भीष्म पितामह बाणों की शैया पर कितने दिन रहे? - bheeshm pitaamah baanon kee shaiya par kitane din rahe?

शरशय्या पर लेटने के बाद भी भीष्म प्राण क्यों नहीं त्यागते हैं, जबकि उनका पूरा शरीर तीर से छलनी हो जाता है फिर भी वे इच्छामृत्यु के कारण मृत्यु को प्राप्त नहीं होते हैं। भीष्म यह भलीभांति जानते थे कि सूर्य के उत्तरायण होने पर प्राण त्यागने पर आत्मा को सद्गति मिलती है और वे पुन: अपने लोक जाकर मुक्त हो जाएंगे इसीलिए वे सूर्य के उत्तरायण होने का इंतजार करते हैं।


भीष्म ने बताया कि वे सूर्य के उत्तरायण होने पर ही शरीर छोड़ेंगे, क्योंकि उन्हें अपने पिता शांतनु से इच्छामृत्यु का वर प्राप्त है और वे तब तक शरीर नहीं छोड़ सकते जब तक कि वे चाहें। ऐसे भी कहा जाता है कि भीष्म को ठीक करने के लिए शल्य चिकित्सक लाए जाते हैं, लेकिन वे उनको लौटा देते हैं और कहते हैं कि अब तो मेरा अंतिम समय आ गया है। यह सब व्यर्थ है। शरशय्या ही मेरी चिता है। अब मैं तो बस सूर्य के उत्तरायण होने का इंतजार कर रहा हूं। पितामह की ये बातें सुनकर राजागण और उनके सभी बंधु-बांधव उनको प्रणाम और प्रदक्षिणा कर-करके अपनी-अपनी छावनियों में लौट जाते हैं।

भीष्म यद्यपि शरशय्या पर पड़े हुए थे फिर भी उन्होंने श्रीकृष्ण के कहने से युद्ध के बाद युधिष्ठिर का शोक दूर करने के लिए राजधर्म, मोक्षधर्म और आपद्धर्म आदि का मूल्यवान उपदेश बड़े विस्तार के साथ दिया। इस उपदेश को सुनने से युधिष्ठिर के मन से ग्लानि और पश्‍चाताप दूर हो जाता है।

बाद में सूर्य के उत्तरायण होने पर युधिष्ठिर आदि सगे-संबंधी, पुरोहित और अन्यान्य लोग भीष्म के पास पहुंचते हैं। उन सबसे पितामह ने कहा कि इस शरशय्या पर मुझे 58 दिन हो गए हैं। मेरे भाग्य से माघ महीने का शुक्ल पक्ष आ गया। अब मैं शरीर त्यागना चाहता हूं। इसके पश्चात उन्होंने सब लोगों से प्रेमपूर्वक विदा मांगकर शरीर त्याग दिया। सभी लोग भीष्म को याद कर रोने लगे। युधिष्ठिर तथा पांडवों ने पितामह के शरविद्ध शव को चंदन की चिता पर रखा तथा दाह-संस्कार किया।

भीष्म सामान्य व्यक्ति नहीं थे। वे मनुष्य रूप में देवता वसु थे। उन्होंने ब्रह्मचर्य का कड़ा पालन करके योग विद्या द्वारा अपने शरीर को पुष्य कर लिया था। दूसरा उनको इच्छामृत्यु का वरदान भी प्राप्त था।

इस युद्ध के समय अर्जुन 55 वर्ष, कृष्ण 83 वर्ष और भीष्म 150 वर्ष के थे। हालांकि कुछ जगहों पर उनकी उम्र 128 वर्ष बताई गई है। उस काल में 200 वर्ष की उम्र होना सामान्य बात थी। बौद्धों के काल तक भी भारतीयों की सामान्य उम्र 150 वर्ष हुआ करती थी। इसमें शुद्ध वायु, वातावरण और योग-ध्यान का बड़ा योगदान था। भीष्म जब युवा थे तब कृष्ण और अर्जुन हुए भी नहीं थे।

माना जाता है कि भीष्म ही युद्ध में सबसे अधिक उम्र के थे। उन्हें राजनीति का ज्यादा अनुभव होने के कारण वेदव्यास ने संपूर्ण महाभारत में भीष्म को राजनीति का केंद्र बनाकर राजनीति के बारे में उन्होंने जो भी कहा, उसका प्राथमिकता से उल्लेख किया।

1.भीष्म पितामह को इच्छा मृत्यु का वरदान प्राप्त था इसलिए उन्होने स्वंय ही अपने प्राणों का सूर्य उत्तरायण यानी कि मकर संक्राति के दिन त्याग किया।

2.जिस समय महाभारत का युद्ध चला कहते हैं उस समय अर्जुन की उम्र 55 वर्ष, भगवान कृष्ण की उम्र 83 वर्ष और भीष्म पितामह की उम्र 150 वर्ष के लगभग थी।

3.भीष्म पितामह को इच्छा मृत्यु का वरदान स्वयं उनके पिता राजा शांतनु द्वारा दिया गया था क्योंकि अपने पिता की इच्छा को पूरा करने के लिए भीष्म पितामह ने अखंड ब्रह्मचार्य की प्रतिज्ञा ली थी।

4.कहते हैं कि भीष्म पितामह के पिता राजा शांतनु एक कन्या से विवाह करना चाहते थे जिसका नाम सत्यवती था। लेकिन सत्यवती के पिता ने राजा शांतनु से अपनी पुत्री का विवाह तभी करने की शर्त रखी जब सत्यवती के गर्भ से उत्पन्न शिशु को ही वे अपने राज्य का उत्तराधिकारी घोषित करेंगे।

5.राजा शांतनु इस बात को स्वीकार नहीं कर सकते थे क्योंकि उन्होने तो पहले ही भीष्म पितामह को उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था।

6.सत्यवती के पिता की बात को अस्वीकार करने के बाद राजा शांतनु सत्यवती के वियोग में रहने लगे। भीष्म पितामह को अपने पिता की चिंता की जानकारी हुई तो उन्होने तुरंत अजीवन अविवाहित रहने की प्रतिज्ञा ली।

7.भीष्म पितामह ने सत्यवती के पिता से उनका हाथ राजा शांतनु को देने को कहा और स्वयं के अाजीवन अविवहित रहने का बात कही जिससे उनकी कोई संतान राज्य पर अपना हक ना जता सके।

8.इसके बाद भीष्म पितामह ने सत्यवती को अपने पिता राजा शांतनु को सौंपा। राजा शांतनु अपने पुत्र की पितृभक्ति से प्रसन्न हुए और उन्हे इच्छा मृत्यु का वरदान दिया।

9.धार्मिक मान्यताओं के हिसाब से कहा जाता है कि भीष्म पितामह ने सूर्य उत्तरायण यानी कि मकर संक्राति के दिन 58 दिनों तक बाणों की शैया पर रहने के बाद अपने वरदान स्वरूप इच्छा मृत्यु प्राप्त की ।

10.सूर्य उत्तरायण के दिन मृत्यु को प्राप्त होने से व्यक्ति को मोक्ष की प्राप्ति होती है और इस दिन भगवान की पूजा का विशेष महत्व है।

स्टोरी हाइलाइट्स

  • भीष्म पितामह को पिता से मिला था इच्छा मृत्यु का वरदान
  • महाभारत के बाद भीष्म पितामह ने त्यागी थी अपनी देह

Bhishma Ashtami 2022: महाभारत के युद्ध के बारे में तो जानते ही होंगे. कौरव और पांडवों के बीच कुरुक्षे‍त्र में हुआ ये युद्ध 18 दिनों तक चला था. इस युद्ध में पहले 10 दिनों तक कौरवों की ओर से भीष्म पितामह सेनापति थे.10वें दिन अर्जुन ने शिखंडी को ढाल बनाकर भीष्म पर तीरों की वर्षा कर दी. अर्जुन के तीरों से छलनी भीष्म पितामह बाणों की शय्या पर आ गए. लेकिन भीष्म पितामह की मृत्यु नहीं हुई, क्योंकि उन्हें इच्छा मृत्यु का वरदान प्राप्त था. अपनी देह का त्याग करने के लिए भीष्म पितामह ने उत्तरायण का इंतजार किया था. माघ माह की अष्टमी के दिन उन्होंने अपनी देह का त्याग किया था. इस बार भीष्म अष्टमी 8 फरवरी दिन मंगलवार को है. आइये जानते हैं भीष्म पितामह को कैसे मिला था इच्छा मृत्यु का वरदान ?    

ये है कथा... 

भीष्म पितामह के बचपन का नाम था देव व्रत 
पौराणिक कथा के अनुसार भीष्म पितामह राजा शांतनु और देवी गंगा के पुत्र थे. उनके जन्म के बाद देवी गंगा ने उन्हें देव व्रत नाम दिया गया था. देव व्रत ने महर्षि पशुराम से शास्त्र विद्या प्राप्त की, जिसके बाद देवी गंगा देव व्रत के उनके पिता राजा शांतनु के पास ले गईं थीं. राजा शांतनु ने देव व्रत को हस्तिनापुर का राजकुमार घोषित कर दिया. कुछ दिन गुजरने के बाद राजा शांतनु को सत्यवती नाम की एक एक स्त्री से प्यार हो गया और उन्होंने उनसे विवाह करने का मन बना लिया, लेकिन सत्यवती के पिता ने राजा शांतनु से विवाह करने के लिए एक शर्त रख दी. शर्त के मुताबिक राजा शांतनु और उनकी बेटी सत्यवती का पुत्र ही हस्तिनापुर का उत्तराधिकारी बनेगा तभी वह अपनी बेटी का हाथ राजा शांतनु के हाथ में देंगे. अपने पिता पर आए इस धर्म संकट को देखते हुए देव व्रत ने पिता के प्यार की खातिर अपना राज्य त्याग कर पूरे जीवन शादी ना करने का प्रण ले लिया था,और ऐसे भीष्म प्रण और प्रतिज्ञा के कारण ही देवव्रत का नाम भीष्म हो गया.

पिता ने दिया ये वरदान 
यह सब देखने के बाद राजा शांतनु अपने बेटे से प्रसन्न हुए और उनको इच्छा मृत्यु का वरदान दिया. वक्त के साथ-साथ हस्तिनापुर के उत्तराधिकारी बड़े हो गए. कौरवों और पांडवों के बीच युद्ध हुआ. महाभारत के इस युद्ध में भीष्म पितामह ने अपना कर्तव्य निभाते हुए कौरवों का साथ दिया. भीष्म पितामह ने पूरी निष्ठा के साथ युद्ध में कौरवों की तरफ से युद्ध किया. इस युद्ध में पहले 10 दिनों तक कौरवों की ओर से भीष्म पितामह सेनापति थे. 10वें दिन अर्जुन ने शिखंडी को ढाल बनाकर भीष्म पर तीरों की वर्षा कर दी. अर्जुन के तीरों से छलनी भीष्म पितामह बाणों की शय्या पर आ गए. हिन्दू मान्यता के मुताबिक जो भी जातक सूर्य उत्तरायण के दिन अपना शरीर छोड़ता है, उस जातक को मोक्ष मिलता है, इसी कारण से उत्तरायण के दिन भीष्म अष्टमी मनाई जाती है, ऐसी भी मान्यता है कि भीष्म अष्टमी के दिन पूजा-पाठ करने और कथा सुनने से व्यक्ति को संस्कारी संतान का सुख प्राप्त होता है. 

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भीष्म पितामह बाणों की शैया पर कितने दिन थे?

बाणों की शय्या पर ५८ दिन तक पड़े पड़े इन्होंने अनेक उपदेश दिए। अपनी तपस्या और त्याग के ही कारण ये अब तक भीष्म पितामह कहलाते हैं।

भीष्म पितामह को बाणों की शैया क्यों मिली?

पुराणों में बताया गया है कि महापुरुष होते हुए भी आखिर क्‍यों उन्‍हें इतनी यातनाएं सहनी पड़ी। यह सब उनके पूर्व जन्‍म के पाप का नतीजा था कि युद्ध में उनका शरीर बाणों से छलनी हो गया और उन्‍हें बाणों की शैय्या पर लेटकर अपना अंतिम वक्‍त गुजारना पड़ापितामह को इच्‍छा मृत्‍यु का वरदान प्राप्‍त था।

भीष्म पितामह जब बाणों की शैय्या पर लेटे थे तब द्रौपदी क्यों हंसने लगी थी?

इय असहनीय पीड़ा के बावजूद वह महाभारत का युद्ध अपनी आंखों से देखना चाहते थे। दिन में युद्द के बाद शाम को पितामह से मिलने सभी लोग आया करते थे। एक रोज जब द्रौपदी आई तो उन्हें देख जोर-जेर से हंसने लगी

भीष्म ने शरीर का त्याग कब किया?

माघ माह में शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि को भीष्म अष्टमी के रूप में मनाया जाता है। इस दिन पितामह भीष्म ने अपने शरीर का त्याग किया था। यह दिन उनका निर्वाण दिवस है। महाभारत का युद्ध समाप्त होने के बाद जब भगवान सूर्यदेव दक्षिणायन से उत्तरायण हुए तब पितामह भीष्म ने अपना शरीर त्यागा