नाटक और कला से आप क्या समझते हैं? - naatak aur kala se aap kya samajhate hain?

उत्तर- ब्रह्मा ने अति प्राचीन काल में इन्द्र, शुक्र के सन्तोष हेतु पंचम वेद की रचना 'नाट्यवेद' के रूप में की थी। ब्रह्मा को नाट्यकला की शिक्षा शिव से मिली थी तथा उन्होंने महामुनि भरत को दीक्षित किया था। भरत ने ब्रह्मा के आदेश से ऋग्वेद से पाठ तत्त्व, यजुर्वेद से अभिनय तत्त्व, सामवेद से गान तथा अथर्ववेद से भाव एवं मनोरागों के तत्त्व एकत्र कर नाट्यशास्त्र को मर्त्यलोक में प्रचारित किया। इन्द्र के गन्धर्व और किन्नर, अप्सराएं देवगणों के हितार्थ नाटक पेश करते थे। नाट्य कला के जनक महादेव हैं तब ही उन्हें नटराज, नटनाथ तथा नटेश कहा है। संगीत विद्या विनोद में महादेव को सर्वश्रेष्ठ, सर्वप्रथम अभिनेता, महानट तथा आदिनट भी कहा गया है। विश्वकर्मा ने प्रथम रंगमंच बनाया एवं उस पर 'समुद्र मंथन' नाटक खेला गया। दूसरा नाटक ‘त्रिपुरदाह' पार्वती के विवाह के अवसर पर भगवान् शंकर एवं बारातियों के मनोरंजन के लिए खेला गया।

भारत में जिसे उस समय जम्बूदीप कहते थे, नाट्यकला प्रवेश चन्द्रवंश के सम्राट नहुष द्वारा हुआ, जिन्होंने स्वर्ग भी जीत लिया था। उनकी आज्ञा से भरत को अपने शिष्य कोहल, शाण्डिल्य आदि को नहुष के पास नाट्य प्रदर्शन हेतु भेजा गया था।

भरत को नाट्य कला का प्रवर्तक माना जाने के कारण ही अभिनेताओं का एक प्राचीन नाम 'भरतपुत्र' है।

युद्ध महापुरुष महात्मा थे, दस अवतारों में 'धृत बुद्ध शरीर को छोड़कर । बौद्ध साहित्य में नाटक का बहुत महत्त्व बताया गया है । राजगृह में महात्मा बुद्ध के दो प्रधान शिष्यों मौद्गलायन तथा उपतिष्व ने अपनी नाट्य चातुरी दिखाई। मगध के शासक सम्राट बिम्बिसार ने दो नाग-राजाओं के स्वागत में एक नाटक करवाया था। राजगृह में एक बार स्वयं गौतम बुद्ध के निर्देशन में नाटक करवाया गया ।

नृत्त (नाटक) ड्रामा (थियेटर) :

परिचय- नाटक काव्य है तथा शास्त्रीय भाषा में दृश्य काव्य है। प्राचीन शास्त्रियों ने दृश्य काव्य को सर्वप्रमुख माना है । चौंसठ कलाओं में संगीत तथा काव्य को ऊंची प्रतिष्ठा दी गई है। इस निष्पत्ति के लिए हमें ललित कलाओं का ही आश्रय ढूँढ़ना पड़ता है। हमारे सातों रस, क्रोध, घृणा, हास्य, श्रृंगार, करुणा, रौद्र, भयानक, वीभत्स, अद्भुत,शान्त को सिर्फ ललित कला ही प्रदर्शित या शान्त कर सकती है।

दृश्य कला के अन्तर्गत नृत्त, नाट्य की विशेषता उसके श्रव्य गुणों के कारण ही मिलती है। हमारे दो ज्ञानेन्द्र कान तथा आंख किसी स्थूल वस्तु के अभाव में भी हमें आनन्द प्रदान करते हैं। अतः श्रव्य कला का नाटक हमें दृश्य कला की श्रेणी में भी रखता है क्योंकि नाटक में श्रव्य तथा दृश्य दोनों कलाएं आती हैं- रंगमंच पर दर्शित दृश्यावली में स्थापत्य, मूर्ति तथा चित्रकला का सहयोग, गायन, वादन, नृत्य, सभी का समावेश नाटक में होता है अतः नाटक को ललित कला की सबसे कठिन विधा एवं रोचक विधा माना जाता है। योगी जैसे विशिष्ट जनों को छोड़कर संसार के साधारण जन ललित कलाओं के माध्यम से ही अमूर्त आनन्द एवं शाश्वत सत्य का आनन्द ले सकते हैं।

रेडियो, टेलीविजन के माध्यम से कला थोड़ी सुलभ हो गई है लेकिन नाटक में दृश्य तथा श्रोता के मिलन से जो आनन्दानुभूति है वह अन्यत्र नहीं । नाटक आज के युग की अनिवार्य जरूरत है । रामायण तथा महाभारत युग में भी नाटक लिखे जाते थे। भवभूति ने 'उत्तररामचरित' के अन्त में 'रामकथा' का अभिनय दिखाया है। प्रारम्भिक रंगमंच गुफाओं में होते थे।

अभिनय :

पतंजलि के महाभाष्य में अभिनय करने वाले अभिनेताओं को मायाजीव, रूपाजीव कहा है तथा कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में ब्राह्मणों को अभिनय का निषेध किया है।

बंगाल में महाप्रभु चैतन्य ने धार्मिक जागरण ही नहीं किया बल्कि कला तथा साहित्य को भी प्रभावित किया। बंगाल की 'जात्रा' का रूप उनके ही समय में पनपा वे स्वयं 'राधा' के रूप में अभिनय करते थे। एक बार चैतन्य ने 'रुक्मिणी' का अभिनय किया जिसे देखने उनकी माता शची देवी अपनी पुत्रवधू विष्णुप्रिया के साथ आई । नाटक इतना सफल, रूपविन्यास कमाल का था माँ तथा पत्नी चैतन्य (गौरांग) को पहचान नहीं पाई एवं पता चलने पर भावावेश में माँ मूछित हो गई। एक बार एक नाटक में अपने रूप को देखकर ही गौरांग भावविभोर हो गये तथा स्वयं को पहचान नहीं पाये ।

ईश्वरचन्द्र विद्यासागर एक नाटक के प्रदर्शन में खलनायक के अभिनय से इतने उत्तेजित हुए कि अपनी चप्पल उतारकर मंच पर फेंकी। अभिनेता ने क्षण भर हेतु अभिनय रोक दिया तथा चप्पल माथे से लगाकर कहा कि यह मेरी कला की सफलता का प्रमाण है।

अभिनय रंगमंच के लिए महत्त्वपूर्ण आयाम है। नाट्य विधान तथा नाट्याचार्य अभिनय के पाँच अंग मानते हैं-

1. मुखमुद्रा

2. शरीर भंगिमा

3. गति

4. वेग

5. वाणी।

(1) मुखमुद्रा- हमारी सम्पूर्ण भावाभिव्यक्ति का एक प्रमुख साधन हमारी मुखमुद्रा अथवा भाव-भंगिमा है। हम बगैर कुछ बोले अपना सिर नीचे, ऊपर, बायें, दायें, इधर-उधर घुमाकर, ऊपर उठाकर, नीचे झुकाकर, अपनी गर्दन नीचे-ऊपर अथवा दायें-बायें करके विविध तरह के नेत्रगोलक पलक अथवा भौंहे चलाकर होंठ को आगे-पीछे फैलाकर या सिकोड़कर अथवा होंठों को दाँतों के नीचे करके अथवा दाँतों से काटकर, गाल फुलाकर अथवा सिकोड़कर विविध मुखमुद्राओं द्वारा स्नेह, क्रोध आदि अनेक तरह के भाव पैदा करते हैं। यह भाव प्रदर्शन कभी संवादों के साथ होते हैं तो कभी बिना शब्दों के इस तरह, गर्दन के ऊपर के विविध भागों को भाव के अनुसार प्रदर्शित करने को ही भाव-भंगिमा अथवा मुखमुद्रा कहते हैं ।

कभी-कभी मुखमुद्रा के द्वारा भाव का ही नहीं, चरित्र का भी प्रदर्शन होता है, जैसे एक भौंह उठाकर दूसरी को संकुचित करके कुटिलता, दोनों आंखों को कुछ बन्द करके, गाल फुलाकर, होंठ सिकोड़ने से कर कार्य की भूमिका का, मुखमुद्रा के द्वारा आकर्षक, शरबती,मतवाले, दोषपूर्ण, वात्सल्यपूर्ण, आश्चर्यजनक नेत्रों का उत्साह, क्रोध, भय, घृणा, प्रेम, आदि भावों का भली-भाँति प्रदर्शन किया जाता है। पाश्चात्य नाट्यशास्त्रियों का कथन है कि अपने माथे की नसों तथा मुख के स्नायुओं का ऐसा रूप इन्हें इस तरह साधना चाहिए कि सिर्फ मुख के किनारों से ही सब प्रदर्शन किया जा सके। इस तरह के अभिनय की सिद्धि अपने सामने दर्पण रखकर अभ्यास करने से बड़ी सफलता मिलती है तथा मुखमुद्रा सध जाती है।

(2) शरीर भंगिमा- जिस तरह मुखमण्डल के विविध अंगों में विकार लाकर भावों की अभिव्यक्ति की जाती है उसी तरह कन्धे उचकाकर, हाथ उठाकर अथवा गिराकर, मुट्ठी तानकर या खोलकर, हाथ फैलाकर या बाँधकर, एक हाथ से या दोनों हाथों से या एक अंगुली से या अंगुलियों से संकेत करके या अंगुलियाँ सिकोड़कर, कमर तिरछी अथवा सीधी करके या मटकाकर, आगे को झुककर पैर उठाकर, घुटने टेककर अथवा कई तरह से शरीर के अंगों का संचालन करके कई तरह की सामाजिक, आर्थिक तथा मानसिक परिस्थितियों में एवं भावों के प्रदर्शन में शारीरिक अंगों से विविध तरह के भाव प्रदर्शित किये जा सकते हैं ।

जब अभिनेता एक स्थान पर बैठकर अथवा खड़े होकर शारीरिक भंगिमा करता है तो यह अंचल शारीरिक भंगिमा कहलाती है तथा जब गतिशील होकर शारीरिक चेष्टाएं करता है तो यह चल शारीरिक भंगिमा कहलाती है।

(3) गति अथवा Tempo- अभिनय में गति का बड़ा महत्त्व है । हर पात्र की भूमिका में अभिनय करने वाले अभिनेता को विविध गतियों में चलना जरूरी हो जाता है। चोर अथवा हत्यारा दबे पाँव पंचों के बल पर लम्बे-लम्बे डग भरता हुआ चलता है कि विदूषक हास्यास्पद गति से टेढ़ा-मेढ़ा चलता है । गति के अन्तर्गत ही भूमिका के पद तथा उसकी मर्यादा के अभिनेता का रंगमंच पर प्रवेश, प्रस्थान, परिक्रमा, ऊपर चढ़ना अथवा मंच के नीचे उतरना होता अनुसार है ।

(4) वाणी- यूरोपीय नाट्यशास्त्रियों का मत है कि अभिनेता को अपनी वाणी पर पूरा अधिकार होना चाहिए। वह उसे मन्द से तेज, कम्पित से स्थिर तथा गम्भीर मन्द से तीव्र गति होकर साथ ही भावानुसार उतार-चढ़ाव भी दिखा सके । उसकी वाणी इस तरह सधी हुई होनी चाहिए कि उसे जिस कार्य की अभिव्यक्ति करनी है, वह अर्थ तथा भाव उसकी वाणी से ही प्रकट हो जायें। प्रार्थना, निवेदन, माँग, संकल्प, क्रोध, ईर्ष्या, उत्साह, आलस्य, विनोद, उपहास, परिहास, व्यंग्य आदि को भावों के अनुसार प्रभावशाली ढंग से वाणी द्वारा अभिव्यक्त किया जाना चाहिए ।

(5) वेग- अभिनय हेतु वेग का भी बड़ा महत्त्व है। समाधि तथा शोक की अवस्था में स्थिर, वृद्धावस्था तथा क्लान्ति की अवस्था में मन्द, साधारण सभी अवस्थाओं में स्वाभाविक गति होनी चाहिए। यह वेग मुखमुद्रा, शरीर भंगिमा, गति, वाणी के समस्त रूपों में व्यापक होता है।

अभिनय एक कला :

अभिनय मूल रूप से प्रकृति का अनुकरण है तथा जब इसमें सौन्दर्य तत्त्व कल्पनाशीलता ता के साथ शामिल होते हैं तो यह कला का रूप ग्रहण करता है। चेतना के विकास ने मनुष्य की तर्क-शक्ति का भी विकास किया है जिसने उनकी कल्पना पर आधारित प्रस्तुति को तर्कशील बनाया। फलतः अभिनय में जहाँ एक तरफ कल्पनाशीलता समाहित थी वहीं उसे तार्किक तथा अधिकृत बनाने का प्रयत्न भी लगातार होता रहा ।

इसलिए कहा जा सकता है कि जब किसी क्रिया में कल्पनाशीलता का अनुकरण तार्किक रूप, सौन्दर्य, प्रकृति से सम्मिलित हो तो वह कला कहलाती है। चूंकि ये सभी तत्त्व अभिनय में शामिल होते हैं इसलिए अभिनय एक कला है।

अभिनय सम्प्रेषण की कला :

क्योंकि मनुष्य अपने आदिकाल से समूह जीवी प्राणी है तथा पारस्परिक निर्भरता उसके अस्तित्व हेतु बहुत जरूरी है । इसलिए पारस्परिक सम्प्रेषण भी उतना ही जरूरी था । चेतना के अतिविकसित रूप से पूर्व जब किसी संगठित भाषा का चलन शुरू नहीं हो पाया था तो वह प्रतीकों तथा संकेतों के माध्यम से स्वयं को अभिव्यक्त करता था। हालांकि यह अभिव्यक्ति मूल रूप से उसकी दैनिक आवश्यकताओं पर ही आधारित होती थी जिसमें प्रमुखतः भोजन एकत्रित करना एवं सुरक्षा के उपायों की खोज प्रमुख हुआ करती थी। लेकिन कुछ क्षणों में वह अपने अन्य विचारों, भावनाओं और अमूर्त इच्छाओं को भी अभिव्यक्त करने के प्रयत्न करता था। वे प्राय: प्रकृति में ही मौजूद रहते थे। धीरे-धीरे लगातार अभ्यास के बाद इन प्रतीकों ने सर्वमान्य पहचान स्थापित कर ली तथा उसी क्रम में एक नई भाषा विकसित होती गयी। सम्प्रेषण या अभिव्यक्ति के इस औजार का उपयोग मानव अपनी विविध शारीरिक चेष्टाओं, मुखमुद्राओं एवं ध्वनि पैदा करके किया करता था। उसने प्रकृति में स्थित कई स्थूल वस्तुओं को भी इन्हीं माध्यमों से प्रकट करना, विश्लेषित करना एवं भावात्मक टिप्पणियाँ करना भी शुरू किया । जब हम अभिनय का सम्प्रेषण के माध्यम के रूप में अध्ययन करते हैं तो वह इसी तरह के संकेतों तथा प्रतीकों पर आधारित शारीरिक चेष्टाओं, ध्वनियों आदि तत्त्वों से परिपूर्ण माध्यम के रूप में हमारे सामने आता है । हम जानते हैं कि मनुष्य ने अपनी दैनिक क्रियाओं के अलावा भी भावनाओं को अभिव्यक्त करने का प्रयत्न किया था। दूसरे शब्दों में, अपने वैचारिक तथा काल्पनिक मन्थन को मूर्त रूप प्रदान करने का प्रयत्न किया तो स्वयं ही रोचक स्थितियाँ पैदा होने लगीं जिनमें कलात्मकता का तत्त्व समाहित था।

कलात्मकता प्रमुख रूप से कल्पनाजनित अवधारणा है, इसलिए इस तरह के सम्प्रेषण में अभिव्यक्त विचार के कई स्वरूप तथा पक्ष प्रदर्शित होने की हमेशा सम्भावना बनी रहती है जिसे हर व्यक्ति अपनी संवेदना के अनुसार ग्रहण करता है । सम्प्रेषण के माध्यम की इसी विशेषता के कारण वह स्वयं में एक कला रूप में विकसित हो गई जिसे हम अभिनय कला कहते हैं ।

इस तरह हम देखते हैं कि अभिनय में जो प्रारम्भिक स्तर सम्प्रेषण के माध्यम के रूप में विकसित हुआ, शनै: शनैः एक स्वतन्त्र कला के रूप में स्थापित होता चला गया जिसमें अभिव्यक्ति की अनन्त सम्भावनाएं मौजूद थीं।

अति नाटकीय यथार्थ प्रस्तुतियों में जहाँ अच्छे के प्रति सहानुभूति होती है वहीं बुरे चरित्र के पतन पर या मृत्यु पर दर्शक हर्षित होता है, वहीं इस तरह के नाटकों में सस्पेंस तथा उत्सुकता के भी महत्त्वपूर्ण तत्त्व होते हैं जो कि दर्शकों को हर पल बाँधे रखते हैं। इससे ये भली-भाँति समझा जा सकता है कि इस अभिनय शैली में अभिनेता हेतु न सिर्फ नृत्य का ज्ञान जरूरी होता है, साथ ही अति नाटकीय संवाद बोलने में भी महारत हासिल करनी चाहिए। भारत में यह अभिनय शैली संस्कृत, फारसी एवं लोक नाटकों में बहुतायत से उपलब्ध हैं।

भारतीय शास्त्रीय अवधारणा :

भरत ने अभिनय को सर्वांगपूर्ण बनाने हेतु नाट्यधर्मी (पारस्परिक) अभिनय के साथ लोकधर्मी (यथार्थवादी) अभिनय का भी विधान किया है। भरत द्वारा वर्णित नाट्यधर्मी तथा लोकधर्मी अभिनय से उनकी सर्वव्यापी दृष्टि का पता चलता है। नाट्यधर्मी अभिनय का भरत ने जैसा सर्वांगपूर्ण तथा सूक्ष्म विवेचन किया है उसे देखकर दावे के साथ कहा जा सकता है कि वह आधुनिक अभिनय पद्धति से किसी भी प्रकार कम नहीं है । भरतमुनि ने भी अभिनय की लगभग ऐसी ही व्यवस्था की थी।

अभिनय के अंग (प्रकार) :

भरतमुनि तथा आचार्यों ने अभिनय के चार अंग माने हैं-

1. आंगिक अभिनय- आंगिक अभिनय देह तथा मुख से सम्बन्धित अभिनय को कहते हैं। अंग अर्थात् हाथ, पैर, वक्ष, कटि, आदि से किया जाने वाला अभिनय । उपांग अर्थात् नेत्र, भौंह, नासिका, ओंठ, आदि द्वारा किया जाने वाला अभिनय। है आंगिक अभिनय का उपयोग आन्तरिक भागों के प्रदर्शन हेतु किया जाता मानसिक विचार शरीर के अंग-उपांगों को प्रभावित करते हैं। एक तरह से हर बाह्य चेप्टा, मुद्रा आन्तरिक भाव-विकास की अनुवर्तिनी होती है ।

अथवा गति प्राय: मनुष्य सामान्यतः अपनी अभिव्यक्ति हेतु स्वाभाविक आंगिक क्रियाओं का सहारा लेता है। पाश्चात्य नाट्यशास्त्रियों ने भी आंगिक अभिनय के महत्त्व को स्वीकार किया है, लेकिन भरतमुनि के नाट्यशास्त्र की तुलना में बहुत संक्षिप्त तथा स्थूल ही है।

उनका वर्णन समस्त अंगों का संचालन मस्तिष्क के आदेश पर माँसपेशियों एवं स्नायुकों के संकोचन, विस्तार, विक्षोभ, आदि पर निर्भर करता है तथा उस संचालन की अपनी गति तथा चाल होती है जिससे विविध भावों का उतार-चढ़ाव व्यंजित होता है । संचालन की गति एवं लय में अन्तर से भावों की तीव्रता तथा अर्थ में भी परिवर्तन हो जाता है। उदाहरण के लिए, साधारण प्रेम में पैरों की गति ललित तथा अन्य अंग, सौन्दर्य एवं सम्मोहन की अभिव्यक्ति करते हैं, जबकि गुप्त प्रेम की दशा में गति स्थिर एवं मन्द होती है। जरा-सी आहट से शरीर में कम्पन, आंखों में भय तथा आशंका एवं गति में लड़खड़ाहट पैदा हो जाती है।

भरत ने आंगिक अभिनय के अन्तर्गत अंगों तथा उपांगों की विविध चेष्टाओं एवं कार्यकलापों का विस्तृत वर्णन किया है। आंगिक अभिनय के अन्तर्गत सिर, हाथ, पैर, उर, पार्श्व कटि इन छ: अंगों तथा नेत्रादि छ: उपांगों की चेष्टाओं तथा मुद्राओं के विस्तृत विवरण के साथ ही मुख तथा ग्रीवा की भी चेष्टाओं का विस्तार से वर्णन किया है।

भरत ने मृत्यु के अभिनय का वर्णन करते हुए बताया है कि मृत्यु का अभिनय करते समय स्वर में कम्पन, हिचकी, साँस लेने में कठिनाई एवं शिथिल अंग चाहिए। विषपान के कारण मृत्यु की दशा में शरीर में कम्पन, तड़पन, झाग छोड़ने, जलन, श्रीवांग जड़ता, आदि का ध्यान रखना चाहिए। इसमें वाचिक अभिनय के साथ आंगिक अभिनय का समावेश है।

आंगिक अभिनय के अन्तर्गत भरत ने गति प्रचार, चाल के प्रकार का सूक्ष्म वर्णन किया है। भरत ने राजाओं, मन्त्रियों, श्रेष्ठियों, यात्रियों तथा रमणों की चाल के साथ अंधेरे में चलने, अन्धे व्यक्ति के चलने, रथ पर चढ़ने, क्षीणकाय, व्याधिग्रस्त तथा थके व्यक्ति के चलने, शराबी तथा पागल, विकलांग तथा बौने की चाल आदि का विशद विवेचन किया है।

भरत ने आकाश में उड़ने,प्रासाद, पर्वत अथवा वृक्ष पर चढ़ने तथा उतरने, नौका यात्रा, घुड़सवारी, सर्प की चाल, युवतियों, वृद्धाओं तथा बालकों की चाल का वर्णन सूक्ष्म तथा चित्रमय किया है।

उदाहरण के लिए, मूसलाधार जलवृष्टि तथा शीत के समय स्त्रियाँ तथा सामान्य लोग प्रायः कम्पन का अनुभव करते हैं। अपने अंग को सिकोड़ लेते हैं। शरीर झुक जाता है । दन्त वीणा बजने लगती है। गति धीमी हो जाती है-

नदी पार करने के अभिनय में गति जल की गहराई के अनुसार होनी चाहिए अर्थात् कम जल होने पर वस्त्रों को ऊपर उठाना चाहिए, लेकिन गहरे जल के अभिनय हेतु आगे की तरफ झुककर दोनों हाथों को बाहर फेंक देना चाहिए।

2. वाचिक अभिनय- वचन सम्बन्धित अभिनय को वाचिक अभिनय कहते हैं । वाचिक अभिनय के अन्तर्गत पात्रानुकूल, भाषा, संवादों की वाक्य संरचना, उच्चारण, आदि पर विचार किया जाता है । वाचिक अभिनय में यह ध्यान रखना होता है कि पात्रों के अनुकूल भाषा होनी चाहिए । पात्र की सामाजिक तथा राजनैतिक प्रतिष्ठा के अनुरूप ही संवाद होना चाहिए। भरत के समय में संस्कृत भाषा का प्रयोग राजवंश के नायक, ब्राह्मण, वेदपाठी, मुनि, पब्रिाजक तथा देवता की श्रेणी के पात्र करते थे। महारानी, राज्यकन्याओं, पणियों की कन्याओं, अप्सराओं, वेश्याओं आदि स्त्री कलाकारों को भी संस्कृत भाषा में बोलने का अधिकार था। नायिकाओं तथा उनकी सखियों को शौरसैनी, प्राकृत, अन्तःपुर के रक्षकों को मागधी, राजकुमार तथा श्रेष्ठियों हेतु अर्धमागधी, सैनिकों, जुआरियों, शिकारियों, लकड़हारों हेतु दक्षिणात्या, शबरी, चाण्डाली, द्राविड़ी, ओड़ी, आदि भाषाएं बोलने का अधिकार दिया गया था।

साहित्य दर्पण' में विश्वनाथ ने देशानुकूल भाषा की मान्यता प्रदान की है । सभी श्रेष्ठ नायकों में देश तथा पात्र के अनुरूप भाषा का प्रयोग मिलता हे ।

इस सम्बन्ध में ध्यान रखना चाहिए कि नाटक विभिन्न भाषाओं की प्रदर्शनी न बन जाये । यदि ऐसा होगा तो दर्शकों को रसबोध में बाधा पड़ेगी।

वाचिक अभिनय में वाक्य संरचना का बहुत बड़ा महत्त्व है क्योंकि इसके द्वारा ही भावों तथा विचारों को दर्शकों तक प्रेषित किया जाता है । अत: वह अपेक्षित है कि वाक्य रचना व्याकरणसम्मत हो, लक्षण तथा गुणयुक्त हो । कभी-कभी वाक्य के कुछ शब्द ही पूरे वाक्य के अर्थ को प्रभावी व्यंजना कर देते हैं।

इसी तरह एक ही भाव अथवा विचारों को कई छोटे-छोटे वाक्यों द्वारा भी स्पष्ट बनाया जाता है, लेकिन हर वाक्य उत्तरोत्तर उस भाव अथवा विचार को तीव्रतर बनाता है जिससे उसकी प्रेषणीयता बढ़ जाती है।

सामान्य वाक्य की बजाय अलंकृत वाक्य ज्यादा प्रभावशाली होता है । इसी दृष्टि से भरत ने संवादों के प्रसंग में छत्तीस नाट्य लक्षणों का उल्लेख किया है । लक्षण नाटक को सौन्दर्य प्रदान करते हैं । इसलिए भरत ने रसों के अनुसार उनके उपयोग का आदेश दिया है । इस सम्बन्ध में विवेचन का समस्त प्रयोग ही वांछनीय है । कई लक्षणों से युक्त वाक्य कभी-कभी वाक्य रचना को बोझिल बना देते हैं। इससे रसबोध में बाधा पैदा होती है।

3. आहार्य अभिनय- मंच सज्जा तथा पात्रों के वेश-विन्यास को आहार्य अभिनय कहा है । अटास्थानुकृति को यथार्थता प्रदान करने हेतु आहार्य अभिनय अत्यावश्यक है। भरत ने इस बात पर बल दिया है कि टक में पात्र के अनुरूप रूप-सज्जा तथा वेशभूषा धारण कर कलाकार को अभिनय करना चाहिए । जाता

भरत के समय में नेपथ्य में सृचिका अथवा सूचीगृह होता था जो पुरुष तथा स्त्री की सज्जा हेतु दो भागों में विभक्त रहता था। एक भाग में पुरुष पात्र चरित्रानुकूल अपने मुख नीले, पीले, लाल अथवा काले रंग या चन्दन, आदि का लेप कर रूप-सज्जा करते थे एवं पात्रानुसार वस्त्र धारण करते थे। दूसरे भाग में स्त्रियाँ अपने मुख की रूप-सज्जा करती थीं तथा वस्त्र धारण कर मंच पर आती थीं।

स्त्री पात्र अंगरांग, होंठों पर लाक्षारस, पैरों में महावर, आदि लगाती थीं। यही नहीं, स्त्रियाँ अवसरानुकूल केश रचना करती थीं तथा वस्त्र धारण करती थीं। पुरुष तथा स्त्रियाँ दोनों पुष्प मालाएं भी धारण करते थे। वस्त्रों की सिलाई करने वाले, आभूषण बनाने वाले पात्रों हेतु जरूरी वस्त्र, आभूषण पहले से ही निर्माण करके रखते थे। नाटक के वस्त्रों को रंगने तथा मेला होने पर धोने की व्यवस्था रहती थी।

अभिनय के विभिन्न आयाम (शैलियाँ) :

अभिनय की विविध शैलियाँ प्रमुखतः दो वर्गों में विभाजित हैं-

1. यथार्थवादी

2. गैर-यथार्थवादी

इन शैलियों के अनुकूल अभिनेता मंच पर नाट्य आलेख को दर्शकों हेतु जीवित करता है । इस प्रक्रिया में वह स्वयं एक उपकरण था। इस उपकरण को संचालित करने वाले का स्थान ग्रहण कर लेता है जिसमें वह कई संयोजन तथा संगीतमय अथवा गतिमय आकार उत्पन्न करता है अथवा सृजित करता है जिसमें उसका शरीर, आवाज, मस्तिष्क तथा कल्पना का समन्वित उपयोग होता है।

थार्थवादी अथवा Realistic Drama- इस अभिनय शैली में जीवन को यथावत् पेश किया जाता है। इसलिए अभिनेता को भी मंच पर वास्तविकता का छायाचित्र ही पेश करना होता है। इस अभिनय शैली की विस्तृत व्याख्या स्वयं इसे अभ्यास में लाने की विधि प्रसिद्ध निर्देशक अभिनेता स्टेनिस्लावस्की ने की है। उसने शेक्सपीयर के नाटक Julius Cacsar, Hamlet, Othelio एवं मोटरलिंक के प्रतीकवादी नाटक 'द ब्लू वर्ड' को प्रस्तुति में यथार्थवादी अभिनय पद्धति का प्रयोग किया एवं पाश्चात्य रंगमंच को एक नई दिशा दी।

स्टेनिस्लावस्की ने इन नाटकों के अभिनय में समूह रचना तथा रीतिबद्ध अभिनय को प्रश्रय दिया तथा निर्देशन को सृजनात्मक भावना तथा कला तत्त्व से समन्वित किया। अभिनय में सहजता,रंगों में स्वाभाविकता तथा ध्वनि संकेतों में यथार्थता इस अभिनय पद्धति की विशेषता थी। सहजता तथा यथार्थवाद को मुखर बनाने हेतु उसने नाटककार के मन्तव्य को भली-भाँति समझने एवं उसे ईमानदारी से अभिव्यक्त करने पर बल दिया। साथ ही चरित्र की आन्तरिक भावना को समझने एवं उसकी व्याख्या करने की चेष्टा की।

गैर-यथार्थवादी अथवा Non-Realistic Drama- अपनी अभिनय का प्रमुख उद्देश्य कथ्य पर दर्शकों को येन-केन-प्रकारेण विश्वास दिलाना हुआ करता था। कथ्य भ ज्यादातर यथार्थ जीवन से परे हुआ करते थे जिनमें जादुई चमक-दमक एवं अविश्वसनीय क्रियाएं मुख्य भूमिका निभाती हैं। इस दौर में धर्म तथा आदिमकालीन विश्वासों का प्रचलन एक साथ ही चल रहा था। सारे समाज में इन विविध विश्वासों के प्रतीक देवताओं एवं अतिमानवीय व्यक्तित्वों को स्थापित तथा प्रसारित करने की होड़ लगी थी। एक-दूसरे पर श्रेष्ठता जताने का छन्द भी शुरू हो गया था। इसलिए इन्हीं सभी धाराओं के चलते अभिनय में भी वह सभी तत्त्व आने लगे जो अविश्वसनीय थे तथा जिनका एकमात्र कार्य दर्शकों को अपनी तरफ आकर्षित करना था चाहे प्रदर्शित आयोजन में तार्किक तत्त्व उपस्थित हों या न हों।

इस कार्य में संगीत तथा नृत्य का भरपूर उपयोग होता था। ऐसी अधिकतर नाट्य-प्रस्तुतियों का प्रयोजन क्योंकि दर्शकों में उत्तेजना पैदा करना होता था, इसलिए संयोजन भी नायक-नायिका, खलनायक जो कि सामान्यजन की पहुँच से परे होते थे तथा ज्यादातर राजा एवं दिव्यलोक के प्राणी हुआ करते थे। नाटकीय क्रिया में तेजी से बदलाव पैदा करके एक अति साधारण नैतिकतावादी ब्रह्माण्ड पैदा करके तथा अन्त में बुराई पर अच्छाई की विजय दिखाकर इस तरह के प्रभाव किये जाते थे तथा अभिनय भी इसी के अनुकूल हुआ करता था। अभिनय का यह रूप शताब्दियों तक प्रचलित रहा तथा यहाँ तक लोकप्रिय था कि प्रसिद्ध यूनानी नाटक और संस्कृतकालीन नाटक भी कभी-कभी अति नाटकीय रूप में किये जाते थे। इस श्रेणी की लोकप्रियता इस तथ्य से भी जानी जाती है कि यह आज भी सिनेमा तथा टेलीविजन की प्रस्तुतियों देखी जाती है।

Malo Drama- Malo Drama या अति यथार्थवादी शैली में प्रमुख जोर नाटकीय प्रभाव पैदा करने पर रहता है जिसके द्वारा भले के प्रति सहानुभूति एवं बुरे के प्रति घृणा उत्पन्न की जाती है । साथ ही इस अभिनय शैली में दर्शनीयता. पर भी अतिरिक्त ध्यान दिया जाता है जो न सिर्फ अभिनेता के व्यक्तित्व से वरन् दृश्य विधान में भव्यता पैदा करके भी प्राप्त किया जाता है।

वेश विन्यास, अंक रचना (मेकअप), अलंकरण (आभूषण) :

भरत ने विविध तरह के पात्रों हेतु विविध तरह की वेशभूषा का वर्णन किया है । भरत ने देश, जाति, अवस्था की दृष्टि से स्त्री-पुरुष की वेशभूषा की चर्चा की है। मध्यम, अधम स्त्री- -पुरुष की वेशभूषा कैसी होनी चाहिए? इसकी चर्चा भी भरत ने की है। शुभ अवसर पर वेशभूषा कैसी होनी चाहिए? अशुभ अवसर पर वेशभूषा कैसी होनी चाहिए? उसकी चर्चा भी भरत ने की है।

भरत ने लिखा है कि मांगलिक तथा धार्मिक कार्य करते समय स्त्री-पुरुष को श्वेत अथवा एक ही रंग का वस्त्र धारण करना चाहिए । अमात्य, श्रेष्ठि, सिद्ध, विद्याधर, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं राजा के प्रतिनिधि भी श्वेत वस्त्र धारण करते थे। राजा, कामुक यक्ष, गन्धर्व, नाग, राक्षस आदि को विविध रंगों के (रंग-बिरंगे) वस्त्र पहनते थे।

मदोन्मत्त, पागल, पतित, विपदाग्रस्त, आदि मलिन अर्थात् मैले वस्त्र पहनते थे । परिव्राजक, तपस्वी अथवा मुनि काषाय वस्त्र, वत्कल अथवा मृगचर्म का उपयोग करते थे । बौद्ध भिक्षु, जैन, श्रमण, शैव आदि को अपने-अपने मतानुसार उपयुक्त वस्त्र धारण करते थे। योद्धा युद्धोपयोगी वस्त्र धारण करते थे। साथ में अस्त्र-शस्त्र भी धारण करते थे।

भरत ने किसको कौनसा मुकुट पहनना चाहिए? कैसी पगड़ी बाँधनी चाहिए? इसका भी विस्तृत वर्णन किया है। राजा तथा दिव्य पुरुष पूर्ण मुकुट धारण करते थे। युवराज, सेनापति आदि पगड़ी के साथ अर्द्ध-मुकुट धारण करते थे । आमात्य, कंचुकी, श्रेष्ठी, पुरोहित सिर्फ पगड़ी पहनते थे। ऋषियों के सिर पर जटा-जूट होता है । राक्षस तथा दैत्य के बाल पीले एवं दाढ़ी-मूंछ छोटी होनी चाहिए। तपस्वी, पिशाच, साधक के बाल लम्बे होने चाहिए । बौद्ध भिक्षु, जैन, श्रमण आदि के बाल घुटे होने चाहिए।

वस्त्र के सम्बन्ध में भी भरत ने लिखा है-वस्त्र रेशमी, ऊनी तथा सूती होते थे जिनका प्रयोग सामाजिक मर्यादा को ध्यान में रखकर किया जाता था । उच्च कुल की स्त्रियाँ (अंगिया) अथवा टुकुल पट्टिका, कटिभाग के ऊपर पहनती थीं। कटिभाग के नीचे अघोरुक (घाघरा) एवं कन्धों पर उत्तरीय (टुपट्टा) धारण करती थीं।

उच्च कुल के पुरुष कमर के नीचे अन्तरायी (धोती) एवं ऊपर के भाग में कंचुक (अंगरखा),कन्धों पर उदमनीय (दुपट्टा) एवं सिर पर उष्णीय (पगड़ी) का प्रयोग करते थे । कटिभाग में कच्छा (कमरबन्द) बाँधा जाता था।

युद्ध के समय सैनिक धोती के स्थान पर सतुला (एक तरह की बीवरेज), सिर पर उष्णीय (पगड़ी) के स्थान पर शिरत्राण (टोप), पैरों में पदत्राण (जूते) का प्रयोग करते थे। पाश्चात्य नाट्याचार्यों ने भी रूप-सज्जा तथा उसके उपकरणों तथा विधियों की विस्तृत चर्चा की है। आधुनिक भारतीय आहार्य में पश्चिम की रूप-सज्जा के उपकरणों तथा विधियों का उपयोग किया जाता है।

आहार्य अभिनय के अन्तर्गत मंच-सज्जा का भी उल्लेख मिलता है। भरत ने अपने नाट्यशास्त्र में इसकी विस्तृत चर्चा की है । उस समय मंच-सज्जा हेतु लकड़ी का सर्वाधिक प्रयोग किया जाता था। इसके लिए चित्रकला को भी जरूरत होती थी। रंगशीर्ष तथा नेपथ्य हेतु एक स्थायी पक्की इंटों की दीवार होती थी। उसकी सज्जा हेतु भित्ति लेप किया जाता था। भित्ति लेप हेतु मिट्टी तथा भूसे का प्रयोग किया जाता था। उसको चिकना करने हेतु सूखे नेनुए से रगड़ा जाता था। उसके बाद पुनः शंख पीसकर उसका लेप किया जाता था। शंख लेप करने के पश्चात् उसे बट्टी से घिसकर चिकना किया जाता था। अभिनवगुप्त के अनुसार यह लेप शंख बालू तथा सीप को पीसकर तैयार किया जाता था। उस पर चूना पीसकर चिकना बनाया जाता था। चित्रों को बनाते समय लाल, पीले तथा काले रंगों का प्रयोग किया जाता था।

अंक रचना (मेकअप)

आहार्य अभिनव के अन्तर्गत अंग रचना अथवा रूप-सज्जा का अपना विशिष्ट महत्त्व है। कलाकार जिस पात्र का चरित्र निर्वाह करने वाला है उसके अनुरूप उसके अंग की रचना मंचीय है।

इसके अन्तर्गत देश-काल के अनुसार मुख तथा शेष शरीर को विविध रंगों से रंगने

एवं भाँति-भाँति के चेहरे पर मुखौटे लगाने तक सब कुछ आ जाता है । उस समय मुखादि को रंगने के लिए नीले, पीले, लाल, श्वेत एवं काले रंग का प्रयोग किया जाता था। भरत के युग में अंग रचना की कला निश्चित रूप से विकसित थी। इसका विस्तृत विवरण नाट्यशास्त्र के 23वें अध्याय में मिलता है।

इस युग के रचनाकारों को यह ज्ञात था कि दो मूल रंगों के सम्मिश्रण से तीसरे रंग की उत्पत्ति होती है, जैसे-पीले तथा नीले रंग के मिश्रण से हरा, नीले एवं लाल रंग के मिश्रण से काषाय, पीले तथा लाल रंग को मिलाने पर गौर रंग तैयार होता है। इस तरह के मूल रंगों के सम्मिश्रण से कई तरह के रंगों को बनाने एवं उससे पात्रों की अंग रचना उनकी भूमिकाओं के अनुसार प्रयोग करने का प्रचलन था। जैसे देवता, यक्ष, अप्सरा, रुद्र आदि का रंग गौर; सोम, बृहस्पति, शुक्र, वरुण, नक्षत्र, समुद्र, हिमालय, गंगा आदि का रंग श्वेत; मंगल का रंग लाल; बुध तथा अग्नि का रंग पीला एवं नर नारायण तथा वासुकी का रंग श्याम होना चाहिए । दैत्य, पिशाच, आकाश, आदि का रंग नीला रहना चाहिए।

भरत ने इस बात पर भी बल दिया है कि मर्यादा तथा कर्म के अनुसार राजा का रंग कमल, श्यामा एवं गौर वर्ण का होना चाहिए । दुष्कर्म करने वालों तथा तपस्वियों का रंग असित रंग का तथा मुनियों का रंग बेर के रंग का होना चाहिए।

भरत ने प्रदेश विशेष में रहने वाली उपजातियों के रंगों का भी विस्तृत विवरण पेश किया है, ताकि रंगों के आधार पर वे किस प्रदेश के निवासी हैं, इसकी पहचान की जा सके। भरत के अनुसार आन्ध्र, द्रविड़, किरात, काशी, कोशला एवं दक्षिण के लोगों का रंग काला, पंचाल शूरसेन, महिषा, अंग, बंग, कलिंगवासियों का रंग श्याम एवं शक, यवन, हूण, आदि लोगों का रंग पीला होना चाहिए ।

स्त्री तथा पुरुष होठों को रंगते थे । इसका विवरण मिलता है । रूप-सज्जा के अन्तर्गत पुरुष पात्रों के मुख तथा शरीर को रंगने के बाद दाढ़ी-मूंछ लगाने का भी विधान है। पुरोहित, सामान्य तथा धर्म कार्य करने वालों की दाढ़ी-मूंछ घुटी होनी चाहिए। इसके लिए शुद्ध शब्द का प्रयोग किया गया है ।

राजा, युवराज, राजपुरुष, आदि की दाढ़ी-मूंछ अच्छी तरह सँवारी हुई होनी चाहिए। इसके लिए विचित्र शब्द का प्रयोग किया जाता है ।

तपस्वियों, दीर्घवृत्तियों तथा कृतसंकल्प व्यक्तियों की दाढ़ी बनी होनी चाहिए। इसके लिए रोमश शब्द का प्रयोग किया गया है। भरत ने मुखौटे के निर्माण के सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा की है।

अलंकरण

पुरुष तथा स्त्रियाँ दोनों ही प्रायः आभूषण पहनते थे। पुरुष सिर, गले, बाजू, बाँह तथा कमर में आभूषण पहनते थे। स्त्रियाँ सिर से लेकर पैर तक आभूषण धारण करती थीं। ये आभूषण चार तरह के होते हैं । इनका वर्गीकरण पहनने के ढंग पर किया गया है। आभूषण जो अग्र वर्गों में विभाजित किया गया है

1. अवेध्य- अर्थात् जिसे अंग को छेद कर धारण किया जा सके, जैसे-नाक की कील, कान का कुण्डल।

2. आरोग्य- यह उस आभूषण को कहते हैं जो ऊपर से पहना जा सके, जैसे-कण्ठी, हार, आदि।

3. बन्धनीय- यह आभूषण जिसे अंग पर बाँधा जा सके, जैसे-बाजूबन्द,करघनी आदि ।

4. प्रक्षेप्य- वह आभूषण जिसे पहना जा सके, जैसे-नूपुर आदि ।

भरत ने इसकी चर्चा की है कि पुरुष सिर पर मुकुट, कान में कुण्डल, गले में स्वर्ण-सूत्र तथा मुक्तमाला, उंगली में अंगूठी, बाँह में वलय अथवा बाजूबन्द पहनते थे। स्त्रियाँ सिर पर चूड़ामणि, शिखापाश (नेट), मुक्ताजाल एवं शीर्षजल, आदि कानों में कुण्डल, त्रिटंक, कर्णवलय, आदि गले में स्वर्ण-सूत्र, प्राविका (कंटी), नासमुत्रमाला, मुक्तमाला, रत्नमाला, हाथ में अंगद, वलय कंकण, आदि एवं उँगलियों में मुद्रिका, कमर में स्वर्ण मेखला एवं पैर में नूपुर धारण करती थी।

इसके अलावा स्त्रियों की तरह यूनानी स्त्रियाँ रत्नामण पहनने की शौकीन हुआ करती थीं। यूनानी स्त्रियाँ सोने-चाँदी के ब्रेसलेट, हार, पीने, केशजाल, कंघे आदि का प्रयोग करती थीं। यूनानी पुरुष अंगूठियाँ पहनते थे। इसी तरह रोमन स्त्रियाँ भी हार, ब्रेसलेट, कर्णभरण, आदि पहनती थीं।

रंगमंच पर भारी बहुमूल्य आभूषणों का उपयोग निषेध किया गया है क्योंकि इससे अभिनय में कठिनाई होती है । अभिनय हेतु ताम्रपत्र, अभ्रक, लाख तथा नकली रत्नों से बने हल्के आभूषण काम में लाने का परामर्श दिया गया है

भरत ने देवी पात्रों एवं विद्याधरों, गन्धर्वो, नागों की रुद्धत्रियों, अप्सराओं आदि हेतु विशिष्ट अलंकरण, अंग-रचना तथा वेश धारण करने की बात कही है। भरत ने इस बात का भी उल्लेख किया है कि विद्याधरों की स्त्रियों के केशमुक्ता मालाओं से गूंथे जाने चाहिए तथा ऊपर की तरफ बाँधे जाने चाहिए, उन्हें श्वेत वस्त्र पहनने चाहिए ।

गन्धर्व स्त्रियाँ मणियों का आभूषण पहनेंगी तथा पीले रंग का वस्त्र धारण करेंगी। गन्धर्व होने के कारण उनके हाथ में वीणा होनी चाहिए।

यक्ष स्त्रियों तथा अप्सराओं हेतु रत्नों के आभूषण तथा रत्नजडित श्वेत वस्त्रों को धारण करने का विधान है। देवताओं के आभूषण, मोती एवं मणियों के बने होने चाहिए एवं वस्त्र हरे रंग के होने चाहिए।

राक्षस स्त्रियों के गहने नीलमणि के होने चाहिए तथा वस्त्र काले होने चाहिए । वानर स्त्रियों के आभूषण मणि तथा पुष्पराग के होने चाहिए । वस्त्र नीले होने चाहिए। मानव स्त्रियों के अलंकरण, केश रचना तथा देश के अनुकूल वेश होने चाहिए। अमीर स्त्रियों के बालों में दो चोटी होनी चाहिए तथा दुपट्टा नीला होना चाहिए। अवन्ती तथा गौड़ देश के लोगों के बाल घुघराले होने चाहिए । पूर्वोत्तर की स्त्रियों के बाल का जूड़ा होना चाहिए। प्रेषित, पतिता, वियोगिनी, आदि नायिकाओं को भी पृथक-पृथक वेशभूषा बतायी गयी है।

नाटक का चयन- मध्य एशिया में ताड़पत्रों पर लिखित तीन नाटकों के कुछ अंश प्राप्त हुए हैं जिनमें एक अश्वघोष रचित 'सारिपुत्र प्रकरण' नामक नाटक था । उस समय क्योंकि नाटक लिखे जाने थे तब प्रदर्शित भी होते रहे होंगे।

नाटक का चयन- भारत तथा यूनान प्राचीन सभ्यता के जीवन्त प्रमाण हैं। यूनानी दार्शनिक अरस्तु एवं भारतीय भवभूति के दार्शनिक विचार हम समय-समय पर पढ़ते आये हैं। यूनानी विचारधारा मूलतः दुखपरक थी, वहाँ नाटक का अन्त दुखान्त होता था। ईसा से 580 वर्ष पूर्व अरिअन कवि ने दुखान्त, वियोगात्मक नाटक की सृष्टि की। वैक्सस देवता के सामने बकरे की बलि दी जाती थी तथा नाटक एवं खेल शुरू किए जाते थे। कॉमेडी नाटक ग्राम्य सुखों का वर्णन करते हैं। हमारी भारतीय परम्परा के आधार पर नाटक सुखान्त होते हैं अतः भवभूति ने रामचरितमानस के दुखान्त नाटक को सुखान्त बना दिया। पश्चिम में शेक्सपीयर तथा मौलियर श्रेष्ठ नाटककार हैं। कुछ मुख्य नाटककारों ने अग्रलिखित नाट्य लिखे लेकिन नाटक का चयन हमें समस्त परिस्थिति के आधार पर करना चाहिए ।

भारतीय नाटक :

1. शकुन्तला- राजा लक्ष्मणसिंह द्वारा 1861 में अनुवादित, विश्वविद्यालय नाटक ।

2. महावीर चरित्र- भवभूति द्वारा 1877

3. मालती माधव- अनुवाद 1898

4. मृच्छकटिक- शूद्रक 1899, अनुवाद लाल सीताराम द्वारा ।

5. रत्नावली- अनुवाद पण्डित देवदत्त तिवारी ।

6. वेणी संहार- अनुवाद पण्डित अम्बिका दास ।

7. नहुष- हिन्दी का प्रथम नाटक, बाबू गोपाल चन्द्र (पिता भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र) ने सन् 1859 में लिखा।

8. देवमाया प्रपंच- मुकुट माणिक्य देव कवि ।

9. प्रभावती- महाराजा काशीराज की आज्ञा से बना नाटक ।

10. आनन्द रघुनन्दन- श्री महाराज विश्वनाथ सिंह (रीवा)।

प्रमुख नाट्यकर्मी :

भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र- भारतेन्दु बाबू को ही हिन्दी नाटकों का जन्मदाता माना जाता है एवं सर्वप्रथम नाटककार। वे स्वयं एक उच्च कोटि के अभिनेता भी थे। अपनी चौंतीस वर्ष की अल्पायु में हिन्दी नाटक के क्षेत्र में उन्होंने अपूर्व कार्य किया। नाटक में अश्लीलता उन्हें बिल्कुल पसन्द नहीं थी। काशी में एक बार किसी पारसी कम्पनी का 'शकुन्तला' का प्रदर्शन हो रहा था। उसमें दुष्यन्त जब कमर पर हाथ रखकर मटकने लगी तथा 'पतली कमरिया बल खाए' गाने लगा तो भारतेन्दु जी बहुत दुःखी हुए। इतनी अल्पायु में अगर वे नहीं गये होते तो हमारा नाट्य जगत बहुत समृद्ध होता।

भारतेन्दु के नाटक (हिन्दी) :

1. विषस्य विषमौषधम्, 2. चन्द्रावली, 3. भारत दुर्दशा, 4. नीलदेवी, 5. वैदिकी हिंसा, हिंसा न भवति, 6. विद्यासुन्दर, 7. पाखण्ड विडम्बना, 8. धनंजय विजय, 9. कर्पूर मंजरी, 10. मुद्राराक्षस, 11. सत्य हरिश्चन्द्र, 12. भारत जननी ।

भारतेन्दु जी से प्रेरित नाट्यकमी हैं-दामोदर शास्त्री,प्रतापनारायण मिश्र,श्रीनिवास दास, किशोरीलाल गोस्वामी, राधाकृष्ण दास, बदरीनारायण चौधरी 'प्रेमधन', काशीनाथ खत्री। जयशंकर प्रसाद- साहित्य तथा ज्ञान दोनों का ज्ञान रखने वाले जयशंकर प्रसाद का व्यक्तित्व था लेकिन कुछ विद्वान् उन्हें नाटककार नहीं मानते । डॉ. गोविन्ददास उन्हें कवि मानते हैं। प्रसाद द्वारा लिखित 'चन्द्रगुप्त' नाटक बहुत प्रचलित एवं समाचार-पत्रों में प्रसंशित हुआ था। प्रसाद जी के नाटकों का विशाल विस्तार तथा उनका दृश्य-विधान उन्हें अभिनेयता प्रदान करता है।

बाबू जयशंकर प्रसाद के नाटक

1. चन्द्रगुप्त, 2. ध्रुवस्वामिनी

रवीन्द्रनाथ टैगोर- नाटक के प्रति अथाह लगाव के कारण ही 1880 में प्रथम बार वह 'मानमयी' नाटक में स्वयं मंच पर उतरे तथा उसके बाद 'वाल्मीकि प्रतिभा', काल मृग्या, राजा ओ रानी, विसर्जन, बैंकुठेर खाता, शरदोत्सव, मुकुट, प्रायश्चित, अचलायतन, फाल्गुनी, वैराग्य साधन, नटीर पूजा तथा ताप्ती, आदि नाटकों में अभिनय किया। बहत्तर वर्ष की आयु में वे 'राजा'

नामक नाटक में 'ठाकुरदा' की भूमिका में उतरे। उसके एक वर्ष के बाद शान्ति निकेतन हेतु धन एकत्रित करने वे पटना, लाहौर, इलाहाबाद तथा दिल्ली, आदि की यात्रा पर निकले ।

नारायण श्रीपद राजहंस, बालगन्धर्व- मराठी रंगमंच के मुख्य कलाकार हैं । राष्ट्रपति द्वारा पद्मभूषण की उपाधि से विभूषित उन्हें रंगमंच में लाने का श्रेय लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक को है। तिलक जी का रंगमंच प्रेम ने बालक नारायण को 'किर्लोस्कर' नाटक मण्डली को सौंपा ताकि उनकी कला का निखार हो एवं उनका नामकरण 'बालगन्धर्व' भी किया एवं उनके पिता को बीस हजार रुपये देने का वचन भी दिया।

मोहन राकेश- मोहन राकेश का जन्म 8 जनवरी, 1925 में अमृतसर में हुआ था एवं मृत्यु 3 जनवरी, 1972 में हुई थी। 1950 में 'नई कहानी' नामक हिन्दी क्रान्ति का उन्होंने नेतत्व किया। उन्होंने प्रथम हिन्दी नाटक आधुनिक 'आषाढ़ का एक दिन' 1958 में लिखा था जिसने संगीत नाटक अकादमी द्वारा आयोजित प्रतियोगिता में पुरस्कार प्राप्त किया था। इन्होंने लघु कहानी, यात्रा वृत्तान्त, स्मृति चित्रण एवं कई नाटक लिखे। उनकी कहानी 'उसकी रोटी' पर मनी कॉल ने फिल्म भी बनाई थी।

उनके प्रमुख साहित्यिक कार्य अग्रवत हैं-

1. उपन्यास-

1. न आने वाला कल,

2. अन्धेरे बन्द कमरे,

3. अन्तराल,

4. बकाल्मा खुदा।

2. नाटक-एकांकी-

1. आधे-अधूरे,

2. लहरों के राजहंस,

3. आषाढ़ का एक दिन,

4. पैर तले की जमी,

5. मोहन राकेश के सम्पूर्ण नाटक 1993,

6. राजपल ।

3. अनुवाद-

1. मृच्छकटिकम् (संस्कृत),

2. शाकुन्तलम् (संस्कृत)।

4. कहानी संग्रह-

1. दस प्रतिनिधि कहानियाँ,

2. रात की बाँहों में,

3. मोहन राकेश की सम्पूर्ण कहानियाँ।

गंगाधर राव- झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई के पति गंगाधर राव का रंगमंच-प्रेम विख्यात है। झॉसी के महलों में रंगशाला भी बनाये गये थे।

आधुनिक नाटककार- आधुनिक नाटककारों में अग्रलिखित हैं -

1. हरिकृष्ण प्रेमी, 2. उदयशंकर भट्ट, 3. रामकुमार वर्मा, 4. लक्ष्मीनारायण मिश्रा, 5. उपेन्द्रनाथ अश्क, 6. सेठ गोविन्ददास, 7. जगदीश प्रसाद माथुर, 8. लक्ष्मीनारायण लाल, 9. पण्डित माखनलाल चतुर्वेदी, 10. भगवती चरण वमर्श, 11. अमृतलाल नागर, 12. प्रेमचन्द, 13. पण्डित सुमित्रानन्दन पंत, 14. भगवती प्रसाद वाजपेयी, 15. बेचन शर्मा उग्र।

रंगमंच :

"प्राचीन शिलालेखों के आधार पर यह माना जा सकता है कि जिस तरह पर्वत की गुफाओं को खोदकर मन्दिर बनाये जाते थे उसी तरह आरम्भिक रंगमंच भी गुफा के आकार के होते थे।" डॉ. गोविन्ददास का कथन यहाँ सत्य प्रतीत होता है । छोटा नागपुर के रामगढ़ नामक स्थान पर दो गुफाओं में इस तरह के रंगमंचों के खण्डहर भी प्राप्त होते हैं जिसकी खोज कर्नल जे.आर. आंसली ने एवं सन् 1894 में डॉ. थ्योडार ब्लॉक ने इन गुफाओं से प्राप्त अशोककालीन ब्राह्मी शिलालेखों को पढ़कर यह प्रतिष्ठापित किया कि यहाँ नाटक तथा काव्य चर्चा होते थे। यूनान एवं भारत में नाटक पर परिचर्चा होना प्राचीन ग्रन्थों एवं दार्शनिकों के विचारों से अवगत होते हैं। इसलिए रंगमंच का होना इन दोनों प्राचीन सभ्यता में आवश्यक था।

आत्म-प्रकटीकरण के कई उदात्त माध्यमों की भाँति रंगमंच भी एक माध्यम है बहुत बड़ा, बहुत प्रभावकारी तथा बहुत उपयोगी माध्यम है । नारद मुनि को आकाश मार्ग से 'नारायण', 'नारायण' कहते हुए मंच पर अवतरित होते देखकर सत्यवान के प्राण हरकर यमराज को ऊपर उठते देखकर, धरती फटकर सीता का पाताल प्रवेश, जयद्रथ का मस्तक कटकर उड़ते हुए जाकर उसके पिता तपस्यारत वृद्धक्षत्र की गोद में गिरना, मायालोक की बातें अथवा सम्मोहन शक्ति का प्रयोग सी लगती हैं। ये सब बातें नाटक के रंगमंच में दृश्यों का प्रस्तुतिकरण सिर्फ बुद्धि हाथ तथा कामचलाऊ विज्ञान की देन है। यह दर्शक का रंगमंच के प्रति प्रेम है।

रंगमंच, प्रेक्षागृह, रंगस्थल

देवासुर संग्राम में देवगण के विजयी होने पर महान् वास्तुकर्म विश्वकर्मा द्वारा निर्मित किया गया जिस पर प्रथम नाटक ‘समुद्र मंथन' अभिनीत किया गया ।

रंगमंच- कुछ प्रमुख ड्रामा कम्पनी अग्रवत हैं -

1. पारसी थिएट्रिकल कम्पनी- पारसी थिएट्रिकल कम्पनी बड़े-बड़े नगरों में एक दर्जन 'मिसो' तथा बाइयों एवं डेढ दर्जन मास्टरों के विज्ञापन के साथ-साथ चक्कर लगाया करती थीं- -तड़क-भड़क, चटकीले रंगों के साथ रात्रि के 9 बजे से सुबह तक चलने वाले 'आंख का नशा', 'धर्मी बालक', 'वीर अभिमन्यु' जैसे नाटक हुआ करते थे। पारसी कम्पनी का काल थिएटर रंगमंच का स्वर्ण काल था। भारतेन्दु काल तक पारसी कम्पनियों का प्रवेश हो चुका था। यूरोपीय कम्पनी से प्रेरित पारसी कम्पनियों ने भी नाटक को व्यवसाय का माध्यम बनाया। ओरिजनल पारसी थिएटर कम्पनी 1870 के आस-पास स्थापित की गई थी। मालिक का नाम वेस्टन जी फ्रामजी था। इस कम्पनी के नाटकों की भाषा उर्दू-प्रधान होती थी एवं गीतों की भरमार होती थी।

2. विक्टोरिया थियेट्रिकल कम्पनी- 1877 में खुर्शीद जी बाटलीवाला ने विक्टोरिया थिएट्रिकल कम्पनी की स्थापना की। बाटलीवाला अपनी कम्पनी को विलायत भी ले गये तथा यहाँ उन्होंने 'हैमलेट' का प्रदर्शन किया। मुंशी अम्बिका प्रसाद इस कम्पनी में नाटककार के रूप में वेतनभोगी थे। उन्होंने एक नाटक के शुरू में लिखा था-जो बहुत चर्चित हुआ पय जल्वय हम्द परवरदिगार कलम अपना करती है पहले सिंगार।

3. अल्फेड थिएट्रिकल कम्पनी- इसी समय 1877 में एल्फेड थिएट्रिकल कम्पनी की भी स्थापना हुई। न्यू अल्फेड कम्पनी द्वारा श्रवण कुमार, भक्त प्रहलाद, और अभिमन्यु परिवर्तन आदि कई नाटक खेले गये ।

इनके अलावा कोरिथिएन कम्पनी, ओल्ड थिएटर कम्पनी, इम्पीरियल कम्पनी,सुरविजय कम्पनी, व्याकुल भारत, किर्लोस्कर कम्पनी भी अपना नाम कहा रहे थे ।

भारतीय रंगमंच :

भारतीय रंगमंच से अभिप्राय सबके लिए एक-सा नहीं है । वैदिक तथा संस्कृत साहित्य की खोज करने वाले पाश्चात्य विद्वानों हेतु भारतीय रंगमंच का तात्पर्य साधारण संस्कृत की नाट्य-कृतियों से था। वर्तमान में भारतीय रंगमंच का अभिप्राय आधुनिक भारतीय भाषाओं में होने वाली नाटकीय गतिविधियों से है।

विविध खोजों के आधार पर रंगमंच के संबंध में एकसमान राय बनी है-“संस्कृत नाटक के पहले भी भारतीय रंगमंच था जो भारतीय लोगों का रंगमंच था।" भारतीय रंगमंच का उद्भव कब हुआ? यह बताना कठिन है । इस सम्बन्ध में इतना निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है-“अनुकरण करना तथा मनोरंजन रंगमंच की अनिवार्यता है । अनुकरण करना एवं मनोरंजन की तलाश करना दोनों ही आम आदमी की प्रवृत्ति रही है।"

नाट्यशास्त्र के पहले अध्याय में एक कथा दी गयी है । उस कथा के अनुसार, “सभी देवता ब्रह्मा के पास गये। उन्होंने ब्रह्मा से शिकायत की कि दुनिया के लोग अश्लील राहों पर चल पड़े हैं। वे नहीं जानते कि वे सुखी हैं अथवा दुःखी । मनोरंजन हेतु हमें कुछ ऐसा चाहिए जिसे हम देख भी सकें तथा सुन भी सकें।"

देवताओं ने ब्रह्माओं से यह भी निवेदन किया-“शूद्रों की पहुँच वैदिक कृतियों तक नहीं हो सकती । इसलिए पाँचवें वेद का सृजन किया जाये जो सभी जातियों हेतु सुगम हो।" ब्रह्मा जी ने देवताओं का आग्रह स्वीकार किया तथा आश्वासन दिया- मैं धर्म, अर्थ, यश का साधन, उपदेशयुक्त, शास्त्रज्ञान समन्वित, भावी जनता को समस्त कर्मों का अनुदर्शन कराने वाला, समस्त शास्त्रार्थों से युक्त, सब शिल्पों का प्रदर्शक, इतिहासयुक्त, नाट्य वेद बनाऊंगा।"

ब्रह्मा जी ने इस पाँचवें वेद के लिए-

(1) ऋग्वेद से पाठ्य अंश लिया।

(2) सामवेद से गीत अंश लिया।

(3) यजुर्वेद से अभिनय लिया।

(4) अथर्ववेद से रसों का संग्रह किया।

ब्रह्मा जी ने उक्त नाट्य वेद के प्रचार-प्रसार का दायित्व देवताओं को सौंपा। इन्द्र ने ब्रह्माजी से निवेदन किया-"इस कार्य को कोई साधक ही कर सकता है। देवता इस कार्य को ग्रहण, धारण तथा प्रयोग करने में असमर्थ है । यह कार्य मुनियों को देना चाहिए।' ब्रह्माजी ने इन्द्र के निवेदन को स्वीकार किया तथा भरतमुनि को बुलाकर आज्ञा दी-“तुम अपने सौ पुत्रों के साथ इस नाट्य वेद का प्रयोक्ता बनो।"

आद्यरंगाचार्य ने भी इस बात को स्वीकार किया है कि-"नाट्यशास्त्र की रचना के पहले भी एक रंगमंच था। ऐसे लोगों का रंगमंच जिस पर उनकी अनुशासनहीन तथा निषेधहीन रुचियों का प्रदर्शन होता था। इस प्रारम्भिक रंगमंच से जुड़े लोगों को ही देवताओं ने शूद्रों की सज्ञा दी थी।"

14वीं शताब्दी में प्रकाशित साहित्य दर्पण' पुस्तक में 13 उपरूपकों का वर्णन मिलता है। ज्यादातर उपरूपकों में भारतीय नाट्य परम्परा का सूत्रधार भी है। इन उपरूपकों में से ज्यादातर नृत्य नाटक हैं । ज्यादातर निम्न चरित्र एवं निम्नस्तरीय परिहास वाले हैं। कुछ उपरूपकों का सम्बन्ध प्रेम-कथाओं से है। ज्यादातर की भाषा संस्कृत न होकर बोली है

ये उपरूपक ही भारतीय रंगमंच के प्रारम्भिक रूप का प्रतिनिधित्व करते हैं । इस सन्दर्भ में ई.वी. हारविज ने अपनी चर्चित पुस्तक 'द इण्डियन थियेटर' में लिखा है-"संस्कृत नाटक नि:संदेह प्राकृत भाषा में लिखे गये नाटकों के सम्भ्रान्त लेखकों द्वारा दिशानिर्देश लेकर लिखे गये हैं।"

यदि उपर्युक्त मान्यता को स्वीकार कर लिया जाये तो यह प्रमाणित हो जाता है कि-"भरत तथा संस्कृत नाटकों से बहुत पहले बोलियों में नाटकीय प्रदर्शन होते थे।"

नाटक कला से आप क्या समझते हैं?

नाट्यकला का हिंदी अर्थ अभिनय की कला; नाटक में अभिनय करने का ढंग।

नाटक एक कला है कैसे?

सभी कलाओं की तरह, नाटक छात्रों को नए तरीकों से संवाद करने और समझने की अनुमति देता है। ... नाटक एक ऐसी दुनिया में रहने और काम करने के लिए छात्रों को तैयार करने के लिए एक महत्वपूर्ण उपकरण है जो पदानुक्रम के बजाय तेजी से टीम-ओरिएंटेड है। नाटक छात्रों को टोलरेंस और एम्पाटी विकसित करने में भी मदद करता है।

नाटक का महत्व क्या है?

नाटक का महत्व नाटक मानव के लिए बड़ी उपयोगी वस्तु है। साहित्य की विधा के रूप में इनका अध्ययन करने में आनन्द प्राप्ति के साथ-साथ मानव जीवन की विभिन्न परिस्थितियों का ज्ञान होता है और उससे अनायास कुछ शिक्षाएँ भी प्राप्त होती हैं। जब उसका अभिनय रंगमंच पर किया जाता है तो उसकी यह उपयोगिता और बढ़ जाती है।

कला का क्या महत्व है?

कला ही आत्मिक शान्ति का माध्‍यम है। यह ‍कठिन तपस्‍या है, साधना है। इसी के माध्‍यम से कलाकार सुनहरी और इन्‍द्रधनुषी आत्‍मा से स्‍वप्निल विचारों को साकार रूप देता है। कला में ऐसी शक्ति होनी चाहिए कि वह लोगों को संकीर्ण सीमाओं से ऊपर उठाकर उसे ऐसे ऊँचे स्‍थान पर पहुँचा दे जहाँ मनुष्‍य केवल मनुष्‍य रह जाता है।