पढ़िए जॉन एलिया के 10 बेहतरीन शेर...
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1/ 10 जॉन एलिया को गैर रिवायती शायर कहा जाता था. बिखरे हुए बाल और पतले से चेहरे का ये शख्स मंच पर आने के बाद सुनने वालों को अपने लफ़्ज़ों और कहने के अंदाज़ में ऐसा बांधता था कि शायरी ख़त्म हो जाती थी लेकिन सुनने वाले नहीं. पढ़िए जॉन एलिया के 10 बेहतरीन शेर... 2/ 10 आज बहुत दिन ब'अद मैं अपने कमरे तक आ निकला था, जूँ ही दरवाज़ा खोला है उस की ख़ुश्बू आई है- जॉन एलिया 3/ 10 अब जो रिश्तों में बँधा हूँ तो खुला है मुझ पर, कब परिंद उड़ नहीं पाते हैं परों के होते- जॉन एलिया 4/ 10 अब तो उस के बारे में तुम जो चाहो वो कह डालो, वो अंगड़ाई मेरे कमरे तक तो बड़ी रूहानी थी जॉन एलिया 5/ 10 बहुत नज़दीक आती जा रही हो, बिछड़ने का इरादा कर लिया क्या- जॉन एलिया 6/ 10 इलाज ये है कि मजबूर कर दिया जाऊँ, वरना यूँ तो किसी की नहीं सुनी मैं ने- जॉन एलिया 7/ 10 जो गुज़ारी न जा सकी हम से, हम ने वो ज़िंदगी गुज़ारी है- जॉन एलिया 8/ 10 कौन इस घर की देख-भाल करे, रोज़ इक चीज़ टूट जाती है- जॉन एलिया 9/ 10 कितनी दिलकश हो तुम कितना दिल-जू हूँ मैं, क्या सितम है कि हम लोग मर जाएँगे- जॉन एलिया 10/ 10 मैं भी बहुत अजीब हूँ इतना अजीब हूँ कि बस, ख़ुद को तबाह कर लिया और मलाल भी नहीं- जॉन एलिया First Published: October 26, 2018, 19:45 IST बे-दिली क्या यूँही दिन गुज़र जाएँगेबे-दिली क्या यूँही दिन गुज़र जाएँगे रक़्स है रंग पर रंग हम-रक़्स हैं ये ख़राबातियान-ए-ख़िरद-बाख़्ता कितनी दिलकश हो तुम कितना दिल-जू हूँ मैं है ग़नीमत कि असरार-ए-हस्ती से हम आदमी वक़्त पर गया होगाआदमी वक़्त पर गया होगा वो हमारी तरफ़ न देख के भी ख़ुद से मायूस हो के बैठा हूँ शाम तेरे दयार में आख़िर मरहम-ए-हिज्र था अजब इक्सीर एक ही मुज़्दा सुब्ह लाती हैएक ही मुज़्दा सुब्ह लाती है
रंग-ए-मौसम है और बाद-ए-सबा फ़र्श पर काग़ज़ उड़ते फिरते हैं सोचता हूँ कि उस की याद आख़िर मैं भी इज़्न-ए-नवा-गरी चाहूँ सो गए पेड़ जाग उठी ख़ुश्बू उस सरापा वफ़ा की फ़ुर्क़त में आप अपने से हम-सुख़न रहना क्या सितम है कि
अब तिरी सूरत कौन इस घर की देख-भाल करे तुम्हारा हिज्र मना लूँ अगर इजाज़त होतुम्हारा हिज्र मना लूँ अगर इजाज़त हो तुम्हारे बा'द भला क्या हैं वअदा-ओ-पैमाँ तुम्हारे हिज्र की शब-हा-ए-कार में जानाँ जुनूँ वही है वही मैं मगर है शहर नया किसे है ख़्वाहिश-ए-मरहम-गरी मगर फिर भी तुम्हारी याद में जीने की आरज़ू है अभी हर धड़कन हैजानी थी हर ख़ामोशी तूफ़ानी थीहर धड़कन हैजानी थी हर ख़ामोशी तूफ़ानी थी जिस दिन उस से बात हुई थी उस दिन भी बे-कैफ़ था मैं जब उस ने मुझ से ये कहा था इश्क़ रिफ़ाक़त ही तो नहीं जिस दिन वो मिलने आई है उस दिन की रूदाद ये है उलझन सी होने लगती थी मुझ को अक्सर और वो यूँ अब तो उस के बारे में तुम जो चाहो वो कह डालो नाम पे हम क़ुर्बान थे उस के लेकिन फिर ये तौर हुआ मुझ से बिछड़ कर भी वो लड़की कितनी ख़ुश ख़ुश रहती है इश्क़ की हालत कुछ भी नहीं थी बात बढ़ाने का फ़न था जिस को ख़ुद मैं ने भी अपनी रूह का इरफ़ाँ समझा था था दरबार-ए-कलाँ भी उस का नौबत-ख़ाना उस का था आप अपना ग़ुबार थे हम तोआप अपना ग़ुबार थे हम तो पर्दगी हम से क्यूँ रखा पर्दा वक़्त की धूप में तुम्हारे लिए उड़े जाते हैं धूल के मानिंद हम ने क्यूँ ख़ुद पे ए'तिबार किया शर्म है अपनी बार बारी की क्यूँ हमें कर दिया गया मजबूर तुम ने
कैसे भुला दिया हम को ख़ुश न आया हमें जिए जाना सह भी लेते हमारे ता'नों को ख़ुद को दौरान-ए-हाल में अपने तुम ने हम को भी कर दिया बरबाद हम को यारों ने याद भी न रखा सीना दहक रहा हो तो क्या चुप रहे कोईसीना दहक रहा हो तो क्या
चुप रहे कोई साबित हुआ सुकून-ए-दिल-ओ-जाँ कहीं नहीं तर्क-ए-तअल्लुक़ात कोई मसअला नहीं दीवार जानता था जिसे मैं वो धूल थी मैं ख़ुद ये चाहता हूँ कि हालात हूँ ख़राब ऐ शख़्स अब तो मुझ को सभी कुछ क़ुबूल है हाँ ठीक है
मैं अपनी अना का मरीज़ हूँ इक शख़्स कर रहा है अभी तक वफ़ा का ज़िक्र घर से हम घर तलक गए होंगेघर से हम घर तलक गए होंगे हम जो अब आदमी हैं पहले कभी वो भी अब हम से थक गया होगा शब जो हम से हुआ मुआ'फ़ करो कितने
ही लोग हिर्स-ए-शोहरत में शुक्र है इस निगाह-ए-कम का मियाँ हम तो अपनी तलाश में अक्सर उस का लश्कर जहाँ-तहाँ या'नी 'जौन' अल्लाह और ये आलम बड़ा एहसान हम फ़रमा रहे हैंबड़ा एहसान हम फ़रमा रहे हैं नहीं तर्क-ए-मोहब्बत पर वो राज़ी
यक़ीं का रास्ता तय करने वाले ये मत भूलो कि ये लम्हात हम को तअ'ज्जुब है कि इश्क़-ओ-आशिक़ी से तुम्हें चाहेंगे जब छिन जाओगी तुम किसी सूरत उन्हें नफ़रत हो हम से वो पागल मस्त है अपनी वफ़ा में दलीलों से उसे
क़ाइल किया था तिरी बाँहों से हिजरत करने वाले ये जज़्ब-ए-इश्क़ है या जज़्बा-ए-रहम अजब कुछ रब्त है तुम से कि तुम को वफ़ा की यादगारें तक न होंगी अब किसी से मिरा हिसाब नहींअब किसी से मिरा हिसाब नहीं ख़ून के
घूँट पी रहा हूँ मैं मैं शराबी हूँ मेरी आस न छीन नोच फेंके लबों से मैं ने सवाल अब तो पंजाब भी नहीं पंजाब ग़म अबद का नहीं है आन का है बूदश इक रू है एक रू या'नी दिल ने वफ़ा के नाम पर कार-ए-वफ़ा नहीं कियादिल ने वफ़ा के नाम पर
कार-ए-वफ़ा नहीं किया ख़ीरा-सरान-ए-शौक़ का कोई नहीं है जुम्बा-दार जो भी हो तुम पे मो'तरिज़ उस को यही जवाब दो निस्बत इल्म है बहुत हाकिम-ए-वक़त को अज़ीज़ जिस को भी शैख़ ओ शाह ने हुक्म-ए-ख़ुदा दिया क़रार किस से इज़हार-ए-मुद्दआ कीजेकिस से इज़हार-ए-मुद्दआ कीजे हो न पाया ये फ़ैसला अब तक आप थे जिस के चारा-गर वो जवाँ एक ही फ़न तो हम ने सीखा है है तक़ाज़ा मिरी तबीअ'त का है तो बारे ये आलम-ए-असबाब आज हम क्या गिला करें उस से नुत्क़ हैवान पर गराँ है अभी हज़रत-ए-ज़ुल्फ़-ए-ग़ालिया-अफ़्शाँ ज़िंदगी का अजब मोआ'मला है मुझ को आदत है रूठ जाने की मिलते रहिए इसी तपाक के साथ कोहकन को है ख़ुद-कुशी ख़्वाहिश मुझ से कहती थीं वो शराब आँखें रंग
हर रंग में है दाद-तलब चलो बाद-ए-बहारी जा रही हैचलो बाद-ए-बहारी जा रही है शुमाल-ए-जावेदान-ए-सब्ज़-ए-जाँ से फ़ुग़ाँ ऐ दुश्मन-ए-दार-ए-दिल-ओ-जाँ जो इन रोज़ों मिरा ग़म है वो ये है है सीने में अजब इक हश्र बरपा मैं पैहम
हार कर ये सोचता हूँ दिल उस के रू-ब-रू है और गुम-सुम वो सय्यद बच्चा हो और शैख़ के साथ है बरपा हर गली में शोर-ए-नग़्मा वो याद अब हो रही है दिल से रुख़्सत दरेग़ा तेरी नज़दीकी मियाँ-जान बहुत बद-हाल हैं बस्ती तिरे लोग तिरी मरहम-निगाही ऐ मसीहा ख़राबे में अजब था शोर बरपा ऐ कू-ए-यार तेरे ज़माने गुज़र गएऐ कू-ए-यार तेरे ज़माने गुज़र गए अब कौन ज़ख़्म ओ ज़हर से रक्खेगा सिलसिला अब क्या कहूँ कि सारा मोहल्ला है शर्मसार हम ने भी
ज़िंदगी को तमाशा बना दिया था रन भी ज़िंदगी का अजब तुर्फ़ा माजरा जुज़ गुमाँ और था ही क्या मेराजुज़ गुमाँ और था ही क्या मेरा निकहत-ए-पैरहन से उस गुल की मुझ को ख़्वाहिश ही ढूँडने की न थी थूक दे ख़ून जान ले वो अगर जब तुझे मेरी चाह थी जानाँ कोई मुझ तक पहुँच नहीं पाता आ चुका पेश वो मुरव्वत से आज मैं ख़ुद से हो गया मायूस दिल जो है आग लगा दूँ उस कोदिल जो है आग लगा दूँ उस को जो भी है उस को गँवा बैठा है तुझ गुमाँ पर जो इमारत की थी जिस्म में आग लगा दूँ उस के हिज्र की नज़्र तो देनी है उसे जो नहीं है मिरे दिल की दुनिया तंग आग़ोश में आबाद करूँगा तुझ कोतंग आग़ोश में आबाद करूँगा तुझ को फ़िक्र-ए-ईजाद में गुम हूँ मुझे ग़ाफ़िल न समझ नश्शा है राह की दूरी का कि हमराह है तू मेरी बाँहों में बहकने की सज़ा भी सुन ले मैं कि रहता हूँ ब-सद-नाज़ गुरेज़ाँ तुझ से अपनी मंज़िल का रास्ता भेजोअपनी मंज़िल का रास्ता भेजो क्या हमारा नहीं रहा सावन नई कलियाँ जो अब खिली हैं वहाँ
हम न जीते हैं और न मरते हैं धूल उड़ती है जो उस आँगन में ऐ फकीरो गली के उस गुल की शफ़क़-ए-शाम-ए-हिज्र के हाथों कुछ तो रिश्ता है तुम से कम-बख़्तों अजब हालत हमारी हो गई हैअजब हालत हमारी हो गई है सुख़न मेरा उदासी है सर-ए-शाम बहुत ही ख़ुश है दिल अपने किए पर वो नाज़ुक-लब है अब जाने ही वाला दिल अब दुनिया पे ला'नत कर कि इस की यक़ीं मा'ज़ूर है अब और गुमाँ भी वो इक बाद-ए-शुमाली-रंग जो थी मिरे पास आ के ख़ंजर भोंक दे तू काम की बात मैं ने की ही नहींकाम की बात मैं ने की ही नहीं ऐ उमीद ऐ उमीद-ए-नौ-मैदाँ मैं जो था उस गली का मस्त-ए-ख़िराम ये सुना है कि मेरे कूच के बा'द थी जो इक फ़ाख़्ता उदास उदास मुझ में अब मेरा जी नहीं लगता वो जो रहती थी दिल-मोहल्ले में जाइए और ख़ाक उड़ाइए आप हाए वो शौक़ जो नहीं था कभी दिल की तकलीफ़ कम नहीं करतेदिल की तकलीफ़ कम नहीं करते जान-ए-जाँ तुझ को अब तिरी ख़ातिर दूसरी हार की हवस है सो हम वो भी पढ़ता नहीं है अब दिल से जुर्म में हम कमी करें भी तो क्यूँ ऐश-ए-उम्मीद ही से ख़तरा हैऐश-ए-उम्मीद ही से ख़तरा है है कुछ ऐसा कि उस की जल्वत में जिस के आग़ोश का हूँ दीवाना याद की धूप तो है रोज़ की बात है अजब कुछ मोआ'मला दरपेश शहर-ए-ग़द्दार जान ले कि तुझे है अजब तौर हालत-ए-गिर्या हाल ख़ुश लखनऊ का दिल्ली का आसमानों में है ख़ुदा तन्हा मैं कहूँ किस तरह ये बात उस से आज भी ऐ कनार-ए-बान मुझे उन लबों का लहू न पी जाऊँ
'जौन' ही तो है 'जौन' के दरपय अब नहीं कोई बात ख़तरे की तुझ से गिले करूँ तुझे जानाँ मनाऊँ मैंतुझ से गिले करूँ तुझे जानाँ मनाऊँ मैं दिल से सितम की बे-सर-ओ-कारी हवा को है वो नाम हूँ कि जिस पे नदामत भी अब नहीं क्यूँकर हो अपने ख़्वाब की आँखों में वापसी इक रंग सी कमान हो ख़ुश्बू सा एक तीर शिकवा सा इक दरीचा हो नश्शा सा इक सुकूत फिर उस गली से अपना गुज़र चाहता है दिल ज़ख़्म-ए-उम्मीद भर गया कब काज़ख़्म-ए-उम्मीद भर गया कब का अब तो मुँह अपना मत दिखाओ मुझे आप अब पूछने को आए हैं आप इक और नींद ले लीजे मेरा फ़िहरिस्त से निकाल दो नाम ज़िक्र भी उस से क्या भला मेराज़िक्र भी उस से क्या भला मेरा आज मुझ को बहुत बुरा कह कर आख़िरी बात तुम
से कहना है अब तो कुछ भी नहीं हूँ मैं वैसे वो भी मंज़िल तलक पहुँच जाता तुझ से मुझ को नजात मिल जाए क्या बताऊँ बिछड़ गया याराँ वो जो था वो कभी मिला ही नहींवो जो था वो कभी मिला ही नहीं उस से हर दम मोआ'मला है मगर बे-मिले ही बिछड़ गए हम तो चश्म-ए-मयगूँ से है मुग़ाँ ने कहा तू जो है जान तू जो है जानाँ मस्त हूँ मैं महक से उस गुल की हाए 'जौन' उस का वो पियाला-ए-नाफ़ तू है इक उम्र से फ़ुग़ाँ-पेशा हिज्र की आँखों से आँखें तो मिलाते जाइएहिज्र की आँखों से आँखें तो मिलाते जाइए बन के ख़ुश्बू की उदासी रहिए दिल के बाग़ में जाते जाते आप इतना काम तो कीजे मिरा रह गई उम्मीद तो बरबाद हो जाऊँगा मैं ज़िंदगी की अंजुमन का बस यही दस्तूर है आख़िरश रिश्ता तो हम में इक ख़ुशी इक
ग़म का था वो गली है इक शराबी चश्म-ए-काफ़िर की गली आप को जब मुझ से शिकवा ही नहीं कोई तो फिर कूच है ख़्वाबों से ताबीरों की सम्तों में तो फिर आप का मेहमान हूँ मैं आप मेरे मेज़बान है सर-ए-शब और मिरे घर में नहीं कोई चराग़ है अजब हाल ये ज़माने काहै अजब हाल ये ज़माने का पसंद आया बहुत हमें पेशा काश हम को भी हो नसीब कभी आसमाँ है ख़मोशी-ए-जावेद जान क्या अब तिरा पियाला-ए-नाफ़ शौक़ है इस दिल-ए-दरिंदा को इतना नादिम हुआ हूँ ख़ुद से कि मैं
क्या कहूँ जान को बचाने मैं ये जहाँ 'जौन' इक जहन्नुम है ज़िंदगी एक फ़न है लम्हों को कभी कभी तो बहुत याद आने लगते होकभी कभी तो बहुत याद आने लगते हो गिला तो ये है तुम आते नहीं कभी लेकिन ये बात 'जौन'
तुम्हारी मज़ाक़ है कि नहीं तुम्हारी शाइ'री क्या है बुरा भला क्या है सुरूद-ए-आतिश-ए-ज़र्रीन-ए-सहन-ए-ख़ामोशी सुना है काहकशानों में रोज़-ओ-शब ही नहीं अजब इक तौर है जो हम सितम ईजाद रखेंअजब इक तौर है जो हम सितम ईजाद रखें अहद इस कूचा-ए-दिल से है सो उस कूचे में क्या कहें कितने ही नुक्ते हैं जो बरते न गए बे-सुतूँ इक नवाही में है शहर-ए-दिल की आशियाना कोई अपना नहीं पर शौक़ ये है हम को अन्फ़ास की अपने है इमारत करनी ख़ून थूकेगी ज़िंदगी कब तकख़ून थूकेगी ज़िंदगी कब तक जाने वालों से पूछना ये सबा हो कभी तो शराब-ए-वस्ल नसीब दिल ने जो उम्र-भर कमाई है जिस में था सोज़-ए-आरज़ू उस का बनी-आदम की ज़िंदगी है अज़ाब हादिसा ज़िंदगी है आदम की है जहन्नुम जो
याद अब उस की वो सबा उस के बिन जो आई थी मीर-'जौनी' ज़रा बताएँ तो हाल-ए-सहन-ए-वजूद ठहरेगा कब उस का विसाल चाहिए थाकब उस का विसाल चाहिए था कब दिल को जवाब से ग़रज़ थी शौक़ एक नफ़स था और वफ़ा को इक
चेहरा-ए-सादा था जो हम को इक कर्ब में ज़ात-ओ-ज़िंदगी हैं मैं क्या हूँ बस इक मलाल-ए-माज़ी हम तुम जो बिछड़ गए हैं हम को वो जिस्म जमाल था सरापा वो शोख़ रमीदा मुझ को अपनी था वो जो कमाल-ए-शौक़-ए-वसलत जो लम्हा-ब-लम्हा मिल रहा है ख़ुद मैं ही गुज़र के थक गया हूँख़ुद मैं ही गुज़र के थक गया हूँ ऊपर से उतर के ताज़ा-दम था अब तुम भी तो जी के थक रहे हो मैं या'नी अज़ल का आर्मीदा अब जान का मेरी जिस्म शल है गुज़राँ हैं गुज़रते रहते हैंगुज़राँ हैं गुज़रते रहते हैं हाए जानाँ वो नाफ़-प्याला तिरा दिल का जल्सा बिखर गया तो क्या या'नी क्या कुछ भुला दिया हम ने हम से क्या क्या ख़ुदा मुकरता है है अजब उस का हाल-ए-हिज्र कि हम दिल के सब ज़ख़्म पेशा-वर हैं मियाँ मुझ को तो गिर के मरना हैमुझ को तो गिर के मरना है शहर है चेहरों की तमसील वक़्त है वो नाटक जिस में मेरे नक़्श-ए-सानी को कैसी तलाफ़ी क्या तदबीर जो नहीं गुज़रा है अब तक अपने गुमाँ का रंग था मैं हम
दो पाए हैं सो हमें चाहे हम कुछ भी कर लें हम तुम हैं इक लम्हे के तुम से भी अब तो जा चुका हूँ मैंतुम से भी अब तो जा चुका हूँ मैं ये बहुत ग़म की बात हो शायद इस गुमान-ए-गुमाँ के आलम में अब बबर शेर इश्तिहा है मिरी मैं हूँ मे'मार पर ये बतला दूँ हाल है इक अजब फ़राग़त का लोग कहते हैं मैं ने जोग लिया नहीं इमला दुरुस्त 'ग़ालिब' का याद उसे इंतिहाई करते हैंयाद उसे इंतिहाई करते हैं पसंद आता है दिल से यूसुफ़ को है बदन ख़्वाब-ए-वस्ल का दंगल उस को और ग़ैर को ख़बर ही नहीं हम अजब हैं कि उस की बाँहों में हालत-ए-वस्ल में भी हम दोनों आप जो मेरी जाँ हैं मैं दिल हूँ बा-वफ़ा एक दूसरे से मियाँ जो हैं सरहद के पार से आए पल क़यामत के सूद-ख़्वार हैं
'जौन' दिल गुमाँ था गुमानियाँ थे हमदिल गुमाँ था गुमानियाँ थे हम हम सुने और सुनाए जाते थे जाने हम किस की बूद का थे सुबूत छोड़ते क्यूँ न हम ज़मीं अपनी ज़र्रा भर भी न थी नुमूद अपनी हम न थे एक आन के भी मगर रोज़ इक रन था तीर-ओ-तरकश बिन अर्ग़वानी था वो पियाला-ए-नाफ़ नार-ए-पिस्तान थी वो क़त्ताला ना-गहाँ थी इक आन आन कि थी वो क्या कुछ न करने वाले थेवो क्या कुछ न करने वाले थे थे गिले और गर्द-ए-बाद की शाम वो जो आता तो
उस की ख़ुश्बू में सिर्फ़ अफ़्सोस है ये तंज़ नहीं यूँ तो मरना है एक बार मगर दिल से है बहुत गुरेज़-पा तूदिल से है बहुत गुरेज़-पा तू क्यूँ मुझ में गँवा रहा है ख़ुद को है तेरी जुदाई और मैं हूँ पूछे जो तुझे कोई ज़रा भी इक साँस ही बस लिया है मैं ने है कौन जो तेरा ध्यान रखे दिल कितना आबाद हुआ जब दीद के घर बरबाद हुएदिल कितना आबाद हुआ जब दीद के घर बरबाद हुए नामवरी की बात दिगर है वर्ना यारो सोचो तो लाएँगे कहाँ से बोल रसीले होंटों की नादारी में तुम मेरी इक ख़ुद-मस्ती हो मैं हूँ तुम्हारी ख़ुद-बीनी मेरा क्या इक मौज-ए-हवा हूँ पर यूँ है ऐ ग़ुंचा-दहन इश्क़-मोहल्ले में अब यारो क्या कोई मा'शूक़ नहीं हम ने दिल को मार रखा है और जताते फिरते हैं बर्क़ किया है
अक्स-ए-बदन ने तेरे हमें इक तंग क़बा तू ने कभी सोचा तो होगा सोचा भी ऐ मस्त-अदा जो कुछ भी रूदाद-ए-सुख़न थी होंटों की दूरी से थी ख़ाक-नशीनों से कूचे के क्या क्या नख़वत करते हैं शहरों में ही ख़ाक उड़ा लो शोर मचा लो बे-जा लो सम्तों में बिखरी वो ख़ल्वत वो दिल की रंग-ए-आबादी तू ने रिंदों का हक़ मारा मय-ख़ाने में रात गए हम तिरा हिज्र मनाने के लिए निकले हैंहम तिरा हिज्र मनाने के लिए निकले हैं शहर कूचों में करो हश्र बपा आज कि हम हम से जो रूठ गया है वो बहुत है
मा'सूम शहर में शोर है वो यूँ कि गुमाँ के सफ़री वो जो थे शहर-ए-तहय्युर तिरे पुर-फ़न मे'मार रहगुज़र में तिरी क़ालीन बिछाने वाले हमें करना है ख़ुदावंद की इमदाद सो हम सर-ए-शब इक नई तमसील बपा होनी है
हमें सैराब नई नस्ल को करना है सो हम हम कहीं के भी नहीं पर ये है रूदाद अपनी उस ने हम को गुमान में रक्खाउस ने हम को गुमान में रक्खा क्या क़यामत-नुमू थी वो जिस ने जोशिश-ए-ख़ूँ ने अपने फ़न का हिसाब लम्हे लम्हे की अपनी थी इक शान हम ने पैहम क़ुबूल-ओ-रद कर के तुम तो उस याद की अमान में हो अपना रिश्ता ज़मीं से ही रक्खो किसी से कोई ख़फ़ा भी नहीं रहा अब तोकिसी से कोई ख़फ़ा भी नहीं रहा अब तो वो काहिशें हैं कि ऐश-ए-जुनूँ तो क्या या'नी
शिकस्त-ए-ज़ात का इक़रार और क्या होगा हूँ मुब्तला-ए-यक़ीं मेरी मुश्किलें मत पूछ मिरे वजूद का अब क्या सवाल है या'नी यही अतिय्या-ए-सुब्ह-ए-शब-ए-विसाल है क्या यक़ीन कर जो तिरी आरज़ू में था पहले वो सुख वहाँ कि ख़ुदा की हैं बख़्शिशें क्या क्या दिल जो इक जाए थी दुनिया हुई आबाद उस मेंदिल जो इक जाए थी दुनिया हुई आबाद उस में वो जो था अपना गुमान आज बहुत याद आया एक ही तो वो मुहिम थी जिसे सर करना था एक ख़ुश्बू में रही मुझ को
तलाश-ए-ख़द-ओ-ख़ाल बाग़-ए-जाँ से तू कभी रात गए गुज़रा है दिल-मोहल्ले में अजब एक क़फ़स था यारो तिश्नगी ने सराब ही लिक्खातिश्नगी ने सराब ही लिक्खा हम ने लिक्खा निसाब-ए-तीरा-शबी मुंशियान-ए-शुहूद ने ता-हाल न रखा हम ने बेश-ओ-कम का ख़याल दोस्तो हम ने अपना हाल उसे न लिखा उस ने कोई भी मक्तूब हम ने इस शहर-ए-दीन-ओ-दौलत में एक गुमाँ का हाल है और फ़क़त गुमाँ में हैएक गुमाँ का हाल है और फ़क़त गुमाँ में है
लम्हा-ब-लम्हा दम-ब-दम आन-ब-आन रम-ब-रम आदम-ओ-ज़ात-ए-किब्रिया कर्ब में हैं जुदा जुदा शाख़ से उड़ गया परिंद है दिल-ए-शाम-ए-दर्द-मंद ख़ुद में भी बे-अमाँ हूँ मैं तुझ में भी बे-अमाँ हूँ मैं कैसा हिसाब क्या हिसाब हालत-ए-हाल है अज़ाब उस का फ़िराक़ भी ज़ियाँ उस का विसाल भी ज़ियाँ बूद-ओ-नबूद का हिसाब मैं नहीं जानता मगर कौन से शौक़ किस हवस का नहींकौन से शौक़ किस हवस का नहीं राह तुम कारवाँ की लो कि मुझे हाँ मिरा वो मोआ'मला है कि अब हम कहाँ से चले हैं और कहाँ हो गई उस गले में उम्र तमाम मुझ को ख़ुद से जुदा न होने दो क्या लड़ाई भला कि हम में से क्या यक़ीं और क्या गुमाँ चुप रहक्या यक़ीं और क्या गुमाँ चुप रह हो गया क़िस्सा-ए-वजूद तमाम मैं तो पहले ही जा चुका हूँ कहीं तू अब आया है हाल में अपने तू जहाँ था जहाँ जहाँ था कभी ज़िक्र छेड़ा ख़ुदा का फिर तू ने सारा सौदा निकाल दे सर से अहरमन हो ख़ुदा हो या आदम दरमियानी ही अब सभी कुछ है अब कोई बात
तेरी बात नहीं है यहाँ ज़िक्र-ए-हाल-ए-मौजूदाँ हिज्र की जाँ-कनी तमाम हुई सब चले जाओ मुझ में ताब नहींसब चले जाओ मुझ में ताब नहीं ख़ून कर दूँ तिरे शबाब का मैं इक किताब-ए-वजूद है तो सही तू जो पढ़ता है बू-अली की
किताब अपनी मंज़िल नहीं कोई फ़रियाद हम किताबी सदा के हैं लेकिन भूल जाना नहीं गुनाह उसे पढ़ लिया उस की याद का नुस्ख़ा ग़म है बे-माजरा कई दिन सेग़म है बे-माजरा कई दिन से बे-शमीम-ओ-मलाल-ओ-हैराँ है दिल-मोहल्ले की उस गली में भला वो जो ख़ुश्बू है उस के क़ासिद को उस से भी और अपने आप से भी शाम तक मेरी बेकली है शराबशाम तक मेरी बेकली है शराब जहल-ए-वाइ'ज़ का इस को रास आए रंग-रस है मेरी रगों में रवाँ
नाज़ है अपनी दिलबरी पे मुझे है ग़नीमत जो होश में नहीं मैं हिस जो होती तो जाने क्या करता न हम रहे न वो ख़्वाबों की ज़िंदगी ही रहीन हम रहे न वो ख़्वाबों की ज़िंदगी ही रही अजब तरह रुख़-ए-आइन्दगी का रंग उड़ा हरीम-ए-शौक़ का
आलम बताएँ क्या तुम को पस-ए-निगाह-ए-तग़ाफ़ुल थी इक निगाह कि थी अजीब आईना-ए-परतव-ए-तमन्ना था बदल गया सभी कुछ उस दयार-ए-बूदश में तमाम दिल के मोहल्ले उजड़ चुके थे मगर वो दास्तान तुम्हें अब भी याद है कि नहीं सुनाऊँ मैं किसे अफ़साना-ए-ख़याल-ए-मलाल क्या ये आफ़त नहीं अज़ाब नहींक्या ये आफ़त नहीं अज़ाब नहीं बूद पल पल की बे-हिसाबी है ख़ूब गाव बजाओ और पियो सब भटकते हैं अपनी गलियों में तू ही मेरा सवाल अज़ल से है
हिफ़्ज़ है शम्स-ए-बाज़ग़ा मुझ को तुझ को दिल-दर्द का नहीं एहसास नहीं जुड़ता ख़याल को भी ख़याल सतर-ए-मू उस की ज़ेर-ए-नाफ़ की हाए सर-ए-सहरा हबाब बेचे हैंसर-ए-सहरा हबाब बेचे हैं और तो क्या था बेचने के लिए ख़ुद
सवाल उन लबों से कर के मियाँ ज़ुल्फ़-कूचों में शाना-कुश ने तिरे शहर में हम ख़राब हालों ने जान-ए-मन तेरी बे-नक़ाबी ने मेरी फ़रियाद ने सुकूत के साथ मैं न ठहरूँ न जान तू ठहरेमैं न ठहरूँ न जान तू ठहरे न गुज़रने पे ज़िंदगी
गुज़री है मिरी बज़्म-ए-बे-दिली भी अजीब मैं यहाँ मुद्दतों में आया हूँ महफ़िल-ए-रुख़्सत-ए-हमेशा है इक तवज्जोह अजब है सम्तों में कज-अदा थी बहुत उमीद मगर एक चाक-ए-बरहंगी है वजूद मैं जो हूँ क्या नहीं हूँ मैं ख़ुद भी बाग़-ए-जाँ से मिला न कोई समर ख़्वाब के रंग दिल-ओ-जाँ में सजाए भी गएख़्वाब के रंग दिल-ओ-जाँ में सजाए भी गए उन्हीं शहरों को शिताबी से लपेटा भी गया बज़्म शोख़ी का किसी की कहें क्या हाल-ए-जहाँ पुश्त मिट्टी से लगी जिस में हमारी लोगो याद-ए-अय्याम कि इक महफ़िल-ए-जाँ थी कि जहाँ हम कि जिस शहर में थे सोग-नशीन-ए-अहवाल याद मत रखियो ये रूदाद हमारी हरगिज़ वो ख़याल-ए-मुहाल किस का थावो ख़याल-ए-मुहाल किस का था सफ़री अपने आप से था मैं मैं तो ख़ुद में कहीं
न था मौजूद थी मिरी ज़ात इक ख़याल-आशोब जब कि मैं हर-नफ़स था बे-अहवाल दोपहर बाद-ए-तुंद कूचा-ए-यार हवास में तो न थे फिर भी क्या न कर आएहवास में तो न थे फिर भी क्या न कर आए अजीब हाल के मजनूँ थे जो ब-इश्वा-ओ-नाज़ कभी गए थे मियाँ जो ख़बर के सहरा की कोई जुनूँ नहीं सौदाइयान-ए-सहरा को बताओ दाम गुरु चाहिए तुम्हें अब क्या अजब ख़ुलूस से रुख़्सत किया गया हम को तिफ़्लान-ए-कूचा-गर्द के पत्थर भी कुछ नहींतिफ़्लान-ए-कूचा-गर्द के पत्थर भी कुछ नहीं
मैं और ख़ुद को तुझ से छुपाऊँगा या'नी मैं बस इक गुबार-ए-वहम है इक कूचा-गर्द का ये शहर-दार-ओ-मुहतसिब-ओ-मौलवी ही क्या शैख़-ए-हराम-लुक़्मा की पर्वा है क्यूँ तुम्हें मक़्दूर अपना कुछ भी नहीं इस दयार में जानी मैं तेरे नाफ़-पियाले पे हूँ
फ़िदा ये शब का रक़्स-ओ-रंग तो क्या सुन मिरी कुहन बस इक ग़ुबार तूर-ए-गुमाँ का है तह-ब-तह है अब तो एक जाल सुकून-ए-हमेशगी कितना डरावना है ये शहर-ए-नबूद-ओ-बूद पहलू में है जो मेरे कहीं और है वो शख़्स निस्बत में उन की जो है अज़िय्यत वो है मगर याराँ तुम्हें जो मुझ से गिला है तो किस लिए गुज़रेगी 'जौन' शहर में रिश्तों के किस तरह शाम थी और बर्ग-ओ-गुल शल थे मगर सबा भी थीशाम थी और बर्ग-ओ-गुल शल थे मगर सबा भी थी एक मलाल का सा हाल महव था अपने हाल
में सामेआ-ए-सदा-ए-जाँ बे-सरोकार था कि था क्या मह-ओ-साल माजरा एक पलक थी जो मियाँ एक सुरूद-ए-रौशनी नीमा-ए-शब का ख़्वाब था दिल तिरा पेशा-ए-गिला-ए-काम ख़राब कर गया दिल के मुआ'मले जो थे उन में से एक ये भी है बाल-ओ-पर-ए-ख़याल को अब नहीं सम्त-ओ-सू नसीब ख़ुश्क है चश्मा-सार-ए-जाँ ज़र्द है सब्ज़ा-ज़ार-ए-दिल नहीं निबाही ख़ुशी से ग़मी को छोड़ दियानहीं निबाही ख़ुशी से ग़मी को छोड़ दिया हों जो भी जान की जाँ वो गुमान होते हैं शुऊ'र
एक शुऊ'र-ए-फ़रेब है सो तो है ख़याल-ओ-ख़्वाब की अंदेशगी के सुख झेले ख़ुद से रिश्ते रहे कहाँ उन केख़ुद से रिश्ते रहे कहाँ उन के मस्त उन को गुमाँ में रहने दे यार सुख नींद हो नसीब उन को कितनी सरसब्ज़ थी ज़मीं उन की नौहा-ख़्वानी है क्या ज़रूर उन्हें कू-ए-जानाँ में और क्या माँगोकू-ए-जानाँ में और क्या माँगो हर-नफ़स तुम यक़ीन-ए-मुनइम से है अगर वो बहुत ही दिल नज़दीक दर-ए-मतलब है क्या तलब-अंगेज़ गोशा-गीर-ए-ग़ुबार-ए-ज़ात हूँ में मुनकिरान-ए-ख़ुदा-ए-बख़शिंदा उस शिकम-रक़्स-गर के साइल हो लाख जंजाल माँगने में हैं फ़ुर्क़त में वसलत बरपा है अल्लाह-हू के बाड़े मेंफ़ुर्क़त में वसलत बरपा है अल्लाह-हू के बाड़े में रूह-ए-कुल से सब रूहों पर वस्ल की हसरत तारी है बे-अहवाली की हालत है शायद या शायद कि नहीं मुख़्तारी के लब सिलवाना जब्र अजब-तर ठहरा है बाबा अलिफ़ इरशाद-कुनाँ हैं पेश-ए-अदम के बारे में मा'नी हैं लफ़्ज़ों से बरहम क़हर-ए-ख़मोशी आलम है मौजूदी से इंकारी है अपनी ज़िद में नाज़-ए-वजूद शहर-ब-शहर कर सफ़र ज़ाद-ए-सफ़र लिए बग़ैरशहर-ब-शहर कर सफ़र ज़ाद-ए-सफ़र लिए बग़ैर कोह-ओ-कमर में हम-सफ़ीर कुछ नहीं अब ब-जुज़ हवा वक़्त के मा'रके में थीं मुझ को रिआयतें हवस कुछ भी हो क़त्ल-गाह में हुस्न-ए-बदन का है ज़रर करया-ए-गिरया में मिरा गिर्या हुनर-वराना है उस के भी कुछ गिले हैं दिल उन का हिसाब तुम रखो उस का सुख़न भी जा से है और वो ये कि 'जौन' तुम |