंकार के व्यापक अर्थ से था।उन्होंने मिश्रबंधु विनोद में स्पष्ट किया है कि-"इस प्रणाली के साथ रीतिग्रंथों का भी प्रचार बढ़ा और आचार्यत्व की भी वृद्धि हुई।आचार्य लोग स्वयं कविता करने की रीति सिखलाते थे।मानो वे संसार से यों कहते हैं कि अमुक-अमुक विषयों के वर्णन में अमुक प्रकार के कथन उपयोगी हैं और अमुक अनुपयोगी।"इतना कहने पर भी मिश्रबंधुओं ने इसे अलंकृतकाल ही कहा है,परंतु अलंकार काल कहने से इस काल की प्रमुख प्रवृत्ति का बोध नहीं होता।फिर अलंकार से यह भी स्पष्ट नहीं कि इससे ऐसी कविता को समझा जाए,जिसमें अलंकारों की प्रधानता है अथवा अलंकरण पर अधिक बल दिया गया है।यदि यह सोचा जाए कि इसमें अलंकारों का लक्षण-उदाहरण सहित विवेचन है,इसलिए इसका नाम अलंकार युग रखा गया,तो काव्य के अन्य अंगों का क्या ? अत: अलंकृत काल नाम इस युग का पूरा प्रतिनिधित्व नहीं करता।


पं विश्वनाथप्रसाद मिश्र ने इसे 'शृंगारकाल' नाम दिया।उनका मत है कि हिंदी-साहित्य का काल विभाजन करते हुए इतिहासकारों ने रीतिकाल के भीतर कुछ ऐसे कवियों को फुटकल खाते में डाल दिया है जो रीतिकाल की अधिक व्यापक प्रवृत्ति या शृंगार या प्रेम के उन्मुक्त गायक थे।इसमें आलम,घनानंद,बोधा,ठाकुर के नाम उल्लेखनीय हैं।शुक्ल जी का भी मत है कि यदि केवल रस के आधार पर कोई इस काल का नामकरण करे तो इसे शृंगारकाल कहा जा सकता है।


परंतु प्रश्न तो यह है कि रीतिकाल के कवियों ने क्या शृंगार-रस के ही अंगों का विवेचन किया है?यदि समस्त रीतिकालीन साहित्य को इस दृष्टि से परखा जाए तो शृंगार की प्रधानता तो सर्वत्र है,लेकिन स्वतंत्र रूप से नहीं,सर्वत्र रीति पर आश्रित है।अत: इसे शृंगार काल नहीं कहा जा सकता और भूषण जैसे वीररस के कवि भी रीतिबद्ध कवि थे। 


कुछ आलोचक इस काल को 'कलाकाल' कहते हैं।उनके मत में काव्य के कला पक्ष का जितना उत्कर्ष इस काल में हुआ,उतना कभी नहीं हो सका।लेकिन केवलमात्र कला-पक्ष की प्रधानता को देखकर इसको कला-काल नहीं कहा जा सकता,क्योंकि साहित्य में भावपक्ष और कलापक्ष इस प्रकार जुड़े हुए हैं कि उन्हें अलग नहीं किया जा सकता।रीतिकाल के कवियों में भावों की उपेक्षा है,ऐसा कहना तो उन कवियों के प्रति अन्याय होगा।


इन सभी नामकरणों की विवेचना के उपरांत यही कहा जा सकता है कि रीतिकालीन सभी कवियों ने रीति-परम्परा का पूर्ण निर्वाह किया।अत: शृंगार रस की प्रधानता असंदिग्ध होने पर भी इसे शृंगारकाल नहीं कहा जा सकता है और न ही अलंकारों का लक्षण-उदाहरण सहित विवेचन होने के कारण इसे अलंकृत काल कहना ही उचित होगा।कलाकाल कहना तो बिल्कुल अनुचित होगा,क्योंकि साहित्य में भावपक्ष के बिना कला का कोई महत्त्व नहीं।अत:रीतिकाल कहना ही तर्कसंगत प्रतीत होता है,क्योंकि रस,अलंकार आदि रीति पर आश्रित होकर आए हैं।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने संवत् 1700 वि. से 1900 वि. (1643 ई. से 1843 ई.) तक के काल-खंड को रीतिकाल कहा है। मध्यकाल के दुसरे भाग उत्तर मध्यकाल को रीतिकाल कहा गया है।

रीतिकाल के विभिन्न विद्वानों द्वारा दिए गए नामकरण- 1. अलंकृत काल- यह नाम मिश्र बंधुओं ने दिया है। 2. शृंगार काल- यह नाम विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने दिया है। 3. रीतिकाल- यह नाम आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने दिया है।

रीतिकाल में ‘रीति’ शब्द का प्रयोग ‘काव्यांग निरूपण’ के अर्थ में हुआ है। ऐसे ग्रन्थ जिनमें काव्यांगों के लक्षण एवं उदाहरण दिए जाते हैं, रीति ग्रन्थ कहे जाते हैं। आचार्य शुक्ल ने कालों के नामकरण प्रधान प्रवृत्ति के आधार पर किए है अतः रीति की प्रधानता के कारण इस काल का नामकरण उन्होंने रीतिकाल किया है। रीति से उनका तात्पर्य पद्धति,शैली और काव्यांग निरूपण से है।

रीतिकाल का प्रारम्भ चिंतामणि कृत ‘रस विलास’ और मतिराम कृत ‘रसराज’ से माना जा सकता है, यद्यपि इनकी रचना 1633 ई. की है तथा रीतिकाल के अंतिम कवि है- ग्वाल कवि। जिनकी रचना रसरंग 1853 ई. के आस-पास की है।

रीतिकाल के स्रोत

रीतिकालीन साहित्य के स्रोतों को तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है –

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  1. देश के विभिन्न पुस्तकालय- 1. काशी की नागरी प्रचारिणी सभा का आर्य भाषा पुस्तकालय, 2. काशी नरेश का पुस्तकालय (रामनगर), 3. दतिया, टीकमगढ़, छतरपुर, रीवा के महाराजाओं के पुस्तकालय, 4. नेशनल आर्काइव्स पुस्तकालय (पटियाला), 5. गायकवाड़ ओरियंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट (बड़ोदा) ।
  2. वैयक्तिक पुस्तकालय- 1. ठाकुर शिवसिंह सेंगर का पुस्तकालय, 2. गोविन्द चतुर्वेदी, जवाहरलाल चतुर्वेदी मथुरा के पुस्तकालय, 3. कैप्टेन शूरवीर सिंह (अलीगढ) का पुस्तकालय, 4. डॉ. भवानीशंकर याज्ञिक का पुस्तकालय।
  3. प्राचीन एवं नवीन प्रकाशन संस्थाएं- 1. श्री वेंकटेश्वर प्रेस (बम्बई), 2. भारत जीवन प्रेस (काशी), 3. नवलकिशोर प्रेस (लखनऊ), 4. इण्डियन प्रेस (इलाहाबाद), 5. नागरी प्रचारिणी सभा (काशी), 6. गंगा ग्रंथागार (लखनऊ)।

रीतिकाल का वर्गीकरण

रीतिकाल का वर्गीकरण ‘रीति’ के आधार बनाकर तीन भागों में किया गया हैं- 1. रीतिबद्ध, 2. रीतिमुक्त, 3. रीतिसिद्ध।

  1. रीतिबद्ध- इस वर्ग में वे कवि आते हैं जो रीति के बंधन में बंधे हुए हैं, अर्थात् जिन्होंने रीति ग्रंथों की रचना की। लक्षण ग्रन्थ लिखने वाले इन कवियों में प्रमुख हैं- चिन्तामणि, मतिराम, देव, जसवंतसिंह, कुलपति मिश्र, मंडन, सुरति मिश्र, सोमनाथ, भिखारीदास, दूलह, रघुनाथ, रसिकगोविंद, प्रतापसिंह, ग्वाल आदि।
  2. रीतिमुक्त- इस वर्ग में वे कवि आते हैं जो रीति के बंधन से पूर्णतः मुक्त हैं अर्थात् इन्होंने काव्यांग निरूपण करने वाले ग्रंथों लक्षण ग्रंथों की रचना नहीं की तथा ह्रदय की स्वतंत्र वृत्तियों के आधार पर काव्य रचना की। इन कवियों में प्रमुख हैं- घनान्द, बोधा, आलम और ठाकुर।
  3. रीति सिद्ध- इस वर्ग में वे कवि आते हैं जिन्होंने रीति ग्रन्थ नहीं लिखे किन्तु रीति की उन्हें भली-भांति जानकारी थी। वे रीति में पारंगत थे। इन्होंने इस जानकारी का पूरा-पूरा उपयोग अपने काव्य ग्रंथों में किया। इस वर्ग के प्रतिनिधि कवि है- बिहारी। उनका एकमात्र ग्रन्थ ‘बिहारी-सतसई’ है।

रीतिकालीन काव्य को सुविधा की दृष्टि से डॉ. नगेन्द्र ने तीन वर्गों में विभक्त किया है:- (क) रीतिकालीन मुक्तक काव्य, (ख) रीतिकालीन प्रबंध काव्य, (ग) रीतिकालीन नाटक।

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(क) रीतिकाल के प्रमुख मुक्तक काव्य

क्र.सं.रचयिताजीवनकालरचनाएं1.चिंतामणि1600-1685कविकुल कल्पतरु, काव्य विवेक, शृंगार मंजरी, काव्य प्रकाश, रस विलास, छन्द विचार2.भूषण1623-1715शिवराज भूषण, छत्रसाल दशक, शिवाबावनी, अलंकार प्रकाश, छन्दोहृदय प्रकाश3.मतिराम1604-1701ललित ललाम, मतिराम सतसई, रसराज, अलंकार पंचाशिका, वृत्त कौमुदी4.बिहारी1595-1663सतसई5.रसनिधि1603-1660रतन हजारा, विष्णुपद कीर्तन, कवित्त, अरिल्ल, हिण्डोला, सतसई, गीति संग्रह6.जसवन्त सिंह1627-1729भाषा भूषण, आनन्द विलास, सिद्धांत बोध सिद्धांतसार, अनुभव प्रकाश, अपरोक्ष सिद्धांत, स्फुट छंद7.कुलपति मिश्र1630-1700रस रहस्य, नखशिख, दुर्गाभक्ति तरंगिणी, मुक्तिरंगीणी, संग्रामसार8.मंडन–रस रत्नावली, रस विलास, नखशिख, काव्य सिद्धांत, रस रत्नाकर, शृंगार सागर, भक्ति विनोद9.आलम–आलमकेलि10.देव1673-1767भाव विलास, भवानी विलास, कुशल विलास, रस विलास, जाति विलास, प्रेम तरंग, काव्य रसायन, देव शतक, प्रेमचंद्रिका, प्रेमदीपिका, राधिका विलास11.सुरति मिश्र–अलंकार माला, रस रत्नमाला, नखशिख, काव्य सिद्धांत, रस रत्नाकर, शृंगार सागर, भक्ति विनोद12.नृप शम्भू1657 ई.नायिका भेद, नखशिख, सातशप्तक (ये महाराज शिवाजी के पुत्र थे)13.श्रीपति–काव्य सरोज, कविकल्पद्रुत, रस सागर, अलंकार गंगा, विक्रम विलास, अनुप्रास विनोद14.गोप–रामचंद्र भूषण, रामचंद्राभरण, रामालंकार15.घनानंद1689-1739पदावली, वियोग बेलि, सुजान हित प्रबंध, प्रीति पावस, कृपाकन्द निबंध, यमुनायश, प्रकीर्णक छंद16.रसलीन1699-1750अंगदर्पण, रसप्रबोध, स्फुट छन्द (इनका पूरा नाम सैयद गुलामनवी रसलीन था)17.सोमनाथ1700-1760रसपीयूष निधि, शृंगार विलास, प्रेस पचीसी18.रसिक सुमति–अलंकार चंद्रोदय19.भिखारीदास1705-1770काव्य निर्णय, शृंगार निर्णय, रस सारांश, छंद प्रकाश, छन्दार्णव20.कृष्ण कवि–अलंकार कलानिधि, गोविन्द विलास21.रघुनाथ–काव्य कलाधर, रस रहस्य22.दूलह–कविकुल कंठाभरण, स्फुट छन्द23.हितवृंदावनदास–स्फुट पद लगभग 20 हजार24.गिरधर कविराय–स्फुट छन्द25.सेवादास–नखशिख, रस दर्पण, राधा सुधाशतक, रघुनाथ अलंकार26.रामसिंह–अलंकार दर्पण, रस शिरोमणि, रस विनोद27.बोधा–विरहवारिश, इश्कनामा28.नन्द किशोर–पिंगल प्रकाश29.रसिक गोविन्द–रसिक गोविन्दानन्दघन, युगल रस माधुरी, समय प्रबंध30.पद्माकर1753-1833जगद्विनोद, पद्माभरण, गंगालहरी, प्रबोध प्रचासा, कलि पच्चीसी, प्रतापसिंह विरुदावली, स्फुट छंद31.प्रताप साहि–व्यंग्यार्थ कौमुदी, काव्य विलास, शृंगार मंजरी, शृंगार शिरोमणि, काव्य विनोद, अलंकार चिन्तामणि32.बेनी बन्दीजन–रस विलास33.बेनी ‘प्रवीण’(19वीं शती)नवरसतरंग, शृंगार भूषण34.जगत सिंह–साहित्य सुधानिधि35.गिरधर दस–रस रत्नाकर, भारती भूषण, उत्तरार्द्ध नायिकाभेद36.दीनदयाल गिरि–अन्योक्ति कल्पद्रुम, दृष्टान्त तरंगिणी, वैराग्य दिनेश37.अमीर दास–सभा मंडन, वृत्त चंद्रोदय, ब्रज विलास38.ग्वाल कवि1791-1868रसिकानंद, यमुना लहरी, रसरंग, दूषण दर्पण, राधाष्टक, कवि ह्रदय विनोद, कुब्जाष्टक, अलंकार भ्रमभंजन, रसरूप दृगशतक, कविदर्पण39.चन्द्रशेखर वाजपेयी–रसिक विनोद, नखशिख, माधवी वसंत, वृंदावन शतक, गुरुपंचाशिका40.द्विजदेव1820-1861शृंगार लतिका, शृंगार बत्तीसी, कवि कल्पद्रुम, शृंगार चालीसा41.सेनापति(16वीं शती)कवित्त रत्नाकर42.केशव1560-1617कविप्रिया, रसिकप्रिया, जहांगीर जस चन्द्रिका, रामचंद्रिका, विज्ञान गीता, रतन बावनी, छन्दमालाAdvertisements

                              (ख) रीतिकाल के प्रमुख प्रबंध काव्य

क्र.सं.रचनाकाररचनाएं1.चिंतामणिरामायण, कृष्ण चरित, रामाश्वमेध2.मंडनजानकी जू का ब्याह, पुरंदर माया3.कुलपति मिश्रसंग्राम सार4.लाल कविछत्र प्रकाश5.सुरति मिश्ररामचरित, श्रीकृष्णचरित6.सोमनाथपंचाध्यायी, सुजान विलास7.गुमान मिश्रनैषधचरित8.रामसिंहजुगल विलास9.पद्माकरहिम्मत बहादुर विरुदावली10.रसिक गोविन्दरामायण सूचनिका11.ग्वालहम्मीर हठ, विजय विनोद, गोप पच्चीसी12.चंद्रशेखर वाजपेयीहम्मीर हठ

(ग) रीतिकालीन नाटक

क्र.सं.रचनाकाररचनाएं1.जसवंत सिंहप्रबोध चंद्रोदय नाटक2.नेवाजशकुंतला नाटक3.सोमनाथमाधव विनोद नाटक4.देवदेवमाया प्रपंच नाटक5.ब्रजवासी दासप्रबोध चंद्रोदय नाटक

रीतिकालीन कवियों की प्रमुख प्रवृत्तियां

  1. रीति निरूपण- रीति निरूपक कवियों का वर्गीकरण निम्न वर्गों में किया जा सकता है-

(अ) काव्यांग परिचायक कवि- इन कवियों का उद्देश्य काव्यांगों का परिचय देना है, अपनी कवित्व शक्ति का परिचय देना नहीं।

(ब) रीति निरूपण एवं काव्य रचना को समान महत्त्व देने वाले कवि- इस वर्ग में आने वाले कवियों का उद्देश्य रीति कर्म और कवि कर्म को सामान महत्त्व देना रहा है। ऐसे ग्रंथों में लक्षण और उदाहरण दोनों ही कवियों द्वारा रचित है तथा उदाहरणों में सरसता का विशेष ध्यान रखा गया है।

(स) कवि कर्म को महत्त्व देने वाले रीति ग्रंथकार- इस वर्ग के कवियों ने काव्यांगों का लक्षण देना आवश्यक नहीं समझा किन्तु ‘रीति तत्व’ का पूरा-पूरा ध्यान रखते हुए अपने काव्य ग्रंथों की रचना की। इनके काव्य ग्रंथों में रीति की जानकारी का पूरा-पूरा उपयोग भी किया गया है।

2. शृंगारिकता- रीतिकाल के कवियों की दूसरी प्रमुख प्रवृति शृंगारिकता है। इन कविओं का शृंगार वर्णन एक ओर तो शास्रीय बंधनों से युक्त है तो दूसरी ओर विलासी आश्रयदाताओं की प्रवृत्ति ने इसे उस सीमा तक पहुंचा दिया जहां यह अश्लीलता का संस्पर्श करने लगा।

3. आलंकारिकता- रीतिकालीन काव्य में अलंकरण की प्रधानता है। कविता सुंदरी को अलंकारों से सजाने में वे कवि कर्म की सार्थकता समझते थे। अलंकारों के प्रति इनका मोह अति प्रबल था, अतः वे कविता में अलंकारों का सायास प्रयोग करते थे।

4.आश्रयदाताओं की प्रशंसा- रीतिकाल के अधिकांश कवि राजदरबारों में आश्रय प्राप्त थे। बिहारी, देव, भूषण, सूदन, केशव, मतिराम आदि सभी प्रसिद्ध कवि राजदरबारों से वृत्ति प्राप्त करते थे, अतः यह स्वाभाविक था कि वे अपने आश्रयदाता भवानी सिंह की प्रशंसा में ‘भवानी विलास’ लिखा तो सूदन ने भरतपुर के राजा सुजानसिंह की प्रशंसा में ‘सुजान चरित्र’ की रचना की।

5.बहुज्ञता एवं चमत्कार- रीतिकालीन कवियों में पाण्डित्य प्रदर्शन की जो प्रवृत्ति परिलक्षित होती है, उसके कारण ये काव्य में विविध विषयक ज्ञान का समावेश करके अपनी बहुज्ञता प्रदर्शित करते थे।

6.भक्ति एवं नीति- डॉ. नगेन्द्र के अनुसार- “रीतिकाल का कोई भी कवि भक्तिभावना से हीन नहीं है- हो भी नहीं सकता था, क्योंकि भक्ति उसके लिए मनोवैज्ञानिक आवश्यकता थी। भौतिक रस की उपासना करते हुए उनके विलास जर्जर मन में इतना नैतिक बल नहीं था कि भक्ति रस में अनास्था प्रकट करें अथवा सैद्धांतिक निषेध कर सकें।“ घाघ, बेताल, वृंद एवं गिरधरदास ने नीति सम्बन्धी सुन्दर उक्तियों को काव्य रूप दिया है।

7.नारी भावना- रीतिकालीन काव्य का केंद्र बिंदु ‘नारी चित्रण’ रहा है। नायिका के नखशिख चित्रण में उन्होंने अधिक रूचि दिखाई है। नारी के ऐन्द्रिक बाह्य रूप के निरूपण में ही उनकी वृत्ति अधिक रमी है। नारी के प्रति उनका यह दृष्टिकोण तत्कालीन दरबारी वातावरण एवं परिवेश से अनुप्रमाणित था।

8.प्रकृति चित्रण- रीतिकाल में आलंबन रूप में प्रकृति चित्रण प्रायः बहुत कम हुआ है, जबकि आलंकारिक रूप में तथा उद्दीपन रूप में अधिक हुआ है। परम्परागत रूप में षडऋतु वर्णन एवं बारहमासे का चित्रण भी उपलब्ध होता है किन्तु उसमें मौलिकता एवं नवीनता नहीं है।

9.ब्रजभाषा का प्रयोग- रीतिकालीन कवियों ने ब्रजभाषा में काव्य रचना की है। रीतिकाल में केवल ब्रजक्षेत्र के कवियों ने ही ब्रजभाषा में काव्य रचना नहीं की अपितु ब्रजक्षेत्र के बाहर के हिंदी कवियों ने भी ब्रजभाषा में ही काव्य रचना की।

रीतिकाल को कितने भागो में विभाजित किया गया है?

आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने रीतिकाल को 'श्रृंगारकाल' नाम देते हुए उसे तीन वर्गां में विभाजित किया- 1. रीतिबद्ध 2. रीति सिद्ध 3. रीतिमुक्त।

रीतिकाल के कितने भेद हैं?

रीतिकाल का वर्गीकरण 'रीति' के आधार बनाकर तीन भागों में किया गया हैं- 1. रीतिबद्ध, 2. रीतिमुक्त, 3. रीतिसिद्ध।

रीतिकाल के कवियों को कितने श्रेणियों में विभाजित किया है?

रीतिकालीन कवियों को उनकी रचनाओं की दृष्टि से तीन श्रेणियों में वर्गीकृत किया गया- 'रीतिबद्ध, रीतिसिद्ध, रीतिमुक्त । रीतिबद्ध श्रेणी में उन आचार्य कवियों को रखा गया जिन्होंने लक्षण ग्रंथों की रचना की । इस श्रेणी के कवियों में चिंतामणि, महाराज जसवंत सिंह, मतिराम, कुलपति मिश्र, देव, भिखारीदास आदि आते हैं।

रीतिकाल के जनक कौन है?

केशव को रीतिकाल का पहला कवि तथा चिन्तामणि को रीतिकाल का प्रवर्तक आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने माना है। केशव को कठिन काव्य का प्रेत कहा जाता है।