प्राचीन इतिहास जानने के स्त्रोत कौन कौन से हैं? - praacheen itihaas jaanane ke strot kaun kaun se hain?

अभिलेख

• बिजलोलिया अभिलेख : भीलवाड़ा जिले के बिजोलिया गाँव में जैन मन्दिर के समीप एक चट्टान पर खुदा हुआ यह लेख संस्कृत भाषा में है। लेख फरवरी 1170 ई. का है। इससे चौहानों की उपलब्धियाँ ज्ञात होती है। इससे कई स्थानों के प्राचीन नाम विदित होते हैंए जैसे जालौर का जबालिपुरए सांभर का शाकंभरी एवं भीनमाल का श्रीमाल आदि।

• चीरवा का शिलालेख : उदयपुर से 13 किण्मीण् दूर चीरवा गाँव के मन्दिर के लगा हुआ यह लेख 1273 ई. का है। यह लेखए गुहिलवंशीय बापा से रावल समरसिंह के समय तक की उपलब्धियाँ बतलाता है।

• श्रृंगीऋषि का लेख : इसमें मेवाड़ के राणा हम्मीर प्रथम से राणा मोकल तक की जानकारी मिलती है। इसमें मेवाड़ की आदिमजाति भीलों के सामाजिक जीवन पर प्रकाश डाला गया है : इससे इसकी विशेषता बढ़ जाती है। इस लेख की रचना 1428 ई. की है। यह एकलिंग जी से 7 किण्मीण् दूर श्रृंगऋषि नाम स्थान पर लगा हुआ है। मेवाड़ के इतिहास के लिये 1439 ई. की श्रणकपुर प्रशस्ति भी महत्त्वपूर्ण है जिसमें राणा कुम्भा तक गुहिल.सिसोदिया वंशावली ज्ञात होती है।

• कुंभलगढ़ का शिलालेख : इसमें मेवाड़ के शासकों की शुद्ध वंशावली मिलती है। यह पाँच शिलाओं पर उत्कीर्ण किया हुआ है। राणा कुम्भा तक शासकों की उपलब्धियों और समाज का चित्रण उसकी विशेषता है।

• कीर्तिस्तम्भ प्रशस्ति: राणा कुम्भा के समय 1460 ई. में उत्कीर्ण की गई यह प्रशस्ति कई शिलाओं पर विद्यमान रही थी। इस समय में मात्र दो शिलाएँ ही शेष हैं। इसके द्वारा 15वीं शताब्दी के राजस्थान सर्वागींण जीवन का अध्ययन करने में महत्त्वपूर्ण सहायता मिलती है। राणा कुम्भा रचित अध्ययन करने में महत्त्वपूर्ण सहायता मिलती है। राणा कुम्भा रचित ग्रन्थों.चण्डीशतकए गीतगोविन्दए टीका संगीतराज आदि का उल्लेख भी इसमें है।

• रायसिंह की प्रशस्ति : 1594 ई. की बीकानेर के शासक रायसिंह के काल की यह प्रशस्ति बीकानेर दुर्ग के निर्माण सहित रायसिंह की काबुल और कन्धार की उपलब्धि का वर्णन करती है।

• आमेर का लेख : आमेर के कछवाह राजवंश के इतिहास को जानने के लिये यह लेख महत्त्वपूर्ण है। इसमें पृथ्वीराजए भारमलए भगवन्तदास और मानसिंह का उल्लेख है। मानसिंह द्वारा निर्मित जमुआ रामगढ़ के प्रकार वाले दुर्ग का वर्णन इसमें है। इसे 1612 ई. में उत्कीर्ण किया गया था।

• राज प्रशस्ति : मेवाड़ के राणा राजसिंह ने राजसमन्द नामक विशाल झील का निर्माण कराया था। तब रणछोड़ भट्ट ने इसके निमित इस प्रशस्ति की रचना की थी। यह प्रशस्ति 5 बड़ी.बड़ी काले रंग की पत्थर की पिट्टका पर उत्कीर्ण कर राजसमन्द के तट पर लगाई गई। पत्थर पर खुदी हुई यह ऐतिहासिक.काव्य कृति विश्व के शिलालेखों में सबसे बड़ी है। इसमें संस्कृत भाषा सहित फारसी और स्थानीय शब्दों का प्रयोग भी किया गया है। इस प्रशस्ति द्वारा मेवाड़ के इतिहास का पता लगता है और साथ ही सांस्कृतिक और आर्थिक जीवन को जानने में इसका सर्वाधिक महत्त्व है। इसकी रचना 1676 ई. में हुई थी।

राजस्थानी साहित्य
अतीत को जानने के साधनों में साहित्य एक महत्त्वपूर्ण स्रोत है। जिसे पढ़कर हमें अतीत की आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक स्थिति का ज्ञान होता है। राजस्थान के इतिहास देने वाला साहित्य सभी भाषाओं में उपलब्ध है किंतु हम यहाँ केवल राजस्थानी साहित्य की चर्चा करेंगे।
रचनाकारों की दृष्टि से राजस्थानी साहित्य को 5 वर्गों में बांटा गया है -(1) चारण साहित्य (2) जैन साहित्य (3) संत साहित्य (4) ब्राह्मण साहित्य (5) लोक साहित्य।

(1) चारण साहित्य :-
चारणी-साहित्य से अभिप्राय चारण, ब्रह्मभट्ट, भाट, ढाढी आदि सभी विरुद-गायक जातियों के लेखकों द्वारा लिखा गया साहित्य है। यह साहित्य अधिकांशतः पद्य में हैं और प्रधानतया वीर रसात्मक है। यह साहित्य प्रबंध काव्यों, गीतों, दोहों, सोरठों, झूलणों, छप्पयों आदि छन्दों में उपलब्ध है। वेलि किसन रूकमणी री, रतन महेश दासोत की वचनिका (खिड़ियाँ जग्गा), जइतसी रऊ छन्द (बीठू सूजा) आदि।

(2) जैन साहित्य :-
जैन मुनियों द्वारा लिखित साहित्य जैन साहित्य के अंतर्गत आता है। वज्रसेन सूरि रचित 'भरतेश्वर बाहुबलि घोर' राजस्थानी का प्राचीनतम ग्रंथ है। यह वीर रस एवं शांत रस का 46 पदों का लघु ग्रंथ है। इसमें भरत और बाहुबलि के बीच युद्ध का वर्णन है। शालि भद्र सूरि कृत 'भरत बाहुबलि रास' संवतोल्लेख वाली प्रथम राजस्थानी रचना है। यह भारु गुर्जर भाषा में रचित रास परम्परा में सर्वप्रथम और सर्वाधिक पाठ वाला खण्ड काव्य है।

कुवलयमाला :-
8वीं शताब्दी में जैन साधु उद्योतन सूरि ने जालौर दुर्ग में इस ग्रंथ की रचना की थी। मूलतः यह ग्रंथ प्राकृत भाषा है किंतु इसमें उस समय प्रचलन में रही 16 भाषाओं के नाम दिए जिसमें मरुभाषा भी एक है।

(3) संत साहित्य :-
चारण साहित्य के साथ-साथ संत साहित्य ने राजस्थानी साहित्य का गौरवपूर्ण साहित्य दिया है। राजस्थान के भक्ति आंदोलनों में वैष्णव भक्तों, दादू पंथियों तथा राम स्नेही साधुओं ने विपूल मात्रा में सतं साहित्य का सृजन किया। इन संतों ने गद्य की रचना नहीं के बराबर की।
नाभादास :- अग्रदास के शिष्य नाभादास के द्वारा भक्तमाला, अष्टयाम और रामचरित आदि ग्रंथों की रचना की गयी। नाभादास का भक्त माला एक प्रामाणिक ग्रंथ माना जाता है जो वैष्णव भक्तों के जीवन चरित्र पर प्रभाव डालता है।
सुंदर कुंवरि :- यह किशनगढ़ के राजा की पुत्री थी। यह वैष्णव भक्त थी। इनके द्वारा रचित ग्रंथ नेह निधि, वृंदावन गोपी महात्म्य, रस पुंज, सार संग्रह आदि सम्मिलित है।

4. लोक साहित्य
राजस्थानी साहित्य में सामान्यजन द्वारा प्रचलित लोक शैली में रचे गये अपार थाती विद्यमान है। इसके अंतर्गत लोक गाथाओं, लोक नाट्यों, प्रेमाख्यानों, कहावतों, पहेलियों एवं लोक गीतों के रूप में विद्यमान है। ढोला मारु रा दूहा प्रसिद्ध लोक काव्य है।
5. ब्राह्मण साहित्य- से तात्पर्य, जिसमें धर्मशास्त्र-विषयक ग्रंथ लिखे गये है। वैधक, संगीत, ज्योतिष, इतिहास, पुराण, शास्त्र आधारित टीकाएँ इस साहित्य का हिस्सा है।
ब्राह्मण जाति के लिखे ग्रंथ
नरपति नाल्ह का बीसलदेव रासो।
श्रीधर व्यास का रणमल्ल छंद इसमें पाटन के सूबेदार जफर खाँ एवं ईडर के राजा रणमल राठौड़ के मध्य युद्ध का वर्णन है (संवत् 1454)।
अजितोदय - भट्ट जगजीवन।
अमरकाव्य वंशावली - रणछोड़ भट्ट।
अमरसार - पं. जीवंधर।
हम्मीर हठ, सुर्जन चरित - चंद्रशेखर (राव सर्जुन का आश्रित)।
एकलिंग महात्मय - कुंभा।

साहित्य लेखन की शैलियाँ
ख्यात, वात, वचनिका, दवावैत महाकाव्य, रासो, दूहा, सोरठा, वेलि आदि है किंतु इनमें इतिहास जानने की दृष्टि से ख्यात महत्त्वपूर्ण है।
ख्यात -
मध्यकालीन राजस्थानी साहित्य में गद्य विधा में इतिहास वृत्त लिखने के लिए ख्यात लेखन किया जाता था। ख्यात शब्द ख्याति शब्द से बना है जिसका अर्थ है वे बाते जो प्रसिद्ध हो चुकी है। मुहणोत नैणसी री ख्यात, दयालदास री ख्यात आदि प्रमुख ख्यात है।

प्राचीन इतिहास जानने के स्रोत कौन कौन हैं?

हिन्दू धर्म में अनेक ग्रन्थ, पुस्तकें तथा महाकाव्य इत्यादि की रचना की गयी हैं, इनमे प्रमुख रचनाएँ इस प्रकार से है – वेद, वेदांग, उपनिषद, स्मृतियाँ, पुराण, रामायण एवं महाभारत। इनमे ऋग्वेद सबसे प्राचीन है। इन धार्मिक ग्रंथों से प्राचीन भारत की राजव्यवस्था, धर्म, संस्कृति तथा सामाजिक व्यवस्था की विस्तृत जानकारी मिलती है।

इतिहास जानने के साधन क्या क्या है?

इतिहास जानने के स्रोत अथवा साधन.
(2)विदेशी यात्रियों के विवरण.
(3) पुरातत्व संबंधी साक्ष्य.
साहित्यिक साक्ष्य -.
धार्मिक साहित्य - धार्मिक साहित्य में ब्राम्हण तथा ब्रम्हणेत्तर साहित्यों की चर्चा की जाती है.
ब्राह्मण ग्रंथों में वेद ,उपनिषद, रामायण ,महाभारत ,पुराण, स्मृती ग्रंथ आते हैं जबकि.

इतिहास क्या है इतिहास के स्रोतों का वर्णन करें?

इतिहास के स्रोत (History ke srot) : पुरातात्विक स्रोत प्राचीन भारत के अध्ययन के लिए पुरातात्विक सामग्रियाँ सर्वाधिक प्रमाणिक हैं। इसके अन्तर्गत मुख्यतः अभिलेख, सिक्के, स्मारक, भवन, मूर्तियाँ, चित्रकला आदि आते हैं। अभिलेख:- पुरातात्विक स्रोतों के अन्तर्गत सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण स्रोत अभिलेख है।

प्राचीन भारतीय इतिहास के पुरातात्विक स्रोत क्या है?

प्राचीन भारतीय इतिहास को जानने के लिए पुरातात्विक स्रोतों के अंतर्गत अभिलेख, सिक्के, मूर्तियां, चित्रकला, मृदभांड एवं मोहरें आते है।