Q. पृथ्वी के वायुमंडल को कितने भागों में बांटा गया है? Show
विषयसूची जलमंडल कैसे बनता है?इसे सुनेंरोकेंजलमंडल की उत्पत्ति पृथ्वी का पानी की सामग्री समान आकार के अन्य ज्ञात ग्रह निकायों की तुलना में अपेक्षाकृत अधिक है। यद्यपि पृथ्वी के आंतरिक भाग से जल वाष्प के “आउटगैसिंग” को इस ग्रह पर पानी के स्रोतों में से एक माना जाता है, यह पृथ्वी के जल संसाधनों के अत्यधिक उच्च मात्रा के लिए जिम्मेदार नहीं हो सकता है। जल मंडल को कितने भागों में बांटा गया है?इसे सुनेंरोकेंये तीन हैं – भूमि (स्थलमंडल), वायु (वायुमंडल) तथा जल (जलमंडल); दूसरे शब्दों में यह संकरी पट्टी वह क्षेत्र है जहाँ, स्थलमंडल, वायुमंडल तथा जलमंडल मिलते हैं (देखिए चित्र .) । जलमंडल का रासायनिक नाम क्या है? इसे सुनेंरोकेंजल मंडल का रासायनिक संघटन वर्षा जल के विश्लेषण से पता चला है कि इसमें सिलिका 0.29 भाग प्रति दस लाख, कैल्शियम 0.77 भाग प्रति दस लाख, मैग्नीशियम 0.43 भाग प्रति दस लाख, सोडियम 2.24 भाग प्रति दस लाख, तथा पोटेशियम 0.35 भाग प्रति दस लाख है। पृथ्वी के पानी से गिरे क्षेत्र को क्या कहते हैं? इसे सुनेंरोकेंजलमण्डल से अर्थ जल की उस परत से है जो पृथ्वी की सतह पर महासागरों, झीलों, नदियों, तथा अन्य जलाशयों के रूप में फैली है। पृथ्वी की सतह के कुल क्षेत्रफल के लगभग ७१% भाग पर जल का विस्तार हैं, इसलिए पृथ्वी को जलीय ग्रह भी कहते हैं। समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र पृथ्वी पर सबसे बड़ा पारितंत्र भी है। स्थल मण्डल का दूसरा रासायनिक नाम क्या है?इसे सुनेंरोकेंतो आपने इसका रासायनिक नाम पूछा था जो कि (CaCO3) कैल्सियम कार्बोनेट है। पृथ्वी पर जलमंडल का हिस्सा कितना है?इसे सुनेंरोकें1) पूरी पृथ्वी के लगभग 71 फीसदी पर जलमंडल का विस्तार है. 2) उत्तरी गोलार्द्ध का 60 फीसदी और दक्षिणी गोलार्द्ध का 80 फीसदी भाग महासागरों से ढका हैं. पृथ्वी पर जल मंडल की सृष्टि कैसे हुई? इसे सुनेंरोकेंजल की उत्पत्ति एक मत के अनुसार जल मंडल का पूरा जल उस वायुमंडल से उत्पन्न हुआ जो पृथ्वी के चारों ओर उपस्थित था। दूसरे मत के अनुसार जल मंडल का पूरा जल पृथ्वी के आन्तरिक भाग से बाहर निकला। प्रथम मत के समर्थकों का कहना है कि जब पृथ्वी द्रव अवस्था में थी तो इसके चारों ओर स्थित वायुमंडल में जलवाष्प भी शामिल था। पृथ्वी को जलीय ग्रह क्यों कहते हैं? इसे सुनेंरोकेंजलमण्डल से अर्थ जल की उस परत से है जो पृथ्वी की सतह पर महासागरों, झीलों, नदियों, तथा अन्य जलाशयों के रूप में फैली है। पृथ्वी की सतह के कुल क्षेत्रफल के लगभग ७१% भाग पर जल का विस्तार हैं, इसलिए पृथ्वी को जलीय ग्रह भी कहते हैं। पृथ्वी के पानी से घिरे क्षेत्र को क्या कहते हैं?भूमंडल में जल मंडल कितने प्रतिशत है?इसे सुनेंरोकें1) पूरी पृथ्वी के लगभग 71 फीसदी पर जलमंडल का विस्तार है. 2) उत्तरी गोलार्द्ध का 60 फीसदी और दक्षिणी गोलार्द्ध का 80 फीसदी भाग महासागरों से ढका हैं. 3) जल राशि का मात्र 2.5 फीसदी भाग ही स्वच्छ जल या मीठा जल है. जलमंडल में किसका अध्ययन? इसे सुनेंरोकेंपृथ्वी के धरातल के लगभग 70 फीसदी भाग को घेरे हुई जल राशियों को जलमंडल कहा जाता है। जल मंडल में मुख्य रूप से महासागर शामिल हैं लेकिन तकनीकी रूप से इसमें पृथ्वी की संपूर्ण जलराशि शामिल है जिसमें आंतरिक समुद्र, झील, नदियां और 2 किमी. की गहराई तक पाया जाने वाला भूमिजल शामिल हैं। भूमण्डल के 70.8% भाग पर जल या जलमण्डल और 29.2% भाग पर स्थल है। सम्पूर्ण भूमण्डल का क्षेत्रफल 51.00 करोड़ वर्ग किमी है, जिसके 36.17 करोड़ वर्ग किमी पर जल और 14.89 करोड़ वर्ग किमी पर स्थल का विस्तार पाया जाता है। इस जलमण्डल के अन्तर्गत महासागर (Oceans), सागर (seas), खाड़ियाँ, आदि सम्मिलित किए जाते हैं। महासागरों में प्रमुख हैं-
यह जलराशि इतनी अधिक है कि यदि इसे धरातल पर समतल रूप में फैला दिया जाए तो उसके ऊपर सर्वत्र ही लगभग 4.8 किलोमीटर गहरा सागर लहराने लगेगा। जल के विस्तार में अधिकता के कारण पृथ्वी को जल गोलार्द्ध (Water Hemisphere) और स्थल गोलार्द्ध (Land Hemisphere) में विभाजित किया जाता है। एक उल्लेखनीय तथ्य यह है कि दक्षिणी गोलार्द्ध में 81% जल और 19% स्थल, उत्तरी गोलार्द्ध में 40% जल और 60% स्थल भाग है। महासागर नितल Ocean Floor महासागरों की तली, भूमि के धरातल की भाँति, ऊँची-नीची है। यह जानकर आश्चर्य होगा कि भूमि की ऊँचाई की अपेक्षा महासागरों की गहराई अधिक है जहाँ उच्चतम शिखर एवरेस्ट की ऊँचाई 8,848 मीटर है, वहाँ महासागर की अधिकतम गहराई प्रशान्त महासुगर में मेरियना खाई की 11,022 मीटर है। महासागर और स्थल की औसत गहराई और उंचाई क्रमश: 4,781 मीटर और 866 मीटर है। प्रो. मरे के अनुसार, “3,500 मीटर से अधिक ऊँचा भाग समस्त भूमण्डल का केवल 1 प्रतिशत है, जबकि समुद्रों में 3,500 मीटर से अधिक गहरा भाग है। महासागरीय नितल Oceanic Bottom महासागर के नितल का ढाल सर्वत्र एकसा नहीं है। कहीं यह बहुत तीव्र है तो कहीं बहुत ही मन्द और कहीं यह आकस्मिक है। महासागरों के तलों पर महाद्वीपों की भाँति अनेक द्रोणियाँ, पठार, मैदान और खड्ड (gorge) पाए जाते हैं, किन्तु समुद्री तली पर अपरदन का प्रभाव कम होने से ये स्वरूप स्थिर होते हैं। ढाल के आधार पर समुद्रों के नितलों को मोटे तौर पर निम्न भागों में बाँटा जाता है : 1. महाद्वीपीय मग्नतट Continental Shelf 2. मघद्वीपीय मग्नढाल Continental Slope 3. गंभीर सागरीय मैदान Deep sea Plain 4. महासागरीय गर्त Ocean Deep महाद्वीपीय मग्नतट Continental shelf मग्नतट का अर्थ डूबे हुए तट से होता है, अतः महाद्वीपीय मग्नतट निश्चित ही स्थल के डूबे हुए भाग ही हैं। महाद्वीपों के तट के समीप जो भूमि जलमग्न हो जाती है, वह मग्नतट कहलाती है। दूसरे शब्दों में, यह समुद्र के नितल का अति मन्द टालयुक्त वह भाग है जो महाद्वीपों के चारों ओर फैला हुआ है, अतः यह छिछले एवं प्रायः 200 मीटर तक गहरे होते हैं। मग्नतट की औसत चौड़ाई 48 किलोमीटर है। पश्चिमी आयरलैण्ड में ये तट 80 किलोमीटर चौड़े व साइबेरिया में ये 150 किलोमीटर तक चौड़े हैं। प्रशान्त महासागरीय मग्नतट सबसे कम 16 किलोमीटर, उत्तरी अमरीका के पूर्वी तट पर 96 से 120 किलोमीटर, इण्डोनेशिया में कई सौ किलोमीटर तथा आर्कटिक सागर में 160 से 480 किलोमीटर चौड़े मग्नतट पाए जाते हैं। समस्त महासागरीय नितल के क्षेत्रफल में से 8.2% भाग पर ऐसे तट पाए जाते हैं। अटलाण्टिक महासागर के पूर्ण क्षेत्रफल के 13.3%, प्रशान्त महासागर के 5.7%, तथा हिन्द महासागर के 4.2% भाग पर ये तट पाए जाते हैं। सूर्य प्रकाश और गर्मी के फलस्वरूप यहाँ समुद्री वनस्पति और जीवों की बहुलता रहती है। नदियों द्वारा लायी हुई कॉप मिट्टी भी वहाँ बराबर बिछती रहती है। यह समुद्री जीवजन्तुओं की वृद्धि करने में सहायक होती है। इस प्रकार भोजन (प्लेंकटन) की प्रचुरता, सूर्य का प्रकाश और कम गहरे जल के कारण मग्नतट मछलियों के घर बने हुए हैं। डागर बैंक, ग्राफ बैंक आदि विश्व के मछली पकड़ने के बृहत् क्षेत्र इन्हीं पर स्थित हैं। यहीं पर अनेक प्रकार की सागरीय वनस्पति पौधे तली में विस्तृत हैं। अतः मानव उपयोग की दृष्टि से ये क्षेत्र अत्यन्त उपयोगी हैं। इन तटों की उत्पति तल के उत्थान, धंसाव, लहरों द्वारा अपरदन अथवा नदियों या अन्य साधनों द्वारा जमाव के कारण होती है। महाद्वीपीय मग्नढाल Continental Slope महाद्वीपीय मग्नतट की अन्तिम सीमा से ही मग्नढाल का प्रारम्भ होता है, क्योंकि इसके बाद से ही महासागरों में आकस्मिक रूप से गहराई बढ़ जाती है। कहीं ढाल कम और कहीं अधिक होता है। औसत ढाल का होता है, किन्तु कहीं-कहीं यह 40° तक पहुँच जाता है। इसकी गहराई 200 से 2,000 मीटर तक मानी जाती है, किन्तु चौड़ाई कम है। समस्त महासागरीय क्षेत्रफल के केवल 8.5% भाग पर ही मग्नढाल पाए जाते हैं। अटलाण्टिक महासागर में 12.4%, प्रशान्त महासागर में 7% तथा हिन्द महासागर में 6.5% भाग पर मग्नढालों का विस्तार पाया जाता है। वर्तमान में की गई नवीन खोज के अनुसार महाद्वीपीय मग्नढाल एवं अन्तसागरीय मैदान के बीच कहीं-कहीं आश्चर्यजनक रचनाएँ अर्थात् खड़े ढाल वाली अन्तःसागरीय कन्दराएँ (submarine canyon) मिलती हैं। इन पर विशेष खोज की जा रही है। गम्भीर सागरीय मैदान Deep Sea Plain महाद्वीपीय मग्नढाल के पश्चात् गहरे सागरीय तल का आरम्भ होता है। समुद्र के नितल का अधिकांश भाग इसी से घिरा है। अगाध तल प्रायः ऊँचे-नीचे और ऊबड़-खाबड़ होते हैं। इसी से इनकी गहराई भिन्न-भिन्न स्थानों पर भिन्न-भिन्न पायी जाती है, फिर भी इनका ढाल बहुत क्रमिक होता है अतः इनको धरातल के मैदानों के अनुरूप माना जा सकता है। यह 2,500 मीटर से 6,000 मीटर तक गहरे पाए जाते हैं। समस्त महासागरीय क्षेत्रफल के लगभग 2.5% भाग पर इनका विस्तार पाया जाता है। इस प्रकार के गम्भीर सागरीय मैदान में पंक (ooze) कीचड़, आदि के निक्षेप पाए जाते हैं। यहाँ ज्वालामुखी से सम्बन्धित लाल मिट्टी भी पायी जाती है। इन गम्भीर सागरीय मैदानी भागों के तल से कई श्रेणियाँ व पठार सभी महासागरों में उभार के रूप में पाए जाते हैं। इसी से ऐसे मैदान या बेसिन कई उपभागों में बंट गए हैं। महासागरीय गर्त Ocean Deeps समुद्र के नितल में यत्र-तत्र खाई की भाँति गहरे कई खड्ड मिलते हैं, जिन्हें महासागरीय गर्त कहा जाता है। ये गहरे गर्त घोर अन्धकार और अत्यन्त ठण्डे जल से पूर्ण रहते हैं। इनके किनारे प्रायः तेज ढालू होते हैं, परन्तु क्षेत्रफल में ये बहुत कम हैं। जिन समुद्र तटों के भागों में प्रायः भूकम्प के धक्के आते हैं अथवा ज्वालामुखी का प्रकोप रहता है वहाँ ये बहुतायत से मिलते हैं। प्रशान्त महासागर के तटीय क्षेत्रों में ऐसे कई महासागरीय गर्त हैं। अभी तक 60 गर्तों का पता चल सका है, जिसमें से 32 केवल प्रशान्त महासागर में पाए जाते हैं जिनमें निम्न मुख्य हैं-
अन्ध महासागर का नितल Bottom Relief Of Atlantic Ocean इस महासागर का क्षेत्रफल 8.24 करोड़ वर्ग किलोमीटर है। इसकी औसत गहराई 900 मीटर है, और सर्वाधिक चौड़ाई 5,920 किलोमीटर 35° दक्षिणी अक्षांश पर है। इसका विस्तार S आकृति का है। यह दक्षिण की ओर अधिक चौड़ा तथा उत्तर की ओर संकरा है। इस महासागर की तलहटी अत्यन्त विषम और असमान है। इसके जलमग्न महाद्वीपीय तट कहीं-कहीं अधिक चौड़े हो गए हैं, जैसे- उत्तरी अमरीका और पश्चिमी यूरोप के समीप। इसके नितल की मुख्य विशेषताएँ हैं-
प्रशांत महासागर का नितल Bottom Relief of Pacific Ocean इसका क्षेत्रफल 16.5 करोड़ वर्ग किलोमीटर और औसत गहराई 4,315 मीटर है। इसकी आकृति विशाल एवं त्रिभिजाकर है। यह विषुवत रेखा के निकट सबसे चौड़ा (16,785 किलोमीटर) यह भूतल पर सबसे विशाल एवं सबसे गहरा महासागर है। इस महासागर के नितल की प्रमुख विशेषताएँ निम्नांकित हैं-
हिन्द महासागर का नितल Bottom Relief Indian Ocean इस महासागर का क्षेत्रफल 7.3 करोड़ वर्ग किलोमीटर, औसत गहराई 3,600 मीटर और विस्तार उत्तर में कम, किन्तु दक्षिण में अधिक है। इसके नितल की मुख्य विशेषताएँ निम्न प्रकार हैं-
महासागरीय जल का तापमान Temperature of The Ocean Water सागर जल के तापमान को प्रभावित करने वाले कारक Factors Affecting The Temperature of Ocean Water महासागरों का जल मुख्यतः सूर्यताप से गरम होता है। सामान्यतः खुले समुद्रों और स्थल से घिरे समुद्रों के तापमान वितरण स्वरूप में भिन्नता मिलती है। समुद्र की सतह के तापमान पर निम्नलिखित घटकों का प्रभाव पड़ता है-
उल्लेखनीय है कि-
महासागरों के तापीय कटिबन्ध Thermal Zones of Oceans सागर के तल के तापमान के आधार पर निम्न तीन स्पष्ट क्षेत्र किए जा सकते हैं-
तापमान का वितरण Distribution of Temperature सामुद्रिक तापमान को इस प्रकार समझाया जा सकता है- तापमान का लम्बवत वितरण Vertical Distribution of Temperature सागरों में सर्वाधिक तापमान उसकी सतह पर पाया जाता है। सतह से गहराई की ओर जाने पर तापमान कम होता जाता है क्योंकि ताप का स्रोत सूर्य है। महासागरों में सूर्य की किरणें 183 मीटर की गहराई तक ही जा सकती हैं, अतः इस गहराई तक तापमान में परिवर्तन होता रहता है। सागरीय जल का तापमान सतह से लेकर बहुत गहराई तक परिवर्तनशील रहता है। विषुवत रेखा पर समुद्र की सतह का तापमान 27° सेण्टीग्रेड रहता है, परन्तु 1097 मीटर की गहराई पर 4.4° सेण्टीग्रेड तथा 1829 मीटर की गहराई पर 3.3° सेण्टीग्रेड तथा 3658 मीटर की गहराई 1.6° सेण्टीग्रेड रहता है। इस प्रकार महासागरीय जल के तापमान के लम्बवत् वितरण का विवरण निम्न प्रकार है-
महासागरीय तापमान का क्षैतिज वितरण Horizontal Distribution Temperature महासागरीय जल के तापमान का क्षैतिज वितरण अक्षांशों के आधार पर ही अंकित किया जाता है। क्षैतिज वितरण पर विषुवत रेखा से दूरी का विशेष प्रभाव पड़ता है। विषुवत रेखा से ध्रुवों की ओर बढ़ने पर तापमान घटता जाता है। निम्न अक्षांशों से उच्च अक्षांशों की ओर तापमान घटने का क्रम दोनों गोलाद्धों में पाया जाता है किन्तु दक्षिणी गोलार्द्ध की अपेक्षा उत्तरी गोलार्द्ध में ही अधिक तापमान अंकित किया जाता है। महासागरों की सतह का अधिकतम तापमान उत्तरी गोलार्द्ध में 5° उत्तरी अक्षांश-पर तथा न्यूनतम तापमान 80° अक्षांश उत्तरी गोलार्द्ध में व 75° अक्षांश दक्षिणी गोलार्द्ध में अंकित किया जाता है। तापमान के वितरण को समताप रेखाओं द्वारा आसानी से दिखाया जा सकता है। समताप रेखाओं की रचना पर महाद्वीपों की रूपरेखा, पवनों की दिशा, समुद्री धाराओं के मार्ग, सागर का खुला या बन्द होना आदि का प्रभाव पड़ता है। हिन्द महासागर में 15° सेण्टीग्रेड की समताप रेखा अधिकतम तापमान के स्थानों को घेरती है। समताप रेखाएँ अरब सागर में उत्तर की ओर मुड़ जाती हैं। ये भारतीय प्रायद्वीप के सहारे दक्षिण की ओर मुड़ती हैं। अटलाण्टिक महासागर में गर्म व ठण्डी धाराओं का प्रभाव समताप रेखाओं के वितरण पर विशेषतः पड़ता है। उत्तरी अटलांटिक महासागर में पश्चिम की ओर समताप रेखाएँ एक-दूसरे के बहुत ही निकट स्थित हैं क्योंकि दक्षिण-पश्चिम से गल्फस्ट्रीम गर्म धारा तथा उत्तर-पश्चिम से लैब्राडोर की ठण्डी धारा मिलती है। इस महासागर में तापमान गर्म धाराओं के मिलने के कारण उत्तरी अक्षांशों में भी जल महासागरों से अधिक पाया जाता है, लेकिन फिर भी प्रशान्त महासागर के जल की सतह का तापमान अन्य महासागरों की अपेक्षा अधिक रहता है, उदाहरणार्थ प्रशान्त महासागर का तापमान 19.1° सेण्टीग्रेड रहता है। हिन्द महासागर की सतह का तापमान बंगाल की खाड़ी तथा अरब सागर का तापमान 25° सेण्टीग्रेड पाया जाता है, किन्तु हिन्द महासागर के सीमान्त सागरों का तापमान और भी अधिक पाया जाता है, उदाहरणार्थ लाल सागर तथा फारस की खाड़ी का उच्चतम तापमान क्रमश: 32.3° सेण्टीग्रेड तथा 34° सेण्टीग्रेड अंकित किया जाता है। चारों ओर से घिरे सागरों का उच्चतम तापमान (कैस्पियन सागर व काला सागर) इन सागरों के तापमान से कम होता है। तापमान के क्षैतिज वितरण पर सूर्य का प्रत्यक्ष प्रभाव रहता है। जब सूर्य उत्तरायण होता है उस समय उत्तरी गोलार्द्ध में समताप रेखाएँ अधिक तापमान वाली तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में कम तापमान वाली समताप रेखाएँ होती हैं तथा सूर्य की दक्षिणायन स्थिति होने पर विपरीत स्थिति पाई जाती है। महासागरीय जल का खारापन Salinity Of The Ocean Water महासागरीय जल में नमक की मात्रा जल में प्राय: सभी चीजों को घुला देने का गुण है। नदियों के स्वच्छ जल में सदैव ही कुछ न कुछ मात्रा में लवण पदार्थ घुले हुए होते हैं। नदियाँ जब सागर में प्रवेश करती हैं तो इन पदार्थों को लगातार सागर में पहुंचाती रहती हैं। सागरों में वाष्पीकरण की क्रिया में जल सदा वाष्प बनकर उड़ता रहता है, किन्तु जल में धुले हुए ठोस पदार्थ (लवण) वहीं छूट जाते हैं। इसी कारण सागर घीरे-घीरे अधिक खारे होते जा रहे हैं। अतः “महासागरीय लवणता उस अनुपात को कहते हैं जो समुद्री जल तथा उसमें घुले हुए पदार्थों (लवण) के बीच होता है।” विभिन्न विद्वानों द्वारा महासागर में नमक की मात्रा लगभग 2.7 अरब टन (क्लार्क के अनुसार) से लगाकर 5 अरब टन (मरे के अनुसार) तथा 50 अरब टन (जौली के अनुसार) अनुमानित की गयी है। समुद्री जल में घुले लवण और उनकी मात्रा
विश्व के विभिन्न महासागरीय क्षेत्र में जल का खारापन भिन्न-भिन्न होता है। अयन रेखाओं के पास खारापन 38 से 41% मिलता है। 21° से 40° अक्षांशों के बीच यह 36% जबकि विषुवत् रेखा के निकट यह 345, मिलता है। वन्द सागरों में अधिक तथा खुले सागरों में लवणता कम मिलती है। सागरीय जल के खारेपण का कारण Causes Salinity of Ocean Water
विभिन्न सागरों में जल की लवणता SalinityInDifferentSeas खुले सागरों में जल का खारापन Salinity in Open Seas अयनवृत्तीय सागर- धरातल पर सागर-जल का सबसे अधिक खारापन कर्क और मकर रेखाओं के समीप पाया जाताहैLयहाँ के सागरों में 38% खरापन पाया जाता है। इसका मुख्य कारण यह है कि ये प्रदेश उच्च की मेखलाओं में स्थित हैं, जहाँ आकाश सदा स्वच्छ रहता है और सूर्य बड़ी तेजी से चमकता है, अतः वाष्पीकरण अधिक होता है। इसके विपरीत, वर्षा बहुत कम होती है तथा नदियों की संख्या कम है, अत: इन प्रदेशों के सागर सर्वाधिक खारे हैं। भूमध्य रेखीय सागर- अयन रेखाओं की अपेक्षा भूमध्य रेखा के समीप खरापन कम 35% से 36% मिलता है। यहाँ के सागरीय क्षेत्रों में गर्मी अधिक पड़ती है, लेकिन प्रतिदिन संवाहनिक वर्षा तथा नदियों से प्राप्त जल के कारण लवणता कम हो जाती है। ध्रुवीय सागर- ध्रुवों के समीप खारेपन का अनुपात अत्यन्त कम है। यहाँ खारापन 20% से पाया जाता है, क्योंकि वहाँ वाष्पीकरण कम होता है। हिमखण्डों के पिघलने और अनेक नदियों के इन समुद्रों में गिरने के कारण, स्वच्छ जल की अधिक प्राप्ति इसका मुख्य कारण है। अंशतः भूमि से घिरे सागरों का खारापन Salinity in Partially Enclosed Seas खुले महासागरों की अपेक्षा भ्रंशतः स्थल से घिरे हुए समुद्रों के खारेपन में अधिक भिन्नता पायी जाती है। जैसे- भूमध्य सागर में 37% से 39%, लाल सागर में 37% से 41% और फारस की खाड़ीमें 38% से 40% तक पाया जाता है। इन सागरों में ऊँचे तापक्रम के कारण वाष्पीकरण की अधिकता, वर्षा कम होने और नदियों द्वारा जल की मात्रा कम पहुँचने के कारण खारापन पाया जाता है। इसके विपरीत, काला सागर, (18%) वाल्टिक सागर (2%) और उत्तरी सागर (15%) में खारापन पाया जाता है। तापक्रम की न्यूनता, अधिक वर्षा तथा नदियों द्वारा जल की आपूर्ति अधिक होने से इन सागरों में लवणता की मात्रा कम पायी जाती है। बंद सागरों में खारापन Salinity in Closed Seas भूमि से घिरे हुए जलाशयों और झीलों का खारापन बहुत ही विविध होता है। जिन सागरों में जल का निकास नहीं होता, वे अपेक्षाकृत बहुत खारे होते हैं क्योंकि वाष्पीकरण के कारण जल वाष्प बनकर उड़ता रहता है और नमक के कण वहीं छूट जाते हैं। कैस्पियन सागर के उत्तरी भाग में खारेपन का औसत और दक्षिण में 170% है। विश्व में सबसे अधिक खारापन मृत सागर में 238% का पाया जाता था, किन्तु अब टर्की की वॉन झील का खारापन 330% अंकित किया गया है। इस अतुल खारेपन के कारण मनुष्य भी इसमें नहीं डूबने पाता साल्ट लेक में खारापन 220% है। सागरों एवं महासागरों में समान खारेपन को मिलाकर खींची गई रेखाएं समलवणता रेखाएं कहलाती हैं। महासागर जल की गतियाँ Movements of Ocean Water सागर का जल कभी शान्त नहीं रहता। उसमें सदैव कुछ न कुछ गति विद्यमान रहती है। ऐसा पवनों के चलने, उसमें नदियों द्वारा जल गिराने, पृथ्वी के घूमने तथा सूर्य और चन्द्रमा की गुरुत्वाकर्षण शक्ति के कारण होता है। समुद्री जल की तीन गतियाँ हैं-
लहरें waves सागरीय जल हल्के से आघात के कारण विचलित हो जाता है। पवन के कारण सागरीय जल में गति उत्पन्न होती है तथा वायु के प्रवाह से सागर का जल उसके साथ-साथ आगे बहने लगता है। समुद्री धरातल पर जल के हिलने-डुलने और आगे बढ़ने तथा पीछे हटने की क्रिया को ही तरंग कहा जाता है। लहरों में धारा की भाँति जल कभी एक स्थान को छोड़कर आगे नहीं बढ़ता, इस बात की सत्यता के लिए यदि कोई कार्क या लकड़ी का टुकड़ा वहाँ छोड़ दिया जाए तो वह तरंग के साथ-साथ ऊपरनीचे होता रहेगा, किन्तु कभी भी अपना स्थान छोड़कर आगे नहीं बढ़ेगा। तरंग का ऊपर उठा हुआ भाग शिखर (Crest) और नीचे दबा हुआ भाग द्रोणी (Through) कहलाता है। वायु के वेग के अनुसार ही तरंगों का आकार छोटा-बड़ा होता है। बन्द सागरों की अपेक्षा खुले सागरों में तरंगों की लम्वाई व ऊँचाई अधिक होती है। महासागरों में तरंगों की ऊँचाई प्राय: 1.5 से 3.0 मीटर तक पायी जाती है। भयानक तूफानों के समय इनकी ऊँचाई 15 मीटर तक हो जाती है। महासागरीय धाराएं ocean currents धाराएँ महासागर के जल में उत्पन्न होने वाली वह शक्तिशाली गति है, जो निरन्तर किसी दिशा में नदी की धारा की भाँति बहती है। एफ. जे. मोंकहाऊस के अनुसार, “सागर तल की विशाल जलराशि की एक निश्चित दिशा में होने वाली सामान्य गति को महासागरीय घारा कहते हैं।“ जव धाराएँ सुनिश्चित दिशा में अत्यधिक वेग से चलती हैं तो इन्हें स्ट्रीम (streams) कहा जाता है। कभी-कभी इनका वेग 19 किलोमीटर प्रति घण्टा तक होता है, जबकि अनिश्चित स्वरूप एवं घीमी गति से बहने वाले सागर जल की चौड़ी धारा को प्रवाह (Drift) कहते हैं। धाराओं की उत्पत्ति का कारण Causes of Origin of currents सागर का जल सदा गतिशील रहता है। सन्मार्गी पवनों का प्रवाह, जल के ताप और घनत्व में अन्तर, वर्षा की मात्रा और पृथ्वी गतिशीलता आदि कारक धाराओं को जन्म देने में सहायक होते हैं।
धाराओं के प्रकार Kinds of Currents सागरीय धाराएँ दो प्रकार की होती हैं-
अन्ध महासागर की धाराएँ Currents Atlantic Ocean अन्ध महासागर की धाराओं की मुख्य विशेषता यह है कि विषुवत रेखा के दोनों ओर इन धाराओं का क्रम प्राय: समान है। अन्ध महासागर की प्रमुख धाराएँ निम्नलिखित हैं-
सारगैसो सागर, उत्तरी अटलांटिक महासागर का मध्यवर्ती भाग वृत्ताकार धरा प्रवाह के कारण शांत व् प्रायः स्थिर रहता है। यहाँ कूड़ा-करकट एकत्रित होने पर उस पर सारगोसा नामक घास उगने से ही इसे सारगैसो सागर कहते हैं।
प्रशांत महासागर की धाराएं Currents Pacific Ocean अन्ध महासागर की अपेक्षा प्रशान्त महासागर अधिक विस्तृत है और इसके तटवर्ती प्रदेशों का आकार भी भिन्न है, अतः इसमें धाराओं के क्रम कुछ भिन्न पाए जाते हैं। प्रशान्त महासागर की मुख्य धाराएँ निम्नलिखित हैं-
हिन्द महासागर की धाराएं Currents of The Indian Oceans उत्तरी हिन्द महासागर में चलने वाली धाराएँ मानसून पवनों के साथ अपनी दिशा बदलती हैं। अत: हिन्द महासागर की धाराओं को दो श्रेणियों में विभक्त किया जा सकता है।
हिन्द महासागर की निम्नलिखित धाराएँ हैं-
धाराओं का मानव-जीवन पर प्रभाव Effects Currents on Human Life– जिन सागरीय तटों से होकर जलधाराएँ बहती हैं, वहाँ के निवासियों पर इनका बड़ा भारी प्रभाव पड़ता है। धाराओं का यह प्रभाव कई प्रकार से होता है-
ज्वारभाटा Tides ज्वारभाटा समुद्र जल की एक महत्वपूर्ण गति है, इस गति के माध्यम से सागर में जल-स्तर की मात्रा घटती-बढ़ती रहती है। अतः सागर की इस गति के परिणामस्वरूप जल के स्तर में सदैव परिवर्तन होता रहता है। महासागरीय जल सूर्य और चन्द्रमा की आकर्षण शक्ति से ऊपर उठता है और आगे की ओर बढ़ता है। इस अवस्था को ज्वार कहते हैं। जल के नीचे उतरने अथवा पीछे हटने को भाटा कहा जाता है। ज्वारभाटा के अन्तर्गत सागरीय जल-स्तर के उस परिवर्तन को ही सम्मिलित किया जाता है जो सूर्य और चन्द्रमा की आकर्षण शक्ति द्वारा होते हैं। सूर्य, चन्द्रमा और पृथ्वी की स्थिति ज्वार के समय निम्नवत होती है- महासागरीय जल में सूर्य तथा चन्द्रमा की आकर्षण शक्ति के फलस्वरूप ही ज्वार की उत्पत्ति होती है। चन्द्रमा के ठीक सामने का पृथ्वी का धरातल चन्द्रमा से सबसे नजदीक होता है, जबकि चन्द्रमा के धरातल से पृथ्वी का केन्द्र एवं उसका पृष्ट भाग कहीं अधिक दूर होते हैं। गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव की गणना में यह दूरी विशेष महत्वपूर्ण है। अत: पृथ्वी का वह भाग जो चन्द्रमा के सामने पड़ता है, चन्द्रमा की आकर्षण शक्ति से सर्वाधिक प्रभावित होता है तथा इसके ठीक पीछे वाले भाग सबसे कम प्रभावित होता है। सामने पड़ने वाले भाग का जल आकर्षित होकर ऊपर की ओर उठता है, जिससे सागर में ज्चार आता है। यही स्थिति पृथ्वी के इस भाग के बिल्कुल पीछे वाले भाग में भी होती है। पीछे के भाग में जल के पीछे रहने एवं केन्द्र प्रसारी दल के सम्मिलित प्रभाव से उबर आता है। इस प्रकार एक ही समय में पृथ्वी पर दो ज्वार उत्पन्न होते हैं, एक तो चन्द्रमा के सामने व दूसरा उससे ठीक पीछे के भाग में। चन्द्रमा के सामने व उसके विपरीत भागों के बीच पर दो स्थान ऐसे भी होते हैं जहाँ से जल खिंचकर ज्वार वाले स्थान पर आ जाता है। अतः इन स्थानों पर जल सतह से नीचा रहता है। इसे भाटा कहते हैं। पृथ्वी के परिभ्रमण के कारण प्रत्येक स्थान पर में दो बार ज्वार एवं दो बार भाटा आता है। ज्वार भाटा समय और चन्द्रमा की स्थिति का प्रभाव ज्वार प्रत्येक स्थान पर प्राय: दो बार आता है, लेकिन ज्वार के आने का समय नियमित रूप से एक ही नहीं रहता है। इसका मुख्य कारण यह है कि पृथ्वी 24 घण्टे में अपनी भी अपनी धुरी पर घूमते हुए पृथ्वी का चक्कर लगाता है अतः चन्द्रमा अगले एक दिन में अपने निश्चित ज्वार केन्द्र से कुछ आगे बढ़ जाता है। इस कारण ज्वार केन्द्र को चन्द्रमा के इस नवीन केन्द्र के ठीक नीचे तक या चन्द्रमा के सामने पहुँचने में 52 मिनट का समय अधिक लगता है। इस प्रकार प्रति अगले दिन ज्वार केन्द्र को चन्द्रमा के सामने आने में कल 24 घण्टे 52 मिनट लगते हैं। इसी कारण अगला ज्वार ठीक 12 घण्ट वाद न आकर 12 घण्टे 26 मिनट बाद दोनों ओर आता है। ज्वर भाटा के प्रकार Types of Tides– ज्वारभाटा मुख्य रूप से निम्नलिखित प्रकार के होते हैं-
ज्वार-भाटा और मानव जीवन Tides and Human life- ज्वारभाटा मानव जीवन को निम्नलिखित प्रकार से प्रभावित करता है-
जल मंडल कितने प्रकार के होते हैं?पृथ्वी पर उपस्थित सभी प्रकार का जल जलमंडल में शामिल है। इसमें जल के तीनों रूप (ठोस, द्रव तथा गैस) शामिल हैं। जल के ठोस रूप में शामिल हैं स्थलीय एवं समुद्री क्षेत्र में मौजूद बर्फ, हिमनद एवं आइसबर्ग।
भूमंडल के कितने प्रतिशत भाग पर जल है?ये तो आप जानते ही हैं कि पृथ्वी का 71 प्रतिशत हिस्सा पानी से ढका हुआ है. 1.6 प्रतिशत पानी ज़मीन के नीचे है और 0.001 प्रतिशत वाष्प और बादलों के रूप में है. पृथ्वी की सतह पर जो पानी है उसमें से 97 प्रतिशत सागरों और महासागरों में है जो नमकीन है और पीने के काम नहीं आ सकता.
जल मंडल को क्या कहते हैं?जलमण्डल से अर्थ जल की उस परत से है जो पृथ्वी की सतह पर महासागरों, झीलों, नदियों, तथा अन्य जलाशयों के रूप में फैली है। पृथ्वी की सतह के कुल क्षेत्रफल के लगभग ७१% भाग पर जल का विस्तार हैं, इसलिए पृथ्वी को जलीय ग्रह भी कहते हैं।
जलमण्डल में किसका अध्ययन होता है?जल मंडल में मुख्य रूप से महासागर शामिल हैं लेकिन तकनीकी रूप से इसमें पृथ्वी की संपूर्ण जलराशि शामिल है जिसमें आंतरिक समुद्र, झील, नदियां और 2 किमी. की गहराई तक पाया जाने वाला भूमिजल शामिल हैं। महासागरों की औसत गहराई 4 किमी.
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