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राज का अर्थ है सम्राट। सम्राट स्व-अधीन होकर, आत्म विश्वास और आश्वासन के साथ कार्य करता है। इसी प्रकार एक राजयोगी भी स्वायत्त, स्वतंत्र और निर्भय है। राज-योग आत्मानुशासन और अभ्यास का मार्ग है। राजयोग को अष्टांग-योग भी कहते हैं क्योंकि इसे आठ-योगों (चरणों) में संगठित किया जाता है। वे हैं:-
राजयोग के आठ चरण आन्तरिक शान्ति, स्पष्टता, आत्म सयंम और ईश्वरानुभूति के लिए विधिवत अनुदेश एवं शिक्षा प्रदान करते है। यम – आत्म नियंत्रणआत्म-नियंत्रण, इसके पांच सिद्धान्त है
नियम - अनुशासनइसके पांच सिद्धान्त है :
आसन- शारीरिक व्यायामप्राणायाम- श्वास व्यायामशरीर और श्वास पर नियन्त्रण करने की प्रक्रिया में राजयोगी मन पर नियन्त्रण भी कर लेते हैं। इससे वे आन्तरिक शक्तियां जागृत हो जाती हैं जो आध्यात्मिक पथ पर मार्गदर्शन करना जारी रखती हैं। प्रत्याहार- बाह्य पदार्थों से इन्द्रियों को अनासक्त कर लेनायोगी अपने मन और इन्द्रियों को अपनी इच्छानुसार आन्तरिक व बाह्य दिशा में संचालित करने के योग्य होते हैं। जिस तरह एक कछुआ अपने अंगों और सिर को अपने शरीर के आवरण में वापस ले आता है और फिर बाहर निकाल देता है। एक बार नियन्त्रित प्रत्याहार हो जाने पर बाहरी परिस्थितियों से मुक्ति मिल जाती है। ऐसा व्यक्ति अपनी इन्द्रियों को बाहरी वस्तुओं से तुरंत वापस ले सकता है और जब इच्छा हो उन्हीं इन्द्रियों को पूरी जागरूकता के साथ रहते हुए उपयोग में भी ला सकता है। ध्यान के प्रथम चरणों में हम शरीर को निश्चल, आंखें बन्द कर, शान्त मन और एकाग्रता के साथ, आन्तरिक दिशा में मार्गदर्शित कर प्रत्याहार का अभ्यास करते हैं। कुछ विशिष्ट विधि हैं जिनके माध्यम से हम प्रत्याहार का अभ्यास कर सकते हैं। एक ध्यान का व्यायाम ध्वनि का सहज पर्यवेक्षण करके बाहरी ध्वनियों उनकी प्रकृति, अन्तर आदि पर ध्यान देकर किया जा सकता है। आहिस्ता-आहिस्ता जागरूकता, शरीर के भीतर की ध्वनियों (हृदय की धड़कन, रक्त संचरण आदि) की ओर, जो व्यक्ति के "आन्तरिक आकाश" में गूंजती है, उनकी ओर ले जाती है। यह केवल तब होता है जब व्यक्ति प्रत्याहार के चरण में पूर्णत: निपुण हो जाता है। तब हम एकाग्रचित्तता की ओर अग्रसर होकर प्रगति कर सकते हैं। धारणा-एकाग्रताधारणा का अर्थ व्यक्ति द्वारा अपने विचारों और भावनाओं को किसी एक ही वस्तु पर ले आना है। प्राय: हम इस प्रकार केवल थोड़े समय के लिए ही ऐसा करने में सफल होते हैं, फिर अन्य विचार आ जाते हैं और हमें भटका देते हैं। हम कुछ ही मिनटों के बाद अपनी एकाग्रता के अभाव को जान लेते हैं। जब तक हम, किसी भी परिस्थिति में कितनी भी लंबी अवधि के लिए किसी भी विचार या वस्तु पर चित्त एकाग्र करने के योग्य नहीं हो जाते तो माना जायेगा कि हम 'धारणा' में अभी निपुण नहीं हुए हैं। मोमबत्ती पर ध्यान (त्राटक), विशेष आसनों और प्राणायामों, साथ में मंत्रों का दोहराना, एकाग्रता की योग्यता बढ़ाने में बहुत सहायता करते हैं। ध्यान - मन को ईश्वर में लगानासभी ध्यान विधियां सच्चे ध्यान के लिए प्राथमिक व्यायाम है। व्यक्ति ध्यान करना सीख नहीं सकता, ठीक उस तरह जैसे हम निद्रा लेना नहीं 'सीख' सकते। निद्रा उस समय घटित होती है जब हमारा शरीर तनावहीन और शान्त होता है। ध्यान तब होता है जब मन शान्त होता है। ध्यान में कोई कल्पना नहीं होती, क्योंकि कल्पना बुद्घि से उठती है। हम मानव मस्तिष्क की तुलना एक अति शक्तिशाली कम्प्यूटर से कर सकते हैं, जिसमें विशाल भंडारण क्षमता है। ब्रह्माण्ड के सभी आंकड़े इसमें संग्रहीत कर सकते हैं किन्तु इस 'कम्प्यूटर' की भी सीमा होती है। हमारा मानव मस्तिष्क केवल उसी को पुन: प्रस्तुत कर सकता है जो इसमें पहले प्रविष्ट कर दिया गया हो। किन्तु ध्यान में, हम विशुद्ध होना ही अनुभव करते हैं। जिस क्षण बुद्धि स्थिर होती है और वैयक्तिक अहम् अस्तित्वहीन हो जाता है, दिव्य प्रकाश हमारे हृदय में चमक उठता है और हम उसके साथ समाहित हो जाते हैं। समाधि-पूर्ण ईश्वरानुभूतिसमाधि वह अवस्था है जहां ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय एक हो जाते हैं। ज्ञाता (अभ्यास करने वाला व्यक्ति), ज्ञान (ईश्वर क्या है) और ज्ञेय (अर्थात् ईश्वर) एक हो जाते हैं। इसका अर्थ है कि व्यक्ति दिव्य चेतना के साथ समाहित (जुड़) हो जाता है। जो समाधि प्राप्त कर लेते हैं वे एक स्वर्गिक, उज्ज्वल प्रकाश देखते हैं, स्वर्गिक ध्वनि सुनते हैं और अपने ही में एक अनन्त विस्तार देखते हैं। जब समाधि मिल जाती है, हम उस नदी के समान हो जाते हैं जो एक कठिन और लंबी यात्रा के बाद अन्त में समुद्र में मिल जाती है। सभी बाधाएं दूर हो जाती हैं और नदी सदा के लिए समुद्र में समाहित हो जाती है। इसी प्रकार एक योगी अपनी यात्रा के पश्चात् सर्वोच्च चेतना के साथ समाहित हो जाता है। योगी की चेतना शाश्वत शान्ति, निश्चलता और परमानन्द प्राप्त कर लेती है-योगी मुक्त है। यह अनुभव शब्दों में बताया नहीं जा सकता, क्योंकि जिसने दूध का स्वाद लिया है, वही बता सकता है कि दूध का स्वाद कैसा है; जिसने दर्द भोगा है वही जानता है दर्द क्या है; जिसने प्रेम किया है वही जानता है प्रेम क्या है; समाधि को प्राप्त व्यक्ति ही जानता है कि समाधि क्या है। इस अवस्था में द्वैतता नष्ट हो जाती है। कोई दिन या रात नहीं, न अंधकार न ही प्रकाश, न कोई गुण न कोई रंग। सर्वोच्च सत्ता में सब कुछ एक ही है। व्यक्ति की आत्मा का ब्रह्माण्ड की आत्मा से मिलन ही योग का उद्देश्य है। राजयोग कितने प्रकार के होते हैं?ज्योतिष के अनुसार 32 प्रकार के राजयोग माने जाते हैं, और ये सभी 32 योग एक साथ किसी की भी कुंडली में मिलते नहीं हैं, और अकर किसी में मिल जाय तो जातक चक्रवर्ती विश्व विजयी राजा होता ही होता हैं ।
कुंडली में कौन कौन से राजयोग होते हैं?कुंडली में चंद्रमा ग्यारहवें घर में और गुरु तीसरे घर में स्थित होने पर राजयोग बनता है। इस योग को लेकर पैदा हुआ व्यक्ति राजा के समान होता है। यह अपने समाज में प्रसिद्धि प्राप्त करता है और धन संपन्न होता है। इस तरह कुंडली के पांचवें घर में बुध और दसवें घर में चंद्रमा होने पर राजयोग का फल प्राप्त होता है।
सबसे बड़ा राजयोग कौन सा है?गजकेसरी एक महान राजयोग होता है। ऐसा जातक जीवन में कोई बड़ा कार्य करता है। वह विद्वान होता है और धन, पद तथा प्रतिष्ठा की प्राप्ति करता है। जन्म के समय जो ग्रह नीच राशि में हो उस राशि का स्वामी या उसकी उच्च राशि का स्वामी लग्न में हो या चंद्रमा से केंद्र में हो तो ऐसा जातक राजा होता है।
राजयोग का क्या मतलब है?लेकिन ज्योतिषीय मतानुसार राजयोग से आशय उच्चपद, प्रतिष्ठा, सर्वसुविधायुक्त जीवन एवं आत्मिक शान्ति व संतुष्टि होता है। राजयोग का व्यापक अर्थ केवल सांसारिक प्रगति ही नहीं अपितु आध्यात्मिक उन्नति होना भी है। जानते उन राजयोगों के बारे में जो मनुष्य को जीवन में सुख, प्रसिद्धि,धन,उच्च पद,प्रतिष्ठा देते हैं।
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