रस सूत्र के रचयिता कौन है? - ras sootr ke rachayita kaun hai?

इसे सुनेंरोकेंभरतमुनि (200 ई. पू.) को रस सम्प्रदाय का प्रवर्तक माना जाता है। उन्होंने ही रस का सबसे पहले निरूपण ‘नाट्यशास्त्र’ में किया, इसीलिए उन्हें रस निरूपण का प्रथम व्याख्याता एवं उनके ग्रंथ ‘नाट्यशास्त्र’ को रस निरूपण का प्रथम ग्रंथ माना जाता है।

रस की निष्पत्ति कैसे होती है?

इसे सुनेंरोकेंAnswer:- रस निष्पत्ति से तात्पर्य स्थाई भाव आश्रय के हृदय में आलंबन के द्वारा उत्तेजित होकर उद्दीपन के प्रभाव से उद्दीप्त होकर संचारी भावों से पुष्ट होता हुआ अनुभावों के माध्यम से जो स्थाई भाव की अनुभूति पाठक या श्रोता को होती है, वही अनुभूति ‘रस निष्पत्ति’ कहलाती है।

रस के जन्मदाता कौन है?

इसे सुनेंरोकें(II) रस का जनक किसे माना जाता है?(क) आचार्य क्षेमेन्द्र को (ख) आचार्य भरतमुनि को

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रस के प्रमुख अंग कौन कौन से हैं?

इस आधार पर रस के 4 (चार) अंग होते हैं-

  • (1) स्थायी भाव
  • (2) विभाव
  • (3) अनुभाव
  • (4) संचारी भाव

भरतमुनि का रस सूत्र क्या है?

इसे सुनेंरोकेंरस का शाब्दिक अर्थ है आनंद । काव्य को पढ़ने या सुनने से जिस आनंद की अनुभूति होती है, उसे रस कहा जाता है। काव्यप्रकाश के रचयिता मम्मटभट्ट ने कहा है कि आलम्बनविभाव से उदबुद्ध, उद्यीप्त, व्यभिचारी भावों से परिपुष्ट तथा अनुभाव द्वारा व्यक्त हृदय का स्थायी भाव ही रस-दशा को प्राप्त होता है।

रसों की संख्या कितनी मानी गई है?

इसे सुनेंरोकेंभरत ने नाट्यशास्त्र में मूलतः नौ रसों को ही मान्यता दी। भक्ति को भाव माना जाय या रस इस पर काव्यशास्त्रियों ने किंचित् विवेचन किया।

हिंदी साहित्य में कितने रस होते हैं?

इसे सुनेंरोकेंमुख्य रूप से रस के नौ भेद होते हैं. वैसे तो हिंदी में 9 ही रस होते हैं लेकिन सूरदास जी ने एक रस और दिया है जो कि 10 रस माना जाता है. 1. श्रृंगार – जब नायक नायिका के बिछुड़ने का वर्णन होता है तो वियोग श्रृंगार होता है.

इसे सुनेंरोकेंभरतमुनि के अनुसार रस की परिभाषा, “विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी भाव के संयोग से रस की उत्पत्ति होती है।” इनके अतिरिक्त काव्यप्रकाश के रचयिता मम्मट भट्ट के अनुसार, “आलम्बन विभाव से उद्बुद्ध, उद्दीपन से उद्दीपित, व्यभिचारी भावों से परिपुष्ट तथा अनुभाव द्वारा व्यक्त ह्रदय का स्थाई भाव ही रस दशा को प्राप्त होता है।”

भारत का रस सूत्र क्या है?

इसे सुनेंरोकेंभरतमुनि के रस सूत्र के अनुसार, “विभावानुभावव्यभिचारि संयोगाद्रसनिष्पत्तिः।” अथार्त विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी भावों (स्थायीभाव) के संयोग से रस निष्पति होती है। ‘निष्पत्ति’ शब्द का प्रथम प्रयोग भरत मुनि ने रस सूत्र में किया। शंकुक के अनुसार भरतमुनि के रस-सूत्र में आये ‘संयोग’ शब्द का अर्थ अनुमान है।

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भरतमुनि के रस सूत्र के प्रमुख व्याख्याकार आचार्य कितने हैं?

इसे सुनेंरोकेंआचार्य भट्ट नायक रस सूत्र के तीसरे व्याख्याता है। इन्होंने सांख्य दर्शन के आधार पर भरतमुनि के रस सूत्र को विश्लेषित किया है। इनका सिद्धांत भुक्तिवाद कहलाता है। इनके अनुसार रस की न तो उत्पत्ति होती है और न अनुमिति होती है अपितु रस की भुक्ति होती है।

भरत मुनि ने कितने रस माने हैं?

इसे सुनेंरोकें’नाट्यशास्त्र’ में भरतमुनि ने रसों की संख्या आठ मानी है- श्रृंगार, हास्य, करुण, रौद्र, वीर, भयानक, वीभत्स, अद्भुत।

भक्ति रस के प्रतिष्ठापक आचार्य कौन है?

इसे सुनेंरोकेंदूसरे शब्दों में, विभाव, अनुभाव व व्यभिचारी (संचारी) भाव को परिधीय स्थिति और स्थायी भाव को केन्द्रीय स्थिति प्राप्त है। (4) रस-संप्रदाय के प्रतिष्ठापक आचार्य, मम्मट (11 वी० सदी) ने काव्यानंद को ‘ब्रह्मानंद सहोदर’ (ब्रह्मानंद- योगी द्वारा अनुभूत आनंद) कहा है।

रस सूत्र के जनक कौन है?

इसे सुनेंरोकेंजिस रूप में वह उपलब्ध है, उसमें लोग काफ़ी क्षेपक बताते हैं भरतमुनि का नाट्यशास्त्र नाट्य कला से संबंधि प्राचीनतम् ग्रंथ है। इसके प्रसिद्ध सूत्र -‘विभावानुभाव संचारीभाव संयोगद्रस निष्पति:” की स्थापना की गयी है। इसमें नाट्यशास्त्र, संगीत-शास्त्र, छन्दशास्त्र, अलंकार, रस आदि सभी का सांगोपांग प्रतिपादन किया गया है।

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भरतमुनि के रस सूत्र में किसका उल्लेख है?

इसे सुनेंरोकेंभरत मुनि ने रस का उल्लेख अपने प्रसिद्ध ग्रंथ नाट्यशास्त्र में किया था। उनका रस सूत्र यह है की विभवानुभवतयभिचारी संयोगाद्रसनिष्पत्ति अर्थात विभव, अनुभाव और व्यभिचारी भाव के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है।

भट्ट लोल्लट के रस निष्पत्ति सिद्धांत का नाम क्या है?

इसे सुनेंरोकेंभट्टलोल्लट : उत्पत्तिवाद (आरोपवाद) इस सिध्दांत को ‘आरोपवाद’ अथवा ‘उत्पत्तिवाद’ कहा जाता है। आझेप शंकुक ने कहा कि भट्ट लोल्लट का यह सिध्दांत कि ‘सामाजिक नायक-नायिका द्वारा अनुभूत रस का आस्वादन नट-नटी के माध्यम से प्राप्त करता है।

भरतमुनि का रस सूत्र क्या है?

इसे सुनेंरोकेंरस का शाब्दिक अर्थ है आनंद । काव्य को पढ़ने या सुनने से जिस आनंद की अनुभूति होती है, उसे रस कहा जाता है। काव्यप्रकाश के रचयिता मम्मटभट्ट ने कहा है कि आलम्बनविभाव से उदबुद्ध, उद्यीप्त, व्यभिचारी भावों से परिपुष्ट तथा अनुभाव द्वारा व्यक्त हृदय का स्थायी भाव ही रस-दशा को प्राप्त होता है।

Bharat Muni Ka Ras Sutra | भरतमुनि का रससूत्र

  • Bharat Muni Ka Ras Sutra | भरतमुनि का रससूत्र का व्याख्याकार
    • 1. आचार्य भट्ट लोल्लट | Acharya Bhatt Lollat
    • 2. आचार्य शंकुक | Acharya Shankuk
    • 3. आचार्य भट्ट नायक | Acharya Bhatt Nayak
    • 4. आचार्य अभिनव गुप्त | Acharya Abhinav Gupt
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  • Bharat Muni Ka Ras Sutra | भरतमुनि का रससूत्र


    Bharat Muni Ka Ras Sutra | भरतमुनि का रससूत्र : आचार्य भरतमुनि रस संप्रदाय के मूल प्रवर्तक हैं। उन्होंने नाट्य शास्त्र की रचना की औरउसमें नाटक के मूल तत्वों का विवेचन करते हुए रस का भी विवेचन किया है। वह रस को नाटक का प्राण मानते हैं।

    भरतमुनि ने नाट्यशास्त्र में जो रस सूत्र दिया वह इस प्रकार है :

    “विभावानुभाव व्यभिचारी संयोगादर्श निष्पत्ति : ”

    अर्थात विभाव, अनुभव और व्यभिचारी भावों के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है।



    भरतमुनि के अनुसार :

    ” जिस प्रकार नाना प्रकार के व्यंजनों, औषधियों एवं द्रव्य पदार्थों के मिश्रण से भुज रस की निष्पत्ति होती है ; उसी प्रकार नाना प्रकार के भावों के संयोग से स्थाई भाव भी नाट्य रस को प्राप्त हो जाते हैं। “

    भरतमुनि के अनुसार :

    ” रस नाटक का वह तत्व होता है जो कि सहृदय को आस्वाद प्रदान करता है और
    जिसके आस्वाद से वह हर्षित हो उठता है। ”

    मुनिजी रस को आस्वाद्य मानते हैं , आस्वाद नहीं I रस विषयीगत भी नहीं होता है, वह विषयगत होता है। विभावादी के संयोग से स्थाई भाव ही रस रूप में परिणत होता है।


    Bharat Muni Ka Ras Sutra | भरतमुनि का रससूत्र का व्याख्याकार


    Bharat Muni Ka Ras Sutra | भरतमुनि का रससूत्र का व्याख्याकार : रससूत्र के प्रमुख व्याख्याकार चार हैं, जिनके नाम है –

    1. भट्ट लोल्लट
    2. आचार्य शंकुक
    3. भट्ट नायक
    4. आचार्य अभिनव गुप्त।

    1. आचार्य भट्ट लोल्लट | Acharya Bhatt Lollat

    भरतमुनि के रस सूत्र की व्याख्या करने वाले पहले आचार्य हैं। इनके दर्शन को मीमांसा दर्शन कहते हैं। इनकी व्याख्या आचार्य भरतमुनि की व्याख्या के सर्वाधिक निकट की है।

    भट्ट लोल्लट सिद्धांत को उत्पत्तिवाद, आरोपवाद, प्रतीतिवाद या उपचयवाद कहा जाता है। आचार्य भट्ट लोल्लट कहते हैं कि सहृदय अनुकर्ता नट को देखकर आनंद की प्राप्ति नहीं करता बल्कि वह अनुकर्ता में अनुकार्य का आरोप करके आनंद की प्राप्ति करता है।

    आचार्य भट्ट लोल्लट ने रस की मूल स्थिति को अनुकार्य में और गौणत: अनुकर्ता में स्वीकार किया है। इनके अनुसार सामाजिक या सहृदय में केवल स्थाई भाव होता है, रस नहीं। इनके सिद्धांत में सामाजिक कोई महत्व नहीं दिया गया है ।

    इन्होंने निष्पत्ति से अर्थ लिया है – उत्पत्ति। संयोग से अर्थ लिया है – उत्पाद्य उत्पादक भाव संबंध।


    2. आचार्य शंकुक | Acharya Shankuk

    आचार्य शंकुक का अनुमितिवाद :

    रस सूत्र के दूसरे व्याख्याता आचार्य शंकुक है। यह अनुमितिवादी आचार्य हैं। आचार्य महिम भट्ट ने अपने ग्रंथ “व्यक्ति विवेक” में शंकुक के अनुमिति वाद का समर्थन किया है।

    आचार्य शंकक के अनुसार प्रेक्षक अनुकर्ता को देखकर आनंद की प्राप्ति नहीं करता बल्कि अनुकर्ता में अनुकार्य की अनुमानिक कल्पना करके आनंद की प्राप्ति करता है।

    इस संदर्भ में आचार्य शंकुक ने अपने चित्र-तुरंग न्याय की परिकल्पना करके अपने सिद्धांत की पुष्टि की है। जैसे दीवार पर चित्रित घोड़े को देखकर उन्हें वास्तविक समझ लिया जाता है।

    आचार्य शंकुक पहले आचार्य हैं जिन्होंने पहली बार गौण मात्रा में ही सही लेकिन सामाजिक को महत्व प्रदान किया है। इन्होंने रस की मूल स्थिति को अनुकार्य में और गौणत: सामाजिक में मानी है। इन्होंने अनुकर्ता में केवल स्थाई भाव माना है रस नहीं।

    आचार्य शंकुक ने काव्य प्रतीति को लौकिक प्रतीति से विलक्षण बताकर रस की अलौकिकता सिद्ध की है। इन्‍होने कल्पना तत्व को सर्वाधिक महत्व दिया है। इन्‍होने अपने सिद्धांत में अभिनेयत्व को प्रधानता दी है, काव्यत्व को गौणता।

    शंकुक के अनुसार संयोग का अर्थ है – अनुमान और निष्पत्ति का अर्थ है – अनुमिति।

    आचार्य शंकुक ने अपने सिद्धांत में अभिनेयत्व को प्रमुखता दी है। ऐसी स्थिति में श्रव्य काव्य में रसानुमिति कैसे संभव होगी? वास्तव में रस तो काव्य में ही होता है। अभिनेय तो उसका पोषक मात्र है।



    3. आचार्य भट्ट नायक | Acharya Bhatt Nayak

    आचार्य भट्ट नायक रस सूत्र के तीसरे व्याख्याता है। इन्होंने सांख्य दर्शन के आधार पर भरतमुनि के रस सूत्र को विश्लेषित किया है। इनका सिद्धांत भुक्तिवाद कहलाता है।

    इनके अनुसार रस की न तो उत्पत्ति होती है और न अनुमिति होती है अपितु रस की भुक्ति होती है। रस निष्पत्ति में भट्ट नायक को सर्वश्रेष्ठ उपलब्धि साधारणीकरण व्यापार की कल्पना है। इससे सामाजिक में रसानुभूति का प्रतिपादन सरलता से हो जाता है।

    साधारणीकरण व्यापार की परिकल्पना करके आचार्य भट्ट नायक ने रस को सार्वभौमिक, सार्वजनीन एवं सर्वव्यापक बना दिया। आचार्य भट्ट नायक पहले आचार्य हैं जिन्होंने सामाजिक सहृदय को सर्वाधिक महत्व देते हुए सामाजिक की समस्या का पूर्ण समाधान प्रस्तुत किया।

    भट्टनायक के अनुसार सत्वगुण के उद्रेक में रस की स्थिति होती है। भट्ट नायक काव्य में तीन व्यापारो की बात करते हैं :-

    1. अभिधा
    2. भावकत्व
    3. भोजकत्व।

    भावकत्व की स्थिति रस व साधारणीकरण के निकट की है। भट्टनायक के अनुसार विभाव, अनुभाव एवं संचारी भावो के द्वारा भोज्य-भोजक भाव संबंध से रस की भुक्ती हो जाती है। भावकत्व व्यापार के द्वारा भाव्यमान स्थायी भाव ही रस के रूप में परिणत हो जाता है।

    अभिनव गुप्त के अनुसार भट्ट नायक के दो नए व्यापार (भावकत्व-भोजकत्व) ना तो अनुभव सिद्ध है और ना ही इनका कोई शास्त्रीय प्रमाण है लेकिन अभिनव गुप्त ने भट्टनायक के साधारणीकरण व्यापार को स्वीकार किया है।

    भट्टनायक ने रस को विद्यान्तर स्पर्श शुन्य एवं ब्रह्मानंद सहोदर कहा है।


    4. आचार्य अभिनव गुप्त | Acharya Abhinav Gupt

    रस सूत्र के चौथे व्याख्याता आचार्य अभिनव गुप्त हैं। उनके अनुसार रस की न तो उत्पत्ति होती है और न अनुमिति होती है और न ही भुक्ति होती है अपितु रस की अभिव्यक्ति होती है। इसलिए उनका मत अभिव्यक्तिवाद कहलाता है।

    इनका दर्शन वेदांत दर्शन है और इनके सिद्धांत को अभिव्यक्तिवाद कहा जाता है।

    इन्होंने निष्पत्ति से अर्थ लिया है – अभिव्यक्ति। संयोग से अर्थ लिया है – व्यंग्य -व्यंजक भाव संबंध ।

    अभिनव गुप्त के सिद्धांत में रस ध्वनि का सुंदर समन्वय हुआ है। आचार्य अभिनव गुप्त के अनुसार रस व्यंग्य है और विभावादी व्यंजक है। ध्वनि वादियों की व्यंजना शब्द शक्ति ही रस की अभिव्यक्ति करती है।

    अभिनव गुप्त का रस सिद्धांत शैव मत पर आधारित है। जिस प्रकार यह जगत शिव की इच्छा की अभिव्यक्ति है उसी प्रकार प्रेक्षक के मन में वासना रूप से अवस्थित स्थाई भाव की निर्विघ्नं अभिव्यक्ति रस है।

    इन्होंने रस की सत्ता को आत्मगत माना है। रस सामाजिक के हृदय में व्याप्त रहता है। आचार्य अभिनव गुप्त के अनुसार –

    “रस न तो कार्य है , न हीं ज्ञाव्य । न तो वह निर्वैक्तिक ज्ञान का विषय है,
    न हीं सविकल्प ज्ञान का विषय अपितु वह तो उभयात्मक है।”

    आचार्य अभिनव गुप्त

    चर्वणा दशा में रस पूर्णत: आत्मविश्रान्तिक रुप होता है। मनोवैज्ञानिक और दार्शनिक आधार भूमि पर स्थापित होने के कारण अभिनव गुप्त का सिद्धांत सर्वमान्य बन गया है।


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    रस सूत्र के जनक कौन है?

    रस-सम्प्रदाय (ras siddhant) भरतमुनि (200 ई. पू.) को रस सम्प्रदाय का प्रवर्तक माना जाता है। उन्होंने ही रस का सबसे पहले निरूपण 'नाट्यशास्त्र' में किया, इसीलिए उन्हें रस निरूपण का प्रथम व्याख्याता एवं उनके ग्रंथ 'नाट्यशास्त्र' को रस निरूपण का प्रथम ग्रंथ माना जाता है।

    भरतमुनि के रस सूत्र में किसका उल्लेख है?

    Solution : भरत मुनि ने रस का उल्लेख अपने प्रसिद्ध ग्रंथ नाट्यशास्त्र में किया था। उनका रस सूत्र यह है की विभवानुभवतयभिचारी संयोगाद्रसनिष्पत्ति अर्थात विभव, अनुभाव और व्यभिचारी भाव के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है।

    रस सिद्धांत के प्रथम प्रतिपादक आचार्य कौन है?

    सही उत्तर 'भरत मुनि' है। रस सिद्धांत के मूल प्रवर्तक आचार्य भरतमुनि (200 ई. पू.) माने जाने हैं।

    भरतमुनि के अनुसार रस क्या है?

    भरतमुनि के अनुसार रस की परिभाषा, “विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी भाव के संयोग से रस की उत्पत्ति होती है।” इनके अतिरिक्त काव्यप्रकाश के रचयिता मम्मट भट्ट के अनुसार, “आलम्बन विभाव से उद्बुद्ध, उद्दीपन से उद्दीपित, व्यभिचारी भावों से परिपुष्ट तथा अनुभाव द्वारा व्यक्त ह्रदय का स्थाई भाव ही रस दशा को प्राप्त होता है।”