हिंदी आलोचना का इतिहास Show
आधुनिक काल के पूर्व की आलोचना:-आधुनिक काल के पूर्व आदिकाल एवं भक्तिकाल हिंदी साहित्य के प्रारंभिक दो काल रहे हैं| परंतु इस काल में आलोचना का अधिक विकास नहीं हो पाया|
रीतिकाल में आचार्य कवियों ने प्राचीन संस्कृत काव्यशास्त्रों से प्रेरणा लेकर विभिन्न लक्षण ग्रंथों की रचना की है| ‘विश्वनाथ त्रिपाठी’ का मानना है कि “हिंदी आलोचना का विकास रीतिकाल के थोड़ा पहले शुरू होता है|” आगे चलकर विश्वनाथ त्रिपाठी यह भी कहते हैं कि “रीतिकाल में हिंदी का जो काव्यशास्त्र रचा गया वह संस्कृत काव्यशास्त्र के संप्रदायों की नकल है|” कहा जाता है कि “हिततरीगरव” के लेखक “कृपाराम” हिंदी के सर्वप्रथम काव्य शास्त्री थे उन्होंने 16वीं शताब्दी में ही थोड़ा बहुत रास निरूपण किया था| लेकिन हिंदी में काव्य रिति का सम्यक समावेश पहले-पहल ‘आचार्य केशव’ ने ही किया| रीतिकाल में रीतिबद्ध आचार्यों ने जैसे केशवदास,चिंतामणि,कुलपति मिश्र आदि ने लक्षण ग्रंथों की रचना की| डॉ रामचंद्र तिवारी यह कहते हैं कि- “रीतिकाल में व्यवहारिक आलोचना का रूप संस्कृत के सुत्र शैली के रूप में प्रचलित रहा वह भी पध रूप में जैसे बिहारी की रचना-
इसी प्रकार इस काल में कवियों की तुलना भी की गई जैसे-
आधुनिक युग की आलोचना:-भारतेंदु युग:- हिंदी साहित्य का आधुनिक काल कई खंडों में विभाजित है| जिसमें पहला खंड ‘भारतेंदु युग’ के नाम से जाना जाता है|भारतेंदु युग में गद्य का विकास हो जाता है|जिसके कारण आलोचना के वास्तविक स्वरूप की शुरुआत होती है।इस युग में कई आलोचक महत्वपूर्ण रहे जैसे-भारतेंदु हरिश्चंद्र,बालकृष्ण भट्ट,बद्रीनारायण चौधरी(प्रेमघन),आदि|इस युग में सैद्धांतिक समीक्षा की
शुरुआत होती है और व्यवहारिक समीक्षा पत्र-पत्रिकाओं से आगे बढ़ती है|इस काल के विषय में विश्वनाथ त्रिपाठी का मानना है कि पश्चिम के प्रभाव गध के विकास और युगबोध के कारण पश्चिमी आलोचना का प्रभाव तो दिखाई देता है,किंतु इस काल में विकसित होने वाली आलोचना उन विधाओं में से है,जो पश्चिमी साहित्य की नकल नहीं है, बल्कि अपने साहित्य को समझने बुझने और उसकी उपयोगिता पर विचार करने की आवश्यकता के कारण विकसित हुई| द्विवेदी युग:-
हिंदी साहित्य का दूसरा चरण द्विवेदी युग के नाम से जाना जाता है| इस काल में आलोचना की नई पद्धतियों के साथ-साथ व्यवहारिकता का भी विकास होता है| विश्वनाथ त्रिपाठी का मानना है कि ‘भारतेंदु युग के साहित्य पर लेखकों के सहृदयता और जीवंतता की छाप है, तो द्विवेदी युग के साहित्य पर कर्तव्य परायणता उपयोगिता की|’ द्विवेदी जी साहित्य को उपयोगिता की कसौटी पर आंकते थे और उसे ज्ञान राशि का संचित कोष मानते थे| उनका प्रभाव प्रत्येक साहित्यांग पर पड़ा| वे स्वयं एक सर्वमान्य आलोचक थे| आलोचक ‘निर्मला जैन’ का यह
मानना है कि “द्विवेदी युग के लेखक एवं आलोचक प्राचीन भारत के ज्ञान-विज्ञान की खोज करना चाहते थे और पश्चिम के स्वरूप को समझ कर अपने देशवासियों को इस ज्ञान से परिचित कराना चाहते थे|” महावीर प्रसाद द्विवेदी:- यह इस युग के प्रमुख आलोचक हैं और द्विवेदी युग नाम भी इन्हीं के नाम पर पड़ा है| इन्होंने “सरस्वती पत्रिका” में कवि “कर्तव्य नामक” निबंध में कवि कर्तव्य को बताया| इसी प्रकार द्विवेदी जी रितिकालीन नायिका भेद एवं लक्षण ग्रंथों की
आलोचना करते हैं, तथा नैतिकता एवं मर्यादावादी दृष्टिकोण का समर्थन करते हैं| द्विवेदी जी हिंदी भाषा स्थापित करते हैं और इसके साथ अपने अनुवाद कार्य द्वारा संस्कृत, बंगला, मराठी और उर्दू साहित्य की विभिन्न महत्वपूर्ण सामग्री पाठक तक पहुंचाते हैं| इसी प्रकार द्विवेदी जी कविता के रूप संबंधी विषय पर भी अपने विचार प्रकट करते हैं| जिस प्रकार निराला हिंदी में मुक्त छंद के समर्थक थे, उसी प्रकार द्विवेदी जी भी कविताओं को किसी विशेष छंद में बांधने के समर्थक नहीं थे| वह खुद कहते हैं “पध के नियम कवि के लिए
बेड़ियों के समान है|……….| कवि का काम है कि वह अपने मनोभावों को स्वाधीनता पूर्वक प्रकट करें|” द्विवेदी जी कविता के भाषा को सरल रूप में प्रस्तुत करने पर बल देते हैं| वह अलंकारिक भाषा को अधिक महत्व नहीं देते| इसी प्रकार द्विवेदी जी युगबोध एवं नवीनता के पोषक अचार्य हैं| वह हिंदी के प्रथम लोकवादी अचार्य हैं| वह परंपरा की शक्ति एवं सीमा को समझ कर उसके विकास में योगदान की शक्ति रखते हैं| इसी प्रकार द्विवेदी जी प्रबंध और मुक्तक में से किसी को काव्य में अधिक श्रेष्ठ नहीं बताते, बल्कि युगबोध के अनुसार ही
इनके प्रयोग पर बल दिया| किंतु इतना अवश्य है कि थोड़े रूप में ही सही व प्रबंध काव्य के समर्थक थे| मिश्र बंधु:- द्विवेदी युग में प्रसिद्ध आलोचक मिश्र बंधु भी हैं इस श्रेणी में तीन आलोचक हैं गणेश बिहारी मिश्र, श्याम बिहारी मिश्र और सुकदेव बिहारी मिश्र| उन्होंने “हिंदी नवरत्न” नामक समालोचनात्मक ग्रंथ लिखा| जिसमें हिंदी के प्राचीन
एवं आधुनिक साहित्य में से चुने हुए कवियों की समीक्षा की गई| नवरत्न में नौ कवि हैं= (गोस्वामी तुलसीदास, सूरदास, देव, बिहारी, भूषण और मतिराम, केशव, दास, कबीर दास, चंदबरदाई, हरिश्चंद्र) श्यामसुंदर दास इनका नाम द्विवेदी युग में एक प्रमुख आलोचक के तौर पर लिया जाता है|
इन्होंने भाषा विज्ञान, हिंदी भाषा और साहित्य का इतिहास और साहित्य की आलोचना तीनों क्षेत्रों में योगदान दिया| इन्होंने काशी हिंदू विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग में अनुसंधान परक आलोचना में सबसे अधिक योगदान दिया| शुक्ल युग:- शुक्ल जी का काल हिंदी साहित्य में विशुद्ध आलोचना का काल माना जाता है| यह वह काल है, जिसे गद्य साहित्य में तृतीय स्थान काल भी कहते हैं| इस काल के प्रमुख आलोचक आचार्य रामचंद्र शुक्ल हैं, इनके अलावा कृष्ण शंकर शुक्ल, विश्वनाथ प्रताप मिश्र, गुलाब राय
प्रमुख हैं| आचार्य रामचंद्र शुक्ल:-
शुक्ल जी की सैद्धांतिक आलोचना:-
शुक्ला जी के व्यवहारिक आलोचना के स्वरूप को निम्नलिखित आधार पर बेहतर समझा जा सकता है- शुक्लोत्तर आलोचना:-शुुक्ल जी के बाद का काल हिंदी आलोचना में शुक्लोत्तर आलोचना काल है| इस काल में नई आलोचना पद्धति का विकास होता है| आचार्य शुक्ल हिंदी आलोचना में वीरगाथा काल से लेकर छायावादी युग तक के साहित्य का विवेचन करते हैं|
शुक्ला जी ने अपनी समीक्षा पद्धति में भक्ति काव्य केंद्र में रखा और लोकमंगल, मर्यादावाद, रस आदि सिद्धांतों के सहारे विभिन्न काल खंडों का व्यवहारिक समीक्षा किया| शुक्ल जी भक्ति आंदोलन के उदय होने के क्रम में परिस्थितिवादी तथा प्रत्यक्षवादी दृष्टिकोण को केंद्र में रखते हैं| जिसका खंडन बाद में चलकर शुक्लोत्तर आलोचना में द्विवेदी जी करते हैं| इसी प्रकार लोकमंगलवादी दृष्टि तथा प्रबंध को केंद्र में रखने के कारण आचार्य शुक्ल, कबीर को खारिज कर देते हैं| जबकि आचार्य द्विवेदी ऐतिहासिक दृष्टि तथा संस्कृति
को महत्व देने के कारण कबीर को एक प्रगतिशील कवि के रूप में स्थापित करते हैं| शुुक्ल जी रितिकालीन ग्रंथों के सामाजिक दृष्टि से महत्व ना होने के कारण उन्हें साहित्य के प्रतिमान पर अधिक महत्व नहीं देते| जबकि इसी काल खंड में द्विवेदी जी रितिकालीन ग्रंथों को भारतीय संस्कृति तथा काव्यशास्त्र के व्यापक परिप्रेक्ष्य से जोड़कर उनकी महत्ता को स्थापित करते हैं| स्वातंत्र्योत्तर समीक्षा:-आजादी के बाद हिंदी आलोचना में नई प्रवृत्तियों तथा नए आयामों का विकास होता है|
स्वतंत्रता के बाद विभिन्न आलोचना पद्धतियों को देखा जा सकता है, जैसे- मार्क्सवादी, नई समीक्षा, समाजशास्त्रीय आलोचना, शैली विज्ञान तथा संरचनावाद| संरचनावाद:-इसका मूल जिनेवा के भाषा विज्ञान के प्रोफेसर ‘फर्ननाडी सस्युर’ का भाषा सिद्धांत है| इस सिद्धांत के अनुसार भाषा के दो
रूप माने जाते हैं- १.अंतरवैयक्तिक, २.वैयक्तिक| इसके सहारे आगे चलकर “रोलाबार्थ” ने संरचनावाद सिद्धांत को इसी भाषा विज्ञान के सहारे स्थापित किया| इसके अनुसार संरचनावाद की यह मान्यता है कि रचना ध्वनि, बिंब, प्रतीक आदि का एक गूंज है| समकालीन आलोचना:-हिंदी आलोचना में लगभग 80 के बाद की आलोचना, समकालीन आलोचना के नाम से जानी जाती है| इसके आधार पर हिंदी आलोचना की वर्तमान परिस्थिति को देखा जा सकता है| आधुनिक हिंदी आलोचना की पहली कृति के लेखक का नाम क्या है?हिंदी का प्रथम आलोचना ग्रंथ भारतेंदु हरिश्चन्द्र ने नाटक लिखा है।
हिंदी में आधुनिक आलोचना का प्रारंभ कब से माना जाता है?हिंदी आलोचना की शुरुआत १९वीं सदी के उत्तरार्ध में भारतेन्दु युग से ही मानी जाती है।
हिंदी आलोचना का विकास किसकी कृति है?आधुनिक गद्य साहित्य के साथ ही हिन्दी आलोचना का उदय भी भारतेन्दु युग में हुआ | विश्वनाथ त्रिपाठी ने संकेत किया है कि “हिंदी आलोचना पाश्चात्य की नकल पर नहीं, बल्कि अपने साहित्य को समझने-बूझने और उसकी उपादेयता पर विचार करने की आवश्यता के कारण जन्मी और विकसित हुई।” हिन्दी आलोचना भी संस्कृत काव्यशास्त्र की आधार-भूमि से ...
हिंदी की प्रथम आलोचना कौन सी है?1 हिन्दी आलोचना की पहली पुस्तक कौनसी है? हिन्दी कालिदास की आलोचना । आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अपने हिन्दी साहित्य के इतिहास मे कितने ग्रन्थों का उल्लेख किया है?
|