प्रश्न 4: परशुराम ने अपने विषय में सभा में क्या-क्या कहा, निम्न पद्यांश के आधार पर लिखिए: Show उत्तर:मैं बाल ब्रह्मचारी हूँ और सारा संसार मुझे क्षत्रिय कुल के विनाशक के रूप में जानता है। मैंने अपने भुजबल से इस पृथ्वी को कई बार क्षत्रियों से विहीन कर दिया था और मुझे भगवान शिव का वरदान प्राप्त है। मैंने सहस्रबाहु को बुरी तरह से मारा था। मेरे फरसे को गौर से देख लो। तुम तो अपने व्यवहार से उस गति को पहुँच जाओगे जिससे तुम्हारे माता पिता को असहनीय पीड़ा होगी। मेरे फरसे की गर्जना सुनकर ही गर्भवती स्त्रियों का गर्भपात हो जाता है। प्रश्न 5: लक्ष्मण ने वीर योद्धा की क्या-क्या विशेषताएँ बताई? उत्तर: लक्ष्मण के अनुसार वीरों की विशेषताएँ हैं; धैर्य, मृदुभाषी, कर्मवीर और युद्ध के मैदान में चुपचाप अपना काम करने वाले। प्रश्न 6: साहस और शक्ति के साथ विनम्रता हो तो बेहतर है। इस कथन पर अपने विचार लिखिए। उत्तर: यह सही कहा गया है कि साहस और शक्ति के साथ विनम्रता हो तो बेहतर है। एक विनम्र व्यक्ति ही संकट के समय में भी अपना आपा नहीं खोता है। जो विनम्र नहीं होते हैं वे मानसिक रूप से शीघ्र विचलित हो जाने के कारण अपना धैर्य खो बैठते हैं और गलतियाँ करने लगते हैं। इससे उनका नुकसान ही होता है। प्रश्न 7: भाव स्पष्ट कीजिए;
श्री रामचरितमानस बालकाण्डShriram Lakshman Aur Parshuram Samwad श्रीराम लक्ष्मण और परशुराम संवादShriram Lakshman Aur Parshuram Samwad, श्रीराम लक्ष्मण और परशुराम संवाद :- हे नाथ ! शिवजी के धनुष को तोड़ने वाला आपका कोई एक दास ही होगा। क्या आज्ञा है, मुझसे क्यों नहीं कहते ? यह सुनकर क्रोधी मुनि रिसाकर बोले। हे गोसाईं ! लड़कपन में हमने बहुत-सी धनुहियाँ तोड़ डालीं। किन्तु आपने ऐसा क्रोध कभी नहीं किया। इसी धनुष पर इतनी ममता किस कारण से है ? यह सुनकर भृगुवंश की ध्वजा स्वरुप परशुरामजी कुपित होकर बोले। अरे राजा के बालक ! तू अपने माता-पिता को सोच के वश न कर। मेरा फरसा बड़ा भयानक है, यह गर्भों के बच्चों का नाश करने वाला है।
अर्थात् :- जिस कारण सब राजा आये थे, राजा जनकजी ने सब समाचार कह सुनाये। जनकजी के वचन सुनकर परशुरामजी ने फिरकर दूसरी ओर देखा तो धनुष के टुकड़े पृथ्वी पर पड़े हुए दिखायी दिये। अति रिस बोले बचन कठोरा। कहु जड़ जनक धनुष कै तोरा ।। अर्थात् :- अत्यन्त क्रोध में भरकर वे कठोर वचन बोले – रे मुर्ख जनक ! बता, धनुष किसने तोड़ा ? उसे शीघ्र दिखा, नहीं तो अरे मूढ़ ! आज मैं जहाँ तक तेरा राज्य है, वहाँ तक की पृथ्वी उलट दूँगा। अति
डरु उतरु देत नृपु नाहीं। कुटिल भूप हरषे मन माहीं ।। अर्थात् :- राजा को अत्यन्त डर लगा, जिसके कारण वे उत्तर नहीं देते। यह देखकर कुटिल राजा मन में बड़े प्रसन्न हुए। देवता, मुनि, नाग और नगर के स्त्री-पुरुष सभी सोच करने लगे, सबके हृदय में बड़ा भय है। मन पछिताति सीय महतारी। बिधि अब सँवरी बात बिगारी ।। अर्थात् :- सीताजी की माता मन में पछता रही हैं कि हाय ! विधाता ने अब बनी-बनायी बात बिगाड़ दी। परशुरामजी का स्वभाव सुनकर सीताजी को आधा क्षण भी कल्प के समान बीतने लगा। दो० — सभय बिलोके लोग सब जानि जानकी भीरु । अर्थात् :- श्रीरामचन्द्रजी सब लोगों को भयभीत देखकर और सीताजी को डरी हुई जानकर बोले — उनके हृदय में न कुछ हर्ष था, न विषाद। — मासपारायण, नवाँ विश्राम नाथ
संभुधनु भंजनिहारा। होइहि केउ एक दास तुम्हारा ।। अर्थात् :- हे नाथ ! शिवजी के धनुष को तोड़ने वाला आपका कोई एक दास ही होगा। क्या आज्ञा है, मुझसे क्यों नहीं कहते ? यह सुनकर क्रोधी मुनि रिसाकर बोले। – सेवकु सो जो करै सेवकाई। अरि करनी करि करिअ लराई ।। अर्थात् :- सेवक वह है जो सेवा का काम करे। शत्रु का काम करके तो लड़ाई ही करनी चाहिये। हे राम ! सुनो, जिसने शिवजी के धनुष को तोड़ा है, वह सहस्त्रबाहु के समान मेरा शत्रु है। सो बिलगाउ बिहाइ समाजा। न त मारे जैहहिं सब राजा ।। अर्थात् :- वह इस समाज को छोड़कर अलग हो जाय, नहीं तो सभी राजा मारे जायेंगे। मुनि के वचन सुनकर लक्ष्मणजी मुसकराये और परशुरामजी का अपमान करते हुए बोले । — बहु धनहीं तोरीं लरिकाईं। कबहुँ न असि रिस कीन्हि गोसाईं
।। अर्थात् :- हे गोसाईं ! लड़कपन में हमने बहुत-सी धनुहियाँ तोड़ डालीं। किन्तु आपने ऐसा क्रोध कभी नहीं किया। इसी धनुष पर इतनी ममता किस कारण से है ? यह सुनकर भृगुवंश की ध्वजा स्वरुप परशुरामजी कुपित होकर बोले। — दो० — रे नृप बालक काल बस बोलत तोहि न सँभार । अर्थात् :- अरे राजपुत्र ! काल के वश होने से तुझे बोलने में कुछ भी होश नहीं है। सारे संसार में विख्यात शिवजी का यह धनुष क्या धनुही के समान है ? लखन कहा हँसि हमरें जाना। सुनहु देव सब धनुष समाना ।। अर्थात् :- लक्ष्मणजी ने हँसकर कहा – हे देव ! सुनिये, हमारे जान में तो सभी धनुष एक-से ही हैं। पुराने धनुष के तोड़ने में क्या हानि-लाभ ! श्रीरामचन्द्रजी ने तो इसे नवीन के धोखे से देखा था। छुअत टूट रघुपति न दोसू। मुनि बिनु काज करिअ
कत रोसू ।। अर्थात् :- फिर यह तो छूते ही टूट गया, इसमें रघुनाथजी का भी कोई दोष नहीं है। मुनि ! आप बिना ही कारण किसलिये क्रोध करते हैं ? परशुरामजी अपने फरसे की ओर देखकर बोले – अरे दुष्ट ! तूने मेरा स्वभाव नहीं सुना। बालकु बोलि बधउँ नहिं तोही। केवल मुनि जड़ जानहि मोही ।। अर्थात् :- मैं तुझे बालक जानकर नहीं मारता हूँ। अरे मुर्ख ! क्या तू मुझे निरा मुनि ही जानता है ? मैं बालब्रह्मचारी और अत्यन्त क्रोधी हूँ। क्षत्रियकुल का शत्रु तो विश्वभर में विख्यात हूँ। भुजबल भूमि भूप बिनु कीन्ही। बिपुल बार महिदेवन्ह दीन्ही ।। अर्थात् :- अपनी भुजाओं के बल से मैंने पृथ्वी को राजाओं से रहित कर दिया और बहुत बार उसे ब्राह्मणों को दे डाला। हे राजकुमार ! सहस्त्रबाहु की भुजाओं को काटने वाले मेरे इस फरसे को देख ! दो० — मातु पितहि जनि सोचबस करसि महीसकिसोर । अर्थात् :- अरे राजा के बालक ! तू अपने माता-पिता को सोच के वश न कर। मेरा फरसा बड़ा भयानक है, यह गर्भों के बच्चों का नाश करने वाला है। बिहसि लखनु बोले मृदु बानी। अहो मुनीसु महा भटमानी ।। अर्थात् :- लक्ष्मणजी हँसकर कोमल वाणी से बोले – अहो, मुनीश्वर तो अपने को बड़ा भारी योद्धा समझते हैं। बार-बार मुझे कुल्हाड़ी दिखाते हैं। फूँक से पहाड़ उड़ाना चाहते हैं। इहाँ कुम्हड़बतिया कोउ नाहीं। जे तरजनी देखि मरि जाहीं ।। अर्थात् :- यहाँ कोई कुम्हड़े की बतिया ( छोटा कच्चा फल ) नहीं है, जो तर्जनी ( सबसे आगे की ) उँगली को देखते ही मर जाती है। कुठार और धनुष-बाण देखकर ही मैंने कुछ अभिमान सहित कहा था। भृगुसुत समुझि जनेउ बिलोकी। जो
कछु कहहु सहउँ रिस रोकी ।। अर्थात् :- भृगुवंशी समझकर और यज्ञोपवीत देखकर तो जो कुछ आप कहते हैं, उसे मैं क्रोध को रोककर सह लेता हूँ। देवता, ब्राह्मण, भगवान् के भक्त और गौ – इन पर हमारे कुल में वीरता नहीं दिखायी जाती। बधें पापु अपकीरति हारें। मारतहूँ पा परिअ तुम्हारें ।। अर्थात् :- क्योंकि इन्हें मारने से पाप लगता है और इनसे हार जानेपर अपकीर्ति होती है। इसलिये आप मारें तो भी आपके पैर ही पड़ना चाहिये। आपका एक-एक वचन ही करोड़ों वज्रों के समान है। धनुष-बाण और कुठार तो आप व्यर्थ ही धारण करते हैं। दो० — जो बिलोकि अनुचित कहेउँ छमहु महामुनि धीर । अर्थात् :- इन्हें ( धनुष-बाण और कुठार की ) देखकर मैंने कुछ अनुचित कहा हो, तो उसे हे धीर महामुनि ! क्षमा कीजिये। यह सुनकर भृगुवंशमणि परशुरामजी क्रोध के साथ गम्भीर वाणी बोले। — कौसिक सुनहु मंद यहु बालकु। कुटिल कालबस निज कुल घालकु ।। अर्थात् :- हे विश्वामित्र ! सुनो, यह बालक बड़ा कुबुद्धि और कुटिल है, काल के वश होकर यह अपने कुल का घातक बन रहा है। यह सूर्यवंशरुपी पूर्णचन्द्र का कलङ्क है। यह बिलकुल उद्दण्ड, मुर्ख और निडर है। काल कवलु होइहि छन माहीं। कहउँ पुकारि खोरि मोहि नाहीं ।। अर्थात् :- अभी क्षणभर में यह काल का ग्रास हो जायगा। मैं पुकारकर कहे देता हूँ, फिर मुझे दोष नहीं है। यदि तुम इसे बचाना चाहते हो, तो हमारा प्रताप, बल और क्रोध बतलाकर इसे मना कर दो। लखन कहेउ मुनि सुजसु तुम्हारा। तुम्हहि अछत को बरनै पारा ।। अर्थात् :- लक्ष्मणजी ने कहा – हे मुनि ! आपका सुयश आपके रहते दूसरा कौन वर्णन कर सकता है ? आपने अपने ही मुँह से अपनी करनी अनेकों बार बहुत प्रकार से वर्णन की है। नहिं संतोषु त पुनि कछु कहहू। जनि रिस रोकि दुसह दुख सहहू ।। अर्थात् :- इतने पर भी सन्तोष न हुआ तो फिर कुछ कह डालिये। क्रोध रोककर असह्य दुःख मत सहिये। आप वीरता का व्रत धारण करने वाले, धैर्यवान् और क्षोभरहित हैं। गाली देते शोभा नहीं पाते। दो० — सूर समर करनी करहिं कहि न जनावहिं आपु । अर्थात् :- शूरवीर तो युद्ध में करनी ( शूरवीरता का कार्य ) करते हैं , कहकर अपने को नहीं जानते। शत्रु को युद्ध में उपस्थित पाकर कायर ही अपने प्रताप की डींग मारा करते हैं। तुम्ह तौ कालु हाँक जनु लावा। बार बार मोहि लागि बोलावा ।। अर्थात् :- आप तो मानो काल के हाँक लगाकर बार-बार उसे मेरे लिये बुलाते हैं। लक्ष्मणजी के कठोर वचन सुनते ही परशुरामजी ने अपने भयानक फरसे को सुधारकर हाथ में ले लिया। अब जनि देइ दोसु मोहि लोगू। कटुबादी बालकु बधजोगू ।। अर्थात् :- [ और बोले — ] अब लोग मुझे दोष न दें। यह कड़ुआ बोलने वाला बालक मारे जाने के ही योग्य है। इसे बालक देखकर मैंने बहुत बचाया, पर अब यह सचमुच मरने को ही आ गया है। कौसिक कहा छमिअ अपराधू। बाल दोष गुन गनहिं न साधू ।। अर्थात् :- विश्वामित्रजी ने कहा – अपराध क्षमा कीजिये। बालकों के दोष और गुण को साधु लोग नहीं गिनते। [ परशुरामजी बोले – ] तीखी धार का कुठार, मैं दयारहित और क्रोधी, और यह गुरुद्रोही और अपराधी मेरे सामने। उतर देत छोड़उँ बिनु मारें। केवल कौसिक सील तुम्हारें ।। अर्थात् :- उत्तर दे रहा है। इतने पर भी मैं इसे बिना मारे छोड़ रहा हूँ, सो हे विश्वामित्र ! केवल तुम्हारे शील ( प्रेम ) से। नहीं तो इसे इस कठोर कुठार से काटकर थोड़े ही परिश्रम से गुरु से उऋण हो जाता। दो० — गाधिसूनु कह हृदयँ हँसि मुनिहि हरिअरइ सूझ । अर्थात् :- विश्वामित्र जी ने हृदय में हँसकर कहा – मुनि को हरा-ही-हरा सूझ रहा है ( अर्थात् सर्वत्र विजयी होने के कारण ये श्रीराम-लक्ष्मण को भी साधारण क्षत्रिय ही समझ रहे हैं )। किन्तु यह लोहमयी ( केवल फौलाद की बनी हुई ) खाँड़ ( खाँड़ा-खड्ग ) है, ऊख की ( रस की ) खाँड़ नहीं है [ जो मुँह में लेते ही गल जाय। [ खेद है, ] मुनि अब भी बेसमझ बने हुए हैं ; इनके प्रभाव को नहीं समझ रहे हैं। कहेउ लखन मुनि सीलु तुम्हारा। को नहिं जान बिदित संसारा ।। अर्थात् :- लक्ष्मणजी ने कहा – हे मुनि ! आपके शील को कौन नहीं जानता ? वह संसार भर में प्रसिद्ध है। आप माता-पिता से तो अच्छी तरह उऋण हो ही गये, अब गुरु का ऋण रहा, जिसका जी में बड़ा सोच लगा है। सो जनु
हमरेहि माथे काढ़ा। दिन चलि गए ब्याज बड़ बाढ़ा ।। अर्थात् :- वह मानो हमारे ही मत्थे काढ़ा था। बहुत दिन बीत गये, इससे ब्याज भी बहुत बढ़ गया होगा। अब किसी हिसाब करने वाले को बुला लाइये, तो मैं तुरंत थैली खोलकर दे दूँ। सुनि कटु बचन कुठार सुधारा। हाय हाय सब सभा पुकारा ।। अर्थात् :- लक्ष्मणजी के कड़वे वचन सुनकर परशुरामजी ने कुठार सँभाला। सारी सभा हाय ! हाय ! करके पुकार उठी। [ लक्ष्मणजी ने कहा -] हे भृगुश्रेष्ठ ! आप मुझे फरसा दिखा रहे हैं ? पर हे राजाओं के शत्रु ! मैं ब्राह्मण समझकर बचा रहा हूँ ( तरह दे रहा हूँ)। मिले न कबहुँ सुभट रन गाढ़े। द्विज देवता घरहि के बाढ़े ।। अर्थात् :- आपको कभी रणधीर बलवान् वीर नहीं मिले। हे ब्राह्मण देवता ! आप घर ही में बड़े हैं। यह सुनकर ‘ अनुचित है , अनुचित है ‘ कहकर सब लोग पुकार उठे। तब श्रीरघुनाथजी ने इशारे से लक्ष्मण जी को रोक दिया। दो० — लखन उतर आहुति सरिस भृगुबर कोपु कृसानु । अर्थात् :- लक्ष्मणजी के उत्तर से, जो आहुति के समान थे, परशुरामजी के क्रोधरूपी अग्नि को बढ़ते हुए देखकर रघुकुल के सूर्य श्रीरामचन्द्रजी जल के समान ( शान्त करने वाले ) वचन बोले। — नाथ करहु बालक पर छोहू। सूध दूधमुख करिअ न कोहू ।। अर्थात् :- हे नाथ ! बालक पर कृपा कीजिये। इस सीधे और दुधमुँहे बच्चे पर क्रोध न कीजिये। यदि यह प्रभु का ( आपका ) कुछ भी प्रभाव जानता, तो क्या यह बेसमझ आपकी बराबरी करता ? जौं लरिका कछु अचगरि करहीं। गुर पितु मातु मोद मन भरहीं ।। अर्थात् :- बालक यदि कुछ चपलता भी करते हैं, तो गुरु, पिता और माता मन में आनन्द से भर जाते हैं। अतः इसे छोटा बच्चा और सेवक जानकर कृपा कीजिये। आप तो समदर्शी, सुशील, धीर और ज्ञानी मुनि हैं। राम बचन सुनि कछुक जुड़ाने। कहि कछु लखनु बहुरि मुसुकाने ।। अर्थात् :- श्रीरामचन्द्र जी के वचन सुनकर वे कुछ ठंडे पड़े। इतने में लक्ष्मणजी कुछ कहकर फिर मुसकुरा दिये। उनको हँसते देखकर परशुरामजी के नख से शिखातक ( सारे शरीर में ) क्रोध छा गया। उन्होंने कहा — हे राम ! तेरा भाई बड़ा पापी है। गौर सरीर
स्याम मन माहीं। कालकूटमुख पयमुख नाहीं ।। अर्थात् :- यह शरीर से गोरा, पर हृदय का बड़ा काला है। यह विषमुख है, दुधमुँहा नहीं। स्वभाव से ही टेढ़ा है, तेरा अनुसरण नहीं करता ( तेरे-जैसा शीलवान् नहीं है )। यह नीच मुझे काल के समान नहीं देखता। दो० — लखन कहेउ हँसि सुनहु मुनि क्रोधु पाप कर मूल । अर्थात् :- लक्ष्मणजी ने हँसकर कहा – हे मुनि ! सुनिये, क्रोध पाप का मूल है, जिसके वश में होकर मनुष्य अनुचित कर्म कर बैठते हैं और विश्वभर के प्रतिकूल चलते ( सबका अहित करते ) हैं। मैं तुम्हार अनुचर मुनिराया। परिहरि कोपु करिअ अब दाया ।। अर्थात् :- हे मुनिराज ! मैं आपका दास हूँ। अब क्रोध त्यागकर दया कीजिये। टूटा हुआ धनुष क्रोध करने से जुड़ नहीं जायगा। खड़े-खड़े पैर दुखने लगे होंगे, बैठ जाइये। जौं
अति प्रिय तौ करिअ उपाई। जोरिअ कोउ बड़ गुनी बोलाई ।। अर्थात् :- यदि धनुष अत्यन्त ही प्रिय हो, तो कोई उपाय किया जाय और किसी बड़े गुणी ( कारीगर ) को बुलाकर जुड़वा दिया जाय। लक्ष्मणजी के बोलने से जनकजी डर जाते हैं और कहते हैं – बस चुप रहिये, अनुचित बोलना अच्छा नहीं। थर थर काँपहिं पुर नर नारी। छोट कुमार खोट बड़ भारी ।। अर्थात् :- जनकपुर के स्त्री-पुरुष थर-थर काँप रहे हैं [ और मन-ही-मन कह रहे हैं कि ] छोटा कुमार बड़ा ही खोटा है। लक्ष्मणजी की निर्भय वाणी सुन-सुनकर परशुरामजी का शरीर क्रोध से जला जा रहा है और उनके बल की हानि हो रही है ( उनका बल घट रहा है)। बोले रामहि देइ निहोरा। बचउँ बिचारा बंधु लघु तोरा ।। अर्थात् :- तब श्रीरामचन्द्रजी पर एहसान जनाकर परशुरामजी बोले – तेरा छोटा भाई समझकर मैं इसे बचा रहा हूँ। यह मन का मैला और शरीर का कैसा सुन्दर है, जैसे विष के रस से भरा हुआ सोने का घड़ा। दो० — सुनि लछिमन बिहसे बहुरि नयन तरेरे राम । अर्थात् :- यह सुनकर लक्ष्मण जी फिर हँसे। तब श्रीरामचन्द्रजी ने तिरछी नजर से उनकी ओर देखा, जिससे लक्ष्मणजी सकुचाकर, विपरीत बोलना छोड़कर, गुरूजी के पास चले गये। अति बिनीत मृदु सीतल बानी। बोले रामु जोरि जुग पानी ।। अर्थात् :- श्रीरामचन्द्रजी दोनों हाथ जोड़कर अत्यन्त विनय के साथ कोमल और शीतल वाणी बोले — हे नाथ ! सुनिये , आप तो स्वभाव से ही सुजान हैं। आप बालक के वचन पर कान न कीजिये ( उसे सुना-अनसुना कर दीजिये )। बररै बालकु एकु सुभाऊ। इन्हहि न संत विदूषहिं काऊ ।। अर्थात् :- बर्रै और बालक का एक स्वभाव है। संतजन इन्हें कभी दोष नहीं लगाते। फिर उसने ( लक्ष्मण ने ) तो कुछ काम भी नहीं बिगाड़ा है, हे नाथ ! आपका अपराधी तो मैं हूँ। कृपा कोपु बधु बँधव गोसाईं। मो पर करिअ दास की नाईं ।। अर्थात् :- अतः हे स्वामी ! कृपा, क्रोध, वध और बन्धन, जो कुछ करना हो, दास की तरह ( अर्थात् दास समझकर ) मुझ पर कीजिये। जिस प्रकार से शीघ्र आपका क्रोध दूर हो, मुनिराज ! बताइये, मैं वही उपाय करूँ। कह मुनि राम जाइ रिस
कैसें। अजहुँ अनुज तव चितव अनैसें ।। अर्थात् :- मुनि ने कहा — हे राम ! क्रोध कैसे जाय ; अब भी तेरा छोटा भाई टेढ़ा ही ताक रहा है। इसकी गर्दन पर मैंने कुठार न चलाया, तो क्रोध करके किया ही क्या ? दो० — गर्भ स्त्रवहिं अवनिप रवनि सुनि कुठार गति घोर । अर्थात् :- मेरे जिस कुठार की घोर करनी सुनकर राजाओं की स्त्रियों के गर्भ गिर पड़ते हैं, उसी फरसे के रहते मैं इस शत्रु राजपुत्र को जीवित देख रहा हूँ। बहइ न हाथु दहइ रिस छाती। भा कुठारु कुंठित नृपघाती ।। अर्थात् :- हाथ चलता नहीं, क्रोध से छाती जली जाती है। [ हाय ! ] राजाओं का घातक यह कुठार भी कुण्ठित हो गया। विधाता विपरीत हो गया, इससे मेरा स्वभाव बदल गया, नहीं तो भला, मेरे हृदय में किसी समय भी कृपा कैसी ? आजु दया दुखु दुसह
सहावा। सुनि सौमित्रि बिहसि सिरु नावा ।। अर्थात् :- आज दया मुझे यह दुःसह दुःख सहा रही है। यह सुनकर लक्ष्मणजी ने मुसकराकर सिर नवाया [ और कहा – ] आपकी कृपारूपी वायु भी आपकी मूर्ति के अनुकूल ही है, वचन बोलते हैं, मानो फूल झड़ रहे हैं। जौं पै कृपाँ जरिहिं मुनि गाता। क्रोध भएँ तनु राख बिधाता ।। अर्थात् :- हे मुनि ! यदि कृपा करने से आपका शरीर जला जाता है, तो क्रोध होने पर तो शरीर की रक्षा तो विधाता ही करेंगे। [ परशुरामजी ने कहा – ] हे जनक ! देख, यह मुर्ख बालक हठ करके यमपुरी में घर ( निवास ) करना चाहता है। बेगि करहु किन आँखिन्ह ओटा। देखत छोट खोट नृपु ढोटा ।। अर्थात् :- इसको शीघ्र ही आँखों की ओट क्यों नहीं करते ? यह राजपुत्र देखने में छोटा है, पर है बड़ा खोटा। लक्ष्मणजी ने हँसकर मन-ही-मन कहा-आँख मूंद लेने पर कहीं कोई नहीं है। दो० — परसुरामु तब राम प्रति बोले उर अति क्रोधु । अर्थात् :- तब परशुरामजी हृदय में अत्यन्त क्रोध भरकर श्रीरामजी से बोले – अरे शठ ! तू शिवजी का धनुष तोड़कर उलटा हमीं को ज्ञान सिखाता है। बंधु कहइ कटु संमत तोरें। तू छल बिनय करसि कर जोरें ।। अर्थात् :- तेरा यह भाई तेरी ही सम्मति से कटु वचन बोलता है और तू छल से हाथ जोड़कर विनय करता है। या तो युद्ध में मेरा संतोष कर, नहीं तो राम कहलाना छोड़ दे। छलु तजि करहि समरू सिवद्रोही। बंधु सहित न त मारउँ तोही ।। अर्थात् :- अरे शिवद्रोही ! छल त्यागकर मुझसे युद्ध कर। नहीं तो भाई सहित तुझे मार डालूँगा। इस प्रकार परशुरामजी कुठार उठाए बक रहे हैं और श्रीरामचन्द्रजी सिर झुकाये मन-ही-मन मुसकुरा रहे हैं। गुनह
लखन कर हम पर रोषू। कतहुँ सुधाइहु ते बड़ दोषू ।। अर्थात् :- [ श्रीरामचन्द्रजी ने मन-ही-मन कहा– ] गुनाह ( दोष ) तो लक्ष्मण का और क्रोध मुझ पर करते हैं। कहीं-कहीं सीधे पन में भी बड़ा दोष होता है। टेढ़ा जानकर सब लोग किसी की भी वन्दना करते हैं ; टेढ़े चन्द्रमा को राहु भी नहीं ग्रसता। राम कहेउ रिस तजिअ मुनीसा। कर कुठारु आगें यह सीसा ।। अर्थात् :- श्रीरामचन्द्र ने [ प्रकट ] कहा – हे मुनीश्वर ! क्रोध छोड़िये। आपके हाथ में कुठार है और मेरा यह सिर आगे है। जिस प्रकार आपका क्रोध जाय, हे स्वामी ! वही कीजिये। मुझे अपना अनुचर ( दास ) जानिये। दो० — प्रभुहि सेवकहि समरु कस तजहु बिप्रबर रोसु । अर्थात् :- स्वामी और सेवक में युद्ध कैसा ? हे ब्राह्मण श्रेष्ठ ! क्रोध का त्याग कीजिये। आपका [ वीरों का-सा ] वेष देखकर ही बालक ने कुछ कह डाला था; वास्तव में उसका भी कोई दोष नहीं है। देखि कुठार बान धनु धारी। भै लरिकहि रिस बीरु बिचारी ।। अर्थात् :- आपको कुठार, बाण और धनुष धारण किये देखकर और वीर समझकर बालक को क्रोध आ गया। वह आपका नाम तो जानता था, पर उसने आपको पहचाना नहीं। अपने वंश ( रघुवंश ) के स्वभाव के अनुसार उसने उत्तर दिया। जौं तुम्ह औतेहु मुनि की नाईं। पद रज सिर सिसु धरत
गोसाईं ।। अर्थात् :- यदि आप मुनि की तरह आते, तो हे स्वामी ! बालक आपके चरणों की धूलि सिर पर रखता। अनजाने की भूल को क्षमा कर दीजिये। ब्राह्मणों के हृदय में बहुत अधिक दया होनी चाहिये। हमहि तुम्हहि सरबरि कसि नाथा। कहहु न कहाँ चरन कहँ माथा ।। अर्थात् :- हे नाथ ! हमारी और आपकी बराबरी कैसी ? कहिये न, कहाँ चरण और कहाँ मस्तक ! कहाँ मेरा राम मात्र छोटा-सा नाम और कहाँ आप परशुसहित बड़ा नाम। देव एक गुनु धनुष हमारें । नव गुन परम पुनीत तुम्हारें ।। अर्थात् :- हे देव ! हमारे तो एक ही गुण धनुष है और आपके परम पवित्र [ शम, दम, तप, शौच, क्षमा, सरलता, ज्ञान, विज्ञान और आस्तिकता – ये ] नौ गुण हैं। हम तो सब प्रकार से आपसे हारे हैं। हे विप्र ! हमारे अपराधों को क्षमा कीजिये। दो० — बार बार मुनि
बिप्रबर कहा राम सन राम। अर्थात् :- श्रीरामचन्द्रजी ने परशुरामजी को बार-बार ‘ मुनि ‘ और ‘ विप्रवर ‘ कहा। तब भृगुपति ( परशुरामजी ) कुपित होकर [ अथवा क्रोध हँसी हँसकर ] बोले – तू भी अपने भाई के समान टेढ़ा है। निपटहिं द्विज करि जानहि मोही। मैं जस बिप्र सुनावउँ तोही ।। अर्थात् :- तू मुझे निरा ब्राह्मण ही समझता है ? मैं जैसा विप्र हूँ, तुझे सुनाता हूँ। धनुष को स्त्रुवा, बाण को आहुति और मेरे क्रोध को अत्यन्त भयंकर अग्नि जान। समिधि सेन चतुरंग सुहाई। महा महीप भए पसु आई ।। अर्थात् :- चतुरंगिणी सेना सुन्दर समिधाएँ ( यज्ञ में जलायी जाने वाली लकड़ियाँ ) हैं। बड़े-बड़े राजा उसमें आकर बलि के पशु हुए हैं, जिनको मैंने इसी फरसे से काटकर बलि दिया है। ऐसे करोड़ों जपयुक्त रणयज्ञ मैंने किये हैं ( अर्थात् जैसे मन्त्रोच्चारण पूर्वक ‘ स्वाहा ‘ शब्द के साथ आहुति दी जाती है, उसी प्रकार मैंने पुकार-पुकारकर राजाओं की बलि दी है )। मोर प्रभाउ बिदित नहिं तोरें। बोलसि निदरि बिप्र के भोरें ।। अर्थात् :- मेरा प्रभाव तुझे मालूम नहीं है, इसी से तू ब्राह्मणों के धोखे मेरा निरादर करके बोल रहा है। धनुष तोड़ डाला, इससे तेरा घमंड बहुत बढ़ गया है। ऐसा अहंकार है, मानो संसार को जीतकर खड़ा है। राम कहा मुनि कहहु बिचारी। रिस अति बड़ि लघु चूक हमारी ।। अर्थात् :- श्रीरामचन्द्रजी ने कहा – हे मुनि ! विचारकर बोलिये। आपका क्रोध बहुत बड़ा है। और मेरी भूल बहुत छोटी है। पुराना धनुष था, छूते ही टूट गया। मैं किस कारण अभिमान करूँ ? दो० — जौं हम निदरहिं बिप्र बदि सत्य सुनहु भृगुनाथ । अर्थात् :- हे भृगुनाथ ! यदि हम सचमुच ब्राह्मण कहकर निरादर करते हैं, तो यह सत्य सुनिये, फिर संसार में ऐसा कौन योद्धा है जिसे हम डर के मारे मस्तक नवायें ? देव दनुज भूपति भट नाना। समबल अधिक होउ बलवाना ।। अर्थात् :- देवता, दैत्य, राजा या और बहुत से योद्धा, वे चाहे बल में हमारे बराबर हों चाहे अधिक बलवान् हों, यदि रण में हमें कोई भी ललकारे तो हम उससे सुखपूर्वक लड़ेंगे , चाहे काल ही क्यों न हो ? छत्रिय
तनु धरि समर सकाना। कुल कलंकु तेहिं पावँर आना ।। अर्थात् :- क्षत्रिय का शरीर धरकर जो युद्ध में डर गया, उस नीच ने अपने कुल पर कलङ्क लगा दिया। मैं स्वभाव से ही कहता हूँ, कुल की प्रशंसा करके नहीं, कि रघुवंशी रण में काल से भी नहीं डरते। बिप्रबंस कै असि प्रभुताई। अभय होइ जो तुम्हहि डेराई ।। अर्थात् :- ब्राह्मणवंश की ऐसी ही प्रभुता ( महिमा ) है कि जो आपसे डरता है, वह सबसे निर्भय हो जाता है [ अथवा जो भयरहित होता है वह भी आप से डरता है ]। श्रीरघुनाथजी के कोमल और रहस्यपूर्ण वचन सुनकर परशुरामजी की बुद्धि के परदे खुल गये। राम रमापति कर धनु लेहू। खैंचहु मिटै मोर संदेहू ।। अर्थात् :- [ परशुरामजी ने कहा – ] हे राम ! हे लक्ष्मीपति ! धनुष को हाथ में [ अथवा लक्ष्मीपति विष्णु का धनुष ] लीजिये और इसे खींचिये, जिससे मेरा सन्देह मिट जाय। परशुरामजी धनुष देने लगे, तब वह आप ही चला गया। तब परशुरामजी के मन में बड़ा आश्चर्य हुआ। दो० — जाना राम प्रभाउ तब पुलक प्रफुल्लित गात । अर्थात् :- तब उन्होंने श्रीरामजी का प्रभाव जाना, [ जिसके कारण ] उनका शरीर पुलकित और प्रफुल्लित हो गया। वे हाथ जोड़कर वचन बोले – प्रेम उनके हृदय में समाता न था। — जय रघुबंस बनज बन भानू।
गहन दनुज कुल दहन कृसानु ।। अर्थात् :- हे रघुकुल रूपी कमलवन के सूर्य ! हे राक्षसों कुलरूपी घने जंगल को जलाने वाले अग्नि ! आपकी जय हो ! हे देवता, ब्राह्मण और गौ का हित करने वाले ! आपकी जय हो। हे मद, मोह, क्रोध और भ्रम के हरने वाले ! आपकी जय हो। बिनय सील करुना गुन सागर। जयति बचन रचना अति नागर ।। अर्थात् :- हे विनय, शील, कृपा आदि गुणों के समुद्र और वचनों की रचना में अत्यन्त चतुर ! आपकी जय हो। हे सेवकों को सुख देने वाले, सब अङ्गों से सुन्दर और शरीर में करोड़ों कामदेवों की छबि धारण करने वाले ! आपकी जय हो। करौं काह मुख एक
प्रसंसा। जय महेस मन मानस हंसा ।। अर्थात् :- मैं एक मुख से आपकी क्या प्रशंसा करूँ ? हे महादेवजी के मनरूपी मानसरोवर के हंस ! आपकी जय हो। मैंने अनजान में आपको बहुत-से अनुचित वचन कहे। हे क्षमा के मन्दिर दोनों भाई ! मुझे क्षमा कीजिये। कहि जय जय जय रघुकुलकेतू। भृगुपति गए बनहि तप हेतू ।। अर्थात् :- हे रघुकुल के पताका स्वरुप श्रीरामचन्द्रजी ! आपकी जय हो, जय हो, जय हो। ऐसा कहकर परशुरामजी तप के लिये वन को चले गये। [ यह देखकर ] दुष्ट राजा लोग बिना ही कारण के ( मनःकल्पित ) डर से ( रामचन्द्रजी से तो परशुरामजी भी हार गये, हमने इनका अपमान किया था, अब कहीं ये उसका बदला न लें, इस व्यर्थ के डर से ) डर गये, वे कायर चुपके से जहाँ-तहाँ भाग गये। दो० — देवन्ह दीन्हीं दुंदुभीं प्रभु पर बरषहिं फूल । अर्थात् :- देवताओं ने नगाड़े बजाये, वे प्रभु के ऊपर फूल बरसाने लगे। जनकपुर के स्त्री-पुरुष सब हर्षित हो गये। उनका मोहमय ( अज्ञान से उत्पन्न ) शूल मिट गया। इसे भी पढ़ें :-
लक्ष्मण ने परशुराम पर क्या व्यंग्य किया है?लक्ष्मण ने परशुराम पर व्यंग्य किया कि आपके स्वभाव को कौन नहीं जानता अर्थात् सारा संसार जानता है। आप अपने माता-पिता के वध का कारण बनकर उनके ऋण से तो भलीभाँति मुक्त हो गए हैं। अब गुरु-ऋण रह गया है, जो हृदय को दुख दे रहा है।
लक्ष्मण ने परशुराम जी से क्या कहा?Solution. लक्ष्मण ने परशुराम से कहा कि अरे! मुनिश्रेष्ठ आप तो महान योद्धा हैं जो बार-बार अपने कुल्हाड़े को दिखाकर फेंक मारकर पहाड़ उड़ा देना चाहते हो। आपके सामने जो भी हैं उनमें से कोई भी कुम्हड़े की बतिया के जैसे कमज़ोर नहीं हैं।
लक्ष्मण ने धनुष के टूट जाने के लिए कौन कौन से तर्क दिए?परशुराम के क्रोध करने पर लक्ष्मण ने धनुष के टूट जाने के लिए कौन-कौन से तर्क दिए? धनुष पुराना तथा अत्यंत जीर्ण था। राम ने इसे नया समझकर हाथ लगाया था, पर कमजोर होने के कारण यह छूते ही टूट गया। मेरी (लक्ष्मण की) दृष्टि में सभी धनुष एक समान हैं।
परशुराम के क्रोध करने पर लक्ष्मण ने क्या कहा?Solution : परशुराम के क्रोध करने पर लक्ष्मण ने निम्नलिखित तर्क दिए <br> (क) बचपन में हमसे कितने ही धनुष टूटे, परन्त आपने उन पर कभी क्रोध नहीं किया। इस विशेष धनु पर पर आपकी क्या ममता है ? ... <br> (ख) हमारी नजर में तो सब धनुष एक-समान होते हैं। फिर इस धनुष पर इतना हो हल्ला क्यों?
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