These Solutions are part of UP Board Solutions for Class 10 Hindi. Here we have given UP Board Solutions for Class 10 Hindi Chapter 1 मित्रता (गद्य खंड). Show जीवन – परिचय एवं कृतियाँ प्रश्न 1. जीवन-परिचय – हिन्दी के प्रतिभासम्पन्न मूर्धन्य समीक्षक एवं युग-प्रवर्तक साहित्यकार आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का जन्म सन् 1884 ई० में बस्ती जिले के अगोना नामक ग्राम के एक सम्भ्रान्त परिवार में हुआ था। इनके पिता चन्द्रबली शुक्ल मिर्जापुर में कानूनगो थे। इनकी माता अत्यन्त विदुषी और धार्मिक थीं। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा-दीक्षा अपने पिता के पास जिले की राठ तहसील में हुई और इन्होंने मिशन स्कूल से मित्रता 73 दसवीं की परीक्षा उत्तीर्ण की। गणित में कमजोर होने के कारण ये आगे नहीं पढ़ सके। इन्होंने एफ० ए० (इण्टरमीडिएट) की शिक्षा इलाहाबाद से ली थी, किन्तु परीक्षा से पूर्व ही विद्यालय छूट गया। इसके पश्चात् इन्होंने मिर्जापुर के न्यायालय में नौकरी आरम्भ कर दी। यह नौकरी इनके स्वभाव के अनुकूल नहीं थी, अतः ये मिर्जापुर के मिशन स्कूल में चित्रकला के अध्यापक हो गये। अध्यापन का कार्य करते हुए इन्होंने अनेक कहानी, कविता, निबन्ध, नाटक आदि की रचना की। इनकी विद्वत्ता से प्रभावित होकर इन्हें हिन्दी शब्द-सागर’ के सम्पादन-कार्य में सहयोग के लिए श्यामसुन्दर दास जी द्वारा काशी नागरी प्रचारिणी सभा में ससम्मान बुलवाया गया। इन्होंने 19 वर्ष तक काशी नागरी प्रचारिणी पत्रिका’ का सम्पादन भी किया। कुछ समय पश्चात् इनकी नियुक्ति काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के प्राध्यापक के रूप में हो । गयी और श्यामसुन्दर दास जी के अवकाश प्राप्त करने के बाद ये हिन्दी विभाग के अध्यक्ष भी हो गये। स्वाभिमानी और गम्भीर प्रकृति का हिन्दी का यह दिग्गज साहित्यकार सन् 1941 ई० में स्वर्गवासी हो गया। रचनाएँ – शुक्ल जी एक प्रसिद्ध निबन्धकार, निष्पक्ष आलोचक, श्रेष्ठ इतिहासकार और सफल सम्पादक थे। इनकी रचनाओं का विवरण निम्नवत् है- साहित्य में स्थान – हिन्दी निबन्ध को नया आयाम देकर उसे ठोस धरातल पर प्रतिष्ठित करने वाले शुक्ल जी हिन्दी-साहित्य के मूर्धन्य आलोचक, श्रेष्ठ निबन्धकार, निष्पक्ष इतिहासकार, महान् शैलीकार एवं युग-प्रवर्तक साहित्यकार थे। ये हृदय से कवि, मस्तिष्क से आलोचक और जीवन से अध्यापक थे। हिन्दी-साहित्य में इनका मूर्धन्य स्थान है। इनकी विलक्षण प्रतिभा के कारण ही इनके समकालीन हिन्दी गद्य के काल को ‘शुक्ल युग’ के नाम से सम्बोधित किया जाता है। शुक्ल जी के विषय में आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने कहा है (UPBoardSolutions.com) कि आचार्य शुक्ल उन महिमाशाली लेखकों में हैं, जिनकी प्रत्येक पंक्ति आदर के साथ पढ़ी जाती है और भविष्य को प्रभावित करती रहती है। आचार्य शब्द ऐसे ही कर्ता साहित्यकारों के योग्य है।” गद्यांशों पर आधारित प्रश्न प्रश्न-पत्र में केवल 3 प्रश्न (अ, ब, स) ही पूछे जाएँगे। अतिरिक्त प्रश्न अभ्यास एवं परीक्षोपयोगी दृष्टि से महत्त्वपूर्ण होने के कारण दिए गये हैं। (ब) प्रथम रेखांकित अंश की व्याख्या – लेखक का कथन है कि जब (UPBoardSolutions.com) हम अपने घर से बाहर निकलकर समाज में कार्य आरम्भ करते हैं, तब हम प्रायः अपरिपक्व ही होते हैं। उस समय हमारा मन कोमल होता है। हम जिस किसी स्वभाव के लोगों के सम्पर्क में आते हैं, उनका हमारे चित्त पर अवश्य प्रभाव पड़ता है; क्योंकि हमें उस समय अच्छे-बुरे का विवेक नहीं होता। हमारे विचार अच्छी तरह शुद्ध नहीं होते और हमारा स्वभाव पूरी तरह विकसित भी नहीं होता। द्वितीय रेखांकित अंश की व्याख्या – लेखक का कहना है कि जब व्यक्ति घर की सीमाओं से बाहर निकलकर सामाजिक जीवन में प्रवेश करता है, उस समय उसका स्वभाव कच्ची मिट्टी के समान होता है। मिट्टी की मूर्ति जब तक आग में नहीं तपायी जाती, तब तक उसे इच्छानुसार रूप दिया जा सकता है। उसी प्रकार जब तक हमारे स्वभाव और विचारों में दृढ़ता नहीं होगी, तब तक हमारे आचरण को मनचाहे रूप में ढाला जा सकता है। उस समय हमारे ऊपर मित्रों के आचरण का गहरा प्रभाव पड़ता है, यदि उस समय हम पर अच्छी बातों का प्रभाव पड़ गया तो हम देवताओं के समान सम्माननीय बन सकते हैं और बुरी बातों का प्रभाव पड़ गया तो हमारा आचरण राक्षसों के समान घृणित और नीच भी हो सकता है। तृतीय रेखांकित अंश की व्याख्या – लेखक का मत है कि हमें ऐसे लोगों की संगति नहीं करनी चाहिए, जिनकी इच्छा-शक्ति हमसे अधिक सबल और संकल्प हमसे अधिक दृढ़ हों। इसका कारण यह है कि वे अपनी बात, जो चाहे अच्छी हो या बुरी, हमसे बिना विरोध के मनवा लेंगे; परिणामस्वरूप हम निर्बल होते चले जाएँगे। हमें निर्बल संकल्प शक्ति के लोगों का साथ करना इन दृढ़ संकल्प शक्ति वाले लोगों से भी अधिक बुरा है, जो हमारी ही बात को सर्वोपरि रखते हों। ऐसी स्थिति में उचित प्रतिरोध और सहयोग के अभाव में हमारी ही प्रवृत्तियाँ बिगड़ सकती हैं। तात्पर्य यह है कि हाँ में हाँ मिलाने वाले तथा अच्छी-बुरी दोनों बातों का समर्थन करने वाले व्यक्ति सच्चे मित्र नहीं हो सकते। (स) 1. लेखक के अनुसार हमें निम्नलिखित दो प्रकार के लोगों का साथ नहीं करना चाहिए प्रश्न
2. हँसमुख चेहरा, बातचीत का ढंग, थोड़ी चतुराई या साहस-ये ही दो-चार बातें किसी में देखकर लोग चटपट उसे अपना बना लेते हैं। हम लोग यह नहीं सोचते कि मैत्री का उद्देश्य क्या है तथा जीवन के व्यवहार में उसका कुछ मूल्य भी है। यह बात हमें नहीं सूझती कि यह एक ऐसा साधन है, जिससे आत्मशिक्षा का कार्य बहुत सुगम हो जाता है। एक प्राचीन विद्वान् का वचन है-‘विश्वासपात्र मित्र से बड़ी भारी रक्षा होती है। जिसे ऐसा मित्र मिल जाए, उसे समझना चाहिए कि खजाना मिल गया।’ [2009] (स) 1. प्रस्तुत अवतरण में लेखक कहना चाहता है कि साधारणतया व्यक्ति अन्य व्यक्ति के बाह्य व्यक्तित्व को देखकर ही उससे मित्रता कर लेते हैं जब कि मित्रता का आधार व्यक्ति का अन्तर्व्यक्तित्व होना चाहिए। प्रश्न 3. विश्वासपात्र मित्र जीवन की एक औषध है। हमें अपने मित्रों से यह आशा रखनी चाहिए कि वे उत्तम संकल्पों से हमें दृढ़ करेंगे, दोषों और त्रुटियों से हमें बचाएँगे, हमारे सत्य, पवित्रता और मर्यादा के
प्रेम को पुष्ट करेंगे, जब हम कुमार्ग पर पैर रखेंगे, तब वे हमें सचेत करेंगे, जब हम हतोत्साहित होंगे, तब वे हमें उत्साहित करेंगे। सारांश यह है कि वे हमें उत्तमतापूर्वक जीवन-निर्वाह करने में हर तरह से सहायता देंगे। सच्ची मित्रता में उत्तम-से-उत्तम वैद्य की-सी निपुणता और परख होती है, अच्छी-से-अच्छी माता का-सा । धैर्य और कोमलता होती है। ऐसी ही मित्रता करने का प्रयत्न प्रत्येक पुरुष को करना चाहिए। [2009, 11, 13, 16, 18] द्वितीय रेखांकित अंश की व्याख्या – आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जी का कहना है कि जिस तरह कुशल वैद्य नाड़ी देखकर तत्काल रोग का पता लगा लेता है, उसी प्रकार सच्चा मित्र हमारे गुणों और दोषों को परख लेता है। जिस प्रकार अच्छी माता धैर्य के साथ सभी कष्टों को सहन कर मधुर व्यवहार करती है, उसी प्रकार सच्चा मित्र अपने मित्र को बड़े धैर्यपूर्वक कुमार्ग से हटाकर स्नेह के साथ सन्मार्ग पर लगाता है। अत: हमें ऐसा मित्र चुनना चाहिए, जिस पर हमें यह विश्वास हो कि वह हमें कुमार्ग से हटाकर सुमार्ग की। ओर ले जाएगा। (स) 1. प्रस्तुत अवतरण में शुक्ल जी ने अच्छे और विश्वासपात्र मित्र के महत्त्व को प्रकट करते हुए कहा है कि ऐसे मित्र में गुण-दोष की परख होती है, धैर्य एवं स्नेह होता है तथा ऐसा मित्र ही जीवन को सफल बनाने में सहायक होता है। लेखक ने विश्वासपात्र से ही मित्रता करने की प्रेरणा दी है। प्रश्न 4. बाल-मैत्री में जो मग्न करने वाला आनन्द होता
है, जो हृदय को बेधने वाली ईष्र्या और खिन्नता होती है, वह और कहाँ ? कैसी मधुरता और कैसी अनुरक्ति होती है, कैसा अपार विश्वास होता है! हृदय के कैसे-कैसे उद्गार निकलते हैं। वर्तमान कैसा आनन्दमय दिखाई पड़ता है और भविष्य के सम्बन्ध में कैसी लुभाने वाली कल्पनाएँ मन में रहती हैं। कितनी जल्दी बातें लगती हैं और कितनी जल्दी मानना-मनाना होता है। ‘सहपाठी की मित्रता’ इस उक्ति में हृदय के कितने भारी उथल-पुथल का भाव भरा हुआ है। [2009] (स) 1. प्रस्तुत पंक्तियों में लेखक ने बाल-मैत्री एवं बाल-स्वभाव पर प्रकाश डालते हुए इस पर आधारित मित्रता का अत्यधिक स्वाभाविक चित्रण किया है तथा यह स्पष्ट किया है कि बचपन आनन्ददायक होता है। प्रश्न 5. ‘सहपाठी की मित्रता’ इस उक्ति में हृदय के कितने भारी उथल-पुथल का भाव भरा हुआ है। किन्तु जिस प्रकार युवा पुरुष की मित्रता स्कूल के बालक की मित्रता से दृढ़, शान्त और गम्भीर होती है, उसी प्रकार हमारी युवावस्था के मित्र बाल्यावस्था के मित्रों से कई बातों में भिन्न होते हैं। मैं
समझता हूँ कि मित्र चाहते हुए बहुत-से लोग मित्र के आदर्श की कल्पना मन में करते होंगे, पर इस कल्पित आदर्श से तो हमारा काम जीवन की झंझटों में चलता नहीं। द्वितीय रेखांकित अंश की व्याख्या – लेखक का कथन है कि मानव-जीवन अनेकानेक कष्टसंकटों से घिरा होता है। इसमें कल्पित आदर्श के आधार पर मित्रता नहीं की जाती, अपितु यथार्थ के आधार पर मित्र बनाये जाते हैं और बहुत सोच-समझकर बनाये जाते हैं; क्योंकि कल्पित आदर्श के आधार पर बनाये गये मित्र स्थायी नहीं हो सकते और जीवन की संकटापन्न परिस्थितियों में वे हमारे लिए सहायक भी नहीं होते तथा मित्रता की मधुर कल्पनाएँ व्यर्थ सिद्ध होने लगती हैं। (स) 1. प्रस्तुत पंक्तियों में लेखक ने बाल्यावस्था और युवावस्था की मित्रता एवं उस समय के मित्रों के मध्य तुलना की है तथा यह स्पष्ट किया है कि मित्रता में कोरी-मधुर कल्पनाओं से नहीं वरन् व्यावहारिकता से काम लेना चाहिए। प्रश्न 6. सुन्दर प्रतिमा, मनभावनी चाल और स्वच्छन्द प्रकृति ये ही दो-चार बातें देखकर मित्रता की जाती है; पर जीवन-संग्राम में साथ देने वाले मित्रों में इनमें से कुछ अधिक बातें चाहिए। मित्र केवल उसे नहीं कहते, जिसके गुणों की तो हम प्रशंसा करें, पर जिससे हम स्नेह न कर सकें। जिससे अपने छोटे-छोटे काम तो हम निकालते जाएँ, पर भीतर-ही-भीतर
घृणा करते रहें? मित्र सच्चे पथ-प्रदर्शक के समान होना चाहिए, जिस पर हमें पूरा विश्वास कर सकें, भाई के समान होना चाहिए, जिसे हम अपना प्रीति-पात्र बना सकें। हमारे और हमारे मित्र के बीच सच्ची सहानुभूति होनी चाहिए-ऐसी सहानुभूति, जिससे एक के हानि-लाभ को दूसरा अपना हानि-लाभ समझे। [2011, 17] द्वितीय रेखांकित अंश की व्याख्या – शुक्ल जी का कहना है कि मित्र के प्रति हृदय में प्रेम होना चाहिए। सच्चा मित्र विश्वास करने योग्य, सही मार्ग बताने वाला और भाई के समान निष्कपट प्रेम करने वाला होता है। हमारी और हमारे मित्र की आपस में सच्ची सहानुभूति होनी चाहिए जिससे वह हमारे हानिलाभ को अपना हानि-लाभ समझे और हम उसके हानि-लाभ को अपना। तात्पर्य यह है कि सच्ची मित्रता में सच्चा स्नेह होना चाहिए। जिनके हृदय में परस्पर घृणा भरी हो, वे मित्र नहीं हो सकते। (स) 1. शुक्ल जी का कहना है कि सामान्यतया व्यक्ति के बाह्य
व्यक्तित्व को देखकर उससे मित्रता करं ली जाती है, जबकि मित्रता का आधार व्यक्ति का अन्तर्व्यक्तित्व होना चाहिए, जिसकी लोग प्रायः अनदेखी करते हैं। प्रश्न 7. मित्रता के लिए यह आवश्यक नहीं है कि दो मित्र एक ही प्रकार का कार्य करते हों या एक ही रुचि के
हों। इसी प्रकार प्रकृति और आचरण की समानता भी आवश्यक या वांछनीय नहीं है। दो भिन्न प्रकृति के मनुष्यों में बराबर प्रीति और मित्रता रही है। राम धीर और शान्त प्रकृति के थे, लक्ष्मण उग्र और उद्धत स्वभाव के थे, पर दोनों भाइयों में अत्यन्त प्रगाढ़ स्नेह था। उदार तथा उच्चाशय कर्ण और लोभी दुर्योधन के स्वभावों में कुछ विशेष समानता न थी, पर उन दोनों की मित्रता खूब निभी। [2017] (स) 1. प्रस्तुत गद्यांश में लेखक कहना चाहते हैं कि मित्रता के लिए समान स्वभाव एवं रुचि का होना ही आवश्यक नहीं है। इस बात को उन्होंने दृष्टान्तपूर्वक सिद्ध भी किया है कि परस्पर विपरीत स्वभाव वाले भी मित्र हो सकते हैं। प्रश्न 8. यंह कोई बात नहीं कि एक ही स्वभाव और रुचि के लोगों में ही मित्रता हो सकती है। समाज में विभिन्नता देखकर लोग एक-दूसरे की ओर आकर्षित होते हैं। जो गुण हममें नहीं हैं, हम चाहते हैं कि कोई ऐसा मित्र मिले, जिसमें वे गुण हों। चिन्ताशील मनुष्य प्रफुल्लित चित्त का साथ हूँढ़ता है, निर्बल बली को, धीर उत्साही का। उच्च
आकांक्षा वाला चन्द्रगुप्त युक्ति और उपाय के लिए चाणक्य का मुँह ताकता था। नीति-विशारद अकबर मन बहलाने के लिए बीरबल की ओर देखता था। [2012] प्रश्न 9.
मित्र का कर्तव्य इस प्रकार बताया गया है- ‘उच्च और महान् कार्य में इस प्रकार सहायता देना, मन बढ़ाना और साहस दिलाना कि तुम अपनी निज की सामर्थ्य से बाहर काम कर जाओ।’ यह कर्तव्य उसी से पूरा होगा, जो दृढ़-चित्त और सत्य-संकल्प का हो। इससे हमें ऐसे ही मित्रों की खोज में रहना चाहिए, जिनमें हमसे अधिक आत्मबल हो। हमें उनका पल्ला उसी तरह पकड़ना चाहिए, जिस तरह सुग्रीव ने राम का पल्ला पकड़ा था। मित्र हों तो प्रतिष्ठित और शुद्ध हृदय के हों, मृदुल और पुरुषार्थी हों, शिष्ट और सत्यनिष्ठ हों, जिससे हम अपने को उनके
भरोसे पर छोड़ सकें और यह विश्वास कर सकें कि उनसे किसी प्रकार का धोखा न होगा। [2012, 14, 18] द्वितीय रेखांकित अंश की व्याख्या – शुक्ल जी कहते हैं कि मित्र के महान् कार्यों में सहायता देने, उत्साहित करने जैसे कर्तव्यों का निर्वाह वही व्यक्ति कर सकता है, जो स्वयं दृढ़ विचारों और सत्य संकल्पों वाला होता है। अत: मित्र बनाते समय हमें ऐसे व्यक्ति को खोजना चाहिए, जिसमें हमसे बहुत अधिक साहस एवं आत्मबल विद्यमान हो। तृतीय रेखांकित अंश की व्याख्या – शुक्ल जी का कहना है कि हमें अपने मित्र ऐसे बनाने चाहिए जो समाज में आदरणीय और मान्य हों, हृदय से निर्विकार हों, मृदुभाषी एवं सत्यनिष्ठ हों तथा सभ्य एवं परिश्रमी हों। इन गुणों से युक्त मित्र पर ही स्वयं को छोड़ा जा (UPBoardSolutions.com) सकता है, अर्थात् उन पर पूर्ण विश्वास किया जा सकता है। इस प्रकार के मित्रों को ही वास्तविक मित्र माना जा सकता है जिनसे कभी भी किसी भी प्रकार के धोखे या कपट की आशंका नहीं रहेगी। (स) 1. मित्र के कर्तव्य हैं- उचित और श्रेष्ठकार्य में मित्र की सहायता करना, उसके उत्साह और साहस को इस प्रकार बढ़ाना कि वह अपनी सामर्थ्य से अधिक का काम कर सके। 3. मन बढ़ाना (उत्साहित करना)-जाम्बवन्त ने हनुमान का मन इस प्रकार बढ़ाया कि वे समुद्र लाँघकर लंका जाने के लिए तैयार हो गये। पल्ला पकड़ना (सहारा लेना)-सुग्रीव ने बालि से मुक्ति पाने के लिए ही राम का पल्ला पकड़ा था। प्रश्न 10. उनके
लिए फूल-पत्तियों में कोई सौन्दर्य नहीं, झरनों के कल-कल में मधुर संगीत नहीं, अनन्त सागर-तरंगों में गम्भीर रहस्यों का आभास नहीं, उनके भाग्य में सच्चे प्रयत्न और पुरुषार्थ का आनन्द नहीं, उनके भाग्य में सच्ची प्रीति का सुख और कोमल हृदय की शान्ति नहीं। जिनकी आत्मा अपने इन्द्रिय-विषयों में ही लिप्त है; जिनका हृदय नीचाशयों और कुत्सित विचारों से कलुषित है, ऐसे नाशोन्मुख प्राणियों को दिन-दिन अन्धकार में पतित होते देख कौन ऐसा होगा, जो तरस न खाएगा? उसे ऐसे प्राणियों का साथ न करना चाहिए। द्वितीय रेखांकित अंश की व्याख्या – शुक्ल जी का कहना है कि जो लोग केवल इन्द्रिय-सुख की इच्छा करते हैं और उसी की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील हैं, जिनका हृदय गन्दे और घृणित भावों से भरा हुआ है, ऐसे लोग गन्दे और निम्न कोटि के विचारों के कारण सतत विनाश की ओर बढ़ रहे होते हैं और अन्ततः अज्ञान के गर्त में गिरकर नष्ट हो जाते हैं। इस प्रकार के लोगों का दिन-प्रतिदिन पतन होता रहता है, जिसे देखकर सभी को दया ही आती है। ऐसे पतन की ओर अग्रसर लोगों से कदापि मित्रता नहीं करनी चाहिए। (स) 1. लेखक ने बुरी संगति से बचने की प्रेरण देते हुए कहा है कि कुत्सित विचारों वाले व्यक्तियों से कभी मित्रता नहीं करनी चाहिए, क्योंकि ऐसे लोग स्वयं तो पतित होते ही हैं, दूसरों के भी पतन का कारण बनते हैं। प्रश्न 11. कुसंग का
ज्वर सबसे भयानक होता है। यह केवल नीति और सद्वृत्ति का ही नाश नहीं करता, बल्कि बुद्धि का भी क्षय करता है। किसी युवा पुरुष की संगति यदि बुरी होगी तो वह उसके पैरों में बँधी चक्की के समान होगी, जो उसे दिन-दिन अवनति के गड्ढे में गिराती-जाएगी और यदि अच्छी होगी तो सहारा देने वाली बाहु के समान होगी, जो उसे निरन्तर उन्नति की ओर उठाती जाएगी। [2011, 13, 15, 17] द्वितीय रेखांकित अंश की व्याख्या – मानव-जीवन में युवावस्था सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण होती है। कुसंगति किसी युवा मनुष्य की सारी प्रगति को उसी तरह रोक लेती है, जिस तरह पैर में बँधा हुआ भारी पत्थर किसी व्यक्ति को आगे नहीं बढ़ने देता, वरन् प्रायः उसे गिरा देता है। इसी प्रकार कुसंगति में लिप्त मनुष्य का पतन होने लगता है और वह दिन-प्रतिदिन पतन के मार्ग पर अग्रसर होता रहता है। इसके विपरीत अच्छी संगति हमारे लिए एक ऐसी सुदृढ़ (UPBoardSolutions.com) बाँह अर्थात् सहारा होती है जो हमें गिरने नहीं देती, अपितु उन्नति के पथ पर निरन्तर आगे बढ़ाती है और जीवन को शुद्ध, सात्विक तथा उन्नत बनाती है। (स) 1. युवा पुरुष की बुरी संगति उसे अवनति के गड्ढे में प्रतिदिन गिरती जाएगी और
यदि अच्छी होगी तो वह उसे निरन्तर उन्नति की ओर अग्रसर करेगी। प्रश्न 12. बहुत-से लोग ऐसे होते हैं, जिनके घड़ी-भर के साथ से भी बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है; क्योंकि उतने ही बीच में ऐसी-ऐसी बातें कही जाती हैं, जो कानों में न पड़नी चाहिए, चित्त पर ऐसे प्रभाव पड़ते हैं, जिनसे उसकी पवित्रता का नाश होता है। बुराई अटल भाव धारण करके बैठती है। बुरी बातें हमारी धारणा में बहुत दिनों तक टिकती हैं। इस बात को प्राय: सभी लोग जानते हैं कि भद्दे व फूहड़ गीत जितनी जल्दी ध्यान पर चढ़ते हैं, उतनी जल्दी कोई गम्भीर या अच्छी बात नहीं। [2017] द्वितीय रेखांकित अंश की व्याख्या – शुक्ल जी का कहना है कि बुरी आदतें या भावना व्यक्ति के मन-मस्तिष्क में स्थायी रूप से विराजमान रहती हैं और बहुत समय तक स्थिर रूप में जमी रहती हैं। अपनी बात को और अधिक पुष्ट करते हुए लेखक कहते हैं कि इस बात का तो सामान्य लोगों ने भी अनुभव किया होगा कि बेढंगे और अश्लील गीत जितने शीघ्र व्यक्ति के मन-मस्तिष्क में अपनी पैठ (पहुँच) बनाते हैं, उतनी शीघ्र कोई अच्छी या लाभकर बात नहीं। (स) 1. भद्दे व अश्लील गीत जितने शीघ्र याद हो जाते हैं उतनी शीघ्र कोई अच्छी बात याद नहीं होती। इस बात को प्रायः सभी लोग जानते-समझते हैं। प्रश्न
13. जब एक बार मनुष्य अपना पैर कीचड़ में डाल देता है, तब फिर यह नहीं देखता कि वह कहाँ और कैसी जगह पैर रखता है। धीरे-धीरे उन बुरी बातों में अभ्यस्त होते-होते तुम्हारी घृणा कम हो जाएगी। पीछे तुम्हें उनसे चिढ़ न मालूम होगी; क्योंकि तुम यह सोचने लगोगे कि चिढ़ने की बात ही क्या है! तुम्हारा विवेक कुण्ठित हो जाएगा और तुम्हें भले-बुरे की पहचान न रह जाएगी। अंत में होते-होते तुम भी बुराई के भक्त बन जाओगे; अत: हृदय को उज्ज्वल और निष्कलंक रखने का सबसे अच्छा उपाय यही है कि बुरी संगत की छूत से बचो।
[2012, 14, 16] द्वितीय रेखांकित अंश की व्याख्या – शुक्ल जी का कहना है कि कुसंगति में पड़े हुए व्यक्ति का विवेक नष्ट हो जाता है और उसे भले-बुरे की पहचान भी नहीं रह जाती। उसे बुराई ही भलाई दीखने लगती है और वह इतना गिर जाता है कि बुराई की पूजा भक्त की तरह करने लगता है। इसलिए यदि अपने हृदय । और आचरण को निष्कलंक और उज्ज्वल बनाये रखना है तो
बुरी संगति की छूत से बचना चाहिए। व्याकरण एवं रचना-बोध प्रश्न
1. प्रश्न 2. प्रश्न
3. We hope the UP Board Solutions for Class 10 Hindi Chapter 1 मित्रता (गद्य खंड) help you. If you have any query regarding UP Board Solutions for Class 10 Hindi Chapter 1 मित्रता (गद्य खंड), drop a comment below and we will get back to you at the earliest. कुसंग का ज्वर सबसे भयानक होता है इसके लेखक कौन है?'कुसंग का ज्वर सबसे भयानक होता है। ' यह सूक्तिपरक वाक्य आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी द्वारा लिखित उनके निबंध 'मित्रता' शीर्षक से लिया गया है। जिस प्रकार कोई व्यक्ति यदि घातक बुखार से ग्रसित हो जाए तो वह ज्वर उसके शरीर और स्वास्थ्य को नष्ट कर देता है तथा कभी-कभी प्राण भी ले लेता है।
कुसंग के ज्वर को सबसे भयानक क्यों बताया गया है?Answer: कुसंग का ज्वर को सबसे भयानक इसलिए कहा गया है क्योंकि कुसंग एक बीमारी की तरह है जो धीरे धीरे हमें अपनी बुराइयों में ढाल लेता है। कुसंगति हमारे अच्छा सोचने और समझने के मानसिकता को ग्रस्त कर लेता है।
कुसंग का ज्वर का क्या प्रभाव होता है?यह केवल नीति और सद्वृत्ति का ही नाश नहीं करता, बल्कि बुद्धि का भी क्षय करता है । किसी युवा पुरुष की संगति यदि बुरी होगी तो वह उसके पैरों में बंधी चक्की के समान होगी, जो उसे दिन-रात अवनति के गड्ढे में गिराती जाएगी और यदि अच्छी होगी तो सहारा देने वाली बाहु के समान होगी, जो उसे निरंतर उन्नति की ओर उठाती जाएगी ।
कुसंगति किसका नाश करता है?Answer The Followingकुसंग का ज्वर सबसे भयानक होता है । यह केवल नीति और सदाचार का ही नाश नहीं करता, बल्कि बुद्धि का भी क्षय करता है ।
|