मेवाड़ की कुल कितनी राजधानियां रही? - mevaad kee kul kitanee raajadhaaniyaan rahee?

अपनी वेबसाइट पर हम डाटा संग्रह टूल्स, जैसे की कुकीज के माध्यम से आपकी जानकारी एकत्र करते हैं ताकि आपको बेहतर अनुभव प्रदान कर सकें, वेबसाइट के ट्रैफिक का विश्लेषण कर सकें, कॉन्टेंट व्यक्तिगत तरीके से पेश कर सकें और हमारे पार्टनर्स, जैसे की Google, और सोशल मीडिया साइट्स, जैसे की Facebook, के साथ लक्षित विज्ञापन पेश करने के लिए उपयोग कर सकें। साथ ही, अगर आप साइन-अप करते हैं, तो हम आपका ईमेल पता, फोन नंबर और अन्य विवरण पूरी तरह सुरक्षित तरीके से स्टोर करते हैं। आप कुकीज नीति पृष्ठ से अपनी कुकीज हटा सकते है और रजिस्टर्ड यूजर अपने प्रोफाइल पेज से अपना व्यक्तिगत डाटा हटा या एक्सपोर्ट कर सकते हैं। हमारी Cookies Policy, Privacy Policy और Terms & Conditions के बारे में पढ़ें और अपनी सहमति देने के लिए Agree पर क्लिक करें।

Agree

चेतावनी: इस टेक्स्ट में गलतियाँ हो सकती हैं। सॉफ्टवेर के द्वारा ऑडियो को टेक्स्ट में बदला गया है। ऑडियो सुन्ना चाहिये।

राम राम जी की लिखी आपका प्रश्न है मेवाड़ की प्रथम राजधानी कहां थी तो मैं आपको बता दूं मेवाड़ की प्रथम राजधानी उदयपुर थी यही यही के राजा मेवाड़ के वंश के प्रथम योद्धा राणा सांगा यही उदयपुर के राजा थे मेवाड़ के राजा थे उनकी राजधानी थी राणा प्रताप में भी अपना राजधानी को उदयपुर बनाया था बाद में अकबर से युद्ध करने पर उदयपुर पर मुगलों का कब्जा हो गया था तब वह बंद प्रदेश में चली गई थी और वहीं प्रदेश में रहते हुए कि उन्होंने सैन्य संगठन भामाशाह की मदद से शंकर के हल्दीघाटी का युद्ध लड़ा था

ram ram ji ki likhi aapka prashna hai mewad ki pratham rajdhani kaha thi toh main aapko bata doon mewad ki pratham rajdhani udaipur thi yahi yahi ke raja mewad ke vansh ke pratham yodha rana sanga yahi udaipur ke raja the mewad ke raja the unki rajdhani thi rana pratap me bhi apna rajdhani ko udaipur banaya tha baad me akbar se yudh karne par udaipur par mugalon ka kabza ho gaya tha tab vaah band pradesh me chali gayi thi aur wahi pradesh me rehte hue ki unhone sainya sangathan bhamashah ki madad se shankar ke haldighati ka yudh lada tha

मेवाड़ क्षेत्र की परिवर्तित सीमाओं के अनुरुप क्षेत्र की राजधानियाँ भी समयानुसार बदलती रही थी। इतिहास प्रसिद्ध दुर्ग चित्तौड़ के उत्तर में , १.५ मील दूर स्थित "नगरी' स्थान भिबि- जनपद की राजधानी था, जिसे तत्कालीन समय में मंजिमिका के नाम से जाना जाता था। जनपद के नष्ट होने के पश्चात् ७ वीं शताब्दी तक प्रामाणिक विवरणों के अभाव में इस प्रदेश की राजनीतिक अवस्था का विवरण ज्ञात नहीं होता है, किन्तु बप्पा रावल द्वारा शासन अधिकृत करने के समय से १३ वीं शताब्दी के प्रारंभिक दशक तक एकलिंग, देलवाड़ा, नागद्राह, चीखा तथा अघाटपुर (आयड़) मेवाड़ राज्य की राजधानियाँ व प्रशासनिक केंद्र रह चुके थे।

रावल जैतसिंह (१२१३ - १२५० ई.) के समय यहाँ की राजधानी नागद्रह (नागदा) थी, जो सुल्तान इल्नुतमिश के आक्रमण के कारण नष्ट हो गई। तब रावल ने अघाटपुर को नवीन राजधानी के रुप में विकसित किया। उसके पुत्र रावल तेजसिंह (१२५० - १२७३ ई.) ने सामरिक महत्व को देखते हुए चित्तौड़ को अपनी राजधानी बनाया। सुल्तान अलाउद्दीन के चित्तौड़ आक्रमण के समय मेवाड़ की राजधानी चित्तौड़ ही थी। १४ - १५ वीं सदी तक चित्तौड़ व कुंभलगढ़ मेवाड़ की राजधानी रहे हैं। राणा कुंभा (१४३३ - १४६८) ने कुंभलगढ़ तथा राणा सांगा (१५०९ - १५२८ ई. ) ने चित्तौड़ को अपनी राजधानी बनाया। राणा प्रताप (१५७२ -१५९७ ई.) तथा उसके पुत्र राणा अमरसिंह प्रथम (१५९७ - १६२० ई.) ने मेवाड़ मुगल संघर्ष काल में

गांगुंदा व चावंड नामक स्थानों को संघर्ष कालीन राजधानियाँ बनायी। राणा उदयसिंह (१५४० - १५७२ ई.) ने पीछोली नामक गाँव को अपनी राजधानी बनाया। पीछोली गाँव ही १७ वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में उदयपुर नगर के नाम से प्रसिद्ध हो गया। राणा कर्णसिंह (१६२० - १६२८ ई.) के बाद से उदयपुर नगर ही मेवाड़ की स्थायी राजधानी रहा, जबतक राणा भूपालसिंह द्वारा १८ अप्रैल १९४८ ई. में इसका विलय नहीं कर दिया गया।

मेवाड़ राजस्थान के दक्षिण-मध्य में स्थित एक रियासत थी। इसे 'उदयपुर राज्य' ( 'चित्तौडगढ राज्य’ ) के नाम से भी जाना जाता है। इसमें आधुनिक भारत के राजस्थान के उदयपुर, भीलवाड़ा, राजसमन्द, चित्तौडगढ़,तथा प्रतापगढ़ जिले और मध्य प्रदेश के नीमच तथा मंदसौर जिले थे। मेवाड़ के राजचिह्न में राजपूत और भील योद्धा अंकित है । सैकड़ों वर्षों तक यहाँ शासन रहा और इस पर गहलोत तथा सिसोदिया राजाओं ने 1200 वर्ष तक राज किया ।

१५५० के आसपास मेवाड़ की राजधानी थी (आहड़)[चित्तौड़गढ़|चित्तौड़]]। महाराणा प्रताप यहीं के राजा थे। अकबर की भारत विजय में केवल मेवाड़ के राणा प्रताप बाधक बना रहे। अकबर ने सन् 1576 से 1586 तक पूरी शक्ति के साथ मेवाड़ पर कई आक्रमण किए, पर उसका राणा प्रताप को अधीन करने का मनोरथ सिद्ध नहीं हुआ स्वयं अकबर, प्रताप की देश-भक्ति और दिलेरी से इतना प्रभावित हुआ कि प्रताप के मरने पर उसकी आँखों में आंसू भर आये। उसने स्वीकार किया कि विजय निश्चय ही राणा की हुई। यह एक ऐतिहासिक सत्य है कि देश के स्वतंत्रता संग्राम में प्रताप जैसे महान देशप्रेमियों के जीवन से ही प्रेरणा प्राप्त कर अनेक देशभक्त हँसते-हँसते बलिवेदी पर चढ़ गए। महाराणा प्रताप की मृत्यु पर उसके उत्तराधिकारी अमर सिंह ने मुगल सम्राट जहांगीर से सन् 1615 में संधि कर ली। [1]

मेवाड़ का इतिहास बेहद ही गौरवशाली रहा है , मेवाड़ का प्राचीन नाम शिवी जनपद था । चित्तौड़ उस समय मेवाड़ का प्रमुख नगर था । प्राचीन समय में सिकंदर के आक्रमण भारत की तरफ बड़ रहे थे , उसने ग्रीक के मिन्नांडर को भारत पर आक्रमण करने के लिए भेजा , उस दौरान शिवी जनपद का शासन भील राजाओं के पास [2]था । सिकंदर भारत को नहीं जीत पाया , उसके आक्रमण को शिवी जनपद के शासकों ने रोक दिया और सिकंदर की सेना को वापस जाना पड़ा ।

दरसअल मेवाड़ , भील राजाओं के शासन का क्षेत्र रहा , भीलों ने शासन करने के साथ साथ मेवाड़ धारा का विकास किया ।

मेवाड़ पर राजा खेरवो भील का शासन स्थापित था , उसी दौरान गुहिलोतो ने मेवाड़ अपने कब्जे में कर लिया [1]।

मेवाड़ राज्य की स्थापना लगभग 530 ई। में हुई थी; बाद में यह भी होगा, और अंततः मुख्य रूप से, राजधानी के नाम पर उदयपुर कहलाएगा। 1568 में, अकबर ने मेवाड़ की राजधानी चित्तौड़गढ़ पर विजय प्राप्त की। 1576 में, मेवाड़ के शासक महाराणा प्रताप ने अकबर को हराया और हल्दीघाटी के युद्ध के बाद मुगलों से मेवाड़ की खोई हुई सभी भूमि को ले लिया। हालांकि, गुरिल्ला युद्ध के माध्यम से, महाराणा प्रताप ने पश्चिमी मेवाड़ पर कब्जा कर लिया। 1606 में, अमर सिंह ने देवरे की लड़ाई में मुगलों को हराया। 1615 में, चार दशक तक झड़प के बाद, Mewar और मुगलों ने एक संधि में प्रवेश किया, जिसके तहत मुगलों के कब्जे के लिए मेवाड़ के कब्जे के लिए मेवाड़ क्षेत्र को वापस कर दिया गया था और मुगल दरबार में भाग लेलेया जब 1949 में उदयपुर राज्य भारतीय संघ में शामिल हो गया, तो उस पर 1,400 वर्षों से मोरी, गुहिलोट और सिसोदिया राजवंशों का शासन था। चित्तौड़गढ़ सिसोदिया वंशावली ओ की राजधानी थी

मेवाड़ का उत्तरी भाग समतल है। बनास व उसकी सहायक नदियों की समतल भूमि है। चम्बल भी मेवाड़ से होकर गुज़रती है। मेवाड़ के दक्षिणी भाग में अरावली पर्वतमाला है,जो की बनास व उसकी सहायक नदियों को साबरमती व माही से अलग करती है,जो कि गुजरात सीमा में है। अरावली उत्तरपश्चिम क्षेत्र में है। इस कारण यहाँ उच्च गुणवत्ता पत्थर के भण्डार है। जिसका प्रयोग लोग गढ़ निर्माण में करना पसंद करते है। मेवाड़ क्षेत्र उष्णकटिबंधीय शुष्क क्षेत्र में आता है। वर्षा का स्तर 660 मिमी/वर्ष, उत्तर पूर्व में अधिकतया। ९०% वर्षा जून से सितम्बर के बीच पड़ती है। दक्षिण पश्चिम मानसून के कारण।

राजधानियाँ व प्रशासनिक केंद्र[संपादित करें]

मेवाड़ क्षेत्र की परिवर्तित सीमाओं के अनुरुप क्षेत्र की राजधानियाँ भी समयानुसार बदलती रही थी। इतिहास प्रसिद्ध दुर्ग चित्तौड़ के उत्तर में, १.५ मील दूर स्थित "नगरी' स्थान भिबि- जनपद की राजधानी था, जिसे तत्कालीन समय में मंजिमिका के नाम से जाना जाता था। जनपद के नष्ट होने के पश्चात् ७ वीं शताब्दी तक प्रामाणिक विवरणों के अभाव में इस प्रदेश की राजनीतिक अवस्था का विवरण ज्ञात नहीं होता है, किन्तु बप्पा रावल द्वारा शासन अधिकृत करने के समय से १३ वीं शताब्दी के प्रारंभिक दशक तक एकलिंग, देलवाड़ा, नागद्राह, चीखा तथा अघाटपुर (आयड़) मेवाड़ राज्य की राजधानियाँ व प्रशासनिक केंद्र रह चुके थे।

रावल जैतसिंह (१२१३ - १२५० ई.) के समय यहाँ की राजधानी नागद्रह (नागदा) थी, जो सुल्तान इल्नुतमिश के आक्रमण के कारण नष्ट हो गई। तब रावल ने अघाटपुर को नवीन राजधानी के रूप में विकसित किया। उसके पुत्र रावल तेजसिंह (१२५० - १२७३ ई.) ने सामरिक महत्त्व को देखते हुए चित्तौड़ को अपनी राजधानी बनाया। सुल्तान अलाउद्दीन के चित्तौड़ आक्रमण के समय मेवाड़ की राजधानी चित्तौड़ ही थी। १४ - १५ वीं सदी तक चित्तौड़ व कुंभलगढ़ मेवाड़ की राजधानी रहे हैं। राणा कुंभा (१४३३ - १४६८) ने कुंभलगढ़ तथा राणा सांगा (१५०९ - १५२८ ई.) ने चित्तौड़ को अपनी राजधानी बनाया। राणा प्रताप (१५७२ -१५९७ ई.) तथा उसके पुत्र राणा अमरसिंह प्रथम (१५९७ - १६२० ई.) ने मेवाड़ मुगल संघर्ष काल में गांगुंदा व चावंड नामक स्थानों को संघर्ष कालीन राजधानियाँ बनायी।

राणा उदयसिंह (१५४० - १५७२ ई.) ने पीछोली नामक गाँव को अपनी राजधानी बनाया। पीछोली गाँव ही १७ वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में उदयपुर नगर के नाम से प्रसिद्ध हो गया। राणा कर्णसिंह (१६२० - १६२८ ई.) के बाद से उदयपुर नगर ही मेवाड़ की स्थायी राजधानी रहा, जब तक राणा भूपालसिंह द्वारा १८ अप्रैल १९४८ ई. में इसका विलय नहीं कर दिया गया।

ग्राम- बस्तियों का दैनिक जीवन प्रातः ३ बजे से प्रारंभ हो जाता था। दैनिक नित्य"- कर्म से निवृत होने के बाद स्रियाँ आटा पीसने बैठ जाती थी। प्रायः प्रतिदिन दैनिक उपभोग के हिसाब से एक- दो सेर अनाज पीसा जाता था। इसके बाद वे कुँए से पानी लाने का काम करती थी। दूसरी तरफ कृषक लोग उषा- बेला में ही हल, बैल व अन्य मवेशियों को लेकर खेत चल देते थे। दिन भर काम करने के बाद सायंकाल ५-६ बजे घर आते थे। स्रियाँ प्रातः कालीन गृह- कार्य से निवृत्त होकर पुरुषों का हाथ बँटाने के लिए खेत से घर पहुँच जाती थी। साथ में दिन का भोजन भी ले जाती थी। जो प्रायः राब या छाछ, जब या मक्की की रोटी और चटनी- भाजी होती थी। वृद्धाएँ घर में बच्चों की देखभाल करती थीं। बच्चे बड़े होकर गोचरी का कार्य करते थे। सायंकाल में किसान इंधन तथा पशुओं के चारे के साथ घर लौटते थे। साल में खेती के व्यस्ततम दिनों में फसल की पाणत (सिचाई) के लिए रात को भी खेत में रहना पड़ता था। उसी तरह पके हुए फसलों की सुरक्षा के लिए भी किसान खेतों में बनी डागलियों में रात बिताते थे। फसल कटाई के लिए पूरा परिवार खेत में जुट जाता था।

वही व्यावसायिक जातियाँ अपना पूरा दिन कर्मशालाओं में बिताते थे। वहीं वे दिन का भोजन करते थे। शाम में लौटकर भोजन के बाद लोग पारस्परिक बैठक, खेलकूद, किस्से कहानियों, भजन- कीर्त्तन व ग्राम्य स्थिति की चर्चा के माध्यम से आमोद- प्रमोद करते थे। सर्दियों में लोग अलाव के चारों तरफ लंबी बैठकियाँ करते थे।

ग्राम्य- नगरों का जीवन वैसे तो ग्राम्य-जीवन के प्रभाव से मुक्त नहीं था, लेकिन लोगों के पास साधन होने की स्थिति में वे "भगतणों' का नृत्य देखने, मुजरे सुनने, दरबारी क्रिया- कलापों में सेवकाई करने, भजन- कीर्त्तन तथा दरबार- यात्राओं की जय- जय करने में व्यस्त रहते थे। दैनिक गोठ (मित्र भोग), अमल- पानी, भांग, गांजा, शराब आदि का व्यसन कुलीन वर्ग के दैनिक जीवन का हिस्सा था।

राजस्थान के अन्य राज्यों की तरह मेवाड़ में भी सिक्के प्रचलन में थे, लेकिन आर्थिक जीवन में सारे लेन- देन सिक्कों के माध्यम से ही नहीं किये जाते थे। दो राज्यों के बीच वाणिज्य व्यापार में नि:संदेह सिक्कों का ही इस्तेमाल होता था, लेकिन साथ- साथ कई स्थितियों में वस्तु- विनिमय से भी काम चला लिया जाता था। राज्य कर्मचारियों सेवकों तथा दासों को वेतन के रूप में अधिकतर कृषि योग्य भूमि, कपड़े तथा अन्य वस्तुएँ दी जाती थी। साथ- साथ नाम मात्र की ही संख्या में सिक्के दिये जाते थे। आंतरिक व्यापार में मुद्राओं के साथ- साथ १९ वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध तक कौड़ियों का भी प्रचलन रहा। कौड़ियों से जुड़ी गणनाओं में एक है-

  • २० भाग = १ कौड़ी
  • २० कौड़ी = आधा दाम
  • २ आधा दाम = १ रुपया

सर जॉन माल्कन के अनुसार

  • ४ कौड़ी = १ गण्डा
  • ३ गण्डा = १ दमड़ी
  • २ दमड़ी = १ छदाम
  • २ छदाम = १ रुपया (अधेला)
  • ४ छदाम = १ रुपया = ९६ कौड़ी

१८ वीं सदी के पूर्व यहाँ मुगल शासकों के नाम वाली "सिक्का एलची' का प्रचलन था, लेकिन औरंगजेब के बाद मुगल साम्राज्य का प्रभाव कम हो जाने के कारण अन्य राज्यों की तरह मेवाड़ में भी राज्य के सिक्के ढ़लने लगे। १७७४ ई. में उदयपुर में एक अन्य टकसाल खोली गई। इसी प्रकार भीलवाड़ा की टकसाल १७ वीं शताब्दी के पूर्व से ही स्थानीय वाणिज्य- व्यापार के लिए "भीलवाड़ी सिक्के' ढ़ालती थी। बाद में चित्तौड़गढ़, उदयपुर तथा भीलवाड़ा तीनों स्थानों के टकसालों पर शाहआलम (द्वितीय) का नाम खुदा होता था। अतः यह "आलमशाही' सिक्कों के रूप में प्रसिद्ध हुआ। राणा संग्रामसिंह द्वितीय के काल से इन सिक्कों के स्थान पर कम चाँदी के मेवाड़ी सिक्के का प्रचलन शुरू हो गया। ये सिक्के चित्तौड़ी और उदयपुरी सिक्के कहे गये। आलमशाही सिक्के की कीमत अधिक थी।

१०० आलमशाही सिक्के = १२५ चित्तौड़ी सिक्के

उदयपुरी सिक्के की कीमत चित्तौड़ी से भी कम थी। आंतरिक अशांति, अकाल और मराठा अतिक्रमण के कारण राणा अरिसिंह के काल में चाँदी का उत्पादन कम हो गया। आयात रुक गये। वैसी स्थिति में राज्य- कोषागार में संग्रहित चाँदी से नये सिक्के ढ़ाले गये, जो अरसीशाही सिक्के के नाम से जाने गये। इनका मूल्य था--

१ अरसी शाही सिक्का = १ चित्तौड़ी सिक्का = १ रुपया ४ आना ६ पैसा।

राणा भीम सिंह के काल में मराठे अपनी बकाया राशियों का मूल्य- निर्धारण सालीमशाही सिक्कों के आधार पर करने लगे थे। इनका मूल्य था ---

सालीमशाही १ रुपया = चित्तौड़ी १ रुपया ८ आना

आर्थिक कठिनाई के समाधान के लिए सालीमशाही मूल्य के बराबर मूल्य वाले सिक्के का प्रचलन किया गया, जिन्हें "चांदोड़ी- सिक्के' के रूप में जाना जाता है। उपर्युक्त सभी सिक्के चाँदी, तांबा तथा अन्य धातुओं की निश्चित मात्रा को मिलाकर बनाये जाते थे। अनुपात में चाँदी की मात्रा तांबे से बहुत ज्यादा होती थी।

इन सिक्कों के अतिरिक्त त्रिशूलिया, ढ़ीगला तथा भीलाड़ी तोबे के सिक्के भी प्रचलित हुए। १८०५ -१८७० के बीच सलूम्बर जागीर द्वारा "पद्मशाही' ढ़ीगला सिक्का चलाया गया, वहीं भीण्डर जागीर में महाराजा जोरावरसिंह ने "भीण्डरिया' चलाया। इन सिक्कों की मान्यता जागीर लेन- देन तक ही सीमित थी। मराठा- अतिक्रमण काल के "मेहता' प्रधान ने "मेहताशाही' मुद्रा चलाया, जो बड़ी सीमित संख्या में मिलते हैं।

राणा स्वरुप सिंह ने वैज्ञानिक सिक्का ढ़लवाने का प्रयत्न किया। ब्रिटिश सरकार की स्वीकृति के बाद नये रूप में स्वरुपशाही स्वर्ण व रजत मुद्राएँ ढ़ाली जाने लगी। जिनका वजन क्रमशः ११६ ग्रेन व १६८ ग्रेन था। १६९ ग्रेन शुद्ध सोने की मुद्रा का उपयोग राज्य- कोष की जमा - पूँजी के रूप में तथा कई शुभ- कार्यों के रूप में होता था। पुनः राज्य कोष में जमा मूल्य की राशि के बराबर चाँदी के सिक्के जारी कर दिये जाते थे। इसी समय में ब्रिटिशों का अनुसरण करते हुए आना, दो आना व आठ आना, जैसे छोटे सिक्के ढ़ाले जाने लगे, जिससे हिसाब- किताब बहुत ही सुविधाजनक हो गया। रुपये- पैसों को चार भागों में बाँटा गया पाव (१/२), आधा (१/२), पूण (१/३) तथा पूरा (१) सांकेतिक अर्थ में इन्हें।।।।।। तथा १ लिखा जाता था। पूर्ण इकाई के पश्चात् अंश इकाई लिखने के लिए नाप में s चिह्न का तथा रुपये - पैसे में o) चिह्न का प्रयोग होता था।

ब्रिटिश भारत सरकार के सिक्कों को भी राज्य में वैधानिक मान्यता थी। इन सिक्कों को कल्दार कहा जाता था। मेवाड़ी सिक्कों से इसके मूल्यांतर को बट्टा कहा जाता था। चांदी की मात्रा का निर्धारण इसी बट्टे के आधार पर होता था। उदयपुरी २.५ रुपया को २ रुपये कल्दार के रूप में माना जाता था। १९२८ ई. में नवीन सिक्कों के प्रचलन के बाद तत्कालीन राणा भूपालसिंह ने राज्य में प्रचलित इन प्राचीन सिक्कों के प्रयोग को बंद करवा दिया।

इस प्रकार हम पाते हैं कि यहाँ की आर्थिक व्यवस्था, वस्तु- विनिमय की परंपरा तथा जन- जीवन पर ग्रामीण वातावरण के प्रभाव ने मुद्रा की आवश्यकता को सीमित रखा। वैसे १९ वीं सदी उत्तरार्द्ध में सड़क निर्माण, रेल लाइन निर्माण व राजकीय भवन निर्माण तथा राज का परिमापन मुद्रा में होने लगा था, फिर भी अधिकतर- चुकारा एवं वसूली जीन्सों में ही प्रचलित थी। धातुओं से निर्मित इन मुद्राओं के साथ एक समस्या यह भी थी कि संकटकाल में इन मुद्राओं को ही गलाकर शुद्ध धातु को बेचकर लाभ कमाने की कोशिश की जा रही थी। राज्य में महाराणाओं द्वारा वैज्ञानिक सिक्के के प्रचलन में विशेष रुचि नहीं रहने के कारण शान्तिकाल में भी राज्य- कोषागार समृद्ध नहीं रहा, दूसरी तरह भू- उत्पादन द्वारा राज्य- भंडार समृद्ध रहे।

संचार-व्यवस्था : बामणी-डाक[संपादित करें]

मेवाड़ राज्य में आज की तरह सुसंगठित संचार व्यवस्था नहीं थी। जन- साधारण में जातियों के अपने-अपने नाई, सेवक, भाट ही पारिवारिक संदेशों का आदान- प्रदान करते थे। ऐसी संदेश- प्रक्रिया प्रायः मौखिक होती थी। राज्य कार्य के लिए पैदल (दौड़ायत), ऊँट सवार, सांड़ीवार तथा घुड़सवार रखे जाते थे। वे राज- काज से संबद्ध सूचना वार्ताओं को प्रायः मौखिक रूप से ही इधर- उधर पहुँचाते थे। मौखिक संदेश- प्रक्रिया का कारण संभवतः उस समय का संशयात्मक राजनीतिक वातावरण था। व्यापारिक पत्र माल वाहनों अथवा यात्रियों के साथ भेजे जाते थे।

१९ वीं सदी के पूर्वार्द्ध तक इसी रुढिगत व्यवस्था का प्रयोग किया गया। इस के बाद सूचना संचार के लिए बग्गियाँ काम में भी जाने लगी। अब लिखित सूचना का प्रचलन शुरू हो गया था। किंतु जनसाधारण में अभी भी सूचना- विनिमय की कोई राज्य आधारित व्यवस्था नहीं थी। यह व्यवस्था राणा स्वरुपसिंह के शासन से आरंभ हुई, जो नियमित राजकीय डाक लाने ले जाने का कार्य करती थी। यह व्यवस्था "बामणी- डाक व्यवस्था' के नाम से जानी जाती थी।

बामणी डाक व्यवस्था संभवतः बंगाल के हरकारा- डाक व्यवस्था से प्रभावित थी। इस व्यवस्था में ब्राह्मण जाति के लोगों को वार्षिक ठेके के आधार पर डाक संबंधी उत्तरदायित्व प्रदान किया गया था। ब्राह्मण वर्ग के प्रति लोगों का आदर व दया मान था। साथ- ही- साथ चूँकि ब्राह्मण को मारना या लूटना पाप- कर्म माना जाता था, अतः पैसे व पत्र ज्यादा सुरक्षित रहते थे। ठेके में हानि होने की स्थिति में राज्य द्वारा आर्थिक- अनुदान कर क्षतिपूर्ति किया जाता था। ठेका लेने वाले व्यक्ति को डाक- व्यवस्था बनाये रखने के लिए हरकारे रखने पड़ते थे, जिनका मासिक वेतन निश्चित किया जाता था। १९ वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में यह प्रति माह ४ रुपया था। इस डाक- व्यवस्था को जन- साधारण के उपयोग हेतु राणा शंभूसिंह के शासन- काल में खोला गया। जन- साधारण को प्रति पत्र की कीमत के आधार पर एक निश्चित लागत चुकानी पड़ती थी। मेवाड़ राज्य के अंदर पत्रों के आदान- प्रदान की लागत निश्चित थी, किंतु बाहर भेजी जाने वाली डाक पर अलग से प्रति कोस के हिसाब से पैसा लिया जाता था।

२० वीं शताब्दी के एक दशक तक वामणी डाक नियमित रूप से प्रत्येक परगने के मुख्यालय तक जाती थी। अलग से कोई डाक- कार्यालय नहीं था। ठेकेदार का घर तथा हरकारे स्वयं डाक- घर का कार्य करते थे। सन् १८६५ ई. में आंग्ल सरकार ने डाक- घर स्थापित किया। इसके साथ ही नसीराबाद, खेरवाड़ा, कोटड़ा व छावनी पर छावनी के छाक- घर खुले। इनका प्रयोग ब्रिटिश भारत सरकार, एजेंटों एवं राज्य के कर्मचारियों के समाचारों का आदान- प्रदान करना था। रेलवे के विकास के बारे में जन- साधारण के प्रयोग के लिए प्रत्येक रेलवे- स्टेशन पर प्रशासन ने एक- एक डाक घर तथा तार- घर खोल दिया। १९ वीं सदी के अंत तक जन- साधारण की सूचना नियमित तथा व्यवस्थित रूप से आने- जाने लगी थी।

मेवाड़ राज्य में जन-जीवन में ज्यादातर कुटीर ग्रामोद्योग का प्रचलन था। इन उद्योगों का विस्तार आत्मनिर्भर आर्थिक- व्यवस्था के अनुरुप राज्य की माँग तथा पूर्ति तक सीमित था। ज्यादातर उद्योग- धंधे जाति समाज की जातियों व वंशानुगत स्थितियों पर आधारित थे। जातिगत उद्योगों में कार्यरत शिल्पियों के दो स्तर थे -

ग्राम्य शिल्पी कृषि तथा ग्राम्य-जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए कार्य करते थे। इनका आर्थिक जीवन कृषि- आश्रित रहता था। वे अर्द्ध- कृषक हो सकते थे। नगर शिल्पी कुशल शिल्पी की श्रेणी में आते थे। उन्हें दो श्रेणियों में बाँटा गया है -

  • श्रमिक शिल्पी
  • व्यवसायी शिल्पी

श्रमिक शिल्पियों में भवन-निर्माण करने वाले कुमावत व अन्य मिस्री कारीगर, मिट्टी के बर्तन बनाने वाले कुम्हार कपड़ों की सिलाई करने वाले महिदाज, रेजा बुनने वाले बलाई, कपड़ा रंगने वाले रंगरेज, कागज बनाने वाले कागदी, सोना- चाँदी के बरक बनाने वाले, कपड़ो की छपाई करने वाले छीपा, बर्तन गढ़ने वाले कसारा इत्यादि जाति के लोग प्रमुख है। सुनार, लुहार, सुथार, कुम्हार, दर्जी, जीणगर, सिकलीगर, अंतार- गंधी, उस्ता, पटवा, कलाल आदि जातियाँ व्यवसायी शिल्पियों के वर्ग में आते थे।

मेवाड़ राज्य के प्रमुख उद्योग निम्न थे -

1. वस्त्र उद्योग

प्रत्येक गाँव में बलाई बुनकर चर्खे द्वारा सूत कातने तथा मोटे सूती कपड़े (रेजा) की बुनाई का काम किया जाता था। एक कहावत के अनुसार -

मोटो खाणों, मोटो पेरणों अर छोटो रेहणों

अर्थात आदर्शवान नम्र व्यक्ति मोटे अनाज (मक्की- धान आदि) खाते है तथा रेजा पहनते है।

मेवाड़ राज्य के मध्य एवं पूर्वी दक्षिणी भाग में कपास का उत्पादन होने के कारण यह क्षेत्र रेजाकारी का प्रमुख केंद्र था। मुस्लिम जाति के जुलाहे बारीक कपड़े की बुनाई का काम करते थे, लेकिन इन वस्रों का प्रचलन मात्र अभिजात व कुलीन वर्ग में ही होने के कारण मोटे रेजा उद्योग जैसा प्रचलित नहीं हो पाया। वस्र- निर्माण, रंगाई, छपाई व कढ़ाई का काम मुस्लिम जाति के रंगरेजों, छिपाओं तथा हिंदूओं में पटवा लोगों द्वारा किया जाता था। छपाई में लकड़ी के ब्लाकों का प्रयोग होता था, जिसका निर्माण शिल्पी- सुथार करते थे। गोटे- किनारी के व्यवसाय पर पारख जाति के ब्राह्मणों का एकाधिकार था।

2. काष्ठ- उद्योग

मेवाड़ राज्य की तिहाई भूमि वनाच्छादित थी। सीसम, सागवान, आम, बबूल व बाँस के वृक्ष बहुतायत में थे। लकड़ियों का प्रयोग विशेष रूप से कृषि- उपकरण, भवन तथा बरतन बनाने में होता था। लकड़ी में खुदाई व नक्काशी का काम सुथार लोग करते थे।

3. लुहारी व चर्मकारी उद्योग

ग्राम्य लुहार, चमार व गाडूलिया- लुहार (एक घुमक्कड़ व्यवसायी जाति) कृषि के लिए लौह- उपकरणों, जैसे हल, कुदाल, नीराई- गुड़ाई करने की खाप, चड़स आदि तथा घरेलू- सामानों (चिमटा, दंतुली, सांकल, चाकू आदि) बनाने का कार्य करती थी। नगरों में यह काम सिकलीबर, जीणगर व मोची द्वारा किया जाता था।

4. बर्तन - उद्योग

जन- साधारण की स्थानीय आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए मिट्टी के बर्तन बनाये जाते थे। बांस की सुलभता के कारण बांस के बर्त्तनों का भी प्रचलन था। बांस का कार्य गांछी तथा हरिजन जाति के लोग करते थे। वे टोकरियाँ, छाब, कुंडया, टाटा आदि बनाने का कार्य करते थे। तांबा, पीतल तथा कांसा के मिश्रित बर्त्तनों का निर्माण कार्य कसारा जाति के लोग करते थे। उदयपुर में पीतल, तांबा आदि के साथ- साथ सोनियों द्वारा सोने- चाँदी के बरतन भी बनाने के कारोबार किया जाता था।

5. आभूषण उद्योग

कलात्मक आभूषण बनाने तथा जड़ाई करने का कार्य सोनी तथा जड़िया जाति के लोग करते थे। वे तलवारों व कटारियों की मूठों पर भी जड़ाई व खुदाई का काम करते थे। मीनाकारी का काम विशेष रूप से नाथद्वारा में होता था।

6. अन्य उद्योग

उपरोक्त उद्योगों के अलावा यहाँ मूर्ति एवं चित्रकारी, चूड़ी, इत्र, कागज व शराब बनाने के उद्योग विकसित थे। चतारा उद्योग का व्यापक प्रचलन विभिन्न ठिकानों, हवेलियाँ व लोक- शिल्प के रूप में सभी घरों में था। वैसे तो कागज का गुजरात से आयात किया जाता था, लेकित मेवाड़ में भी घास की गुदा, मांस, कपड़ों को सड़ाकर लेप तैयार कर मोटा कागज बनाने का प्रचलन था। बनाने वाले "कागदी' कहलाते थे। बारुद सोनगरों द्वारा तैयार किये जाते थे। क्रलाल जाति के लोग महुआ, केशव व गुलाल से शराब बनाते थे।

राजमहलों में कई कारखाने काम करते थे। वहाँ शिल्पियों को शासन द्वारा बेगार में अथवा वेतन- मजदूरी पर काम करना होता था। यहाँ मुख्यतः पत्थर - नक्काशी, मूर्ति शिल्प, चित्रकारी, वस्र- सिलाई, आभूषण- जड़ाई, डोली, स्वर्णकारी, औषधि व नाव आदि बनाने का काम होता था। कारखाने के उत्पादों का प्रयोग राज्य के मर्दाना महल तथा जनाना महल में रहने वाले लोग करते थे।

मेवाड़ राज्य के उद्योग-धंधेवस्तु का नाम -- संबद्ध निर्माण-स्थल

दुपट्टा एवं छींट के वस्र -- हम्मीरगढ़

रेजा की जाजम व पछेवड़ा,

वस्र-बंधाई, रंगाई व छपाई -- चित्तौड़, अकोला, उदयपुर

पगड़ियां, मोठड़े, चूंदड़ियाँ व लहरियों की छपाई व रंगाई -- उदयपुर

बहुमूल्य कपड़ों पर सोने चांदी के तार तथा रेशम के धागों द्वारा कढ़ाई -- उदयपुर

कपास तथा ऊन ओटने का कारखाना -- भीलवाड़ा

लकड़ी के कलात्मक खिलौने व चुड़ियाँ -- उदयपुर, भीलवाड़ा, जहाजपुर, शाहपुर

पावड़ा पर पॉलिश -- भीलवाड़ा, जहाजपुर, शाहपुर

भवन- निर्माण में उपयुक्त कलात्मक काष्ठ - निर्मित वस्तुएँ -- सलूम्बर, कुरबड़, भीण्डर

तलवार, खंजर- छूरी, कटारी, भाले ढ़ाल, हाथी, घोड़े तथा ऊँटों की जीण या काठी -- उदयपुर

मिट्टी के कलात्मक बर्त्तन कुँआरिया -- उदयपुर तथा कपासन

लौह-निर्मित हमामदस्ता व तगारियाँ -- विगोद

ताँबा, पीतल व कांसा आदि धातुओं के बरतन -- भीलवाड़ा, उदयपुर

सोने-चाँदी के बरतन -- उदयपुर

आभूषण निर्माण व नगीना-जड़ाई -- उदयपुर

मीनाकारी -- नाथद्वारा

हाथीदाँत, लाख व नारियल की चूड़ियाँ -- उदयपुर, भीलवाड़ा

मोमबत्ती -- कोठारिया

गुलाबजल व गुलाब का इत्र -- खमनोर

कंबल -- देवगढ़

हरे घीया पत्थर की मूर्तियाँ -- ॠषभदेव

भीत्तिचित्र व कलमकारी उद्योग -- नाथद्वारा, उदयपुर

मोटा कागज उद्योग -- घुसुन्डा

बारुद -- केवला, चित्तौड़ व पुर

देशी साबुन -- उदयपुर, भीण्डर

वाणिज्य-व्यवस्था से वणिक-समूह प्रत्यक्ष रूप से जुड़ा था। व्यवसाय की दृष्टि से वणिकों को तीन श्रेणियों में बाँटा जा सकता है -

  1. ग्राम्य वणिक
  2. नगर वणिक तथा
  3. बोहरा या साहूकार

साहूकार तथा अन्य संपन्न द्विज जाति के व्यक्ति ग्राम्य- वणिक तथा नगर- वणिक के मध्य की कड़ी होते थे। वे गाँवों में उधार लेन- देन तथा माल क्रय- विक्रय का कार्य करने थे तथा साथ - ही साथ नगर-वाणिज्य की आवश्यकतानुसार ग्राम्य- भंडार से माल को मंडी में थोक से विक्रय करते थे। इस प्रकार दोहरा व्यापारी ग्रामीण प्रजा के लिए बैंक तथा मंडी माल के मुख्य संग्रहकर्त्ता एवं वितरक का कार्य करते थे। कुछ सौदे बोहरों के बिना, प्रत्यक्ष भी किये जाते थे। माल संग्रह प्रायः कृषक अथवा ग्राम- भंडार में ही रखा जाता था तथा आवश्यकतानुसार मंगवाया जाता था। इससे दलाली के ४ से ६ ऽ तक की बचत होती थी।

अच्छी स्थिति वाले कृषक तथा जागीरदार अथवा उपज सीधे मंडियों में बेचते थे। राज्य द्वारा दलालों को दलाली- पट्टे दिये जाते थे। दलाली का वार्षिक शुल्क आमदनी के अनुपात में लिया जाता था। शुल्कों को संग्रह करने का वार्षिक ठेका प्रत्येक वाणिज्य- व्यापार समूह के प्रमुख आढ़तिया को प्रदान कर दिया जाता था। बिना राज्याज्ञा का कोई व्यक्ति दलाली नहीं कर सकता था। राज्य की तरफ से सहणा और ढ़ाणी मंडी में राज्यहितों का ध्यान रखते थे। पट्टा पद्धति द्वारा राज्य के क्षेत्रीय वाणिज्य- व्यापार पर प्रत्यक्ष नियंत्रण रहता था। व्यापारी मनमाने भाव नहीं बढ़ा सकते थे। माल की कमी हो जाने पर माल की आपूर्ति राज्य द्वारा राज्य भंडार से की जाती थी या फिर बाहर से राज्य की जमानत पर मंगवाया जाता था।

व्यापार के प्रमुख केन्द्र[संपादित करें]

गाँवों में व्यापार का काम साप्ताहिक (साती) अथवा मासिक (मासी) हटवाड़ (बाजार) लगा कर किया जाता था। ऐसे हटवाड़ प्रत्येक १०- १२ गाँवों के मध्य लगाये जाते थे। राज्य के आंतरिक व्यापार के प्रमुख केन्द्र उदयपुर, भीलवाड़ा, राशमी, समवाड़, कपासन, जहाजपुर तथा छोटी सादड़ी थे। अंतर्राज्यीय व्यापार के लिए मेवाड़ के वणिक-गण समुह बना कर क्रय-विक्रय हेतु दुरस्थ प्रदेशों में जाते थे। ये व्यापारिक यात्राएँ सर्दी के बाद प्रारंभ हो जाती थी तथा वर्षाकाल से पूर्व समाप्त हो जाती थी।

व्यापारिक यातायात-व्यवस्था

आलोच्यकाल में व्यापारिक यातायात का मुख्य साधन कच्चे व पथरीले मार्ग रहे थे। इन्हीं मार्गों से बनजारे बैलों व भैंसों द्वारा, गाडुलिया लुहार बैलगाड़ियों से, रेबारी लोग ऊँटों द्वारा, कुम्हार तथा ओड़ लोग खच्चर व गधों पर माल लाने- ले जाने का काम करते थे। वैसे स्थान जहाँ पशुओं द्वारा ढ़लाई संभव नहीं थी, माल आदमी की पीठ पर लाद कर लाया जाता था। लंबी दूरी पर माल-ढ़लाई का कार्य चारण, बनजारा तथा गाड़ूलिया लुहार, जैसे लड़ाकू - बहादुर जाति के लोग संपन्न करते थे। चारण जाति को समाज पवित्र स्थान प्राप्त था, अतः इनके काफिलों का लूटना पाप माना जाता था। व्यापारिक काफिले, जो बैलों के झुण्ड पर माल लाद कर चलते थे, बालद (टांडा) कहलाते थे। एक बालद में एक से एक हजार तक बैल हो सकते थे। ऊँटों का काफिला एक दिन में करीब २२ मील की दूरी तय करता था, वहीं घोड़े से ५० मील तक की यात्रा की जा सकती थी। बैलगाड़ी, गधे, खच्चर आदि एक दिन में २५- ३० मील की दूरी तय कर लेते थे।

यात्रा के दौरान रात्रि को मार्ग पर स्थित गाँवों, धर्मशालाओं, धार्मिक स्थलों या छायादार वृक्षों के आस- पास विश्राम किया जाता था, जहाँ पानी के लिए कुँए बावड़ियों की व्यवस्था होती थी। मार्ग स्थित सभी बावड़ियों के किनारे पशु के पेय हेतु प्याउएँ बनी होती थी।

१८ वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में यात्रियों व व्यापारियों को सुरक्षार्थ संबद्ध जागीरदारों का रखवाली एवं बोलाई नामक राहदरी (मार्ग- शुल्क) देना पड़ता था। वैसे तो ब्रिटिश संरक्षण काल में इन शुल्कों को समाप्त कर दिया गया, फिर भी जागीरदारों इन अधिकारों का अनधिकृत प्रयोग करते थे। मराठा अतिक्रमण काल में मार्ग का सुरक्षित यात्रा बीमा तथा प्रति बैल के हिसाब से व्यापारिक माल बीमा देना पड़ता था। वर्षा के दिनों में मार्ग अवरुद्ध हो जाने की स्थिति में कीर नामक जाति के लोग "उतराई' शुल्क लेकर लोगों को सुरक्षित नदी पार कराती थी।

अभिजात्य तथा संपन्न वर्ग के लोग पालकियों व बग्गियों पर यात्रा करते थे।

चुंगी व्यवस्था

व्यापारिक माल की आमद (आयात) और निकास (निर्यात) पर व्यापारियों को दाण, बिस्वा एवं मापा नामक शुल्क राज्य को देना पड़ता था। एक गाँव से दूसरे गाँव माल ले जाने के लिए ग्राम- पंचायतों को ""माना' चुकाना पड़ता था। दाण व बिस्वा के अधिकार प्रायः राणा के पास होता था, लेकिन १८ वीं सदी में विशिष्ट सैन्य- योग्यता प्रदर्शित करने वाले क्षत्रियों को भी दाण लेने के अधिकार प्रदान किये गये थे। इन अधिकारों का सन् १८१८ ई. के बाद केंद्रीकरण करने की व्यवस्था की गई, जो राणा स्वरुप सिंह तक चली भी। फिर से ठेके की सायर (चुंगी) व्यवस्था तोड़कर स्थान- स्थान पर राज्य के दाणी- चोंतरे बनाये गये।

रेल की सुविधा आ जाने के बाद प्रत्येक स्टेशनों पर दाणी - घर बनाये गये। दाणी व हरकारे नियुक्त किये गये। यहाँ से माल उतारने व माल चढ़ाने की चुंगी ली जाती थी। पहले चुगी नगों की गिनती, अनाज की तौल व पशु गणना के आधार पर ली जाती थी। बाद में २० वीं सदी के पूर्वार्द्ध में शुल्क लिया जाने लगा। आयात शुल्क निर्यात शुल्क से अधिक लिया जाता था। पूण्यार्थ धर्मार्थ वस्तुओं, लड़की के विवाह व मृत्युभोज की वस्तुओं पर चुंगी नहीं ली जाती थी।

मेवाड़ की कितनी राजधानियां रही?

१४ - १५ वीं सदी तक चित्तौड़ व कुंभलगढ़ मेवाड़ की राजधानी रहे हैं। राणा कुंभा (१४३३ - १४६८) ने कुंभलगढ़ तथा राणा सांगा (१५०९ - १५२८ ई.) ने चित्तौड़ को अपनी राजधानी बनाया।

मेवाड़ की प्रथम राजधानी क्या थी?

मेवाड़ के चौथे राणा नागादित्य द्वारा छठवीं शताब्दी में स्थापित किया गया नागदा शहर जो बगेला झील के किनारे बसा था और जिसे मेवाड़ की प्रथम राजधानी माना जाता है, इन दिनों यहां सन्नाटा पसरा रहता है।

चावंड मेवाड़ की राजधानी कितने वर्षों तक रही?

वही स्थान जहाँ महाराणा प्रताप का अंतिम संस्कार किया गया। चावंड 28 वर्षों तक मेवाड़ की राजधानी रही थी।

महाराणा प्रताप की अंतिम राजधानी कौन सी थी?

चावंड (Chawand) भारत के राजस्थान राज्य के उदयपुर ज़िले में स्थित एक नगर है। यह महाराणा प्रताप द्वारा शासित मेवाड़ की अन्तिम राजधानी थी