मानव शरीर में ऊर्जा की आवश्यकता क्यों होती है - maanav shareer mein oorja kee aavashyakata kyon hotee hai

हेलो स्टूडेंट तो क्वेश्चन है हमें ऊर्जा की आवश्यकता क्यों पड़ती है तो देखिए कि हमारे दैनिक जीवन में दैनिक जीवन में ऐसे कई महत्वपूर्ण कार्य है महत्वपूर्ण कार्य है जिन को संपन्न करने के लिए संपन्न करने के लिए हमें ऊर्जा की आवश्यकता है की आवश्यकता है पहला है हमारे शरीर को शरीर को

Show

कार्य करने के लिए कार्य करने के लिए ऊर्जा की आवश्यकता है ऊर्जा की आवश्यकता है जो हमें भोजन से प्राप्त होती है भोजन से प्राप्त होती है तो हमें चलने कूदने इत्यादि के लिए वह जो है वह ऊर्जा की आवश्यकता होती है जो हमें भोजन से प्राप्त होती है दूसरा है कि हमारे घरों में कई विद्युत उपकरण है विद्युत उपकरण है जैसे लाइट

पंखा कूलर कंप्यूटर मोबाइल इत्यादि के कार्य के लिए कार्य करने के लिए विद्युत ऊर्जा की आवश्यकता होती है विद्युत ऊर्जा की आवश्यकता होती है तो यह सभी उपकरण बिना विद्युत के कार्य नहीं कर सकते हमें विद्युत ऊर्जा की आवश्यकता होती है और तीसरा है कि भोजन पकाने व वाहनों को चलाने में हमें

एलपीजी सीएनजी प्राकृतिक गैस कोयला इत्यादि से प्राप्त इत्यादि से प्राप्त रासायनिक ऊर्जा की आवश्यकता है जो ऊष्मा में परिवर्तित होती है परिवर्तित होती है तो भोजन पकाने के लिए वाहनों को चलाने के लिए मैं एलपीजी सीएनजी प्राकृतिक गैस इत्यादि की आवश्यकता होती है जो रासायनिक ऊर्जा को ऊष्मा में परिवर्तित करते हैं और हमारे विभिन्न कार्य संपन्न होते हैं इस प्रकार हमें ऊर्जा की आवश्यकता हमारे दैनिक जीवन में कई कार्यों

मैं होती है

मानव शरीर में ऊर्जा की आवश्यकता क्यों होती है - maanav shareer mein oorja kee aavashyakata kyon hotee hai

भौतिकी में, ऊर्जा वस्तुओं का एक गुण है, जो अन्य वस्तुओं को स्थानांतरित किया जा सकता है या विभिन्न रूपों में रूपान्तरित किया जा सकता हैं।[1]

किसी भी कार्यकर्ता के कार्य करने की क्षमता को ऊर्जा (Energy) कहते हैं। ऊँचाई से गिरते हुए जल में ऊर्जा है क्योंकि उससे एक पहिये को घुमाया जा सकता है जिससे बिजली पैदा की जा सकती है।

ऊर्जा की सरल परिभाषा देना कठिन है। ऊर्जा वस्तु नहीं है। इसको हम देख नहीं सकते, यह कोई जगह नहीं घेरती, न इसकी कोई छाया ही पड़ती है। संक्षेप में, अन्य वस्तुओं की भाँति यह द्रव्य नहीं है, यद्यापि बहुधा द्रव्य से इसका घनिष्ठ संबंध रहता है। फिर भी इसका अस्तित्व उतना ही वास्तविक है जितना किसी अन्य वस्तु का और इस कारण कि किसी पिंड समुदाय में, जिसके ऊपर किसी बाहरी बल का प्रभाव नहीं रहता, इसकी मात्रा में कमी बेशी नहीं होती।

= ऊर्जा के विभिन्न रूप[संपादित करें]

मानव शरीर में ऊर्जा की आवश्यकता क्यों होती है - maanav shareer mein oorja kee aavashyakata kyon hotee hai

तीन रूपों में उर्जा - स्थितिज, गतिज एवं आन्तरिक

साधारणत: कार्य कर सकने की क्षमता को ऊर्जा कहते हैं। जब धनुष से शिकार करनेवाला कोई शिकारी डोरी को खींचता है तो धनुष में ऊर्जा आ जाती है जिसका उपयोग बाण को शिकार तक चलाने में किया जाता है। बहते पानी में ऊर्जा होती है जिसका उपयोग पवनचक्की चलाने में अथवा किसी दूसरे काम के लिए किया जा सकता है। इसी तरह बारूद में ऊर्जा होती है, जिसका उपयोग पत्थर की शिलाएँ तोड़ने अथवा तोप से गोला दागने में हो सकता है। बिजली की धारा में ऊर्जा होती है जिससे बिजली की मोटर चलाई जा सकती है। सूर्य के प्रकाश में ऊर्जा होती है जिसका उपयोग प्रकाशसेलों द्वारा बिजली की धारा उत्पन्न करने में किया जा सकता है। ऐसे ही अणुबम में नाभिकीय ऊर्जा रहती है जिसका उपयोग शत्रु का विध्वंस करने अथवा अन्य कार्यों में किया जाता है।

इस प्रकार हम देखते हैं कि ऊर्जा कई रूपों में पाई जाती है। तने हुए स्प्रिंग में जो ऊर्जा है उसे स्थितिज ऊर्जा कहते हैं; बहते पानी की ऊर्जा गतिज ऊर्जा है; बारूद की ऊर्जा रासायनिक ऊर्जा है; बिजली की धारा की ऊर्जा वैद्युत ऊर्जा है; सूर्य के प्रकाश की ऊर्जा को प्रकाश ऊर्जा कहते हैं। सूर्य में जो ऊर्जा है वह उसके ऊँचे ताप के कारण है। इसको उष्मा ऊर्जा कहते हैं।

ऊर्जा की मात्रा के कुछ उदहरण[संपादित करें]

  • पिस्टल से निकली गोली की ऊर्जा : लगभग ५०० जूल
  • १ किलो टी एन टी में निहित ऊर्जा : लगभग ४ मेगा जूल
  • १ लीटर पेट्रोल में निहित ऊर्जा : लगभग ३० मेगाज

कार्य एवं उर्जा[संपादित करें]

विभिन्न उपायों द्वारा ऊर्जा को एक रूप से दूसरे रूप में परिवर्तित किया जा सकता है। इन परिवर्तनों में ऊर्जा की मात्रा सर्वदा एक ही रहती है। उसमें कमी बेशी नहीं होती। इसे ऊर्जा-अविनाशिता-सिद्धांत कहते हैं।

ऊपर कहा गया है कि कार्य कर सकने की क्षमता को ऊर्जा कहते हैं। परंतु सारी ऊर्जा को कार्य में परिणत करना सर्वदा संभव नहीं होता। इसलिए यह कहना अधिक उपयुक्त होगा कि ऊर्जा वह वस्तु है जो उतनी ही घटती है जितना कार्य होता है। इस कारण ऊर्जा को नापने के वे ही एकक होते हैं। जो कार्य को नापने के। यदि हम एक किलोग्राम भार को एक मीटर ऊँचा उठाते हैं तो पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण के विरुद्ध एक विशेष मात्रा में कार्य करना पड़ता है। यदि हम इसी भार को दो मीटर ऊँचा उठाएँ अथवा दो किलोग्राम भार को एक मीटर ऊँचा उठाएँ तो दोनों दशाओं में पहले की अपेक्षा दूना कार्य करना पड़ेगा। इससे प्रकट होता है कि कार्य का परिमाण उस बल के परिमाण पर, जिसके विरुद्ध कार्य किया जाए और उस दूरी के परिमाण पर, जिस दूरी द्वारा उस बल के विरुद्ध कार्य किया जाए, निर्भर रहता है और इन दोनों परिमाणों के गुणनफल के बराबर होता है।

ऊर्जा के मात्रक[संपादित करें]

कार्य की किसी भी मात्रा को हम कार्य का एकक मान सकते हैं। उदाहरणत: एक किलोग्राम भार को पृथ्वी के आकर्षण के विरुद्ध एक मीटर ऊँचा उठाने में जितना कार्य करना पड़ता है उसे एकक माना जा सकता है। परंतु पृथ्वी का आकर्षण सब जगह एक समान नहीं होता। इसका जो मान चेन्नई में है वह दिल्ली में नहीं है। इसलिए यह एकक असुविधापूर्ण है। फिर भी बहुत से देशों में इंजीनियर ऐसे ही एकक का उपयोग करते हैं। जिसे फुट-पाउंड कहते हैं। यह उस कार्य की मात्रा है जो लंदन के अक्षांश में समुद्रतट पर एक पाउंड को एक दूसरे ही एकक का प्रयोग किया जाता है जो सेंटीमीटर-ग्राम-सेंकड के ऊपर निर्भर है। इसमें बल के एकक को "डाइन" (Dyne) कहते हैं। डाइन बल का वह एकक है जो एक ग्राम के पिंड में एक सेकंड में एक सेंटीमीटर प्रति सेकंड का वेग उत्पन्न कर सकता है। इस बल के क्रियाबिंदु को इसके विरुद्ध एक सें. मी. हटाने में जितना कार्य करना पड़ता है उसे वर्ग कहते हैं। परंतु व्यावहारिक दृष्टि से कार्य का यह एकक बहुत छोटा है। अतएव दैनिक व्यवहार में एक दूसरा एकक उपयोग में लाया जाता है। इसमें लंबाई का एकक सेंटीमीटर के स्थान पर मीटर है तथा द्रव्यमान का एकक ग्राम के स्थान पर किलोग्राम है। इसमें बल का एकक "न्यूटन" है। न्यूटन बल का वह एकक है जो एक किलोग्राम के पिंड में एक सेकंड में एक मीटर प्रति सेकंड का वेग उत्पन्न कर सकता है। इस तरह न्यूटन 100000 डाइन के बराबर होता है। इस बल के क्रियाबिंदु को उसके विरुद्ध एक मीटर तक हटाने में जितना कार्य करना पड़ता है उसे जूल कहते हैं। एक जूल 107 अर्गो के बराबर होता है।

अन्य मात्रक[संपादित करें]

ऊर्जा को भी इन्हीं एककों में नापा जाता है। परंतु कभी कभी विशेष स्थलों पर कुछ अन्य एककों का उपयोग होता है। इनमें एक इलेक्ट्रान वोल्ट है। वह ऊर्जा का वह एकक है जिसे इलेक्ट्रान का वोल्ट के विभवांतर (पोटेंशियल डिफ़रेंस) से गुजरने पर प्राप्त करता है। यह बहुत छोटा एकक है और केवल 1.60 x 10 -19 जूल के बराबर होता है। इसके अतिरिक्त घरों में उपयोग में आनेवाली वैद्युत ऊर्जा को नापने के लिए एक दूसरे एकक का उपयोग होता है, जिसे किलोवाट-घंटा (KWh या 'यूनिट') कहते हैं और जो 3.6x 10 6 जूलों के बराबर होता है l ऊर्जा के यूनिट को झॉन पर्स्कॉट जूल के ऊर्जा के क्षेत्र मे एक क्रांति लाने की याद मे 'जूल' रखा।

जूल या वाट-सेकेन्ड किलोवाटघंटाइलेक्ट्रान वोल्टकिलोपॉन्डमीटर
(Kilopondmeter)
कैलरीअर्ग (Erg)
1 kg·m²/s² 00 1 00 2.778 · 10−7 00 6.242 · 1018 00 0.102 00 0.239 0 107
1 kW·h 00 3.6 · 106 00 1 00 2.25 · 1025 00 3.667 · 105 00 8.60 · 105 0 3.6 · 1013
1 eV 00 1.602 · 10−19 00 4.45 · 10−26 00 1 00 1.63 · 10−20 00 3.83 · 10−20 00 1.602 · 10−12
1 kp·m 00 9.80665 00 2.72 · 10−6 00 6.13 · 1019 00 1 00 2.34 0 9.80665 · 107
1 calIT00 4.1868 00 1.163 · 10−6 00 2.611 · 1019 00 0.427 00 1 0 4.1868 · 107
1 g·cm²/s² 00 10−7 0 2.778 · 10−14 0 6.242 · 1011 0 1.02 · 10−8 0 2.39 · 10−8 00 1

यांत्रिक ऊर्जा[संपादित करें]

उन वस्तुओं की अपेक्षा, जिनके अस्तित्व का अनुमान हम केवल तर्क के आधार पर कर सकते हैं, हमें उन वस्तुओं का ज्ञान अधिक सुगमता से होता है जिन्हें हम स्थूल रूप से देख सकते हैं। मनुष्य के मस्तिष्क में ऊर्जा के उस रूप की भावना सबसे प्रथम उदय हुई जिसका संबंध बड़े बड़े पिंडों से है और जिसे यंत्रों की सहायता से कार्यरूप में परिणात होते हम स्पष्टत: देख सकते हैं। इस यांत्रिक ऊर्जा के दो रूप हैं : एक स्थितिज ऊर्जा एवं दूसरा गतिज ऊर्जा। इसके विपरीत उस ऊर्जा का ज्ञान जिसका संबंध अणुओं तथा परमाणुओं की गति से है, मनुष्य को बाद में हुआ। इस कारण यह कम आश्चर्य की बात नहीं है कि न्यूटन से भी पहले फ्रांसिस बेकन की यह धारणा थी कि उष्मा द्रव्य के कणों की गति के कारण है।

स्थितिज ऊर्जा[संपादित करें]

एक किलोग्राम भार के एक पिंड को पृथ्वी के आकर्षण के विरुद्ध एक मीटर ऊँचा उठाने में जो कार्य करना पड़ता है उसे हम किलोग्राम-मीटर कह सकते हैं और यह लगभग 981 जूलों के बराबर होता है। यदि हम एक डोर लेकर ओर उसे एक घिरनी के ऊपर डालकर उसके दोनों सिरों से लगभग एक किलोग्राम के पिंड बाँधे और उन्हें ऐसी अवस्था में छोड़ें कि वे दोनों एक ही ऊँचाई पर न हों और ऊँचे पिंड को बहुत धीरे-से नीचे आने दें तो हम देखेंगे कि एक किलोग्राम के पिंड को एक मीटर ऊँचा उठा देगा। घिरनी में घर्षण जितना ही कम होगा दूसरा पिंड भार में उतना ही पहले पिंड के भार के बराबर रखा जा सकेगा। इसक अर्थ यह हुआ कि यदि हम किसी पिंड को पृथ्वी से ऊँचा बढ़ जाती है। एक किलोग्राम भार के पिंड को यदि 5 मीटर ऊँचा उठाया जाए तो उसमें 5 किलोग्राम-मीटर कार्य करने की क्षमता आ जाती है, एवं उसकी ऊर्जा पहले की अपेक्षा उसी परिमाण में बढ़ जाती है। यह ऊर्जा पृथ्वी तथा पिंड की आपेक्षिक स्थिति के कारण होती है और वस्तुत: पृथ्वी एवं पिंड द्वारा बने तंत्र (सिस्टम) की ऊर्जा होती है। इसीलिए इसे स्थितिज ऊर्जा कहते हैं। जब कभी भी पिंडों के किसी समुदाय की पारस्परिक दूरी अथवा एक ही पिंड के विभिन्न भागों की स्वाभाविक स्थिति में अंतर उत्पन्न होता है तो स्थितिज ऊर्जा में भी अंतर आ जाता है। कमानी को दबाने से अथवा धनुष को झुकाने से उनमें स्थितिज ऊर्जा आ जाती है। नदियों में बाँध बाँधकर पानी को अधिक ऊँचाई पर इकट्ठा किया जाए तो इस पानी में स्थितिज ऊर्जा आ जाती है।

गतिज ऊर्जा[संपादित करें]

न्यूटन ने बल की यह परिभाषा दी कि बल संवेग (मोमेंटम) के परिवर्तन की दर के बराबर होता है। यदि m किलोग्राम का कोई पिंड प्रारंभ में स्थिर हो और उसपर एक नियत बल F, t सेंकड तक कार्य करके जो वेग उत्पन्न करे उसका मान v मीटर प्रति सेकंड हो तो बल का मान न्यूटन होगा। इसी समय में पिंड जो दूरी तै करे वह यदि d मीटर हो तो बल द्वारा किया गया कार्य F.d जूल के बराबर होगा।

अर्थात m द्रव्यमानवालें पिंड का वेग यदि v हो तो उसकी ऊर्जा होगी। यह ऊर्जा उस पिंड में उसकी गति के कारण होती है और गतिज ऊर्जा कहलाती है। जब हम धनुष को झुकाकर तीर छोड़ते हैं तो धनुष की स्थितिज ऊर्जा तीर की गतिज ऊर्जा मे परिवर्तन हो जाती है।

स्थितिज ऊर्जा एवं गतिज ऊर्जा के पारस्परिक परिवर्तन का सबसे सुंदर उदाहरण सरल लोलक है। जब हम लोलक के गोलक को एक ओर खींचते हैं तो गोलक अपनी साधारण स्थिति से थोड़ा ऊँचा उठ जाता है और इसमें स्थितिज ऊर्जा आ जाती है। जब हम गोलक को छोड़ते हैं तो गोलक इधर उधर झूलने लगता है। जब गोलक लटकने की साधारण स्थिति में आता है तो इसमें केवल गतिज ऊर्जा रहती है। संवेग के कारण गोलक दूसरी ओर चला जाता है और गतिज ऊर्जा पुन: स्थितिज ऊर्जा में परिवर्तित हो जाती है। साधारणत: वायु के घर्षण के विरुद्ध कार्य करने से गोलक की ऊर्जा कम होती जाती है और इसकी गति कुछ देर में बंद हो जाती है। यदि घर्षण का बल न हो तो लोलक अनंत काल तक चलता रहेगा।

उष्मीय ऊर्जा[संपादित करें]

मानव शरीर में ऊर्जा की आवश्यकता क्यों होती है - maanav shareer mein oorja kee aavashyakata kyon hotee hai

आग, रासायनिक उर्जा को उष्मीय उर्जा में बदल देती है।

गति विज्ञान में ऊर्जा-अविनाशिता-सिद्धांत के प्रमाणित हो जाने के बाद भी इसके दूसरे स्वरूपों का ज्ञान न होने के कारण यह समझा जाता था कि कई स्थितियों में ऊर्जा नष्ट भी हो सकती है; जैसे, जब किसी पिंडसमुदाय के विभिन्न भागों में अपेक्षिक गति हो तो घर्षण के कारण स्थितिज और गतिज ऊर्जा कम हो जाती है। वस्तुत: ऐसी स्थितियों में ऊर्जा नष्ट नहीं होती वरन् उष्मा ऊर्जा में परिवर्तन हो जाती है। परंतु 18वीं शताब्दी तक उष्मा को ऊर्जा का ही एक स्वतंत्र स्वरूप नहीं समझा जाता था। उस समय तक यह धारणा थी कि उष्मा एक द्रव्य है। 19वीं शताब्दी में प्रयोगों द्वारा यह निर्विवाद रूप से सिद्ध कर दिया गया कि उष्मा भी ऊर्जा का ही एक दूसरा रूप है।

मानव शरीर में ऊर्जा की आवश्यकता क्यों होती है - maanav shareer mein oorja kee aavashyakata kyon hotee hai

वाष्प इंजन, उष्मीय उर्जा को यांत्रिक उर्जा में बदलता है

यों तो प्रागैतिहासिक काल में भी मनुष्य लकड़ियों को रगड़कर अग्नि उत्पन्न करता था, परंतु ऊर्जा एवं उष्मा के घनिष्ठ संबंध की ओर सबसे पहले बेंजामिन टामसन (काउंट रुमफर्ड) का ध्यान गया। यह संयुक्त राज्य (अमरीका) के मैसाचूसेट्स प्रदेश का रहनेवाला था। परंतु उस समय यह बवेरिया के राजा का युद्धमंत्री था। ढली हुई पीतल की तोप की नलियों को छेदते समय इसने देखा कि नली बहुत गर्म हो जाती है तथा उससे निकले बुरादे और भी गरम हो जाते हैं। एक प्रयोग में तोप की नाल के चारों ओर काठ की नाँद में पानी भरकर उसने देखा कि खरादने से जो उष्मा उत्पन्न होती है उससे ढाई घंटे में सारा पानी उबलने के ताप तक पहुँच गया। इस प्रयोग में उसका वास्तविक ध्येय यह सिद्ध करना था कि उष्मा कोई द्रव नहीं है जो पिंडों में होती है और दाब के कारण वैसे ही बाहर निकल आती है जैसे निचोड़ने से कपड़े में से पानी; क्योंकि यदि ऐसा होता तो किसी पिंड में यह द्रव एक सीमित मात्रा में ही होता, परंतु छेदनेवाले प्रयोग से ज्ञात होता है कि जितना ही अधिक कार्य किया जाए उतनी ही अधिक उष्मा उत्पन्न होगी। रुमफर्ड ने यह प्रयोग सन् 1798 ई. में किया। इसके 20 वर्ष पहले ही लाव्वाजिए तथा लाग्राँज़ ने यह देखा था कि जानवरों में भोजन से उतनी ही उष्मा उत्पन्न होती है जितनी रासायनिक क्रिया द्वारा उस भोजन से प्राप्त हो सकती है।

सन् 1819 में फ्रांसीसी वैज्ञानिक ड्यूलों ने देखा कि किसी गैस के संपीडन से उसमें उष्मा उसी अनुपात में उत्पन्न होती है जितना संपीडन में कार्य किया जाता है। सन् 1842 ई. में इसी भावना का उपयोग जूलियस राबर्ट मायर ने, जो उस समय केवल 28 वर्ष का था और जर्मनी के हाइलब्रॉन नगर में डॉक्टर था, इस बात की गणना के लिए किया कि एक कलरी उष्मा उत्पन्न करने के लिए कितना कार्य आवश्यक है। हम जानते हैं कि प्रत्येक गैस की दो विशिष्ट उष्माएँ होती है : एक नियत आयतन पर तथा दूसरी नियत दाब पर। पहली अवस्था में गैस कोई कार्य नहीं करती। दूसरी अवस्था में गैस को बाह्य दबाव के विरुद्ध कार्य करना पड़ता है और दोनों विशिष्ट उष्माओं में जो अंतर होता है वह इसी कार्य के समतुल्य होता है। इस तरह मायर को उष्मा के यांत्रिक तुल्यांक का जो मान प्राप्त हुआ वह लगभग उतना ही था जितना काउंट रुमफ़ोर्ड को प्राप्त हुआ था।

मानव शरीर में ऊर्जा की आवश्यकता क्यों होती है - maanav shareer mein oorja kee aavashyakata kyon hotee hai

सायकिल का डायनेमो, यांत्रिक उर्जा को विद्युत उर्जा में बदल देता है

इसी समय इंग्लैंड में जेम्स प्रेसकाट जूल भी उष्मा का यांत्रिक तुल्यांक निकालने में लगा हुआ था। इसके प्रयोग सन् 1842 ई. से सन् 1852 ई. तक चलते रहे। अपने प्रयोग में इसने एक ताँबे के उष्मामापी में पानी लिया और उसे एक मथनी से मथा। मथनी को दो घिरनियों पर से लटके हुए दो भारों पर चलाया जाता था। जिस डोर से ये भार लटके हुए थे वह इस मथनी के सिरे में लपेटी हुई थी और जब ये भार नीचे की ओर गिरते थे तो मथनी घूमती थी। जब ये भार नीचे गिरते थे तो इनकी स्थितिज ऊर्जा कम हो जाती थी। इस कमी का कुछ भाग भारों की गतिज ऊर्जा में परिणत होता था और कुछ भाग मथनी को घुमाने में व्यय होता था। इस तरह यह ज्ञात किया जा सकता था कि मथनी को घुमने में कितना कार्य किया जा रहा था। उष्मामापी के पानी के ताप में जितनी वृद्धि हुई उससे यह ज्ञात हो सकता था कि कितनी उष्मा उत्पन्न हुई; और तब उष्मा का यांत्रिक तुल्यांक ज्ञात किया जा सकता था। जूल ने ये प्रयोग पानी तथा पारा दोनों के साथ किए।

सन् 1847 ई. में हरमान फान हेल्महोल्ट्स ने एक पुस्तक लिखी जिसमें उष्मा, चुंबक, बिजली, भौतिक रसायन आदि विभिन्न क्षेत्रों के उदाहरणों द्वारा उष्मा-अविनाशिता-सिद्धांत का प्रतिपादन किया गया था। जूल ने प्रयोग द्वारा वैद्युत ऊर्जा तथा उष्मा-ऊर्जा की समानता सिद्ध की।

विद्युत ऊर्जा[संपादित करें]

देखें - विद्युत ऊर्जा

उर्जा की अविनाशिता तथा उर्जा का परिवर्तन[संपादित करें]

मानव शरीर में ऊर्जा की आवश्यकता क्यों होती है - maanav shareer mein oorja kee aavashyakata kyon hotee hai

उर्जा का संरक्षण का प्रदर्शन (न्यूटन का क्रेडिल)
स्थितिज उर्जा --> गतिज उर्जा --> विकृति उर्जा --> गतिज उर्जा का चक्र

आइनसटाइन

द्रव्यमान तथा ऊर्जा की समतुल्यता[संपादित करें]

सन् 1905 ई. में आइन्स्टाइन ने अपना आपेक्षिक सिद्धांत प्रतिपादित किया जिसके अनुसार कणों का द्रव्यमान उनकी गतिज ऊर्जा पर निर्भर रहता है।

इसका यह अर्थ है कि ऊर्जा का मान द्रव्यमान वृद्धि को प्रकाश के वेग के वर्ग से गुणा करने पर प्राप्त होता है। इस सिद्धांत की पुष्टि नाभिकीय विज्ञान के बहुत से प्रयोगों द्वारा होती है। सूर्य में भी ऊर्जा इसी तरह बनती है। सूर्य में एक श्रृंखल क्रिया होती है जिसका फल यह होता है कि हाइड्रोजन के चार नाभिकों के संयोग से हीलियम का नाभिक बन जाता है। हाइड्रोजन के चारों नाभिकों के द्रव्यमान का योगफल हीलियम के नाभिक से कुछ अधिक होता है। यह अंतर ऊर्जा में परिवर्तित हो जाता है। परमाणु बम एवं हाइड्रोजन बम में भी इसी द्रव्यमान-ऊर्जा-समतुल्यता का उपयोग होता है।

ऊर्जा का क्वांटमीकरण (Quantization of energy)[संपादित करें]

वर्णक्रम के विभिन्न वर्णों के अनुसार कृष्ण पिंड के विकिरण के वितरण का ठीक सूत्र क्या है, इसका अध्ययन करते हुए प्लांक इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि विकिरण का आदान प्रदान अनियमित मात्रा में नहीं होता प्रत्युत ऊर्जा के छोटे कणों द्वारा होता है। इन कणों को रहता है। आवृत्तिसंख्या को जिस नियतांक से गुणा करने पर ऊर्जाक्वांटम का मान प्राप्त होता है उसे प्लांक नियतांक कहते हैं।

नील्स बोर ने सन् 1913 ई. में यह दिखलाया कि यह क्वांटम सिद्धांत अत्यन्त व्यापक है और परमाणुओं में इलेक्ट्रान जिन कक्षाओं में घूमते हैं। वे कक्षाएँ भी क्वांटम सिद्धांत के अनुसार ही निश्चित होती हैं। जब इलेक्ट्रान अधिक ऊर्जावाली कक्षा से कम ऊर्जावाली कक्षा में जाता है तो इन दो ऊर्जाओं का अंतर प्रकाश के रूप में बाहर आता है। हाइज़ेनबर्ग, श्रोडिंगर तथा डिराक ने इस क्वांटम सिद्धांत को और भी विस्तृत किया है।

उर्जा के स्रोत[संपादित करें]

आधुनिक भौतिक विज्ञान में प्रत्येक कार्य के लिए ऊर्जा को आवश्यक बताया गया है। ऊर्जा संरक्षण सिद्धांत के अनुसार ऊर्जा को न तो जना जा सकता है और ना तो नष्ट किया जा सकता केवल इसका स्वरूप बदला जा सकता है। हम अपने दैनिक जीवन में प्रयोग करने हेतु ऊर्जा के इस्तेमाल कई रूपों में करते हैं, यथा - यांत्रिक ऊर्जा, विद्युत ऊर्जा, ऊष्मीय ऊर्जा, प्रकाश ऊर्जा, रसायनिक ऊर्जा इत्यादि। मोटर में विद्युत ऊर्जा को यांत्रिक ऊर्जा में बदल कर काम लिया जाता है तो बैटरी में रसायनिक ऊर्जा को विद्युत ऊर्जा में। मानव शरीर खाद्य पदार्थों की रासायनिक ऊर्जा को पचा कर उससे यांत्रिक कार्य करता है। इसी प्रकार एक विद्युत बल्ब विद्युत ऊर्जा को प्रकाय़ तथा ऊष्मीय ऊर्जा में बदल देता है। कार या बस का ईंजन पेट्रोल की रासायनिक ऊर्जा को पहले ऊष्मीय ऊर्जा में बदलता है तथा उसे फिर यांत्रिक ऊर्जा में। इन सभी कार्यों के लिए प्रयुक्त ऊर्जा इन स्रोतों से प्राप्त होती है -

  • कोयला
  • पेट्रोलियम
  • प्राकृतिक गैस
  • पवन ऊर्जा
  • सौर ऊर्जा
  • ज्वारीय ऊर्जा
  • नदी घाटी परियोजनाएं

उर्जा एवं औद्योगिक क्रांति[संपादित करें]

उर्जा की अवधारणा (कांसेप्ट) उन्नीसवीं शताब्दी में आयी। यह मानव द्वारा आविष्कृत एक अत्यन्त महत्वपूर्ण एवं मौलिक अवधारणा है। यह विभिन्न प्रकार की घटनाओं में होने वाली अन्तर्क्रियाओं (इन्टरैक्शन्स्) को संख्यात्मक रूप में व्यक्त करने में बहुत उपयोगी है। इसे एक तरह से विभिन्न भौतिक फेनामेना के बीच होने वाली अन्तःक्रियाओं के लिये सर्वनिष्ट (कॉमन) मुद्रा की तरह समझा जा सकता है।

उर्जा की अवधारणा से ही परिवर्तन (ट्रान्स्फार्मेशन) (जैसे रसायन एवं धातुकर्म में) एवं ट्रान्समिशन से सम्बन्धित है जो कि औद्योगिक क्रांति के आधार हैं। जब तक केवल मानवी या पाशविक उर्जा से ही काम होता था, तब तक उर्जा सीमित थी; उसे स्वचालित एवं नियंत्रित करना कठिन कार्य था। किन्तु वाष्प आदि से चलने वाली मशीनों के आविष्कार से यह स्थिति बदल गयी जिससे औद्योगिक क्रान्ति का सूत्रपात हुआ।

आधुनिक काल में किसी देश द्वारा खपत की जाने वाली उर्जा उसके विकास की प्रमुख माप है।

उर्जा से सम्बन्धित प्रमुख सूत्र[संपादित करें]

  • स्थानान्तरण की गतिज ऊर्जा
.
  • घूर्णन की गतिज ऊर्जा
जहाँ घूर्णन-अक्ष के परितः जड़त्वाघूर्ण है, तथा कोणीय आवृत्ति है।
  • तने हुए स्प्रिंग की गतिज उर्जा
जहाँ k स्प्रिंग का बल नियतांक है तथा x स्प्रिंग का सामायावस्था की तुलना में कुल तनाव है।
  • आवेशित संधारित्र की उर्जा
जहाँ Q संधारित्र की प्लेटों पर एकत्र आवेश है; तथा C संधारित्र की धारिता है; U संधारित्र की प्लेटों के बीच विभवान्तर है।
  • धारावाही प्रेरक में संचित ऊर्जा


जहाँ प्रेरकत्व है तथा उसमें प्रवाहित धारा।
  • द्रव्यमान एवं उर्जा की समतुल्यता -

द्रव्यमान एवं वेग के मुक्त कण की सापेक्षिक (रिलेटिविस्टिक) उर्जा:

जहाँ प्रकाश का वेग है।
  • फोटॉनों या प्रकाश क्वान्टा की उर्जा
जहाँ h प्लांक नियतांक है; तथा फोटॉन की आवृत्ति है।
  • भूकम्प की उर्जा
टन टीएनटी के समतुल्यजहाँ M भूकम्प की तीव्रता (रिचर पैमाने पर) है।
  • कार्य या उर्जा में परिवर्तन, बल का दूरी के साथ इन्टीग्रल के बराबर होता है।

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. Kittel, Charles; Kroemer, Herbert (1980-01-15). Thermal Physics (अंग्रेज़ी में). Macmillan. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9780716710882. मूल से 19 जनवरी 2017 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 1 जनवरी 2017.

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

  • शक्ति
  • अक्षय उर्जा
  • अक्षय विकास
  • नवीकरणीय ऊर्जा
  • ऊर्जा भण्डारण
  • ऊर्जा का रूपान्तरण
  • ऊर्जा स्वतंत्रता ( इनर्जी इन्डिपेन्डेन्स)
  • ऊर्जा के परिमाण की कोटि

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]

  • ऊर्जा : ऊर्जा के स्रोत, गुण, महत्वपूर्ण प्रशन
  • ऊर्जा की परिभाषा और प्रकार
  • ऊर्जा क्रांति की दहलीज पर खड़ा है भारत
  • ऊर्जा के स्रोत
  • ऊर्जा स्वतंत्रता का उपाय (डॉ. भरत झुनझुनवाला)
  • दिव्य उर्जा (उर्जा जागरूकता का अभिनव प्रयास)
  • Sardar Patel Renewable Energy Research Institute (SPRERI)
  • टाटा उर्जा संसाधन संस्थान (TERI)
  • India Energy Portal
  • Conservation of Energy
  • Energy and Life
  • What does energy really mean? From Physics World
  • Work, Power, Kinetic Energy

मानव शरीर को ऊर्जा की आवश्यकता क्यों होती है?

भोजन से आपूर्ति की जाने वाली ऊर्जा का उपयोग शरीर के आवश्यक कार्यों जैसे श्वसन, जल नियमन, हृदय की धड़कन, शरीर के तापमान को बनाए रखने आदि को बनाए रखने के लिए किया जाता है। ये कार्य इस अर्थ में आवश्यक हैं कि जीव का अस्तित्व उन पर निर्भर करता है और इनके बिना , यह मर सकता है।

मनुष्य के शरीर में कौन सी ऊर्जा होती है?

Solution : मनुष्य के शरीर में मांसपेशियों में ऊर्जा इकट्ठी होती है। वह ऊर्जा को प्राप्त करने के लिए भोजन करता है। रासायनिक क्रियाओ द्वारा भोजन पचता है तो ऊष्मा ऊर्जा मुक्त होती है। रासायनिक ऊर्जा ऊष्मीय ऊर्जा में अपरिवर्तित होती है।

शरीर की ऊर्जा क्या है?

ऊर्जा शरीर में निहित एक शक्ति है जो शरीर में अपनी विभिन्न प्रकार की क्रियाओं के लिये प्रयोग की जाती है। यह शक्ति शरीर भोज्य पदार्थों से प्राप्त करता है। भोजन में उपस्थित प्रोटीन, कार्बोज तथा वसा पाचन क्रिया, अवशोषण तथा चयापचय क्रिया के बाद शरीर को ऊर्जा प्रदान करते हैं।

हमारे शरीर को ऊर्जा कैसे प्राप्त होती है?

पहला स्रोत भोजन होता है। भोजन का सेवन पर्याप्त मात्रा में होने से आपके शरीर में ऊर्जा उत्पन्न होती है। ऊर्जा का दूसरा स्रोत पर्याप्त मात्रा में नींद लेना है। पर्याप्त नींद से शरीर के अवयवों को प्राकृतिक विश्राम मिल जाता है ।