छत्तीसगढ़ की प्रथम कहानी कौन सी है? - chhatteesagadh kee pratham kahaanee kaun see hai?

छत्तीसगढ़ के साहित्यकार एवं उनकी रचनाएँ

छत्तीसगढ़ की प्रथम कहानी कौन सी है? - chhatteesagadh kee pratham kahaanee kaun see hai?

रतनपुर के गोपाल मिश्र हिन्दी काव्य परम्परा की दृष्टि से छत्तीसगढ़ के वाल्मिकी हैं।
वर्ष 1885 में प्रथम छत्तीसगढ़ी व्याकरण की रचना हीरालाल काव्योपाध्याय द्वारा की गई थी, जिसका सन् 1890 में विश्व प्रसिद्ध व्याकरणाचार्य सर जार्ज ग्रियर्सन ने अंग्रेजी में अनुवाद कर छत्तीसगढ़ी और अंगरेजी भाषा में संयुक्त रूप से छपवाया था।

छत्तीसगढ़ी की प्रथम समीक्षात्मक रचना डॉ॰ विनय कुमार पाठक की "छत्तीसगढ़ी साहित्य अऊ साहित्यकार" है।

  • पं. सुन्दरलाल शर्मा ने सर्वप्रथम छत्तीसगढ़ी में प्रबन्ध काव्य लिखने की परम्परा विकसित की। 
  • छत्तीसगढ़ी में गद्य लेखन की परम्परा का शुभारम्भ पं॰ लोचन प्रसाद पांडेय ने किया। 
  • प्रथम छत्तीसगढ़ी उपन्यास "हीरु के कहिनी" तथा "मोंगरा" को मानी जाती है। इसके रचयिता क्रमशः बंशीधर पांडेय तथा पं. शिवशंकर शुक्ल हैं। 
  • प्रथम छत्तीसगढ़ी कहानी "सुरही गइया" है, इसके कहानीकार पं. सीताराम मिश्र हैं। 
  • प्रथम छत्तीसगढ़ी प्रबन्ध कव्य ग्रन्थ छत्तीसगढ़ दानलीला है, इसके रचनाकार पं. सुन्दरलाल शर्मा हैं। 
  • प्रथम छत्तीसगढ़ी व्याकरण सन् 1890 में काव्योपाध्याय हीरालाल ने सृजनित की थी। 
  • छत्तीसगढ़ी में नाटक की शुरुआत पं. लोचन प्रसाद पांडेय के कलिकाल से मानी जाती है। 
  • छत्तीसगढ़ के प्रथम व्यंगकार शरद कोठारी है। 
  • गजानंद माधव 'मुक्तिबोध' को छत्तीसगढ़ का नीलकंठ कहा जाता है।
  • डॉ. निरुपमा शर्मा जी को छत्तीसगढ़ की प्रथम महिला साहित्यकार माना जाता हैं। छत्तीसगढ़ी और हिन्दी, दोनों में लिखती हैं। उनका छत्तीसगढ़ी कविता संग्रह है - 'पतरेंगी'। 'बूंदो का सागर' उनकी हिन्दी कविताओं का संकलन है।

छत्तीसगढ़ के प्रमुख साहित्यकार एवं उनकी रचनाएँ इस प्रकार हैं:

साहित्यकार के नामप्रमुख रचनाएँ
गोपाल मिश्र खूब तमाशा, जैमिनी अश्वमेघ, सुदामा चरित, भक्ति चिंताणि, राम प्रताप
माखन मिश्र छंद विलास नामक पिंगल ग्रन्थ
रेवाराम बाबू रामायण दीपिका, ब्राह्मण स्रोत, गीता माधव महाकाव्य, गंगा लहरी, रामाश्वमेघ, विक्रम विलास, रत्न परीक्षा, दोहाबली, माता के भजन, रत्नपुर का इतिहास
प्रहलाद दुबे जय चंद्रिका
लक्ष्मण कवि भोंसला वंश प्रशस्ति
दयाशंकर शुक्ल छत्तीसगढ़ी लोक साहित्य का अध्ययन
पं. शिवदत्त शास्त्री इतिहास समुच्चय
लोचन प्रसाद पांडेय प्रथम नाटक: कलिकाल
मृगी दुःख मोचन, कौशल प्रशस्ति रत्नावली
1920 में छत्तीसगढ़ गौरव प्रचार मंडली की स्थापना की
पं. सुन्दरलाल  शर्मा छत्तीसगढ़ी दान लीला, छत्तीसगढ़ी रामलीला, सतनामी भजनमाला, प्रताप पदावली, करुणा-पचीसी
कोदूराम दलित सियानी गोठ, हमारा देश, प्रकृतिवर्धन, कनवा समधि, दू मितान
माधव राव सप्रे रामचरित्र, एकनाथ चरित्र,  टोकरी भर मिट्टी
बलदेव प्रसाद मिश्र छत्तीसगढ़ परिचय
पं.केदार नाथ ठाकुर बस्तर भूषण
पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी कहानी: झलमला, पंचपात्र, मंजरी
काव्य: अश्रुदल, शत दल
उपन्यास: भोला, कथाचक्र, वे दिन
पुरुषोत्तम अनासक्त स्तह से ऊपर, भोंदू पुराण, श्रीमती जी की पिचकारी
हरि ठाकुर नये स्वर, लोहे का नगर
गुलशेर अहमद खाँ शानी काला जल, एक लड़की की डायरी, साँप और सीढ़ियाँ, फूल तोड़ना मना है, सब एक जगह, एक शहर में सपने बिकते हैं, कालाजल
अब्दुल लतीफ घोंघी तिकोने चेहरे, उड़ते उल्लू के पंख, तीसरे बंदर की कथा, संकटकाल
डॉ॰धनंजय वर्मा अंधेर नगरी, अस्वाद के धरातल निराला काव्य और व्यक्तिव
त्रिभुवन पांडे भगवान विष्णु की भारत यात्रा, झूठ जैसा सच
श्याम लाल चतुर्वेदी राम वनवास (छत्तीसगढ़ी कृति), पर्राभर लाई (काव्य संकलन)
श्री विनोद कुमार शुक्ल उपन्यास-1.नौकर की कमीज, 2.दीवाल में एक खिड़की रहती थी,3. खिलेगा तो देखेंगे.4.हरी घास की छप्पर वाली झोपड़ी और बौना पहाड़, 5.यासि रासा त,

कविता संग्रह- लगभग जय हिन्द, वह आदमी चला गया नया गरम कोट पहिनकर विचार की तरह,

डॉ॰ पालेश्वर शर्मा प्रबंध फटल, सुसक झन कुरदी सुरता ले, तिरिया जनम झनि दे, छत्तीसगढ़ परिदर्शन, नमोस्तुते महामाये, सांसो की दस्तक
गजानंद माधव 'मुक्तिबोध' कहानी: सतह से उठता आदमी, काठ का सपना
कविता: चांद का मुख टेढ़ा, अंधेरे में, ब्रम्हराक्षस, भूरी-भूरी खाक, साहित्यिक डायरी

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प्रकाशन- सन 2000

1926 में प्रकाशित हीरू के कहिनी पांडेय बंशीधर शर्मा द्वारा रचित छत्तीसगढ़ी का प्रथम उपन्यास है। पांडेय बंशीधर शर्मा बालपुर के प्रख्यात पांडेय परिवार से संबंध रखते हैं। स्वर्गीय लोचन प्रसाद पांडेय उनके अग्रज और स्वर्गीय मुकुटधर पांडेय उनके अनुज थे। सन 1892 से सन 1971 तक की उन्यासी वर्षों की अपनी जीवन यात्रा में पांडेय बंशीधर शर्मा ने तीन कृतियों की रचना की। उनकी अन्य दो कृतियां गजेंद्र मोक्ष (उड़िया भाषा में भागवत कथा पर आधारित गेय काव्य) एवं विश्वास का फल (अप्रकाशित हिंदी नाटक) हैं। मात्रा की दृष्टि से उनका लेखन बहुत कम है पर महत्व की दृष्टि से ऐसा नहीं है। पांडेय जी की रचनाएं विलक्षण रूप से मौलिक हैं।बतौर साहित्यकार ही नहीं बतौर साहित्य प्रेमी भी पांडेय बंशीधर शर्मा ने हिंदी साहित्य की बड़ी सेवा की है। मुरली, मुकुट और लोचन की तिकड़ी को पारिवारिक दायित्वों से पूर्णतया मुक्त रखकर साहित्य सेवा में लगने की प्रेरणा देने का महान दायित्व बंशीधर जी ने ही निभाया। ऐसा करके शायद उन्होंने अपनी साहित्यिक प्रतिभा के साथ अन्याय ही किया।
हीरु के कहिनी छत्तीसगढ़ी भाषा का प्रथम उपन्यास है। इसका लघु आकार समालोचकों द्वारा इसे कहानी की श्रेणी में रख लिए जाने का मूल कारण रहा है। आकार को कहानी एवं उपन्यास में अंतर करने की कसौटी मानने की यह प्रवृत्ति कुछ अंग्रेजी आलोचकों में भी रही है। शरत बाबू की राम की सुमति व बड़ी दीदी प्रेमचंद की बेटों वाली विधवा, सोहाग का शव, डामुल का कैदी और फातिहा तथा जैनेंद्र की स्पर्धा एवं फांसी आकार में बहुत बड़ी हैं फिर भी निर्विवाद रुप से कहानी के रूप में स्वीकारी जाती हैं।उपेंद्रनाथ अश्क ने कहानी की कसौटी लंबाई को नहीं अपितु कथानक के गठन और लक्ष्य की ऋजुता को माना है।
हीरु के कहिनी का कथानक हीरु की कष्टपूर्ण और दुखमय बाल्यावस्था से उसके सफल और प्रतिष्ठा पूर्ण यौवन तक फैला हुआ है। उपन्यास बहुरंगी ग्रामीण जीवन की समग्रता को समेटे है। असहायता का अभिशाप भोगती हीरू की माता, सौतेलेपन की सारी विशेषताओं को स्वयं में समेटे रूढ़ पारंपरिक चिंतन युक्त हीरू का पिता, निस्संतानता का अभिशाप भोगते प्रेम के भूखे सरल ह्रदय सुबरन दंपत्ति, प्रतिभा के पारखी मास्टर जी एवं अनुभवहीन नवयुवक राजा जिसकी सदिच्छा ही जिसकी शक्ति है, पात्र कुछ ऐसे चुने गए हैं कि तत्कालीन ग्रामीण समाज के प्रत्येक वर्ग को प्रतिनिधित्व मिल जाता है। धनी- निर्धन, शिक्षित- अशिक्षित परंपरावादी और प्रगतिशील सभी प्रकार के पात्र उपन्यास में मौजूद हैं। उपन्यास के नायक हीरु का चरित्र छत्तीसगढ़ अंचल के निवासियों का प्रतिनिधि चरित्र है। वह सारे लोग जिन्हें निर्धनता और उससे जुड़ी हुई बुराइयों की विरासत मिली है लेकिन जो फौलादी इरादा और नेक नीयत रखते हैं और क्षमाशील, दयालु सरल ह्रदय और करुणावान हैं हीरु को अपने बहुत आसपास पाते हैं। वह समाज और व्यवस्था में परिवर्तन लाने की अपनी क्षमता के दर्शन हीरु के चरित्र के माध्यम से कर पाते हैं।
उपन्यास में कई धाराएं साथ साथ चलती हैं। प्रेम और घृणा के मानवीय संबंधों की धारा, पारंपरिक चिंतन रखने वाले गुरुजनों और आधुनिकता को तार्किक स्वीकृति देने वालों के मध्य संघर्षों की प्रस्तुति की धारा समकालीन ब्रिटिश भारत में प्रजा की दुर्दशा और राजा प्रजा के तात्कालिक एवं सार्वजनीन संबंधों की अभिव्यक्ति की धारा। यह सारी धाराएं और कथा तंतु आपस में इस तरह घुले-मिले और संग्रथित हैं कि ग्रामीण जीवन का यथार्थ स्वरुप सामने आ जाता है। किंतु यह लेखक का यथार्थ है किसी इतिहासवेत्ता का नहीं। यही कारण है यह पाठक को अनेक तलों पर स्पंदित, आंदोलित और शिक्षित करता है। प्रेमचंद ने कहानी को एक मनोभाव या जीवन के एक अंग को प्रदर्शित करने वाली रचना माना है जबकि उन्होंने उपन्यास को वृहत एवं संपूर्ण मानव जीवन का प्रस्तोता कहा है। इस कसौटी का प्रयोग करने पर हीरू के कहिनी को उपन्यास या कहानी मानने से संबंधित सारे विवाद समाप्त हो जाते हैं। यह निःसंदेह एक उपन्यास है- एक श्रेष्ठ उपन्यास। हीरू के कहिनी छत्तीसगढ़ी साहित्य के इतिहास में एक मील का पत्थर है। पांडेय बंशीधर शर्मा के अनुज पंडित मुकुटधर पांडेय ने अनेक बार उल्लेख किया है कि बंशीधर जी भारतेंदु हरिश्चंद्र के स्वतंत्रता के आदर्श से प्रभावित थे और हीरू के कहिनी की रचना उन्होंने इसके प्रकाशन के बहुत पहले ही कर ली थी। इस प्रकार हीरू के कहिनी न केवल छत्तीसगढ़ी का प्रथम उपन्यास है बल्कि छत्तीसगढ़ी की प्रारंभिक गद्य रचनाओं में भी शामिल है।
हीरू के कहिनी उपन्यास अनेक उप खंडों में विभक्त है। प्रत्येक खंड को एक शीर्षक दिया गया है। सारे के सारे शीर्षक लोकोक्तियों के रूप में हैं। ये इतने उपयुक्त और सम्यक हैं कि उस उपखंड के सार को स्वयं में समेटे हुए हैं। लगता है उपन्यास पढ़ने के अनभ्यस्त तत्कालीन पाठक का ध्यान आकर्षित करने और उपन्यास के मूल उद्देश्य को उस तक पहुंचाने के लिए लेखक ने यह युक्ति अपनाई है।
भाषागत कारणों से भी हीरू के कहिनी का ऐतिहासिक महत्व है। उड़ीसा से जुड़े इस पूर्वांचल में आज से करीब 72 वर्ष पूर्व छत्तीसगढ़ी भाषा के स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करने के लिए यह कृति बहुत महत्वपूर्ण है। हीरू के कहिनी की एक मुख्य विशेषता पात्रानुकूल भाषा का प्रयोग है। छत्तीसगढ़ी भाषा के मानक स्वरूप के स्थिरीकरण की प्रक्रिया में इतर भाषा के प्रभावों को सर्वथा अस्वीकृत करना न तो संभव है और न ही उचित क्योंकि प्रत्येक जीवित भाषा इसी प्रकार विकसित होती रहती है।
अंग्रेजों द्वारा किया जा रहा शोषण, आम जनता में व्याप्त असंतोष, जन जागरण के प्रयास और स्वाधीनता आंदोलन की ऊहापोह वायु की भांति पूरे उपन्यास में फैली है। उसकी सहज उपस्थिति के प्रति सहसा ध्यान नहीं जाता किन्तु यह उपस्थिति वायु की ही भांति सर्वव्यापी है और कृति के आवश्यक प्राण तत्व का निर्माण करती है।उपन्यास में भारतीय नवजागरण की स्वयं के गौरवमयी अतीत से प्रेरणा प्राप्त करने की प्रवृत्ति भी देखी जा सकती है। आंचलिक भाषा के आंचलिक उपन्यासों में यदाकदा जैसी संकीर्ण क्षेत्रीयता देखने में आती है वैसी हीरू के कहिनी में कहीं भी दिखाई नहीं देती। अंचल के प्रति गौरव का भाव रखने वाला लेखक अंचल के साथ-साथ समस्त मानवजाति के कल्याण की भावना भी रखता है।
उपन्यास के नायक हीरु का चरित्र धीर वीर छत्तीसगढ़िया भाइयों की सारी विशेषताओं का समेकन है। रचना और प्रकाशन के इतने वर्ष बाद भी हीरू के कहिनी छत्तीसगढ़ और उसके निवासियों की कहानी बनी हुई है, चाहे शोषण हो, भूख- बेकारी -गरीबी हो,शिक्षा की दशा हो या पंचायती राज का सपना हो हीरू के कहिनी में चित्रित स्थितियों में कोई खास परिवर्तन नहीं आया है।वह उपन्यास जिसे अब तक ऐतिहासिक दस्तावेज बन जाना था अभी भी प्रासंगिक बना हुआ है क्योंकि इस में वर्णित दुखों और समस्याओं का अस्तित्व आज भी है। उपन्यासकार निश्चित ही इस स्थिति से पीड़ा महसूस करता।यद्यपि उपन्यास में मानव की मूल और शाश्वत भावनाओं का जितना सशक्त चित्रण हुआ है वह उसे कालजयी बनाने हेतु पर्याप्त है।
किसी भी पुस्तक के कलेवर में प्रारंभ में समर्पण, निवेदन और भूमिका जैसे पारंपरिक तत्वों का औपचारिक समावेश किया जाता है। यह पारंपरिक तत्व लेखक के वैयक्तिक संबंधों के निर्वाह और पुस्तक परिचय तक ही सीमित रहते हैं किंतु हीरू के कहिनी में ऐसा नहीं है। समर्पण, प्रत्येक छत्तीसगढ़ी रचनाकार के लिए आदर्श समर्पण सिद्ध हो सकता है। निवेदन छत्तीसगढ़िया गौरव और स्वाभिमान का प्रतिनिधि गीत बन सकता है। भूमिका जैसा ईश्वर शरण पांडेय ने कहा है इमर्सन के सेल्फ रिलायंस और अमेरिकन स्कॉलर की सहज ही याद दिला देती है। उपन्यास के दो अंश- हीरू द्वारा जनता को सुनाई गई कहानी( जिसे हम आचार्य हेमचंद्र के काव्य अनुशासन के अष्टम अध्याय में वर्णित उपाख्यान की श्रेणी में रख सकते हैं ) एवं राजा का प्रजा को उद्बोधन शासक और शासित के अधिकारों और कर्तव्यों से संबंधित शाश्वत राजनीतिक प्रश्नों को उठाते हैं और उनका सार्थक राजनीतिक हल प्रदान करने की चेष्टा भी करते हैं।
हीरू के कहिनी छत्तीसगढ़िया सबसे बढ़िया की उक्ति को चरितार्थ करती छत्तीसगढ़ी स्वाभिमान की महानतम गौरव गाथा के रूप में स्मरण की जाती रहेगी एवं इसकी प्रासंगिकता सदैव बनी रहेगी।
डॉ राजू पाण्डेय
रायगढ़ छत्तीसगढ़
संपर्क 9826406528
8871206528
ई मेल
ब्लॉग एड्रेस gahanvishleshan.blogspot.in
ब्लॉग नेम विश्लेषण

छत्तीसगढ़ी की प्रथम कहानी कौन सी है?

प्रथम छत्तीसगढ़ी कहानी "सुरही गइया" है, इसके कहानीकार पं. सीताराम मिश्र हैं। प्रथम छत्तीसगढ़ी प्रबन्ध कव्य ग्रन्थ छत्तीसगढ़ दानलीला है, इसके रचनाकार पं. सुन्दरलाल शर्मा हैं।

छत्तीसगढ़ी के प्रथम कवि कौन थे?

✎... छत्तीसगढ़ी कविता के प्रथम रचनाकार पंडित सुंदरलाल शर्मा हैं। पंडित सुंदरलाल शर्मा का जन्म छत्तीसगढ़ में महानदी के तट पर स्थित चित्रोत्पला के ग्राम चमसूर में हुआ था। उनका जन्म 21 जनवरी से 1881 ईस्वी को तथा मृत्यु 28 दिसंबर 1940 ईस्वी को हुई थी।

छत्तीसगढ़ की पहली महिला मंत्री कौन थी?

उत्तर-छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण उपरान्त राज्य की प्रथम महिला मंत्री श्रीमती गीता देवी सिंह थी

प्राचीन छत्तीसगढ़ किसकी रचना है?

श्री प्यारेलाल गुप्त अपनी पुस्तक " प्राचीन छत्तीसगढ़" में बड़े ही रोचकता से लिखते है - " छत्तीसगढ़ी भाषा अर्धमागधी की दुहिता एवं अवधी की सहोदरा है " (पृ २१ प्रकाशक रविशंकर विश्वविद्यालय, १९७३)।