प्रताप नारायण मिश्र के निबंधों की प्रधान विशेषता क्या है? - prataap naaraayan mishr ke nibandhon kee pradhaan visheshata kya hai?

ले भला बतलाइए तो आप क्या हैं? आप कहते होंगे, वाह आप तो आप ही हैं। यह कहाँ की आपदा आई? यह भी कोई पूछने का ढंग है? पूछा होता कि आप कौन हैं तो बतला देते कि हम आपके पत्र के पाठक हैं और आप 'ब्राह्मण'-संपादक हैं अथवा आप पंडितजी हैं, आप राजा जी हैं, आप सेठ जी हैं, आप लाला जी हैं, आप बाबू साहब हैं, आप मियाँ साहब हैं, आप निरे साहब हैं। आप क्या हैं? यह तो प्रश्‍न की कोई रीति ही नहीं है। वाहक महाशय! यह हम भी जानते हैं कि आप आप ही हैं, और हम भी वही हैं, तथा इन साहबों की भी लंबी धोती, चमकीली पोशाक, खुंटिहई अंगरखी (मीरजई), सीधी माँग, बिलायती चाल, लंबी दाढ़ी और साहबनी हवस ही कहे देती है - कि

किस रोग की हैं आप दवा कुछ न पूछिए

अच्‍छा साहब, फिर हमने पूछा तो क्‍यों पूछा? इसीलिए कि देखें कि आप "आप" का ज्ञान रखते हैं वा नहीं? जिस आपको आप अपने लिए तथा औरों के प्रतिदिन रात मुँह पर धरे रहते हैं, वह आप क्या हैं? इसके उत्तर में आप कहिएगा कि एक सर्वनाम है। जैसे मैं, तू, हम, वह, यह आदि हैं वैसे ही आप भी हैं, और क्या है। पर इतना कह देने से न हमीं संतुष्‍ट होंगे न आप ही के शब्‍दशास्‍त्र ज्ञान का परिचय होगा। इससे अच्‍छे प्रकार कहिए कि जैसे 'मैं' का शब्‍द अपनी नम्रता दिखलाने के लिए बिल्‍ली की बोली का अनुकरण है, 'तू' का शब्‍द मध्‍यम पुरुष की तुच्‍छता वा प्रीत सूचित करने के अर्थ में कुत्ते के संबोधन की नकल है; हम तुम संस्‍कृत के अहं, त्‍वं का अपभ्रंश हैं, यह वह निकट और दूर की वस्‍तु वा व्‍यक्ति के द्योतनार्थ स्‍वाभाविक उच्‍चारण हैं, वैसे 'आप' क्या है? किस भाषा के किस शब्‍द का शुद्ध वा अशुद्ध रूप है और आदर ही में बहुधा क्‍यों प्रयुक्‍त होता है?

हुजूर की मुलाजमत से अक्‍ल ने इस्तेअफा दे दिया हो तो दूसरी बात है नहीं तो आप यह कभी न कह सकेंगे कि "आप लफ्ज या अरबीस्‍त" अथवा "ओ: इटिज ऐन इंग्लिश वर्ड"। जब यह नहीं है तो खामखाह यह हिंदी शब्‍द है, पर कुछ सिर-पैर, मूड़-गौड़ भी है कि यों ही? आप छूटते ही सोच सकते हैं कि संस्‍कृत में आप कहते हैं जल को। और शास्‍त्रों में लिखा है कि विधाता ने सृष्टि के आदि में उसी को बनाया था, यथा-"आप एव ससर्जादौ तासु वीर्यमवासृजत्' तथा हिंदी में पानी और फारसी में आब का अर्थ शोभा अथच प्रतिष्‍ठा आदि हुआ करता है। जैसे "पानी उतरि गा तरवारिन को उई करछुलि के मोल बिकाएँ" तथा पानी उतरिगा रजपूती का उइ फिर बिसुओं ते (बेश्‍या से भी) बहि जाए" और फारसी में 'आवरू खाक में मिला बैठे' इत्‍यादि।

इस प्रकार पानी की ज्‍येष्‍ठता और श्रेष्‍ठता का विचार करके लोग पुरुषों को भी उसी के नाम से आप पुकारने लगे होंगे। यह आपका समझना निरर्थक तो न होगा, बड़प्‍पन और आदर का अर्थ अवश्‍य निकल आवैगा, पर खींच-खाँच कर, और साथ ही यह शंका भी कोई कर बैठे तो अयोग्‍य न होगी कि पानी के जल, बारि, अंबु, नीर, तोय इत्‍यादि और भी तो कई नाम हैं, उनका प्रयोग क्‍यों नहीं करते "आप" ही के सुर्खाब का पर कहाँ लगा है? अथवा पानी की सृष्टि सबके आदि में होने के कारण बृद्ध ही लोगों को उसके नाम से पुकारिए तो युक्तियुक्‍त हो सकता; पर आप तो अवस्‍था में छोटों को भी आप-आप कहा करते हैं, यह आपकी कौन सी विज्ञता है? या हम यों भी कह सकते हैं कि पानी में गुण चाहे जितने हों, पर गति उसकी नीच ही होती है। तो क्या हमको मुँह से आप-आप करके अधोगामी बनाया चाहते हैं? हमें निश्‍चय है कि आप पानीदार होंगे तो इस बात के उठते ही पानी-पानी हो जाएगे, और फिर कभी यह शब्‍द मुँह पर न लावेंगे।

सहृदय सुहृद्गण आपस में आप-आप की बोली बोलते ही नहीं हैं। एक हमारे उर्दूदाँ मुलाकाती मौखिक मित्र बनने की अभिलाषा से आते जाते थे। पर जब ऊपरी व्‍यवहार मित्रता का सा देखा तो हमने उनसे कहा कि बाहरी लोगों के सामने की बात न्‍यारी है, अकेले में अथवा अपनायत वालों के आगे आप-आप न किया करो, इसमें भिन्‍नता की भिनभिनाहट पाई जाती है। पर वह इस बात को न माने, हमने दो चार बार समझाया पर वह 'आप' थे, क्‍यों मानने लगे! इस पर हमें झुँझलाहट छूटी तो एक दिन उनके आते ही और आप का शब्‍द मुँह पर लाते ही हमने कह दिया कि 'आपकी ऐसी तैसी'। यह क्या बात है कि तुम मित्र बनकर हमारा कहना नहीं मानते? प्‍यार के साथ तू कहने में जितना स्‍वादु आता है उतना बनावट से आप साँप कहो तो कभी सपने में नहीं आने का। इस उपदेश को वह मान गए। सच तो यह है कि प्रेमशास्‍त्र में, कोई बंधन न होने पर भी, इस शब्‍द का प्रयोग बहुत ही कम, बरंच नहीं के बराबर होता है।

हिंदी कविता में हमने दो ही कवित्त इससे युक्‍त पाए हैं, एक तो 'आपको न चाहै ताकि बाप को न चाहिए'। पर यह न तो किसी प्रतिष्ठित ग्रंथ का है और न इसका आशय स्‍नेह संबद्ध है। किसी जले भुने कवि ने कहा मारा हो तो यह काई नहीं कह सकता कि कविता में भी आप की पूछ है। दूसरी घनानंद जी की यह सवैया है - "आप ही तौ मन हेरि हर्यौ तिरछे करि नैनन नेह के चाव में" इत्‍यादि। पर यह भी निराशापूर्ण उपालंभ है, इससे हमारा यह कथन कोई खंडन नहीं कर सकता कि प्रेम-समाज में "आप" का अदर नहीं है, "तू" ही प्‍यारा है।

संस्‍कृत फारसी के कवि भी त्‍वं और तू के आगे भवान् और शुमा (तू का बहुवचन) का बहुत आदर नहीं करते, पर इससे आपको क्या मतलब? आप अपनी हिंदी के 'आप' का पता लगाइए, और न लगै तो हम बतला देंगे। संस्‍कृत में एक आप्‍त शब्‍द है, जो सर्वथा माननीय ही अर्थ में आता है, यहाँ तक कि न्‍याय शास्‍त्र में प्रमाण चतुष्‍टय (प्रत्‍यक्ष, अनुमान, उपमान, और शब्‍द) के अंतर्गत शाब्‍द-प्रमाण का लक्षण ही यह लिखा है कि 'आप्‍तोदेश: शब्‍द:' अर्थात् आप्‍त पुरुष का वचन प्रत्‍यक्षादि प्रमाणों के समान ही प्रामाणिक होता है, वा यों समझ लो कि आप्‍त जन प्रत्‍यक्ष, अनुमान और उपमान प्रमाण से सर्वथा प्रमाणित ही विषय को शब्‍दबद्ध करते हैं।

इससे जान पड़ता है कि जो सब प्रकार की विद्या, बुद्धि, सत्‍यभाषणादि सद्गुणों से संयुक्‍त हो वह आप्‍त है, और देवनागरी भाषा में आप्‍तशब्‍द उसके उच्‍चारण में सहजतया नहीं आ सकता। इससे उसे सरल करके आप बना लिया गया है, और मध्‍यम पुरुष तथा अन्‍य पुरुष के अत्‍यंत आदर का द्योतन करने के काम में आता है। 'तुम अ‍हुत अच्‍छे मनुष्‍य हो' और 'यह सज्‍जन हैं' - ऐसा कहने से सच्‍चे मित्र, बनावट के शत्रु चाहे जैसे "पुलक प्रफुल्लित पूरित गाता" हो जाए, पर व्‍यवहारकुशल लोकाचारी पुरुष तभी अपना उचित सम्‍मान समझेंगे जब कहा जाए कि, "आपका क्या कहना है, आप तो बस सभी बातों में एक ही हैं, इत्‍यादि।

अब तो आप समझ गए होंगे कि आप कहाँ के हैं, कौन हैं, कैसे हैं, यदि इतने बड़े बात के बतंगड़ से भी न समझे हो तो इस छोटे से कथन में हम क्या समझ सकेंगे कि आप संस्‍कृत के आप्‍त शब्‍द का हिंदी रूपांतर है, और माननीय अर्थ के सूचनार्थ उन लोगों (अथवा एक ही व्‍यक्ति) के प्रति प्रयोग में लाया जाता है जो सामने विद्यमान हों, चाहे बातें करते हों, चाहें बात करने वालों के द्वारा पूछे बताए जा रहे हों, अथवा दो वा अधिक जनों में जिनकी चर्चा हो रही हो। कभी-कभी उत्तम पुरुष के द्वारा भी इसका प्रयोग होता है, वहाँ भी शब्‍द और अर्थ वही रहता है; पर विशेषता यह रहती है कि एक तो सब कोई अपने मन से आपको (अपने तईं) आप ही (आप्‍त ही) समझता है। और विचार कर देखिए तो आत्‍मा और परमात्‍मा की अभिन्‍नता या तद्रुपता कहीं लेने भी नहीं जानी पड़ती, पर ब्राह्य व्‍यवहार में अपने को आप कहने से यदि अहंकार की गंध समझिए तो यों समझ लीजिए कि जो काम अपने हाथ से किया जाता है और जो बात अपनी समझ स्‍वीकार कर लेती है उसमें पूर्ण निश्‍चय अवश्‍य ही हो जाता है और उसी के विदित करने को हम और आप तथा यह एवं वो कहते हैं कि 'हम आप कर लेंगे' अर्थात् कोई संदेह नहीं है कि हमसे यह कार्य संपादित हो जाएगा। 'हम आप जानते हैं', अर्थात् दूसरे के बतलाने की आवश्‍यकता नहीं है, इत्‍यादि।

महाराष्‍ट्रीय भाषा के आपा जी भी उन्‍नीस बिस्‍वा आप्‍त और आर्य के मिलने से इस रूप में हो गए हैं, तथा कोई माने या न माने, पर हम मना सकने का साहस रखते हैं कि अरती के अब्‍ब (पिता, बोलने में अब्‍बा) और योरोपिय भाषाओं के पापा (पिता) पोप (धर्म-पिता) आदि भी इसी आप से निकले हैं। हाँ इसके समझने समझाने में भी जी ऊबे तो अँगरेजी के एबाट (Apat महंत) तो इसके हई है, क्‍योंकि उस बोली में ह्रस्‍व और दीर्ध दोनों प्रकार का स्‍थानापन्‍न A है, और पकार का बकार से बदल लेना कई भाषाओं की चाल है। रही टी (T) सो वह तो "तकार" हई है। फिर क्या न मान लीजिएगा कि एबाट साहब हमारे 'आप' बरंच शुद्ध आप्‍त से बने हैं!

हमारे प्रांत में बहुत से उच्‍च वंश के बालक भी अपने पिता को अप्‍पा कहते हैं, उसे कोई-कोई लोग समझते हैं कि मुसलमानों के सहवास का फल है। पर उनकी यह समझ ठीक नहीं है। मुसलमान भाइयों के लड़के कहते हैं अब्‍बा और हिंदू संतान के पक्ष में 'बकार' का उच्‍चारण तनिक भी कठिन नहीं होता, यह अँगरेजों की तकार और फारस वालों की टकार नहीं है कि मुँह से ही न निकले, और सदा मोती का मोटी अर्थात स्‍थूलांगी स्‍त्री और खस की टट्टी का तत्ती अर्थात् गरम ही हो जाए। फिर अब्‍बा को अप्‍पा कहना किस नियम से होगा! हाँ आप्‍त से आप और अप्‍पा तथा आपा की सृष्टि हुई है, उसी को अरबवालों ने अब्‍बा में रूपांतरित कर लिया होगा। क्‍योंकि उनकी वर्णमाला में "पकार" (पे) नहीं होती।

सौ बिस्‍वा बप्‍पा, बाप, बापू, बब्‍बा, बाबू आदि भी इसी से निकले हैं क्‍योंकि जैसे एशिया की कई बोलियों में 'पकार' को 'बकार' व फकार से बदल देते हैं, जैसे पादशाह-बादशाह और पारसी-फारसी आदि, वैसे ही कई भाषाओं में शब्‍द के आदि में बकार भी मिला देते हैं, जैसे वक्‍ते शब बवक्‍ते शब तथा तंग आमद-बतंग आमद इत्‍यादि, और शब्‍द के आदि को ह्रस्‍व अकार का कोप भी हो जाता है, जैसे अमावस का मावस (सतसई आदि ग्रंथ में देखो) ह्रस्‍व अकारांत शब्‍दों में अकार के बदले ह्रस्‍व वा दीर्घ उकार भी हो जाती है, जैसे एक-एकु, स्‍वाद-स्‍वादु आदि। अथच ह्रस्‍व को दीर्ध, दीर्ध को ह्रस्‍व अ, इ, उ आदि की वृद्धि वा लोप भी हुवा ही करता है, फिर हम क्‍यों न कहें कि जिन शब्‍दों में अकार और पकार का संपर्क हो, एवं अर्थ से श्रेष्‍ठता की ध्‍वनि निकलती हो वह प्राय: समस्‍त संसार के शब्‍द हमारे आप्‍त महाशय वा आप ही उलट-फेस से बने हैं।

अब तो आप समझ गए न कि आप क्या हैं? अब भी न समझो तो हम नहीं कह सकते कि आप समझदारी के कौन हैं? हाँ, आप ही को उचित होगा कि दमड़ी छदाम की समझ किसी पंसारी के यहाँ से मोल ले आइए, फिर आप ही समझने लगिएगा कि "आप को हैं? कहाँ के हैं?" यदि यह भी न हो सके और लेख पढ़ के आपे से बाहर हो जाइए तो हमारा क्या अपराध है? हम केवल जी में कह लेंगे, "शाब! आप न समझो तो आपा को के पड़ी छै।" ऐं! अब भी नहीं समझे? वाह रे आप!


प्रताप नारायण मिश्र के निबंधों की प्रधान विशेषता क्या है? - prataap naaraayan mishr ke nibandhon kee pradhaan visheshata kya hai?
  
प्रताप नारायण मिश्र के निबंधों की प्रधान विशेषता क्या है? - prataap naaraayan mishr ke nibandhon kee pradhaan visheshata kya hai?
  
प्रताप नारायण मिश्र के निबंधों की प्रधान विशेषता क्या है? - prataap naaraayan mishr ke nibandhon kee pradhaan visheshata kya hai?

प्रताप नारायण मिश्र के निबंध कौन कौन से हैं?

मिश्रजी के निबंधों में विषय की पर्याप्त विविधता है। देव-प्रेम, समाज-सुधार एवं साधारण मनोरंजन आदि मिश्रजी के निबंधों के मुख्य विषय थे। उन्होंने 'ब्राह्मण' मासिक पत्र में हर प्रकार के विषय पर निबंध लिखे। जैसे - घूरे के लत्ता बीने-कनातन के डोल बांधे, समझदार की मौत है,आप, बात, मनोयोग, बृद्ध, भौं, मुच्छ, ह, ट, द आदि।

प्रताप नारायण मिश्र की प्रधान शैली कौन सी है?

प्रताप नारायण मिश्र जी की शैली हास्य-विनोदपूर्ण है। प्रतापनारायण प्रताप नारायण मिश्र की शैली के दो रूप पाए जाते हैं- विनोदात्मक हास्य-व्यंग्यमयी शैली तथा गम्भीर विवेचनात्मक शैली। गम्भीर विषयों के विवेचन में इन्होंने विवेचनात्मक शैली अपनायी है।

प्रताप नारायण मिश्र का जन्म कहां और कब हुआ?

24 सितंबर 1856प्रतापनारायण मिश्र / जन्म की तारीख और समयnull

प्रताप नारायण की मृत्यु कब हुई थी?

6 जुलाई 1894प्रतापनारायण मिश्र / मृत्यु तारीखnull