Contents निम्नलिखित गदयांश तथा उन पर आधारित प्रश्नोत्तर ध्यानपूर्वक पढ़िए- अपठित गद्यांश for Class 11 Hindi Example 11. हँसी भीतरी आनंद का बाहरी चिहन है। जीवन की सबसे प्यारी और उत्तम-से-उत्तम वस्तु एक बार हँस लेना तथा
शरीर को अच्छा रखने की अच्छी-से-अच्छी दवा एक बार खिलखिला उठना है। पुराने लोग कह गए हैं कि हँसो और पेट फुलाओ। हँसी न जाने कितने ही कला-कौशलों से भली है। जितना ही अधिक आनंद से हँसोगे उतनी ही आयु बढ़ेगी। एक यूनानी विद्वान कहता है कि सदा अपने कर्मों को झीखने वाला हेरीक्लेस बहुत कम जिया, पर प्रसन्न मन डेमाक्रीटस 109 वर्ष तक जिया। हँसी-खुशी का नाम जीवन है। जो रोते हैं, उनका जीवन व्यर्थ है। कवि कहता है-‘जिंदगी जिंदादिली का नाम है, मुर्दादिल खाक जिया करते हैं।’ मनुष्य के शरीर के
वर्णन पर एक विलायती विद्वान ने एक पुस्तक लिखी है। उसमें वह कहता है कि उत्तम सुअवसर की हँसी उदास-से-उदास मनुष्य के चित्त को प्रफुल्लित कर देती है। आनंद एक ऐसा प्रबल इंजन है कि उससे शोक और दुख की दीवारों को ढा सकते हैं। प्राण रक्षा के लिए सदा सब देशों में उत्तम-से-उत्तम उपाय मनुष्य के चित्त को प्रसन्न रखना है। सुयोग्य वैद्य अपने रोगी के कानों में आनंदरूपी मंत्र सुनाता है। एक अंग्रेज डॉक्टर कहता है कि किसी नगर में दवाई लदे हुए बीस गधे ले जाने से एक हँसोड़ आदमी को ले जाना अधिक लाभकारी है। डॉक्टर
हस्फलेंड” ने एक पुस्तक में आयु बढ़ाने का उपाय लिखा है। वह लिखता है कि हँसी बहुत उत्तम चीज पाचन के लिए है, इससे अच्छी औषधि और नहीं है। एक रोगी ही नहीं, सबके लिए हँसी बहुत काम की वस्तु है। हँसी शरीर के स्वास्थ्य का शुभ संवाद देने वाली है। वह एक साथ ही शरीर और मन को प्रसन्न करती है। पाचन-शक्ति बढ़ाती है, रक्त को चलाती और अधिक पसीना लाती है। हँसी एक शक्तिशाली दवा है। एक डॉक्टर कहता है कि वह जीवन की मीठी मदिरा है। डॉ. हयूड कहता है कि आनंद से बढ़कर बहुमूल्य वस्तु मनुष्य के पास
और नहीं है। कारलाइल एक राजकुमार था। संसार त्यागी हो गया था। वह कहता है कि जो जी से हँसता है, वह कभी बुरा नहीं होता। जी से हँसी, तुम्हें अच्छा लगेगा। अपने मित्र को हँसाओ, वह अधिक प्रसन्न होगा। शत्रु को हँसाओ, तुमसे कम घृणा करेगा। एक अनजान को हँसाओ, तुम पर भरोसा करेगा। उदास को हँसाओ, उसका दुख घटेगा। निराश को हँसाओ, उसकी आशा बढ़ेगी। एक बूढ़े को हँसाओ, वह अपने को जवान समझने लगेगा। एक बालक को हँसाओ, उसके स्वास्थ्य में वृद्ध होगी। वह प्रसन्न और प्यारा बालक बनेगा, पर हमारे जीवन
का उद्देश्य केवल हँसी ही नहीं है, हमको बहुत काम करने हैं। तथापि उन कामों में, कष्टों में और चिंताओं में एक सुंदर आंतरिक हँसी, बड़ी प्यारी वस्तु भगवान ने दी है। हँसी सबको भली लगती है। मित्र-मंडली में हँसी विशेषकर प्रिय लगती है। जो मनुष्य हँसते नहीं उनसे ईश्वर बचावे। जहाँ तक बने हँसी से आनंद प्राप्त करो। प्रसन्न लोग कोई बुरी बात नहीं करते। हँसी बैर और बदनामी की शत्रु है और भलाई की सखी है। हँसी स्वभाव को अच्छा करती है। जी बहलाती है और बुद्ध को निर्मल करती है। (क) पुराने समय में लोगों ने हँसी को महत्व क्यों दिया? 2 उत्तर – (क) पुराने समय में हँसी को इसलिए महत्व दिया, क्योंकि वे जानते थे और कहते थे कि एक बार हँस लेना शरीर को स्वस्थ रखने की सबसे अच्छी दवा है। हँसी न जाने कितने कला-कौशलों से अच्छी है। जितना अधिक हँसोगे उतनी ही आयु बढ़ेगी। उस समय लोगों का यह भी मानना था कि हँसी-खुशी
ही जीवन है। जो रोते हैं, उनका जीवन व्यर्थ है। वे हँसी को सबके लिए बहुत ही काम की वस्तु मानते थे। अपठित गद्यांश for Class 11 Hindi Example 22. जाति-प्रथा को यदि श्रम-विभाजन मान लिया जाए तो यह स्वाभाविक विभाजन नहीं है, क्योंकि यह मनुष्य की रुचि पर आधारित नहीं है। कुशल व्यक्ति या सक्षम-श्रमिक-समाज का निर्माण करने के लिए यह आवश्यक है कि हम व्यक्तियों की क्षमता इस सीमा तक विकसित करें, जिससे वह अपना पेशा या कार्य का चुनाव स्वयं कर सके। इस सिद्धांत के विपरीत जाति-प्रथा का दूषित सिद्धांत यह है कि इससे मनुष्य के प्रशिक्षण अथवा उसकी निजी क्षमता का विचार किए बिना, दूसरे ही दृष्टिकोण जैसे माता-पिता के सामाजिक स्तर के अनुसार पहले से ही अर्थात् गर्भधारण के समय से ही मनुष्य का पेशा निर्धारित कर दिया जाता है। जाति-प्रथा पेशे का दोषपूर्ण पूर्व निर्धारण ही नहीं करती बल्कि मनुष्य को जीवन भर के लिए एक पेशे में बाँध भी देती है। भले ही पेशा अनुपयुक्त या अपर्याप्त होने के कारण वह भूखों मर जाए। आधुनिक युग में यह स्थिति प्राय: आती है, क्योंकि उद्योग-धंधे की प्रक्रिया व तकनीक में निरंतर विकास और कभी-कभी अकस्मात् परिवर्तन हो जाता है, जिसके कारण मनुष्य को अपना पेशा बदलने की आवश्यकता पड़ सकती है और यदि प्रतिकूल परिस्थितियों में
भी मनुष्य को अपना पेशा बदलने की स्वतंत्रता न हो, तो इसके लिए भूखों मरने के अलावा क्या चारा रह जाता है? हिंदू धर्म की जाति-प्रथा किसी भी व्यक्ति को ऐसा पेशा चुनने की अनुमति नहीं देता है, जो उसका पैतृक पेशा न हो, भले ही वह उसमें पारंगत है। इस प्रकार पेशा परिवर्तन की अनुमति न देकर जाति-प्रथा भारत में बेरोजगारी का एक प्रमुख व प्रत्यक्ष कारण बनी हुई है। (क) ‘जाति-प्रथा को स्वाभाविक श्रम-विभाजन नहीं कहा जा सकता।’ क्यों? 2 उत्तर – (क) जाति-प्रथा को स्वाभाविक श्रम-विभाजन इसलिए नहीं कहा जा सकता है क्योंकि इस प्रकार का श्रम-विभाजन मनुष्य की रुचि एवं कौशल पर आधारित न होकर अनिवार्य रूप से जन्म पर आधारित होता है। कुशल एवं योग्य या सक्षम श्रमिक-समाज हर देश और उसके समाज की आवश्यकता होते हैं। ऐसे श्रमिक तैयार करने के लिए उनकी
क्षमता को इतना विकसित करना चाहिए, जिससे वे अपने पेशा या कार्य का चुनाव स्वयं कर सकें, पर जाति-प्रथा पर आधारित श्रम-विभाजन में इसके लिए कोई स्थान ही नहीं है। अपठित गद्यांश for Class 11 Hindi Example 33. मनुष्य अपने भविष्य के बारे में चिंतित है। सभ्यता की अग्रगति के साथ ही चिंताजनक अवस्था उत्पन्न होती जा रही है। इस व्यावसायिक युग में उत्पादन की होड़ लगी हुई है। कुछ देश विकसित कहे जाते हैं। कुछ विकासोन्मुख। विकसित देश वे हैं जहाँ आधुनिक तकनीक का पूर्ण उपयोग हो रहा है। ऐसे देश नाना प्रकार की सामग्री का उत्पादन करते हैं और उस सामग्री की खपत के लिए बाजार ढूँढ़ते रहते हैं। अत्यधिक उत्पादन क्षमता के कारण ही ये देश विकसित और अमीर हैं। विकासोन्मुख या गरीब देश उनके समान ही उत्पादन करने की आकांक्षा रखते हैं और इसलिए उन सभी आधुनिक तरीकों की जानकारी प्राप्त करते हैं। उत्पादन-क्षमता बढ़ाने का स्वप्न देखते हैं। इसका परिणाम यह हुआ है कि सारे संसार में उन वायुमंडल प्रदूषण यंत्रों की भीड़ बढ़ने लगी है जो विकास के लिए परम आवश्यक माने जाते हैं। इन विकास-वाहक उपकरणों ने अनेक प्रकार की समस्याएँ उत्पन्न कर दी हैं। वायुमंडल विषाक्त गैसों से ऐसा भरता जा रहा है कि संसार का सारा पर्यावरण दूषित हो उठा है, जिससे वनस्पतियों तक के अस्तित्व संकटापन्न हो गए हैं। अपने बढ़ते उत्पादन की खपाने के लिए हर शक्तिशाली देश अपना प्रभाव क्षेत्र बढ़ा रहा है और आपसी प्रतिद्वंद्वता इतनी बढ़ गई है कि सभी ने मारणास्त्रों का विशाल भंडार बना रखा है। विज्ञान और तकनीकों के विकास से अणु बमों की अनेक संहारकारी किस्में ईजाद हुई हैं। ये यदि किसी सिरफिरे राष्ट्रनायक की झक के कारण सचमुच युद्ध क्षेत्र में प्रयुक्त होने लगें तो पृथ्वी जीवशून्य
हो जाएगी। कहीं भी थोड़ा-सा प्रमाद हुआ तो मनुष्य का नामलेवा कोई नहीं रह जाएगा। एक ओर जहाँ मनुष्य की बुद्ध ने धरती को मानव शून्य बनाने के भयंकर मारणास्त्र तैयार कर दिए हैं वहीं दूसरी ओर मनुष्य ही इस भावी मानव-विनाश की आशंका से सिहर भी उठा है। उसका एक समझदार समुदाय इस प्रकार की कल्पना मात्र से आतंकित हो गया है कि न जाने किस दिन संसार इस विनाश लीला का शिकार हो जाए। इतिहास साक्षी है कि बहुत-सी जीव-प्रजातियाँ विभिन्न कारणों से हमेशा-हमेशा के लिए विलुप्त हो गई, बहुत-सी आज भी क्रमश: विलुप्त होने की
स्थिति में हैं, पर उनके मन में कभी अपनी प्रगति के नष्ट हो जाने की आशंका हुई थी या नहीं, हमें नहीं मालूम। शायद मनुष्य पहला प्राणी है जिसमें थोड़ा-बहुत भविष्य देखने की शक्ति है। अन्य जीवों में यह शक्ति थी ही नहीं। यह विशेष रूप से ध्यान देने की बात है कि सिर्फ मनुष्य ही है जो अपने भविष्य के बारे में चिंतित है। यह सभी जानते हैं कि आधुनिक विज्ञान और तकनीकी ने मनुष्य को बहुत कुछ दिया है। उसी की कृपा से संसार के मनुष्य एक-दूसरे के निकट
आए हैं, अनेक पुराने संस्कार जो गलतफहमी पैदा करते थे, झड़ते जा रहे हैं। मनुष्य को निरोग, दीर्घजीवी और सुसंस्कृत बनाने के अनगिनत साधन बढ़े हैं, फिर भी मनुष्य चिंतित है। जो अंधाधुंध प्रकृति के मूल्यवान भंडारों की लूट मचाकर आराम और संपन्नता प्राप्त कर रहे हैं, वे बहुत परेशान नहीं हैं। वे यथास्थिति भी बनाए रखना चाहते हैं और यदि संभव हो तो अपनी व्यक्तिगत, परिवारगत और जातिगत संपन्नता अधिक-से-अधिक बढ़ा लेने के लिए परिश्रम भी कर रहे हैं। ऐसे सुखी लोग ‘मनुष्य का भविष्य’ जैसी बातों के कारण परेशान नहीं हैं।
पर जो लोग अधिक संवेदनशील हैं और मनुष्य जाति को महानाश की ओर बढ़ते देखकर विचलित हो उठते हैं, वे ही परेशान हैं। (क) संसार में वायुमंडल प्रदूषण के यंत्र क्यों बढ़ते जा रहे हैं? 2 उत्तर – (क) संसार के विकसित देश अपनी उत्पादन क्षमता को बढ़ाने के लिए आधुनिक तकनीक का पूर्ण उपयोग कर रहे हैं। ये उपकरण ऐसे हैं जो
वायुमंडल को प्रदूषित करते हैं। इन उपकरणों की संख्या निरंतर बढ़ रही है जो विकास के लिए आवश्यक माने जाते हैं। इसके अलावा इस व्यावसायिक युग में अधिकाधिक उत्पादन , बढ़ाने की होड़ लगी हुई है। विकसित और विकासोन्मुख दोनों ही वायुमंडल प्रदूषण की चिंता किए बिना उत्पादन बढ़ाने में जुटे हैं। अपठित गद्यांश for Class 11 Hindi Example 44. विद्वानों का यह कथन बहुत ठीक है कि विनम्रता के बिना स्वतंत्रता का कोई अर्थ नहीं। इस बात को सब लोग मानते हैं कि आत्मसंस्कार के लिए थोड़ी-बहुत मानसिक स्वतंत्रता परमावश्यक है-चाहे उस स्वतंत्रता में अभिमान और नम्रता दोनों का मेल हो और चाहे वह नम्रता ही से उत्पन्न हो। यह बात तो निश्चित है कि जो मनुष्य
मर्यादापूर्वक जीवन व्यतीत करना चाहता है उसके लिए वह गुण अनिवार्य है, जिससे आत्मनिर्भरता आती है और जिससे अपने पैरों के बल खड़ा होना आता है। युवा को यह सदा स्मरण रखना चाहिए कि वह बहुत कम बातें जानता है, अपने ही आदर्श से वह बहुत नीचे है और उसकी आकांक्षाएँ उसकी योग्यता से कहीं बढ़ी हुई हैं। उसे इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि वह अपने बड़ों का सम्मान करे, छोटों और बराबर वालों से कोमलता का व्यवहार करे, ये बातें आत्ममर्यादा के लिए आवश्यक हैं। (क) विनम्रता और स्वतंत्रता का परस्पर क्या संबंध है? 2 उत्तर – (क) विनम्रता और स्वतंत्रता का अत्यंत घनिष्ठ संबंध है। विनम्रता के अभाव में व्यक्ति उच्छुखल हो जाता है। वह स्वतंत्रता की आड़ में दूसरों की स्वतंत्रता का हनन करने लगता है। इससे स्वतंत्रता अर्थहीन होकर रह जाती है। इसके साथ ही आत्मसंस्कार के लिए मानसिक
स्वतंत्रता भी आवश्यक है। इस स्वतंत्रता में अभिमान और नम्रता का मेल होने से स्वतंत्रता का महत्व बढ़ जाता है। जो व्यक्ति स्वतंत्र होता है वही मर्यादित जीवन जी सकता है तथा मर्यादा में ही विनम्रता का भाव झलकता है। अपठित गद्यांश for Class 11 Hindi Example 55. पड़ोस सामाजिक जीवन के ताने-बाने का महत्वपूर्ण आधार है। दरअसल पड़ोस जितना स्वाभाविक है, हमारी सामाजिक सुरक्षा के लिए तथा सामाजिक जीवन की समस्त आनंदपूर्ण गतिविधियों के लिए वह उतना ही आवश्यक भी है। यह सच है कि पड़ोसी का चुनाव हमारे हाथ में नहीं होता, इसलिए पड़ोसी के साथ कुछ-न-कुछ सामंजस्य तो बिठाना ही पड़ता है। हमारा पड़ोसी अमीर हो या गरीब, उसके साथ संबंध रखना सदैव हमारे हित में ही होता है। पड़ोसी से परहेज करना अथवा उससे कटे-कटे रहने में अपनी ही हानि है, क्योंकि किसी भी आकस्मिक आपदा अथवा आवश्यकता के समय अपने रिश्तेदारों अथवा परिवार वालों को बुलाने में समय लगता है। यदि टेलीफोन की सुविधा भी है तो भी कोई निश्चय नहीं कि उनसे समय पर सहायता मिल ही जाएगी। ऐसे में पड़ोसी ही सबसे अधिक विश्वस्त सहायक हो सकता है। पड़ोसी चाहे कैसा भी हो, उससे अच्छे संबंध रखने ही चाहिए। जो अपने पड़ोसी से प्यार नहीं कर सकता, उससे सहानुभूति नहीं रख सकता, उसके साथ सुख-दुख का आदान-प्रदान नहीं कर सकता तथा उसके शोक और आनंद के क्षणों में शामिल नहीं हो सकता, वह भला अपने समाज अथवा देश के साथ क्या खाक भावनात्मक रूप में जुड़ेगा। विश्व-बंधुत्व की बात भी तभी मायने रखती है जब हम अपने पड़ोसी से निभाना सीखें। प्राय: जब भी पड़ोसी से खटपट होती है तो इसलिए कि हम आवश्यकता से अधिक पड़ोसी के व्यक्तिगत अथवा पारिवारिक जीवन में हस्तक्षेप करने लगते हैं। हम भूल जाते हैं कि किसी को भी अपने व्यक्तिगत जीवन में किसी की रोक-टोक और हस्तक्षेप अच्छा नहीं लगता। पड़ोसी के साथ कभी-कभी तब भी अवरोध पैदा हो जाते हैं जब हम आवश्यकता से अधिक उससे अपेक्षा करने लगते हैं। बात नमक-चीनी के लेने-देने से आरंभ होती है तो स्कूटर और कार तक माँगने की गुस्ताखी हम कर बैठते हैं। ध्यान रखना चाहिए कि जब तक बहुत जरूरी न हो, पड़ोसी से कोई चीज माँगने की नौबत ही न आए। आपको परेशानी में पड़ा देख पड़ोसी खुद ही आगे आ जाएगा। पड़ोसियों से निबाह करने के लिए सबसे महत्वपूर्ण यह है कि बच्चों को नियंत्रण में
रखें। आमतौर से बच्चों में जाने-अनजाने छोटी-छोटी बातों पर झगड़े होते हैं और बात बड़ों के बीच सिर फुटौवल तक जा पहुँचाती है। इसलिए पड़ोसी के बगीचे से फल-फूल तोड़ने, उसके घर में ऊधम मचाने से बच्चों पर सख्ती से रोक लगाएँ भूलकर भी पड़ोसी क बच्चे पर हाथ न उठाएँ, अन्यथा संबंधों में कड़वाहट आते देर न लगेगी। (क) कैसे कह सकते हैं कि पड़ोसी के साथ सामंजस्य बिठाना हमारे हित में है? 2 उत्तर – (क) अपनी सामाजिक सुरक्षा तथा सामाजिक जीवन की समस्त आनंदपूर्ण गतिविधियों के लिए पड़ोसी का महत्व बहुत अधिक है। हमें अपने पड़ोसी से यथासंभव सामंजस्य बनाकर रखना चाहिए। उससे अच्छे संबंध बनाकर न रखने में हमारी ही हानि है क्योंकि किसी भी आकस्मिक आपदा या आवश्यकता के समय अपने रिश्तेदारों और परिवारवालों के बुलाने में समय लगता है।
संचार की सुविधा होने पर भी उनसे मदद मिलने की शत-प्रतिशत गारंटी नहीं होती है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि पड़ोसी के साथ सामंजस्य बिठाना हमारे लिए हितकर होता है।
(घ) पड़ोसी
के साथ संबंधों में कड़वाहट न आने देने के लिए अपने बच्चों को नियंत्रण में रखें। इस बात का विशेष ध्यान रखें कि आपके बच्चे उनके बगीचे से फल-फूल न तोड़ें, उनके घरों में शोर-शराबा न मचाएँ। भूलकर भी पड़ोसी के बच्चे पर हाथ न उठाएँ, अन्यथा यही छोटी-सी बात सिर फुटौवल का कारण बन जाती है। अपठित गद्यांश for Class 11 Hindi Example 66. राष्ट्रीय भावना के अभ्युदय एवं विकास के लिए भाषा भी एक प्रमुख तत्व है। मानव समुदाय अपनी संवेदनाओं, भावनाओं एवं विचारों की अभिव्यक्ति हेतु भाषा का साधन अपरिहार्यत: अपनाता हैं, इसके अतिरिक्त उसके पास कोई अन्य विकल्प नहीं है। दिव्य-ईश्वरीय आनंदानुभूति के संबंध में भले ही कबीर ने ‘गूंगे केरी शर्करा’ उक्ति का प्रयोग किया था, पर इससे उनका लक्ष्य शब्द-रूप भाषा के महत्व को नकारना नहीं था। प्रत्युत उन्होंने भाषा को ‘बहता नीर’ कहकर भाषा की गरिमा प्रतिपादित की थी। विद्वानों की मान्यता है कि भाषा तत्व राष्ट्रहित के लिए अत्यावश्यक है। जिस प्रकार किसी एक राष्ट्र के भूभाग की भौगोलिक विविधताएँ तथा उसके पर्वत, सागर, सरिताओं आदि की बाधाएँ उस राष्ट्र के निवासियों के परस्पर मिलने-जुलने में अवरोधक सिद्ध हो सकती हैं, उसी प्रकार भाषागत विभिन्नता से भी उनके पारस्परिक संबंधों में निर्बाधता नहीं रह पाती। आधुनिक विज्ञान युग में यातायात एवं संचार के साधनों की प्रगति से भौगोलिक बाधाएँ अब पहले की तरह बाधित नहीं करतीं। इसी प्रकार यदि राष्ट्र की एक संपर्क भाषा का विकास हो जाए तो पारस्परिक संबंधों के गतिरोध बहुत सीमा तक समाप्त हो सकते हैं। मानव-समुदाय को एक जीवित-जाग्रत एवं जीवंत शरीर की संज्ञा दी जा सकती है और उसका अपना एक निश्चित व्यक्तित्व होता है। भाषा अभिव्यक्ति के माध्यम से इस व्यक्तित्व को साकार करती है, उसके अमूर्त मानसिक, वैचारिक स्वरूप को मूर्त एवं बिंबात्मक रूप प्रदान करती है। मनुष्यों के विविध समुदाय हैं, उनकी विविध भावनाएँ हैं. विचारधाराएँ हैं. संकल्प एवं आदर्श हैं, उन्हें भाषा ही अभिव्यक्त करने में सक्षम होती है। साहित्य, शास्त्र, गीत-संगीत आदि में मानव-समुदाय अपने आदशों, संकल्पनाओं, अवधारणाओं एवं विशिष्टताओं को वाणी देता है, पर क्या भाषा के अभाव में काव्य, साहित्य, संगीत आदि का अस्तित्व संभव है? वस्तुत: ज्ञानराशि एवं भावराशि का अपार संचित कोश जिसे
साहित्य का अभिधान दिया जाता है, शब्द-रूप ही तो है। अत: इस संबंध में वैमत्य की किंचित् गुंजाइश नहीं है कि भाषा ही एक ऐसा साधन है जिससे मनुष्य एक-दूसरे के निकट आ सकते हैं, उनमें परस्पर घनिष्ठता स्थापित हो सकती है। यही कारण है कि एक भाषा बोलने एवं समझने वाले लोग परस्पर एकानुभूति रखते हैं, उनके विचारों में ऐक्य रहता है। अत: राष्ट्रीय भावना के विकास के लिए भाषा तत्व परम आवश्यक है। (क) उपयुक्त शीर्षक दीजिए। 1 उत्तर – (क) शीर्षक – राष्ट्रीयता और भाषा तत्व। अपठित गद्यांश for Class 11 Hindi Example 77. मानव जीवन में आत्मसम्मान का अत्यधिक महत्व है। आत्मसम्मान में अपने व्यक्तित्व को अधिकाधिक सशक्त एवं प्रतिष्ठित बनाने की भावना निहित होती है। इससे शक्ति, साहस, उत्साह आदि गुणों का जन्म होता है जो जीवन की उन्नति का मार्ग प्रशस्त करते हैं। आत्मसम्मान की भावना से पूर्ण व्यक्ति संघर्षों की परवाह नहीं करता है और हर विषम परिस्थिति से टक्कर लेता है। ऐसे व्यक्ति जीवन में पराजय का मुँह नहीं देखते तथा निरंतर यश की प्राप्ति करते हैं। आत्मसम्मानी व्यक्ति धर्म, सत्य, न्याय और नीति के पथ का अनुगमन करता है। उसके जीवन में ही सच्चे सुख और शांति का निवास होता है। परोपकार, जनसेवा जैसे कार्यों में उसकी रुचि होती है। लोकप्रियता और सामाजिक प्रतिष्ठा उसे सहज ही प्राप्त होती है। ऐसे व्यक्ति में अपने राष्ट्र के प्रति सच्ची निष्ठा होती है तथा मातृभूमि की उन्नति के लिए वह अपने प्राणों को उत्सर्ग करने में भी सुख की अनुभूति करता है। चूँकि आत्मसम्मानी व्यक्ति अपनी अथवा दूसरों की आत्मा का हनन करना पसंद नहीं करता है, इसलिए वह ईष्र्या-द्वेष जैसी भावनाओं से मुक्त होकर मानव मात्र को अपने परिवार का अंग मानता है। उसके हृदय में स्वार्थ, लोभ और अहकार का भाव नहीं होता। निश्छल हृदय होने के कारण वह आसुरी प्रवृत्तियों से सर्वथा मुक्त होता है। उसमें ईश्वर के प्रति सच्ची भक्ति एवं विश्वास होता है, जिससे उसकी आध्यात्मिक शक्ति का विकास होता है। जीवन को सरस और मधुर बनाने के लिए आत्मसम्मान रसायन-तुल्य है। आत्मसम्मान प्रत्येक जाति
तथा राष्ट्र की प्रेरणा का दैवी स्रोत है। मानव-मात्र के मौलिक गुणों की यह विभूति है। प्रत्येक व्यक्ति का सर्वश्रेष्ठ कर्तव्य है कि आत्मसम्मान की सुरक्षा के लिए सतत प्रस्तुत रहे। इसे खोकर हम सर्वस्व खो देंगे। हमारी संस्कृति, हमारा धर्म, यहाँ तक कि हमारा अस्तित्व ही इसके अभाव में लुप्त हो जाएगा। परतंत्रता के युग में हमारे सार्वजनिक जीवन में आत्मसम्मान को निरंतर ठेस लगती रही है। चूँकि विदेशी प्रभुसत्ता ने उसका दमन करने में कोई कसर उठा नहीं रखी, इसलिए भरतीयों ने राष्ट्रपिता के नेतृत्व में आत्मसम्मान
की प्रतिष्ठा के लिए स्वतंत्रता का संग्राम किया तथा उसमें सफलता प्राप्त की। आज प्रत्येक भारतीय को उच्च नैतिक मूल्यों, राष्ट्रीय एकता तथा आत्मसम्मान की रक्षा करनी है। (क) आत्मसम्मान का मानव जीवन में क्या महत्व है? . 2 उत्तर – (क) आत्मसम्मान व्यक्ति का वह गुण होता है, जिसमें व्यक्तित्व
को अधिकाधिक सशक्त एवं प्रतिष्ठित बनाने की भावना निहित होती है। जिस व्यक्ति में आत्मविश्वास होता है, उसी में शक्ति, साहस, उत्साह जैसे गुण पुष्पित-पल्लवित होते हैं जो जीवन को उन्नति के पथ की ओर अग्रसर करते हैं। आत्मसम्मान के अभाव में न तो व्यक्ति संघर्ष का रास्ता चुनता है और न विजय प्राप्त कर पाता है, अत: व्यक्ति के जीवन में आत्मसम्मान का बहुत महत्व है। अपठित गद्यांश for Class 11 Hindi Example 88. आज हम इस असमंजस में पड़े हैं और यह निश्चय नहीं कर पाए हैं कि हम किस ओर चलेंगे और हमारा ध्येय क्या है? स्वभावत: ऐसी अवस्था में हमारे पैर लड़खड़ाते हैं। हमारे विचार में भारत के लिए और सारे संसार के लिए सुख और शांति का एक ही रास्ता है और वह है अहिंसा और आत्मवाद का। अपनी दुर्बलता के कारण हम उसे ग्रहण न कर सके, पर उसके सिद्धांतों को तो हमें स्वीकार कर ही लेना चाहिए और उसके प्रवर्तन का इंतजार करना चाहिए। यदि हम सिद्धांत ही न मानेंगे तो उसके प्रवर्तन की आशा कैसे की जा सकती है। जहाँ तक मैंने महात्मा गाँधी जी के सिद्धांत को समझा है, वह इसी आत्मवाद और अहिंसा के, जिसे वे सत्य भी कहा करते थे, मानने वाले और प्रवर्तक थे। उसे ही कुछ लोग आज गाँधीवाद का नाम भी दे रहे हैं। यद्यपि महात्मा गाँधी ने बार-बार यह कहा था कि ” वे किसी नए सिद्धांत या वाद के प्रवर्तक नहीं हैं और उन्होंने अपने जीवन में प्राचीन सिद्धांतों को अमल कर दिखाने का यत्न किया।” विचार कर देखा जाए, तो जितने सिद्धांत अन्य देशों , अन्य-अन्य काल और स्थितियों में भिन्न-भिन्न नामों और धर्मों से प्रचलित हुए हैं, सभी अंतिम और मार्मिक अन्वेषण के बाद इसी तत्व अथवा सिद्धांत में समाविष्ट पाए जाते हैं। केवल भौतिकवाद इनसे अलग है। हमें असमंजस की स्थिति से बाहर निकलकर निश्चय
कर लेना है कि हम अहिंसावाद, आत्मवाद और गाँधीवाद के अनुयायी और समर्थक हैं न कि भौतिकवाद के। प्रेय और श्रेय में से हमें श्रेय को चुनना है। श्रेय ही हितकर है, भले ही वह कठिन और श्रमसाध्य हो। इसके विपरीत प्रेय आरंभ में भले ही आकर्षक दिखाई दे, उसका अंतिम परिणाम अहितकर होता है। (क) उपयुक्त शीर्षक दीजिए। 1 उत्तर – (क) शीर्षक-श्रेय या प्रेय! अपठित गद्यांश for Class 11 Hindi Example 99. संस्कृति ऐसी चीज नहीं जिसकी रचना दस-बीस या सौ-पचास वर्षों में की जा सकती हो। हम जो कुछ भी करते हैं उसमें हमारी संस्कृति की झलक होती है; यहाँ तक कि हमारे उठने-बैठने, पहनने-ओढ़ने, घूमने-फिरने और रोने-हँसने से भी हमारी संस्कृति की पहचान होती है, यद्यपि हमारा कोई भी एक काम हमारी संस्कृति का पर्याय नहीं बन सकता। असल में, संस्कृति जीने का एक तरीका है और यह तरीका सदियों से जमा होकर उस समाज में छाया रहता है जिसमें हम जन्म लेते हैं। इसलिए, जिस समाज में हम पैदा हुए हैं अथवा जिस समाज से मिलकर हम जी रहे हैं, उसकी संस्कृति हमारी संस्कृति है; यद्यपि अपने जीवन में हम जो संस्कार जमा कर रहे हैं वह भी हमारी संस्कृति का अंग बन जाते हैं और मरने के बाद हम अन्य वस्तुओं के साथ अपनी संस्कृति की विरासत भी अपनी संतानों के लिए छोड़ जाते हैं। इसलिए, संस्कृति वह चीज मानी जाती है जो हमारे सारे जीवन को व्यापे हुए है तथा जिसकी रचना और विकास में अनेक सदियों के अनुभवों का हाथ हैं। यही नहीं, बल्कि संस्कृति हमारा पीछा जन्म-जन्मांतर तक करती है। अपने यहाँ एक साधारण कहावत है कि जिसका जैसा संस्कार है, उसका वैसा ही पुनर्जन्म भी होता है। जब हम किसी बालक या बालिका को बहुत तेज पाते हैं तब अचानक कह देते हैं कि वह पूर्वजन्म का संस्कार है। संस्कार या संस्कृति, असल में, शरीर का
नहीं, आत्मा का गुण है और जबकि सभ्यता की सामग्रियों से हमारा संबंध शरीर के साथ ही छूट जाता है, तब भी हमारी संस्कृति का प्रभाव हमारी आत्मा के साथ जन्म-जन्मांतर तक चलता रहता है। (क) उपयुक्त गदयांश का शीर्षक बताइए। 1 उत्तर – (क) शीर्षक-सभ्यता और संस्कृति। अपठित गद्यांश for Class 11 Hindi Example 1010. विज्ञापन कला जिस तेजी से उन्नति कर रही है, उससे मुझे भविष्य के लिए और भी अंदेशा है। लगता है ऐसा युग आने वाला है जब शिक्षा, विज्ञान, संस्कृति और साहित्य इनका केवल विज्ञापन कला के लिए ही उपयोग रह जाएगा। वैसे ती आज भी इस कला के लिए इनका खासा उपयोग होता है। बहुत-सी शिक्षण संस्थाएँ हैं जो सांप्रदायिक संस्थाओं का विज्ञापन मात्र हैं। अपनी पीढ़ी के कई लेखकों की कृतियाँ लाला छगनलाल, मगनलाल या इस तरह के नाम के किसी और लाल की स्मारक निधि से प्रकाशित होकर लाला जी की दिवंगत आत्मा के प्रति स्मारक होने का फर्ज अदा कर रही हैं मगर आने वाले युग में यह कला, दो कदम आगे बढ़ जाएगी। विद्यार्थियों को विश्वविद्यालय के दीक्षांत महोत्सव पर जो डिग्रियाँ दी जाएँगी, उनके निचले कोने में छपा रहेगा- ‘आपकी शिक्षा के उपयोग का एक ही मार्ग है, आज ही आयात-निर्यात का धंधा प्रारंभ कीजिए। मुफ्त सूचीपत्र के लिए लिखिए।’ हर
नए आविष्कार का चेहरा मुस्कराता हुआ टेलीविजन पर जाकर कुछ इस तरह निवेदन करेगा-‘मुझे यह कहते हुए हार्दिक प्रसन्नता है कि मेरे प्रयत्न की सफलता का सारा श्रेय रबड़ के टायर बनाने वाली कंपनी को है, क्योंकि उन्हीं के प्रोत्साहन ओर प्रेरणा से मैंने इस दिशा में कदम बढ़ाया था . विष्णु के मंदिर खड़े होंगे, जिनमें संगमरमर की सुंदर प्रतिमा के नीचे पट्टी लगी होगी-‘याद रखिए, इस मूर्ति और इस भवन के निर्माण का श्रेय लाल हाथी के निशान वाले निर्माताओं को है। वास्तुकला संबंधी अपनी सभी
आवश्यकताओं के लिए लाल हाथी का निशान कभी मत भूलिए।’ और ऐसे-ऐसे उपन्यास हाथ में आया करेंगे जिनकी सुंदर चमड़े की जिल्द पर एक ओर बारीक अक्षरों में लिखा होगा-साहित्य में अभिरुचि रखने वालों को इक्का माकी साबुन वालों की एक और तुच्छ भेंट और बात बढ़ते-बढ़ते यहाँ तक पहुँच जाएगी कि जब एक दूल्हा बड़े अरमान से दुल्हन ब्याहकर घर आएगा और घूंघट हटाकर उसके रूप की प्रसन्नता में पहला वाक्य कहेगा, तो दुल्हन मधुर भाव से आँख उठाकर हृदय का सारा दुलार शब्दों में उड़ेलती हुई कहेगी- ‘रोज सुबह उठकर नौ सौ इक्यावन नंबर के
साबुन से नहाती हूँ।’ (क) उपयुक्त शीर्षक दीजिए। 1 उत्तर – (क) शीर्षक-विज्ञापन की बढ़ती दुनिया। अपठित गद्यांश for Class 11 Hindi Example 1111. डॉ० जाकिर हुसैन भारत के असली सपूत थे, इसका सबूत उन्होंने पदारूढ़ होने के एक दिन पहले तब दिया जब वे दिल्ली में श्रृंगेरी के जगद्गुरु स्वामी शंकराचार्य से भेंट करने गए। जगद्गुरु के सामने पुष्प और फल रखते हुए उन्होंने कहा था-आपका आशीर्वाद चाहिए और शंकराचार्य ने राष्ट्रपति के सिर पर हाथ रख कर उन्हें आशीर्वाद दिया था। ऐसी ही एक और घटना याद आती है। उपराष्ट्रपति निवास के अहाते में एक दिन सवेरे घूम रहे थे तो देखा कि माली के घर में कीर्तन हो रहा है। फिर क्या था, टहलते हुए उधर चले गए और सबके साथ एक कोने में दरी पर बैठ गए। जब कुरसी लाने के लिए कहा गया तो बोले, ‘भगवान के घर में सब बराबर होते हैं।” और दरी पर बैठे रहे। पटियाला में पंजाबी विश्वविद्यालय में गुरु गोबिंद सिंह के संस्थान की नींव रखने को आपसे कहा गया तो बोले, “आपने मुझसे इस पवित्र संस्थान की नींव रखने को कहा है। इससे मुझे याद आता है कि अमृतसर में दरबार साहब की नींव डालने के लिए भी एक मुसलमान को ही बुलाया गया था,” और यह कहते-कहते उनका गला भर आया, आँखों से आँसू बहने लगे। बड़े-बड़े योद्धा, सिख सरदार, श्रोताओं की भी उस समय आँखें भर आई। अपने साफ़-सुथरे सुरुचिपूर्ण खादी के कपड़ों और सुरुचि से सँवारी सफेद दाढ़ी के बीच चमकते हलके गुलाबी गौर वर्ण मुखमंडल से जाकिर साहब प्रेम और आत्मीयता में गाँधी जी के अंतिम उत्तराधिकारी नजर आते थे। देश के आने वाले बच्चे बापू को भूल न जाएँ, इस संबंध में उन्होंने एक बार कहा था, “आप आज्ञा दें तो इस अवसर से लाभ उठाकर गाँधी जी के संबंध में कुछ आपसे कहूँ। उनको जानने और समझने से उनके काम को समझना और उसमें ! जी-जान से लगना जरा सरल हो सकता है। यह इसलिए और भी करना चाहता हूँ कि अब दिन पर दिन उन लोगों की संख्या घट रही है जिन्होंने गाँधी जी को देखा था, उनके साथ काम किया था, उनके बताए हुए
रास्ते पर चले, थे। जब वे दुनिया से गए तो ये लोग बच्चे थे। बहुत से पैदा भी नहीं हुए थे। उनकी गिनती अब दिन-पर-दिन बढ़ती? ही जाएगी। नया काल होगा, नए हाल होंगे, नए जंजाल होंगे, ऐसा न हो कि यह नयी नस्ल गाँधी जी और उनके की तह में जो विचार थे उनको भुला बैठे। ऐसा हुआ तो हमारी सबसे मूल्यवान पूँजी बरबाद हो जाएगी।” (क) डॉ० जाकिर हुसैन ने भारत का असली सपूत होने का प्रमाण किस प्रकार दिया? 2 उत्तर – (क) राष्ट्रपति पद पर सुशोभित होने से एक दिन पूर्व डॉ. जाकिर हुसैन जगद्गुरु स्वामी शंकराचार्य से मिलने और उनका आशीर्वाद प्राप्त करने गए। ऐसा करते हुए उन्होंने धार्मिक सौहार्द का अनूठा उदाहरण प्रस्तुत करते हुए हिंदू-मुस्लिम का भेद नहीं किया। उन्होंने धार्मिक रूढ़ि को त्यागकर भारत का असली सपूत होने का प्रमाण दिया। अपठित गद्यांश for Class 11 Hindi Example 1212. साहित्य की शाश्वतता का प्रश्न एक महत्वपूर्ण प्रश्न है। क्या साहित्य शाश्वत होता है? यदि हाँ तो किस मायने में? क्या कोई साहित्य अपने रचनाकाल के सौ वर्ष बीत जाने पर भी उतना ही प्रासंगिक रहता है, जितना वह अपनी रचना के समय था? अपने समय या युग का निर्माता साहित्यकार क्या सौ वर्ष बाद की परिस्थितियों का भी युग निर्माता हो पाठक की मानसिकता और अभिरुचि भी बदलती है। अत: कोई भी कविता अपने सामयिक परिवेश के बदल जाने पर ठीक वही उत्तेजना पैदा नहीं कर सकती जो उसने अपने रचनाकाल के दौरान की होगी। कहने का तात्पर्य यह है कि एक विशेष प्रकार के साहित्य के श्रेष्ठ अस्तित्व मात्र से वह साहित्य हर युग के लिए उतना ही विशेष आकर्षण रखे, यह आवश्यक नहीं है। यही कारण है कि वर्तमान युग में इंगला-पिंगला, सुषुम्ना, अनहद, नाद आदि पारिभाषिक शब्दावली मन में विशेष भावोत्तेजन नहीं करती। साहित्य की श्रेष्ठता मात्र ही उसके नित्य आकर्षण का आधार नहीं है। उसकी श्रेष्ठता का युगयुगीन आधार है, वे जीवन-मूल्य तथा उनकी
अत्यंत कलात्मक अभिव्यक्ति जो मनुष्य की स्वतंत्रता तथा उच्चतर मानव विकास के लिए पथ-प्रदर्शक का काम करती है। पुराने साहित्य का केवल वही श्री-सौंदर्य हमारे ग्राहय होगा जो नवीन जीवन-मूल्यों के विकास में सक्रिय सहयोग दे अथवा स्थिति रक्षा में सहायक हो। कुछ लोग साहित्य की सामाजिक प्रतिबद्धता को अस्वीकार करते हैं। वे मानते हैं कि साहित्यकार निरपेक्ष होता है और उस पर कोई भी दबाव आरोपित नहीं होना चाहिए। किंतु वे भूल जाते हैं कि साहित्य के निर्माण की मूल प्रेरणा मानव जीवन में ही विद्यमान रहती है। जीवन के
लिए ही उसकी सृष्टि होती है। तुलसीदास जब स्वांत:सुखाय काव्य रचना करते हैं तब अभिप्राय यह नहीं रहता कि मानव समाज के लिए इस रचना का कोई उपयोग नहीं है, बल्कि उनके अंत:करण में संपूर्ण संसार की सुख-भावना एवं हित-कामना सन्निहित रहती है। जो साहित्यकार अपने संपूर्ण व्यक्तित्व को व्यापक लोक-जीवन में सन्निविष्ट कर देता है, उसी के हाथों स्थायी एवं प्रेरणाप्रद साहित्य का सृजन हो सकता है। (क) उपयुक्त शीर्षक दीजिए। 1 उत्तर – (क) शीर्षक-साहित्य की प्रासंगिकता। अपठित गद्यांश for Class 11 Hindi Example 1313. भारतीय मनीषा ने कला, धर्म, दर्शन और साहित्य के क्षेत्र में नाना भाव से महत्वपूर्ण फल पाए हैं और भविष्य में र्माता के इशारों को समझकर ही हम अपनी योजना बनाएँ तो सफलता की आशा कर सकते हैं।भी महत्वपूर्ण फल पाने की योग्यता का परिचय वह दे चुकी है, परंतु भिन्न कारणों से समूची जनता एक ही धरातल पर नहीं है और सबकी चिंतन-दृष्टि भी एक नहीं है। जल्दी ही कोई फल पा लेने की आशा में अटकलपच्चू सिद्धांत कायम कर लेना और उसके आधार पर कार्यक्रम बनाना अभिष्ट सिद्ध में सब समय सहायक नहीं होगा। विकास की अलग-अलग सीढ़ियों पर खड़ी जनता के लिए नाना प्रकार के कार्यक्रम आवश्यक होंगे। उद्देश्य की एकता ही विविध कार्यक्रमों में एकता ला सकती है, परंतु इतना निश्चित है कि जब तक हमारे सामने उद्देश्य स्पष्ट नहीं हो जाता, तब तक कोई भी कार्य. कितनी ही व्यापक शुभेच्छा के साथ क्यों न आरंभ किया जाए, वह फलदायक नहीं होगा। बहुत से लोग हिंदू-मुसलिम एकता को या हिदू-संघटन को ही लक्ष्य मानकर उपाय सोचने लगते हैं। वस्तुत: हिदू-मुसलिम एकता भी साधन हैं, साध्य नहीं। साध्य है मनुष्य को पशु समान स्वार्थी धरातल से ऊपर उठाकर ‘मनुष्यता’ के आसन पर बैठाना। हिंदू और मुसलिम अगर मिलकर संसार में लूट-खसोट मचाने के लिए साम्राज्य स्थापित करने निकल पड़े तो उस हिंदू-मुसलिम मिलन से मनुष्यता काँप उठेगी। परंतु
हिंदू-मुसलिम मिलन का उद्देश्य है मनुष्य को दासता, जड़ता, मोह, कुसंस्कार और परमुखापेक्षिता से बचाना, मनुष्य को क्षुद्र स्वार्थ और अहमिका की दुनिया से ऊपर उठाकर सत्य, न्याय और औदार्य की दुनिया में ले जाना, मनुष्य द्वारा मनुष्य का शोषण को हटाकर परस्पर सहयोगिता के पवित्र बंधन में बाँधना। मनुष्य का सामूहिक कल्याण ही हमारा लक्ष्य हो सकता है। वही मनुष्य का सर्वोत्तम प्राप्य है। आर्य, द्रविड़, शक, नाग आदि जातियों के सैकड़ों वर्षों के संघर्ष के बाद हिंदू दृष्टिकोण बना है। नए सिरे से भारतीय दृष्टिकोण
बनाने के लिए इतने लंबे अरसे की जरूरत नहीं है। आज हम इतिहास को अधिक यथार्थ ढंग से समझ सकते हैं और तदनुकूल अपने विकास की योजना बना सकते हैं। धैर्य हमें कभी नहीं छोड़ना चाहिए। इतिहास नि (क) उपयुक्त शीर्षक दीजिए। 1 उत्तर – (क) शीर्षक-हिंदू-मुसलिम ऐक्य। अपठित गद्यांश for Class 11 Hindi Example 1414. हम अपने कार्यों को देश के अनुकूल होने की कसौटी पर कसकर चलने की आदत डालें, यह बहुत उचित है, बहुत सुंदर है, पर हम इसमें तब तक सफल नहीं हो सकते, जब तक कि हम अपने देश की भीतरी दशा को ठीक-ठाक न समझ लें और उसे हमेशा अपने सामने न रखें। हमारे देश को दो बातों की सबसे पहले और सबसे ज्यादा जरूरत है। एक शक्ति-बोध और दूसरा सौंदर्य-बोध! बस, हम यह समझ लें कि हमारा कोई भी काम ऐसा न हो जो देश में कमजोरी की भावना को बल दे या कुरुचि की भावना की। “जरा अपनी बात को और स्पष्ट कर दीजिए।” यह आपकी राय और मैं इससे बहुत ही खुश हूँ कि आप मुझसे यह स्पष्टता माँग रहे हैं। क्या आप चलती रेलों में, मुसाफिरखानों में, क्लबों में, चौपालों पर और मोटर-बसों में कभी ऐसी चर्चा करते हैं कि हमारे देश में यह नहीं हो रहा है, वह नहीं हो रहा है और यह गड़बड़ है, वह परेशानी है? साथ ही क्या इन स्थानों में या इसी तरह के दूसरे स्थानों में आप कभी अपने देश के साथ दूसरे देशों की तुलना करते हैं और इस तुलना में अपने देश को हीन और दूसरे देशों को श्रेष्ठ सिद्ध करते हैं? यदि इन प्रश्नों का उत्तर ‘हाँ’ है, तो आप देश के शक्ति बोध को भयंकर चोट पहुँचा रहे हैं और आपके हाथों देश के सामूहिक मानसिक बल का ह्रास हो रहा है। सुनी है आपने शल्य की बात! वह महाबली कर्ण का सारथी था। जब भी कर्ण अपने पक्ष की विजय की घोषणा करता, हुंकार भरता, वह अर्जुन की अजेयता का एक हल्का-सा उल्लेख कर देता।
बार-बार इस उल्लेख ने कर्ण के सघन आत्मविश्वास में संदेह की तरेड़ डाल दी, जो उसकी भावी पराजय की नींव रखने में सफल हो गई। अच्छा, आप इस तरह की चर्चा कभी नहीं करते, तो मैं आपसे दूसरा प्रश्न पूछता हूँ। क्या आप कभी केला खाकर छिलका रास्ते में फेंकते हैं! अपने घर का कूड़ा बाहर फेंकते हैं? मुँह से गंदे शब्दों में गंदे भाव प्रकट करते हैं? इधर की उधर, उधर की इधर लगाते हैं, अपना घर, दफ्तर, गली गंदी रखते हैं? होटलों, धर्मशालाओं में या दूसरे ऐसे ही स्थानों में, जीनों में, कोनों में पीक थूकते हैं? उत्सवों,
मेलों, रेलों और खेलों में ठेलमठेल करते हैं, निमंत्रित होने पर समय से लेट पहुँचते हैं या वचन देकर भी घर आने वालों को समय पर नहीं मिलते और इसी तरह किसी भी रूप में क्या सुरुचि और सौंदर्य को आपके किसी काम से ठेस लगती है? यदि आपका उत्तर हाँ है, तो आपके द्वारा देश के सौंदर्य-बोध को भयंकर आघात लग रहा है और आपके द्वारा देश की संस्कृति को गहरी चोट पहुँच रही है। (क) ‘अपने कार्यों को देश की कसौटी पर कसकर करने’ का तात्पर्य स्पष्ट
कीजिए। 2 उत्तर – (क) हमें ऐसे कार्यों को नहीं करना चाहिए, जिससे अपने देश का किसी प्रकार से अहित हो। हमारे द्वारा किया गया कार्य उचित है या अनुचित या हम जाने-अनजाने कोई ऐसा कार्य तो नहीं कर रहे हैं जो देश में कमजोरी और कुरुचि की भावना को बढ़ावा दे रहा है, इस पर विचार कर लेना चाहिए। इस कसौटी पर खरा होने पर अर्थात् हमारे द्वारा किया जो कार्य देश हित में है, उसी को करना उचित है। अपठित गद्यांश for Class 11 Hindi Example 1515. स्वतंत्र व्यवसाय की अर्थनीति के नए वैश्विक वातावरण ने विदेशी पूँजी निवेश को खुली छूट दे रखी है जिसके कारण दूरदर्शन में ऐसे विज्ञापनों की भरमार हो गई है जो उन्मुक्त वासना, हिंसा, अपराध, लालच और ईष्यां जैसे मानव की हीनतम प्रवृत्तियों को आधार मानकर चल रहे हैं। अत्यंत खेद का विषय है कि राष्ट्रीय दूरदर्शन ने भी उनकी भौंडी
नकल की ठान ली है। के नाम पर जो कुछ दिखाया जा रहा है, सुनाया जा रहा है, उससे भारतीय जीवन मूल्यों का दूर का भी रिश्ता नहीं है, वे सत्य से भी कोसों दूर हैं। नयी पीढ़ी जो स्वयं में रचनात्मक गुणों के विकास करने की जगह दूरदर्शन के सामने बैठकर कुछ सीखना, जानना और मनोरंजन करना चाहती है, उसका भगवान ही मालिक है। जो असत्य है, वह सत्य नहीं हो सकता। समाज को शिव बनाने का प्रयत्न नहीं होगा तो समाज शव बनेगा ही। आज यह मजबूरी हो गई है कि दूरदर्शन पर दिखाए जाने वाले वासनायुक्त अश्लील दृश्यों से चार पीढ़ियाँ एक साथ
आँखें चार कर रही हैं। नतीजा सामने है। बलात्कार, अपहरण, छोटी बच्चियों के साथ निकट संबंधियों द्वारा शर्मनाक यौनाचार की घटनाओं में वृद्ध। दुमक कर चलते शिशु दूरदर्शन पर दिखाए और सुनाए जा रहे स्वर और भगिमाओं पर अपनी कमर लचकाने लगे हैं। ऐसे कार्यक्रम न शिव हैं, न समाज को शिव बनाने की शक्ति है इनमें। फिर जो शिव नहीं, वह सुंदर कैसे हो सकता है। (क) उपयुक्त शीर्षक दीजिए। 1 उत्तर – (क) शीर्षक-भारतीय दूरदर्शन की अनर्थकारी भूमिका। अपठित गद्यांश for Class 11 Hindi Example 1616. संस्कृति और सभ्यता-ये दो शब्द हैं और उनके अर्थ भी अलग-अलग हैं। सभ्यता मनुष्य का वह गुण है जिससे वह अपनी बाहरी तरक्की करता है। संस्कृति वह गुण है जिससे वह अपनी भीतरी उन्नति करता है, करुणा, प्रेम और परोपकार सीखता है। आज रेलगाड़ी, मोटर और हवाई जहाज, लंबी-चौड़ी सड़कें और बड़े-बड़े मकान, अच्छा भोजन और अच्छी पोशाक, ये सभ्यता की पहचान हैं और जिस देश में इनकी जितनी ही अधिकता है उस देश को हम उतना ही सभ्य मानते हैं। मगर संस्कृति इस सबसे कहीं बारीक चीज है। वह मोटर नहीं, मोटर बनाने की कला है, मकान नहीं, मकान बनाने की रुचि है। संस्कृति धन नहीं, गुण है। संस्कृति ठाठ-बाट नहीं, विनय और विनम्रता है। एक कहावत है कि सभ्यता वह चीज है जो हमारे पास है, लेकिन संस्कृति वह गुण है जो हममें छिपा हुआ है। हमारे पास घर होता है, कपड़े-लत्ते होते हैं, मगर ये सारी चीजें हमारी सभ्यता के सबूत हैं, जबकि संस्कृति इतने मोटे तौर पर दिखलाई नहीं देती, वह बहुत ही सूक्ष्म और महीन चीज है और वह हमारी हर पसंद, हर आदत में छिपी रहती है। मकान बनाना सभ्यता का काम है, लेकिन हम मकान का कौन-सा नक्शा पसंद करते हैं-यह
हमारी संस्कृति बतलाती है। आदमी के भीतर काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह और मत्सर ये छह विकार प्रकृति के दिए हुए हैं। अगर ये विकार बेरोक छोड़ दिए जाएँ तो आदमी इतना गिर जाए कि उसमें और जानवर में कोई भेद नहीं रह जाए। इसलिए आदमी इन विचारों पर रोक लगाता है। इन दुर्गुणों पर जो आदमी जितना ज्यादा काबू कर पाता है, उसकी संस्कृति भी उतनी ही ऊँची समझी जाती है। संस्कृति का स्वभाव है कि वह आदान-प्रदान से बढ़ती है। जब दो देशों या जातियों के लोग आपस में मिलते हैं तब उन दोनों की संस्कृतियाँ एक-दूसरे को प्रभावित करती
हैं। इसलिए संस्कृति की दृष्टि से वह जाति या वह देश बहुत ही धनी समझा जाता है जिसने ज्यादा-से-ज्यादा देशों या जातियों की संस्कृतियों से लाभ उठाकर अपनी संस्कृति का विकास किया हो। (क) उपयुक्त शीर्षक दीजिए। 1 उत्तर – (क) शीर्षक-सभ्यता और संस्कृति। अपठित गद्यांश for Class 11 Hindi Example 1717. विधाता-रचित इस सृष्टि का सिरमौर है-मनुष्य। उसकी कारीगरी का सर्वोत्तम नमूना। इस मानव को ब्रहमांड का लघु रूप मानकर भारतीय दार्शनिकों ने ‘यत् पिण्डे तत् ब्रह्माण्डे’ की कल्पना की थी। उनकी यह कल्पना मात्र कल्पना नहीं थी, प्रत्युत यथार्थ भी थी, क्योंकि मानव-मन में जो विचारना के रूप में घटित होता है, उसी का कृति रूप ही तो सृष्टि है। मन तो मन, मानव का शरीर भी अप्रतिम है। देखने में इससे भव्य, आकर्षक एवं लावण्यमय रूप सृष्टि में अन्यत्र कहाँ है? अद्भुत एवं अद्वतीय है- मानव-सौंदर्य साहित्यकारों ने इसके रूप-सौंदर्य के वर्णन के लिए कितने ही अप्रस्तुतों का विधान किया है और इस सौंदर्य-राशि से सभी को आप्यायित करने के लिए अनेक काव्य सृष्टियाँ रच डाली हैं। साहित्यशास्त्रियों ने भी इसी मानव की भावनाओं का विवेचन करते हुए अनेक रसों का निरूपण किया है परंतु वैज्ञानिक दृष्टि से विचार किया जाए तो मानव-शरीर को एक जटिल यंत्र से उपमित किया जा सकता है। जिस प्रकार यंत्र के एक पुर्जे में दोष आ जाने पर सारा यंत्र गड़बड़ा जाता है, बेकार हो जाता है उसी प्रकार मानव-शरीर के विभिन्न अवयवों में से यदि कोई एक अवयव भी बिगड़ जाता है तो उसका प्रभाव सारे शरीर पर पड़ता है। इतना ही नहीं, गुर्दे जैसे कोमल एवं नाजुक हिस्से के खराब हो जाने से यह गतिशील वपुयंत्र एकाएक अवरुद्ध हो सकता है, व्यक्ति की मृत्यु हो सकती है। एक अंग के विकृत होने पर सारा शरीर दंडित हो, वह कालकवलित हो जाए-यह विचारणीय है। यदि किसी यंत्र के पुर्जे को बदलकर उसके स्थान पर
नया पुर्जा लगाकर यंत्र को पूर्ववत सुचारु एवं व्यवस्थित रूप से क्रियाशील बनाया जा सकता है तो शरीर के विकृत अग के स्थान पर नव्य निरामय अंग लगाकर शरीर को स्वस्थ एवं सामान्य क्यों नहीं बनाया जा सकता? शल्य-चिकित्सकों ने इस दायित्वपूर्ण चुनौती को स्वीकार किया तथा निरंतर अध्यवसाय पूर्णसाधना के अनंतर अंग-प्रत्यारोपण के क्षेत्र में सफलता प्राप्त की। अंग-प्रत्यारोपण का उद्देश्य है कि मनुष्य दीर्घायु प्राप्त कर सके। यहाँ यह ध्यातव्य है कि मानव-शरीर हर किसी के अंग को उसी प्रकार स्वीकार नहीं करता, जिस प्रकार
हर किसी का रक्त उसे स्वीकार्य नहीं होता। रोगी को रक्त देने से पूर्व रक्त-वर्ग का परीक्षण अत्यावश्यक है, तो अंग-प्रत्यारोपण से पूर्व ऊतक-परीक्षण अनिवार्य है। आज का शल्य-चिकित्सक गुर्दे, यकृत, आँत, फेफड़े और हृदय का प्रत्यारोपण सफलता पूर्वक कर रहा है। साधन-संपन्न चिकित्सालयों में मस्तिष्क के अतिरिक्त शरीर के प्राय: सभी अंगों का प्रत्यारोपण संभव हो गया है। (क) उपयुक्त शीर्षक दीजिए। 1 उत्तर – (क) शीर्षक-मानव अंग प्रत्यारोपण। अपठित गद्यांश for Class 11 Hindi Example 1818. हमारी सर्वोच्च प्राथमिकता जनसंख्या वृद्ध रोकना है। इस क्षेत्र में हमारे सभी प्रयत्न निष्फल रहे हैं। ऐसा क्यों है? यह इसलिए भी हो सकता है कि समस्या को देखने का हर एक का एक अलग नजरिया है। जनसंख्या शास्त्रियों के लिए यह आँकड़ों का अंबार है। अफसरशाही के लिए यह टार्गट तय करने की कवायद है। राजनीतिज्ञ इसे वोट बैंक की दृष्टि से देखता है। ये सब अपने-अपने ढंग से समस्या को सुलझाने में लगे हैं। अत: अलग-अलग किसी के हाथ सफलता नहीं लगी। पर यह स्पष्ट है कि परिवार के आकार पर आर्थिक विकास और शिक्षा का बहुत प्रभाव पड़ता है। यहाँ आर्थिक विकास का मतलब पाश्चात्य मतानुसार भौतिकवाद नहीं जहाँ बच्चों को बोझ माना जाता है। हमारे लिए तो यह सम्मानपूर्वक जीने के स्तर से संबंधित है। यह मौजूदा संपत्ति के समतामूलक विवरण पर ही निर्भर नहीं है वरन् ऐसी शैली अपनाने से संबंधित है जिसमें अस्सी करोड़ लोगों की ऊर्जा का बेहतर इस्तेमाल हो सके। इसी प्रकार स्त्री-शिक्षा भी है। यह समाज में एक नए प्रकार का चिंतन पैदा करेगी जिससे सामाजिक और आर्थिक विकास के नए आयाम खुलेंगे और साथ ही बच्चों के विकास का नया रास्ता भी
खुलेगा। अत: जनसंख्या की समस्या सामाजिक है। यह अकेले सरकार नहीं सुलझा सकती। केंद्रीकरण से हटकर इसे ग्राम-ग्राम, व्यक्ति-व्यक्ति तक पहुँचाना होगा। जब तक यह जन-आदोलन नहीं बन जाता तब तक सफलता मिलना संदिग्ध है। (क) उपयुक्त शीर्षक दीजिए। 1 उत्तर – (ङ) शीर्षक-जनसंख्या पर
नियंत्रण। अपठित गद्यांश for Class 11 Hindi Example 1919. विविध धर्म एक ही जगह पहुँचाने वाले अलग-अलग रास्ते हैं। एक ही जगह पहुँचने के लिए हम अलग-अलग रास्तों से चलें तो इसमें दुख का कोई कारण नहीं है। सच पूछो तो जितने मनुष्य हैं उतने ही धर्म भी हैं। हमें सभी धर्मों के प्रति समभाव रखना चाहिए। इसमें अपने धर्म के प्रति उदासीनता आती हो, ऐसी बात नहीं, बल्कि अपने धर्म पर जो प्रेम है उसकी अंधता मिटती है। इस तरह वह प्रेम ज्ञानमय और ज्यादा सात्विक तथा निर्मल बनता है। मैं इस विश्वास से सहमत नहीं हूँ कि पृथ्वी पर एक धर्म हो सकता है या होगा। इसलिए मैं विविध धर्मों में पाया जाने वाला तत्व खोजने की और इस बात को पैदा करने की कि विविध धर्मावलंबी एक-दूसरे के प्रति सहिष्णुता का भाव रखें, कोशिश कर रहा हूँ। मेरी सम्मति है कि संसार के धर्मग्रंथों को सहानुभूतिपूर्वक पढ़ना प्रत्येक सभ्य पुरुष और स्त्री का कर्तव्य है। अगर हमें दूसरे धर्मों का वैसा आदर करना है जैसा हम उनसे अपने धर्म का कराना चाहते हैं तो संसार के सभी धर्मों का आदरपूर्वक अध्ययन करना हमारा एक पवित्र कर्म हो जाता है। दूसरे धर्मों के आदरपूर्ण अध्ययन से हिंदू धर्मग्रंथों के प्रति मेरी श्रद्धा कम नहीं हुई। सच तो यह है कि हिंदू शास्त्रों की मेरी समझ पर उनकी गहरी छाप पड़ी है। उन्होंने मेरी जीवन-दृष्टि को विशाल बनाया है। सत्य के अनेक रूप होते हैं, इस सिद्धांत को मैं बहुत पसंद करता हूँ। इसी सिद्धांत ने मुझे, एक मुसलमान को उसके अपने दृष्टिकोण से और ईसाई को उसके स्वयं के दृष्टिकोण से समझना सिखाया है। जिन अंधों ने हाथी का अलग-अलग तरह से वर्णन किया वे सब अपनी दृष्टि से ठीक थे। एक
दूसरे की दृष्टि से सब गलत थे और जो आदमी हाथी को जानता था उसकी दृष्टि से सही भी थे और गलत भी थे। जब तक अलग-अलग धर्म मौजूद हैं तब तक प्रत्येक धर्म को किसी विशेष बाहय चिहन की आवश्यकता हो सकती है। लेकिन जब बाहय चिहन केवल आडंबर बन जाते हैं अथवा अपने धर्म को दूसरे धर्मों से अलग बताने के काम आते हैं तब वे त्याज्य हो जाते हैं। धर्मों के भ्रातृ-मंडल का उद्देश्य यह होना चाहिए कि वह एक हिंदू को अधिक अच्छा हिंदू, एक ‘मुसलमान को अधिक अच्छा मुसलमान और एक ईसाई को अधिक अच्छा ईसाई बनाने में मदद करे। दूसरों के
लिए हमारी प्रार्थना यह नहीं होनी चाहिए-ईश्वर, तू उन्हें वही प्रकाश दे जो तूने मुझे दिया है, बल्कि यह होनी चाहिए-तू उन्हें वह सारा प्रकाश दे जिसकी उन्हें अपने सर्वोच्च विकास के लिए आवश्यकता है। (क) हम धर्मों के प्रति स्वस्थ वृष्टिकोण कैसे अपना सकते हैं? इससे हमें क्या लाभ होंगे? 2 उत्तर – (क) हम धर्मों के
प्रति समभाव रखकर स्वस्थ दृष्टिकोण अपना सकते हैं। ऐसा नहीं है कि इससे हम अपने धर्म के प्रति उदासीन होंगे, बल्कि अपने धर्म के प्रति अंधविश्वास तथा उसमें छिपी रूढ़ियाँ, कुरीतियाँ मिटती हैं और अपने धर्म के प्रति प्रेम अधिक सात्विक और निर्मल बन जाता है। अपठित गद्यांश for Class 11 Hindi Example 2020. प्रकृति वैज्ञानिक और कवि दोनों की ही उपास्या है। दोनों ही उससे निकटतम संबंध स्थापित करने की चेष्टा करते हैं, किंतु दोनों के दृष्टिकोण में अंतर
है। वैज्ञानिक प्रकृति के बाहय रूप का अवलोकन करता और सत्य की खोज करता है. परंतु कवि बाह्य रूप पर मुग्ध होकर भावों का तादात्म्य स्थापित करता है; वैज्ञानिक प्रकृति की जिस वस्तु का अवलोकन करता है, उसका सूक्ष्म निरीक्षम्भ भी करता है। चंद्र को देखकर उसके मस्तिष्क में अनेक विचार उठते हैं। इसका तापक्रम क्या है, कितने वर्षों में वह पूर्णत: शीतल हो जाएगा। ज्वार-भाटे पर इसका क्या प्रभाव होता है, किस प्रकार और किस गति से वह सौर-मंडल में परिक्रमा करता है और किन तत्वों से इसका निर्माण हुआ है। वह अपने सूक्ष्म निरीक्षण और अनवरत चिंतन से उसको एक लोक ठहराता हैं और उस लोक में स्थित ज्वालामुखी पर्वतों तथा जीवनधारियों की खोज करता है। इसी प्रकार वह एक प्रफुल्लित पुष्प को देखकर उसके प्रत्येक अंग का और वर्ग विभाजन की प्रधानता रहती है। वह सत्य और वास्तविकता का पुजारी होता है। कवि की कविता भी प्रत्यक्षावलोकन से प्रस्फुटित होती है। वह प्रकृति के साथ अपने भावों का संबंध स्थापित करता है। वह उसमें मानव-चेतना का अनुभव करके उसके साथ अपनी आंतरिक भावनाओं का समन्वय करता है। वह
तथ्य और भावना के संबंध पर बल देता है। वह नग्न सत्य का उपासक नहीं होता। उसका वस्तु वर्णन हृदय की प्रेरणा का परिणाम होता है, वैज्ञानिक की भाँति मस्तिष्क की यांत्रिक प्रक्रिया नहीं। (क) उपयुक्त शीर्षक दीजिए। उत्तर – (क) शीर्षक-प्रकृति, कवि और वैज्ञानिक। 21. यह
हमारी एकता का ही प्रमाण है कि उत्तर या दक्षिण चाहे जहाँ भी चले जाइए, आपको जगह-जगह पर एक ही संस्कृति के मंदिर दिखाई देंगे, एक ही तरह के आदमियों से मुलाकात होगी जो चंदन लगाते हैं, स्नान-पूजा करते हैं. तीर्थ-व्रत में विश्वास करते हैं अथवा जो नयी रोशनी को अपना लेने के कारण इन बातों को कुछ शंका की दृष्टि से देखते हैं। उत्तर भारत के लोगों का जो स्वभाव है, जीवन को देखने की उनकी जो दृष्टि है, वही स्वभाव और वही दृष्टि दक्षिण वालों की भी है। भाषा की दीवार के टूटते ही एक उत्तर भारतीय और एक दक्षिण भारतीय के
बीच कोई भी भेद नहीं रह जाता और वे आपस में एक-दूसरे के बहुत करीब आ जाते हैं। असल में भाषा की दीवार के आर-पार बैठे हुए भी वे एक ही हैं। वे एक धर्म के अनुयायी और संस्कृति की एक ही विरासत के भागीदार हैं, उन्होंने देश की आजादी के लिए एक होकर लड़ाई लड़ी और आज उनकी पार्लियामेंट और शासन-विधान भी एक है। और जो बात हिंदुओं के बारे में कही जा रही है, वही बहुत दूर तक मुसलमानों के बारे में भी कही जा सकती है। देश के सभी कोनों में बसने वाले मुसलमानों के
भीतर जहाँ एक धर्म को लेकर एक तरह की आपसी एकता है, वहाँ वे संस्कृति की दृष्टि से हिंदुओं के भी बहुत करीब हैं, क्योंकि ज्यादा मुसलमान तो ऐसे ही हैं, जिनके पूर्वज हिंदू थे और जो इस्लाम-धर्म में जाने के समय अपनी हिंदू-आदतें अपने साथ ले गए। इसके सिवा अनेक सदियों तक हिंदू-मुसलमान साथ रहते आए हैं और इस लंबी संगति के फलस्वरूप उनके बीच संस्कृति और तहज़ीब की बहुत-सी समान बातें पैदा हो गई हैं जो उन्हें दिनों-दिन आपस में नजदीक लाती जा रही हैं। धार्मिक विश्वास की एकता मनुष्यों की
सांस्कृतिक एकता को जरूर पुष्ट करती है। इस दृष्टि से एक तरह की एकता तो वह है जो हिंदू समाज में मिलेगी। लेकिन धर्म के केंद्र से बाहर जो संस्कृति की विशाल परिधि है, उसके भीतर बसने वाले सभी भारतीयों के बीच एक तरह की सांस्कृतिक एकता भी है जो उन्हें दूसरे देशों के लोगों से अलग करती है। संसार के हर एक देश पर अगर हम अलग-अलग विचार करें तो हमें पता चलेगा कि प्रत्येक देश की एक निजी सांस्कृतिक विशेषता होती है जो उस देश के प्रत्येक निवासी की चाल-ढाल, बातचीत, रहन-सहन, खान-पान, तौर-तरीके और
आदतों से टपकती रहती है। चीन से आने वाला आदमी विलायत से आने वालों के बीच नहीं छिप सकता और यद्यपि अफ्रीका के लोग भी काले ही होते हैं, मगर वे भारतवासियों के बीच नहीं खप सकते। (क) भारत की विविधता में भी एकता छिपी है-स्पष्ट कीजिए। 2 उत्तर – (क) भारत
में उत्तर से दक्षिण तक एक ही संस्कृति के मंदिर, चंदन लगाने वाले, पूजा-पाठ करने वाले, तीर्थ-व्रत में विश्वास करने वाले लोग मिल जाते हैं। उनकी जीवन-दृष्टि और स्वभाव भी एक समान मिलते हैं। इससे भारत की विविधता में भी एकता के दर्शन होते हैं। 22. पर जैसा जानकारों ने बताया, कभी वह पेड़ हरा था, उसकी जड़ें धरती की नरम-नरम मिट्टी से दबी थीं और उसकी छतनार डालें आकाश में ऐसी फैली हुई थीं जैसे विशाल पक्षी के डैने और उन डालियों के कोटरों में अनगिनत घोंसले थे। पनाह के नीड़, बसेरे। दूर बियाबाँ से लौटकर पक्षी उनमें बसेरा करते, रात की भीगी गहराई में खोकर सुबह दिशाओं की ओर उड़ जाते। और मैं जो उस पेड़ के लुंठपन पर कुछ दुखी हो चुप हो जाता तो वह जानकार कहता, उसने वह कथा कितनी ही बार कही, आँखों देखी बात है, इस पेड़ की सघन छाया में कितने बटोहियों ने गए प्राण पाए हैं, कितने ही सूखे हरे हुए हैं। सुनो उसकी कथा, सारी बताता हूँ और उसने बताया, जलती दुपहरी में मरीचिका की नाचती आग के बीच यह पेड़ हरा-भरा झूमा पत्तों के विस्तृत ताज को सिर से उठाए। आँधी और तूफान में उसकी डालें एक-दूसरे से टकरातीं, टहनियाँ एक-दूसरे में गुँथ जातीं और जब तपी धरती बादलों की झरती झींसी रोम-रोम से पीती और रोम-रोम सजीव कर उनमें से लता प्रतानों के अंकुर फोड़ देती तब पेड़ जैसे मुस्कराता और बढ़ती लताओं की डाली रूपी भुजाओं से जैसे उठाकर भेंट लेता। उस विशाल तरु में तब बड़ा रस था। उसकी टहनी-टहनी, डाली-डाली, पोर-पोर में रस था और छलका-छलका वह लता वल्लरियों को निहाल कर देता। अनंत लताएँ, अनंत वल्लरियाँ पावस में उसके अंग-अंग से, उसकी फूटती संधियों से लिपटी रहतीं और देखने वाले बस उसके सुख को देखते रह जाते। और मेरा वह जानकार बुजुर्ग एक लंबी साँस लेकर थका-सा कह चलता कि तुम क्या जानो, जिसने केवल पावस पीले झड़ते पत्ते न देखे? फिर एक दिन, एक साल कुछ ऐसा हुआ कि जैसे सब कुछ बदल गया। जहाँ वसंत के आते ही पत्रों के से कोमल पत्ते उस वृक्ष की टहनियों से हवा में डोलने लगते थे, वहाँ उस साल फिर वे पत्ते न डोले, वे टहनियाँ सूख चलीं। दूर दिशाओं से आकर उस पेड़ की नीड़ों में विश्राम करने वाले पक्षी उसकी छतनार डालों से उड़ गए। जहाँ अनंत-अनंत कोयलें कूका करती थीं। बौराई फुनगियों पर भौंरों की
काली पंक्तियाँ मैंडराया करती थीं, सहसा उस पेड़ का रस सूख चला। और जैसे उसे बसेरा लेने वाले पक्षी छोड़ चले, जैसे कूकती कोयले, टेरते पपीहे, मैंडराते भौंरे उसके अनजाने हो जाए। वैसे ही लता वल्लरियाँ उसके स्कंध देश से, उसकी फैली मजबूत डालियों से, उसकी मदमाती झूमती टहनियों से धीरे-धीरे उतर गई, कुछ सूख गई मर गई। उस लता-संपदा के बीच फिर भी एक मधुर पुष्पवती पराग भरी वल्लरी उससे लिपटी रही और ऐसी कि लगता कि प्रकृति के परिवर्तन उस पर असर नहीं करते। वासंती जैसे सारी त्रुटियों में रसभरी वासंती बनी रहती। सहकार
वृक्ष से लिपटी वल्लरियों की उपमा कवियों ने अनेकानेक दी हैं। पर वह तो साहित्य और कल्पना की बात थी, उसे कभी चेता न था, पर चेता मैंने उसे अब, जब उस एकांत वल्लरी को उस प्रकांड तरु से लिपटे पाया। (क) हरे पेड़ की डालें कैसी दिखती थीं? ऐसे में वृक्ष किनका आश्रयदाता बना हुआ था? उत्तर – (क) हरे वृक्ष की फैली डालियाँ पक्षियों के खुले विशाल पंखों जैसी दिखती थीं। उन डालियों के कोटरों में अनगिनत घोंसले बने होते थे। दूर-दूर से
लौटकर पक्षी उन घोंसलों में रहते, रातभर विश्राम करते और सवेरे उड़ जाते थे। इस प्रकार वृक्ष पक्षियों का आश्रयदाता बना हुआ था। 23. तत्ववेत्ता शिक्षाविदों के अनुसार विद्या दो प्रकार की होती है। प्रथम वह, जो हमें जीवनयापन के लिए अर्जन करना सिखाती है और द्रवितीय वह, जो हमें जीना सिखलाती है। इनमें से एक का भी अभाव जीवन को निरर्थक बना देता है। बिना कमाये जीवन-निर्वाह संभव नहीं। कोई भी नहीं चाहेगा कि वह परावलंबी हो, माता-पिता, परिवार के किसी सदस्य, जाति या समाज पर। ऐसी विद्या से विहीन व्यक्ति का जीवन दूभर हो जाता है, वह दूसरों के लिए भार बन जाता है। साथ ही दूसरी विद्या के बिना सार्थक जीवन नहीं जिया जा सकता। बहुत अर्जित कर लेने वाले व्यक्ति का जीवन यदि सुचारु रूप से नहीं चल रहा, उसमें यदि वह जीवन-शक्ति नहीं है, जो उसके अपने जीवन को तो सत्यपथ पर अग्रसर करती ही है, साथ ही न अपने समाज, जाति एवं राष्ट्र के लिए भी मार्गदर्शन करती है, तो उसका जीवन भी मानव-जीवन का अभिधान नहीं पा सकता। वह भारवाही गर्दभ बन जाता है या पूँछ-सींग-विहीन पशु कहा जाता है। वर्तमान भारत में पहली विद्या का प्राय: अभाव दिखाई देता है, परंतु दूसरी विद्या का रूप भी विकृत ही है, क्योंकि न तो स्कूल-कॉलेजों में शिक्षा प्राप्त कर के निकला छात्र
जीविकार्जन के योग्य बन पाता है और न ही वह उन संस्कारों से युक्त हो पाता है; जिनसे व्यक्ति ‘कु’ से ‘सु’ बनता है; सुशिक्षित, सुसभ्य और सुसंस्कृत कहलाने का अधिकारी होता है। वर्तमान शिक्षा के अंतर्गत हम जो विद्या प्राप्त कर रहे हैं, उसकी विशेषताओं को सर्वथा नकारा भी नहीं जा सकता। राह शिक्षा कुछ सीमा तक हमारे दृष्टिकोण को विकसित भी करती है, हमारी मनीषा को प्रबुद्ध बनाती है तथा भावनाओं को चेतन करती है, कितु कला, शिल्प, प्रौद्योगिकी आदि की शिक्षा नाममात्र की होने के फलस्वरूप इस देश के स्नातक के लिए
जीविकार्जन टेढ़ी खीर बन जाता है और बृहस्पति बना युवक नौकरी की तलाश में अर्जियाँ लिखने में ही अपने जीवन का बहुमूल्य समय बर्बाद कर लेता है। जीवन के सर्वागीण विकास को ध्यान में रखते हुए यदि शिक्षा के क्रमिक सोपानों पर विचार किया जाए तो भारतीय विद्यार्थी को सर्वप्रथम इस प्रकार की शिक्षा दी जानी चाहिए जो आवश्यक हो, दूसरी जो उपयोगी हो और तीसरी जो हमारे जीवन को परिष्कृत एवं अलंकृत करती हो। ये तीनों सीढ़ियाँ एक के बाद एक आती हैं, इनमें व्यतिक्रम नहीं होना चाहिए। इस क्रम में व्याघात आ जाने से मानव-जीवन
का चारु प्रासाद खड़ा करना असंभव है। यह तो भवन की छत बनाकर नींव बनाने के सदृश है। वर्तमान भारत में शिक्षा की अवस्था देखकर ऐसा प्रतीत होता है। प्राचीन भारतीय दार्शनिकों ने ‘अन्न’ से ‘आनंद’ की ओर बढ़ने को जो ‘विद्या का सार’ कहा था, वह सर्वथा समीचीन ही था। (क) उपयुक्त शीर्षक दीजिए। 1 उत्तर – (क) शीर्षक-शिक्षा के सोपान। 24. प्रजातंत्र के तीन मुख्य अंग हैं- कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका। प्रजातंत्र की सार्थकता एवं दृढ़ता को ध्यान में रखते हुए और जनता के प्रहरी होने की भूमिका को देखते हुए मीडिया (दृश्य, श्रव्य और मुद्रित) को भी प्रजातंत्र के चौथे स्तंभ के रूप में देखा जाता है। समाचार-माध्यम या मीडिया को पिछले वर्षों में पत्रकारों और समाचार-पत्रों ने एक विश्वसनीयता प्रदान की है और इसी कारण विश्व में मीडिया एक अलग शक्ति के रूप में उभरा है। कार्यपालिका और विधायिका की समस्याओं, कार्यप्रणाली और विसंगतियों की चर्चा प्राय: होती रहती है और सर्वसाधारण में वे विशेष चर्चा में रहते ही हैं। इसमें समाचार-पत्र, रेडियो और टी.वी. समाचार अपनी टिप्पणी के कारण चर्चा को आगे बढाने में योगदान करते हैं, पर न्यायपालिका अत्यंत महत्वपूर्ण होने के बावजूद उसके बारे में चर्चा कम ही होती है। ऐसा केवल अपने देश में ही नहीं, अन्य देशों में भी कमोबेश यही स्थिति है। स्वराज-प्राप्ति के बाद और एक लिखित संविधान के देश में लागू होने के उपरांत लोकतंत्र के तीनों अंगों के कर्तव्यों, अधिकारों और दायित्वों के बारे में जनता में जागरूकता बढ़ी है। संविधान निर्माताओं का उद्देश्य रहा है कि तीनों अंग परस्पर ताल-मेल से कार्य करेंगे। तीनों के
पारस्परिक संबंध भी संविधान द्वारा निर्धारित हैं, फिर भी समय के साथ-साथ कुछ समस्याएँ उठ खड़ी होती हैं। आज लोकतंत्र यह महसूस करता है कि न्यायपालिका में भी अधिक पारदर्शिता हो, जिससे उसकी प्रतिष्ठा और सम्मान बढ़े। ‘जिस देश में पंचों को परमेश्वर मानने की परंपरा हो, वहाँ न्यायमूर्तियों पर आक्षेप दुर्भाग्यपूर्ण है।” (क) लोकतंत्र के मुख्य तीनों अंगों का नामोल्लेख कीजिए। इसके चौथे अंग का नामोल्लेख करते हुए उसकी भूमिका स्पष्ट
कीजिए। 2 उत्तर – (क) लोकतंत्र के तीन मुख्य अंग हैं-कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका। चौथा अंग मीड़िया को माना जाता है। इसमें दृश्य, श्रव्य व मुद्रित माध्यम होते हैं। लोकतंत्र में मीडिया की अहम भूमिका है। यह कार्यपालिका व विधायिका की समस्याओं, कार्यप्रणाली तथा विसंगतियों की चर्चा करती है। 25. संस्कृतियों के निर्माण में एक सीमा तक देश और जाति का योगदान रहता है। संस्कृति के मूल उपादान तो प्राय: सभी सुसंस्कृत और सभ्य देशों के एक सीमा तक समान रहते हैं, किंतु बाहय उपादानों में अंतर अवश्य आता है। राष्ट्रीय या जातीय संस्कृति का सबसे बड़ा योगदान यही है कि वह हमें अपने राष्ट्र की परंपरा से संपृक्त बनाती है, अपनी रीति-नीति की संपदा से विच्छिन्न नहीं होने देती। आज के युग में राष्ट्रीय एवं जातीय संस्कृतियों के मिलन के अवसर अति सुलभ हो गए हैं, संस्कृतियों का पारस्परिक संघर्ष भी शुरू हो गया है। कुछ ऐसे विदेशी प्रभाव हमारे देश पर पड़ रहे हैं, जिनके आतंक ने हमें स्वयं अपनी संस्कृति के प्रति शंकालु बना दिया है। हमारी आस्था डिगने लगी है। यह हमारी वैचारिक दुर्बलता का फल है। अपनी संस्कृति को छोड़, विदेशी संस्कृति के विवेकहीन अनुकरण से हमारे राष्ट्रीय गौरव को जो ठेस पहुँच रही है, वह किसी राष्ट्रप्रेमी जागरूक व्यक्ति से छिपी नहीं है। भारतीय संस्कृति में त्याग और ग्रहण की अद्भुत क्षमता रही है। अत: आज के वैज्ञानिक युग में हम किसी भी विदेशी
संस्कृति के जीवंत तत्वों को ग्रहण करने में पीछे नहीं रहना चाहेंगे, किंतु अपनी सांस्कृतिक निधि की उपेक्षा करके नहीं। यह परावलंबन राष्ट्र की गरिमा के अनुरूप नहीं है। यह स्मरण रखना चाहिए कि सूर्य की आलोकप्रदायिनी किरणों से पौधे को चाहे जितनी जीवनशक्ति मिले, किंतु अपनी जमीन और अपनी जड़ों के बिना कोई पौधा जीवित नहीं रह सकता। अविवेकी अनुकरण अज्ञान का ही पर्याय है। (क) आधुनिक युग में संस्कृतियों में परस्पर संघर्ष प्रारंभ होने का
प्रमुख कारण बताइए। 2 उत्तर – (क) आधुनिक युग में संस्कृतियों में परस्पर संघर्ष प्रारंभ होने का प्रमुख कारण यह है कि आज के युग में राष्ट्रीय एवं जातीय संस्कृतियों के मिलन के अवसर अति सुलभ हो गए हैं। भिन्न संस्कृतियों के निकट आने के कारण परस्पर विरोध एवं अतिक्रमण होना स्वाभाविक है। 26. विश्व के प्राय: सभी धर्मों में अहिंसा के महत्व पर प्रकाश डाला गया है। भारत के सनातन हिंदू धर्म और जैन धर्म के सभी ग्रंथों में अहिंसा की विशेष प्रशंसा की गई है। ‘अष्टांग योग’ के प्रवर्तक पंतजलि ऋषि ने योग के आठों अंगों में प्रथम अंग ‘यम’ के अंतर्गत ‘अहिंसा’ को प्रथम स्थान दिया है। इसी प्रकार ‘गीता’ में भी अहिंसा के महत्व पर जगह-जगह पर प्रकाश डाला गया है। भगवान महावीर ने अपनी शिक्षाओं का मूलाधार अहिंसा को बताते हुए ‘जियो और जीने दो’ की बात कही है। अहिंसा मात्र हिंसा का अभाव ही नहीं, अपितु किसी भी जीव का संकल्पपूर्वक वध नहीं करना और किसी जीव या प्राणी को अकारण दुख नहीं पहुँचाना है। ऐसी जीवन-शैली अपनाने का नाम ही ‘अहिंसात्मक जीवन-शैली’ है। अकारण या बात-बात में क्रोध आ जाना हिंसा की प्रवृत्ति का एक प्रारंभिक रूप है। क्रोध मनुष्य को अंधा बना देता है, वह उसकी बुद्ध का नाश कर उसे अनुचित कार्य करने को प्रेरित करता है, परिणामत: दूसरों को दुख और पीड़ा पहुँचाने का कारण बनता है। सभी प्राणी मेरे लिए मित्रवत हैं। मेरा किसी से बैर नहीं है, ऐसी भावना होने पर अह जनित क्रोध समाप्त हो जाएगा और हमारे मन में क्षमा का भाव पैदा होगा। क्षमा का यह उदात्त भाव हमें
हमारे परिवार से सामंजस्य कराने व पारस्परिक प्रेम को बढ़ावा देने में अहम भूमिका निभाता है। हमें ईष्र्या द्वारा द्वेष रहित होकर लोभवृत्ति का त्याग करते हुए संयमित खान-पान तथा व्यवहार एवं क्षमा की भावना को जीवन में उचित स्थान देते हुए अहिंसा का एक ऐसा जीवन जीना है कि हमारी जीवन-शैली एक अनुकरणीय आदर्श बन जाए। (क) किन-किन ग्रंथों में और किस तरह अहिंसा का महत्व प्रतिपादित किया गया है? 2 उत्तर – (क) हिंदू
धर्म और जैन धर्म के सभी ग्रंथों में अहिंसा की विशेष रूप से प्रशंसा करते हुए हिंसा को त्याज्य तथा निंदनीय बताया गया है। ‘अष्टांग योग’ के प्रवर्तक पतंजलि ऋषि ने योग के आठों भाग में प्रथम अंग ‘यम’ में हिंसा को प्रथम स्थान दिया है। इसी प्रकार गीता में जगह-जगह इसकी महत्ता का प्रतिपादन किया गया है। 27. परियोजना शिक्षा का एक बहुत ही महत्वपूर्ण अंग है। इसे तैयार करने में किसी खेल की तरह का ही आनंद मिलता है। इस तरह परियोजना तैयार करने का अर्थ है-खेल-खेल में बहुत कुछ सीख जाना। उदाहरण के लिए, ऊपर कही गई। दशहरों की परियोजना को ही लें। यदि आपको कहा जाए कि इस पर निबंध लिखिए, तो आपको शायद उतना आनंद नहीं आएगा, लेकिन यदि आपसे कहा जाए कि अखबारों में छपे अलग-अलग शहरों के दशहरे के चित्र काट कर अपनी कॉपी में चिपकाइए और लिखिए कि कौन-सा चित्र, किस शहर के दशहरे का है, तो शायद आपको बहुत आनंद आएगा। तो इस तरह से चित्र इकट्ठे करके चिपकाना भी एक शैक्षिक परियोजना है। यह एक प्रकार की फोटो-फीचर परियोजना कहलाएगी। इस तरह से न केवल आपने चित्र काटे और चिपकाए, बल्कि कई शहरों में मनाए जाने वाले दशहरे के तरीके को भी जाना। परियोजना पाठ्य-पुस्तक से प्राप्त जानकारियों के अलावा भी आपको देश-दुनिया की बहुत सारी जानकारियाँ प्रदान करती है। यह आपको तथ्यों को जुटाने तथा उन पर विचार करने का अवसर प्रदान करती है। इससे आप में नए-नए तथ्यों के कौशल का विकास होता है। इससे आप में एकाग्रता का विकास होता है। लेखन संबंधी नयी-नयी शैलियों का विकास होता है। आप में चिंतन करने तथा किसी पूर्व घटना से वर्तमान घटना को जोड़कर देखने की शक्ति का विकास होता है। परियोजना कई प्रकार से तैयार की जा सकती है। हर व्यक्ति इसे अलग ढंग से, अपने तरीके से तैयार कर सकता है। ठीक उसी प्रकार जैसे हर व्यक्ति का बातचीत करने का, रहने का, खाने-पीने का अपना अलग तरीका होता है। ऐसा निबंध, कहानी, कविता लिखते या चित्र बनाते समय भी होता है। लेकिन ऊपर कही गई बातों के आधार पर यहाँ हम परियोजना को मोटे तौर पर दो भागों में बाँट सकते हैं-एक तो वे परियोजनाएँ जो
समस्याओं के निदान के लिए तैयार की जाती हैं और दूसरी वे जो किसी विषय की समुचित जानकारी प्रदान करने के लिए तैयार की जाती हैं। समस्याओं के निदान के लिए तैयार की जाने वाली परियोजनाओं में संबंधित समस्या से जुड़े सभी तथ्यों पर प्रकाश डाला जाता है और उस समस्या के समाधान के लिए सुझाव भी दिए जाते हैं। इस तरह की परियोजनाएँ प्राय: सरकारी अथवा संगठनों द्वारा किसी समस्या पर कार्य योजना तैयार करते समय बनाई जाती हैं। इससे उस समस्या के विभिन्न पहलुओं पर कार्य करने में आसानी हो जाती है। किंतु दूसरे प्रकार की
परियोजना को आप आसानी से तैयार कर सकते हैं। इसे शैक्षिक परियोजना भी कहा जाता है। इस तरह की परियोजनाएँ तैयार करते समय आप संबंधित विषय पर तथ्यों को जुटाते हुए बहुत सारी नयी-नयी बातों से अपने-आप परिचित भी होते हैं। (क) गदयांश के लिए उपयुक्त शीर्षक दीजिए। 1 उत्तर – (क) शीर्षक-परियोजना का स्वरूप
(ङ) समस्या का निदान करने के लिए तैयार की गई परियोजना में संबंधित समस्या से जुड़े सभी तथ्यों पर प्रकाश डालने के अलावा समाधान हेतु सुझाव भी प्रस्तुत किया जाता है। ये परियोजनाएँ सरकारी संस्थाओं/संगठनों द्वारा किसी समस्या पर कार्य-योजना तैयार करते समय बनाई जाती है। इसके विपरीत शैक्षिक परियोजनाएँ बनाते हुए संबंधित तथ्य
जुटाते हुए बहुत-सी नई बातों से हम अपने-आप परिचित हो जाते हैं। 28. सु-चरित्र के दो सशक्त स्तंभ हैं-प्रथम सुसंस्कार और द्रवितीय सत्संगति। सुसंस्कार भी पूर्व जीवन की सत्संगति व सत्कर्मों की अर्जित संपत्ति है और सत्संगति वर्तमान जीवन की दुर्लभ विभूति है। जिस प्रकार कुधातु की कठोरता और कालिख पारस के स्पर्श मात्र से कोमलता और कमनीयता में बदल जाती है, ठीक उसी प्रकार कुमार्गी का कालुष्य सत्संगति से स्वर्णिम आभा में परिवर्तित हो जाता है। सतत सत्संगति से विचारों को नयी दिशा मिलती है और अच्छे विचार मनुष्य को अच्छे कार्यों में प्रेरित करते हैं। परिणामत: सुचरित्र का निर्माण होता है। आचार्य हजारीप्रसाद द्ववेदी ने लिखा है-‘महाकवि टैगोर के पास बैठने मात्र से ऐसा प्रतीत होता था मानो भीतर का देवता जाग गया हो।” वस्तुत: चरित्र से ही जीवन की सार्थकता है। चरित्रवान व्यक्ति समाज की शोभा
है, शक्ति है। सुचारित्र्य से व्यक्ति ही नहीं, समाज भी सुवासित होता है और इस सुवास से राष्ट्र यशस्वी बनता है। विदुर जी की उक्ति अक्षरश: सत्य है कि सुचरित्र के बीज हमें भले ही वंश-परंपरा से प्राप्त हो सकते हैं पर चरित्र-निर्माण व्यक्ति के अपने बलबूते पर निर्भर है। आनुवंशिक परंपरा, परिवेश और परिस्थिति उसे केवल प्रेरणा दे सकते हैं पर उसका अर्जन नहीं कर सकते; वह व्यक्ति की उत्तराधिकार में प्राप्त नहीं होता। व्यक्ति-विशेष के शिथिल चरित्र होने से पूरे राष्ट्र पर चरित्र-संकट उपस्थित हो जाता है, क्योंकि
व्यक्ति पूरे राष्ट्र का एक घटक है। अनेक व्यक्तियों से मिलकर एक परिवार, अनेक परिवारों से एक कुल, अनेक कुलों से एक जाति या समाज और अनेकानेक जातियों और समाज-समुदायों से मिलकर ही एक राष्ट्र बनता है। आज जब लोग राष्ट्रीय चरित्र-निर्माण की बात करते हैं, तब वे स्वयं उस राष्ट्र के एक आचरक घटक हैं-इस बात को विस्मृत कर देते हैं। (क) सत्संगति कुमार्गी को कैसे सुधारती है? सोदाहरण स्पष्ट कीजिए। 2 उत्तर – (क) सत्संगति से विचारों को नयी दिशा मिलती है और अच्छे विचार मनुष्य को अच्छे कार्यों में प्रेरित करते हैं। इससे कुमार्गी व्यक्ति उसी तरह सुधर जाता है जैसे लोहे की कठोरता और कालिख पारस का स्पर्श पाकर कोमलता और कमनीयता में बदल जाती है। स्वयं करेंनिम्नलिखित गदयांशों को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए- 1. जिंदगी के असली मजे उनके लिए नहीं हैं जो फूलों की छाँह के नीचे खेलते और सोते हैं, बल्कि फूलों की छाँह के नीचे अगर जीवन का कोई स्वाद छिपा है तो वह भी उन्हीं के लिए है जो दूर रेगिस्तान से आ रहे हैं जिनका कठ सूखा हुआ, होंठ फटे हुए और सारा बदन पसीने से तर है। पानी में जो अमृत वाला तत्व है, उसे वह जानता है जो धूप में खूब सूख चुका है, वह नहीं जो रेगिस्तान में कभी पड़ा ही नहीं है। सुख देने वाली चीजें पहले भी थीं और अब भी हैं। फर्क यह है कि जो सुखों का मूल्य पहले चुकाते हैं और उनके मजे बाद में लेते हैं उन्हें स्वाद अधिक मिलता है। जिन्हें आराम आसानी से मिल जाता है, उनके लिए आराम ही मौत है। जो लोग पाँव भीगने के खौफ से पानी से बचते रहते हैं, समुद्र में डूब जाने का खतरा उन्हीं के लिए है। लहरों में तैरने का जिन्हें अभ्यास है वे मोती लेकर बाहर आएँगे। चाँदनी की ताजगी और शीतलता का आनंद वह मनुष्य लेता है जो दिन भर धूप में थक कर लौटा है, जिसके शरीर को अब तरलाई की जरूरत महसूस होती है और जिसका मन यह जानकर संतुष्ट है कि दिन भर का समय उसने किसी अच्छे काम में लगाया है। इसके विपरीत वह आदमी भी है जो दिन भर खिड़कियाँ बंद करके पंखे के नीचे छिपा हुआ था और अब रात में जिसकी सेज बाहर चाँदनी में लगाई गई है। भ्रम तो शायद उसे भी होता होगा कि वह चाँदनी के मजे ले रहा है, लेकिन सच पूछिए तो वह खुशबूदार फूलों के रस में दिन-रात सड़ रहा है। भोजन का असली स्वाद उसी को मिलता है जो कुछ दिन बिना खाए भी रह सकता है। ‘ त्यक्तेन भुजीथा’, जीवन का भोग त्याग के साथ करो, यह
केवल परमार्थ का ही उपदेश नहीं है, क्योंकि संयम से भोग करने पर जीवन से जो आनंद प्राप्त होता है, वह निरा भोगी बनकर भोगने से नहीं मिल पाता। बड़ी चीजें बड़े संकटों में विकास पाती हैं, बड़ी हस्तियाँ बड़ी मुसीबतों में पलकर दुनिया पर कब्जा करती हैं। अकबर ने तेरह साल की उम्र में अपने बाप के दुश्मन को परास्त कर दिया था जिसका एकमात्र कारण यह था कि अकबर का जन्म रेगिस्तान में हुआ था और वह भी उस समय, जब उसके बाप के पास एक कस्तूरी को छोड़कर और कोई दौलत नहीं थी। महाभारत में देश के प्राय: अधिकांश वीर कौरवों के
पक्ष में थे। मगर फिर भी जीत पांडवों की हुई, क्योंकि उन्होंने लाक्षागृह की मुसीबत झेली थी, क्योंकि उन्होंने वनवास के जोखिम को पार किया था। श्री विंस्टन चर्चिल ने कहा है कि जिंदगी की सबसे बड़ी सिफत हिम्मत है। आदमी के और सारे गुण उसके हिम्मती होने से ही पैदा होते हैं। (क) जिंदगी के असली मजे किनके लिए होते हैं? 2 2. गौतम बुद्ध ने ठीक ही कहा था कि मनुष्य की मनुष्यता यही है कि वह सबके दुख-सुख को सहानुभूति के साथ देखता है। यह आत्म-निर्मित बंधन ही मनुष्य को मनुष्य बनाता है। अहिंसा, सत्य और अक्रोधमूलक धर्म का मूल उत्स यही है। मुझे आश्चर्य होता है कि अनजान में भी हमारी भाषा में यह भाव कैसे रह गया है, लेकिन मुझे नाखून के बढ़ने पर आश्चर्य हुआ था। अज्ञान सर्वत्र आदमी को पछाड़ता है और आदमी है कि सदा उससे लोहा लेने को कमर कसे है। मनुष्य को सुख कैसे मिलेगा? बड़े-बडे नेता कहते हैं, वस्तुओं की कमी है, और मशीन ‘बैठाओ, और उत्पादन बढ़ाओ, और धन की वृद्ध करो, और बाहय उपकरणों की ताकत बढ़ाओ। एक बूढ़ा था। उसने कहा था-बाहर नहीं, भीतर की ओर देखो। हिंसा को मन से दूर करो, मिथ्या को हटाओ, क्रोध और द्वेष को दूर करो, लोक के लिए कष्ट सहो, आराम की बात मत सोची, प्रेम की बात सोची, आत्म-तोषण की बात सोची, काम करने की बात सोची। उसने कहा-प्रेम ही बड़ी चीज है, क्योंकि वह हमारे भीतर है। उच्छुखलता पशु की प्रवृत्ति है, ‘स्व’ का बंधन मनुष्य का स्वभाव है। बूढ़े की बात अच्छी लगी या नहीं, पता नहीं। उसे गोली मार दी गई, आदमी के नाखून बढ़ने की प्रवृत्ति ही हावी हुई। मैं हैरान होकर सोचता हूँ-बूढ़े ने कितनी गहराई में पैठकर मनुष्य की वास्तविक चरितार्थता का पता लगाया था। ऐसा कोई दिन आ सकता है, जबकि मनुष्य के नाखूनों का बढ़ना बंद हो जाएगा। प्राणिशास्त्रियों का ऐसा अनुमान है कि मनुष्य का यह अनावश्यक अंग उसी प्रकार झड़ जाएगा, जिस प्रकार उसकी पूँछ झड़ गई है। उस दिन मनुष्य की पशुता भी लुप्त हो जाएगी। शायद उस दिन वह मारणास्त्रों का प्रयोग भी बंद कर देगा। तब तक इस बात से छोटे बच्चों को परिचित करा देना वांछनीय जान पड़ता है कि नाखून का बढ़ना मनुष्य के भीतर की पशुता की निशानी है और उसे नहीं बढ़ने देना मनुष्य की अपनी इच्छा है, अपना आदर्श है। बृहत्तर जीवन में अस्त्र-शस्त्रों को बढ़ने देना मनुष्य की पशुता की निशानी है और उनकी बाढ़ को रोकना मनुष्यत्व का तकाजा। मनुष्य में जो घृणा है, जो अनायास-बिना सिखाए आ जाती है, वह पशुत्व का द्योतक है और अपने को संयत रखना, दूसरे के मनोभावों का आदर करना मनुष्य का स्वधर्म है। बच्चे यह जानें तो अच्छा हो कि अभ्यास और तप से प्राप्त वस्तुएँ मनुष्य की महिमा को सूचित करती हैं। मनुष्य की चरितार्थता प्रेम में है, मैत्री में है, त्याग में है,
अपने को सबके मंगल के लिए नि:शेष भाव से दे देने में है। नाखूनों का बढ़ना मनुष्य की उस अंध सहजात वृत्ति का परिणाम है, जो उसके जीवन में सफलता ले आना चाहती है, उसको काट देना उस स्व-निर्धारित, आत्मबंधन का फल है, जो उसे चरितार्थता की ओर ले जाती है। (क) गौतम बुद्ध के अनुसार मनुष्यता क्या है? 2 3. अपने कार्य को आप ही करना स्वावलंबन कहलाता है। बालक जब से होश सँभालता है, अपने निजी कार्य स्वयं करने लगता है। इसी प्रकार यदि मनुष्य जीवन की किसी भी स्थिति में अपना कार्य स्वयं करे, तो वह स्वावलंबी कहलाता है। स्वावलंबी होना नागरिकता का महान् गुण है। स्वावलंबन बड़प्पन का गुण है। कहते हैं कि एक दिन प्रसिद्ध विद्वान ईश्वर चंद्र विद्यासागर रेलवे स्टेशन के बाहर खड़े थे। तभी भीतर से एक व्यक्ति हाथ में एक छोटा बक्सा लिए उनके पास आया। उन्हें साधारण वेष में देखकर भूल से कुली समझ बैठा और बोला, “मेरा सामान ले चलोगे?” ईश्वर चंद्र बिना कुछ बोले उसका सामान उठाकर चल दिए। लक्ष्य पर पहुँचकर जब वह उन्हें मजदूरी देने लगा तो वे बोले, “मजदूरी नहीं चाहिए। तुम अपना काम स्वयं नहीं कर सकते, इसलिए मैंने तुम्हारी सहायता कर दी है।” व्यक्ति लज्जित हुआ। जब उसे यह पता चला कि उनका कुली बंगाल का प्रसिद्ध विद्वान है तो वह उनके पाँव में गिर पड़ा। अपना कार्य आप करने की सौंगध ली। तात्पर्य यह है कि कोई कितना भी बड़ा अधिकारी, साहूकार या धनवान क्यों न हो, उसे स्वावलंबी बनना चाहिए। आप डॉक्टर या इंजीनियर बनना चाहते हैं, वकील या प्राध्यापक बनना चाहते हैं. व्यापारी या नेता बनना चाहते हैं-स्वावलंबन सबके लिए अनिवार्य है। बड़ा बनने के लिए मार्ग में अनेक बाधाएँ आती हैं। यदि उनके कारण हम निराश हो जाएँ, संघर्ष से जी चुराएँ या मेहनत से दूर रहें, तो भला हमें बड़प्पन कहाँ से मिलेगा? भारत के स्वर्गीय प्रधानमंत्री श्री लाल बहादुर शास्त्री का नाम सुना होगा जिन्होंने सन् 1965 में भारत-पाकिस्तान युद्ध में देश का नेतृत्व किया था। देश को विजयी बनाया था और जनता को ‘जय जवान, जय किसान’ के प्रेरणावद्र्धक शब्द दिए थे। वे बड़े निर्धन परिवार से संबंधित थे। नदी पार स्कूल में जाने के लिए नौका वाले को पैसे भी नहीं दे सकते थे, किंतु उनमें आलस्य
नहीं था। अत: प्रतिदिन तैर कर नदी पार करते थे। उन्होंने निराशा को कभी मन में नहीं आने दिया था। इसी मेहनत और स्वावलंबन का परिणाम था कि वे प्रधानमंत्री बने। जब वे प्रधानमंत्री थे, तब भी वे चपरासियों और अहलकारों पर आश्रित नहीं रहते थे। अपने यहाँ का कोई भी काम उन्हें छोटा नहीं लगता था। डॉक्टर बनकर यदि आप रोगी की आंशिक देखभाल करें, इंजीनियर बनकर दूसरों पर हुक्म चलाएँ अथवा व्यापारी बनकर अपना हिसाब-किताब स्वयं न देखें, तो व्यवसाय तो डूबेगा ही, आपको भी डूबना होगा। दूसरों से कार्य लेते समय भी स्वयं सक्रिय
रहना सफलता की प्रथम सीढ़ी है। (क) स्वावलंबन किसे कहते हैं? जीवन के लिए यह क्यों आवश्यक है? 2 4. बालक स्वभावत: संवेदनशील होता है, उसमें कल्पनाशक्ति भी तीव्र होती है, उसका जीवन-निरीक्षण भी। मुख्य बात यह है कि वह अपने अनुभवों के आधार पर कल्पना द्वारा जीवन की पुनर्रचना करता है, अपने अनुसार। कल्पना के रंगों में डूबी इस जीवन की पुनर्रचना के रंग निस्संदेह भावुक हैं। इन चित्रों के
रंग में डूबकर वह उन्हीं चित्रों से प्राप्त संवेदनाओं में भावुक होकर रम जाता है। अपने मनोमय जीवन के इन क्षणों में, जब वह उन चित्रों में तन्मय क्रिया-प्रतिक्रिया करने में व्यस्त और ग्रस्त रहने वाले मन को बहुत पीछे छोड़ जाता है, उसके ऊपर उठ जाता है, उससे परे हो जाता है। संक्षेप में, एक ओर उसकी मुक्ति हो जाती है तो दूसरी ओर उसी के साथ एकबद्धता आ जाती है। तटस्थता और तन्मयता, दूरी और सामीप्य का द्वंद्व, उच्चतर स्तर पर एकीभूत हो जाता है। इस प्रकार के अनुभव बालकों से लेकर वृद्धों तक
होते हैं, कवियों से लेकर अकवियों तक होते हैं, मजदूर से लेकर संपन्न व्यक्ति तक होते हैं। लेखकों से श्रोताओं तक होते हैं। इन्हीं अनुभवों को हम कलात्मक अनुभव या सौंदर्य अनुभव कहते हैं। केवल मनुष्य ही सौंदर्यानुभव प्राप्त कर सकते हैं, पशु नहीं। (क) बालक की सामान्य स्वाभाविक विशेषताएँ लिखिए। 2 5. परिश्रम को सफलता की कुंजी माना गया है। जीवन में सफलता पुरुषार्थ से ही प्राप्त होती है। कहा भी है-उद्योगी पुरुष सिंह को लक्ष्मी वरण करती है। जो भाग्यवादी हैं उन्हें कुछ नहीं मिलता। वे हाथ-पर-हाथ धरे रह जाते हैं। अवसर उनके सामने से निकल जाता है। भाग्य कठिन परिश्रम का ही दूसरा नाम है। . प्रकृति को ही देखिए। सारे जड़-चेतन अपने कार्य में लगे रहते हैं। चींटी को भी पल-भर चैन नहीं। मधुमक्खी जाने कितनी लंबी यात्रा कर बूंद-बूंद मधु जुटाती है। मुरगे को सुबह बाँग लगानी ही है, फिर मनुष्य को बुद्ध मिली है, विवेक मिला है। वह निठल्ला बैठे तो सफलता की कामना करना व्यर्थ है। विश्व में जो देश आगे बढ़े हैं, उनकी सफलता का रहस्य कठिन परिश्रम ही है। जापान को दूसरे विश्वयुद्ध में मिट्टी में मिला दिया गया था। उसकी अर्थव्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गई थी। दिन-रात, जी-तोड़ श्रम करके वह पुन: विश्व का प्रमुख औद्योगिक देश बन गया। चीन को शोषण से मुक्ति भारत से देर में मिली, वह भी श्रम के बल पर आज भारत से आगे निकल गया है। जर्मनी ने भी युद्ध की विभीषिकाएँ झेलीं, पर श्रम के बल पर सँभल गया। परिश्रम का महत्व वे जानते हैं जो स्वयं अपने बल पर आगे बढ़े हैं। संसार के अनेक महापुरुष परिश्रम के प्रमाण हैं कालिदास, तुलसी, टैगोर और गोकी परिश्रम से ही अमर हुए। संसार के इतिहास में अनेक चमकते सितारे केवल परिश्रम के ही प्रमाण हैं। बड़े-बड़े धन-कुबेर निरंतर श्रम से ही असीम संपत्ति के स्वामी बने हैं। फोर्ड साधारण मैकेनिक था। धीरू भाई अंबानी शिक्षक थे। लगन और दृढ़-संकल्प परिश्रम को सार्थक बना देते हैं। गरीबी के साथ परिश्रम जुड़ जाए तो सफलता मिलती है और अमीरी के साथ श्रमहीनता या निठल्लापन आ जाए तो असफलता मुँह बाए खड़ी रहती है। भारतीय कृषक के परिश्रम का ही फल है कि देश में हरित क्रांति हुई। अमेरिका के सड़े गेहूँ से पेट भरने वाला देश आज गेहूँ का निर्यात कर रहा है।
कल-कारखाने रात-दिन उत्पादन कर रहे हैं। हमारे वस्त्र दुनिया के बाजारों में बिकते हैं। उन्नत औद्योगिक देश भी हमसे वैज्ञानिक उपकरण खरीद रहे हैं। किसी क्षेत्र में हम पिछड़े हैं तो उसका कारण है, वहाँ परिश्रम का अभाव। विद्यार्थी जीवन तो परिश्रम की पहली पाठशाला है। यहाँ से परिश्रम की आदत पड़ जाए तो ठीक, अन्यथा जाने कहाँ-कहाँ की ठोकरें खानी पड़े। एडीसन से किसी ने कहा-आपकी सफलता का कारण आपकी प्रतिभा है। एडीसन ने झटपट सुधारा-प्रतिभा के माने एक औस बुद्ध और एक टन परिश्रम। (क) भाग्यवादी और परिश्रमी व्यक्ति में क्या अंतर है? स्पष्ट कीजिए। 2 6. भारतीय समाज में नारी की स्थिति सचमुच विरोधाभासपूर्ण रही है। संस्कृति पक्ष से उसे ‘शक्ति’ माना गया है तो लोकपक्ष से उसे ‘अबला’ कहा गया हैं। सदियों के संस्कारों की जड़ें इतनी गहरी होती हैं कि उन्हें न तो कुछ वर्षों की शैक्षणिक प्रगति खोद सकती है, न कुछेक आंदोलनों से उन्हें हिलाया जा सकता है। अत: स्थिति पूर्ववत् ही बनी रही। यह स्थिति कई मामलों में अब भी उलझी हुई है और दिशा अस्पष्ट है, क्योंकि यहाँ हर प्रश्न को पश्चिमी आईने में देखा गया। तटस्थ समाजशास्त्रीय दृष्टि इस बारे में नहीं रही। हमारे यहाँ विभिन्न समाजों में स्त्रियों की स्थिति और प्रगति बहुत कुछ स्थानीय, सामुदायिक व जातीय परंपराओं पर आधारित है। एक ही धर्म और एक ही भौगोलिक स्थिति के भीतर (केरल में) कहीं मातृसत्तात्मक परिवार में स्त्री ही मुखिया है और उसे अधिकार प्राप्त हैं, कहीं मातृसत्तात्मक परिवार में भी उनका सम्मान नहीं रहा तो कहीं पितृसत्तात्मक परिवार में भी उनकी स्थिति सम्मानजनक रही। समाजशास्त्रीय दृष्टि इन विभिन्नताओं को
रेखांकित करती है। हमारा दुर्भाग्य यह रहा है कि हम पश्चिमी देशों के अंधानुकरण को अपनी प्रगति मान बैठे हैं। ‘बीमेंसलिब’ का अतिवाद पश्चिमी देशों को परिवारवाद की ओर लौटा रहा है। तीसरी दुनिया के हमारे जैसे देश बुनियादी समस्याएँ भूल आगे होकर उसी मुक्ति आंदोलन को अपनाने की होड़ में लगे हैं। यह सब दिशाहीन यात्रा है। स्थानीय और राष्ट्रीय परंपराओं और स्थितियों के अनुरूप कोई लक्ष्य, कोई स्पष्ट दिशा निर्धारित किए बिना, बिना इस बात पर गंभीरता से विचार किए कि ‘स्त्रीवाद’ का अर्थ परिवार तोड़ना या सामाजिक विघटन
लाना नहीं है और न ही आजाद होने का मतलब यह है कि औरत औरत न रहे, हम अपने यहाँ इस आंदोलन को चला रहे हैं। (क) उपयुक्त शीर्षक दीजिए। 1 7. 14 जनवरी, 1848 को पुणे के बुधवार पेठ निवासी भिडे के बाड़े में पहली कन्याशाला की स्थापना हुई। पूरे भारत में लड़कियों की शिक्षा की यह पहली पाठशाला थी। भारत में 3000 सालों के इतिहास में इस तरह का काम नहीं हुआ था। शूद्र और शूद्रातिशूद्र लड़कियों के लिए एक के बाद एक पाठशालाएँ खोलने में ज्योतिबा फुले और सावित्री बाई को लगातार व्यवधानों, अड़चनों, लाँछनों और बहिष्कार का सामना करना पड़ा। ज्योतिबा के धर्मभीरु पिता ने पुरोहितों और रिश्तेदारों के दबाव में अपने बेटे और बहू को घर छोड़ देने पर मजबूर किया। सावित्री जब पढ़ाने के लिए घर से पाठशाला तक जाती तो रास्ते में खड़े लोग उसे गालियाँ देते, थूकते, पत्थर मारते और गोबर उछालते। दोनों पति-पत्नी सारी बाधाओं से जूझते हुए अपने काम में डटे रहे। 1840-1890 तक पचास वर्षों तक, ज्योतिबा और सावित्री बाई ने एक प्राण होकर अपने मिशन को पूरा किया। कहते हैं-एक और एक मिलकर ग्यारह होते हैं। ज्योतिबा फुले और सावित्री बाई फुले ने हर मुकाम पर कंधे-से-कंधा मिलाकर काम किया-मिशनरी महिलाओं की तरह किसानों और अछूतों की झुग्गी-झोंपड़ी में जाकर लड़कियों को पाठशाला भेजने का आग्रह करना या बालहत्या प्रतिबंधक गृह में अनाथ बच्चों और विधवाओं के लिए दरवाजे खोल देना और उनके नवजात बच्चों की देखभाल करना या महार, चमार और मांग जाति के लोगों की एक घूंट पानी पीकर प्यास बुझाने की तकलीफ देखकर अपने घर के पानी का हौद सभी
जातियों के लिए खोल देना-हर काम पति-पत्नी ने डके की चोट पर किया और कुरीतियों, अंध-श्रद्धा और पारंपरिक अनीतिपूर्ण रूढ़ियों को ध्वस्त कर दलितों-शोषितों के हक में खड़े हुए। आज के प्रतिस्पद्र्धात्मक समय में, जब प्रबुद्ध वर्ग के प्रतिष्ठित जाने-माने दंपत्ति साथ रहने के कई बरसों के बाद अलग होते ही एक-दूसरे को संपूर्णत: नष्ट-भ्रष्ट करने और एक-दूसरे की जड़ें खोदने पर आमादा हो जाते हैं, महात्मा ज्योतिबा फुले और सावित्री बाई फुले का एक-दूसरे के प्रति और एक लक्ष्य के प्रति समर्पित जीवन एक आदर्श दांपत्य की
मिसाल बनकर चमकता है। (क) ‘एक और एक ग्यारह होते हैं’-इसे फुले दंपत्ति ने कैसे चरितार्थ किया? 2 8. संसार में दो अचूक शक्तियाँ हैं-वाणी और कर्म। कुछ लोग वचन से संसार को राह दिखाते हैं और कुछ लोग कर्म से। शब्द और आचार दोनों ही महान् शक्तियाँ हैं। शब्द की महिमा अपार है। विश्व में साहित्य, कला, विज्ञान, शास्त्र सब शब्द-शक्ति के प्रतीक प्रमाण हैं, पर कोरे शब्द
व्यर्थ होते हैं, जिनका आचरण न हो। कर्म के बिना वचन, व्यवहार के बिना सिद्धसार्थकता नहीं है। निस्संदेह शब्द शक्ति महान् है, पर चिरस्थायी और सनातनी शक्ति तो व्यवहार है। महात्मा गाँधी ने इन दोनों की कठिन और अद्भुत साधना की थी। महात्मा जी का संपूर्ण जीवन उन्हीं दोनों से युक्त था। वे वाणी और व्यवहार में एक थे। जो कहते थे वही करते थे। यही उनकी महानता का रहस्य है। कस्तूरबा ने शब्द की अपेक्षा कृति की उपासना की थी, क्योंकि कृति का उत्तम व चिरस्थायी प्रभाव होता है। ‘बा’ ने कोरी शाब्दिक, शास्त्रीय,
सैद्धांतिक शब्दावली नहीं सीखी थी। वे तो कर्म की उपासिका थीं। उनका विश्वास शब्दों की अपेक्षा कमों में था। वे जो कहा करती थीं उसे पूरा करती थीं। वे रचनात्मक कर्मों को प्रधानता देती थीं। इसी के बल पर उन्होंने अपने जीवन में सार्थकता और सफलता प्राप्त की थी। (क) उपयुक्त शीर्षक दीजिए। 1 9. सरदार सुजान सिंह ने देवगढ़ में आने वाले इन महानुभावों के आदर-सत्कार का अच्छा प्रबंध कर दिया था। लोग अपने-अपने कमरों में बैठे हुए रोजेदार मुसलमानों की तरह महीने के दिन गिना करते थे। हर एक मनुष्य अपने जीवन को अपनी बुद्ध के अनुसार अच्छे रूप में दिखाने की कोशिश करता था। मिस्टर ‘अ’ नौ बजे दिन तक सोया करते थे, आजकल वे बागीचे में टहलते हुए उषा का दर्शन करते थे। मिस्टर ‘ब’ को हुक्का पीने की लत थी, मगर आजकल बहुत रात गए किवाड़ बंद कर के अँधेरे में सिगार पीते थे। मिस्टर ‘द’, ‘स’ और ‘ज’ से उनके घरों पर नौकरों की नाक में दम था, लेकिन ये सज्जन आजकल ‘आप’ और ‘जनाब’ के बगैर नौकरों से बातचीत नहीं करते थे। महाशय, ‘क’ नास्तिक थे, हक्सले के उपासक, मगर आजकल उनकी धर्मनिष्ठा देखकर मंदिर के पुजारी को पदच्युत हो जाने की शंका लगी रहती थी। मिस्टर ‘ल’ को किताबों से घृणा थी, परंतु आजकल वे बड़े-बड़े ग्रंथ खोले पढ़ने में डूबे रहते थे। जिससे बातें कीजिए, वह नम्रता और सदाचार का देवता बन जाता था। शर्मा जी घड़ी रात ही से वेद-मंत्र पढ़ने लगते थे और मौलवी साहेब को तो नमाज और तलावत के सिवा और कोई काम न था। लोग समझते थे कि एक महीने की झंझट है, किसी तरह काट लें, कहीं कार्य-सिद्ध हो गया, तो कौन पूछता है।
लेकिन मनुष्यों का वह बूढ़ा जौहरी आड़ में बैठा हुआ देख रहा था कि इन बगुलों में हस कहाँ छिपा हुआ है? एक दिन नए फ़ैशन वालों को सूझी कि आपस में ‘हॉकी’ का खेल हो जाए। यह प्रस्ताव हॉकी के मैंजे हुए खिलाड़ियों ने पेश किया। यह भी तो आखिर एक विद्या है। इसे क्यों छिपा रखें। संभव है, कुछ हाथों की सफ़ाई ही काम कर जाए। चलिए, तय हो गया, कोट बन गए, खेल शुरू हो गया और गेंद किसी दफ़्तर के अप्रेटिस की तरह ठोकरें खाने लगी। रियासत देवगढ़ में यह खेल बिलकुल निराली बात थी। पढ़े-लिखे, भले मानस लोग शतरंज और ताश जैसे
गंभीर खेल खेलते थे। दौड़-कूद के खेल बच्चों के खेल समझे जाते थे। खेल बड़े उत्साह से जारी था। धावे के लोग जब गेंद को लेकर तेजी से बढ़ते तो ऐसा जान पड़ता था कि कोई लहर बढ़ती चली आती है। लेकिन दूसरी ओर के खिलाड़ी इस बढ़ती हुई लहर को इस तरह रोक लेते थे मानो लोहे की दीवार हैं। (क) हर व्यक्ति स्वयं को अच्छे रूप में दिखाने का प्रयास क्यों कर रहा था? 2 10. वैज्ञानिक
प्रयोग की सफलता ने मनुष्य की बुद्ध का अपूर्व विकास कर दिया है। द्रवितीय महायुद्ध में एटम बम की शक्ति ने कुछ क्षणों में ही जापान की अजेय शक्ति को पराजित कर दिया। इस शक्ति की युद्धकालीन सफलता ने अमेरिका, रूस, ब्रिटेन, फ्रांस आदि सभी देशों को ऐसे शस्त्रास्त्रों के निर्माण की प्रेरणा दी कि सभी भयंकर और सर्वविनाशकारी शस्त्र बनाने लगे। अब सेना को पराजित करने तथा शत्रु-देश पर पैदल सेना द्वारा आक्रमण करने के लिए शस्त्र-निर्माण के स्थान पर देश के विनाश करने की दिशा में शस्त्रास्त्र बनने लगे हैं। इन
हथियारों का प्रयोग होने पर शत्रु-देशों की अधिकांश जनता और संपत्ति थोड़े समय में ही नष्ट की जा सकेगी। चूँकि ऐसे शास्त्रास्त्र प्राय: सभी स्वतंत्र देशों के संग्रहालयों में कुछ-न-कुछ आ गए हैं, अत: युद्ध की स्थिति में उनका प्रयोग भी अनिवार्य हो जाएगा। अत: दुनिया का सर्वनाश या अधिकांश नाश तो अवश्य हो ही जाएगा। इसलिए नि:शस्त्रीकरण की योजनाएँ बन रही हैं। शस्त्रास्त्रों के निर्माण में जो दिशा अपनाई गई, उसी के अनुसार आज इतने उन्नत शस्त्रास्त्र बन गए हैं, जिनके प्रयोग से व्यापक विनाश आसन्न दिखाई पड़ता है।
अब भी परीक्षणों की रोकथाम तथा बने शस्त्रों के प्रयोग को रोकने के मार्ग खोजे जा रहे हैं। इन प्रयासों के मूल में एक भयंकर आतंक और विश्व-विनाश का भय कार्य कर रहा है। (क) उपयुक्त शीर्षक दीजिए। 1 11. संस्कृति किसी दो-मंजिला मकान की तरह होती है। पहली मंजिल पर एकदम मूलभूत मगर चिरंतन जीवन-मूल्य होते हैं। इसमें परस्पर सहकार्य, न्याय, सौंदर्य जैसे मूलभूत तत्व आते हैं। ये मूल्य समय से परे होते हैं। मनुष्य के जीवन की आधारशिला होते हैं। पहली मंजिल पर दूसरी मंजिल का निर्माण किसी समाज की विशिष्ट आवश्यकता के अनुरूप होता है। धार्मिक, ऐतिहासिक परंपरा, आर्थिक लेन-देन, स्त्री-पुरुष संबंध और परिस्थितिजन्य अन्य मूल्यों का निर्माण में योगदान होता है। यह व्यवस्था मूलत: संरक्षणात्मक होने के कारण तरह-तरह के प्रतीक, परंपरा, रूढ़ि और अंधविश्वास का सड़ा-सा पिंजरा बनाती है। इससे पहली मंजिल के मूलभूत मूल्यों की उपेक्षा होने लगती है। समाज को भ्रम होने लगता है कि दूसरी मंजिल की मूल व्यवस्था ही अपनी सच्ची संस्कृति है। भ्रम से कई
तरह की विकृति उत्पन्न होती है, जो सामाजिक परिवर्तन से संघर्ष करने लगती है। वस्तुत: आज इन्हीं परिस्थितियों को मात देकर नयी संस्कृति का निर्माण करना देश के सामने सबसे बड़ा कार्य है। इसमें शिक्षा-पद्धति और प्रसार-माध्यम महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। शिक्षा से भावी पीढ़ी पर सांस्कृतिक निष्ठा के संस्कार डाले जाते हैं। हमारी शिक्षा इस कसौटी पर खरी नहीं उतरी है। समाज में विषमता की खाई चौड़ी करने में ही इसका योगदान रहा है। यह अमीरों की दोस्त और गरीबों की दुश्मन हो गई है। एकाध ठीक-ठाक शाला में बच्चे
को प्रवेश दिलाने में बीस हजार रुपये तक ‘हफ्ता’ देना पड़ता है। (क) उपयुक्त शीर्षक दीजिए। 1 12. डॉ॰ जगदीशचंद्र बसु ने भारतीय सामग्री से भारत में ही विभिन्न प्रकार के सूक्ष्म-बोध यंत्र बना डाले, जिन्हें देखकर संसार के वैज्ञानिक आश्चर्यचकित रह गए। ये सभी यंत्र बसु विज्ञान मंदिर में मौजूद हैं। इन यंत्रों की मदद से वृक्षों के बढ़ने की अति सूक्ष्म गति को भी सूई से शीशे की प्लेट पर अंकित होते हुए देखा जा सकता है। यह गति एक सेकंड में औसतन एक इंच का लाखवाँ हिस्सा होती है, इसलिए क्रेस्टोग्राफ ही उसे अंकित कर सकता है। इन यंत्रों की सहायता से यह स्पष्ट देखा जा सकता है कि पौधे किस प्रकार भोजन ग्रहण करते हैं। पृथ्वी की नमी से अपना भोजन ग्रहण करते समय पौधे अत्यंत धीमी गति से ऑक्सीजन निकालते जाते हैं, जैसे श्वास छोड़ रहे हों। एक यंत्र द्वारा इस बात को देखा जा सकता है कि जब पेड़-पौधे ऑक्सीजन की एक खास मात्रा निकाल चुकते हैं तब यंत्र की सूई इसका संकेत देती है और एक घंटी अपने-आप बज उठती है। इसका मतलब है कि पौधे ने पर्याप्त भोजन ग्रहण कर लिया है। जिस समय पौधा धूप में रहता है, उस समय यह घंटी नियमित रूप से एक निश्चित अवधि के बाद बज उठती है, लेकिन छाया में या रात के समय पौधा भोजन ग्रहण करना बंद कर देता है। और घंटी नहीं बजती। पौधे की जड़ों में अगर कोई उत्तेजक द्रव्य मिलाकर पानी डाला जाए तो घंटी बेतहाशा जोर से और जल्दी-जल्दी बजने लगती है, लेकिन अगर कोई मादक द्रव्य या विष मिला दिया जाए तो फिर घंटी नहीं बजती। हक्सले ने एक ऐसे वृक्ष का उल्लेख किया है जिसको
कुछ दिन पहले आचार्य बसु ने ‘बसु विज्ञान मंदिर’ के उद्यान में आरोपित करने के लिए किसी दूसरी जगह से जड़ समेत उखड़वा कर मैंगाया था। पूरे वयस्क पेड़ को उखाड़कर फिर से आरोपित करना उसके लिए खतरनाक होता है, क्योंकि वह इस आघात से ही मर जाता है। क्लोरोफ़ार्म देकर मनुष्य के शरीर का ऑपरेशन किया जा सकता है और बेहोशी की अवस्था में मनुष्य के स्नायु बड़े-से-बड़े आघात झल लेते हैं इसी सिद्धांत को दृष्टि में रखकर डॉ० बसु ने उखाडने से पहले क्लोरोफ़ार्म देकर उस वृक्ष को बेहोश कर दिया था। होश में आने पर वृक्ष को इस
बात का अनुभव भी नहीं हुआ कि उसने स्थान-परिवर्तन किया है। उसने तुरंत पृथ्वी में जड़ पकड़ ली और लहलहाने लगा। इस परीक्षण का ही परिणाम है कि आजकल नई सड़कों और पाकों के बनने पर रूस और अमेरिका में बड़े-बड़े पेड़ दूसरे स्थानों से लाकर वहाँ लगा दिए जाते हैं और एक रात में ही पार्क और सड़कें घने वृक्षों की छाया से ढक जाती हैं। (क) क्रेस्टोग्राफ क्या है? उसकी क्या उपयोगिता है? 2 13. पशु और बालक भी जिनके साथ अधिक रहते हैं, उनसे परच जाते हैं। यह परचना परिचय ही है। परिचय प्रेम के प्रवर्तक है। बिना परिचय के प्रेम नहीं हो सकता। यदि देश-प्रेम के लिए हृदय में जगह करनी है तो देश के स्वरूप से परिचित और अभ्यस्त हो जाइए। बाहर निकलिए तो आँख खोलकर देखिए कि खेत कैसे लहलहा रहे हैं, नाले झाड़ियों के बीच कैसे बह रहे हैं, टेसू के फूलों से वनस्थली कैसी लाल हो रही है, कछारों में चौपायों के झुंड इधर-उधर चरते हैं चरवाहे तान लड़ा रहे हैं, अमराइयों के बीच गाँव झाँक रहे हैं, उनमें घुसिए, देखिए तो क्या हो रहा है। जो मिले उससे दो-दो बातें कीजिए, उनके साथ किसी पेड़ की छाया के नीचे घड़ी-आध-घड़ी बैठ जाइए और समझिए। ये सब हमारे देश के हैं। इस प्रकार देश का रूप आपकी आँखों में समा जाएगा, आप उसके अंग-प्रत्यंग से परिचत हो जाएँगे, तब आपके अंत:करण में इस इच्छा का उदय होगा कि वह कभी न छूटे, वह सदा हरा-भरा और फला-फूला रहे, उसके धनधान्य की वृद्ध हो, उसके सब प्राणी सुखी रहे। पर आजकल इस प्रकार का परिचय बाबुओं की लज्जा का एक विषय हो रहा है। वे देश के स्वरूप से अनजान रहने या बनने में अपनी बड़ी शान समझते हैं। मैं अपने एक लखनवी दोस्त के साथ साँची का
स्तूप देखने गया। वसंत का समय था। महुए चारों ओर टपक रहे थे। मेरे मुँह से निकला ‘महुओं की कैसी महक आ रही है।” इस पर लखनवी महाशय ने चट मुझे रोककर कहा-“यहाँ महुए-सहुए का नाम न लीजिए, लोग देहाती समझेगे।” मैं चुप हो गया। पीछे ध्यान आया यह वही लखनऊ है जहाँ कभी यह पूछने वाले भी थे कि गेहूँ का पेड़ आम के पेड़ से छोटा है या बड़ा। (क) देश से परिचय पाने के लिए आपको क्या-क्या करना होगा? 2 14. जिदंगी को ठीक से जीना हमेशा ही जोखिम झेलना है और जो आदमी सकुशल जीने के लिए
जोखिम वाले हर जगह पर एक घेरा डालता है, वह अंतत: अपने ही घेरों के बीच कैद हो जाता है और जिंदगी का कोई मजा उसे नहीं मिल पाता; क्योंकि जोखिम से बचने की कोशिश में, असल में, उसने जिंदगी को ही आने से रोक रखा है। जिंदगी से, अंत में, हम उतना ही पाते हैं जितनी कि उसमें पूँजी लगाते हैं। यह पूँजी लगाना जिंदगी के संकटों का सामना करना है, उसके उस पन्ने को उलट कर पढ़ना है जिसके सभी अक्षर फूलों से नहीं, कुछ अंगारों से भी लिखे गए हैं। जिंदगी का भेद कुछ उसे ही मालूम है जो यह मानकर चलता है कि जिंदगी कभी भी खत्म न
होने वाली चीज है। अरे! ओ जीवन के साधको! अगर किनारे की मरी हुई सीपियों से ही तुम्हें संतोष हो जाए तो समुद्र के अंतराल में छिपे हुए मौक्तिक-कोष को कौन बाहर लाएगा? कामना का अंचल छोटा मत करो, जिंदगी के फल को दोनों हाथों से दबाकर निचोड़ो, रस की निझरी तुम्हारे बहाए भी बह सकती है। (क) उपर्युक्त गदयांश में जिंदगी को ठीक ढंग से जीने के जो उपाय बताए गए हैं, उनमें से किन्हीं दो का उल्लेख कीजिए। 2 NCERT SolutionsHindiEnglishHumanitiesCommerceScience |