सज्जन और विद्वान के संपत्ति अर्जन का क्या उद्देश्य होता है? - sajjan aur vidvaan ke sampatti arjan ka kya uddeshy hota hai?

Contents

  • 1 NCERT Solutions for Class 11 Hindi Core – अपठित बोध- अपठित गद्यांश
    • 1.1 अपठित गद्यांश for Class 11 Hindi Example 1
    • 1.2 अपठित गद्यांश for Class 11 Hindi Example 2
    • 1.3 अपठित गद्यांश for Class 11 Hindi Example 3
    • 1.4 अपठित गद्यांश for Class 11 Hindi Example 4
    • 1.5 अपठित गद्यांश for Class 11 Hindi Example 5
    • 1.6 अपठित गद्यांश for Class 11 Hindi Example 6
    • 1.7 अपठित गद्यांश for Class 11 Hindi Example 7
    • 1.8 अपठित गद्यांश for Class 11 Hindi Example 8
    • 1.9 अपठित गद्यांश for Class 11 Hindi Example 9
    • 1.10 अपठित गद्यांश for Class 11 Hindi Example 10
    • 1.11 अपठित गद्यांश for Class 11 Hindi Example 11
    • 1.12 अपठित गद्यांश for Class 11 Hindi Example 12
    • 1.13 अपठित गद्यांश for Class 11 Hindi Example 13
    • 1.14 अपठित गद्यांश for Class 11 Hindi Example 14
    • 1.15 अपठित गद्यांश for Class 11 Hindi Example 15
    • 1.16 अपठित गद्यांश for Class 11 Hindi Example 16
    • 1.17 अपठित गद्यांश for Class 11 Hindi Example 17
    • 1.18 अपठित गद्यांश for Class 11 Hindi Example 18
    • 1.19 अपठित गद्यांश for Class 11 Hindi Example 19
    • 1.20 अपठित गद्यांश for Class 11 Hindi Example 20
    • 1.21 स्वयं करें

निम्नलिखित गदयांश तथा उन पर आधारित प्रश्नोत्तर ध्यानपूर्वक पढ़िए-

अपठित गद्यांश for Class 11 Hindi Example 1

1. हँसी भीतरी आनंद का बाहरी चिहन है। जीवन की सबसे प्यारी और उत्तम-से-उत्तम वस्तु एक बार हँस लेना तथा शरीर को अच्छा रखने की अच्छी-से-अच्छी दवा एक बार खिलखिला उठना है। पुराने लोग कह गए हैं कि हँसो और पेट फुलाओ। हँसी न जाने कितने ही कला-कौशलों से भली है। जितना ही अधिक आनंद से हँसोगे उतनी ही आयु बढ़ेगी। एक यूनानी विद्वान कहता है कि सदा अपने कर्मों को झीखने वाला हेरीक्लेस बहुत कम जिया, पर प्रसन्न मन डेमाक्रीटस 109 वर्ष तक जिया। हँसी-खुशी का नाम जीवन है। जो रोते हैं, उनका जीवन व्यर्थ है। कवि कहता है-‘जिंदगी जिंदादिली का नाम है, मुर्दादिल खाक जिया करते हैं।’

मनुष्य के शरीर के वर्णन पर एक विलायती विद्वान ने एक पुस्तक लिखी है। उसमें वह कहता है कि उत्तम सुअवसर की हँसी उदास-से-उदास मनुष्य के चित्त को प्रफुल्लित कर देती है। आनंद एक ऐसा प्रबल इंजन है कि उससे शोक और दुख की दीवारों को ढा सकते हैं। प्राण रक्षा के लिए सदा सब देशों में उत्तम-से-उत्तम उपाय मनुष्य के चित्त को प्रसन्न रखना है। सुयोग्य वैद्य अपने रोगी के कानों में आनंदरूपी मंत्र सुनाता है। एक अंग्रेज डॉक्टर कहता है कि किसी नगर में दवाई लदे हुए बीस गधे ले जाने से एक हँसोड़ आदमी को ले जाना अधिक लाभकारी है। डॉक्टर हस्फलेंड” ने एक पुस्तक में आयु बढ़ाने का उपाय लिखा है। वह लिखता है कि हँसी बहुत उत्तम चीज पाचन के लिए है, इससे अच्छी औषधि और नहीं है। एक रोगी ही नहीं, सबके लिए हँसी बहुत काम की वस्तु है।

हँसी शरीर के स्वास्थ्य का शुभ संवाद देने वाली है। वह एक साथ ही शरीर और मन को प्रसन्न करती है। पाचन-शक्ति बढ़ाती है, रक्त को चलाती और अधिक पसीना लाती है। हँसी एक शक्तिशाली दवा है। एक डॉक्टर कहता है कि वह जीवन की मीठी मदिरा है। डॉ. हयूड कहता है कि आनंद से बढ़कर बहुमूल्य वस्तु मनुष्य के पास और नहीं है। कारलाइल एक राजकुमार था। संसार त्यागी हो गया था। वह कहता है कि जो जी से हँसता है, वह कभी बुरा नहीं होता। जी से हँसी, तुम्हें अच्छा लगेगा। अपने मित्र को हँसाओ, वह अधिक प्रसन्न होगा। शत्रु को हँसाओ, तुमसे कम घृणा करेगा। एक अनजान को हँसाओ, तुम पर भरोसा करेगा। उदास को हँसाओ, उसका दुख घटेगा। निराश को हँसाओ, उसकी आशा बढ़ेगी।

एक बूढ़े को हँसाओ, वह अपने को जवान समझने लगेगा। एक बालक को हँसाओ, उसके स्वास्थ्य में वृद्ध होगी। वह प्रसन्न और प्यारा बालक बनेगा, पर हमारे जीवन का उद्देश्य केवल हँसी ही नहीं है, हमको बहुत काम करने हैं। तथापि उन कामों में, कष्टों में और चिंताओं में एक सुंदर आंतरिक हँसी, बड़ी प्यारी वस्तु भगवान ने दी है। हँसी सबको भली लगती है। मित्र-मंडली में हँसी विशेषकर प्रिय लगती है। जो मनुष्य हँसते नहीं उनसे ईश्वर बचावे। जहाँ तक बने हँसी से आनंद प्राप्त करो। प्रसन्न लोग कोई बुरी बात नहीं करते। हँसी बैर और बदनामी की शत्रु है और भलाई की सखी है। हँसी स्वभाव को अच्छा करती है। जी बहलाती है और बुद्ध को निर्मल करती है।
प्रश्न

(क) पुराने समय में लोगों ने हँसी को महत्व क्यों दिया? 2
(ख) हेरीक्लेस और डेमाक्रीटस के उदाहरण से लेखक क्या स्पष्ट करना चाहता है? 2
(ग) किसी डॉक्टर ने हँसी को जीवन की मीठी मदिरा क्यों कहा है? 2
(घ) इस गदयांश में हँसी का क्या महत्व बताया गया है? 2
(ङ) गदयांश का उपयुक्त शीर्षक बताइए। 1
(च) ‘पाचन-शक्ति’ एवं ‘मुर्दादिल’ का समास-विग्रह कीजिए और समास का नाम भी बताइए। 1

उत्तर 

(क) पुराने समय में हँसी को इसलिए महत्व दिया, क्योंकि वे जानते थे और कहते थे कि एक बार हँस लेना शरीर को स्वस्थ रखने की सबसे अच्छी दवा है। हँसी न जाने कितने कला-कौशलों से अच्छी है। जितना अधिक हँसोगे उतनी ही आयु बढ़ेगी। उस समय लोगों का यह भी मानना था कि हँसी-खुशी ही जीवन है। जो रोते हैं, उनका जीवन व्यर्थ है। वे हँसी को सबके लिए बहुत ही काम की वस्तु मानते थे।
(ख) हेरीक्लेस और डेमाक्रीटस का उदाहरण देकर लेखक बताना चाहता है कि सदा अपने कर्मों को खीझने वाला हेरीक्लेस बहुत कम जिया और प्रसन्न रहने वाला डेमाक्रीटस 109 वर्ष जिया। प्रसन्नता और हँसी सुखमय स्वस्थ जीवन के आधार हैं। अत: जो लोग दीर्घायु बनना चाहते हैं, उन्हें सदैव प्रसन्न और हँसमुख रहना चाहिए।
(ग) किसी डॉक्टर ने हँसी को जीवन की मीठी मदिरा इसलिए कहा है क्योंकि जिस प्रकार मदिरा की अल्प मात्रा के सेवन से व्यक्ति स्वयं को तन-मन से प्रसन्न महसूस करने लगता है और अपना दुख भूल जाता है, उसी प्रकार हँसी भी व्यक्ति को शरीर और मन से प्रसन्न बनाती है। वह व्यक्ति की पाचनशक्ति बढ़ाती है, उसका रक्तसंचार बढ़ाती है। इससे व्यक्ति अपना दुख भूलकर स्वयं को प्रसन्नचित्त महसूस करता है।
(घ) हँसी उदास-से-उदास व्यक्ति के चित्त को प्रफुल्लित कर देती है, पाचन-शक्ति बढ़ाती है, रक्त को चलाती है और अधिक पसीना लाती है। हँसी एक शक्तिशाली दवा है। हँसी जी बहलाती है, बुद्ध को निर्मल करती है। हँसी वैर से बचाती है। हँसी हमारे व्यक्तित्व को आकर्षक बनाती है क्योंकि जो भी जी से हँसता है, बुरा नहीं लगता है बल्कि ऐसे व्यक्ति को देखना अच्छा लगता है।
(ङ) हॅसी की महत्ता
(च) पाचन की शक्ति   संबंध तत्पुरुष
मुर्दा जैसे दिलवाला      कर्मधारय समास

अपठित गद्यांश for Class 11 Hindi Example 2

2. जाति-प्रथा को यदि श्रम-विभाजन मान लिया जाए तो यह स्वाभाविक विभाजन नहीं है, क्योंकि यह मनुष्य की रुचि पर आधारित नहीं है। कुशल व्यक्ति या सक्षम-श्रमिक-समाज का निर्माण करने के लिए यह आवश्यक है कि हम व्यक्तियों की क्षमता इस सीमा तक विकसित करें, जिससे वह अपना पेशा या कार्य का चुनाव स्वयं कर सके। इस सिद्धांत के विपरीत जाति-प्रथा का दूषित सिद्धांत यह है कि इससे मनुष्य के प्रशिक्षण अथवा उसकी निजी क्षमता का विचार किए बिना, दूसरे ही दृष्टिकोण जैसे माता-पिता के सामाजिक स्तर के अनुसार पहले से ही अर्थात् गर्भधारण के समय से ही मनुष्य का पेशा निर्धारित कर दिया जाता है। जाति-प्रथा पेशे का दोषपूर्ण पूर्व निर्धारण ही नहीं करती बल्कि मनुष्य को जीवन भर के लिए एक पेशे में बाँध भी देती है। भले ही पेशा अनुपयुक्त या अपर्याप्त होने के कारण वह भूखों मर जाए।

आधुनिक युग में यह स्थिति प्राय: आती है, क्योंकि उद्योग-धंधे की प्रक्रिया व तकनीक में निरंतर विकास और कभी-कभी अकस्मात् परिवर्तन हो जाता है, जिसके कारण मनुष्य को अपना पेशा बदलने की आवश्यकता पड़ सकती है और यदि प्रतिकूल परिस्थितियों में भी मनुष्य को अपना पेशा बदलने की स्वतंत्रता न हो, तो इसके लिए भूखों मरने के अलावा क्या चारा रह जाता है? हिंदू धर्म की जाति-प्रथा किसी भी व्यक्ति को ऐसा पेशा चुनने की अनुमति नहीं देता है, जो उसका पैतृक पेशा न हो, भले ही वह उसमें पारंगत है। इस प्रकार पेशा परिवर्तन की अनुमति न देकर जाति-प्रथा भारत में बेरोजगारी का एक प्रमुख व प्रत्यक्ष कारण बनी हुई है।
प्रश्न

(क) ‘जाति-प्रथा को स्वाभाविक श्रम-विभाजन नहीं कहा जा सकता।’ क्यों? 2
(ख) जाति-प्रथा के सिदधांत को दूषित क्यों कहा गया है? 2
(ग)
“जाति-प्रथा पेशे का न केवल दोषपूर्ण पूर्वनिर्धारण करती है बल्कि मनुष्य को जीवनभर के लिए एक पेशे से बाँध देती है”-कथन पर उदाहरण-सहित टिप्पणी कीजिए। 2
(घ) भारत में जाति-प्रथा बेरोजगारी का एक प्रमुख कारण किस प्रकार बन जाती है? उदाहरण सहित लिखिए। 2
(ङ) इस गदयांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए। 1
(च) विकसित, पैतृक – मूल शब्द एवं प्रत्यय बताइए। 1

उत्तर 

(क) जाति-प्रथा को स्वाभाविक श्रम-विभाजन इसलिए नहीं कहा जा सकता है क्योंकि इस प्रकार का श्रम-विभाजन मनुष्य की रुचि एवं कौशल पर आधारित न होकर अनिवार्य रूप से जन्म पर आधारित होता है। कुशल एवं योग्य या सक्षम श्रमिक-समाज हर देश और उसके समाज की आवश्यकता होते हैं। ऐसे श्रमिक तैयार करने के लिए उनकी क्षमता को इतना विकसित करना चाहिए, जिससे वे अपने पेशा या कार्य का चुनाव स्वयं कर सकें, पर जाति-प्रथा पर आधारित श्रम-विभाजन में इसके लिए कोई स्थान ही नहीं है।
(ख) जाति-प्रथा का सिद्धांत इसलिए दूषित है, क्योंकि वह व्यक्ति की क्षमता या रुचि के अनुसार उसके चुनाव पर आधारित नहीं है। वह माता-पिता की जाति पर ही पूरी तरह अवलंबित और निर्भर है। जाति-प्रथा के इस दूषित सिद्धांत के कारण व्यक्ति की रुचि, योग्यता, क्षमता को कोई महत्व नहीं दिया जाता है। एक तरह से उस पर वह पेशा थोप दिया जाता है जो उसके माता-पिता करते आ रहे हैं। इससे व्यक्ति समाज को अपना शत-प्रतिशत योगदान नहीं दे पाता है।
(ग) जाति-प्रथा पर आधारित श्रम-विभाजन के अंतर्गत व्यक्ति अपनी क्षमता, रुचि के अनुसार व्यवसाय या पेशा चुनने का अवसर नहीं पाता है। उसके कार्य या पेशे का निर्धारण पहले से ही यानी गर्भाधान के समय पर निर्धारित हो जाता है। यह पेशा उसका पैतृक अथवा जातिगत होता है; जैसे धोबी के परिवार में जन्म लेने वाले बच्चे का पेशा कपड़े धोना, प्रेस करना ही रह जाता है, भले ही उसकी रुचि हो या न हो। समाज की अन्य जातियाँ भी इसका उदाहरण हैं। इससे भी बड़ी विडंबना यह है कि अपना पेशा बाद में बदल भी नहीं सकता है।
(घ) उद्योग-धंधों की प्रक्रिया और तकनीक में निरंतर विकास और परिवर्तन हो रहा है, जिसके कारण व्यक्ति को अपना पेशा बदलने की जरूरत पड़ सकती है। यदि वह ऐसा न कर पाए तो उसके लिए भूखे मरने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं रह पाता। बेरोजगारी से तंग आए व्यक्ति के लिए कोई और चारा भी नहीं रहता। उदाहरण के लिए ड्राइक्लीनिंग आदि के विकास ने धोबियों को बेरोजगार बना दिया है।
(ङ) ‘जाति-प्रथा : एक अनावश्यक बंधन’, ‘जाति-प्रथा : एक दूषित परंपरा’, ‘जाति-प्रथा पर आधारित श्रम 
विभाजन’।
(च) मूल शब्द       प्रत्यय
विकास                   इत
पिता                       इक

अपठित गद्यांश for Class 11 Hindi Example 3

3. मनुष्य अपने भविष्य के बारे में चिंतित है। सभ्यता की अग्रगति के साथ ही चिंताजनक अवस्था उत्पन्न होती जा रही है। इस व्यावसायिक युग में उत्पादन की होड़ लगी हुई है। कुछ देश विकसित कहे जाते हैं। कुछ विकासोन्मुख। विकसित देश वे हैं जहाँ आधुनिक तकनीक का पूर्ण उपयोग हो रहा है। ऐसे देश नाना प्रकार की सामग्री का उत्पादन करते हैं और उस सामग्री की खपत के लिए बाजार ढूँढ़ते रहते हैं। अत्यधिक उत्पादन क्षमता के कारण ही ये देश विकसित और अमीर हैं। विकासोन्मुख या गरीब देश उनके समान ही उत्पादन करने की आकांक्षा रखते हैं और इसलिए उन सभी आधुनिक तरीकों की जानकारी प्राप्त करते हैं। उत्पादन-क्षमता बढ़ाने का स्वप्न देखते हैं। इसका परिणाम यह हुआ है कि सारे संसार में उन वायुमंडल प्रदूषण यंत्रों की भीड़ बढ़ने लगी है जो विकास के लिए परम आवश्यक माने जाते हैं। इन विकास-वाहक उपकरणों ने अनेक प्रकार की समस्याएँ उत्पन्न कर दी हैं। वायुमंडल विषाक्त गैसों से ऐसा भरता जा रहा है कि संसार का सारा पर्यावरण दूषित हो उठा है, जिससे वनस्पतियों तक के अस्तित्व संकटापन्न हो गए हैं।

अपने बढ़ते उत्पादन की खपाने के लिए हर शक्तिशाली देश अपना प्रभाव क्षेत्र बढ़ा रहा है और आपसी प्रतिद्वंद्वता इतनी बढ़ गई है कि सभी ने मारणास्त्रों का विशाल भंडार बना रखा है। विज्ञान और तकनीकों के विकास से अणु बमों की अनेक संहारकारी किस्में ईजाद हुई हैं। ये यदि किसी सिरफिरे राष्ट्रनायक की झक के कारण सचमुच युद्ध क्षेत्र में प्रयुक्त होने लगें तो पृथ्वी जीवशून्य हो जाएगी। कहीं भी थोड़ा-सा प्रमाद हुआ तो मनुष्य का नामलेवा कोई नहीं रह जाएगा। एक ओर जहाँ मनुष्य की बुद्ध ने धरती को मानव शून्य बनाने के भयंकर मारणास्त्र तैयार कर दिए हैं वहीं दूसरी ओर मनुष्य ही इस भावी मानव-विनाश की आशंका से सिहर भी उठा है। उसका एक समझदार समुदाय इस प्रकार की कल्पना मात्र से आतंकित हो गया है कि न जाने किस दिन संसार इस विनाश लीला का शिकार हो जाए। इतिहास साक्षी है कि बहुत-सी जीव-प्रजातियाँ विभिन्न कारणों से हमेशा-हमेशा के लिए विलुप्त हो गई, बहुत-सी आज भी क्रमश: विलुप्त होने की स्थिति में हैं, पर उनके मन में कभी अपनी प्रगति के नष्ट हो जाने की आशंका हुई थी या नहीं, हमें नहीं मालूम। शायद मनुष्य पहला प्राणी है जिसमें थोड़ा-बहुत भविष्य देखने की शक्ति है।

अन्य जीवों में यह शक्ति थी ही नहीं। यह विशेष रूप से ध्यान देने की बात है कि सिर्फ मनुष्य ही है जो अपने भविष्य के बारे में चिंतित है। यह सभी जानते हैं कि आधुनिक विज्ञान और तकनीकी ने मनुष्य को बहुत कुछ दिया है। उसी की कृपा से संसार के मनुष्य एक-दूसरे के निकट आए हैं, अनेक पुराने संस्कार जो गलतफहमी पैदा करते थे, झड़ते जा रहे हैं। मनुष्य को निरोग, दीर्घजीवी और सुसंस्कृत बनाने के अनगिनत साधन बढ़े हैं, फिर भी मनुष्य चिंतित है। जो अंधाधुंध प्रकृति के मूल्यवान भंडारों की लूट मचाकर आराम और संपन्नता प्राप्त कर रहे हैं, वे बहुत परेशान नहीं हैं। वे यथास्थिति भी बनाए रखना चाहते हैं और यदि संभव हो तो अपनी व्यक्तिगत, परिवारगत और जातिगत संपन्नता अधिक-से-अधिक बढ़ा लेने के लिए परिश्रम भी कर रहे हैं। ऐसे सुखी लोग ‘मनुष्य का भविष्य’ जैसी बातों के कारण परेशान नहीं हैं। पर जो लोग अधिक संवेदनशील हैं और मनुष्य जाति को महानाश की ओर बढ़ते देखकर विचलित हो उठते हैं, वे ही परेशान हैं।
प्रश्न

(क) संसार में वायुमंडल प्रदूषण के यंत्र क्यों बढ़ते जा रहे हैं? 2
(ख) मारण-अस्त्रों का भंडार दिन-प्रतिदिन विशाल क्यों होता जा रहा है? 2
(ग) आधुनिक विज्ञान और तकनीक का संसार पर क्या प्रभाव पड़ा है? 2.
(घ) कैसे लोग मानव-जाति के भविष्य के विषय में परेशान नहीं हैं और किस श्रेणी के लोग उसके भावी विनाश को लेकर आशंकित हैं? 2
(ङ) उपर्युक्त गदयांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए। 1
(च) दीर्घजीवी, यथास्थिति शब्दों का विग्रह कर समास के नाम लिखिए। 1

उत्तर 

(क) संसार के विकसित देश अपनी उत्पादन क्षमता को बढ़ाने के लिए आधुनिक तकनीक का पूर्ण उपयोग कर रहे हैं। ये उपकरण ऐसे हैं जो वायुमंडल को प्रदूषित करते हैं। इन उपकरणों की संख्या निरंतर बढ़ रही है जो विकास के लिए आवश्यक माने जाते हैं। इसके अलावा इस व्यावसायिक युग में अधिकाधिक उत्पादन , बढ़ाने की होड़ लगी हुई है। विकसित और विकासोन्मुख दोनों ही वायुमंडल प्रदूषण की चिंता किए बिना उत्पादन बढ़ाने में जुटे हैं।
(ख) विकसित देश अपने व्यवसाय को बढ़ाने के लिए अधिकाधिक उत्पादन कर रहे हैं ताकि खूब लाभ कमा सकें। वे अपने उत्पाद को बेचने के लिए एक ओर नए-नए क्षेत्र खोज रहे हैं तो दूसरी ओर अपने बढ़ते उत्पादन की खपाने के लिए अपना प्रभाव-क्षेत्र बढ़ा रहे हैं। इससे आपसी प्रतिद्वंद्वता इतनी बढ़ गई है कि सभी ने मारणास्त्रों का विशाल भंडार बना रखा है। वे अपनी सुरक्षा की तैयारी के नाम पर अस्त्रों के भंडार दिन-प्रतिदिन लगातार बढ़ाते जा रहे हैं।
(ग) आधुनिक विज्ञान और तकनीक का संसार पर अत्यधिक प्रभाव पड़ा है। इसके कारण ही संसार के लोगों में निकटता बढ़ी है। पुराने संस्कारों का परिमार्जन हुआ है। मनुष्य ने भौतिक संसाधन इतने जुटा लिए गए हैं जिससे वह निरोग, दीर्घजीवी और सुसंस्कृत होने में सफल हुआ है। आगे भी निरंतर सुख-सुविधाओं के साध न निरंतर जुटाता चला जा रहा है। फिर भी मनुष्य अपने वजूद को लेकर चिंतित है।
(घ) ऐसे लोग मानव-जाति के भविष्य के विषय में परेशान नहीं है जो अंधाधुंध प्रकृति के मूल्यवान भंडारों की लूट मचाकर आराम और संपन्नता प्राप्त कर रहे हैं। वे अपनी संपन्नता को अधिक-से-अधिक बढ़ा लेने के लिए परिश्रम भी कर रहे हैं। इसके विपरीत जो लोग अपेक्षा से अधिक संवेदनशील हैं वे मनुष्य जाति को महाविनाश की ओर बढ़ते देखकर विचलित हो उठते हैं। ऐसे लोग अधिकांशत: विवेकी हैं। उनमें मनुष्य के भावी विनाश की व्याकुलता और चिंता अधिक है।
(ङ) महाविनाश की ओर बढ़ता मनुष्य।
(च) विग्रह                                     समास
दीर्घकाल तक जीवित रहने वाला       कर्मधारय समास
स्थिति के अनुसार                            अव्ययी भाव समास

अपठित गद्यांश for Class 11 Hindi Example 4

4. विद्वानों का यह कथन बहुत ठीक है कि विनम्रता के बिना स्वतंत्रता का कोई अर्थ नहीं। इस बात को सब लोग मानते हैं कि आत्मसंस्कार के लिए थोड़ी-बहुत मानसिक स्वतंत्रता परमावश्यक है-चाहे उस स्वतंत्रता में अभिमान और नम्रता दोनों का मेल हो और चाहे वह नम्रता ही से उत्पन्न हो। यह बात तो निश्चित है कि जो मनुष्य मर्यादापूर्वक जीवन व्यतीत करना चाहता है उसके लिए वह गुण अनिवार्य है, जिससे आत्मनिर्भरता आती है और जिससे अपने पैरों के बल खड़ा होना आता है। युवा को यह सदा स्मरण रखना चाहिए कि वह बहुत कम बातें जानता है, अपने ही आदर्श से वह बहुत नीचे है और उसकी आकांक्षाएँ उसकी योग्यता से कहीं बढ़ी हुई हैं। उसे इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि वह अपने बड़ों का सम्मान करे, छोटों और बराबर वालों से कोमलता का व्यवहार करे, ये बातें आत्ममर्यादा के लिए आवश्यक हैं। 

यह सारा संसार, जो कुछ हम हैं और जो कुछ हमारा है-हमारा शरीर, हमारी आत्मा, हमारे भोग, हमारे घर और बाहर की दशा, हमारे बहुत से अवगुण और थोड़े गुण सब इसी बात की आवश्यकता प्रकट करते है कि हमें अपनी आत्मा को नम्र रखना चाहिए। नम्रता से मेरा अभिप्राय दब्बूपन से नहीं है जिसके कारण मनुष्य दूसरों का मुँह ताकता है जिससे उसका संकल्प क्षीण और उसकी प्रज्ञा मंद हो जाती है; जिसके कारण आगे बढ़ने के समय भी पीछे रहता है और अवसर पड़ने पर चट-पट किसी बात का निर्णय नहीं कर सकता। मनुष्य का बेड़ा उसके अपने ही हाथ में है, उसे वह चाहे जिधर ले जाए। सच्ची आत्मा वही है जो प्रत्येक दशा में प्रत्येक स्थिति के बीच अपनी राह आप निकालती है।
प्रश्न

(क) विनम्रता और स्वतंत्रता का परस्पर क्या संबंध है? 2
(ख) मर्यादापूर्वक जीवन जीने के लिए किन गुणों की आवश्यकता है? 2
(ग) नम्रता और दब्बूपन में क्या अंतर है? 2
(घ) गदयांश में युवाओं को किस सच्चाई से परिचित कराया गया है? 2
(ङ) ‘परमावश्यक’ और ‘प्रत्येक’ का संधि-विच्छेद कीजिए। 1
(च) गदयांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए। 1

उत्तर 

(क) विनम्रता और स्वतंत्रता का अत्यंत घनिष्ठ संबंध है। विनम्रता के अभाव में व्यक्ति उच्छुखल हो जाता है। वह स्वतंत्रता की आड़ में दूसरों की स्वतंत्रता का हनन करने लगता है। इससे स्वतंत्रता अर्थहीन होकर रह जाती है। इसके साथ ही आत्मसंस्कार के लिए मानसिक स्वतंत्रता भी आवश्यक है। इस स्वतंत्रता में अभिमान और नम्रता का मेल होने से स्वतंत्रता का महत्व बढ़ जाता है। जो व्यक्ति स्वतंत्र होता है वही मर्यादित जीवन जी सकता है तथा मर्यादा में ही विनम्रता का भाव झलकता है।
(ख) मर्यादापूर्वक जीने के लिए स्वतंत्रता बहुत आवश्यक है। स्वतंत्रता से ही व्यक्ति में आत्मनिर्भरता आती है। इसी आत्मनिर्भरता के कारण व्यक्ति अपने पैरों पर खड़ा होने की शक्ति पाता है। इस प्रकार मर्यादित जीवन जीने के लिए स्वतंत्रता और आत्मनिर्भरता तथा विनम्रता जैसे गुण आवश्यक हैं।
(ग) नम्रता व्यक्ति के व्यक्तित्व के सकारात्मक विकास के लिए आवश्यक गुण है। नम्र व्यक्ति स्वतंत्र होता है। वह मर्यादित जीवन जीता है और समाज का नेतृत्व करने वाला होता है। इसके विपरीत दब्बूपन में व्यक्ति का संकल्प और बुद्ध क्षीण होती जाती है। वह आवश्यकता पड़ने पर तुरंत निर्णय नहीं ले पाता है। दब्बू व्यक्ति नेतृत्व करने के बजाय दूसरों का मुँह ताकता है, इसलिए आगे बढ़ने की जगह पीछे रह जाता है।
(घ) वर्तमान समय में युवाओं ने अपने मन में यह बात बिठा रहा है कि वे औरों की अपेक्षा बहुत अधिक जानते 
हैं तथा आदर्शवादी हैं। इसी मिथ्याभिमान के कारण वे मानवीय मूल्यों की उपेक्षा करने लगे हैं। यहाँ युवाओं को इस सच्चाई से परिचित कराया गया है कि उन्हें यह सदैव याद रखना है कि वे अल्पज्ञ और अपने आदशों से बहुत नीचे हैं। उनकी आकांक्षाएँ उनकी योग्यताओं से बहुत अधिक बढ़ी हुई हैं। उन्हें आत्ममर्यादित बनना चाहिए।
(ङ) परम + आवश्यक, प्रति + एक।
(च) शीर्षक – विनम्रता का महत्त्व।

अपठित गद्यांश for Class 11 Hindi Example 5

5. पड़ोस सामाजिक जीवन के ताने-बाने का महत्वपूर्ण आधार है। दरअसल पड़ोस जितना स्वाभाविक है, हमारी सामाजिक सुरक्षा के लिए तथा सामाजिक जीवन की समस्त आनंदपूर्ण गतिविधियों के लिए वह उतना ही आवश्यक भी है। यह सच है कि पड़ोसी का चुनाव हमारे हाथ में नहीं होता, इसलिए पड़ोसी के साथ कुछ-न-कुछ सामंजस्य तो बिठाना ही पड़ता है। हमारा पड़ोसी अमीर हो या गरीब, उसके साथ संबंध रखना सदैव हमारे हित में ही होता है। पड़ोसी से परहेज करना अथवा उससे कटे-कटे रहने में अपनी ही हानि है, क्योंकि किसी भी आकस्मिक आपदा अथवा आवश्यकता के समय अपने रिश्तेदारों अथवा परिवार वालों को बुलाने में समय लगता है।

यदि टेलीफोन की सुविधा भी है तो भी कोई निश्चय नहीं कि उनसे समय पर सहायता मिल ही जाएगी। ऐसे में पड़ोसी ही सबसे अधिक विश्वस्त सहायक हो सकता है। पड़ोसी चाहे कैसा भी हो, उससे अच्छे संबंध रखने ही चाहिए। जो अपने पड़ोसी से प्यार नहीं कर सकता, उससे सहानुभूति नहीं रख सकता, उसके साथ सुख-दुख का आदान-प्रदान नहीं कर सकता तथा उसके शोक और आनंद के क्षणों में शामिल नहीं हो सकता, वह भला अपने समाज अथवा देश के साथ क्या खाक भावनात्मक रूप में जुड़ेगा।

विश्व-बंधुत्व की बात भी तभी मायने रखती है जब हम अपने पड़ोसी से निभाना सीखें। प्राय: जब भी पड़ोसी से खटपट होती है तो इसलिए कि हम आवश्यकता से अधिक पड़ोसी के व्यक्तिगत अथवा पारिवारिक जीवन में हस्तक्षेप करने लगते हैं। हम भूल जाते हैं कि किसी को भी अपने व्यक्तिगत जीवन में किसी की रोक-टोक और हस्तक्षेप अच्छा नहीं लगता। पड़ोसी के साथ कभी-कभी तब भी अवरोध पैदा हो जाते हैं जब हम आवश्यकता से अधिक उससे अपेक्षा करने लगते हैं। बात नमक-चीनी के लेने-देने से आरंभ होती है तो स्कूटर और कार तक माँगने की गुस्ताखी हम कर बैठते हैं।

ध्यान रखना चाहिए कि जब तक बहुत जरूरी न हो, पड़ोसी से कोई चीज माँगने की नौबत ही न आए। आपको परेशानी में पड़ा देख पड़ोसी खुद ही आगे आ जाएगा। पड़ोसियों से निबाह करने के लिए सबसे महत्वपूर्ण यह है कि बच्चों को नियंत्रण में रखें। आमतौर से बच्चों में जाने-अनजाने छोटी-छोटी बातों पर झगड़े होते हैं और बात बड़ों के बीच सिर फुटौवल तक जा पहुँचाती है। इसलिए पड़ोसी के बगीचे से फल-फूल तोड़ने, उसके घर में ऊधम मचाने से बच्चों पर सख्ती से रोक लगाएँ भूलकर भी पड़ोसी क बच्चे पर हाथ न उठाएँ, अन्यथा संबंधों में कड़वाहट आते देर न लगेगी।
प्रश्न

(क) कैसे कह सकते हैं कि पड़ोसी के साथ सामंजस्य बिठाना हमारे हित में है? 2
(ख) ‘जो अपने पड़ोसी से प्यार नहीं कर सकता, … वह भला अपने समाज अथवा देश के साथ क्या 
खाक भावनात्मक रूप से जुड़ेगा।”
उपर्युक्त पंक्तियों का भाव अपने शब्दों में लिखिए। 2
(ग) पड़ोसी से खटपट के प्राय: क्या कारण होते हैं? 2
(घ) पड़ोसी के साथ संबंधों में कड़वाहट न आने देने के लिए क्या-क्या सावधानियाँ दरतनी चाहिए? 2
(ङ) इस गदयांश का उपयुक्त शीर्षक दीजिए। 1
(च) किसी एक पद का समास-विग्रह करते हुए समास का नाम बताइए सुविधा-असुविधा,आनंदपूर्ण

उत्तर 

(क) अपनी सामाजिक सुरक्षा तथा सामाजिक जीवन की समस्त आनंदपूर्ण गतिविधियों के लिए पड़ोसी का महत्व बहुत अधिक है। हमें अपने पड़ोसी से यथासंभव सामंजस्य बनाकर रखना चाहिए। उससे अच्छे संबंध बनाकर न रखने में हमारी ही हानि है क्योंकि किसी भी आकस्मिक आपदा या आवश्यकता के समय अपने रिश्तेदारों और परिवारवालों के बुलाने में समय लगता है। संचार की सुविधा होने पर भी उनसे मदद मिलने की शत-प्रतिशत गारंटी नहीं होती है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि पड़ोसी के साथ सामंजस्य बिठाना हमारे लिए हितकर होता है।
(ख) देश के प्रति प्रेम की प्रक्रिया पड़ोस से ही शुरू होती है। जो व्यक्ति पड़ोस के प्रति सद्भावना नहीं रख सकता या पड़ोस में हुई घटना के प्रति सहायक या सहृदय नहीं होता तो उसके हृदय में देश-प्रेम की भावना भी नहीं हो सकती है। ऐसे व्यक्ति से राष्ट्रीय एकता की बातें सुनना व्यर्थ ही लगती हैं।
(ग) पड़ोसी के साथ खटपट होने के कई कारण हैं, जैसे-

  1. व्यक्ति द्वारा आवश्यकता से अधिक पड़ोसी के व्यक्तिगत या पारिवारिक जीवन में हस्तक्षेप किया जाना।
  2. पड़ोसी से आवश्यकता से अधिक अपेक्षा करना तथा छोटी-छोटी वस्तुओं की माँग करते-करते स्कूटर या कार माँगने की गलती करना।
  3. पड़ोसी के बच्चों को डाँटना-डपटना तथा उन पर हाथ उठा देना।
  4. अपने बच्चों को निरंकुश छोड़ देना तथा उन्हें उचित व्यवहार की शिक्षा न देना।

(घ) पड़ोसी के साथ संबंधों में कड़वाहट न आने देने के लिए अपने बच्चों को नियंत्रण में रखें। इस बात का विशेष ध्यान रखें कि आपके बच्चे उनके बगीचे से फल-फूल न तोड़ें, उनके घरों में शोर-शराबा न मचाएँ। भूलकर भी पड़ोसी के बच्चे पर हाथ न उठाएँ, अन्यथा यही छोटी-सी बात सिर फुटौवल का कारण बन जाती है।
(ङ) शीर्षक – पड़ोसी का महत्व या पड़ोसी का कर्तव्य।
(च) सुविधा और असुविधा              द्वंद्व समास
        आनंद से पूर्ण                         तत्पुरुष समास

अपठित गद्यांश for Class 11 Hindi Example 6

6. राष्ट्रीय भावना के अभ्युदय एवं विकास के लिए भाषा भी एक प्रमुख तत्व है। मानव समुदाय अपनी संवेदनाओं, भावनाओं एवं विचारों की अभिव्यक्ति हेतु भाषा का साधन अपरिहार्यत: अपनाता हैं, इसके अतिरिक्त उसके पास कोई अन्य विकल्प नहीं है। दिव्य-ईश्वरीय आनंदानुभूति के संबंध में भले ही कबीर ने ‘गूंगे केरी शर्करा’ उक्ति का प्रयोग किया था, पर इससे उनका लक्ष्य शब्द-रूप भाषा के महत्व को नकारना नहीं था। प्रत्युत उन्होंने भाषा को ‘बहता नीर’ कहकर भाषा की गरिमा प्रतिपादित की थी। विद्वानों की मान्यता है कि भाषा तत्व राष्ट्रहित के लिए अत्यावश्यक है। जिस प्रकार किसी एक राष्ट्र के भूभाग की भौगोलिक विविधताएँ तथा उसके पर्वत, सागर, सरिताओं आदि की बाधाएँ उस राष्ट्र के निवासियों के परस्पर मिलने-जुलने में अवरोधक सिद्ध हो सकती हैं, उसी प्रकार भाषागत विभिन्नता से भी उनके पारस्परिक संबंधों में निर्बाधता नहीं रह पाती। आधुनिक विज्ञान युग में यातायात एवं संचार के साधनों की प्रगति से भौगोलिक बाधाएँ अब पहले की तरह बाधित नहीं करतीं।

इसी प्रकार यदि राष्ट्र की एक संपर्क भाषा का विकास हो जाए तो पारस्परिक संबंधों के गतिरोध बहुत सीमा तक समाप्त हो सकते हैं। मानव-समुदाय को एक जीवित-जाग्रत एवं जीवंत शरीर की संज्ञा दी जा सकती है और उसका अपना एक निश्चित व्यक्तित्व होता है। भाषा अभिव्यक्ति के माध्यम से इस व्यक्तित्व को साकार करती है, उसके अमूर्त मानसिक, वैचारिक स्वरूप को मूर्त एवं बिंबात्मक रूप प्रदान करती है। मनुष्यों के विविध समुदाय हैं, उनकी विविध भावनाएँ हैं. विचारधाराएँ हैं. संकल्प एवं आदर्श हैं, उन्हें भाषा ही अभिव्यक्त करने में सक्षम होती है।

साहित्य, शास्त्र, गीत-संगीत आदि में मानव-समुदाय अपने आदशों, संकल्पनाओं, अवधारणाओं एवं विशिष्टताओं को वाणी देता है, पर क्या भाषा के अभाव में काव्य, साहित्य, संगीत आदि का अस्तित्व संभव है? वस्तुत: ज्ञानराशि एवं भावराशि का अपार संचित कोश जिसे साहित्य का अभिधान दिया जाता है, शब्द-रूप ही तो है। अत: इस संबंध में वैमत्य की किंचित् गुंजाइश नहीं है कि भाषा ही एक ऐसा साधन है जिससे मनुष्य एक-दूसरे के निकट आ सकते हैं, उनमें परस्पर घनिष्ठता स्थापित हो सकती है। यही कारण है कि एक भाषा बोलने एवं समझने वाले लोग परस्पर एकानुभूति रखते हैं, उनके विचारों में ऐक्य रहता है। अत: राष्ट्रीय भावना के विकास के लिए भाषा तत्व परम आवश्यक है।
प्रश्न

(क) उपयुक्त शीर्षक दीजिए। 1
(ख) भाषा के बारे में मानव समुदाय की सोच क्या है? 2
(ग) पारस्परिक संबंध बढ़ाने में विदवान भाषा को किस प्रकार उपयोगी मानते हैं? 2
(घ) राष्ट्रीय भावना के विकास के लिए भाषा-तत्व क्यों आवश्यक है? 2
(ङ) भाषा के अभाव में साहित्य, संगीत, काव्य आदि की क्या स्थिति होती और क्यों? 2
(च) संधि-विच्छेद कीजिए – आनंदानुभूति, अत्यावश्यक। 1

उत्तर 

(क) शीर्षक – राष्ट्रीयता और भाषा तत्व।
(ख) भाषा के बारे में मानव समुदाय की सोच यह है कि भाषा ही वह साधन है, जिसके माध्यम से मानव समुदाय की संवेदनाओं, भावनाओं एवं विचारों की सफल अभिव्यक्ति हो सकती है। इनकी अभिव्यक्ति के लिए उसके पास कोई अन्य सशक्त साधन नहीं है। इसके अलावा राष्ट्रीय भावना के अभ्युदय, पनपने फलने-फूलने आदि के लिए भी भाषा एक मुख्य तत्व है।
(ग) विद्वानों का मानना है कि जिस प्रकार किसी राष्ट्र की भौगोलिक विविधताएँ लोगों के आवागमन को दुष्कर करती हैं तथा उसके पर्वत, सागर, सरिताएँ आदि की बाधाएँ मार्ग को दुर्गम बनाती हैं तथा उस राष्ट्र के लोगों के परस्पर मिलन में बाधक सिद्ध होती हैं, उसी प्रकार अनेक प्रकार की भाषाएँ भी लोगों के आपसी संबंधों में बाधा उत्पन्न करती हैं। वर्तमान में यातायात और संचार के साधनों ने भौगोलिक बाधाओं पर विजय पाई है। उसी प्रकार राष्ट्र की एक संपर्क भाषा पारस्परिक संबंध बढ़ाने में उपयोगी सिद्ध होगी और गतिरोध समाप्त होंगे।
(घ) राष्ट्रीय भावना के विकास के लिए भाषा एक आवश्यक तत्व इसलिए है क्योंकि भाषा ही एकमात्र ऐसा तत्व है, जिससे मनुष्य के बीच की दूरियाँ कम हो सकती हैं और वे परस्पर निकट आ सकते हैं तथा उनमें घनिष्ठ संबंध स्थापित हो सकते हैं। एक ही भाषा बोलने, समझने और व्यवहार में लाने वाले लोग परस्पर एकानुभूति रखते हैं। उनके विचारों में एकता रहती है। वे भाषागत मतभेद भूलकर परस्पर सौहार्दपूर्वक रहते हैं।
(ङ)  भाषा के अभाव में साहित्य, संगीत, काव्य आदि का अस्तित्व ही नहीं रहता क्योंकि मानव-समुदाय की अभिव्यक्ति को भाषा ही साकार रूप देती है। भाषा ही मनुष्य के अमूर्त मानसिक, वैचारिक स्वरूप को मूर्त एवं बिंबात्मक रूप प्रदान करता है। मनुष्यों के विविध समुदाय, उनकी भावनाएँ, विचारधाराएँ, संकल्प एवं आदर्श आदि की अभिव्यक्ति भाषा ही करती है। मनुष्य साहित्य, संगीत, काव्य आदि के माध्यम से ही भावनाओं, विचारधाराओं को मुखरित करता है। अत: साहित्य, संगीत, काव्य के लिए भी भाषा अत्यंत महत्वपूर्ण है।
(च) आनंद + अनुभूति, अति + आवश्यक।

अपठित गद्यांश for Class 11 Hindi Example 7

 7. मानव जीवन में आत्मसम्मान का अत्यधिक महत्व है। आत्मसम्मान में अपने व्यक्तित्व को अधिकाधिक सशक्त एवं प्रतिष्ठित बनाने की भावना निहित होती है। इससे शक्ति, साहस, उत्साह आदि गुणों का जन्म होता है जो जीवन की उन्नति का मार्ग प्रशस्त करते हैं। आत्मसम्मान की भावना से पूर्ण व्यक्ति संघर्षों की परवाह नहीं करता है और हर विषम परिस्थिति से टक्कर लेता है। ऐसे व्यक्ति जीवन में पराजय का मुँह नहीं देखते तथा निरंतर यश की प्राप्ति करते हैं। आत्मसम्मानी व्यक्ति धर्म, सत्य, न्याय और नीति के पथ का अनुगमन करता है। उसके जीवन में ही सच्चे सुख और शांति का निवास होता है। परोपकार, जनसेवा जैसे कार्यों में उसकी रुचि होती है। लोकप्रियता और सामाजिक प्रतिष्ठा उसे सहज ही प्राप्त होती है। ऐसे व्यक्ति में अपने राष्ट्र के प्रति सच्ची निष्ठा होती है तथा मातृभूमि की उन्नति के लिए वह अपने प्राणों को उत्सर्ग करने में भी सुख की अनुभूति करता है। चूँकि आत्मसम्मानी व्यक्ति अपनी अथवा दूसरों की आत्मा का हनन करना पसंद नहीं करता है, इसलिए वह ईष्र्या-द्वेष जैसी भावनाओं से मुक्त होकर मानव मात्र को अपने परिवार का अंग मानता है।

उसके हृदय में स्वार्थ, लोभ और अहकार का भाव नहीं होता। निश्छल हृदय होने के कारण वह आसुरी प्रवृत्तियों से सर्वथा मुक्त होता है। उसमें ईश्वर के प्रति सच्ची भक्ति एवं विश्वास होता है, जिससे उसकी आध्यात्मिक शक्ति का विकास होता है। जीवन को सरस और मधुर बनाने के लिए आत्मसम्मान रसायन-तुल्य है। आत्मसम्मान प्रत्येक जाति तथा राष्ट्र की प्रेरणा का दैवी स्रोत है। मानव-मात्र के मौलिक गुणों की यह विभूति है। प्रत्येक व्यक्ति का सर्वश्रेष्ठ कर्तव्य है कि आत्मसम्मान की सुरक्षा के लिए सतत प्रस्तुत रहे। इसे खोकर हम सर्वस्व खो देंगे। हमारी संस्कृति, हमारा धर्म, यहाँ तक कि हमारा अस्तित्व ही इसके अभाव में लुप्त हो जाएगा। परतंत्रता के युग में हमारे सार्वजनिक जीवन में आत्मसम्मान को निरंतर ठेस लगती रही है। चूँकि विदेशी प्रभुसत्ता ने उसका दमन करने में कोई कसर उठा नहीं रखी, इसलिए भरतीयों ने राष्ट्रपिता के नेतृत्व में आत्मसम्मान की प्रतिष्ठा के लिए स्वतंत्रता का संग्राम किया तथा उसमें सफलता प्राप्त की। आज प्रत्येक भारतीय को उच्च नैतिक मूल्यों, राष्ट्रीय एकता तथा आत्मसम्मान की रक्षा करनी है।
प्रश्न

(क) आत्मसम्मान का मानव जीवन में क्या महत्व है? . 2
(ख) हर समाज को सदैव आत्मसम्मानित व्यक्तियों की जरूरत होती है, क्यों? 2
(ग) ‘आत्मसम्मानित व्यक्तियों का जीवन संतों-मुनियों जैसा उदार एवं उदात्त होता है’, गदयांश के आधार 
पर इसे प्रमाणित कीजिए। 2
(घ) ‘आत्मसम्मान खोने से व्यक्ति का सर्वस्व खो जाता है।’ स्पष्ट कीजिए। 2
(ङ) प्रतिष्ठित, मौलिक – प्रत्यय पृथक् कर मूल शब्द भी बताइए। 1
(च) उपर्युक्त गदयांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए। 1

 उत्तर – 

(क) आत्मसम्मान व्यक्ति का वह गुण होता है, जिसमें व्यक्तित्व को अधिकाधिक सशक्त एवं प्रतिष्ठित बनाने की भावना निहित होती है। जिस व्यक्ति में आत्मविश्वास होता है, उसी में शक्ति, साहस, उत्साह जैसे गुण पुष्पित-पल्लवित होते हैं जो जीवन को उन्नति के पथ की ओर अग्रसर करते हैं। आत्मसम्मान के अभाव में न तो व्यक्ति संघर्ष का रास्ता चुनता है और न विजय प्राप्त कर पाता है, अत: व्यक्ति के जीवन में आत्मसम्मान का बहुत महत्व है।
(ख) समाज को आत्मसम्मानित व्यक्तियों की जरूरत होती है, क्योंकि
1. आत्मसम्मानित व्यक्ति धर्म, सत्य, न्याय और नीति के पथ पर चलकर मर्यादित जीवन जीता है। इससे व्यक्ति के जीवन और समाज दोनों जगह शांति रहती है।
2. आत्मसम्मानित व्यक्ति परोपकार और समाजसेवा जैसे कार्यों में रुचि लेता है।
3. ऐसा व्यक्ति समाज में प्रतिष्ठित एवं लोकप्रिय होता है।
4. आत्मसम्मानित व्यक्ति राष्ट्रहित के लिए अपना सर्वस्व अर्पित करने को तत्पर रहता है।
(ग) जिस प्रकार संत-मुनि अपना जीवन परोपकार करते हुए बिताते हैं, स्वार्थ-भाव से दूर रहते हैं, दूसरों को कष्ट नहीं पहुँचाते तथा लोभ, ईष्या-द्वेष जैसे दुर्गुणों से दूर रहकर ईश्वर शक्ति में लीन रहते हैं, उसी प्रकार आत्मसम्मानित व्यक्ति भी दूसरों के अधिकारों का हनन नहीं करता, ईष्र्या-द्वेष जैसे दुर्भावों से मुक्त रहकर मानव मात्र को अपने परिवार का अंग समझता है, आसुरी प्रवृत्तियों से मुक्त रहता है तथा ईश्वर के प्रति सच्ची पित, विश्वास खता है। अत आसात व्यिक्तयों क जनसमुनयों जैसा उरिए उता होता है।
(घ) आत्मसम्मान खोने से व्यक्ति अपने राष्ट्र एवं जाति के प्रति प्रेरणा का दैवीय स्रोत खो देता है। अत: व्यक्ति को आत्मसम्मान बचाए रखना चाहिए। आत्मसम्मान खोने से व्यक्ति की संस्कृति, धर्म यहाँ तक कि उसका स्वयं का अस्तित्व नष्ट होने का खतरा उत्पन्न हो जाता है। इसके अलावा आत्मसम्मान खोकर उच्च नैतिक मूल्यों और राष्ट्रीय एकता की रक्षा नहीं की जा सकती है।
(ङ) प्रत्यय        मूल शब्द
        इत             प्रतिष्टा
        इक            मूल
(च) जीवन में आत्मविश्वास की महत्ता     

अपठित गद्यांश for Class 11 Hindi Example 8

8. आज हम इस असमंजस में पड़े हैं और यह निश्चय नहीं कर पाए हैं कि हम किस ओर चलेंगे और हमारा ध्येय क्या है? स्वभावत: ऐसी अवस्था में हमारे पैर लड़खड़ाते हैं। हमारे विचार में भारत के लिए और सारे संसार के लिए सुख और शांति का एक ही रास्ता है और वह है अहिंसा और आत्मवाद का। अपनी दुर्बलता के कारण हम उसे ग्रहण न कर सके, पर उसके सिद्धांतों को तो हमें स्वीकार कर ही लेना चाहिए और उसके प्रवर्तन का इंतजार करना चाहिए। यदि हम सिद्धांत ही न मानेंगे तो उसके प्रवर्तन की आशा कैसे की जा सकती है। जहाँ तक मैंने महात्मा गाँधी जी के सिद्धांत को समझा है, वह इसी आत्मवाद और अहिंसा के, जिसे वे सत्य भी कहा करते थे, मानने वाले और प्रवर्तक थे। उसे ही कुछ लोग आज गाँधीवाद का नाम भी दे रहे हैं।

यद्यपि महात्मा गाँधी ने बार-बार यह कहा था कि ” वे किसी नए सिद्धांत या वाद के प्रवर्तक नहीं हैं और उन्होंने अपने जीवन में प्राचीन सिद्धांतों को अमल कर दिखाने का यत्न किया।” विचार कर देखा जाए, तो जितने सिद्धांत अन्य देशों , अन्य-अन्य काल और स्थितियों में भिन्न-भिन्न नामों और धर्मों से प्रचलित हुए हैं, सभी अंतिम और मार्मिक अन्वेषण के बाद इसी तत्व अथवा सिद्धांत में समाविष्ट पाए जाते हैं। केवल भौतिकवाद इनसे अलग है। हमें असमंजस की स्थिति से बाहर निकलकर निश्चय कर लेना है कि हम अहिंसावाद, आत्मवाद और गाँधीवाद के अनुयायी और समर्थक हैं न कि भौतिकवाद के। प्रेय और श्रेय में से हमें श्रेय को चुनना है। श्रेय ही हितकर है, भले ही वह कठिन और श्रमसाध्य हो। इसके विपरीत प्रेय आरंभ में भले ही आकर्षक दिखाई दे, उसका अंतिम परिणाम अहितकर होता है।
प्रश्न

(क) उपयुक्त शीर्षक दीजिए। 1
(ख) लेखक अहिंसा और आत्मवाद अपनाने के लिए लोगों को क्यों प्रेरित कर रहा है? 2
(ग) गांधीवाद क्या है? अपने नए सिदधांत के बारे में गांधी जी क्या कहते थे? 2
(घ) गांधीवाद और भौतिकवाद में अंतर स्पष्ट करते हुए बताइए कि आप किसे श्रेष्ठ समझते हैं 
और क्यों?
(ङ) लेखक हमें किस निश्चितता की ओर ले जाना चाहता है और क्यों? 2
(च) संधि-विच्छेद कीजिए- 1
        यद्यपि,     अन्वेषण।

 उत्तर – 

(क) शीर्षक-श्रेय या प्रेय!
(ख) लेखक अहिंसा और आत्मवाद अपनाने के लिए लोगों को इसलिए प्रेरित कर रहा है क्योंकि आज लोग अनिश्चय और असमंजस की स्थिति में हैं। वे अपने लक्ष्य और ध्येय के प्रति अनिश्चितता की स्थिति में हैं। ऐसी स्थिति में भारत सहित संसार के लिए सुख और शांति पाने का एकमात्र साधन अहिंसा और आत्मवाद है। इसी से लोगों को अनिश्चितता से मुक्ति मिल सकती है।
(ग) गांधीवाद गांधी जी के सिद्धांत ‘सत्य’ का दूसरा नाम है। इस सत्य के मूल में अहिंसा और आत्मवाद था। वे इस सिद्धांत के समर्थक और प्रवर्तक थे। अपने इस सिद्धांत के बारे में गांधी जी का कहना था कि वे किसी नए सिद्धांत या वाद के प्रवर्तक नहीं हैं। उन्होंने अपने जीवन में प्राचीन सिद्धांतों को अमलकर दिखाने का प्रयत्न किया है।
(घ) गांधीवाद अहिंसा और आत्मवाद पर आधारित सिद्धांत है जो सुख एवं शांति पाने का सर्वोत्तम रास्ता है। यह हमें अनिश्चितता की मानसिक स्थिति से मुक्ति दिलाता है। इसके विपरीत भौतिकवाद का अभिप्राय इस सिद्धांत से है, जिसमें सांसरिक सुख-साधनों की प्रधानता रहती है। मनुष्य इन सुख-साधनों को पाने के लिए भटकता रहता है, जिससे सुख-शांति उससे कोसों दूर हो जाती है। मैं गांधीवाद को श्रेष्ठ समझता हूँ जो सुख-शांति पाने का मार्ग है।
(ङ) लेखक हमें उस निश्चितता की ओर ले जाना चाहता है. जिसके अंतर्गत मनुष्य को असमंजस की स्थिति 
गांधीवाद का समर्थक एवं अनुयायी बनना है। इसका कारण यह है कि अलग-अलग देशों में अलग-अलग नामों और धर्मों से जितने भी सिद्धांत प्रचलित हुए हैं, उन सबके मूल में अहिंसा और सत्य निहित है।
(च) शब्द    संधि-विच्छेद
यद्यपि =  यदि + अपि
अन्वेषण = अनु + एषण

अपठित गद्यांश for Class 11 Hindi Example 9

9. संस्कृति ऐसी चीज नहीं जिसकी रचना दस-बीस या सौ-पचास वर्षों में की जा सकती हो। हम जो कुछ भी करते हैं उसमें हमारी संस्कृति की झलक होती है; यहाँ तक कि हमारे उठने-बैठने, पहनने-ओढ़ने, घूमने-फिरने और रोने-हँसने से भी हमारी संस्कृति की पहचान होती है, यद्यपि हमारा कोई भी एक काम हमारी संस्कृति का पर्याय नहीं बन सकता। असल में, संस्कृति जीने का एक तरीका है और यह तरीका सदियों से जमा होकर उस समाज में छाया रहता है जिसमें हम जन्म लेते हैं। इसलिए, जिस समाज में हम पैदा हुए हैं अथवा जिस समाज से मिलकर हम जी रहे हैं, उसकी संस्कृति हमारी संस्कृति है; यद्यपि अपने जीवन में हम जो संस्कार जमा कर रहे हैं वह भी हमारी संस्कृति का अंग बन जाते हैं और मरने के बाद हम अन्य वस्तुओं के साथ अपनी संस्कृति की विरासत भी अपनी संतानों के लिए छोड़ जाते हैं। 

इसलिए, संस्कृति वह चीज मानी जाती है जो हमारे सारे जीवन को व्यापे हुए है तथा जिसकी रचना और विकास में अनेक सदियों के अनुभवों का हाथ हैं। यही नहीं, बल्कि संस्कृति हमारा पीछा जन्म-जन्मांतर तक करती है। अपने यहाँ एक साधारण कहावत है कि जिसका जैसा संस्कार है, उसका वैसा ही पुनर्जन्म भी होता है। जब हम किसी बालक या बालिका को बहुत तेज पाते हैं तब अचानक कह देते हैं कि वह पूर्वजन्म का संस्कार है। संस्कार या संस्कृति, असल में, शरीर का नहीं, आत्मा का गुण है और जबकि सभ्यता की सामग्रियों से हमारा संबंध शरीर के साथ ही छूट जाता है, तब भी हमारी संस्कृति का प्रभाव हमारी आत्मा के साथ जन्म-जन्मांतर तक चलता रहता है।
प्रश्न

(क) उपयुक्त गदयांश का शीर्षक बताइए। 1
(ख) संस्कृति के बारे में लेखक क्या बताता है? लेखक ने संस्कृति की क्या-क्या विशेषताएँ बताई हैं? 2
(ग) किसी समाज की संस्कृति ही वहाँ रहने वालों की संस्कृति बन जाती है, कैसे? 2
(घ) संस्कृति हमारे सारे जीवन को व्यापे हुए है, स्पष्ट कीजिए। 2
(ङ) संस्कृति और सभ्यता में अंतर स्पष्ट कीजिए। 2
(च) विशेषण बनाइए – संस्कृति, विकास। 1

उत्तर – 

(क) शीर्षक-सभ्यता और संस्कृति।
(ख) लेखक ने संस्कृति की विशेषताओं के विषय में बताया है कि संस्कृति की रचना अल्पकाल में नहीं होती है। व्यक्ति के आचार-विचार, सोच, पहनावा, हँसने-रोने, उठने-बैठने, घूमने-फिरने आदि में उसकी संस्कृति की झलक मिलती है। यद्यपि कोई कार्य विशेष किसी व्यक्ति की संस्कृति का पर्याय नहीं बन सकता। उसके आचरण और अन्य कार्यों के आधार पर उसकी संस्कृति की पहचान की जा सकती है।
(ग) संस्कृति किसी व्यक्ति के रहन-सहन और जीने का एक तरीका होता है जो कई सदियों से जमा होकर उस समाज में छाया रहता है, जिसमें कोई व्यक्ति पैदा होता है। ऐसे में व्यक्ति जिस समाज में पैदा होता है या वह जिस समाज का अंग है, उसकी संस्कृति वहाँ रहने वाले व्यक्ति की संस्कृति बन जाती है।
(घ) समाज में रहकर हम जो संस्कार अर्जित और संचित करते हैं, वे हमारी संस्कृति का अंग बन जाते हैं और मृत्युपरांत जिस प्रकार हम सारी वस्तुएँ छोड़कर जाते हैं, उसी प्रकार संस्कृति की विरासत भी आने वाली पीढ़ियों के लिए छोड़े जाते हैं, इसलिए संस्कृति हमारे सारे जीवन को व्यापे हुए है और जन्म-जन्मांतर तक हमारा पीछा नहीं छोड़ती है।
(ङ) संस्कृति और सभ्यता में मुख्य अंतर यह है कि संस्कृति का संबंध परलोक से होता है। किसी प्रतिभासंपन्न या विलक्षण बुद्ध वाले बालक को देखकर हम अचानक कह उठते हैं कि यह पूर्वजन्म का संस्कार है। यह शरीर नहीं बल्कि आत्मा का गुण है। इसके विपरीत सभ्यता इसी लोक की चीज है। सभ्यता से हमारा संबंध शरीर के साथ ही समाप्त हो जाता है। इसका आत्मा से कोई संबंध नहीं होता है।
(च) शब्द   विशेषणा
संस्कृति     संस्कृतिक
 विकास      विकासशील/विकसित

अपठित गद्यांश for Class 11 Hindi Example 10

10. विज्ञापन कला जिस तेजी से उन्नति कर रही है, उससे मुझे भविष्य के लिए और भी अंदेशा है। लगता है ऐसा युग आने वाला है जब शिक्षा, विज्ञान, संस्कृति और साहित्य इनका केवल विज्ञापन कला के लिए ही उपयोग रह जाएगा। वैसे ती आज भी इस कला के लिए इनका खासा उपयोग होता है। बहुत-सी शिक्षण संस्थाएँ हैं जो सांप्रदायिक संस्थाओं का विज्ञापन मात्र हैं। अपनी पीढ़ी के कई लेखकों की कृतियाँ लाला छगनलाल, मगनलाल या इस तरह के नाम के किसी और लाल की स्मारक निधि से प्रकाशित होकर लाला जी की दिवंगत आत्मा के प्रति स्मारक होने का फर्ज अदा कर रही हैं मगर आने वाले युग में यह कला, दो कदम आगे बढ़ जाएगी। विद्यार्थियों को विश्वविद्यालय के दीक्षांत महोत्सव पर जो डिग्रियाँ दी जाएँगी, उनके निचले कोने में छपा रहेगा- ‘आपकी शिक्षा के उपयोग का एक ही मार्ग है, आज ही आयात-निर्यात का धंधा प्रारंभ कीजिए। मुफ्त सूचीपत्र के लिए लिखिए।’

हर नए आविष्कार का चेहरा मुस्कराता हुआ टेलीविजन पर जाकर कुछ इस तरह निवेदन करेगा-‘मुझे यह कहते हुए हार्दिक प्रसन्नता है कि मेरे प्रयत्न की सफलता का सारा श्रेय रबड़ के टायर बनाने वाली कंपनी को है, क्योंकि उन्हीं के प्रोत्साहन ओर प्रेरणा से मैंने इस दिशा में कदम बढ़ाया था . विष्णु के मंदिर खड़े होंगे, जिनमें  संगमरमर की सुंदर प्रतिमा के नीचे पट्टी लगी होगी-‘याद रखिए, इस मूर्ति और इस भवन के निर्माण का श्रेय लाल हाथी के निशान वाले निर्माताओं को है। वास्तुकला संबंधी अपनी सभी आवश्यकताओं के लिए लाल हाथी का निशान कभी मत भूलिए।’ और ऐसे-ऐसे उपन्यास हाथ में आया करेंगे जिनकी सुंदर चमड़े की जिल्द पर एक ओर बारीक अक्षरों में लिखा होगा-साहित्य में अभिरुचि रखने वालों को इक्का माकी साबुन वालों की एक और तुच्छ भेंट और बात बढ़ते-बढ़ते यहाँ तक पहुँच जाएगी कि जब एक दूल्हा बड़े अरमान से दुल्हन ब्याहकर घर आएगा और घूंघट हटाकर उसके रूप की प्रसन्नता में पहला वाक्य कहेगा, तो दुल्हन मधुर भाव से आँख उठाकर हृदय का सारा दुलार शब्दों में उड़ेलती हुई कहेगी- ‘रोज सुबह उठकर नौ सौ इक्यावन नंबर के साबुन से नहाती हूँ।’
प्रश्न

(क) उपयुक्त शीर्षक दीजिए। 1
(ख) लेखक को विज्ञापन के प्रति भविष्य के लिए अंदेशा क्यों बढ़ रहा है? 2
(ग) वर्तमान में शिक्षण संस्थाओं की आज क्या स्थिति है? उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए। 2
(घ) सुंदर प्रतिमाएँ विज्ञापन से किस तरह प्रभावित नजर आएँगी? 2
(ङ) इस गदयांश के माध्यम से लेखक क्या कहना चाहता है और क्यों? 2
(च) संधि विच्छेद कीजिए – दीक्षांत, महोत्सव। 1

उत्तर – 

(क) शीर्षक-विज्ञापन की बढ़ती दुनिया।
(ख) लेखक को विज्ञापन के प्रति भविष्य के लिए अंदेशा इसलिए बढ़ रहा है क्योंकि विज्ञापन कला अत्यंत तेजी से उन्नति के पथ पर अग्रसर है। इसका प्रयोग लगभग हर छोटे-बड़े कार्य के लिए किया जाने लगा है। भविष्य में ऐसा समय आने वाला है, जब शिक्षा, विज्ञान, संस्कृति और साहित्य आदि अपने मूल्य उद्देश्य को छोड़कर विभिन्न उत्पादों का विज्ञापन करते नजर आएँगे। वर्तमान में ही विभिन्न वस्तुओं की बिक्री बढ़ाने के लिए विज्ञापनों का भरपूर प्रयोग किया जा रहा है।
(ग) वर्तमान में शिक्षण संस्थाओं की स्थिति यह है कि वे सांप्रदायिक संस्थाओं के विज्ञापन मात्र बनकर रह गई है। इनमें भी कुछ संस्थाएँ ट्रस्टों की मोहताज बनकर रह गई हैं। इसे एक उदाहरण द्वारा समझा जा सकता है, जैसे-‘सनातन हिंदू धर्म शिक्षण संस्थान’ नामक यह संस्था शिक्षा ज्ञान का प्रचार-प्रसार करती कम किसी धर्म विशेष का विज्ञापन करती अधिक प्रतीत हो रही है। इस प्रकार के अन्य उदाहरण भी देखे जा सकते हैं।
(घ) देवालयों में देवताओं की मूर्ति के नीचे पट्टी पर प्राय: उसके दानदाता या निर्माण में सहयोग देने वाली संस्थाओं का नाम कुछ इस प्रकार लिखा होता है, ‘इस मूर्ति और भवन के निर्माण का श्रेय लाल हाथी के निशान वाले निर्माताओं को है। वास्तुकला संबंधी अपनी सभी आवश्यकताओं के लिए लाल हाथी का निशान कभी मत भूलिए।’ इसे पढ़कर इन मूर्तियों पर विज्ञापन का प्रभाव देखा जा सकता है, जो ‘लाल हाथी’ निशान वाली वस्तुओं की बिक्री बढ़ाती दिख रही है।
(ङ) इस गद्यांश के माध्यम से लेखक यह कहना चाहता है कि विज्ञापन कला ने मनुष्य के दैनिक जीवन को प्रभावित तो किया ही है, शिक्षा, साहित्य, विज्ञान, संस्कृति आदि को भी विज्ञापन का साधन बना दिया गया है। शिक्षण संस्थाएँ और देवालय भी किसी संप्रदाय, व्यक्ति विशेष या उत्पादक प्रतिष्ठान का विज्ञापन करते दिखाई देते हैं। लेखक ऐसा इसलिए कहना चाह रहा है क्योंकि विज्ञापन कला का प्रयोग नित नए-नए रूप में होने लगा है, जिससे मनुष्य का दैनिक जीवन प्रभावित हो रहा है।
(च) शब्द संधि-विच्छेद
दीक्षांत = दीक्षा + अंत
महोत्सव = महा + उत्सव

अपठित गद्यांश for Class 11 Hindi Example 11

11. डॉ० जाकिर हुसैन भारत के असली सपूत थे, इसका सबूत उन्होंने पदारूढ़ होने के एक दिन पहले तब दिया जब वे दिल्ली में श्रृंगेरी के जगद्गुरु स्वामी शंकराचार्य से भेंट करने गए। जगद्गुरु के सामने पुष्प और फल रखते हुए उन्होंने कहा था-आपका आशीर्वाद चाहिए और शंकराचार्य ने राष्ट्रपति के सिर पर हाथ रख कर उन्हें आशीर्वाद दिया था। ऐसी ही एक और घटना याद आती है। उपराष्ट्रपति निवास के अहाते में एक दिन सवेरे घूम रहे थे तो देखा कि माली के घर में कीर्तन हो रहा है। फिर क्या था, टहलते हुए उधर चले गए और सबके साथ एक कोने में दरी पर बैठ गए। जब कुरसी लाने के लिए कहा गया तो बोले, ‘भगवान के घर में सब बराबर होते हैं।” और दरी पर बैठे रहे।

पटियाला में पंजाबी विश्वविद्यालय में गुरु गोबिंद सिंह के संस्थान की नींव रखने को आपसे कहा गया तो बोले, “आपने मुझसे इस पवित्र संस्थान की नींव रखने को कहा है। इससे मुझे याद आता है कि अमृतसर में दरबार साहब की नींव डालने के लिए भी एक मुसलमान को ही बुलाया गया था,” और यह कहते-कहते उनका गला भर आया, आँखों से आँसू बहने लगे। बड़े-बड़े योद्धा, सिख सरदार, श्रोताओं की भी उस समय आँखें भर आई। अपने साफ़-सुथरे सुरुचिपूर्ण खादी के कपड़ों और सुरुचि से सँवारी सफेद दाढ़ी के बीच चमकते हलके गुलाबी गौर वर्ण मुखमंडल से जाकिर साहब प्रेम और आत्मीयता में गाँधी जी के अंतिम उत्तराधिकारी नजर आते थे। देश के आने वाले बच्चे बापू को भूल न जाएँ, इस संबंध में उन्होंने एक बार कहा था, “आप आज्ञा दें तो इस अवसर से लाभ उठाकर गाँधी जी के संबंध में कुछ आपसे कहूँ।

उनको जानने और समझने से उनके काम को समझना और उसमें ! जी-जान से लगना जरा सरल हो सकता है। यह इसलिए और भी करना चाहता हूँ कि अब दिन पर दिन उन लोगों की संख्या घट रही है जिन्होंने गाँधी जी को देखा था, उनके साथ काम किया था, उनके बताए हुए रास्ते पर चले, थे। जब वे दुनिया से गए तो ये लोग बच्चे थे। बहुत से पैदा भी नहीं हुए थे। उनकी गिनती अब दिन-पर-दिन बढ़ती? ही जाएगी। नया काल होगा, नए हाल होंगे, नए जंजाल होंगे, ऐसा न हो कि यह नयी नस्ल गाँधी जी और उनके की तह में जो विचार थे उनको भुला बैठे। ऐसा हुआ तो हमारी सबसे मूल्यवान पूँजी बरबाद हो जाएगी।”
प्रश्न

(क) डॉ० जाकिर हुसैन ने भारत का असली सपूत होने का प्रमाण किस प्रकार दिया? 2
(ख) डॉ० हुसैन ने राष्ट्रपति होकर भी अपनी विनम्रता नहीं छोड़ी। उसके प्रमाणस्वरूप दो उदाहरण प्रस्तुत कीजिए। 2.
(ग) स्पष्ट कीजिए कि पटियाला और अमृतसर की घटनाएँ वर्तमान में और भी प्रासंगिक हो गई हैं। 2
(घ) डॉ० हुसैन के अनुसार हमारी मूल्यवान पूँजी कब और क्यों बरबाद हो जाएगी? 2
(ङ) संधि-विच्छेद कीजिए – पदारूढ़, आशीर्वाद। 1
(च) विपरीतार्थक शब्द लिखिए – आज्ञा, अंतिम। 1

उत्तर – 

(क) राष्ट्रपति पद पर सुशोभित होने से एक दिन पूर्व डॉ. जाकिर हुसैन जगद्गुरु स्वामी शंकराचार्य से मिलने और उनका आशीर्वाद प्राप्त करने गए। ऐसा करते हुए उन्होंने धार्मिक सौहार्द का अनूठा उदाहरण प्रस्तुत करते हुए हिंदू-मुस्लिम का भेद नहीं किया। उन्होंने धार्मिक रूढ़ि को त्यागकर भारत का असली सपूत होने का प्रमाण दिया।
(ख) डॉ० जाकिर हुसैन ने देश के सर्वोच्च पद पर आसीन होने के बाद भी अपनी विनम्रता नहीं छोड़ी। इसका पहला प्रमाण हमें तब मिलता है, जब उपराष्ट्रपति निवास के अहाते में घूमते हुए वे माली के घर हो रहे कीर्तन में शामिल हो गए और अन्य श्रोताओं की तरह ही वे भी दरी पर बैठे रहे। कुर्सी लाने का आग्रह करने पर उन्होंने कहा कि भगवान के घर में सभी बराबर होते हैं। इसका दूसरा प्रमाण तब देखने को मिला, जब पंजाबी विश्वविद्यालय में गुरुगोविंद सिंह के संस्थान की नींव रखने का आमंत्रण पाने पर वे अभिभूत एवं कृतज्ञ हो उठे थे।
(ग) पटियाला के पंजाबी विश्वविद्यालय में गुरु गोबिंद सिंह संस्थान की नींव और अमृतसर में दरबार साहब की नींव का कार्य धार्मिक-सांप्रदायिक भावनाओं से ऊपर उठकर मुसलमानों द्वारा कराया गया। यह वर्तमान में और भी प्रासंगिक हो जाता है, क्योंकि दोनों धमों के अनुयायियों का एक-दूसरे पर विश्वास घटता जा रहा है। आज देश में हिंदू-मुसलिम एकता की आवश्यकता बढ़ गई है।
(घ) डॉ० जाकिर हुसैन गांधी जी और उनके सिद्धांतों के समर्थक थे। उनका मानना था कि हमारी मूल्यवान पूँजी उस समय बरबाद हो उठेगी जब हम गांधी जी के विचारों को भुला बैठेगे। इसका कारण यह है कि गांधी जी को देखने और उनके साथ काम करने वाले अब नहीं रहे। ऐसे में उनके सिद्धांतों और विचारों को अपनाने और जीवंत रखने की आवश्यकता बढ़ जाती है।
(ङ) शब्द  संधि-विच्छेद
पदारूढ़ = पद + आरूढ़
आशीर्वाद = आशी: + वाद
(च) शब्द    विपरीतार्थक शब्द
अज्ञों             अवज्ञा
अतिम           प्रथम

अपठित गद्यांश for Class 11 Hindi Example 12

12. साहित्य की शाश्वतता का प्रश्न एक महत्वपूर्ण प्रश्न है। क्या साहित्य शाश्वत होता है? यदि हाँ तो किस मायने में? क्या कोई साहित्य अपने रचनाकाल के सौ वर्ष बीत जाने पर भी उतना ही प्रासंगिक रहता है, जितना वह अपनी रचना के समय था? अपने समय या युग का निर्माता साहित्यकार क्या सौ वर्ष बाद की परिस्थितियों का भी युग निर्माता हो पाठक की मानसिकता और अभिरुचि भी बदलती है। अत: कोई भी कविता अपने सामयिक परिवेश के बदल जाने पर ठीक वही उत्तेजना पैदा नहीं कर सकती जो उसने अपने रचनाकाल के दौरान की होगी। कहने का तात्पर्य यह है कि एक विशेष प्रकार के साहित्य के श्रेष्ठ अस्तित्व मात्र से वह साहित्य हर युग के लिए उतना ही विशेष आकर्षण रखे, यह आवश्यक नहीं है। यही कारण है कि वर्तमान युग में इंगला-पिंगला, सुषुम्ना, अनहद, नाद आदि पारिभाषिक शब्दावली मन में विशेष भावोत्तेजन नहीं करती। साहित्य की श्रेष्ठता मात्र ही उसके नित्य आकर्षण का आधार नहीं है।

उसकी श्रेष्ठता का युगयुगीन आधार है, वे जीवन-मूल्य तथा उनकी अत्यंत कलात्मक अभिव्यक्ति जो मनुष्य की स्वतंत्रता तथा उच्चतर मानव विकास के लिए पथ-प्रदर्शक का काम करती है। पुराने साहित्य का केवल वही श्री-सौंदर्य हमारे ग्राहय होगा जो नवीन जीवन-मूल्यों के विकास में सक्रिय सहयोग दे अथवा स्थिति रक्षा में सहायक हो। कुछ लोग साहित्य की सामाजिक प्रतिबद्धता को अस्वीकार करते हैं। वे मानते हैं कि साहित्यकार निरपेक्ष होता है और उस पर कोई भी दबाव आरोपित नहीं होना चाहिए। किंतु वे भूल जाते हैं कि साहित्य के निर्माण की मूल प्रेरणा मानव जीवन में ही विद्यमान रहती है। जीवन के लिए ही उसकी सृष्टि होती है। तुलसीदास जब स्वांत:सुखाय काव्य रचना करते हैं तब अभिप्राय यह नहीं रहता कि मानव समाज के लिए इस रचना का कोई उपयोग नहीं है, बल्कि उनके अंत:करण में संपूर्ण संसार की सुख-भावना एवं हित-कामना सन्निहित रहती है। जो साहित्यकार अपने संपूर्ण व्यक्तित्व को व्यापक लोक-जीवन में सन्निविष्ट कर देता है, उसी के हाथों स्थायी एवं प्रेरणाप्रद साहित्य का सृजन हो सकता है।
प्रश्न

(क) उपयुक्त शीर्षक दीजिए। 1
(ख) बदलते युग का साहित्य की प्रासंगिकता और शाश्वतता पर क्या प्रभाव पड़ता है? 2
(ग) पुराने साहित्य के प्रति अरुचि का क्या कारण है? 2
(घ) किसी साहित्य की श्रेष्ठता का आधार स्पष्ट कीजिए। 2
(ङ) तुलसीदास के काव्य की लोकप्रियता और श्रेष्ठता पर संक्षिप्त टिप्पणी कीजिए। 2
(च) विलोम बताइए — श्रेष्ठ, निरपेक्ष। 1

उत्तर – 

(क) शीर्षक-साहित्य की प्रासंगिकता।
(ख) बदलते युग का साहित्य की शाश्वतता और प्रासंगिकता पर यह प्रभाव पड़ता है कि साहित्य जिस काल और परिस्थिति में लिखा जाता है, उस समय वह अधिक प्रासंगिक होता है क्योंकि वह देश-काल की जरूरत और अन्य स्थितियों को ध्यान में रखकर लिखा जाता है परंतु समय बीतने पर परिस्थितियाँ भी बदलती जाती हैं और साहित्य की प्रासंगिकता कम होती जाती है। इसके अलावा तत्कालीन युग का निर्माता साहित्यकार वर्षों बाद की बदली परिस्थितियों का युग-निर्माता नहीं हो सकता है।
(ग) पुराने साहित्य के प्रति अरुचि का कारण यह है कि समय, परिस्थितियाँ और भावबोध बदलने के साथ ही पाठकों की मानसिकता और अभिरुचि भी बदली रहती है। इसके अलावा कोई कविता अपने रचनाकाल के समय जैसी उत्तेजना उत्पन्न कर सकती थी, वैसी वह सामयिक परिस्थितियाँ बदलने पर नहीं कर पाती है। कालांतर में ऐसा साहित्य अरुचिकर हो जाता है।
(घ) किसी साहित्य की श्रेष्ठता का आधार है-वे जीवन-मूल्य तथा उनकी कलात्मक अभिव्यक्ति जो मनुष्य की स्वतंत्रता तथा उच्चतर मानव विकास के लिए पथ-प्रदर्शक का काम करती है। इसके अलावा वह श्री-सौंदर्य भी साहित्य को श्रेष्ठ बनाता है, जो नवीन जीवन-मूल्यों के विकास में सक्रिय सहयोग दे या स्थिति-रक्षा में सहायक हो। यह आवश्यक नहीं है कि जो साहित्य आकर्षक हो, वह श्रेष्ठ भी हो।
(ङ) तुलसीदास किसी दबाव में आए बिना साहित्य सृजन करते थे। वे स्वांत: सुखाय काव्य रचना करते थे, फिर भी उनका यह अभिप्राय नहीं रहता था कि मानव-समाज के लिए वह रचना पूर्णतया उपयोगी हो। इसके अलावा उनके हृदय में संपूर्ण संसार की सुख-भावना एवं हित-कामना समाई रहती थी। यही भावना उनके काव्य को श्रेष्ठ एवं लोकप्रिय बनाए हुए है।
(च) निकृष्ट, सापेक्षा।

अपठित गद्यांश for Class 11 Hindi Example 13

13. भारतीय मनीषा ने कला, धर्म, दर्शन और साहित्य के क्षेत्र में नाना भाव से महत्वपूर्ण फल पाए हैं और भविष्य में र्माता के इशारों को समझकर ही हम अपनी योजना बनाएँ तो सफलता की आशा कर सकते हैं।भी महत्वपूर्ण फल पाने की योग्यता का परिचय वह दे चुकी है, परंतु भिन्न कारणों से समूची जनता एक ही धरातल पर नहीं है और सबकी चिंतन-दृष्टि भी एक नहीं है। जल्दी ही कोई फल पा लेने की आशा में अटकलपच्चू सिद्धांत कायम कर लेना और उसके आधार पर कार्यक्रम बनाना अभिष्ट सिद्ध में सब समय सहायक नहीं होगा। विकास की अलग-अलग सीढ़ियों पर खड़ी जनता के लिए नाना प्रकार के कार्यक्रम आवश्यक होंगे। उद्देश्य की एकता ही विविध कार्यक्रमों में एकता ला सकती है, परंतु इतना निश्चित है कि जब तक हमारे सामने उद्देश्य स्पष्ट नहीं हो जाता, तब तक कोई भी कार्य. कितनी ही व्यापक शुभेच्छा के साथ क्यों न आरंभ किया जाए, वह फलदायक नहीं होगा। बहुत से लोग हिंदू-मुसलिम एकता को या हिदू-संघटन को ही लक्ष्य मानकर उपाय सोचने लगते हैं।

वस्तुत: हिदू-मुसलिम एकता भी साधन हैं, साध्य नहीं। साध्य है मनुष्य को पशु समान स्वार्थी धरातल से ऊपर उठाकर ‘मनुष्यता’ के आसन पर बैठाना। हिंदू और मुसलिम अगर मिलकर संसार में लूट-खसोट मचाने के लिए साम्राज्य स्थापित करने निकल पड़े तो उस हिंदू-मुसलिम मिलन से मनुष्यता काँप उठेगी। परंतु हिंदू-मुसलिम मिलन का उद्देश्य है मनुष्य को दासता, जड़ता, मोह, कुसंस्कार और परमुखापेक्षिता से बचाना, मनुष्य को क्षुद्र स्वार्थ और अहमिका की दुनिया से ऊपर उठाकर सत्य, न्याय और औदार्य की दुनिया में ले जाना, मनुष्य द्वारा मनुष्य का शोषण को हटाकर परस्पर सहयोगिता के पवित्र बंधन में बाँधना। मनुष्य का सामूहिक कल्याण ही हमारा लक्ष्य हो सकता है। वही मनुष्य का सर्वोत्तम प्राप्य है। आर्य, द्रविड़, शक, नाग आदि जातियों के सैकड़ों वर्षों के संघर्ष के बाद हिंदू दृष्टिकोण बना है। नए सिरे से भारतीय दृष्टिकोण बनाने के लिए इतने लंबे अरसे की जरूरत नहीं है। आज हम इतिहास को अधिक यथार्थ ढंग से समझ सकते हैं और तदनुकूल अपने विकास की योजना बना सकते हैं। धैर्य हमें कभी नहीं छोड़ना चाहिए। इतिहास नि
प्रश्न

(क) उपयुक्त शीर्षक दीजिए। 1
(ख) भारतीय जनता के समुचित विकास के लिए अलग-अलग कार्यक्रम बनाने की आवश्यकता क्यों हैं? 2
(ग) ‘हिंदू-मुसलिम एकता भी साधन है, साध्य नहीं’-ऐसा लेखक ने क्यों कहा है? 2
(घ) हिंदू-मुसलिम ऐक्य मानवता के लिए कब घातक हो सकता है? हिंदू-मुसलिम एकता का उददेश्य 
क्या होना चाहिए? 2
(ङ) सफलता पाने के लिए हमें क्या करना चाहिए? 2
(च) संधि विचौडैद करो – शुभेच्छा, सर्वोत्तमा 1

उत्तर – 

(क) शीर्षक-हिंदू-मुसलिम ऐक्य।
(ख) भारतीय जनता के समुचित विकास के लिए अलग-अलग कार्यक्रम बनाने की आवश्यकता इसलिए है, क्योंकि ऐसे अनेकानेक कारण हैं, जिनसे भारतीय जनता की आवश्यकताएँ और स्तर अलग-अलग हैं। वे एक धरातल पर नहीं हैं। उनकी चिंतन दृष्टि में भी एकता नहीं है। उस कारण जल्दबाजी में सभी के लिए कोई एक कार्यक्रम बना लेने से अभीष्ट लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हो सकती है।
(ग) ‘हिंदू-मुस्लिम एकता भी साधन है, साध्य नहीं” लेखक ने ऐसा इसलिए कहा है, क्योंकि बहुत से लोग हिंदू-मुस्लिम एकता या हिंदू संगठन को लक्ष्य मान बैठते हैं और इस एकीकरण का उपाय सोचने लगते हैं, जबकि यह एकता साधन मात्र है साध्य नहीं। वास्तव में मनुष्य में पशुओं जैसी स्वार्थी सोच समाप्त कर, परोपकार की भावना जगाते हुए मनुष्यता के आसन पर प्रतिष्ठित करना ही साध्य है।
(घ) हिंदू-मुस्लिम ऐक्य मानवता के लिए तब घातक हो सकता है, जब हिंदू और मुस्लिम एक’ होकर संसार में लूट-खसोट मचाने के लिए साम्राज्य स्थापित करना शुरू कर दें। इससे मनुष्यता का अहित होगा। हिंदू-मुस्लिम एकता का उद्देश्य होना चाहिए-मनुष्य को दासता, जड़ता, मोह, कुसंस्कार और परमुखापेक्षिता से बचाना, मनुष्य को क्षुद्र स्वार्थ से ऊपर उठाकर सत्य, न्याय और औदार्य की दुनिया में ले जाना, मनुष्य को शोषण से बचाना और सहयोगभाव उत्पन्न करना।
(ङ) सफलता पाने के लिए हमें नए भारतीय दृष्टिकोण बनाने चाहिए। यह कार्य आसानी से किया जा सकता है क्योंकि अब भारतीयों में इतिहास को समझने की दृष्टि विकसित हो गई है। इतिहास की इसी समझ के साथ हम नई योजनाएँ बना सकते हैं। इसके अलावा इतिहास-निर्माताओं के संकेतों को समझकर योजनाएँ बनाने से सफलता पाई जा सकती है।
(च) शब्द   संधि-विच्छेद
शुभेच्छा = शुभ + इच्छा
सवत्तम = सर्व + उत्तम।

अपठित गद्यांश for Class 11 Hindi Example 14

14. हम अपने कार्यों को देश के अनुकूल होने की कसौटी पर कसकर चलने की आदत डालें, यह बहुत उचित है, बहुत सुंदर है, पर हम इसमें तब तक सफल नहीं हो सकते, जब तक कि हम अपने देश की भीतरी दशा को ठीक-ठाक न समझ लें और उसे हमेशा अपने सामने न रखें। हमारे देश को दो बातों की सबसे पहले और सबसे ज्यादा जरूरत है। एक शक्ति-बोध और दूसरा सौंदर्य-बोध! बस, हम यह समझ लें कि हमारा कोई भी काम ऐसा न हो जो देश में कमजोरी की भावना को बल दे या कुरुचि की भावना की। “जरा अपनी बात को और स्पष्ट कर दीजिए।” यह आपकी राय और मैं इससे बहुत ही खुश हूँ कि आप मुझसे यह स्पष्टता माँग रहे हैं। क्या आप चलती रेलों में, मुसाफिरखानों में, क्लबों में, चौपालों पर और मोटर-बसों में कभी ऐसी चर्चा करते हैं कि हमारे देश में यह नहीं हो रहा है, वह नहीं हो रहा है और यह गड़बड़ है, वह परेशानी है? साथ ही क्या इन स्थानों में या इसी तरह के दूसरे स्थानों में आप कभी अपने देश के साथ दूसरे देशों की तुलना करते हैं और इस तुलना में अपने देश को हीन और दूसरे देशों को श्रेष्ठ सिद्ध करते हैं? यदि इन प्रश्नों का उत्तर ‘हाँ’ है, तो आप देश के शक्ति बोध को भयंकर चोट पहुँचा रहे हैं और आपके हाथों देश के सामूहिक मानसिक बल का ह्रास हो रहा है।

सुनी है आपने शल्य की बात! वह महाबली कर्ण का सारथी था। जब भी कर्ण अपने पक्ष की विजय की घोषणा करता, हुंकार भरता, वह अर्जुन की अजेयता का एक हल्का-सा उल्लेख कर देता। बार-बार इस उल्लेख ने कर्ण के सघन आत्मविश्वास में संदेह की तरेड़ डाल दी, जो उसकी भावी पराजय की नींव रखने में सफल हो गई। अच्छा, आप इस तरह की चर्चा कभी नहीं करते, तो मैं आपसे दूसरा प्रश्न पूछता हूँ। क्या आप कभी केला खाकर छिलका रास्ते में फेंकते हैं! अपने घर का कूड़ा बाहर फेंकते हैं? मुँह से गंदे शब्दों में गंदे भाव प्रकट करते हैं? इधर की उधर, उधर की इधर लगाते हैं, अपना घर, दफ्तर, गली गंदी रखते हैं? होटलों, धर्मशालाओं में या दूसरे ऐसे ही स्थानों में, जीनों में, कोनों में पीक थूकते हैं? उत्सवों, मेलों, रेलों और खेलों में ठेलमठेल करते हैं, निमंत्रित होने पर समय से लेट पहुँचते हैं या वचन देकर भी घर आने वालों को समय पर नहीं मिलते और इसी तरह किसी भी रूप में क्या सुरुचि और सौंदर्य को आपके किसी काम से ठेस लगती है? यदि आपका उत्तर हाँ है, तो आपके द्वारा देश के सौंदर्य-बोध को भयंकर आघात लग रहा है और आपके द्वारा देश की संस्कृति को गहरी चोट पहुँच रही है।
प्रश्न

(क) ‘अपने कार्यों को देश की कसौटी पर कसकर करने’ का तात्पर्य स्पष्ट कीजिए। 2
(ख) व्यक्ति अपने देश के शक्ति-बोध को किस प्रकार चोट पहुँचाता है? 2
(ग) कर्ण की पराजय में शल्य ने किस प्रकार सहयोग दिया? 2
(घ) हम अपने देश के सौंदर्य-बोध को किस प्रकार आघात पहुँचाते हैं? 2
(ङ) उपर्युक्त गदयांश का उचित शीर्षक लिखिए। 1
(च) संस्कृति, उल्लेख – संधि-विच्छेद कीजिए। 1

उत्तर – 

(क) हमें ऐसे कार्यों को नहीं करना चाहिए, जिससे अपने देश का किसी प्रकार से अहित हो। हमारे द्वारा किया गया कार्य उचित है या अनुचित या हम जाने-अनजाने कोई ऐसा कार्य तो नहीं कर रहे हैं जो देश में कमजोरी और कुरुचि की भावना को बढ़ावा दे रहा है, इस पर विचार कर लेना चाहिए। इस कसौटी पर खरा होने पर अर्थात् हमारे द्वारा किया जो कार्य देश हित में है, उसी को करना उचित है।
(ख) जो व्यक्ति सार्वजनिक स्थानों-रेलों, मुसाफिर-खानों, क्लबों, चौपालों, मोटर-बसों आदि पर अपनी देश की कमियों का रोना रोते हैं तथा देश की परेशानियों को बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत करते हैं और अपने देश की तुलना अन्य देशों से करके अपने देश को हीन सिद्ध करता है, वे अपने देश के शक्ति-बोध को चोट पहुँचाते हैं।
(ग) महाभारत के युद्ध में कर्ण जब अपने पक्ष की विजय की घोषणा करता या अपने बल-पौरुष का उल्लेख करता उसी समय उसका सारथी शल्य बार-बार अर्जुन की अजेयता का उल्लेख कर कर्ण के आत्मविश्वास की कम करता था। इस प्रकार शल्य ने कर्ण की पराजय में सहयोग दिया।
(घ) यदि केले के छिलके रास्ते में फेंकते हैं, घर का कूड़ा बाहर फेंकते हैं, होटलों, धर्मशालाओं में, अन्य ऐसे स्थानों में पीक थूकते हैं या किसी उत्सव में निमंत्रित होने पर लेट पहुँचते हैं या वचन देकर किसी से समय पर मिलते नहीं हैं तो अपने देश के सौदर्य बोध को चोट पहुँचाते हैं।
(ङ) शीर्षक-हम और हमारा देश / हमारा देश और हमारा दायित्व।
(च) संस्कृति – सम् + कृति
        उल्लेख – उत् + लेख

अपठित गद्यांश for Class 11 Hindi Example 15

15. स्वतंत्र व्यवसाय की अर्थनीति के नए वैश्विक वातावरण ने विदेशी पूँजी निवेश को खुली छूट दे रखी है जिसके कारण दूरदर्शन में ऐसे विज्ञापनों की भरमार हो गई है जो उन्मुक्त वासना, हिंसा, अपराध, लालच और ईष्यां जैसे मानव की हीनतम प्रवृत्तियों को आधार मानकर चल रहे हैं। अत्यंत खेद का विषय है कि राष्ट्रीय दूरदर्शन ने भी उनकी भौंडी नकल की ठान ली है। के नाम पर जो कुछ दिखाया जा रहा है, सुनाया जा रहा है, उससे भारतीय जीवन मूल्यों का दूर का भी रिश्ता नहीं है, वे सत्य से भी कोसों दूर हैं। नयी पीढ़ी जो स्वयं में रचनात्मक गुणों के विकास करने की जगह दूरदर्शन के सामने बैठकर कुछ सीखना, जानना और मनोरंजन करना चाहती है, उसका भगवान ही मालिक है। जो असत्य है, वह सत्य नहीं हो सकता। समाज को शिव बनाने का प्रयत्न नहीं होगा तो समाज शव बनेगा ही। आज यह मजबूरी हो गई है कि दूरदर्शन पर दिखाए जाने वाले वासनायुक्त अश्लील दृश्यों से चार पीढ़ियाँ एक साथ आँखें चार कर रही हैं। नतीजा सामने है। बलात्कार, अपहरण, छोटी बच्चियों के साथ निकट संबंधियों द्वारा शर्मनाक यौनाचार की घटनाओं में वृद्ध। दुमक कर चलते शिशु दूरदर्शन पर दिखाए और सुनाए जा रहे स्वर और भगिमाओं पर अपनी कमर लचकाने लगे हैं। ऐसे कार्यक्रम न शिव हैं, न समाज को शिव बनाने की शक्ति है इनमें। फिर जो शिव नहीं, वह सुंदर कैसे हो सकता है।
प्रश्न

(क) उपयुक्त शीर्षक दीजिए। 1
(ख) नयी आर्थिक व्यवस्था से भारतीय दूरदर्शन किस तरह प्रभावित है? 2
(ग) नयी आर्थिक नीति का प्रत्यक्ष प्रभाव क्या हो रहा है? 2
(घ) अर्थनीति के नए वैश्विक वातावरण से लेखक का क्या तात्पर्य है? 2
(ङ) ‘समाज को शिव बनाने का प्रयत्न नहीं होगा तो समाज शव बनेगा ही’। इसका अर्थ स्पष्ट करते 
समाज पर इसके कुप्रभाव को स्पष्ट कीजिए। 2
(च) उपसर्ग/प्रत्यय पृथककर मूलशब्द बताइए – अपहरण, विदेशी। 1

उत्तर  

(क) शीर्षक-भारतीय दूरदर्शन की अनर्थकारी भूमिका।
(ख) नयी आर्थिक व्यवस्था से भारतीय दूरदर्शन बुरी तरह प्रभावित है। इसमें हिंसा, यौनाचार, बलात्कार, अपहरण आदि मानव की हीन वृत्तियों से संबंधित कार्यक्रमों की बहुलता है। इस पर दिखाए जाने वाले कार्यक्रम भारतीय संस्कृति के अनुरूप नहीं हैं जो नई पीढ़ी पर बुरा असर डाल रहे हैं। ,
(ग) नयी आर्थिक नीति से दूरदर्शन पर विज्ञापनों की बाढ़-सी आ गई है, जो हिंसा, अपराध, वासना, ईष्या आदि पर आधारित होते हैं। इसके अलावा इस पर आधुनिकता के नाम पर जो कुछ दिखाया जाता है, वह सत्य और भारतीय जीवन से दूर है। इससे रचनात्मकता का हास तथा पाश्चात्य जीवनमूल्यों का विकासशील देशों में व्यापक प्रचार हो रहा है।
(घ) इसका अर्थ है कि आर्थिक नीति में राष्ट्रीय प्रतिबंधों को हटाकर उसका उदारीकरण जिससे कोई देश अन्य किसी देश में व्यवसाय करने, उद्योग लगाने आदि आर्थिक कार्यक्रमों में स्वतंत्र हो। इस नीति का एकमात्र उद्देश्य अधिकाधिक धन कमाना ही रह गया है।
(ङ) इसका अर्थ है-भारतीय दूरदर्शन अपने ‘सत्यम्, शिवम् व सुंदरम्’ के आदर्श को भूलकर सामाजिक जीवन की विकृत कर रहा है। दूरदर्शन पर दर्शाए जा रहे वासनायुक्त अश्लील दृश्यों के कारण समाज बुरी तरह प्रभावित हुआ है। इससे बलात्कार, अपहरण, अल्पायु लड़कियों के साथ यौनाचार जैसी घृणित घटनाओं में वृद्ध हुई है जो समाज के लिए शुभ संकेत नहीं है।
(च) शब्द     उपसर्ग   मूलशब्द   प्रत्यय
अपहरा         अप          हरण            x
विदेशी           वि            देश             ई           

अपठित गद्यांश for Class 11 Hindi Example 16

16. संस्कृति और सभ्यता-ये दो शब्द हैं और उनके अर्थ भी अलग-अलग हैं। सभ्यता मनुष्य का वह गुण है जिससे वह अपनी बाहरी तरक्की करता है। संस्कृति वह गुण है जिससे वह अपनी भीतरी उन्नति करता है, करुणा, प्रेम और परोपकार सीखता है। आज रेलगाड़ी, मोटर और हवाई जहाज, लंबी-चौड़ी सड़कें और बड़े-बड़े मकान, अच्छा भोजन और अच्छी पोशाक, ये सभ्यता की पहचान हैं और जिस देश में इनकी जितनी ही अधिकता है उस देश को हम उतना ही सभ्य मानते हैं। मगर संस्कृति इस सबसे कहीं बारीक चीज है। वह मोटर नहीं, मोटर बनाने की कला है, मकान नहीं, मकान बनाने की रुचि है। संस्कृति धन नहीं, गुण है। संस्कृति ठाठ-बाट नहीं, विनय और विनम्रता है। एक कहावत है कि सभ्यता वह चीज है जो हमारे पास है, लेकिन संस्कृति वह गुण है जो हममें छिपा हुआ है। हमारे पास घर होता है, कपड़े-लत्ते होते हैं, मगर ये सारी चीजें हमारी सभ्यता के सबूत हैं, जबकि संस्कृति इतने मोटे तौर पर दिखलाई नहीं देती, वह बहुत ही सूक्ष्म और महीन चीज है और वह हमारी हर पसंद, हर आदत में छिपी रहती है।

मकान बनाना सभ्यता का काम है, लेकिन हम मकान का कौन-सा नक्शा पसंद करते हैं-यह हमारी संस्कृति बतलाती है। आदमी के भीतर काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह और मत्सर ये छह विकार प्रकृति के दिए हुए हैं। अगर ये विकार बेरोक छोड़ दिए जाएँ तो आदमी इतना गिर जाए कि उसमें और जानवर में कोई भेद नहीं रह जाए। इसलिए आदमी इन विचारों पर रोक लगाता है। इन दुर्गुणों पर जो आदमी जितना ज्यादा काबू कर पाता है, उसकी संस्कृति भी उतनी ही ऊँची समझी जाती है। संस्कृति का स्वभाव है कि वह आदान-प्रदान से बढ़ती है। जब दो देशों या जातियों के लोग आपस में मिलते हैं तब उन दोनों की संस्कृतियाँ एक-दूसरे को प्रभावित करती हैं। इसलिए संस्कृति की दृष्टि से वह जाति या वह देश बहुत ही धनी समझा जाता है जिसने ज्यादा-से-ज्यादा देशों या जातियों की संस्कृतियों से लाभ उठाकर अपनी संस्कृति का विकास किया हो।
प्रश्न

(क) उपयुक्त शीर्षक दीजिए। 1
(ख) ‘सभ्यता’ का अर्थ और इसकी पहचान बताइए। 2
(ग) संस्कृति से आप क्या समझते हैं? इसकी विशेषताएँ स्पष्ट कीजिए। 2
(घ) मनुष्य के अंदर कौन-कौन से विकार हैं? इन विकारों और संस्कृति में क्या विरोधाभास है? 2
(ङ) संक्क स्वाभाव बताते एस्ट कएि कि साक्क रूपा से कि वेश्यों को भी सहा जाता है? 2
(च) उपसर्ग बताइए — उन्नति, संस्कृति। 1

उत्तर  

(क) शीर्षक-सभ्यता और संस्कृति।
(ख) ‘सभ्यता’ का अर्थ है-मानव के भौतिक विकास का विधायक गुण। सभ्यता के माध्यम से ही व्यक्ति अपनी बाहरी उन्नति करता है। किसी देश में भौतिक विकास के विभिन्न साधन, जैसे-रेलगाड़ियाँ, मोटर और हवाई जहाज, लंबी-चौड़ी सड़कें, बड़े-बड़े मकान, अच्छा भोजन, अच्छी पोशाकें, संचार के उन्नत साधन आदि देखकर किसी देश की सभ्यता की पहचान की जा सकती है।
(ग) ‘संस्कृति’ का अभिप्राय है-मानव की आत्मिक उन्नति का संवर्धक आंतरिक गुण। संस्कृति से व्यक्ति अपनी भीतरी उन्नति करता है और करुणा, प्रेम, परोपकार जैसे उच्च मानवीय गुण सीखता है। संस्कृति बारीक चीज है, गुण है, विनय और विनम्रता है जो व्यक्ति के भीतर छिपी होती है और मोटे तौर पर दिखाई नहीं देती है। संस्कृति हमारी हर आदत और पसंद में छिपी होती है।
(घ) मनुष्य के अंदर प्रकृतिप्रदत्त छह मनोविकार हैं-काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह और मत्सर। इन विकारों पर रोक न लगाने से मनुष्य अपनी मनुष्यता खो बैठता है। ऐसे में उसमें और पशुओं में कोई अंतर नहीं रह जाता है। अपनी मनुष्यता बनाए रखने के लिए मनुष्य इन पर रोक लगाता है। इन विकारों और संस्कृति में विरोधाभास यह है कि इन पर अकुश लगाकर जितना ही रोका जाता है. संस्कृति उतनी ही बढ़ती है।
(ङ) संस्कृति का स्वभाव यह है कि वह आदान-प्रदान से बढ़ती है। दो देश या जातियों के लोगों के मिलन से उनकी संस्कृतियाँ प्रभावित होती हैं। इसी प्रभाव के कारण उन देशों को सांस्कृतिक रूप से अधिक धनी समझा जाता है, जिन्होंने अधिकाधिक देशों के साथ मेल-जोल किया और उन देशों एवं जातियों की संस्कृतियों की अच्छाइयों से लाभ उठाकर अपनी संस्कृति को समृद्धशाली बनाया।
(च) उत्, सम्।

अपठित गद्यांश for Class 11 Hindi Example 17

17. विधाता-रचित इस सृष्टि का सिरमौर है-मनुष्य। उसकी कारीगरी का सर्वोत्तम नमूना। इस मानव को ब्रहमांड का लघु रूप मानकर भारतीय दार्शनिकों ने ‘यत् पिण्डे तत् ब्रह्माण्डे’ की कल्पना की थी। उनकी यह कल्पना मात्र कल्पना नहीं थी, प्रत्युत यथार्थ भी थी, क्योंकि मानव-मन में जो विचारना के रूप में घटित होता है, उसी का कृति रूप ही तो सृष्टि है। मन तो मन, मानव का शरीर भी अप्रतिम है। देखने में इससे भव्य, आकर्षक एवं लावण्यमय रूप सृष्टि में अन्यत्र कहाँ है? अद्भुत एवं अद्वतीय है- मानव-सौंदर्य साहित्यकारों ने इसके रूप-सौंदर्य के वर्णन के लिए कितने ही अप्रस्तुतों का विधान किया है और इस सौंदर्य-राशि से सभी को आप्यायित करने के लिए अनेक काव्य सृष्टियाँ रच डाली हैं।

साहित्यशास्त्रियों ने भी इसी मानव की भावनाओं का विवेचन करते हुए अनेक रसों का निरूपण किया है परंतु वैज्ञानिक दृष्टि से विचार किया जाए तो मानव-शरीर को एक जटिल यंत्र से उपमित किया जा सकता है। जिस प्रकार यंत्र के एक पुर्जे में दोष आ जाने पर सारा यंत्र गड़बड़ा जाता है, बेकार हो जाता है उसी प्रकार मानव-शरीर के विभिन्न अवयवों में से यदि कोई एक अवयव भी बिगड़ जाता है तो उसका प्रभाव सारे शरीर पर पड़ता है। इतना ही नहीं, गुर्दे जैसे कोमल एवं नाजुक हिस्से के खराब हो जाने से यह गतिशील वपुयंत्र एकाएक अवरुद्ध हो सकता है, व्यक्ति की मृत्यु हो सकती है। एक अंग के विकृत होने पर सारा शरीर दंडित हो, वह कालकवलित हो जाए-यह विचारणीय है।

यदि किसी यंत्र के पुर्जे को बदलकर उसके स्थान पर नया पुर्जा लगाकर यंत्र को पूर्ववत सुचारु एवं व्यवस्थित रूप से क्रियाशील बनाया जा सकता है तो शरीर के विकृत अग के स्थान पर नव्य निरामय अंग लगाकर शरीर को स्वस्थ एवं सामान्य क्यों नहीं बनाया जा सकता? शल्य-चिकित्सकों ने इस दायित्वपूर्ण चुनौती को स्वीकार किया तथा निरंतर अध्यवसाय पूर्णसाधना के अनंतर अंग-प्रत्यारोपण के क्षेत्र में सफलता प्राप्त की। अंग-प्रत्यारोपण का उद्देश्य है कि मनुष्य दीर्घायु प्राप्त कर सके। यहाँ यह ध्यातव्य है कि मानव-शरीर हर किसी के अंग को उसी प्रकार स्वीकार नहीं करता, जिस प्रकार हर किसी का रक्त उसे स्वीकार्य नहीं होता। रोगी को रक्त देने से पूर्व रक्त-वर्ग का परीक्षण अत्यावश्यक है, तो अंग-प्रत्यारोपण से पूर्व ऊतक-परीक्षण अनिवार्य है। आज का शल्य-चिकित्सक गुर्दे, यकृत, आँत, फेफड़े और हृदय का प्रत्यारोपण सफलता पूर्वक कर रहा है। साधन-संपन्न चिकित्सालयों में मस्तिष्क के अतिरिक्त शरीर के प्राय: सभी अंगों का प्रत्यारोपण संभव हो गया है।
प्रश्न

(क) उपयुक्त शीर्षक दीजिए। 1
(ख) मानव के प्रति भारतीय दार्शनिकों की कल्पना स्पष्ट करते हुए बताइए कि उसे सृष्टि का लघु रूप क्यों कहा गया है? 2
(ग) मानव शरीर के प्रति एक साहित्यकार और वैज्ञानिक के दृष्टिकोण में अंतर स्पष्ट कीजिए। 2
(घ) मानव शरीर को ‘मशीन’ की संज्ञा क्यों दी गई है? 2
(ङ) शल्य चिकित्सक का मुख्य ध्येय बताते हुए अंग-प्रत्यारोपण की सफलता के लिए किन-किन बातों का ध्यान रखना चाहिए? 2
(च) पर्याय लिखिए – लावण्यमय, निरामय। 1

उत्तर  

(क) शीर्षक-मानव अंग प्रत्यारोपण।
(ख) भारतीय दार्शनिकों ने मानव को ब्रह्मांड का लघु रूप मानते हुए यह कल्पना की थी कि ‘यत् पिंडे तत् ब्रह्मांडे।’ उनकी यह कल्पना यथार्थ भी थी क्योंकि मानव के मन में जो कुछ सोच-विचार के रूप में घटित होता है, वही सृष्टि में भी घटित होता है। यही कारण है कि मानव को सृष्टि का लघुरूप कहा गया है।
(ग) एक साहित्यकार मानव-शरीर को अद्भुत एवं अद्वतीय, भव्य, आकर्षक एवं लावण्यमयी सौंदर्य-राशि बताया है। वह शरीर को भावनात्मक दृष्टि से देखता है। उसने मानव-शरीर के इसी सौंदर्य-वर्णन के लिए अनेक काव्य-सृष्टियों की रचना की। इसके विपरीत एक वैज्ञानिक ने मानव-शरीर को एक जटिल यंत्र माना है। उसकी दृष्टि में भावना की जगह यांत्रिकता होती है।
(घ) मानव-शरीर को ‘मशीन’ की संज्ञा इसलिए दी गई है क्योंकि जिस प्रकार मशीन के एक पुर्जे में दोष आ जाने से सारी मशीन गड़बड़ाकर बेकार हो जाती है, उसी प्रकार मानव-शरीर के विभिन्न अवयवों में से एक भी अवयव के बेकार हो जाने पर, उसका प्रभाव सारे शरीर पर पड़ता है। उदाहरणस्वरूप गुर्दे जैसे कोमल एवं नाजुक अंग के खराब होने से गतिशील शरीर अवरुद्ध हो जाता है और व्यक्ति की मृत्यु तक हो जाती है।
(ङ) शल्य चिकित्सक का मुख्य ध्येय है-शरीर के विकृत अंग को निकालकर उसके स्थान पर नव्य निरामय अंग लगाकर शरीर को स्वस्थ एवं सामान्य बनाते हुए मनुष्य को दीर्घायु बनाना। अंग-प्रत्यारोपण को सफल बनाने के लिए निरंतर अध्यवसायपूर्ण साधना की आवश्यकता होती है। इसके अतिरिक्त अंग-प्रत्यारोपण से पूर्व ऊतक परीक्षण अनिवार्य है ताकि यह देखा जा सके कि हमारा शरीर उस नए अंग को स्वीकार कर रहा है 
या नहीं।
(च) शब्द     पर्याय
लावण्यमय    सौंदर्ययुक्त
निरामय        नीरोग

अपठित गद्यांश for Class 11 Hindi Example 18

18. हमारी सर्वोच्च प्राथमिकता जनसंख्या वृद्ध रोकना है। इस क्षेत्र में हमारे सभी प्रयत्न निष्फल रहे हैं। ऐसा क्यों है? यह इसलिए भी हो सकता है कि समस्या को देखने का हर एक का एक अलग नजरिया है। जनसंख्या शास्त्रियों के लिए यह आँकड़ों का अंबार है। अफसरशाही के लिए यह टार्गट तय करने की कवायद है। राजनीतिज्ञ इसे वोट बैंक की दृष्टि से देखता है। ये सब अपने-अपने ढंग से समस्या को सुलझाने में लगे हैं। अत: अलग-अलग किसी के हाथ सफलता नहीं लगी। पर यह स्पष्ट है कि परिवार के आकार पर आर्थिक विकास और शिक्षा का बहुत प्रभाव पड़ता है। यहाँ आर्थिक विकास का मतलब पाश्चात्य मतानुसार भौतिकवाद नहीं जहाँ बच्चों को बोझ माना जाता है।

हमारे लिए तो यह सम्मानपूर्वक जीने के स्तर से संबंधित है। यह मौजूदा संपत्ति के समतामूलक विवरण पर ही निर्भर नहीं है वरन् ऐसी शैली अपनाने से संबंधित है जिसमें अस्सी करोड़ लोगों की ऊर्जा का बेहतर इस्तेमाल हो सके। इसी प्रकार स्त्री-शिक्षा भी है। यह समाज में एक नए प्रकार का चिंतन पैदा करेगी जिससे सामाजिक और आर्थिक विकास के नए आयाम खुलेंगे और साथ ही बच्चों के विकास का नया रास्ता भी खुलेगा। अत: जनसंख्या की समस्या सामाजिक है। यह अकेले सरकार नहीं सुलझा सकती। केंद्रीकरण से हटकर इसे ग्राम-ग्राम, व्यक्ति-व्यक्ति तक पहुँचाना होगा। जब तक यह जन-आदोलन नहीं बन जाता तब तक सफलता मिलना संदिग्ध है।
प्रश्न

(क) उपयुक्त शीर्षक दीजिए। 1
(ख) हमारी सर्वोच्च प्राथमिकता क्या है? और क्यों? 2
(ग) जनसंख्या नियंत्रण के प्रयासों की  असफलता का कारण बताइए। 2
(घ) स्त्री-शिक्षा का लाभ कहाँ उठाया जा सकता है? और कैसे? 2
(ङ) जनसंख्या समस्या के प्रति हमारे दृष्टिकोण में किस बदलाव की जरूरत है तथा इसे रोकने के लिए 
क्या कदम उठाया जाना चाहिए? 2
(च) प्रत्यय पृथककर मूल शब्द भी बताइए – प्राथमिकता, भौतिकवाद। 1

उत्तर  

(ङ) शीर्षक-जनसंख्या पर नियंत्रण।
(ख) हमारी सर्वोच्च प्राथमिकता जनसंख्या वृद्ध रोकना है। इसका कारण यह है कि जनसंख्या की भयावह वृद्ध परिवार, समाज और राष्ट्र के लिए घातक सिद्ध हो रही है। यह पारिवारिक, सामाजिक और राष्ट्रीय उन्नति में बाधक सिद्ध हो रही है। जनसंख्या वृद्ध अनेकानेक समस्याओं की जननी है। यह गरीबी, अशिक्षा, कुपोषण, स्वास्थ्य, संचार तथा आवश्यक सुविधाओं में कमी का कारण बनती है। इसके अलावा यह प्राकृतिक असंतुलन की जड़ बनती है।
(ग) जनसंख्या नियंत्रण के लिए अनेक प्रयास किए गए, पर वे विफल साबित हुए। इसका मुख्य कारण है-जनसंख्या की समस्या के प्रति लोगों की सोच एक जैसी न होना। जनसंख्याशास्त्री इसे आँकड़ों का ढेर 
मानते हैं तो अफसरशाही के लिए यह लक्ष्य तय करने की नियमावली है तो राजनीतिज्ञ इसे अपना वोट बैंक समझते हैं। ये लोग इसे अपने-अपने ढंग से सुलझाने का प्रयास करते हैं।
(घ) स्त्री-शिक्षा का सर्वाधिक लाभ सामाजिक सोच में बदलाव लाने के लिए उठाया जा सकता है। शिक्षित लड़कियों की सोच में अशिक्षित लड़कियों की सोच से अंतर होता है। वे रुढ़िवादी और दकियानूसी बातों का विरोध करती हैं तथा बच्चों को ईश्वर की देन नहीं मानती हैं। इसके अलावा वे यह भी जानती हैं कि बच्चे कम होने पर ही उन्हें पढ़ा-लिखाकर सुयोग्य और आत्मनिर्भर बनाया जा सकता है। इससे सामाजिक और आर्थिक विकास के नए आयाम खुलेंगे।
(ङ) जनसंख्या की समस्या के समाधान के लिए लोगों को अपने रूढ़िवादी और दकियानूसी दृष्टिकोण त्यागकर इसके कारण, इसके दुष्प्रभाव और इसे हल करने संबंधी नए एवं प्रासंगिक दृष्टिकोण अपनाने होंगे। इस सामाजिक समस्या को हल करने के लिए सरकार और जनता दोनों को आगे आना होगा। यह समस्या लगभग हर व्यक्ति से जुड़ी है, अत: जन-आदोलन बनाकर ही इस समस्या को हल किया जा सकता है।
(च) शब्द      मूल शब्द   प्रत्यय 
प्राथमिकता     प्रथम         इक, ता
भौतिकवाद     भूत           इक, वाद

अपठित गद्यांश for Class 11 Hindi Example 19

19. विविध धर्म एक ही जगह पहुँचाने वाले अलग-अलग रास्ते हैं। एक ही जगह पहुँचने के लिए हम अलग-अलग रास्तों से चलें तो इसमें दुख का कोई कारण नहीं है। सच पूछो तो जितने मनुष्य हैं उतने ही धर्म भी हैं। हमें सभी धर्मों के प्रति समभाव रखना चाहिए। इसमें अपने धर्म के प्रति उदासीनता आती हो, ऐसी बात नहीं, बल्कि अपने धर्म पर जो प्रेम है उसकी अंधता मिटती है। इस तरह वह प्रेम ज्ञानमय और ज्यादा सात्विक तथा निर्मल बनता है। मैं इस विश्वास से सहमत नहीं हूँ कि पृथ्वी पर एक धर्म हो सकता है या होगा। इसलिए मैं विविध धर्मों में पाया जाने वाला तत्व खोजने की और इस बात को पैदा करने की कि विविध धर्मावलंबी एक-दूसरे के प्रति सहिष्णुता का भाव रखें, कोशिश कर रहा हूँ। मेरी सम्मति है कि संसार के धर्मग्रंथों को सहानुभूतिपूर्वक पढ़ना प्रत्येक सभ्य पुरुष और स्त्री का कर्तव्य है। अगर हमें दूसरे धर्मों का वैसा आदर करना है जैसा हम उनसे अपने धर्म का कराना चाहते हैं तो संसार के सभी धर्मों का आदरपूर्वक अध्ययन करना हमारा एक पवित्र कर्म हो जाता है।

दूसरे धर्मों के आदरपूर्ण अध्ययन से हिंदू धर्मग्रंथों के प्रति मेरी श्रद्धा कम नहीं हुई। सच तो यह है कि हिंदू शास्त्रों की मेरी समझ पर उनकी गहरी छाप पड़ी है। उन्होंने मेरी जीवन-दृष्टि को विशाल बनाया है। सत्य के अनेक रूप होते हैं, इस सिद्धांत को मैं बहुत पसंद करता हूँ। इसी सिद्धांत ने मुझे, एक मुसलमान को उसके अपने दृष्टिकोण से और ईसाई को उसके स्वयं के दृष्टिकोण से समझना सिखाया है। जिन अंधों ने हाथी का अलग-अलग तरह से वर्णन किया वे सब अपनी दृष्टि से ठीक थे। एक दूसरे की दृष्टि से सब गलत थे और जो आदमी हाथी को जानता था उसकी दृष्टि से सही भी थे और गलत भी थे। जब तक अलग-अलग धर्म मौजूद हैं तब तक प्रत्येक धर्म को किसी विशेष बाहय चिहन की आवश्यकता हो सकती है। लेकिन जब बाहय चिहन केवल आडंबर बन जाते हैं अथवा अपने धर्म को दूसरे धर्मों से अलग बताने के काम आते हैं तब वे त्याज्य हो जाते हैं। धर्मों के भ्रातृ-मंडल का उद्देश्य यह होना चाहिए कि वह एक हिंदू को अधिक अच्छा हिंदू, एक ‘मुसलमान को अधिक अच्छा मुसलमान और एक ईसाई को अधिक अच्छा ईसाई बनाने में मदद करे। दूसरों के लिए हमारी प्रार्थना यह नहीं होनी चाहिए-ईश्वर, तू उन्हें वही प्रकाश दे जो तूने मुझे दिया है, बल्कि यह होनी चाहिए-तू उन्हें वह सारा प्रकाश दे जिसकी उन्हें अपने सर्वोच्च विकास के लिए आवश्यकता है।
प्रश्न

(क) हम धर्मों के प्रति स्वस्थ वृष्टिकोण कैसे अपना सकते हैं? इससे हमें क्या लाभ होंगे? 2
(ख) अन्य धर्मों के अध्ययन से लेखक की जीवन-दृष्टि में क्या बदलाव आया? 2
(ग) धर्म के बाहय चिह्नों के बारे में लेखक का क्या विचार है? ये धर्म चिहन कब त्याज्य 
बन जाते हैं? 2
(घ) लेखक दवारा की जाने वाली प्रार्थना जनसाधारण की प्रार्थना से कैसे अलग होती है? 2
(ङ) हिदू, पुरुष – भाववाचक संज्ञा बताइए। 1
(च) सहिष्णुता, निर्मल – विलोम शब्द लिखिए। 1

उत्तर  

(क) हम धर्मों के प्रति समभाव रखकर स्वस्थ दृष्टिकोण अपना सकते हैं। ऐसा नहीं है कि इससे हम अपने धर्म के प्रति उदासीन होंगे, बल्कि अपने धर्म के प्रति अंधविश्वास तथा उसमें छिपी रूढ़ियाँ, कुरीतियाँ मिटती हैं और अपने धर्म के प्रति प्रेम अधिक सात्विक और निर्मल बन जाता है।
(ख) अन्य धर्मों के अध्ययन से लेखक की हिंदू-धर्म के प्रति श्रद्धा यथावत बनी रही। इसके अलावा हिंदू शास्त्रों की समझ ने उसकी जीवन-दृष्टि को अधिक विशाल तथा उदार बनाया है। इससे वह अधिक धर्मसहिष्णु बन गया और अन्य धर्मों का आदर करने लगा।
(ग) धर्म के बाहय चिहनों के बारे में लेखक का विचार है कि अलग-अलग धर्मों के लिए अलग-अलग बाहय चिहनों की आवश्यकता पड़ सकती है। यही बाहय चिहन जब दूसरे धर्मों से अलगाव के प्रतीक तथा आडंबर मात्र बनकर रह जाते हैं, तब ये त्याज्य बन जाते हैं।
(घ) लेखक द्वारा की जाने वाली प्रार्थना में दूसरों के कल्याण की भावना ही निहित नहीं होती है, बल्कि वह उनके सर्वोच्च विकास के लिए प्रकाश की कामना करता है। इसके विपरीत जनसाधारण अपनी प्रार्थना के माध्यम से अपने ही कल्याण की कामना करते हैं। इस प्रकार यह प्रार्थना जनसाधारण की प्रार्थना से अलग होती है।
(ङ) हिंदुत्व, पौरुष।
(च) कट्टरता, मलिन।

अपठित गद्यांश for Class 11 Hindi Example 20

20. प्रकृति वैज्ञानिक और कवि दोनों की ही उपास्या है। दोनों ही उससे निकटतम संबंध स्थापित करने की चेष्टा करते हैं, किंतु दोनों के दृष्टिकोण में अंतर है। वैज्ञानिक प्रकृति के बाहय रूप का अवलोकन करता और सत्य की खोज करता है. परंतु कवि बाह्य रूप पर मुग्ध होकर भावों का तादात्म्य स्थापित करता है; वैज्ञानिक प्रकृति की जिस वस्तु का अवलोकन करता है, उसका सूक्ष्म निरीक्षम्भ भी करता है। चंद्र को देखकर उसके मस्तिष्क में अनेक विचार उठते हैं। इसका तापक्रम क्या है, कितने वर्षों में वह पूर्णत: शीतल हो जाएगा। ज्वार-भाटे पर इसका क्या प्रभाव होता है, किस प्रकार और किस गति से वह सौर-मंडल में परिक्रमा करता है और किन तत्वों से इसका निर्माण हुआ है।

वह अपने सूक्ष्म निरीक्षण और अनवरत चिंतन से उसको एक लोक ठहराता हैं और उस लोक में स्थित ज्वालामुखी पर्वतों तथा जीवनधारियों की खोज करता है। इसी प्रकार वह एक प्रफुल्लित पुष्प को देखकर उसके प्रत्येक अंग का और वर्ग विभाजन की प्रधानता रहती है। वह सत्य और वास्तविकता का पुजारी होता है। कवि की कविता भी प्रत्यक्षावलोकन से प्रस्फुटित होती है। वह प्रकृति के साथ अपने भावों का संबंध स्थापित करता है। वह उसमें मानव-चेतना का अनुभव करके उसके साथ अपनी आंतरिक भावनाओं का समन्वय करता है। वह तथ्य और भावना के संबंध पर बल देता है। वह नग्न सत्य का उपासक नहीं होता। उसका वस्तु वर्णन हृदय की प्रेरणा का परिणाम होता है, वैज्ञानिक की भाँति मस्तिष्क की यांत्रिक प्रक्रिया नहीं।
प्रश्न

(क) उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
(ख) प्रकृति के प्रति कवि एवं वैज्ञानिक के दृष्टिकोण किस प्रकार भिन्न-भिन्न हैं?’
(ग) वैज्ञानिक चंद्रमा का सूक्ष्म निरीक्षण करते हुए क्या-क्या जानने का प्रयास करता है?
(घ) कवि प्रकृति के साथ कैसा संबंध स्थापित करता है? चंद्रमा के उदाहरण के माध्यम से स्पष्ट कीजिए।
(ङ) कवि की कविता किन स्थितियों में मुखरित हो उठती हैं?
(च) उपसर्ग और प्रत्यय पृथककर मूल शब्द बताइए – प्रस्फुटित, अवलोकना

उत्तर  

(क) शीर्षक-प्रकृति, कवि और वैज्ञानिक।
(ख) यद्यपि कवि एवं वैज्ञानिक दोनों ही प्रकृति की उपासना करते हैं, पर दोनों के दृष्टिकोण में अंतर है। वे दोनों ही प्रकृति से निकट संबंध स्थापित करते हैं, पर उनका ढंग अलग होता है। वैज्ञानिक प्रकृति के बाहय रूप का अवलोकन करता हुआ सत्य की खोज करता है परंतु कवि प्रकृति के बाहय रूप पर मुग्ध होकर भावों का तादात्म्य स्थापित करता है।
(ग) चंद्रमा का सूक्ष्म निरीक्षण करते हुए वैज्ञानिक निम्नलिखित तथ्यों को जानने का प्रयास करता है
1. चंद्रमा का तापमान क्या है तथा वह कितने वर्षों में शीतल हो जाएगा।
2. इस पर ज्वार-भाटे का क्या प्रभाव होगा।
3. वह किस गति से सौर-मंडल में परिक्रमा करता है।
4. उसका निर्माण किन तत्वों से हुआ है तथा वहाँ स्थित ज्वालामुखी पर्वतों और जीवधारियों के बारे में 
जानने का प्रयास करता है।
(घ) कवि प्रकृति के साथ भावपूर्ण संबंध स्थापित करता है। वह प्रकृति के बाहय रूप-रंग पर मुग्ध हो जाता है। वह वैज्ञानिक जैसा सूक्ष्म निरीक्षण नहीं करता है। एक कवि जब चंद्रमा को देखता है तो उसके आकार और सुंदरता पर मुग्ध हो जाता है। वह अन्य सुंदर वस्तुओं से उसकी तुलना करते हुए उसे अपनी कृतियों का वण्र्य विषय बनाता है और नाना प्रकार से उसका वर्णन करता है।
(ङ) कवि प्रकृति की विभिन्न सुंदर वस्तुओं के साथ भावों का संबंध स्थापित करता है। वह उसमें मानव-चेतना का अनुभव करके उसके साथ आतरिक भावनाओं का समन्वय करता है। वह तथ्य और भावना के संबंध पर बल देता है। उसके हृदय में वस्तु-वर्णन की प्रेरणा उमड़ने लगती है। इस प्रकार प्रत्यावलोकन से कविता 
मुखरित हो उठती है।
(च) शब्द      उपसर्ग     मूल शब्द          प्रत्यय
प्रस्फुटित        प्र              स्फुटन               इत
अवलोकन      अव           लोक                 अन

21. यह हमारी एकता का ही प्रमाण है कि उत्तर या दक्षिण चाहे जहाँ भी चले जाइए, आपको जगह-जगह पर एक ही संस्कृति के मंदिर दिखाई देंगे, एक ही तरह के आदमियों से मुलाकात होगी जो चंदन लगाते हैं, स्नान-पूजा करते हैं. तीर्थ-व्रत में विश्वास करते हैं अथवा जो नयी रोशनी को अपना लेने के कारण इन बातों को कुछ शंका की दृष्टि से देखते हैं। उत्तर भारत के लोगों का जो स्वभाव है, जीवन को देखने की उनकी जो दृष्टि है, वही स्वभाव और वही दृष्टि दक्षिण वालों की भी है। भाषा की दीवार के टूटते ही एक उत्तर भारतीय और एक दक्षिण भारतीय के बीच कोई भी भेद नहीं रह जाता और वे आपस में एक-दूसरे के बहुत करीब आ जाते हैं। असल में भाषा की दीवार के आर-पार बैठे हुए भी वे एक ही हैं।

वे एक धर्म के अनुयायी और संस्कृति की एक ही विरासत के भागीदार हैं, उन्होंने देश की आजादी के लिए एक होकर लड़ाई लड़ी और आज उनकी पार्लियामेंट और शासन-विधान भी एक है। और जो बात हिंदुओं के बारे में कही जा रही है, वही बहुत दूर तक मुसलमानों के बारे में भी कही जा सकती है। देश के सभी कोनों में बसने वाले मुसलमानों के भीतर जहाँ एक धर्म को लेकर एक तरह की आपसी एकता है, वहाँ वे संस्कृति की दृष्टि से हिंदुओं के भी बहुत करीब हैं, क्योंकि ज्यादा मुसलमान तो ऐसे ही हैं, जिनके पूर्वज हिंदू थे और जो इस्लाम-धर्म में जाने के समय अपनी हिंदू-आदतें अपने साथ ले गए।

इसके सिवा अनेक सदियों तक हिंदू-मुसलमान साथ रहते आए हैं और इस लंबी संगति के फलस्वरूप उनके बीच संस्कृति और तहज़ीब की बहुत-सी समान बातें पैदा हो गई हैं जो उन्हें दिनों-दिन आपस में नजदीक लाती जा रही हैं। धार्मिक विश्वास की एकता मनुष्यों की सांस्कृतिक एकता को जरूर पुष्ट करती है। इस दृष्टि से एक तरह की एकता तो वह है जो हिंदू समाज में मिलेगी। लेकिन धर्म के केंद्र से बाहर जो संस्कृति की विशाल परिधि है, उसके भीतर बसने वाले सभी भारतीयों के बीच एक तरह की सांस्कृतिक एकता भी है जो उन्हें दूसरे देशों के लोगों से अलग करती है। संसार के हर एक देश पर अगर हम अलग-अलग विचार करें तो हमें पता चलेगा कि प्रत्येक देश की एक निजी सांस्कृतिक विशेषता होती है जो उस देश के प्रत्येक निवासी की चाल-ढाल, बातचीत, रहन-सहन, खान-पान, तौर-तरीके और आदतों से टपकती रहती है। चीन से आने वाला आदमी विलायत से आने वालों के बीच नहीं छिप सकता और यद्यपि अफ्रीका के लोग भी काले ही होते हैं, मगर वे भारतवासियों के बीच नहीं खप सकते।
प्रश्न

(क) भारत की विविधता में भी एकता छिपी है-स्पष्ट कीजिए। 2
(ख) ‘भाषा का अंतर होने पर भी उत्तर और दक्षिण भारतीय एक हैं’-स्पष्ट कीजिए। 2
(ग) उन तथ्यों का उल्लेख कीजिए जो हिंदू और मुसलमानों में निकटता बढ़ाने में सहायक रहे हैं? 2
(घ) किसी देश की सांस्कृतिक एकता के दर्शन कहाँ-कहाँ होते हैं? उदाहरण सहित बताइए। 2
(ङ) उपर्युक्त गदयांश का उपयुक्त शीर्षक बताइए। 1
(च) ‘इस दृष्टि से एक तरह की एकता तो वह है जो हिंदू समाज में मिलेगी।’-उपवाक्य और उसका भेद 
बताइए। 1

उत्तर  

(क) भारत में उत्तर से दक्षिण तक एक ही संस्कृति के मंदिर, चंदन लगाने वाले, पूजा-पाठ करने वाले, तीर्थ-व्रत में विश्वास करने वाले लोग मिल जाते हैं। उनकी जीवन-दृष्टि और स्वभाव भी एक समान मिलते हैं। इससे भारत की विविधता में भी एकता के दर्शन होते हैं।
(ख) उत्तर और दक्षिण भारतीयों के बीच भाषा की दीवार खड़ी है जो उनमें अंतर पैदा करती है, पर भाषा को छोड़ दें तो उत्तर और दक्षिण भारतीय के बीच कोई अंतर नहीं रह जाता है क्योंकि वे एक ही धर्म के अनुयायी और एक ही सांस्कृतिक विरासत के भागीदार हैं। उनके एक होने का प्रमाण यह भी है कि आजादी की लड़ाई उन्होंने साथ-साथ लड़ी और उनकी पार्लियामेंट भी एक है। इस प्रकार उत्तर और दक्षिण भारतीय एक हैं।
(ग) हिंदू और मुसलमानों में निकटता बढ़ाने वाले कथ्य हैं; जैसे-
1. मुसलमानों की संस्कृति हिंदुओं के काफी निकट है, क्योंकि उनके पूर्वज एक थे।
2. पूर्व में इसलाम धर्म अपनाने वाले हिंदू अपनी आदतें भी अपने साथ ले गए।
3.हिंदू-मुसलमान सैकड़ों वर्षों तक साथ-साथ रहे हैं।
4. सदियों तक हिंदू -मुसलमानों के साध रहने के कारण उनकी सिम्स्कृति और तहजीब में बहुत-सी सामान बातें पैदा हो गई।
(घ) किसी देश की सांस्कृतिक एकता के दर्शन वहाँ के निवासियों की चाल-ढाल, बातचीत, रहन-सहन, खान-पान, तौर-तरीकों और आदतों में होते हैं। उदाहरणार्थ चीन से आने वाला आदमी इंग्लैंड से आने वालों के बीच नहीं छिप सकता है। यद्यपि दक्षिण अफ्रीका के लोग कुछ भारतीयों की तरह काले होते हैं, पर भारतीयों में स्पष्ट रूप से अलग नजर आते हैं।
(ङ) विविधता में एकता।
(च) उपवाक्य-जो हिंदू समाज में मिलेगी।
भेद-विशेषण उपवाक्य।

22. पर जैसा जानकारों ने बताया, कभी वह पेड़ हरा था, उसकी जड़ें धरती की नरम-नरम मिट्टी से दबी थीं और उसकी छतनार डालें आकाश में ऐसी फैली हुई थीं जैसे विशाल पक्षी के डैने और उन डालियों के कोटरों में अनगिनत घोंसले थे। पनाह के नीड़, बसेरे। दूर बियाबाँ से लौटकर पक्षी उनमें बसेरा करते, रात की भीगी गहराई में खोकर सुबह दिशाओं की ओर उड़ जाते। और मैं जो उस पेड़ के लुंठपन पर कुछ दुखी हो चुप हो जाता तो वह जानकार कहता, उसने वह कथा कितनी ही बार कही, आँखों देखी बात है, इस पेड़ की सघन छाया में कितने बटोहियों ने गए प्राण पाए हैं, कितने ही सूखे हरे हुए हैं। सुनो उसकी कथा, सारी बताता हूँ और उसने बताया, जलती दुपहरी में मरीचिका की नाचती आग के बीच यह पेड़ हरा-भरा झूमा पत्तों के विस्तृत ताज को सिर से उठाए।

आँधी और तूफान में उसकी डालें एक-दूसरे से टकरातीं, टहनियाँ एक-दूसरे में गुँथ जातीं और जब तपी धरती  बादलों की झरती झींसी रोम-रोम से पीती और रोम-रोम सजीव कर उनमें से लता प्रतानों के अंकुर फोड़ देती तब पेड़ जैसे मुस्कराता और बढ़ती लताओं की डाली रूपी भुजाओं से जैसे उठाकर भेंट लेता। उस विशाल तरु में तब बड़ा रस था। उसकी टहनी-टहनी, डाली-डाली, पोर-पोर में रस था और छलका-छलका वह लता वल्लरियों को निहाल कर देता। अनंत लताएँ, अनंत वल्लरियाँ पावस में उसके अंग-अंग से, उसकी फूटती संधियों से लिपटी रहतीं और देखने वाले बस उसके सुख को देखते रह जाते। और मेरा वह जानकार बुजुर्ग एक लंबी साँस लेकर थका-सा कह चलता कि तुम क्या जानो, जिसने केवल पावस पीले झड़ते पत्ते न देखे? फिर एक दिन, एक साल कुछ ऐसा हुआ कि जैसे सब कुछ बदल गया। जहाँ वसंत के 

आते ही पत्रों के से कोमल पत्ते उस वृक्ष की टहनियों से हवा में डोलने लगते थे, वहाँ उस साल फिर वे पत्ते न डोले, वे टहनियाँ सूख चलीं। दूर दिशाओं से आकर उस पेड़ की नीड़ों में विश्राम करने वाले पक्षी उसकी छतनार डालों से उड़ गए। जहाँ अनंत-अनंत कोयलें कूका करती थीं। बौराई फुनगियों पर भौंरों की काली पंक्तियाँ मैंडराया करती थीं, सहसा उस पेड़ का रस सूख चला। और जैसे उसे बसेरा लेने वाले पक्षी छोड़ चले, जैसे कूकती कोयले, टेरते पपीहे, मैंडराते भौंरे उसके अनजाने हो जाए। वैसे ही लता वल्लरियाँ उसके स्कंध देश से, उसकी फैली मजबूत डालियों से, उसकी मदमाती झूमती टहनियों से धीरे-धीरे उतर गई, कुछ सूख गई मर गई। उस लता-संपदा के बीच फिर भी एक मधुर पुष्पवती पराग भरी वल्लरी उससे लिपटी रही और ऐसी कि लगता कि प्रकृति के परिवर्तन उस पर असर नहीं करते। वासंती जैसे सारी त्रुटियों में रसभरी वासंती बनी रहती। सहकार वृक्ष से लिपटी वल्लरियों की उपमा कवियों ने अनेकानेक दी हैं। पर वह तो साहित्य और कल्पना की बात थी, उसे कभी चेता न था, पर चेता मैंने उसे अब, जब उस एकांत वल्लरी को उस प्रकांड तरु से लिपटे पाया।
प्रश्न

(क) हरे पेड़ की डालें कैसी दिखती थीं? ऐसे में वृक्ष किनका आश्रयदाता बना हुआ था?
(ख) वर्षा ऋतु में वृक्ष के सुखमय दिनों का वर्णन कीजिए।
(ग) ‘जैसे सब कुछ बदल गया”-यहाँ किसका सब कुछ किस तरह बदल गया था?
(घ) बादलों की फुहार का वृक्ष के विभिन्न अंगों पर क्या प्रभाव पड़ता था?
(ङ)  तदभव शब्द लिखे – स्कध, पत्र।
(च) उपर्युक्त गदयांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए।

उत्तर  

(क) हरे वृक्ष की फैली डालियाँ पक्षियों के खुले विशाल पंखों जैसी दिखती थीं। उन डालियों के कोटरों में अनगिनत घोंसले बने होते थे। दूर-दूर से लौटकर पक्षी उन घोंसलों में रहते, रातभर विश्राम करते और सवेरे उड़ जाते थे। इस प्रकार वृक्ष पक्षियों का आश्रयदाता बना हुआ था।
(ख) वर्षा ऋतु में उस वृक्ष के अंग-अंग में रस छलक उठता था, जिसे देख लता-वल्लरियाँ पुलकित हो उठती थीं और वृक्ष के अंग-अंग से, उसकी फूटती संधियों से लिपटी रहतीं। देखने वाले बस उसके सुख को देखते रह जाते।
(ग) यहाँ हरे-भरे आम के वृक्ष का सब कुछ बदल गया। उसके पत्ते और टहनियाँ सूख गई। पक्षी उसे छोड़ चले। भौंरे उस ओर आना भूल गए। अब वहाँ अनंत-अनंत कोयलों ने कूकना बंद कर दिया। उस पेड़ का रस सूख गया था और उसकी मजबूत डालियों से लता-वल्लरियाँ उतर चुकी थीं।
(घ) बादलों की फुहार से –
1. उसके लता-प्रतानों में अंकुर फूट पड़ते।
2. वृक्ष के अंग-अंग रस से भर उठते थे।
3. अनंत लताएँ और बल्लरियाँ उसके अंग-अंग से लिपटी रहती थीं।
4. उसका सुख कई गुना बढ़ जाता था।
(ङ) कधा, पत्ता।
(च) शीर्षक – दूँठा आम। 

23. तत्ववेत्ता शिक्षाविदों के अनुसार विद्या दो प्रकार की होती है। प्रथम वह, जो हमें जीवनयापन के लिए अर्जन करना सिखाती है और द्रवितीय वह, जो हमें जीना सिखलाती है। इनमें से एक का भी अभाव जीवन को निरर्थक बना देता है। बिना कमाये जीवन-निर्वाह संभव नहीं। कोई भी नहीं चाहेगा कि वह परावलंबी हो, माता-पिता, परिवार के किसी सदस्य, जाति या समाज पर। ऐसी विद्या से विहीन व्यक्ति का जीवन दूभर हो जाता है, वह दूसरों के लिए भार बन जाता है। साथ ही दूसरी विद्या के बिना सार्थक जीवन नहीं जिया जा सकता। बहुत अर्जित कर लेने वाले व्यक्ति का जीवन यदि सुचारु रूप से नहीं चल रहा, उसमें यदि वह जीवन-शक्ति नहीं है, जो उसके अपने जीवन को तो सत्यपथ पर अग्रसर करती ही है, साथ ही न अपने समाज, जाति एवं राष्ट्र के लिए भी मार्गदर्शन करती है, तो उसका जीवन भी मानव-जीवन का अभिधान नहीं पा सकता। वह भारवाही गर्दभ बन जाता है या पूँछ-सींग-विहीन पशु कहा जाता है।

वर्तमान भारत में पहली विद्या का प्राय: अभाव दिखाई देता है, परंतु दूसरी विद्या का रूप भी विकृत ही है, क्योंकि न तो स्कूल-कॉलेजों में शिक्षा प्राप्त कर के निकला छात्र जीविकार्जन के योग्य बन पाता है और न ही वह उन संस्कारों से युक्त हो पाता है; जिनसे व्यक्ति ‘कु’ से ‘सु’ बनता है; सुशिक्षित, सुसभ्य और सुसंस्कृत कहलाने का अधिकारी होता है। वर्तमान शिक्षा के अंतर्गत हम जो विद्या प्राप्त कर रहे हैं, उसकी विशेषताओं को सर्वथा नकारा भी नहीं जा सकता। राह शिक्षा कुछ सीमा तक हमारे दृष्टिकोण को विकसित भी करती है, हमारी मनीषा को प्रबुद्ध बनाती है तथा भावनाओं को चेतन करती है, कितु कला, शिल्प, प्रौद्योगिकी आदि की शिक्षा नाममात्र की होने के फलस्वरूप इस देश के स्नातक के लिए जीविकार्जन टेढ़ी खीर बन जाता है और बृहस्पति बना युवक नौकरी की तलाश में अर्जियाँ लिखने में ही अपने जीवन का बहुमूल्य समय बर्बाद कर लेता है। जीवन के सर्वागीण विकास को ध्यान में रखते हुए यदि शिक्षा के क्रमिक सोपानों पर विचार किया जाए तो भारतीय विद्यार्थी को सर्वप्रथम इस प्रकार की शिक्षा दी जानी चाहिए जो आवश्यक हो, दूसरी जो उपयोगी हो और तीसरी जो हमारे जीवन को परिष्कृत एवं अलंकृत करती हो। ये तीनों सीढ़ियाँ एक के बाद एक आती हैं, इनमें व्यतिक्रम नहीं होना चाहिए। इस क्रम में व्याघात आ जाने से मानव-जीवन का चारु प्रासाद खड़ा करना असंभव है। यह तो भवन की छत बनाकर नींव बनाने के सदृश है। वर्तमान भारत में शिक्षा की अवस्था देखकर ऐसा प्रतीत होता है। प्राचीन भारतीय दार्शनिकों ने ‘अन्न’ से ‘आनंद’ की ओर बढ़ने को जो ‘विद्या का सार’ कहा था, वह सर्वथा समीचीन ही था।
प्रश्न

(क) उपयुक्त शीर्षक दीजिए। 1
(ख) विदया कितने प्रकार की होती है? मानव के लिए उसकी उपयोगिता पर प्रकाश डालिए। 2
(ग) सार्थक जीवन जीने का अभिप्राय स्पष्ट करते हुए बताइए कि मानव की संज्ञा पाने के लिए क्या करना 
चाहिए? 2
(घ) वर्तमान शिक्षा पदधति कितनी प्रासंगिक है? स्पष्ट कीजिए। 2
(ङ) भारतीय विद्यार्थियों को दी जाने वाली शिक्षा के सोपान बताइए तथा इनका अनुपालन न करने का 
क्या दुष्परिणाम होगा? 2
(च) विलोम बताइए — सार्थक, विकास। 1

उत्तर  

(क) शीर्षक-शिक्षा के सोपान।
(ख) विद्य दो प्रकार की होती है। पहली वह, जो मनुष्य को जीवनयापन के लिए अर्जन करने योग्य बनाती है और दूसरी वह, जो अच्छे ढंग से जीना सिखाती है। मानव के लिए विद्या की उपयोगिता यह है कि जीवनयापन के लिए अर्जन करने में अक्षम व्यक्ति समाज पर बोझ बनकर रह जाता है तथा दूसरी विद्या के अभाव में व्यक्ति सार्थक जीवन नहीं जी सकता है।
(ग) सार्थक जीवन जीने का अभिप्राय है-सुचारु रूप से जीवन जीना। सार्थक जीवन जीने वाले व्यक्ति में वह जीवन-शक्ति होनी चाहिए जो उसके जीवन को सत्यपथ पर अग्रसर करने के अलावा अपने समाज, जाति एवं राष्ट्र के लिए भी मार्गदर्शन करती है, तभी वह मानव की संज्ञा पा सकता है। ऐसा न होने पर वह भारवाही गधा या सींग-पूँछ रहित पशु बनकर रह जाता है।
(घ) हमारे देश की वर्तमान शिक्षा-पद्धति अप्रसांगिक बनकर रह गई है। इसका कारण यह है कि ऊँची-ऊँची डिग्रियाँ लेने के बाद भी युवावर्ग अपनी रोजी-रोटी कमाने में असमर्थ पाता है। आजकल स्नातक के लिए भी जीविकोपार्जन करना कठिन हो गया है। इसके अलावा यह शिक्षा-पद्धति छात्रों को सुयोग्य नागरिक भी नहीं बना पाती है। उसमें ‘कु’ से ‘सु’ बनने के संस्कार नहीं आ पाते हैं।
(ङ) भारतीय विद्यार्थियों को दी जाने वाली शिक्षा के क्रमिक सोपान इस प्रकार होना चाहिए
1. छात्र को आवश्यक शिक्षा दी जानी चाहिए।
2. छात्र को दी जाने वाली शिक्षा उपयोगी होनी चाहिए।
3. शिक्षा जीवन को परिष्कृत एवं अलंकृत करने वाली होनी चाहिए। इन सोपानों का अनुपालन न करने पर मानवजीवन का सुंदर महल खड़ा करना कठिन है। ऐसा करना ठीक उसी तरह होगा, जैसे छत बनाने के बाद मजबूत नींव बनाने का असफल प्रयास करना।
(च) शब्द         विलोम
सार्थक             निरर्थक
विकास             हास

24. प्रजातंत्र के तीन मुख्य अंग हैं- कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका। प्रजातंत्र की सार्थकता एवं दृढ़ता को ध्यान  में रखते हुए और जनता के प्रहरी होने की भूमिका को देखते हुए मीडिया (दृश्य, श्रव्य और मुद्रित) को भी प्रजातंत्र के चौथे स्तंभ के रूप में देखा जाता है। समाचार-माध्यम या मीडिया को पिछले वर्षों में पत्रकारों और समाचार-पत्रों ने एक विश्वसनीयता प्रदान की है और इसी कारण विश्व में मीडिया एक अलग शक्ति के रूप में उभरा है। कार्यपालिका और विधायिका की समस्याओं, कार्यप्रणाली और विसंगतियों की चर्चा प्राय: होती रहती है और सर्वसाधारण में वे विशेष चर्चा में रहते ही हैं। इसमें समाचार-पत्र, रेडियो और टी.वी. समाचार अपनी टिप्पणी के कारण चर्चा को आगे बढाने में योगदान करते हैं, पर न्यायपालिका अत्यंत महत्वपूर्ण होने के बावजूद उसके बारे में चर्चा कम ही होती है।

ऐसा केवल अपने देश में ही नहीं, अन्य देशों में भी कमोबेश यही स्थिति है। स्वराज-प्राप्ति के बाद और एक लिखित संविधान के देश में लागू होने के उपरांत लोकतंत्र के तीनों अंगों के कर्तव्यों, अधिकारों और दायित्वों के बारे में जनता में जागरूकता बढ़ी है। संविधान निर्माताओं का उद्देश्य रहा है कि तीनों अंग परस्पर ताल-मेल से कार्य करेंगे। तीनों के पारस्परिक संबंध भी संविधान द्वारा निर्धारित हैं, फिर भी समय के साथ-साथ कुछ समस्याएँ उठ खड़ी होती हैं। आज लोकतंत्र यह महसूस करता है कि न्यायपालिका में भी अधिक पारदर्शिता हो, जिससे उसकी प्रतिष्ठा और सम्मान बढ़े। ‘जिस देश में पंचों को परमेश्वर मानने की परंपरा हो, वहाँ न्यायमूर्तियों पर आक्षेप दुर्भाग्यपूर्ण है।”
प्रश्न

(क) लोकतंत्र के मुख्य तीनों अंगों का नामोल्लेख कीजिए। इसके चौथे अंग का नामोल्लेख करते हुए उसकी भूमिका स्पष्ट कीजिए। 2
(ख) अत्यंत महत्वपूर्ण अंग होने के बावजूद न्यायपालिका के बारे में मीडिया में कम चर्चा क्यों होती है?2
(ग) ‘पारदर्शिता’ से क्या तात्पर्य है? लोकतंत्र न्यायपालिका में अधिक पारदर्शिता क्यों चाहता है? 2
(घ) आशय स्पष्ट कीजिए-‘जिस देश में पंचों को परमेश्वर मानने की परंपरा हो, वहाँ न्यायमूर्तियों पर आक्षेप दुर्भाग्यपूर्ण हैं’। 2
(ङ) उपर्युक्त गद्यांश के लिए एक उपयुक्त शीर्षक दीजिए। 1
(च) वाक्य में प्रयोग कीजिए – मर्यादा, विसंगति। 1

उत्तर  

(क) लोकतंत्र के तीन मुख्य अंग हैं-कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका। चौथा अंग मीड़िया को माना जाता है। इसमें दृश्य, श्रव्य व मुद्रित माध्यम होते हैं। लोकतंत्र में मीडिया की अहम भूमिका है। यह कार्यपालिका व विधायिका की समस्याओं, कार्यप्रणाली तथा विसंगतियों की चर्चा करती है।
(ख) न्यायपालिका प्रजातंत्र का अत्यंत महत्वपूर्ण अंग है, परंतु इसकी चर्चा मीडिया में कम होती है, क्योंकि इसमें पारदर्शिता अधिक होती है। दूसरे न्यायपालिका अपने विशेषाधिकारों के प्रयोग से मीडिया को दबा देती है।
(ग) ‘पारदर्शिता’ का अर्थ है-आर-पार दिखाई देना या संदेह में न रखना। न्यायपालिका लोकतंत्र की रक्षक है, परंतु न्यायाधीशों पर आक्षेप लगने लगे हैं। अत: लोकतंत्र न्यायपालिका में पारदर्शिता चाहता है, जिससे उसकी प्रतिष्ठा और सम्मान बढ़े।
(घ) इसका अर्थ है कि भारत में न्यायाधीशों को ईश्वर के बराबर का दर्जा दिया जाता था, क्योंकि वे पक्षपातपूर्ण निर्णय नहीं देते थे, आजकल न्यायाधीशों के निर्णयों व कार्यप्रणालियों पर आरोप लगाए जाने लगे हैं। यह गलत परंपरा की शुरुआत है।
(ङ) शीर्षक-मीडिया और लोकतंत्र।
(च) हर व्यक्ति को अपनी मर्यादा में रहना चाहिए।
सरकार ने वेतन-विसंगति दूर करने का वायदा किया।

25. संस्कृतियों के निर्माण में एक सीमा तक देश और जाति का योगदान रहता है। संस्कृति के मूल उपादान तो प्राय: सभी सुसंस्कृत और सभ्य देशों के एक सीमा तक समान रहते हैं, किंतु बाहय उपादानों में अंतर अवश्य आता है। राष्ट्रीय या जातीय संस्कृति का सबसे बड़ा योगदान यही है कि वह हमें अपने राष्ट्र की परंपरा से संपृक्त बनाती है, अपनी रीति-नीति की संपदा से विच्छिन्न नहीं होने देती। आज के युग में राष्ट्रीय एवं जातीय संस्कृतियों के मिलन के अवसर अति सुलभ हो गए हैं, संस्कृतियों का पारस्परिक संघर्ष भी शुरू हो गया है। कुछ ऐसे विदेशी प्रभाव हमारे देश पर पड़ रहे हैं, जिनके आतंक ने हमें स्वयं अपनी संस्कृति के प्रति शंकालु बना दिया है। हमारी आस्था डिगने लगी है।

यह हमारी वैचारिक दुर्बलता का फल है। अपनी संस्कृति को छोड़, विदेशी संस्कृति के विवेकहीन अनुकरण से हमारे राष्ट्रीय गौरव को जो ठेस पहुँच रही है, वह किसी राष्ट्रप्रेमी जागरूक व्यक्ति से छिपी नहीं है। भारतीय संस्कृति में त्याग और ग्रहण की अद्भुत क्षमता रही है। अत: आज के वैज्ञानिक युग में हम किसी भी विदेशी संस्कृति के जीवंत तत्वों को ग्रहण करने में पीछे नहीं रहना चाहेंगे, किंतु अपनी सांस्कृतिक निधि की उपेक्षा करके नहीं। यह परावलंबन राष्ट्र की गरिमा के अनुरूप नहीं है। यह स्मरण रखना चाहिए कि सूर्य की आलोकप्रदायिनी किरणों से पौधे को चाहे जितनी जीवनशक्ति मिले, किंतु अपनी जमीन और अपनी जड़ों के बिना कोई पौधा जीवित नहीं रह सकता। अविवेकी अनुकरण अज्ञान का ही पर्याय है।
प्रश्न

(क) आधुनिक युग में संस्कृतियों में परस्पर संघर्ष प्रारंभ होने का प्रमुख कारण बताइए। 2
(ख) हम अपनी संस्कृति के प्रति शंकालु क्यों हो गए? 2.
(ग) संस्कृति के निर्माण में किनका योगदान होता है? राष्ट्रीय संस्कृति की हमारे प्रति सबसे बड़ी देन क्या है। 2
(घ) हम अपनी सांस्कृतिक संपदा की उपेक्षा क्यों नहीं कर सकते? सोदाहरण स्पष्ट कीजिए। 2
(ङ) गदयांश का उपयुक्त शीर्षक दीजिए। 1
(च) प्रत्यय और मूल शब्द बताइए – जातीय, सांस्कृतिक। 1

उत्तर  

(क) आधुनिक युग में संस्कृतियों में परस्पर संघर्ष प्रारंभ होने का प्रमुख कारण यह है कि आज के युग में राष्ट्रीय एवं जातीय संस्कृतियों के मिलन के अवसर अति सुलभ हो गए हैं। भिन्न संस्कृतियों के निकट आने के कारण परस्पर विरोध एवं अतिक्रमण होना स्वाभाविक है।
(ख) वर्तमान में विभिन्न संस्कृतियों के मिलन के अवसर बहुत अधिक बढ़ गए हैं। इस कारण एक संस्कृति का प्रभाव दूसरे पर पड़ना स्वाभाविक है। इससे अपनी संस्कृति के प्रति हमारी आस्था कमजोर हुई है। अपनी वैचारिक दुर्बलता के कारण हम अपनी संस्कृति के प्रति शंकालु हो उठे हैं और अपनी संस्कृति को छोड़कर विदेशी संस्कृति का विवेकहीन अनुकरण करना शुरू कर दिया है।
(ग) विभिन्न प्रकार की संस्कृतियों के निर्माण में एक सीमा तक देश और वहाँ बसने वाली जातियों का योगदान रहता है। इसके मूल उपादान तो समान परंतु बाहय उपादानों में अंतर होता है। राष्ट्रीय संस्कृति का सबसे बड़ा योगदान यही है कि वह हमें अपने राष्ट्र की परंपराओं से जोड़े रखती है और अपनी रीतियों-नीतियों से अलग नहीं होने देती है।
(घ) हम अपनी सांस्कृतिक संपदा की उपेक्षा इसलिए नहीं कर सकते हैं क्योंकि ऐसा करना परावलंबन होगा जो राष्ट्र की गरिमा के अनुरूप नहीं होता है। ऐसा करने से हमारी स्थिति उस जडविहीन पौधे के समान हो जाएगी, जिसे सूर्य भरपूर जीवनशक्ति देता है, फिर भी वह सूख जाता है क्योंकि वह अपनी जड़ और जमीन खो चुका होता है।
(ङ) शीर्षक-भारतीय संस्कृति का वैचारिक संघर्ष।
(च) शब्द      मूल शब्द      प्रत्यय
जातीय            जाति             ईय
सांस्कृतिक      संस्कृति         इक

26. विश्व के प्राय: सभी धर्मों में अहिंसा के महत्व पर प्रकाश डाला गया है। भारत के सनातन हिंदू धर्म और जैन धर्म के सभी ग्रंथों में अहिंसा की विशेष प्रशंसा की गई है। ‘अष्टांग योग’ के प्रवर्तक पंतजलि ऋषि ने योग के आठों अंगों में प्रथम अंग ‘यम’ के अंतर्गत ‘अहिंसा’ को प्रथम स्थान दिया है। इसी प्रकार ‘गीता’ में भी अहिंसा के महत्व पर जगह-जगह पर प्रकाश डाला गया है। भगवान महावीर ने अपनी शिक्षाओं का मूलाधार अहिंसा को बताते हुए ‘जियो और जीने दो’ की बात कही है। अहिंसा मात्र हिंसा का अभाव ही नहीं, अपितु किसी भी जीव का संकल्पपूर्वक वध नहीं करना और किसी जीव या प्राणी को अकारण दुख नहीं पहुँचाना है। ऐसी जीवन-शैली अपनाने का नाम ही ‘अहिंसात्मक जीवन-शैली’ है।

अकारण या बात-बात में क्रोध आ जाना हिंसा की प्रवृत्ति का एक प्रारंभिक रूप है। क्रोध मनुष्य को अंधा बना देता है, वह उसकी बुद्ध का नाश कर उसे अनुचित कार्य करने को प्रेरित करता है, परिणामत: दूसरों को दुख और पीड़ा पहुँचाने का कारण बनता है। सभी प्राणी मेरे लिए मित्रवत हैं। मेरा किसी से बैर नहीं है, ऐसी भावना होने पर अह जनित क्रोध समाप्त हो जाएगा और हमारे मन में क्षमा का भाव पैदा होगा। क्षमा का यह उदात्त भाव हमें हमारे परिवार से सामंजस्य कराने व पारस्परिक प्रेम को बढ़ावा देने में अहम भूमिका निभाता है। हमें ईष्र्या द्वारा द्वेष रहित होकर लोभवृत्ति का त्याग करते हुए संयमित खान-पान तथा व्यवहार एवं क्षमा की भावना को जीवन में उचित स्थान देते हुए अहिंसा का एक ऐसा जीवन जीना है कि हमारी जीवन-शैली एक अनुकरणीय आदर्श बन जाए।
प्रश्न

(क) किन-किन ग्रंथों में और किस तरह अहिंसा का महत्व प्रतिपादित किया गया है? 2
(ख) लेखक ने अहिंसा की परिधि को किस प्रकार विस्तारित किया है? 2
(ग) क्रोध क्या है? मनुष्य के लिए यह किस प्रकार घातक बन जाता है?2
(घ) मनुष्य अपनी जीवन-शैली को कैसे अनुकरणीय बना सकता है? 2
(ङ) ‘जगह-जगह’, ‘खानपान’ – विग्रह कर समास का नाम लिखिए। 1
(च) ‘प्रवर्तक’, ‘अनुकरणीय’ शब्दों के अर्थ लिखिए। 1

उत्तर  

(क) हिंदू धर्म और जैन धर्म के सभी ग्रंथों में अहिंसा की विशेष रूप से प्रशंसा करते हुए हिंसा को त्याज्य तथा निंदनीय बताया गया है। ‘अष्टांग योग’ के प्रवर्तक पतंजलि ऋषि ने योग के आठों भाग में प्रथम अंग ‘यम’ में हिंसा को प्रथम स्थान दिया है। इसी प्रकार गीता में जगह-जगह इसकी महत्ता का प्रतिपादन किया गया है।
(ख) लेखक के अनुसार हिसा का अभाव ही अहिंसा नहीं है, बल्कि किसी भी प्राणी का संकल्पपूर्वक वध करना या उसको बिना कारण दुख पहुँचाना भी हिंसा की श्रेणी में आता है। इस प्रकार उसने अहिंसा की परिधि का विस्तार किया है।
(ग) क्रोध हिंसा की प्रवृत्ति का प्रारंभिक रूप है। यह मनुष्य की बुद्ध का नाश कर उसकी सोचने-विचारने की क्षमता को प्रभावित करता है। इससे व्यक्ति उचित-अनुचित का निर्णय नहीं ले पाता है। बुद्ध नष्ट करके क्रोध व्यक्ति को अनुचित कार्य करने की प्रेरणा देता है। यही क्रोध दूसरों को दुख और पीड़ा पहुँचाने का कारण बन जाता है। क्रोध करने वाला मनुष्य सबकी नजरों से गिरकर उपेक्षा का पात्र बन जाता है।
(घ) मनुष्य क्षमाशील बनकर पारिवारिक सामंजस्य और पारस्परिक प्रेम को बढ़ावा दे सकता है। वह ईष्या, द्वेष तथा लोभ को त्यागकर खान-पान एवं व्यवहार को संयमित करे तथा जीवन में अहिंसा का पालन करे। इस प्रकार वह अपनी जीवन शैली को अनुकरणीय बना सकता है।
(ङ) जगह-जगह – प्रत्येक जगह-अव्ययीभाव समास।
खान-पान – खान और पान-द्वंद्व समास।
(च) प्रवर्तक – प्रवृत्त करने वाला।
अनुकरणीय – अनुकरण करने योग्य।

27. परियोजना शिक्षा का एक बहुत ही महत्वपूर्ण अंग है। इसे तैयार करने में किसी खेल की तरह का ही आनंद मिलता है। इस तरह परियोजना तैयार करने का अर्थ है-खेल-खेल में बहुत कुछ सीख जाना। उदाहरण के लिए, ऊपर कही गई। दशहरों की परियोजना को ही लें। यदि आपको कहा जाए कि इस पर निबंध लिखिए, तो आपको शायद उतना आनंद नहीं आएगा, लेकिन यदि आपसे कहा जाए कि अखबारों में छपे अलग-अलग शहरों के दशहरे के चित्र काट कर अपनी कॉपी में चिपकाइए और लिखिए कि कौन-सा चित्र, किस शहर के दशहरे का है, तो शायद आपको बहुत आनंद आएगा। तो इस तरह से चित्र इकट्ठे करके चिपकाना भी एक शैक्षिक परियोजना है। यह एक प्रकार की फोटो-फीचर परियोजना कहलाएगी। इस तरह से न केवल आपने चित्र काटे और चिपकाए, बल्कि कई शहरों में मनाए जाने वाले दशहरे के तरीके को भी जाना। परियोजना पाठ्य-पुस्तक से प्राप्त जानकारियों के अलावा भी आपको देश-दुनिया की बहुत सारी जानकारियाँ प्रदान करती है। यह आपको तथ्यों को जुटाने तथा उन पर विचार करने का अवसर प्रदान करती है। इससे आप में नए-नए तथ्यों के कौशल का विकास होता है। इससे आप में एकाग्रता का विकास होता है। लेखन संबंधी नयी-नयी शैलियों का विकास होता है।

आप में चिंतन करने तथा किसी पूर्व घटना से वर्तमान घटना को जोड़कर देखने की शक्ति का विकास होता है। परियोजना कई प्रकार से तैयार की जा सकती है। हर व्यक्ति इसे अलग ढंग से, अपने तरीके से तैयार कर सकता है। ठीक उसी प्रकार जैसे हर व्यक्ति का बातचीत करने का, रहने का, खाने-पीने का अपना अलग तरीका होता है। ऐसा निबंध, कहानी, कविता लिखते या चित्र बनाते समय भी होता है। लेकिन ऊपर कही गई बातों के आधार पर यहाँ हम परियोजना को मोटे तौर पर दो भागों में बाँट सकते हैं-एक तो वे परियोजनाएँ जो समस्याओं के निदान के लिए तैयार की जाती हैं और दूसरी वे जो किसी विषय की समुचित जानकारी प्रदान करने के लिए तैयार की जाती हैं। समस्याओं के निदान के लिए तैयार की जाने वाली परियोजनाओं में संबंधित समस्या से जुड़े सभी तथ्यों पर प्रकाश डाला जाता है और उस समस्या के समाधान के लिए सुझाव भी दिए जाते हैं। इस तरह की परियोजनाएँ प्राय: सरकारी अथवा संगठनों द्वारा किसी समस्या पर कार्य योजना तैयार करते समय बनाई जाती हैं। इससे उस समस्या के विभिन्न पहलुओं पर कार्य करने में आसानी हो जाती है। किंतु दूसरे प्रकार की परियोजना को आप आसानी से तैयार कर सकते हैं। इसे शैक्षिक परियोजना भी कहा जाता है। इस तरह की परियोजनाएँ तैयार करते समय आप संबंधित विषय पर तथ्यों को जुटाते हुए बहुत सारी नयी-नयी बातों से अपने-आप परिचित भी होते हैं।
प्रश्न

(क) गदयांश के लिए उपयुक्त शीर्षक दीजिए। 1
(ख) परियोजना क्या है? सोदाहरण स्पष्ट कीजिए। 2
(ग) शैक्षिक परियोजना क्या है? इससे क्या-क्या लाभ हैं? 2
(घ) ज्ञान बढ़ाने के अलावा परियोजना किन-किन कौशलों का विकास करती है? 2
(ङ) समस्या का निदान करने वाली परियोजना और शैक्षिक परियोजना में अंतर स्पष्ट कीजिए। 2
(च) ‘देश’, ‘दुनिया’-शब्दों के एक-एक पर्यायवाची शब्द लिखिए। 1

उत्तर  

(क) शीर्षक-परियोजना का स्वरूप
(ख) परियोजना शिक्षा का अत्यंत महत्वपूर्ण अंग है। इसे तैयार करना खेल जैसा ही आनंददायक है। छात्र इसके माध्यम से खेल-खेल में बहुत कुछ सीख जाते हैं। उदाहरणार्थ-दशहरे पर निबंध लिखना छात्रों के लिए अरुचिकर हो सकता है, पर अखबारों से दशहरा-संबंधी चित्र काटकर चिपकाना और प्रत्येक चित्र के नीचे संबंधित शहर का नाम लिखना रुचिकर और आनंददायक लगता है।
(ग) किसी शैक्षिक विषय से संबंधित जानकारी देने वाले चित्रों को एकत्र कर चिपकाना ही शैक्षिक परियोजना है। परियोजना एक ओर खेल-खेल में कुछ करते हुए सीखने का अवसर प्रदान करती है तो दूसरी ओर पाठ्यपुस्तक से प्राप्त जानकारियों के अलावा भी देश-दुनिया की बहुत सारी जानकारियाँ प्रदान करती है। यह तथ्यों को जुटाने, उन पर विचार करने तथा कुछ नया सीखने का अवसर प्रदान करती है।
(घ) परियोजना कुछ करते हुए सीखने का अवसर प्रदान करती है। अत: इससे ज्ञान में वृद्ध के अलावा विविध कौशलों का विकास होता है। ये कौशल निम्नलिखित हैं

  1. इससे एकाग्रता का विकास होता है।
  2. लेखन-संबंधी नई-नई शैलियों का विकास होता है।
  3. चिंतन-क्षमता का विकास होता है।
  4. इससे पूर्व में घटी किसी घटना से वर्तमान घटना को जोड़कर देखने की शक्ति का विकास होता है।

(ङ) समस्या का निदान करने के लिए तैयार की गई परियोजना में संबंधित समस्या से जुड़े सभी तथ्यों पर प्रकाश डालने के अलावा समाधान हेतु सुझाव भी प्रस्तुत किया जाता है। ये परियोजनाएँ सरकारी संस्थाओं/संगठनों द्वारा किसी समस्या पर कार्य-योजना तैयार करते समय बनाई जाती है। इसके विपरीत शैक्षिक परियोजनाएँ बनाते हुए संबंधित तथ्य जुटाते हुए बहुत-सी नई बातों से हम अपने-आप परिचित हो जाते हैं।
(च) पर्यायवाची शब्द-
1. देश – मुल्क, वतन
2. दुनिया — जग, जगत्।

28. सु-चरित्र के दो सशक्त स्तंभ हैं-प्रथम सुसंस्कार और द्रवितीय सत्संगति। सुसंस्कार भी पूर्व जीवन की सत्संगति व  सत्कर्मों की अर्जित संपत्ति है और सत्संगति वर्तमान जीवन की दुर्लभ विभूति है। जिस प्रकार कुधातु की कठोरता और कालिख पारस के स्पर्श मात्र से कोमलता और कमनीयता में बदल जाती है, ठीक उसी प्रकार कुमार्गी का कालुष्य सत्संगति से स्वर्णिम आभा में परिवर्तित हो जाता है। सतत सत्संगति से विचारों को नयी दिशा मिलती है और अच्छे विचार मनुष्य को अच्छे कार्यों में प्रेरित करते हैं। परिणामत: सुचरित्र का निर्माण होता है। आचार्य हजारीप्रसाद द्ववेदी ने लिखा है-‘महाकवि टैगोर के पास बैठने मात्र से ऐसा प्रतीत होता था मानो भीतर का देवता जाग गया हो।” वस्तुत: चरित्र से ही जीवन की सार्थकता है।

चरित्रवान व्यक्ति समाज की शोभा है, शक्ति है। सुचारित्र्य से व्यक्ति ही नहीं, समाज भी सुवासित होता है और इस सुवास से राष्ट्र यशस्वी बनता है। विदुर जी की उक्ति अक्षरश: सत्य है कि सुचरित्र के बीज हमें भले ही वंश-परंपरा से प्राप्त हो सकते हैं पर चरित्र-निर्माण व्यक्ति के अपने बलबूते पर निर्भर है। आनुवंशिक परंपरा, परिवेश और परिस्थिति उसे केवल प्रेरणा दे सकते हैं पर उसका अर्जन नहीं कर सकते; वह व्यक्ति की उत्तराधिकार में प्राप्त नहीं होता। व्यक्ति-विशेष के शिथिल चरित्र होने से पूरे राष्ट्र पर चरित्र-संकट उपस्थित हो जाता है, क्योंकि व्यक्ति पूरे राष्ट्र का एक घटक है। अनेक व्यक्तियों से मिलकर एक परिवार, अनेक परिवारों से एक कुल, अनेक कुलों से एक जाति या समाज और अनेकानेक जातियों और समाज-समुदायों से मिलकर ही एक राष्ट्र बनता है। आज जब लोग राष्ट्रीय चरित्र-निर्माण की बात करते हैं, तब वे स्वयं उस राष्ट्र के एक आचरक घटक हैं-इस बात को विस्मृत कर देते हैं।
प्रश्न

(क) सत्संगति कुमार्गी को कैसे सुधारती है? सोदाहरण स्पष्ट कीजिए। 2
(ख) चरित्र के बारे में विदुर के विचारों को स्पष्ट कीजिए। 2
(ग) सत्संगति व्यक्ति के लिए किस प्रकार कल्याणकारी होती है? इस संबंध में दविवेदी जी क्या अनुभव करते थे? 2
(घ) किसी एक व्यक्ति का चरित्र पूरे राष्ट्र के चरित्र को किस तरह प्रभावित करता है? स्पष्ट कीजिए। 2
(ङ) प्रस्तुत गदयांश के लिए एक उपयुक्त शीर्षक दीजिए। 1
(च) ‘सुवासित’, ‘आनुवंशिक’ शब्दों में प्रयुक्त उपसर्ग/प्रत्यय पृथक कर मूल शब्द बताइए। 1

उत्तर  

(क) सत्संगति से विचारों को नयी दिशा मिलती है और अच्छे विचार मनुष्य को अच्छे कार्यों में प्रेरित करते हैं। इससे कुमार्गी व्यक्ति उसी तरह सुधर जाता है जैसे लोहे की कठोरता और कालिख पारस का स्पर्श पाकर कोमलता और कमनीयता में बदल जाती है।
(ख) चरित्र के बारे में विदुर का विचार है कि अच्छे चरित्र के बीज वंश-परंपरा से मिल जाते हैं, परंतु चरित्र निर्माण व्यक्ति को स्वयं करना पड़ता है। सुचरित्र कभी उत्तराधिकार में नहीं मिलता। आनुवांशिक परंपरा, परिवेश और परिस्थितियाँ चरित्र को प्रेरित कर सकती हैं, वे उसको अर्जित नहीं कर सकती हैं।
(ग) सत्संगति व्यक्ति के लिए विविध रूपों में कल्याणकारी होती है। सतत् सत्संगति से व्यक्ति के विचारों को नई दिशा मिलती है। इससे व्यक्ति में अच्छे विचार पनपते हैं जो उसे अच्छे कार्य के लिए प्रेरित करते हैं। इससे व्यक्ति का चरित्र सुंदर बन जाता है। महाकवि रवींद्रनाथ टैगोर की सत्संगति पाकर द्रविवेदी ऐसा अनुभव करते थे, मानो उनके भीतर का देवता जाग गया है।
(घ) कोई भी व्यक्ति पूरे राष्ट्र का एक घटक होता है। अनेक व्यक्तियों से मिलकर एक परिवार, अनेक परिवारों से एक कुल, अनेक कुलों से एक जाति या समाज तथा अनेक जातियों एवं समाज समुदायों के मेल से एक राष्ट्र बनता है। इस तरह किसी एक व्यक्ति का चरित्र पूरे राष्ट्र को प्रभावित करता है। उसका अच्छा चरित्र पूरे का गौरव बढ़ाता है और शिथिल चरित्र पूरे राष्ट्र पर संकट उत्पन्न करता है।
(ङ) शीर्षक-चरित्र निर्माण और सत्संगति।
(च) शब्द       उपसर्ग       मूल शब्द    प्रत्यय
सुवासित          सु               वास               इत
आनुवंशिक      अनु            वश                इक

स्वयं करें

निम्नलिखित गदयांशों को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए-

1. जिंदगी के असली मजे उनके लिए नहीं हैं जो फूलों की छाँह के नीचे खेलते और सोते हैं, बल्कि फूलों की छाँह के नीचे अगर जीवन का कोई स्वाद छिपा है तो वह भी उन्हीं के लिए है जो दूर रेगिस्तान से आ रहे हैं जिनका कठ सूखा हुआ, होंठ फटे हुए और सारा बदन पसीने से तर है। पानी में जो अमृत वाला तत्व है, उसे वह जानता है जो धूप में खूब सूख चुका है, वह नहीं जो रेगिस्तान में कभी पड़ा ही नहीं है। सुख देने वाली चीजें पहले भी थीं और अब भी हैं। फर्क यह है कि जो सुखों का मूल्य पहले चुकाते हैं और उनके मजे बाद में लेते हैं उन्हें स्वाद अधिक मिलता है। जिन्हें आराम आसानी से मिल जाता है, उनके लिए आराम ही मौत है। जो लोग पाँव भीगने के खौफ से पानी से बचते रहते हैं, समुद्र में डूब जाने का खतरा उन्हीं के लिए है। लहरों में तैरने का जिन्हें अभ्यास है वे मोती लेकर बाहर आएँगे।

चाँदनी की ताजगी और शीतलता का आनंद वह मनुष्य लेता है जो दिन भर धूप में थक कर लौटा है, जिसके शरीर को अब तरलाई की जरूरत महसूस होती है और जिसका मन यह जानकर संतुष्ट है कि दिन भर का समय उसने किसी अच्छे काम में लगाया है। इसके विपरीत वह आदमी भी है जो दिन भर खिड़कियाँ बंद करके पंखे के नीचे छिपा हुआ था और अब रात में जिसकी सेज बाहर चाँदनी में लगाई गई है। भ्रम तो शायद उसे भी होता होगा कि वह चाँदनी के मजे ले रहा है, लेकिन सच पूछिए तो वह खुशबूदार फूलों के रस में दिन-रात सड़ रहा है। भोजन का असली स्वाद उसी को मिलता है जो कुछ दिन बिना खाए भी रह सकता है। ‘

त्यक्तेन भुजीथा’, जीवन का भोग त्याग के साथ करो, यह केवल परमार्थ का ही उपदेश नहीं है, क्योंकि संयम से भोग करने पर जीवन से जो आनंद प्राप्त होता है, वह निरा भोगी बनकर भोगने से नहीं मिल पाता। बड़ी चीजें बड़े संकटों में विकास पाती हैं, बड़ी हस्तियाँ बड़ी मुसीबतों में पलकर दुनिया पर कब्जा करती हैं। अकबर ने तेरह साल की उम्र में अपने बाप के दुश्मन को परास्त कर दिया था जिसका एकमात्र कारण यह था कि अकबर का जन्म रेगिस्तान में हुआ था और वह भी उस समय, जब उसके बाप के पास एक कस्तूरी को छोड़कर और कोई दौलत नहीं थी। महाभारत में देश के प्राय: अधिकांश वीर कौरवों के पक्ष में थे। मगर फिर भी जीत पांडवों की हुई, क्योंकि उन्होंने लाक्षागृह की मुसीबत झेली थी, क्योंकि उन्होंने वनवास के जोखिम को पार किया था। श्री विंस्टन चर्चिल ने कहा है कि जिंदगी की सबसे बड़ी सिफत हिम्मत है। आदमी के और सारे गुण उसके हिम्मती होने से ही पैदा होते हैं।
प्रश्न

(क) जिंदगी के असली मजे किनके लिए होते हैं? 2
(ख) अकबर का उदाहरण किस संदर्भ में दिया गया है? उसकी सफलता का रहस्य क्या था? 2
(ग) महाभारत के युद्ध में पांडव विजयी बने, कौरव क्यों नहीं? 2
(घ) निराभोगी बनने से जीवन का आनंद क्यों नहीं मिल पाता है? 2
(ङ) मोती, चाँदनी – तत्सम शब्द लिखिए। 1
(च) उपर्युक्त गदयांश का उपयुक्त शीर्षक दीजिए। 1

 2. गौतम बुद्ध ने ठीक ही कहा था कि मनुष्य की मनुष्यता यही है कि वह सबके दुख-सुख को सहानुभूति के साथ देखता है। यह आत्म-निर्मित बंधन ही मनुष्य को मनुष्य बनाता है। अहिंसा, सत्य और अक्रोधमूलक धर्म का मूल उत्स यही है। मुझे आश्चर्य होता है कि अनजान में भी हमारी भाषा में यह भाव कैसे रह गया है, लेकिन मुझे नाखून के बढ़ने पर आश्चर्य हुआ था। अज्ञान सर्वत्र आदमी को पछाड़ता है और आदमी है कि सदा उससे लोहा लेने को कमर कसे है। मनुष्य को सुख कैसे मिलेगा? बड़े-बडे नेता कहते हैं, वस्तुओं की कमी है, और मशीन ‘बैठाओ, और उत्पादन बढ़ाओ, और धन की वृद्ध करो, और बाहय उपकरणों की ताकत बढ़ाओ। एक बूढ़ा था। उसने कहा था-बाहर नहीं, भीतर की ओर देखो। हिंसा को मन से दूर करो, मिथ्या को हटाओ, क्रोध और द्वेष को दूर करो, लोक के लिए कष्ट सहो, आराम की बात मत सोची, प्रेम की बात सोची, आत्म-तोषण की बात सोची, काम करने की बात सोची।

उसने कहा-प्रेम ही बड़ी चीज है, क्योंकि वह हमारे भीतर है। उच्छुखलता पशु की प्रवृत्ति है, ‘स्व’ का बंधन मनुष्य का स्वभाव है। बूढ़े की बात अच्छी लगी या नहीं, पता नहीं। उसे गोली मार दी गई, आदमी के नाखून बढ़ने की प्रवृत्ति ही हावी हुई। मैं हैरान होकर सोचता हूँ-बूढ़े ने कितनी गहराई में पैठकर मनुष्य की वास्तविक चरितार्थता का पता लगाया था। ऐसा कोई दिन आ सकता है, जबकि मनुष्य के नाखूनों का बढ़ना बंद हो जाएगा। प्राणिशास्त्रियों का ऐसा अनुमान है कि मनुष्य का यह अनावश्यक अंग उसी प्रकार झड़ जाएगा, जिस प्रकार उसकी पूँछ झड़ गई है। उस दिन मनुष्य की पशुता भी लुप्त हो जाएगी। शायद उस दिन वह मारणास्त्रों का प्रयोग भी बंद कर देगा। तब तक इस बात से छोटे बच्चों को परिचित करा देना वांछनीय जान पड़ता है कि नाखून का बढ़ना मनुष्य के भीतर की पशुता की निशानी है और उसे नहीं बढ़ने देना मनुष्य की अपनी इच्छा है, अपना आदर्श है।

बृहत्तर जीवन में अस्त्र-शस्त्रों को बढ़ने देना मनुष्य की पशुता की निशानी है और उनकी बाढ़ को रोकना मनुष्यत्व का तकाजा। मनुष्य में जो घृणा है, जो अनायास-बिना सिखाए आ जाती है, वह पशुत्व का द्योतक है और अपने को संयत रखना, दूसरे के मनोभावों का आदर करना मनुष्य का स्वधर्म है। बच्चे यह जानें तो अच्छा हो कि अभ्यास और तप से प्राप्त वस्तुएँ मनुष्य की महिमा को सूचित करती हैं। मनुष्य की चरितार्थता प्रेम में है, मैत्री में है, त्याग में है, अपने को सबके मंगल के लिए नि:शेष भाव से दे देने में है। नाखूनों का बढ़ना मनुष्य की उस अंध सहजात वृत्ति का परिणाम है, जो उसके जीवन में सफलता ले आना चाहती है, उसको काट देना उस स्व-निर्धारित, आत्मबंधन का फल है, जो उसे चरितार्थता की ओर ले जाती है।
प्रश्न

(क) गौतम बुद्ध के अनुसार मनुष्यता क्या है? 2
(ख) नेता और वृदध के विचार सुख-प्राप्ति के संबंध में किस प्रकार भिन्न थे? 2
(ग) लेखक ने पशुत्व का चिहन और मनुष्यता का चिहन किन्हें माना है? 2
(घ) प्राणिशास्त्रियों ने मनुष्य का अनाश्यक अंग किसे कहा है? और क्यों? 2
(ङ) उपर्युक्त गदयांश का उपयुक्त शीर्षक दीजिए। 1
(च) मिथ्या, वांछनीय – पर्याय लिखिए। 1

3. अपने कार्य को आप ही करना स्वावलंबन कहलाता है। बालक जब से होश सँभालता है, अपने निजी कार्य स्वयं करने लगता है। इसी प्रकार यदि मनुष्य जीवन की किसी भी स्थिति में अपना कार्य स्वयं करे, तो वह स्वावलंबी कहलाता है। स्वावलंबी होना नागरिकता का महान् गुण है। स्वावलंबन बड़प्पन का गुण है। कहते हैं कि एक दिन प्रसिद्ध विद्वान ईश्वर चंद्र विद्यासागर रेलवे स्टेशन के बाहर खड़े थे। तभी भीतर से एक व्यक्ति हाथ में एक छोटा बक्सा लिए उनके पास आया। उन्हें साधारण वेष में देखकर भूल से कुली समझ बैठा और बोला, “मेरा सामान ले चलोगे?” ईश्वर चंद्र बिना कुछ बोले उसका सामान उठाकर चल दिए। लक्ष्य पर पहुँचकर जब वह उन्हें मजदूरी देने लगा तो वे बोले, “मजदूरी नहीं चाहिए। तुम अपना काम स्वयं नहीं कर सकते, इसलिए मैंने तुम्हारी सहायता कर दी है।” व्यक्ति लज्जित हुआ।

जब उसे यह पता चला कि उनका कुली बंगाल का प्रसिद्ध विद्वान है तो वह उनके पाँव में गिर पड़ा। अपना कार्य आप करने की सौंगध ली। तात्पर्य यह है कि कोई कितना भी बड़ा अधिकारी, साहूकार या धनवान क्यों न हो, उसे स्वावलंबी बनना चाहिए। आप डॉक्टर या इंजीनियर बनना चाहते हैं, वकील या प्राध्यापक बनना चाहते हैं. व्यापारी या नेता बनना चाहते हैं-स्वावलंबन सबके लिए अनिवार्य है। बड़ा बनने के लिए मार्ग में अनेक बाधाएँ आती हैं। यदि उनके कारण हम निराश हो जाएँ, संघर्ष से जी चुराएँ या मेहनत से दूर रहें, तो भला हमें बड़प्पन कहाँ से मिलेगा? भारत के स्वर्गीय प्रधानमंत्री श्री लाल बहादुर शास्त्री का नाम सुना होगा जिन्होंने सन् 1965 में भारत-पाकिस्तान युद्ध में देश का नेतृत्व किया था। देश को विजयी बनाया था और जनता को ‘जय जवान, जय किसान’ के प्रेरणावद्र्धक शब्द दिए थे। वे बड़े निर्धन परिवार से संबंधित थे।

नदी पार स्कूल में जाने के लिए नौका वाले को पैसे भी नहीं दे सकते थे, किंतु उनमें आलस्य नहीं था। अत: प्रतिदिन तैर कर नदी पार करते थे। उन्होंने निराशा को कभी मन में नहीं आने दिया था। इसी मेहनत और स्वावलंबन का परिणाम था कि वे प्रधानमंत्री बने। जब वे प्रधानमंत्री थे, तब भी वे चपरासियों और अहलकारों पर आश्रित नहीं रहते थे। अपने यहाँ का कोई भी काम उन्हें छोटा नहीं लगता था। डॉक्टर बनकर यदि आप रोगी की आंशिक देखभाल करें, इंजीनियर बनकर दूसरों पर हुक्म चलाएँ अथवा व्यापारी बनकर अपना हिसाब-किताब स्वयं न देखें, तो व्यवसाय तो डूबेगा ही, आपको भी डूबना होगा। दूसरों से कार्य लेते समय भी स्वयं सक्रिय रहना सफलता की प्रथम सीढ़ी है।
प्रश्न

(क) स्वावलंबन किसे कहते हैं? जीवन के लिए यह क्यों आवश्यक है? 2
(ख) ईश्वर चंद्र विदयासागर यात्री का सामान लेकर क्यों चल दिए? 2
(ग) ईश्वर चंद्र विद्यासागर के साधारण से कार्य ने व्यक्ति का जीवन किस प्रकार बदल दिया? 2
(घ) प्रधानमंत्री बनने के बाद भी शास्त्री जी किस प्रकार स्वावलंबी बने रहे? 2
(ङ) निर्धन, स्वावलंबन – उपसर्ग पृथक् कर मूल शब्द लिखिए। 1
(च) गदयांश का उपयुक्त शीर्षक दीजिए। 1

4. बालक स्वभावत: संवेदनशील होता है, उसमें कल्पनाशक्ति भी तीव्र होती है, उसका जीवन-निरीक्षण भी। मुख्य बात यह है कि वह अपने अनुभवों के आधार पर कल्पना द्वारा जीवन की पुनर्रचना करता है, अपने अनुसार। कल्पना के रंगों में डूबी इस जीवन की पुनर्रचना के रंग निस्संदेह भावुक हैं। इन चित्रों के रंग में डूबकर वह उन्हीं चित्रों से प्राप्त संवेदनाओं में भावुक होकर रम जाता है। अपने मनोमय जीवन के इन क्षणों में, जब वह उन चित्रों में तन्मय क्रिया-प्रतिक्रिया करने में व्यस्त और ग्रस्त रहने वाले मन को बहुत पीछे छोड़ जाता है, उसके ऊपर उठ जाता है, उससे परे हो जाता है। संक्षेप में, एक ओर उसकी मुक्ति हो जाती है तो दूसरी ओर उसी के साथ एकबद्धता आ जाती है। तटस्थता और तन्मयता, दूरी और सामीप्य का द्वंद्व, उच्चतर स्तर पर एकीभूत हो जाता है। इस प्रकार के अनुभव बालकों से लेकर वृद्धों तक होते हैं, कवियों से लेकर अकवियों तक होते हैं, मजदूर से लेकर संपन्न व्यक्ति तक होते हैं। लेखकों से श्रोताओं तक होते हैं। इन्हीं अनुभवों को हम कलात्मक अनुभव या सौंदर्य अनुभव कहते हैं। केवल मनुष्य ही सौंदर्यानुभव प्राप्त कर सकते हैं, पशु नहीं।
प्रश्न

(क) बालक की सामान्य स्वाभाविक विशेषताएँ लिखिए। 2
(ख) बालक अपने जीवन की पुनर्रचना किस प्रकार करता है? 2
(ग) मनोमय जीवन का अनुभव कौन-कौन प्राप्त कर सकते हैं? 2
(घ) सौंदर्य के संदर्भ में मनुष्य और पशु किस प्रकार भिन्न हैं? 2
(ङ) संधि-विच्छेद कीजिए – पुनर्रचना, सौंदर्यानुभव। 1
(च) पुनर्रचना, निस्संदेह में प्रयुक्त उपसर्ग बताइए। 1

5. परिश्रम को सफलता की कुंजी माना गया है। जीवन में सफलता पुरुषार्थ से ही प्राप्त होती है। कहा भी है-उद्योगी पुरुष सिंह को लक्ष्मी वरण करती है। जो भाग्यवादी हैं उन्हें कुछ नहीं मिलता। वे हाथ-पर-हाथ धरे रह जाते हैं। अवसर उनके सामने से निकल जाता है। भाग्य कठिन परिश्रम का ही दूसरा नाम है। . प्रकृति को ही देखिए। सारे जड़-चेतन अपने कार्य में लगे रहते हैं। चींटी को भी पल-भर चैन नहीं। मधुमक्खी जाने कितनी लंबी यात्रा कर बूंद-बूंद मधु जुटाती है। मुरगे को सुबह बाँग लगानी ही है, फिर मनुष्य को बुद्ध मिली है, विवेक मिला है। वह निठल्ला बैठे तो सफलता की कामना करना व्यर्थ है। विश्व में जो देश आगे बढ़े हैं, उनकी सफलता का रहस्य कठिन परिश्रम ही है।

जापान को दूसरे विश्वयुद्ध में मिट्टी में मिला दिया गया था। उसकी अर्थव्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गई थी। दिन-रात, जी-तोड़ श्रम करके वह पुन: विश्व का प्रमुख औद्योगिक देश बन गया। चीन को शोषण से मुक्ति भारत से देर में मिली, वह भी श्रम के बल पर आज भारत से आगे निकल गया है। जर्मनी ने भी युद्ध की विभीषिकाएँ झेलीं, पर श्रम के बल पर सँभल गया। परिश्रम का महत्व वे जानते हैं जो स्वयं अपने बल पर आगे बढ़े हैं। संसार के अनेक महापुरुष परिश्रम के प्रमाण हैं कालिदास, तुलसी, टैगोर और गोकी परिश्रम से ही अमर हुए। संसार के इतिहास में अनेक चमकते सितारे केवल परिश्रम के ही प्रमाण हैं। बड़े-बड़े धन-कुबेर निरंतर श्रम से ही असीम संपत्ति के स्वामी बने हैं।

फोर्ड साधारण मैकेनिक था। धीरू भाई अंबानी शिक्षक थे। लगन और दृढ़-संकल्प परिश्रम को सार्थक बना देते हैं। गरीबी के साथ परिश्रम जुड़ जाए तो सफलता मिलती है और अमीरी के साथ श्रमहीनता या निठल्लापन आ जाए तो असफलता मुँह बाए खड़ी रहती है। भारतीय कृषक के परिश्रम का ही फल है कि देश में हरित क्रांति हुई। अमेरिका के सड़े गेहूँ से पेट भरने वाला देश आज गेहूँ का निर्यात कर रहा है। कल-कारखाने रात-दिन उत्पादन कर रहे हैं। हमारे वस्त्र दुनिया के बाजारों में बिकते हैं। उन्नत औद्योगिक देश भी हमसे वैज्ञानिक उपकरण खरीद रहे हैं। किसी क्षेत्र में हम पिछड़े हैं तो उसका कारण है, वहाँ परिश्रम का अभाव। विद्यार्थी जीवन तो परिश्रम की पहली पाठशाला है। यहाँ से परिश्रम की आदत पड़ जाए तो ठीक, अन्यथा जाने कहाँ-कहाँ की ठोकरें खानी पड़े। एडीसन से किसी ने कहा-आपकी सफलता का कारण आपकी प्रतिभा है। एडीसन ने झटपट सुधारा-प्रतिभा के माने एक औस बुद्ध और एक टन परिश्रम।
प्रश्न

(क) भाग्यवादी और परिश्रमी व्यक्ति में क्या अंतर है? स्पष्ट कीजिए। 2
(ख) परिश्रम के संदर्भ में प्रकृति से कौन-कौन-से उदाहरण प्रस्तुत किए गए हैं? 2
(ग) भारत किस प्रकार उन्नति के सोपान चढ़ रहा है? 2
(घ) परिश्रम दवारा विदयार्थी किस प्रकार सफलता प्राप्त कर सकता है? 2
(ङ) गदयांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए। 1
(च) प्रत्यय बताइए – सफलता, भारतीय। 1

6. भारतीय समाज में नारी की स्थिति सचमुच विरोधाभासपूर्ण रही है। संस्कृति पक्ष से उसे ‘शक्ति’ माना गया है तो लोकपक्ष से उसे ‘अबला’ कहा गया हैं। सदियों के संस्कारों की जड़ें इतनी गहरी होती हैं कि उन्हें न तो कुछ वर्षों की शैक्षणिक प्रगति खोद सकती है, न कुछेक आंदोलनों से उन्हें हिलाया जा सकता है। अत: स्थिति पूर्ववत् ही बनी रही। यह स्थिति कई मामलों में अब भी उलझी हुई है और दिशा अस्पष्ट है, क्योंकि यहाँ हर प्रश्न को पश्चिमी आईने में देखा गया। तटस्थ समाजशास्त्रीय दृष्टि इस बारे में नहीं रही। हमारे यहाँ विभिन्न समाजों में स्त्रियों की स्थिति और प्रगति बहुत कुछ स्थानीय, सामुदायिक व जातीय परंपराओं पर आधारित है। एक ही धर्म और एक ही भौगोलिक स्थिति के भीतर (केरल में) कहीं मातृसत्तात्मक परिवार में स्त्री ही मुखिया है और उसे अधिकार प्राप्त हैं, कहीं मातृसत्तात्मक परिवार में भी उनका सम्मान नहीं रहा तो कहीं पितृसत्तात्मक परिवार में भी उनकी स्थिति सम्मानजनक रही।

समाजशास्त्रीय दृष्टि इन विभिन्नताओं को रेखांकित करती है। हमारा दुर्भाग्य यह रहा है कि हम पश्चिमी देशों के अंधानुकरण को अपनी प्रगति मान बैठे हैं। ‘बीमेंसलिब’ का अतिवाद पश्चिमी देशों को परिवारवाद की ओर लौटा रहा है। तीसरी दुनिया के हमारे जैसे देश बुनियादी समस्याएँ भूल आगे होकर उसी मुक्ति आंदोलन को अपनाने की होड़ में लगे हैं। यह सब दिशाहीन यात्रा है। स्थानीय और राष्ट्रीय परंपराओं और स्थितियों के अनुरूप कोई लक्ष्य, कोई स्पष्ट दिशा निर्धारित किए बिना, बिना इस बात पर गंभीरता से विचार किए कि ‘स्त्रीवाद’ का अर्थ परिवार तोड़ना या सामाजिक विघटन लाना नहीं है और न ही आजाद होने का मतलब यह है कि औरत औरत न रहे, हम अपने यहाँ इस आंदोलन को चला रहे हैं।
प्रश्न

(क) उपयुक्त शीर्षक दीजिए। 1
(ख) भारत में नारी की स्थिति में सुधार क्यों नहीं हो पाया? 2
(ग) लेखक का नारी मुक्ति आंदोलन के प्रति कैसा दृष्टिकोण है? 2
(घ) हमारे देश में नारी मुक्ति आंदोलन की दिशा अभी तक स्पष्ट क्यों नहीं हो पाई? 2
(ङ) लेखक के अनुसार नारी मुक्ति आंदोलन में क्या भूल रही है? 2
(च) प्रत्यय बताइए – भारतीय, पश्चिमी। 1

7. 14 जनवरी, 1848 को पुणे के बुधवार पेठ निवासी भिडे के बाड़े में पहली कन्याशाला की स्थापना हुई। पूरे भारत में लड़कियों की शिक्षा की यह पहली पाठशाला थी। भारत में 3000 सालों के इतिहास में इस तरह का काम नहीं  हुआ था। शूद्र और शूद्रातिशूद्र लड़कियों के लिए एक के बाद एक पाठशालाएँ खोलने में ज्योतिबा फुले और सावित्री बाई को लगातार व्यवधानों, अड़चनों, लाँछनों और बहिष्कार का सामना करना पड़ा। ज्योतिबा के धर्मभीरु पिता ने पुरोहितों और रिश्तेदारों के दबाव में अपने बेटे और बहू को घर छोड़ देने पर मजबूर किया। सावित्री जब पढ़ाने के लिए घर से पाठशाला तक जाती तो रास्ते में खड़े लोग उसे गालियाँ देते, थूकते, पत्थर मारते और गोबर उछालते। दोनों पति-पत्नी सारी बाधाओं से जूझते हुए अपने काम में डटे रहे। 1840-1890 तक पचास वर्षों तक, ज्योतिबा और सावित्री बाई ने एक प्राण होकर अपने मिशन को पूरा किया।

कहते हैं-एक और एक मिलकर ग्यारह होते हैं। ज्योतिबा फुले और सावित्री बाई फुले ने हर मुकाम पर कंधे-से-कंधा मिलाकर काम किया-मिशनरी महिलाओं की तरह किसानों और अछूतों की झुग्गी-झोंपड़ी में जाकर लड़कियों को पाठशाला भेजने का आग्रह करना या बालहत्या प्रतिबंधक गृह में अनाथ बच्चों और विधवाओं के लिए दरवाजे खोल देना और उनके नवजात बच्चों की देखभाल करना या महार, चमार और मांग जाति के लोगों की एक घूंट पानी पीकर प्यास बुझाने की तकलीफ देखकर अपने घर के पानी का हौद सभी जातियों के लिए खोल देना-हर काम पति-पत्नी ने डके की चोट पर किया और कुरीतियों, अंध-श्रद्धा और पारंपरिक अनीतिपूर्ण रूढ़ियों को ध्वस्त कर दलितों-शोषितों के हक में खड़े हुए। आज के प्रतिस्पद्र्धात्मक समय में, जब प्रबुद्ध वर्ग के प्रतिष्ठित जाने-माने दंपत्ति साथ रहने के कई बरसों के बाद अलग होते ही एक-दूसरे को संपूर्णत: नष्ट-भ्रष्ट करने और एक-दूसरे की जड़ें खोदने पर आमादा हो जाते हैं, महात्मा ज्योतिबा फुले और सावित्री बाई फुले का एक-दूसरे के प्रति और एक लक्ष्य के प्रति समर्पित जीवन एक आदर्श दांपत्य की मिसाल बनकर चमकता है।
प्रश्न

(क) ‘एक और एक ग्यारह होते हैं’-इसे फुले दंपत्ति ने कैसे चरितार्थ किया? 2
(ख) महात्मा ज्योतिबा और सावित्री फुले ने आदर्श दांपत्य की मिसाल कैसे पेश की? 2
(ग) सावित्री बाई फुले को शिक्षण कार्य में किन-किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ा? 2
(घ) फुले दंपत्ति ने समाज़ के पिछड़े और शोषित लोगों की किन-किन रूपों में मदद की? 2
(ङ) पर्याय लिखिए – धर्मभीरु आमादा। 1
(च) ‘कंधे-से-कंधा मिलाना’, ‘जड़ें खोदना’ का अपने वाक्यों में प्रयोग कीजिए। 1

8. संसार में दो अचूक शक्तियाँ हैं-वाणी और कर्म। कुछ लोग वचन से संसार को राह दिखाते हैं और कुछ लोग कर्म से। शब्द और आचार दोनों ही महान् शक्तियाँ हैं। शब्द की महिमा अपार है। विश्व में साहित्य, कला, विज्ञान, शास्त्र सब शब्द-शक्ति के प्रतीक प्रमाण हैं, पर कोरे शब्द व्यर्थ होते हैं, जिनका आचरण न हो। कर्म के बिना वचन, व्यवहार के बिना सिद्धसार्थकता नहीं है। निस्संदेह शब्द शक्ति महान् है, पर चिरस्थायी और सनातनी शक्ति तो व्यवहार है। महात्मा गाँधी ने इन दोनों की कठिन और अद्भुत साधना की थी। महात्मा जी का संपूर्ण जीवन उन्हीं दोनों से युक्त था। वे वाणी और व्यवहार में एक थे। जो कहते थे वही करते थे। यही उनकी महानता का रहस्य है। कस्तूरबा ने शब्द की अपेक्षा कृति की उपासना की थी, क्योंकि कृति का उत्तम व चिरस्थायी प्रभाव होता है। ‘बा’ ने कोरी शाब्दिक, शास्त्रीय, सैद्धांतिक शब्दावली नहीं सीखी थी। वे तो कर्म की उपासिका थीं। उनका विश्वास शब्दों की अपेक्षा कमों में था। वे जो कहा करती थीं उसे पूरा करती थीं। वे रचनात्मक कर्मों को प्रधानता देती थीं। इसी के बल पर उन्होंने अपने जीवन में सार्थकता और सफलता प्राप्त की थी।
प्रश्न

(क) उपयुक्त शीर्षक दीजिए। 1
(ख) सज्जन व्यक्ति संसार के लिए क्या करते हैं? 2
(ग) गाँधी जी महान क्यों थे? 2
(घ) संसार की कौन-सी अचूक शक्तियाँ हैं? लोग उनका प्रयोग किस प्रकार करते हैं? 2
(ङ) शब्द-शक्ति और व्यवहार में क्या संबंध है? 2
(च) प्रत्यय पृथक करते हुए मूल शब्द बताइए – सार्थकता, शाब्दिक। 1

9. सरदार सुजान सिंह ने देवगढ़ में आने वाले इन महानुभावों के आदर-सत्कार का अच्छा प्रबंध कर दिया था। लोग अपने-अपने कमरों में बैठे हुए रोजेदार मुसलमानों की तरह महीने के दिन गिना करते थे। हर एक मनुष्य अपने जीवन को अपनी बुद्ध के अनुसार अच्छे रूप में दिखाने की कोशिश करता था। मिस्टर ‘अ’ नौ बजे दिन तक सोया करते थे, आजकल वे बागीचे में टहलते हुए उषा का दर्शन करते थे। मिस्टर ‘ब’ को हुक्का पीने की लत थी, मगर आजकल बहुत रात गए किवाड़ बंद कर के अँधेरे में सिगार पीते थे। मिस्टर ‘द’, ‘स’ और ‘ज’ से उनके घरों पर नौकरों की नाक में दम था, लेकिन ये सज्जन आजकल ‘आप’ और ‘जनाब’ के बगैर नौकरों से बातचीत नहीं करते थे। महाशय, ‘क’ नास्तिक थे, हक्सले के उपासक, मगर आजकल उनकी धर्मनिष्ठा देखकर मंदिर के पुजारी को पदच्युत हो जाने की शंका लगी रहती थी। मिस्टर ‘ल’ को किताबों से घृणा थी, परंतु आजकल वे बड़े-बड़े ग्रंथ खोले पढ़ने में डूबे रहते थे। जिससे बातें कीजिए, वह नम्रता और सदाचार का देवता बन जाता था।

शर्मा जी घड़ी रात ही से वेद-मंत्र पढ़ने लगते थे और मौलवी साहेब को तो नमाज और तलावत के सिवा और कोई काम न था। लोग समझते थे कि एक महीने की झंझट है, किसी तरह काट लें, कहीं कार्य-सिद्ध हो गया, तो कौन पूछता है। लेकिन मनुष्यों का वह बूढ़ा जौहरी आड़ में बैठा हुआ देख रहा था कि इन बगुलों में हस कहाँ छिपा हुआ है? एक दिन नए फ़ैशन वालों को सूझी कि आपस में ‘हॉकी’ का खेल हो जाए। यह प्रस्ताव हॉकी के मैंजे हुए खिलाड़ियों ने पेश किया। यह भी तो आखिर एक विद्या है। इसे क्यों छिपा रखें। संभव है, कुछ हाथों की सफ़ाई ही काम कर जाए। चलिए, तय हो गया, कोट बन गए, खेल शुरू हो गया और गेंद किसी दफ़्तर के अप्रेटिस की तरह ठोकरें खाने लगी। रियासत देवगढ़ में यह खेल बिलकुल निराली बात थी। पढ़े-लिखे, भले मानस लोग शतरंज और ताश जैसे गंभीर खेल खेलते थे। दौड़-कूद के खेल बच्चों के खेल समझे जाते थे। खेल बड़े उत्साह से जारी था। धावे के लोग जब गेंद को लेकर तेजी से बढ़ते तो ऐसा जान पड़ता था कि कोई लहर बढ़ती चली आती है। लेकिन दूसरी ओर के खिलाड़ी इस बढ़ती हुई लहर को इस तरह रोक लेते थे मानो लोहे की दीवार हैं।
प्रश्न

(क) हर व्यक्ति स्वयं को अच्छे रूप में दिखाने का प्रयास क्यों कर रहा था? 2
(ख) किनके व्यवहार से नौकरों को परेशानी रहती थी? पर आजकल उनकी दिनचर्या किस तरह बदली हुई थी? 2
(ग) लेखक ने किनकी दिनचर्या पर व्यंग्य किया है और क्यों? 2
(घ) देवगढ़ में हॉकी खेलना निराली बात थी क्यों? 2
(ङ) विलोम लिखिए-जीवन, उषा। 1
(च) ‘बूढ़ा जौहरी आड़ में बैठा हुआ देख रहा था कि उन बगुलों में हंस कहाँ छिपा हुआ है?’ 
उपर्युक्त वाक्य में से उपवाक्य छाँटकर उसका भेद बताइए। 1

10. वैज्ञानिक प्रयोग की सफलता ने मनुष्य की बुद्ध का अपूर्व विकास कर दिया है। द्रवितीय महायुद्ध में एटम बम की शक्ति ने कुछ क्षणों में ही जापान की अजेय शक्ति को पराजित कर दिया। इस शक्ति की युद्धकालीन सफलता ने अमेरिका, रूस, ब्रिटेन, फ्रांस आदि सभी देशों को ऐसे शस्त्रास्त्रों के निर्माण की प्रेरणा दी कि सभी भयंकर और सर्वविनाशकारी शस्त्र बनाने लगे। अब सेना को पराजित करने तथा शत्रु-देश पर पैदल सेना द्वारा आक्रमण करने के लिए शस्त्र-निर्माण के स्थान पर देश के विनाश करने की दिशा में शस्त्रास्त्र बनने लगे हैं। इन हथियारों का प्रयोग होने पर शत्रु-देशों की अधिकांश जनता और संपत्ति थोड़े समय में ही नष्ट की जा सकेगी। चूँकि ऐसे शास्त्रास्त्र प्राय: सभी स्वतंत्र देशों के संग्रहालयों में कुछ-न-कुछ आ गए हैं, अत: युद्ध की स्थिति में उनका प्रयोग भी अनिवार्य हो जाएगा। अत: दुनिया का सर्वनाश या अधिकांश नाश तो अवश्य हो ही जाएगा। इसलिए नि:शस्त्रीकरण की योजनाएँ बन रही हैं। शस्त्रास्त्रों के निर्माण में जो दिशा अपनाई गई, उसी के अनुसार आज इतने उन्नत शस्त्रास्त्र बन गए हैं, जिनके प्रयोग से व्यापक विनाश आसन्न दिखाई पड़ता है। अब भी परीक्षणों की रोकथाम तथा बने शस्त्रों के प्रयोग को रोकने के मार्ग खोजे जा रहे हैं। इन प्रयासों के मूल में एक भयंकर आतंक और विश्व-विनाश का भय कार्य कर रहा है।
प्रश्न

(क) उपयुक्त शीर्षक दीजिए। 1
(ख) बड़े-बड़े देश आधुनिक विनाशकारी हथियार क्यों बना रहे हैं? 2
(ग) आधुनिक युद्ध भयंकर व विनाशकारी क्यों होते हैं? 2
(घ) ‘नि:शस्त्रीकरण’ से क्या तात्पर्य है? वर्तमान में इसकी आवश्यकता क्यों बढ़ती जा रही है? 2
(ङ) नि:शस्त्रीकरण की योजनाएँ क्यों बनाई जा रही हैं? 2
(च) विलोम बताइए — विकास, अनिवार्य।

11. संस्कृति किसी दो-मंजिला मकान की तरह होती है। पहली मंजिल पर एकदम मूलभूत मगर चिरंतन जीवन-मूल्य होते हैं। इसमें परस्पर सहकार्य, न्याय, सौंदर्य जैसे मूलभूत तत्व आते हैं। ये मूल्य समय से परे होते हैं। मनुष्य के जीवन की आधारशिला होते हैं। पहली मंजिल पर दूसरी मंजिल का निर्माण किसी समाज की विशिष्ट आवश्यकता के अनुरूप होता है। धार्मिक, ऐतिहासिक परंपरा, आर्थिक लेन-देन, स्त्री-पुरुष संबंध और परिस्थितिजन्य अन्य मूल्यों का निर्माण में योगदान होता है। यह व्यवस्था मूलत: संरक्षणात्मक होने के कारण तरह-तरह के प्रतीक, परंपरा, रूढ़ि और अंधविश्वास का सड़ा-सा पिंजरा बनाती है। इससे पहली मंजिल के मूलभूत मूल्यों की उपेक्षा होने लगती है।

समाज को भ्रम होने लगता है कि दूसरी मंजिल की मूल व्यवस्था ही अपनी सच्ची संस्कृति है। भ्रम से कई तरह की विकृति उत्पन्न होती है, जो सामाजिक परिवर्तन से संघर्ष करने लगती है। वस्तुत: आज इन्हीं परिस्थितियों को मात देकर नयी संस्कृति का निर्माण करना देश के सामने सबसे बड़ा कार्य है। इसमें शिक्षा-पद्धति और प्रसार-माध्यम महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। शिक्षा से भावी पीढ़ी पर सांस्कृतिक निष्ठा के संस्कार डाले जाते हैं। हमारी शिक्षा इस कसौटी पर खरी नहीं उतरी है। समाज में विषमता की खाई चौड़ी करने में ही इसका योगदान रहा है। यह अमीरों की दोस्त और गरीबों की दुश्मन हो गई है। एकाध ठीक-ठाक शाला में बच्चे को प्रवेश दिलाने में बीस हजार रुपये तक ‘हफ्ता’ देना पड़ता है।
प्रश्न

(क) उपयुक्त शीर्षक दीजिए। 1
(ख) संस्कृति की पहली मंजिल के मूल तत्व कौन-से हैं? उनकी क्या विशेषता है? 2
(ग) देश के समक्ष सबसे बड़ा कार्य क्या है? इसमें किनकी भूमिका महत्वपूर्ण हो सकती है। 2
(घ) जीवन मूल्यों को जीवन की आधारशिला क्यों कहा गया है? 2
(ङ) शिक्षा-पदधति की असफलता के कारणों का उल्लेख कीजिए। 2
(च) प्रत्यय बताइए – विषमता, सांस्कृतिक। 1

12. डॉ॰ जगदीशचंद्र बसु ने भारतीय सामग्री से भारत में ही विभिन्न प्रकार के सूक्ष्म-बोध यंत्र बना डाले, जिन्हें देखकर संसार के वैज्ञानिक आश्चर्यचकित रह गए। ये सभी यंत्र बसु विज्ञान मंदिर में मौजूद हैं। इन यंत्रों की मदद से वृक्षों के बढ़ने की अति सूक्ष्म गति को भी सूई से शीशे की प्लेट पर अंकित होते हुए देखा जा सकता है। यह गति एक सेकंड में औसतन एक इंच का लाखवाँ हिस्सा होती है, इसलिए क्रेस्टोग्राफ ही उसे अंकित कर सकता है। इन यंत्रों की सहायता से यह स्पष्ट देखा जा सकता है कि पौधे किस प्रकार भोजन ग्रहण करते हैं। पृथ्वी की नमी से अपना भोजन ग्रहण करते समय पौधे अत्यंत धीमी गति से ऑक्सीजन निकालते जाते हैं, जैसे श्वास छोड़ रहे हों। एक यंत्र द्वारा इस बात को देखा जा सकता है कि जब पेड़-पौधे ऑक्सीजन की एक खास मात्रा निकाल चुकते हैं तब यंत्र की सूई इसका संकेत देती है और एक घंटी अपने-आप बज उठती है। इसका मतलब है कि पौधे ने पर्याप्त भोजन ग्रहण कर लिया है। जिस समय पौधा धूप में रहता है, उस समय यह घंटी नियमित रूप से एक निश्चित अवधि के बाद बज उठती है, लेकिन छाया में या रात के समय पौधा भोजन ग्रहण करना बंद कर देता है।

और घंटी नहीं बजती। पौधे की जड़ों में अगर कोई उत्तेजक द्रव्य मिलाकर पानी डाला जाए तो घंटी बेतहाशा जोर से और जल्दी-जल्दी बजने लगती है, लेकिन अगर कोई मादक द्रव्य या विष मिला दिया जाए तो फिर घंटी नहीं बजती। हक्सले ने एक ऐसे वृक्ष का उल्लेख किया है जिसको कुछ दिन पहले आचार्य बसु ने ‘बसु विज्ञान मंदिर’ के उद्यान में आरोपित करने के लिए किसी दूसरी जगह से जड़ समेत उखड़वा कर मैंगाया था। पूरे वयस्क पेड़ को उखाड़कर फिर से आरोपित करना उसके लिए खतरनाक होता है, क्योंकि वह इस आघात से ही मर जाता है। क्लोरोफ़ार्म देकर मनुष्य के शरीर का ऑपरेशन किया जा सकता है और बेहोशी की अवस्था में मनुष्य के स्नायु बड़े-से-बड़े आघात झल लेते हैं इसी सिद्धांत को दृष्टि में रखकर डॉ० बसु ने उखाडने से पहले क्लोरोफ़ार्म देकर उस वृक्ष को बेहोश कर दिया था। होश में आने पर वृक्ष को इस बात का अनुभव भी नहीं हुआ कि उसने स्थान-परिवर्तन किया है। उसने तुरंत पृथ्वी में जड़ पकड़ ली और लहलहाने लगा। इस परीक्षण का ही परिणाम है कि आजकल नई सड़कों और पाकों के बनने पर रूस और अमेरिका में बड़े-बड़े पेड़ दूसरे स्थानों से लाकर वहाँ लगा दिए जाते हैं और एक रात में ही पार्क और सड़कें घने वृक्षों की छाया से ढक जाती हैं।
प्रश्न

(क) क्रेस्टोग्राफ क्या है? उसकी क्या उपयोगिता है? 2
(ख) यंत्र में लगी घंटी कब और क्यों बज उठती है? 2
(ग) डॉ० बसु के किस प्रयास से पौधा तुरंत लहलहाने लगा? 2
(घ) विज्ञान के छात्रों को ‘बसु विज्ञान मंदिर’ में क्यों जाना चाहिए? 2
(ङ) वयस्क, विष – विपरीतार्थक लिखिए। 1
(च) विज्ञान, छाया – विशेषण बनाकर पुनः लिखिए। 1

13. पशु और बालक भी जिनके साथ अधिक रहते हैं, उनसे परच जाते हैं। यह परचना परिचय ही है। परिचय प्रेम के प्रवर्तक है। बिना परिचय के प्रेम नहीं हो सकता। यदि देश-प्रेम के लिए हृदय में जगह करनी है तो देश के स्वरूप से परिचित और अभ्यस्त हो जाइए। बाहर निकलिए तो आँख खोलकर देखिए कि खेत कैसे लहलहा रहे हैं, नाले झाड़ियों के बीच कैसे बह रहे हैं, टेसू के फूलों से वनस्थली कैसी लाल हो रही है, कछारों में चौपायों के झुंड इधर-उधर चरते हैं चरवाहे तान लड़ा रहे हैं, अमराइयों के बीच गाँव झाँक रहे हैं, उनमें घुसिए, देखिए तो क्या हो रहा है। जो मिले उससे दो-दो बातें कीजिए, उनके साथ किसी पेड़ की छाया के नीचे घड़ी-आध-घड़ी बैठ जाइए और समझिए। ये सब हमारे देश के हैं।

इस प्रकार देश का रूप आपकी आँखों में समा जाएगा, आप उसके अंग-प्रत्यंग से परिचत हो जाएँगे, तब आपके अंत:करण में इस इच्छा का उदय होगा कि वह कभी न छूटे, वह सदा हरा-भरा और फला-फूला रहे, उसके धनधान्य की वृद्ध हो, उसके सब प्राणी सुखी रहे। पर आजकल इस प्रकार का परिचय बाबुओं की लज्जा का एक विषय हो रहा है। वे देश के स्वरूप से अनजान रहने या बनने में अपनी बड़ी शान समझते हैं। मैं अपने एक लखनवी दोस्त के साथ साँची का स्तूप देखने गया। वसंत का समय था। महुए चारों ओर टपक रहे थे। मेरे मुँह से निकला ‘महुओं की कैसी महक आ रही है।” इस पर लखनवी महाशय ने चट मुझे रोककर कहा-“यहाँ महुए-सहुए का नाम न लीजिए, लोग देहाती समझेगे।” मैं चुप हो गया। पीछे ध्यान आया यह वही लखनऊ है जहाँ कभी यह पूछने वाले भी थे कि गेहूँ का पेड़ आम के पेड़ से छोटा है या बड़ा।
प्रश्न

(क) देश से परिचय पाने के लिए आपको क्या-क्या करना होगा? 2
(ख) देश से परिचय होने पर हमारी अभिलाषा में क्या-क्या बदलाव आता है? 2
(ग) गदयांश में बाबुओं की किस मानसिकता पर व्यंग्य किया गया है? 2
(घ) कछारों को सजीव बनाने में किनका योगदान है और कैसे? 2
(ङ) समास-विग्रह कीजिए – चौपाया, देश-प्रेम। 1
(च) पर्याय लिखिए – वनस्थली, अमराई। 1

14. जिदंगी को ठीक से जीना हमेशा ही जोखिम झेलना है और जो आदमी सकुशल जीने के लिए जोखिम वाले हर जगह पर एक घेरा डालता है, वह अंतत: अपने ही घेरों के बीच कैद हो जाता है और जिंदगी का कोई मजा उसे नहीं मिल पाता; क्योंकि जोखिम से बचने की कोशिश में, असल में, उसने जिंदगी को ही आने से रोक रखा है। जिंदगी से, अंत में, हम उतना ही पाते हैं जितनी कि उसमें पूँजी लगाते हैं। यह पूँजी लगाना जिंदगी के संकटों का सामना करना है, उसके उस पन्ने को उलट कर पढ़ना है जिसके सभी अक्षर फूलों से नहीं, कुछ अंगारों से भी लिखे गए हैं। जिंदगी का भेद कुछ उसे ही मालूम है जो यह मानकर चलता है कि जिंदगी कभी भी खत्म न होने वाली चीज है। अरे! ओ जीवन के साधको! अगर किनारे की मरी हुई सीपियों से ही तुम्हें संतोष हो जाए तो समुद्र के अंतराल में छिपे हुए मौक्तिक-कोष को कौन बाहर लाएगा? कामना का अंचल छोटा मत करो, जिंदगी के फल को दोनों हाथों से दबाकर निचोड़ो, रस की निझरी तुम्हारे बहाए भी बह सकती है।
प्रश्न

(क) उपर्युक्त गदयांश में जिंदगी को ठीक ढंग से जीने के जो उपाय बताए गए हैं, उनमें से किन्हीं दो का उल्लेख कीजिए। 2
(ख) गदयांश में जीवन के साधकों को क्या चुनौती दी गई है? स्पष्ट कीजिए। 2
(ग) ‘जिंदगी के सभी अक्षर फूलों से नहीं, कुछ अंगारों से भी लिखे गए हैं।’ स्पष्ट करें। 2
(घ) गदयांश के अनुसार जिंदगी का भेद किसे मालूम है और कैसे? 2
(ङ) इस गदयांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए। 1
(च) उपसर्ग बताइए-सकुशल, संतोष। 1

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